Sunday, July 17, 2011

अलकनन्दा घाटी का मूर्ति शिल्प

उत्तराखण्ड के गांवों की वीरानी, तकलीफ देने वाली है। जो लोग वहां खपने के लिए छूट गए हैं उनकी कोई खबर लेने वाला नहीं है। जो खत्म हो चुके हैं उनका कोई ब्यौरा हमारे पास नहीं है। आर्थिक कारणों के अतिरिक्त सवर्णों की खराब सोच के कारण हमारे शिल्पकारों, मूर्तिकारों और संगीतकारों को खत्म होना पड़ा। सवर्णों के लिए ये कार्य हेय है और इनके सक्रिय लोग निम्न कोटि के वासी हैं। कभी ये ध्यान ही नहीं गया कि यहां के मन्दिरों में सुन्दर मूर्तिशिल्प किसने बनाए? हमारे घरों की तिबारियों पर गढ़े गए लकड़ी के सुन्दर शिल्पों का निर्माण करने वाले आखिर हैं कहां ? लेकिन पहाड़ों में घुमकड़ी करने वाले कला रसिक नन्द किशोर हटवाल की मुलाकात आशा लाल से होती है। आशा लाल खांटी मजदूर है। वैसे ही दिखते हैं विनम्र और अबोध। घरों की खोली बनाने में वे निपुण हैं लेकिन अपने उजड़ते गांवों में इसकी जरूरत ही नहीं रही। बहुत संकोच के साथ वे बताते हैं वे मूर्तिशिल्पी हैं और पहाड़ के स्थानीय पत्थरों पर वे देवी देवताओं के शिल्प उकेरते हैं। वे जानते और मानते नहीं कि वे कलाकार हैं। जिला चमोली के छिनका नामक स्थान के सामने पाखे पर उनका गांव है। मूर्तिशिल्प कोई लेने वाला नहीं इसलिए बनाते भी नहीं हैं। पहले कभी पारम्परिक खरीददार रहे होंगे। आज के समय की मार्केटिंग उन्हें नहीं आती, इसलिए सड़क पर मजदूरी करते हैं।
वे शौक के लिए तो मूर्ति बना नहीं सकते। लगभग एक-फुट ऊंची मूर्ति बनाने में लगभग 15 दिन लगते हैं। पहले पहाड़ की ऊंचाई पर उपयुक्त जगह पर पत्थर को छांटना पड़ता है। फिर भारी पत्थर को ढो कर अपने गांव तक लाना पड़ता है। इतने समय तक बच्चों का पेट कौन भरेगा। सो काम बिल्कुल खत्म है। वे लगभग सत्तर-बह्त्तर वर्ष की आयु के हैं। उनके साथ इस दुर्लभ कला का भी अन्त होना हुआ।
किसी तरह लगभग दस मूर्तियां उनसे आग्रह कर बनवाई गईं। उनमें कलाकार का अहंकार नहीं है, ये कार्य वे मजदूर की तरह ही करते हैं। उनके मूर्तिशिल्पों की अलग पहचान है। उनका खुरदरापन और स्थानिकता देश के किसी भी दूसरे भाग की मूर्तियों से भिन्न है। स्थानिक देवी-देवता के अलावा वे भगवान बदरीनाथ की मूर्ति बनाते हैं। बहुत सम्भव है उनके पूर्वजों ने ही बदरीनाथ देवता की मूर्ति का सृजन किया होगा।
जांच पड़ताल करने पर कुछ और मूर्ति शिल्पियों की जानकारी भी मिली। छिनका के अनुसुया लाल और पंगनों के बसन्तू लाल के नाम उल्लेखनीय हैं। चमोली जिले में दस या बारह इस तरह के कलाकार हैं। ठीक से शोध करने पर उत्तरकाशी से बागेश्वर तक ऐसे अनेकों गुणी कलाकारों का जरूर पता लग सकता है। साहित्यकार नन्द किशोर हटवाल ने इस दिशा में पहल की है।
चारों धाम की यात्रा करने वाले लाखों लोगों को वैसे भी अपने उत्तराखण्ड में यादगार के लिए कोई चीज खरीदने को नहीं मिलती है।

-राजेश सकलानी

यदि ग्राहक मौजूद हों तो मूर्तिशिल्प की उपलब्धता  संभव हो सकती है। एक ठीक ठाक आकार का शिल्प (लगभग १ फ़ुट लम्बा और८ इंच चौड़ा) मेहनताने की कीमत रू २५०० से ३००० के बीच उपलब्ध हो सकता है।

