Friday, February 25, 2011



 1964 में काहिरा में जनमी फातिमा नउत (
Fatima Naut) मिस्र की आधुनिक पीढ़ी की लोकप्रिय कवि हैं.पेशे से वे प्रशिक्षित वास्तुकार हैं और साहित्य रचना के साथ साथ अपना पेशेगत काम भी करती हैं.उनकी अपनी कविताओं के संकलन के अलावा समालोचना और विश्व की अन्य भाषाओँ से अनूदित रचनाओं की करीब एक दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं.अंग्रेजी और चीनी के अतिरिक्त कई विदेशी भाषाओँ में उनकी कविताओं के अनुवाद हुए हैं.एक अनियत कालीन साहित्यिक पत्रिका का संपादन भी करती हैं.
जब मैं देवी बनूँगी
                                                         -- फातिमा नउत

मैं उतार डालूंगी दुनिया के फटे पुराने बदरंग कपड़े
झाड़पोंछ करुँगी नक़्शे का
और इतिहास की पांडुलिपियाँ उठा कर फेंक दूँगी कूड़ेदान में
साथ में अक्षांश और देशांतर की रेखाएं
और देशों को बाँटने वाली सीमारेखाएं भी
पर्वत झरने
और सोना,पेट्रोल,जलवायु और बादल..सब कुछ...
इन सबको मैं फिर से न्यायोचित ढंग से वितरित करुँगी
मैं पंखों से बने अपने झाड़न को हौले हौले
फिराउंगी अस्त व्यस्त थके चेहरों के ऊपर
जिससे सफ़ेद,साँवले और पीले पड़े हुए चेहरे
पिघल कर खुबानी के रंग के निखर जाएँ.
मैं देसी बोलियों से बीन बीन कर
एकत्र करुँगी भाषाएँ और कहावतें
और इनको अपनी कटोरी में रख के पिघला दूँगी
जिस से निर्मित कर सकूँ श्वेत धवल एक अदद शब्दकोश
प्रेत छायाओं और क्रोधपूर्ण शब्दों से जो होगा पूर्णतया मुक्त.

अपने राज सिंहासन पर बैठने से पहले
मैं हिलाडुला कर ठीक करुँगी सूरज की दिशा
साथ साथ भूमध्य रेखा को भी खिसकाउंगी
वर्षा तंत्र को भी संगत और दुरुस्त करुँगी.
ये सब कर के जब मैं काटूँगी फीता
तो मेरे तमाम भक्त करतल ध्वनि से स्वागत करेंगे
स्पार्टकस, गोर्की, गुएवारा भी...

ख़ुशी से झूमते हुए मैं हकलाती हुई घोषणा करुँगी :
अब से सृष्टि के वास्तुशिल्प का काम मेरा है
तीसरा विश्व युद्ध शुरू हो इस से पहले
मुझे पलभर को पीछे मुड़ कर देखना होगा धरती पर
और दुनिया को वापिस उस ढब से ही सजाना धजाना होगा
जैसे हुआ करती थी कभी ये पहले.

यह अनुवाद मूलतः अरबी भाषा में लिखी इस कविता के अंग्रेजी अनुवाद: कीस निजलांद, पर आधारित है
प्रस्तुति:  यादवेन्द्र  

