Wednesday, November 3, 2010

इस शहर में कभी अवधेश और हरजीत रहते थे(३)

( लम्बे अन्तराल के बाद इस शृंखला की अगली कडी)


हरजीत और अवधेश की आवारगी में समानतायें तो थीं लेकिन कुछ फ़र्क भी था.आवारगी अगर एक जैसी हुई तो वह आवारगी क्या!यह तो उस हवा की तरह है जो दुनिया भर की खुश्बुएं लिये फिर रही है लेकिन कुछ खास लोग ही उन्हें पकड़ पाते हैं- जो वक्त की पाबन्दी से आजाद हों ,जगह की कैद से मुक्त हों और दुनिया की नजर से बेपरवाह हों. वे घर से बाहर होते हुए भी हर वक्त घर में रह्ते हैं गोया उनके घर की हदें हर कायनात के ओर छोर तक फैली होती हैं. हरजीत उस हवा में बह्ता तो था लिकिन उसके पांव हर वक्त जमीन में टीके होते. अवधेश की नाव तो हवा को ही पाल बना कर चल लेती थी-धरती की सतह उस संतरण के लिये एक बाधा थी.हरजीत ने कहा भी
वो अपनी तर्ज का मैकश , हम अपनी तर्ज के मैकश
हमारे जाम मिलते हैं मगर आदत नहीं मिलती
तो आवारगी भरे उन दिनों में देहरादून नाम का यह शहर इस खाकसार के पैरों तले भागा जाता था-आजू-बाजू अवधेश और हरजीत होते.कभी कभार जयपुर से घर आया हुआ चित्रकार दीपक शामिल हो जाता तो चौकडी सर्व-धर्म-समभाव सभा से लौटी मूर्तियों की तरह दिखायी देती.उन दिनों का कोई फोटो अगर कहीं हो तो बात आसानी से समझ जाये!मित्रों !बस इतना बूझ लीजिये कि हरजीत तो सरदार था ही ,अवधेश की सूरत ऐसी थी कि लगता हजरत अभी मन्दिर से घण्टी बजाकर चले आये हैं, दीपक किसी गोआनी गोंसाल्विस की मानिन्द दिखायी देता था और दर्द भोगपुरी खालिस मौलाना. प्रसंगवश एक बार का उल्लेख काफी होगा-वे शायद रमजान के दिन थे.हरजीत मेरे साथ था-सामने की टेबल से एक सज्जन मेरे पास चले आये.थोडा हिचकते हुए बोले,"भाई जान! एक बात कहें .आप घर पर पी लिया कीजिये. आपका यहां बैठना ठीक नहीं लगता."
तब शहर की दो हदें तय की गयीं-एक दक्षिणी गंगोत्री (क्लेमेन टाउन की तिब्बती कोलोनी) और दूसरी राजपुर के पास शहन शाहीआश्रम .शहर का फैलाव तब इसी तरह लगता था.अब जैसा चौतर्फा और भ्रामक शहर तो तब नहीं ही था.इधर आधारशिला मे गुरदीप खुराना जी पुराने देहरादून को बहुत ही कशिश के साथ संस्मरणात्मक आत्म कथा में याद कर रहे हैं.हम अक्सर उत्तर की हदें लांघ जाया करते थे. उन दिनों हरजीत ने तय किया कि वह कुछ दिन नौकरी करेगा .वह दस से पांच नौकरी करने वालों का मजाक बनाया करता था. उसने एक शे मे कहा भी है
हम अपना कारोबार करते हैं
किसी की चाकरी नहीं किया करते
उससे कहा गया या उसने खुद तय किया कि एक महिने वह द्स से पांच काम करके देखेगा. उसने एक फ़र्नीचर की फ़र्म मे कारीगर का काम बाकायदा एक महिने किया.फिर उसे कुछ दिन मसूरी में किसी सन्त(वह टीवी मे सन्तों के अवतरित होने से थोडा पह्अले का जमाना था)के आश्रम में लकडी का काम किया था. तो एक रोज हम तीनों राजपुर से मसूरी पहुंच गये . रात आश्रम में बितायी. अगली सुबह नहीं लौटे.दुपहर को शाम में खर्च कर दिया और रात अगली दुपहर तक खिंची चली आयी.दुपहर अभी शाम तक पहुंची ही थी कि अनायास शहर लौटने का खयाल गया. मसूरी से राजपुर तक पैदल लौटने का मन बना. तय हुआ कि राजपुर से आखिरी बस(रात नौ बजे) देहरादून के लिये पकड़ ली जायेगी.वे आती हुई सर्दियों के दिन थे.झडीपानी से शहन्शाही तक की ढलान बार-बार रुकने का आमन्त्रण देती और हमारी आवारगी को किसी भी झुरमुट के पास ठहरने में कोई हर्ज नहीं दिखायी पडता था.रात चली आयी थी.शहनशाही से थोडा पहले एक टापू है.मन हुआ जरा लीक से बेलीक हो उस टापू तक चढ़ जायें और हरजीत के इस शे को जी लें
नक्शे सा बिछ गया है हमारा नगर यहां
आंखें ये ढूंढती हैं कहीं अपना घर मिले
टापू से उतर कर जब शहनशाही से राजपुर की ढलान उतर रहे थे तो हमारी आंखों के सामने देहरादून की आखिरी बस की लाल रोशनी दूर होती हुई दिखायी पड़ रही थी.राजपुर से देहरादून नौ किलोमीटर से कम नहीं है.