Wednesday, July 13, 2011

शीशे के पार

 कई घंटों  लम्बी न रुकने वाली बरसात के एक दिन मैंने बेडरूम के रोशनदान के शीशे के पार  परिंदों का एक जोड़ा सिमटा सुरक्षित बैठा हुआ देखा...सार्थक साथ की जरुरत और इस से मिलने वाली सुरक्षा और सुकून की शिद्दत से समझ  आई...उस दृश्य को मोबाईल के कैमरे में कैद कर के आपके  पास भेज रहा हूँ...मुझे लगता है यह अपने आपमें एक सार्थक कविता है.                 -यादवेंद्र
                                                

Sunday, July 10, 2011

किसी प्रात: स्मरण में जिक्र नहीं टट्या भील का

   धर की युवा कविता में हमें अतिवाद के दो छोर दिखाई देते हैं कुछ कवियों में शिल्प के प्रति अतिरिक्त सतर्कता है तो कुछ में घोर लापरवाही । अतिरिक्त सजगता के चलते जहां कविता गरिष्ठ एवं अबोधगम्य हुई है तो घोर लापरवाही के चलते लद्धड़ गद्य। अतिरिक्त सजगता का आलम यह है कि पता ही नहीं चलता है कि आखिर कवि कहना क्या चाह रहा है । दरवाजे से भारी सांगल मुहावरा इन कविताओं पर चरितार्थ होता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कथ्य शिल्प के लिए नहीं होता है बल्कि कथ्य के लिए शिल्प होता है। ये कविताएं शिल्प के बोझ तले दम तोड़ती हुई लगती हैं। दूसरी ओर शिल्प के प्रति घोर लापरवाही के बीच यह ढूंढना मुश्किल हो जाता है कि अमुक कविता में वह कौनसी बात है जो उसे कविता बनाती है या गद्य से अलगाती हैं। ये दोनों ही स्थितियां  कविता के लिए अच्छी नहीं हैं । दोनों ही पाठक को कविता से दूर करती हैं । बहुत कम युवा कवि हैं जो इन दोनों के बीच का रास्ता अख्तियार करते हुए संतुलन बनाकर चलते हों। अशोक कुमार पांडेय इनमें से ही एक हैं । अशोक की कविताओं में काव्यात्मकता के साथ-साथ संप्रेषणीयता भी है। वह जीवन के जटिल से जटिल यथार्थ को बहुत सहजता के साथ प्रस्तुत कर देते हैं।उनकी भा्षा काव्यात्मक है लेकिन उसमें उलझाव नहीं है। उनकी कविताएं पाठक को कवि के मंतव्य तक पहुंचाती हैं। जहां से पाठक को आगे की राह साफ-साफ दिखाई देती है।  यह विशेषता मुझे उनकी कविताओं की सबसे बड़ी ताकत लगती है। अच्छी बात है अशोक अपनी कविताओं में अतिरिक्त पच्चीकारी नहीं करते। उनकी अनुभव सम्पन्नता एवं साफ दृष्टि के फलस्वरूप उनकी कविता संप्रेषणीय है और अपना एक अलग मुहावरा रचती हैं। उनकी कविताएं अपने इरादों में राजनैतिक होते हुए भी राजनैतिक लगती नहीं हैं। कहीं कोई जार्गन नहीं है। 
    