Sunday, February 20, 2011

यह कल्पनालोक नहीं

सृजन के संकट की कहानियां


लंबे समय बाद सुरेश उनियाल का नया कहानी संग्रह आया है। संग्रह में 'क्या सोचने लगे आदित्य सहगल" सहित कुल 13 कहानियां तथा 15 छोटी कहानियां हैं। ये कहानियां सुरेश उनियाल की कथायात्रा में एक नए मोड़ से परिचित कराती हैं। इनमें सुरेश की मूल प्रवृत्ति फैंटेसी ने बोध-कथा के साथ मिलकर एक नई शक्ल अख्तियार की है।
पिछले संग्रहों - विशेषकर 'यह कल्पनालोक नहीं" - में कल्पनाशीलता ठोस तार्किकता की जमीन पर खड़ी होकर विज्ञान कथाओं की शक्ल में सामने आई है। यहां यह कल्पनाशीलता मनुष्य के अस्तित्व और मानवीयता की पड़ताल करती दिखाई पड़ती है। संग्रह की शीर्षक कहानी  "क्या सोचने लगे आदित्य सहगल" इस बात को पुष्ट करती है। आदित्य सहगल कल्पनाशील बुद्धिजीवी है जो दिल के ऊपर दिमाग को तरजीह देता है। एक रोज वह इस प्रद्गन से दो-चार होता है कि यदि मनुष्यों के मस्तिष्क की रेटिंग की जाए तो कैसा रहे।
''अगर एक व्यक्ति से एक मिनट की मुलाकात हो तो पांच अरब ब्यक्तियों से एक-एक बार मिलने में ही नौ हज़ार पांच सौ तेरह वर्ष लग जाएंगे।" इस तरह के गणित से गुजरते हुए आदित्य सहगल अंतत: इस नतीजे पर पहुंचता है कि ''यह रेटिंग अगर जरूरी है तो दिमाग की जगह अपनत्व की डिग्री की रेटिंग होनी चाहिए।" यह कहानी किसी प्रचलित रूप में कहीं से भी कहानी नहीं लगती। एक शांत जिरह, खुद से उलझते कुछ सवालों को सुलझाने का सिलसिला और एक सहज बातचीत।।। जैसे आप किसी टी हाउस में कुछ बहस कर रहे हैं और फिर एक खूबसूरत फैसले पर पहुंचते हैं कि ''अगर दिमाग का काम दिल को धड़काना न होता तो दिमाग को निकलवा फेंकना ही बेहतर होता।"
सृजनशील व्यक्तित्व कभी न कभी रचनात्मकता के संकट से टकराते जरूर हैं। फेलिनी की फिल्म "एट एंड हाफ" तो सृजनात्मकता के संकट से टकराने की संभवत: श्रेष्ठतम प्रस्तुति है। सुरेश उनियाल के इस कहानी संग्रह की बहुत सी कहानियां इस प्रद्गन से टकराती दिखलाई पड़ती हैं। "कहानी की खोज में लेखक" और ''भागे हुए नायक से एक संवाद" ऐसी ही कहानियां हैं। कहानी से उसका नायक गायब हो जाता है। वह लेखक से जिरह करता है कि ''जिस तरह से मैं बोलता हूं, उस तरह से तू लिख।"" लेखक नहीं मानता, कहानी पूरी नहीं होती। फेंटेसी सुरेश की कहानियों का मूलतव है और अपने से पूर्व तथा बाद की तमाम पीढ़ियों के लेखको से अलग वह अभी तक  फेंटैसी को साथ लिये चल रहे हैं। उनसे पहले और उनके बाद की पीढ़ियों ने फेंटेसी का थोड़ा-बहुत इस्तेमाल किया और छोड़ दिया। सुरेश फेंटेसी के विभिन्न स्वरूपों से प्रयोग करने में नहीं हिचकते। यह वैसा ही है जैसे कोई कलाकार किसी खास माध्यम की विभिन्न संरचनाओं में ताउम्र डूबा रहता है। लेकिन सुरेश संरचनावादी भी नहीं हैं। कलावादी तो खैर कहीं से भी नहीं हैं।
वे बहुत साधारण तरीके से कहानी कहते हैं। लगभग बतकही के अंदाज में। भाषा की जादूगरी से भरसक बचने की कोशिश करते हुए और संवादों की नाटकीयता को एकदम खारिज करते हुए।
इस सादेपन में एक तरफ तो वह 'खोह" जैसा असाधारण दार्शनिक आख्यान रच सके हैं और दूसरी तरफ 'उसके हाथ की रेखाएं" जैसा अद्भुत बोर्खेज़ियन गल्प साध सके हैं। इन दो कहानियां पर खास तौर से बात की जानी चाहिए।