Monday, November 1, 2010

लीलाधर जगूडी की दो कवितायें

( वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूडी की दो कवितायें १९७७ में प्रकशित संग्रह "बची हुई पृथ्वी" से दी जा रही हैं)




मौलिकता

जडें
वही हों

उसी तने पर
वे ही टहनियां हों

ज्याद अच्छे लगते हैं
तब
नये पत्ते

वरना नये पौधे में तो वे होते ही हैं


आऊंगा

नये अनाज की खुशबू का पुल पार करके
मैं तुम्हारे पास आऊंगा
ज्यों ही तुम मेरे शब्दों के पास आओगे

मैं तुम्हारे पास आऊंगा
जैसे बादल
पहाड़ की चोटी के पास आता है
और लिपट जाता है
जिसे वे ही देख पाते हैंजिनकी गरदनें उठी हुई हो>

मैं वहां तुम्हारे दिमाग में
जहां एक मरूस्थल है
आना चाहता हूं

मै आऊंगा
मगर उस तरह नहीं
बर्बर लोग जैसे कि पास आते हैं
उस तरह भी नहीं
गोली जैसे कि निशाने पर लगती है

मै आऊंगा
आऊंगा तो उस तरह
जैसे कि हारे हुए
थके हुए में दम आत है



Monday, October 11, 2010

कृष्ण पर लोहिया

हाल ही में अकार का ताजा अंक आया है.यह राम मनोहर लोहिया पर केन्द्रित है. इस अंक के प्रमुख आकर्षण हैं -लोहिया के प्रसिद्ध लेख और संसद में एक पैसा बनाम तीन पैसा पर दिया गया भाषण.यहां कृष्ण पर लोहिया के लेख का एक छोटा सा अंश प्रस्तुत किया जा रहा है . इस अंश को आप एक ललित निबन्ध की तरह पढ़ सकते हैं


सरयू और गंगा कर्तव्य की नदियां हैं. कर्तव्य कभी-कभी कठोर होकर अन्यायी हो जाता है और नुकसान कर बैठता है.जमुना और चंबल, केन तथा दूसरी जमुना-मुखी नदियां रस की नदियां हैं.रस में मिलन है, कलह मिटाता है.लेकिन आलस्य भी है, जो गिरावट में मनुष्य को निकम्मा बना देता है.इसी रस भरी इतराती जमुना के किनारे कृष्ण ने अपनी लीला की,लेकिन कुरू-धुरी का केन्द्र उसने गंगा के किनारे ही बसाया.बाद में हिन्दुस्तान के कुछ राज्य जमुना के किनारे बने और एक अब भी चल रहा है.जमुना क्या तुम कभी बदलोगी, आखिर गंगा में ही तो गिरती हो. क्या कभी इस भूमी पर रसमय कर्तव्य का उदय होगा. कृष्ण ! कौन जाने तुम थे या नहीं . कैसे तुमने राधा- लीला को कुरू -लीला से निभाया.लोग कहते हैं कि युवा कृष्ण का प्रौढ़ कृष्ण से कोई संबंध नहीं. बताते हैं कि महाभारत में राधा नाम तक नहीं . बात इतनी सच नहीं, क्योंकि शिशुपाल ने क्रोध में कृष्ण की पुरानी बातें साधारण तौर पर बिना नामकरण के बतायी हैं . सभ्य लोग ऐसे जिक्र असमय नहीं किया करते हैं, जो मझते हैं वे , और जो नहीं समझते वे भी.. महाभारत में राधा का जिक्र हो कैसे सकता है.राधा काक वर्णन तो वहीं होगा जहां तीन लोक का स्वामी उसका दास है. राम का कृष्ण और गीता का कृष्ण एक है. नजाने हजार वर्षों से अभी तक पलडा इधर या उधर क्यों भारी हो जाता है? बताओ कृष्ण !
-१९५५,जुलाई; जन से