विचारधारात्मक प्रतिबद्धता के बावजूद उनकी कविताओं में कहीं भी विचारधारा हावी होती हुई नजर नहीं आती है जबकि उनकी विचारधारा ने ही उनकी कविताओं को एक धार प्रदान की है। विचार को अपने अनुभवों के साथ इस तरह गूंथते हैं कि उसे अलगाना संभव नहीं है। कहीं से लगता नहीं कि किसी विचार को साबित करने के लिए कविता लिखी गई है , बल्कि इंद्रियबोध सबकुछ कह जाता है। प्रतिबद्धता के मामले में न कहीं कोई समझौता करते हैं और न कोई भ्रम बुनते हैं। जनता का पक्ष उनका अपना पक्ष है । जनता के सुख-दु:ख उनके अपने सुख-दु:ख हैं। उनकी कविताएं अपने समय और समाज की तमाम त्रासदियों-विसंगतियों -विडंबनाओं - अंतर्विरोधों -समस्याओं पर प्रश्न खड़े करती है तथा उन पर गहरी चोट करती हैं। यही चोट है जो पाठक के भीतर  यथास्थिति को बदलने की बेचैनी और छटपटाहट पैदा कर जाती है। यहीं पर कविता अपना कार्यभार पूरा करती है। प्रगति्शील-सांस्कृतिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी का प्रभाव इन कविताओं में देखा जा सकता है। ये कविताएं "फाइलों में टिप्पणियों" की तरह लिखी जा रही ढेर सारी कविताओं से अलग हैं। विश्वास को किसी " बहुराष्ट्रीय कंपनी का विज्ञापन' होने से बचाने के लिए प्रतिबद्ध कविताएं हैं। अशोक  कविता को जीवन-यथार्थ के नजदीक ले जाते हैं हमारे रोजमर्रा के जीवन को कविता की अंतर्वस्तुु में तब्दील कर देते हैं। अपने पास-पड़ोस के जीवन में कवि की तरह नहीं बल्कि एक " पड़ोसी ' की तरह हस्तक्षेप करते हैं। जीवन में हाच्चिए में खड़े लोग इनकी कविता के केंद्र में चले आते हैं। ये लोग यहाघ् प्रतिरोध की मुद्रा में खड़े दिखते हैं। जीवन की उष्ण ,अनगढ़ तेजोमय दीप्ति के साथ सक्रिय जीवन की उपस्थिति इन कविताओं में दिखाई देती है।  

शोक उस दौर से कविता लिख रहे हैं जो विश्व व्यवस्था में सोवियत ढंग के ढहने तथा नई आर्थिक नीतियों के लागू होने का दौर था। पर उनकी कविताओं से मेरा परिचय उनकी कविता की दूसरी पारी से हुआ जो 2004 के आस-पास से शुरू हुई। उनकी कविताओं की वैचारिक परिपक्वता ,स्पष्टता एवं प्रतिबद्धता ने पहले-पहल उनकी ओर मेरा ध्यान खींचा। आम जन-जीवन पर वै्श्वीकरण-निजीकरण-उदारीकरण के प्रभाव को अपनी कविता के माध्यम से जितने साफ-सुथरे ढंग से अच्चोक समझते एवं व्यक्त करते हैं युवा कवियों में उतना अन्य बहुत कम कर पाते हैं। उनकी कविताओं को विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में मैं निरंतर पढ़ता रहा हूं। एक साथ पढ़ने का अवसर इसी वर्षा  शिल्पायन से प्रकाशित उनके पहले कविता संग्रह  लगभग अनामंत्रित में मिला । इसमें 48 कविताएं संकलित हैं। इन कविताओं में जीवन की विविधता दिखाई देती है। इनमें जहां एक ओर वैश्वीकरण-उदारीकरण-निजीकरण के प्रभाव की कविताएं है तो दूसरी ओर प्रेम की कोमल एवं सघन अनुभूति की भी। "प्रका्श की गति से तेज हजार हाथियों के बल वाला बाजार" और उसके "अंधेरों के खौफनाक विस्तार के खिलाफ" लड़ते हुए मजदूर-किसान उनकी कविताओं में हैं।  " वैश्विक गांव के पंच परमेश्वर"' हैं तो चाय बेचता अब्दुल और जगन की अम्मा भी। छत्तीसगढ़-झारखंड-उड़ीसा के जंगलों में अपनी जल-जंगल-जमीन के लिए लड़ते आदिवासी हैं तो अपनी आजादी के लिए लड़ती कच्च्मीरी जनता भी।गुजरात में साम्प्रदायिक कल्तेआम के बाद सहमे-सहमे मुस्लिमों और पिछले बारह साल से अनशन कर रही इरोम शर्मिला ,अहमदाबाद की नाट्यकर्मी फरीदा ,सींखचों के पीछे कैद सीमा आजाद को भी वे भूले नहीं हैं। स्त्रियों पर  उनकी अनेक कविताएं हैं जो हमें स्त्री संसार की अनेक विडंबनाओं एवं मनोभावों  से परिचित कराती हैं। सामाजिक रूढ़ियां ,विवाह संस्था की सीमाएं और ऑनर किलिंग भी कवि की चिंता की परिधि में हैं। इस तरह ये कविताए अपने चारों ओर के जीवन से संलाप करती हैं।
  