'खोह" मूलत: एक फेंटैसी है जो किसी खोह के रास्ते गुम हो चुके पिता की तलाद्गा में निकले पुत्र के यात्रा वृतांत की शक्ल में कही गई है। जॉन हिल्टन की 'लॉस्ट होराइज़न" और हेनरी राइडर हैगार्ड की 'शी" जैसी अति स्मरणीय रचनाओं की याद दिलाती 'खोह" ठेठ भारतीय संदर्भों में कही गई जीवन और मृत्यु के शाश्वत द्वंद्व की कथा है। पिता जिस स्थान पर है, वहां पुत्र एक लामा के सहयोग से मार्ग खोजकर पहुंचता है और विस्मित होता है कि वह स्वर्ग में पहुंच गया है। स्वर्ग मरने के बाद नहीं मिलता बल्कि वह जैविक क्षरण को रोकने की विशुद्ध पर्यावरणीय युक्ति है जहां शरीर की मरती और पैदा होती कोशिकाओं का संतुलन बना हुआ है। वहां भोग है किंतु जन्म नहीं है। जन्म नहीं है इसलिए पर्यावरण को बिगाड़ने का उपक्रम भी नहीं है।
'' यहां जनसंख्या न घटती है और न बढ़ती है। यहां न मौत होती है और न जन्म। यहां जो लोग हैं, हमेशा से वहीं थे और हमेशा वही रहेंगे। कभी कभी सदियों में हम-तुम जैसे एक-दो लोग आते हैं तो कोई फर्क नहीं पड़ता।"
'रोज वही-वही लोग, वही-वही शक्लें, वही-वही जगहें, एक जैसी दिनचर्या, मुझे तो कल्पना से ही ऊब होने लगी थी।"
'ऊब क्यों होगी? यही तो जिंदगी है। यहां हम जिंदगी को पूरी तरह से जीते है। इसी सुख की कल्पना तो तुम लोग अपने लोक में करते हो।"
मेरे मुंह से निकल गया, 'नहीं, यह जिंदगी नहीं, मौत है।"
"उसके हाथ की रेखाएं" एक अलग दुनिया में ले जाती हैं। यहां एक ऐसे पात्र से साक्षात्कार होता है जो लोगों के हाथ की रेखाएं गायब कर देता है। यह काफ्काई  खोज नहीं है बल्कि एक सहज प्रेक्षण है कि कहानी का नायक एक रोज पाता है कि उसके हाथ की एक रेखा गायब हो गई है। फिर दफ्तर के चपरासी की मदद से एक ऐसे आदमी के पास पहुंचता है जो हाथ की रेखाएं ठीक किया करता है।
अकसर साहित्यिक बातचीत में एक बात का जिक्र बड़े अफसोस के साथ किया जाता है कि हिंदी में कोई बोर्खेज़ जैसा लेखक नहीं है। बोर्खेज़ तो सदियों के अंतराल में कभी कहीं हो जाते हैं लेकिन उनकी कहानियों का जो प्रभाव है, इस तरह का प्रभाव देखना हो तो यह कहानी जरूर पढ़नी चाहिए।
'किताब" को विज्ञान कथाओं की श्रेणी में रखा जा सकता है। मुझे याद है कि मैंने जब 'यह कल्पनालोक नहीं" पढ़ा था तो मुझे यह बात खटकी थी कि संग्रह में सिर्फ तीन ही विज्ञान कथाएं थीं। इस संग्रह में मात्र एक है। शायद किसी लेखक से यह पूछना उचित नहीं होगा कि अमुक किस्म की रचना क्यों नहीं की और अमुक किस्म की रचना ही क्यों की!
हालांकि इस संग्रह की काफी कहानियों में विज्ञान कथाओं के दोनों तव - कल्पनाशीलता और घ्ानघ्ाोर तार्किकता - पूरी तरह से मौजूद हैं, अब यह अलग बात है कि लेखक ने इन दोनों चीजों से कुछ दूसरी तरह की कहानियां रची हैं।
कुछ कहानियां जीवन के बहुत साधारण अनुभवों को लेकर भी लिखी गई हैं। 'बिल्ली का बच्चा", 'बड़े बाबू", 'सॉरी अंकल" और 'चेन" ऐसी ही कहानियां हैं। 'बड़े बाबू" और 'चेन" दांम्पत्य जीवन की कश-म-कश से निकली कहानियां हैं। 'इनसान का ज़हर" एक आधुनिक बोधकथा के रूप में पढ़ी जा सकती है जहां नदी में स्नान करते साधु द्वारा डूबते बिच्छू को बचाने की दंद्गाभरी कथा को बिच्छू के दृष्टिकोण से दुबारा कहा गया है।
'एक नए किस्से का जन्म" पहाड़ के परिवेद्गा पर बनते और टूटते किस्सों के भीतर छिपी विडंबना का मिथकीय बयान है।
इसके अतिरिक्त इस संग्रह में 15 छोटी कहानियां हैं, जिन पर अलग से चर्चा की आवद्गयकता नहीं है। हां, 'विश्व की अंतिम लघुकथा" लिख सकने का साहस हम जैसे पाठकों को एक साथ विस्मित, आनंदित और आतंकित कर देता है। सृष्टि के आरंभ पर दुनिया की प्राचीनतम भाषाओं से लेकर आधुनिक विचारकों ने कुछ न कुछ लिखा है। सृष्टि के अंत का दृद्गय एक वैज्ञानिक संभावना बनकर सुदूर भविष्य की अनिश्चितता में डालकर हम आश्वस्त हो जाते हैं। उस अंत पर कलम उठाने को एक बड़ा लेखकीय दुस्साहस की कहा जाएगा। सुरेश उनियाल के यहां यह साहस हैं।