Tuesday, October 5, 2010

भरोसे के सूत्र आंकड़ों में नहीं पनपते




5 -6 अगस्त की रात जिस अबूझ विभीषिका ने लदाख के लेह नगर के लोगों को अपने खूनी बाहुपाश में जकड़ लिया था   उसकी  जितनी भी तस्वीरें देख ली जाएँ ,वास्तविक नुक्सान का अंदाजा लगाना मुश्किल होगा.लेह भारत का क्षेत्रफल के हिसाब से सबसे बड़ा जिला है पर इसमें आबादी का घनत्व मात्र 3  व्यक्ति प्रति वर्ग किलो मीटर है,इसलिए ढाई सौ के आस पास बताई जाने वाली मौतें  देश के प्रचलित मानदण्डों के अनुसार बहुत भयानक नहीं मानी जायेंगी...हांलाकि 300 लोग दुर्घटना के महीने भर  बीतने के बाद भी लापता बताये जा रहे हैं.पैंतीस के लगभग गाँव इसकी चपेट में आ के नक्शे से लगभग लुप्त ही हो गए....मीलों लम्बी सड़कें,दर्जनों पुल और सैकड़ों खेत बगीचे इसकी विकराल धारा के हवाले हो गए,वो भी देश के उस हिस्से में जहाँ सड़कें और पुल सुरक्षा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील माने जाते हैं.अपनी पहचान उजागर न करने की शर्त पर सीमा सड़क संगठन के एक अधिकारी ने बताया कि अकेले लद्दाख के इलाके में ढाई से तीन सौ करोड़ तक की सड़के ध्वस्त हो गयी हैं। अब भी सड़कों के दोनों किनारे मलबे की ऊँची लाइनें देखी जा सकती हैं--उनके अन्दर से झांकते कपडे लत्ते और घर के साजो सामान साफ़ साफ़ दिखाई देते हैं.कभी कभार इनके अन्दर से लाशें अब भी निकल आती हैं. लोगों से बात करने पर मालूम हुआ कि मरने वाले अधिकतर लोग या तो सोते हुए मारे गए, या फिर बदहवासी में घर से निकलकर भागते हुए। बाजार में अनेक दुकानें  ऐसी हैं जो हादसे के बाद से अब तक खुली ही नहीं हैं...जाने इन्हें हर रोज झाड पोंछ कर खोलने वाले हाथ जीवित बचे भी हैं या नहीं?
 -यादवेन्द्र

 