शोक कुमार पाण्डेय की कविताएं अपने समय तथा समाज से मुटभेड़ करती कविताएं हैं। समय की आहटों को कवि बहुत तीव्रता से सुनता और कविता में दर्ज करता है । समय की आंक उनके भीतर गहरे तक है।समाज में व्याप्त  शोषण-उत्पीड़न-अत्याचार से पैदा बेचैनी और उसके प्रति पैदा आक्रोश से शुरू होता है उनकी कविताओं का सिलसिला और उसके प्रतिपक्ष तक जाता है।  यह एक ऐसा समय है जिसमें एक युवा के सारे सपने एक अदद नौकरी पाने तक सिमट के रह जा रहे हैं जबकि देशभक्ति नौकरी की मजबूरी और नौकरी जिंदगी की मजबूरी बन गई । बहादुरी किसी विवशता का परिणाम ।" एक सैनिक की मौत"  कविता में यह भाव सटीक रूप से व्यक्त हुआ है। निजीकरण के कारण आज सेना ,पुलिस और अर्द्ध सैनिक बलों के अलावा नौकरी अन्यत्र रह नहीं गई है। यहां भी इसलिए है क्योंकि यह शासक वर्ग की जरूरत है। इन्हीं के बल पर तो हमारे दलाल शासक जनता के संसाधनों पर कब्जा जमाकर उन्हें बेदखल करने में लगे हुए हैं। इन्हीं के रहते हथियारों का व्यापार फल-फूल रहा है। इन नौकरियों रहते हुए जहां गरीब युवा भरती की भगदड़ में बच जाता है तो बारूदी सुरंगों में फघ्सकर मारा जाता है और " शहीद" हो जाता है । यह शहीद होना भी इसलिए नहीं कि वास्तव में दे्श के सामने कोई खतरा पैदा हो गया हो बल्कि किसी बहुरा्ष्ट्रीय कंपनी जो युद्ध का सामान बनाती है को लाभ पहुंचाने के लिए । दो देशों के बीच युद्ध किसी तीसरे के लाभ के लिए प्रायोजित होता है। इस युद्ध में शहीद होते हैं गरीब के बेटे। अशोक की यह कविता इस पूरे षड्यंत्र को पहचानती और हम सबको उससे सचेत करती है। वे पाते हैं कि इन्हीं के कारण जलियांवाला बाग फैलते-फैलते हिंदुस्तान बन गया है और देश इन दिनों बेहद मु्श्किल में है । पूंजीवादी व्यवस्था के पोषक अपने संसाधनों के हक-हकूक की लड़ाई लड़ने वाले आदिवासियों को जंगली और बर्बर तथा उनकी चीत्कार को अरण्यरोदन साबित करने में लगे हैं। यह सब सुनियोजित तरीके से हो रहा है। जंगल की शांति को अशांति में बदला जा रहा है। आदिवासियों का पिछड़ा ,असभ्य और असंस्कृत कहा जा रहा है । उनकी भाषा-संस्कृति को हेय दृष्टि से देखा जा रहा है। विकास के नाम पर उन्हें उनके घरों से खदेड़ा जा रहा है। जो इससे इनकार कर रहे हैं उन्हें अपराधी व राष्ट्रद्रोही करार दिया जा रहा है। इस संग्रह की सबसे महत्वपूर्ण कविता "अरण्यरोदन नहीं है यह चीत्का" इस पूरे परिदृश्य को हमारे सामने गहराई से उदघाटित करती है। पूंजी परस्त शासक वर्ग की मानसिकता के  ताने-बाने को पूरा खोलकर पाठक के सामने ले आती है- उन्हें बेहद अफसोस / विगत के उच्छिष्टों से / असुविधाजनक शक्लोसूरत वाले उन तमाम लोगों के लिए / मनु्ष्य तो हो ही नहीं सकते थे वे उभयचर / थोड़ी दया ,थोड़ी घ्रणा और थोड़े संताप के साथ/ आदिवासी कहते उन्हें / उनके हंसने के लिए नहीं कोई बिंब /रोने के लिए शब्द एक पथरीला-अरण्यरोदन। इस वर्ग द्वारा इनकी हमे्शा कैसी उपेक्षा की गई इन पंक्तियों में बहुत अच्छी तरह व्यक्त हुआ है- हर पुस्तक से बहिश्क्रत उनके नायक /राजपथों पर कहीं नहीं उनकी मूर्ति / साबरमती के संत की चमत्कार कथाओं की /पाद टिप्पणियों में भी नहीं कोई बिरसा मुंडा/किसी प्रात: स्मरण में जिक्र नहीं टट्या भील का / जन्म शताब्दियों की सूची में नहीं शामिल कोई सिंधू-कान्हू। इस उपेक्षा और शोषण के खिलाफ यदि कोई आवाज उठाता है तो वह अपराधी और राष्ट्रद्रोही घोषित कर  कुचल दिया जाता है- हर तरफ एक परिचित सा शोर / अपराधी वे जिनके हाथों में हथियार/अप्रासंगिक वे अब तक बची जिनकी कलमों में धार/वे दे्शद्रोही इस शांतिकाल में उठेगी जिनकी आवाज/कुचल दिए जाएंगे वे सब जो इन सामूहिक स्वप्नों के खिलाफ। आदिवासियों का शोषण-उत्पीड़न हो या फिर किसानों की आत्महत्या कवि भली भांति जानता है कि इसके पीछे कौनसी ताकतें काम कर रही हैं-पूरी की पूरी फौज थी जादूगरों की /चली आई थी सात संमुदर पार से / शीशे-सी चमकती नई-नवेली सड़कों से / सरपट सवार दिग्विजयी रथों पर / हमारा सबसे ईमानदार नायक था सारथी। ऐसे में कवि का यह कहना बहुत प्रीतिकर लगता है - सदियों के विषपायी थे हम/वि्ष नहीं मार सकता था हमें। जनता का पक्षधर और उसकी ताकत पर वि्श्वास रखने वाला कवि ही इतने विश्वास और दृढ़ता से यह बात कह सकता है। 