                                                            
 
                                                                                                          - नवीन कुमार नैथानी
क्या सोचने लगे ।।।
प्रकाशक : भावना प्रका्शन, दिल्ली-91
मूल्य : 200 रुपए
पृष्ठ संख्या : 144

Tuesday, February 15, 2011

अन्तर्विरोध: कभी कभार



                                  

 ''कभी-कभार"" के ''नियमित"" पाठक जानते होगें कि यह कालम कवि-आलोचक अशोक बाजपेयी लिखते हैं। यह कॉलम का अन्तर्विरोध हो सकता है कि शीर्षक के बावजूद नियमित है। पर रचनाकार और उसके अन्तर्विरोधों के सवाल पर की गई बातचीत में शायद कोई अन्तर्विरोध न हो, क्योंकि वह तो एक सैद्धाान्तिकी को रखने की युक्ति भी दिखाई दे रहा है- अन्तर्विरोध सृजनात्मक समृद्धि और उपलब्धि का आधार हो सकते हैं। जो बिल्कुल सीधा-सपाट है, जिसमें कोई अन्तर्विरोध है ही नहीं वह कुछ सच्चा और टिकाऊ रच सकता है इस पर संदेह किया जा सकता है। यह नहीं भूलना चाहिए कि लेखक भी सबकी तरह अंतत: मिट्टी के माधव ही होते है, देवता या दिव्यपुरुष नहीं। देवता और दिव्यपुरुष नहीं, साधारण और अन्तर्विरोधों से भरे लोग ही साहित्य रचते हैं। बेहद मासूमियत से भरी इस टिप्पणी से असहमति का मतलब यह कतई नहीं कि देश-दुनिया की साहित्यिक, सांस्कृतिक गतिविधियों के साथ-साथ समकालीन ज्वलन्त मसलों पर एक सचेत रचनाकार की टिप्पणियों से भरे कॉलम का मखौल उड़ाया जा रहा है।
19 दिसम्बर 2010 के अंक में प्रकाशित यह टिप्पणी अनायास याद नहीं आ रही है जिसमें रचना के मूल्यंाकन पर बात की गई है- अन्तर्विरोध। टिप्पणी स्पष्ट तौर पर रचना और रचनाकार के आदर्शों को जुदा-जुदा मान उसे सहज स्वीकार्य मानने की वकालत करती है। मार्फत अपने एक मित्र के कवि अशोक बाजपेयी ने रचना के मूल्यांकन में रचनाकार के निजी जीवन के सवाल को उठाया और जवाब में तर्क देते हुए भौतिक जीवन में इतिहास हो चुके रचनाकारों के मूल्यांकन के लिए अपनायी जा रही पद्धति का हवाला दिया है। यानी एक ऐसा तर्क जो आगे किसी भी तरह की बात को रखने की छूट देने की बजाय मुंह को खुलने से पहले ही दबोच लेना चाहता है। एक जनतांत्रिक प्रक्रिया को बाधित करने का उपकर्म इस अलग होता है क्या ? या खुद के मनोगत आग्रहों की पुष्टि के लिए कहना पड़ रहा है, ''आधुनिकों समकालीनों के बारे में तो ऐसे आचरण की जानकारी हमें हो सकती है, पर प्राचीनों के बारे में ऐसी जानकारी बहुत कम और अधिकतर अप्रमाणिक होगी।"  यहां प्रश्न है कि क्या जब हम प्राचीनों के बारे में बिना किसी जानकारी के रचनाओं का मूल्यांकन करने के लिए मजबूर है तो आधुनिकों समकालीनों के बारे में अन्य किसी जानकारी के प्रति आंखें बंद किए रहे ? और आधुनिकों समकालीनों को सिर्फ और सिर्फ झूठे आदर्शों पर ज्ञान बघ्ाारते हुए सुनते, देखते और पढ़ते रहें ? या, फिर समकालीन यथार्थ का सही मूल्यांकन करते हुए आदर्शों से स्वंय मुंह मोड़ लेने वाले रचनाकार के द्वारा रचना में किसी भी आदर्श को गढ़ने की उसकी मंशाओं के मंतव्य तक पहुँचने की पद्धति को अपनाए ? हाल ही में प्राकशित हुए चिनुचा अचीबी के अनुदित उपन्यास  ''खोया हुआ चैन"" को पढ़ते हुए याद आ गई उपरोक्त टिप्पणी इस लिए अनायास नहीं कही जा सकती, क्यों कि आदर्शों और नैतिकताओं पर दृढ़ उपन्यास के पात्र के जीवन में आ गई फिसलन को समझने की कोशिश करना चाहता रहा। उपरोक्त उपन्यास नैतिकता और आदर्श के लिए पुरजोर तरह से हिमायत और व्यवहार में उसे लागू करने के लिए प्रतिबद्ध पात्र के भ्रष्ट और अनैतिकता की हद गिर जाने का आख्यान है। समझना चाहता हूँ कि आदर्शों के टूटने के साथ ही व्यवाहारिक गड़बड़ियां एक मनुष्य को यूंही घेर लेती होंगी या फिर उसे सिर्फ एक उपन्यास की कथा भर ही माना जाए। कवि आलोचक अशोक बाजपेयी की टिप्पणी तो उपन्यास को समझने का द्वार नहीं खोल रही है।    