विज्ञान की भाषा में जब हम बादल फटने की बात करते हैं तो इसका साफ़ साफ़ ये अर्थ होता है कि  बहुत छोटी अवधि में एक क्षेत्र  विशेष में (20 से 30 वर्ग किलोमीटर से ज्यादा नहीं)अ  साधारण  तीव्रता के साथ -- एक घंटे में 100 मिलीमीटर या उससे भी ज्यादा-- बरसात हुई.भारत सरकार ने हांलाकि बादल फटने के लिए आधिकारिक तौर पर कोई मानक तय नहीं किया है पर मौसम विभाग अपनी वेबसाईट पर ऊपर बताई परिभाषा का ही हवाला देता है.अब पूरे मामले के कारणों की बात करते समय यदि हम 5-6 अगस्त की रात को लेह में हुई बरसात के आधिकारिक आंकड़ों की बात करेंगे तो मौसम विभाग ( लेह नगर में उनकी वेधशाला मौजूद  है) चुप्पी साध लेता है.नगर के दूसरे हिस्से में स्थित भारतीय वायु सेना के वर्षामापी यन्त्र का हवाला देते हुए मौसम विभाग जो आंकड़ा प्रस्तुत करता है वो इतना काम है कि बादल फटने की घटना पर संदेह होने लगता है-- पूरे 24  घंटे में 12.8  मिली मीटर बरसात,बस.वाल स्ट्रीट जर्नल  ने इस पर विस्तार से लिखा है कि तमाम जद्दोजहद के बाद भी उस काली रात में हुई बरसात का कोई आंकड़ा कहीं से नहीं मिल सका.यहाँ ये ध्यान देने की  बात है कि पिछले कई सालों से अगस्त माह का  बरसात का औसत मात्र ... है.दबी जुबान से अनेक लोगों ने ये कहने की कोशिश की कि यह विभीषिका कोई प्राकृतिक घटना नहीं थी,बल्कि चीन के मौसम बदलने वाले प्रयोग का एक नमूना
 थी.कोई भरोसेमंद सूत्र भले ही ऐसा कहने के लिए सामने न हो,पर इसको यूँ ही खारिज  नहीं किया जा सकता  क्योंकि हाल में ही ब्रिटिश वायु सेना के कृत्रिम बारिश कर के दुश्मन को तबाह कर देने के एक प्रयोग से  सैकड़ों लोगों की जान जाने की एक घटना का खुलासा हुआ है-- विनाश के स्थान  से 40 -50 किलो मीटर दूर ये प्रयोग कोई पचास साल पहले किया गया था और देश की रक्षा का हवाला दे कर इसमें गोपनीयता बरती गयी थी.कुछ साल पहने द गार्डियन ने इसका खुलासा किया है.   
 
  भूगोल की किताबों में लदाख को सहारा जैसा रेगिस्तान बताया जाता है,फर्क बस इतना है कि यहाँ का मौसम साल के ज्यादातर दिनों में  भयंकर सर्द बना रहता है.मनाली या श्रीनगर चाहे जिस रास्ते से भी आप लेह तक आयें,रास्ते में नंगे पहाड़ और मीलों दूर तक फैले सपाट रेगिस्तान  दिखेंगे... हरियाली को जैसे सचमुच कोई हर ले गया हो.दशकों पहले रेगिस्तान को हरा भरा बनाने को जो नुस्खा पूरी दुनिया में अपनाया जाता रहा है-- पेड़ पौधे रोपने का -- वो नुस्खा लदाख में भी आजमाया गया और लदाखी जनता को वृक्ष रोपने के लिए प्रोत्साहित करने के वास्ते नगद इनाम देने की योजना राज्य सरकार ने शुरू की.साथ साथ लेह में स्थापित रक्षा प्रयोगशाला ने भी बड़े पैमाने पर इस बंजर इलाके को हरियाली से पाट  देने का अभियान शुरू किया.आज वहां दूर दूर तक हरियाली के द्वीप दिखाई देने लगे है.रक्षा प्रयोगशाला दावा करती है की लेह में उनके प्रयासों से हवा में आक्सिजन की उपलब्धता 50 %  तक बढ़ गयी है और इस क्षेत्र की सब्जी की करीब साठ फीसदी आपूर्ति   उनके प्रयासों से स्थानीय स्तर पर पूरी की जा रही है.सब्जी की करीब 80 नयी और सेब की लगभग 15  नयी  प्रजातियाँ इस समय वहां उगाई जा रही हैं.पिछले सालों में जहाँ इस क्षेत्र में हरियाली  की चादर बढ़ी है वहीँ वर्षा की मात्रा भी निरंतर बढती गयी है.हांलाकि  सरकार के दस्तावेज अब भी लदाख क्षेत्र में हरियाली से ढका हुआ क्षेत्र महज 0 .1 % ही  दर्शाते हैं और वैज्ञानिकों का बड़ा वर्ग मानता है कि हरियाली को  मौसम प्रभावित  करने के लिए कम से कम अपना दायरा 30 %  तक बढ़ाना पड़ेगा-- पर इस बार की अ प्रत्याशित त्रासदी ने ऐसे लोगों का एक वर्ग तो खड़ा कर ही दिया है जो लदाख के सर्द रेगिस्तान को हरा भरा करने के अभियान को शंका की दृष्टि से देखता  है और अत्यधिक बरसात से बाढ़  जैसी स्थिति पैदा करने के लिए हरियाली को ही दोषी मानता  है.दबी जुबान से लेह  के एक सम्मानित धर्मंगुरु  जो राज्य सभा के सदस्य भी रहे हैं,ने  भी विभीषिका के लिए इसको ही दोष देने की कोशिश की.लेह में लोगों से बात करने पर कई लोगों ने ये भी कहा कि दलाई लामा भी पिछले कई सालों से अपने उद्बोधनों में लदाख में हरियाली की संस्कृति को रोकने की अपील करते आ  रहे हैं.त्रासदी के दिनों के उपग्रह चित्रों को देखने से मालूम होता है कि कैसे देश के सुदूर दक्षिण पश्चिम सागर तट से काले मेघ पूरा देश पार करके उत्तरी सीमाओं तक पहुँच गए.यह एक अजूबी घटना है और अब मौसम वैज्ञानिकों ने इसका विस्तृत अध्ययन करने की घोषणा की है.
 