- विजय गौड़

Monday, February 14, 2011

I am a painter, I want to become an artist

 

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Saturday, February 12, 2011

मगर आवाज बुलन्द



समाचार हैं कि कर्ज के बोझ से दबे और खराब फसल की मार को झेल रहे एक गांव के 25 किसानों ने सामूहिक आत्महत्या की। नौकरी से निकाल दिए जाने के बाद सुदूर अपने पहाड़ी गांव की ओर लौटते पांच नव युवक दुघर््ाटना के शिकार हुए- तीन ने घटना स्थल पर ही दम तोड़ दिया बाकी दो की हालत भी गम्भीर है। ये समाचार हैं जो अखबार और इलेक्टानिक्स माध्यम में कितने ही दोहरावों के साथ बार-बार सुनने पड़ रहे हैं। इनकी अनुगूंज बेहद निर्मम तरह से समाज को असंवेदनशील बनाती जा रही है। ऐसी ही न जाने कितनी ही खबरें हैं जिनको सुनते हुए सिर्फ उनके घटित होने की सूचनाएं सूचनाक्रांति के नाम पर तुरत-फुरत में पूरी दुनिया तक फैल जा रही हैं। उनके विस्तार करते जाने की रफ्तार इतनी ज्यादा है कि किसी एक घटना को पूरी तरह से जानने से पहले ही किसी प्रतियोगी परीक्षा का पर्चा हाथ में आ चुका होता है और सवालों के जवाब दे रहा विद्यार्थी चकर खा जाता है कि पूछे गए प्रश्न में वह किस घटना पर टिक लगाए जबकि सारे के सारे उत्तर उसे एक से ही दिख रहे हैं। किसी भी घटना को घटना भर रहने देने की चालाकियों वाला तंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हल्ला भी जो सबसे ज्यादा पीट रहा है, घटना के अगल-बगल की जगहों तक भी झांकने की छूट नहीं देना चाहता है। अगल-बगल की जिस जगह को छुपाने की कोशिशें जारी हैं, कविता उन जगहों का उदघाटित करने का एक कलात्मक औजार हैं- पाठक के सामने स्पेश क्रियेट करता कोई भी वाक्य इसीलिए एक सुन्दर कविता हो जाता है। यानी यथार्थ के विभ्रम को तोड़ने वाला औजार। लेकिन सिर्फ कला ही कला हो तो विभ्रम के और गहरे होने की आशंका अपने आप पैदा हो जाती है। नागार्जुन की कविताओं का कलात्मक सौन्दर्य उस परिभाषा के भीतर है जो पर्याप्त रूप से पाठक को किसी भी घटना के आर-पार देखने का मौका देता है। रोजमर्रा की घटती घटनाओं को काव्यात्मक रूप से दर्ज करते हुए वे ऐतिहासिक साक्ष्यों के रूप में भी एक धरोहर हैं। यह इतिफाक नहीं कि किसी एक कविता को उर्द्वत कर इस बात को पुष्ट किया जाये। नागार्जुन के यहां तो कविता का मतलब ही किसी समय विशेष के बीच उनकी उपस्थिति है। उनकी कविताओं में वे खबरें ही उस काव्य संवेदना का विस्तार करती हैं जिसे हल्ला मचाऊ तरह से लगातार दोहराते हुए यह सूचना तंत्र सामाजिक असंवेदनशीलता का ताना बाना बुन रहा है। नागार्जुन की कविताएं न सिर्फ हालात से परिचित कराती हैं बल्कि उनके पीछे के सत्य को भी उदघाटित करती हैं। उनका मनोविज्ञान कोई पीपली लाइव नहीं बल्कि बदलती सामाजिक संरचना के पर्तों को भी उतार रहा होता है। उनकी आवाज में आजादी के लगभग 60 साला गान को सुनना एक जरूरी चेतावनी भी है। वे उस तराने के उस छदृम का खिचड़ी विपल्व हैं जो एमरजेंसी के रू में प्रकट हुआ है। प्रतिरोध की बहुत बहुत कोशिशों के साथ-साथ वे वास्तविक जनतंत्र के लिए लगातार जारी एक सचेत प्रयास हैं। वे स्वंय कहते हैं-
अपने खेत में हल चला रहा हूं
इन दिनों बुआई चल रही है
इर्द-गिर्द की घटनाएं ही
मेरे लिए बीज जुटाती हैं
नागार्जुन की रचनाओं पर बात करते हुए क्या समकालीन कविताओं का विश्लेषण किया जा सकता है ? हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी के वे सभी चित्र जिनकी उपस्थिति से नागार्जुन की कविता कुछ विशिष्ट हो जाती है, समकालीन कविता में भी मौजूद हैं पर उनका चौकाऊपन अखरने वाला है। भय, आशंका, खुशी और जीवन के दूसरे राग-रंग जिन्हें बहुत ही सतही तरह से बयान होते हुए अखबारी खबरों में भी देखा जा सकता है, समकालीन कविता के भी केन्द्र में हैं। बेशक समकालीन कविताओं ने अपने को अखबारूपन वाली असंवेदनशीलता से बचाय रखा है लेकिन एक शालीन किस्म की संवेदनशीलता उसे नीरस बना रही है। नागार्जुन की कविताओं ने उस शालीन किस्म की संवेदनशीलता से भरी चुप्पी से अपने को अलग रखा है। अमानवीयपन की मुखालफत में गुस्से का इजहार करते हुए भी समकालीन कविता का परिदुश्य कुछ गुडी-गुडी सा ही है। उनमें शिल्प की तराश एक दिखायी देती हुई कोशिश है। हाल ही में प्रकाशित परिकथा का युवा कविता विशेषांक हो चाहे जलसा नाम की पत्रिका का अंक। दोनों से ही गुजरने के बाद भी समकालीन यथार्थ का वैसा सम्पूर्ण चित्र जैसा नागार्जुन की कविताओं को पढ़ने के बाद दिखायी देने लगता है, दिखता नहीं। यथार्थ के प्रस्तुतिकरण में समकालीन कविताएं  दावा करती हुई है लेकिन उनकी विसंगति यही है कि बहुत ही सीमित और एकांगी हैं और एक रचनाकार की वैचारिक सीमाओं की चौहदी उनमें कुछ सीमित शब्दों की पुनरावृत्ति से दिखायी देने लगती है। झारखण्ड के जंगल, रेड कॉरिडोर, दास कैपिटल, नक्सल, जैसी शब्दावलियों से भरा उनका वैचारिक मुहावरा कुछ फेशनफरस्त सा नजर आता है। शिल्प के सौष्ठव में अतिश्य रूप्ा से सचेत स्थितियां उनमें देखी जा सकती हैं। नागार्जुन की कविताएं शिल्प और किसी मुहावरें की मोहताज दिखयी नहीं देती बल्कि चौंकाऊ किस्म की कलाबाजी के खिलाफ वे मोर्चा बांधते हुए-

मकबूल फिदा हुसैन की
चौंकाऊ या बाजारू टेकनीक
हमारी खेती को चौपट
कर देगी!
जी, आप
अपने रूमाल में
गाँठ बाँध लो, बिल्कुल!!

अपने ही तरह का खिलंदडपन नागार्जुन की कविताओं में व्यंग्योक्ति पैदा करता है, उत्साह और उल्लास बिखेरता है। उनमें दर्ज होते सामान्य से सामान्य विवरण भी काव्ययुक्ति बन जाते हैं-
2,50 (दो पचास) पे मुर्गे ने दी बांग
दड़बे में हैं बंद
मगर आवाज बुलन्द।
जेल की सीखचों के पीछे से लिखी गई एक ऐसी ही महत्वपूर्ण कविता में नेवले के बच्चे के कार्यकलाप और उससे इर्द-गिर्द जुटती गतिविधियों का आख्यान अमानवीय तंत्र के प्रतिरोध का अनूठा ढंग है।  
उनकी कविता को उस माहभ्रम के दौर की कविता भी कहा जा सकता है जिसने आजादी के सपनों को बिखरते देखा है। आजादी के बिल्कुल शुरूआती दिनों की स्थितियों के प्रभाव, उनके भीतर जिस आशंका को व्यक्त करते रहे, वे अनायास नहीं थे। 'गीले पांक की दुनिया गयी है छोड़" 1948 में लिखी कविता है। बाढ़ का दृश्य और रात दिन के जल-प्रलय के बीच पत्थरों से बंधी गहरी नींव वाले घ्ार में भी आशंकाओं के घटाटोप घिरते जाते हैं। पाल खोलकर दुनिया की खोज में निकलने वाले नाविकों की एतिहासिक गाथा में आकार लेता घाट का विस्तार पहले पहल बहुत सामान्य-सा विवरण नजर आता है लेकिन अगली ही पंक्तियों में वह उतने ही सीमित अर्थों में नहीं रहने पाता -
पांच दिन बीते हटने लग गयी बस बाढ़
लौटकर आ जाएगा फिर क्या वही आषाढ़ ?
मलाहों के प्रतीक बदलते अर्थों के साथ हैं और गीले पांक की दुनिया को छोड़ती नदी के घाट पर फिर से संभावनाओं की दुनिया आकार लेने लगती है।
इसी दौर के आस-पास की एक और कविता है, 'बरफ पड़ी है’, प्राकृतिक दृश्यों की प्रतीकात्मकता से भरी नागार्जुन की ये ऐसी कविताएं हैं जिनमें उस  नागार्जुन को बहुत साफ-साफ देखा जा सकता है जो भविष्य में घटनाओं को बहुत सीधे-सीधे बयान करने की अपनी उस त्वरा के साथ है जिनमें गैर जरूरी से लगते वे विषय जो सुरूचिपूर्ण और सांस्कृतिक होना भी नहीं चाहते, कविता का हिस्सा होने लगते हैं। आम मध्यर्गीय मानसिकता की यदि पड़ताल करें तो पाएंगे कि समाजिक बुनावट कितनी जड़ताओं के साथ है। न सिर्फ दूसरे का बोलना हमें अखरता है बल्कि खुद के मनोभावों को भी पूरी तरह से व्यक्त करने की छूट हम देना चाहते हैं। मध्यवर्गीय मानसिकता में असहमति के मायने सार्वजनिक(कॉमन) किस्म की टिप्पणी में ही मौजूद रहते हैं। हमारा रचनाजगत ढेरों फड़फड़ाते पन्नों से भरी रचनाओं के साथ है। मूर्त रूप में व्यवाहर की बानगी इतनी उलझाऊ है कि कई बार किसी असहमत स्थिति पर बात करते हुए वैसे ही स्थितियों के रचियता की हामी पर हम मंद-मंद मुस्कराते हुए होते हैं। नागार्जुन इस तरह की चिरौरी से न सिर्फ बचना चाहते हैं बल्कि वास्तविक जनतंत्र की उन स्थितियों को देखना चाहते हैं जहां असहमति का उबाल भी उतनी तीव्रता के साथ प्रकट किया जा सके जितना प्रकटीकरण प्रेम की सघनता का किया जा सकता है। नागार्जुन की यह काव्यशैली ही उनकी जीवनशैली बनने लगती है-