  अचानक आई इस बाढ़ से हुए नुकसानों के बचे हुए अवशेष ये बताते हैं कि ध्वस्त होने वाले घरों कि बनावट में कोई कमी रही हो ऐसा नहीं है -- लेह बाजार के पास अच्छी सामग्री और डिज़ाइन से बने  टेलीफोन  एक्सचेंज और बस अड्डे में जिस तरह का नुक्सान अब भी दिखाई देता है,ये इस बात का सबूत  है कि मलबे की विकराल गति ने नए और पुराने या मिट्टी या कंक्रीट से बने घरों के बीच कोई भेदभाव नहीं किया.यूँ साल में तीन सौ से ज्यादा धूप वाले दिनों के अभ्यस्त लोग  लदाख क्षेत्र में पारंपरिक ढंग से मकान मिट्टी की बिन पकाई इंटों से बनाते हैं, नींव भले ही पत्थरों को जोड़ कर बना दिया जाए.इलाके की सर्दी को देखते हुए दीवारें मोटी बनायीं जाती हैं और मिट्टी बाहर की सर्दी को इसमें आसानी से प्रवेश नहीं करने देता.छत सपाट और स्थानीय लकड़ियों, घास और मिट्टी की परतों से बनायीं जाती हैं.अब कई भवन टिन की झुकी हुई छतों से लैस दिखाई  देते हैं पर स्थानीय लोग इनको सरकार के दुराग्रह और दिल्ली और चंडीगढ़ में बैठे वास्तुकारों की ढिठाई का प्रतीक मानते हैं.हाँ, चुन चुन कर पत्थर की ऊँची पहाड़ियों के ऊपर किले की तरह बनाये गए किसी बौद्ध मठ को कोई क्षति नहीं हुई.जब साल दर साल बढ़ रही  बरसात के सन्दर्भ में लोगों से बात की गयी तो छतों के ऊपर किसी ऐसी परत(जैसे तिरपाल) को मिट्टी की परत के अन्दर बिछाने की जरुरत महसूस की गयी जिस से बरसात का पानी अन्दर न प्रवेश कर पाए.हमें लेह में ढूंढने  पर भी स्थानीय स्तर पर कम करने वाले वास्तुकार नहीं मिले,जिनसे और गहन विचार विमर्श किया जा सकता.
 
अब भी मलबे हटाने का कम चल रहा है पर सबसे अचरज वाली बात ये लगी कि इनमें स्थानीय जनता की कोई भागीदारी नहीं है...विभीषिका की काली रात में तो सेना के जवान अपनी बैरकों  से निकल कर आ गए,बाद में सीमा सड़क संगठन के लोग खूब मुस्तैदी से ये काम कर रहे हैं-- बिछुड़े हुए परिजनों और खोये हुए सामान को दूर से निहायत निरपेक्ष भाव से लोग खड़े खड़े निहारते दिखते हैं,पर पास आकर न तो कोई हाथ लगाता दिखता है और न ही बिछुड़ी हुई   वस्तुओं को प्राप्त कर लेने का कुतूहल किसी के चेहरे पर दिखाई देता है.लोगों से बार बार इसका कारण पूछने पर लोगों ने बौद्ध जीवन शैली में जीवन और मृत्यु की अवधारणा के गहरे रूप में दैनिक क्रिया कलाप और व्यवहार में  लोगों के अन्दर तक समा जाने की ओर इशारा किया.                           



-यादवेन्द्र