खोलकर बन्धन, मिटाकर नियति के आलेख
लिया मैंने मुक्तिपथ को देख
नदी कर ली पार, उसके बाद
नाव को लेता चलूं क्यों पीठ पर मैं लाद
सामने फैला पड़ा है शतरंज-सा संसार
स्वप्न में भी मै न इसको समझता निस्सार।
आजादी की छदृमताल का प्रस्फुटित यथार्थ एमरजेन्सी के रूप में प्रकट होते ही नागार्जुन को बहुत दबे-छुपे तरह से अपनी बात कहने की बजाय मुखर प्रतिरोध की भाषा की ओर बढ़ने के लिए मजबूर करने लगता है। परीस्थितियों को पूरी तरह से जान समझकर वे व्यंग्य करने लगते हैं- गूंगा रहोगे/गुड़ मिलेगा। कोई ऐसी घटना जिसे कविता के रूप में दर्ज किए जाने की कोशिश साहित्य के तय मानदण्डों की परीधि से बाहर दिखाई दे रही हो, नागार्जुन के यहां एक मुमल कविता के रूप में दिखाई देने लगती है। समाज के ढेरों विषयों से भरा उनका रचना संसार इसीलिए एक ऐसे पाठक को भी जिसका साहित्य से कोई गहरा वास्ता नहीं होता, अपने प्रभाव से घोर लेता है और साहित्यिक मानदण्डों की तय दुनिया में आई हलचल उसे ताजगी से भर देती है। अपने आस-पास के बहुत करीबी विषय को कविता में देख उसका मन साहित्य के प्रति एक अनुराग से भर उठता है। नागार्जुन के यहां विषय की विविधता न सिर्फ स्थितियों को व्याख्यायित करने में सहायक है बल्कि व्यक्ति विशेष को केन्द्र में रख कर लिखी बहुत सी कविताएं राजनैतिक बयान के रूप में भी मौजूद हैं। नागार्जुन की कविताओं की चिह्नित की जाने वाली इस विशिष्टता को व्याख्यायित करने के लिए सामाजिक ढांचे की उस जटिलता को खंगालने की जरूरत है जो अपने सामंतीपन के बावजूद पूंजीवाद के लाभ हानी वाले सिद्वांतों के साथ है-जनतंत्र का भोंडापन इसी मानसिकता का मूर्त रूप है। असहमति के बावजूद गूंगा बना रहना इसकी प्रवृत्ति है। रचनाकारों के बीच इस प्रवृत्ति को सिर्फ और सिर्फ कला का पक्षधर होते हुए देखा जा सकता है। सामाजिक विश्लेषण में इसे उस मध्यवर्गीय मानसिकता के रूप में चिहि्नत किया जा सकता है जो विशिष्टताबोध की मानसिकता से घिरा रहता है। रचनाजगत में यह विशिष्टताबोध आलोचना के औजारों को शैलीगत रूप में ही पकड़ने की कोशिश करता है। साहित्य की वर्तमान दुनिया में, खास तौर पर हिन्दी साहित्य में, यह प्रवृत्ति बहुत तेजी के साथ फैलती जा रही है। बहुत मेधावी और हर क्षण सोचते विचारते रहने वाले रचनाकारों के शिल्पगत प्रयोगों के नाम पर रची जा रही ऐसी रचनाएं, बेशक उनका मंतव्य मनुष्यता के बचाव में ही हो, जनतंत्र की आधी-अधूरी स्थितियों को भी खत्म कर देने वाली ताकतों का समर्थन कर रही हैं। ऐसी रचनाओं के ढेरों पाठ उस मध्यवर्गीय व्यवाहार का ही रचनात्मक रूप्ा हैं जिसमें असहमति को दर्ज करने की बजाय भले-भले बने रहने की मानसिकता विस्तार पाती है। नागार्जुन के यहां स्थितियां बिल्कुल उलट हैं- मुंहफट होने की हद तक प्रतिरोध का उनका स्वर बहुत तीखा है। नागार्जुन का प्रतिरोध भी मूर्त है और उनका प्रेम भी मूर्त। वे जिस क्षण किसी कार्रवाई के समर्थन में उस वक्त उस कार्रवाई को अंजाम तक पहुंचाते व्यक्ति का यशगान करते हुए हैं लेकिन दूसरे ही क्षण यदि किसी विपरीत परिस्थिति में उसी व्यक्ति को पाते हैं तो तुरन्त लताड़ लगाते हुए हैं। समर्थन और विरोध की ऐसी किसी भी स्थिति में आमजन के जीवन के कष्ट उनकी प्राथमिताओं को तय करते हैं। समर्थन और विरोध करने का यह साहस बिना वास्तविक जनतंत्र का हिमायती हुए हासिल नहीं किया जा सकता है। नागार्जुन की कविताएं हर क्षण एक जनतांत्रिक दुनिया को रचने के कोशिश है। उनका मूल स्वर नागार्जुन की कविता पंक्तियों से ही व्यक्त किया जा सकता है-
बड़ा ही मादक होता है 'यथास्थिति" का शहद
बड़ी ही मीठी होती है 'गतानुगतिकता" की संजीवनी।
शताब्दी समारोह की उत्सवधर्मिता नागार्जुन की कविताओं में अटती नहीं है। वे ऐसे किसी भी जलसे के विरूद्ध स्थितियों के सहज-सामान्य अवस्था की पक्षधर है। किसी भी तरह की विशिष्टता पर वे व्यंग्य करती हुई है। यह अपने में अजीब बात है कि दूसरे अन्य रचनाकारों के शताब्दी समारोह के साथ नागार्जुन जन्मशती के बहाने हम उन पर भी बात कर रहे हैं। दरअसल नागार्जुन की कविताओं पर बात करते हुए जरूरी हो जाता है कि आस-पास की सामाजिक आर्थिक स्थिति और उन स्थितियों के बीच रचे जा रहे रचनात्मक साहित्य पर भी बात हो। तय है कि आस-पास की स्थिति इस कदर गैर जनतांत्रिक है कि न्याय के नाम पर भी आस्थाओं का पलड़ा भारी होता जा रहा है और फैसलों की कसौटी माहौल की नब्ज मात्र हो जा रही है। इस तरह के सवाल उठाना कि तथ्यों के आधार पर निर्णय हों और तब भी माहौल समान्य बना रहे, बेईमानी हो जा रहे हैं। ऐसी गैर जनतांत्रिक स्थितियों के बीच रचे जा रहे साहित्य पर यह जिम्मेदारी स्वत: हो जाती है कि उसका स्वर पहले से कुछ अधिक तीखा हो- सवाल है कि वह पहला स्वर क्या है ? यकीनन यदि वह नागार्जुन की स्वरलहरियों से उठती आंतरा है तो भाषा-शिल्प और बिम्बों, प्रतीकों के नये से नये प्रयोग प्रतिरोध को तीखा बनाने के औजार ही हो सकते हैं, रचनाकार की विशिष्टता को प्रदर्शित करने के यंत्र नहीं।        
 

   विजय गौड़

यह आलेख प्रिय मित्र अशोक कुमार पाण्डेय के आदेश पर लिखा गया था। युवा संवाद नाम की पत्रिका का वह अंक जिसका सम्पादन अशोक भाई ने किया, उसमें इस आलेख को भी शामिल किया गया ।