क सच्चा संवेदनशील कवि कभी भी आधी दुनिया की उपेक्षा नहीं कर सकता है।  इन कविताओं का सबसे सघन एवं आत्मीय स्वर स्त्री विषयक है । संग्रह में सबसे अधिक कविताएं स्त्रियों से संबंधित हैं।वहां प्रेम भी है स्त्री विमर्श भी और पुरू्ष प्रधान सामंती मानसिकता पर करारी चोट भी । गहरी आत्मीयता के साथ बौद्धिक परिपक्वता भी। माघ् -पत्नी-बेटी -प्रेमिका के माध्यम से वे स्त्रियों की स्थिति पर अपनी बात बहुत तर्कपूर्ण ढंग से कह जाते हैं। इन कविताओं से गुजरते हुए पता चलता है कि अपने व्यक्तिगत एवं पारिवारिक संबंधों के प्रति संवेदन्शील और ईमानदार व्यक्ति ही बाहरी दुनिया के प्रति सच्चे रूप में संवेदनशील हो सकता है। " उदासी माघ् का सबसे पुराना जेवर है---तमाम दूसरी औरतों की तरह कोई अपना निजी नाम नहीं था उनका---माघ् के चेहरे पर तो / कभी नहीं देखी वह अलमस्त मुस्कान--- '' अलग-अलग कविताओं ये पंक्तियां साबित करती हैं कि कवि स्त्री की पीड़ा को कितनी गहराई महसूस करता है।
   
वंश-परम्परा का आगे बढ़ना पुत्र से ही माना जाता है । इस बात को औरतें भी मानती हैं। उन्हें अपना नाम वश-वृक्ष में कहीं नहीं आने पर दु:ख नहीं होता है , दु:ख होता है तो इस बात पर कि अगली पीढ़ी में वंश-वृक्ष को आगे बढ़ाने वाला कोई नहीं है । कवि इसको तोड़ना चाहता है और धरती को एक नाम देना चाहता है । अर्थात लड़की को वंश-वृक्ष का वाहक बनाना चाहता है। सारा परिवार दु:खी है " कि मुझ पर रुक जाएगा खानदानी शजरा "' लेकिन कवि अपनी बेटी से पूरी दृढ़ता से कहता है - कि विश्वास करो मुझ पर खत्म नहीं होगा वह शजरा / वह तो शुरू होगा मेरे बाद / तुमसे ! ये शब्द जहां रूढियों का खंडन करते है वहीं स्त्री को समानता का दर्जा प्रदान करते हैं।कवि को लगता है पुरानी पीढ़ी को बदलना कठिन है इसलिए वह नई पीढ़ी से इसकी शुरूआत करना चाहता है।भ्रूण हत्या के इस दौर में कवि का यह संकल्प मामूली नहीं है। यह सामंती मूल्य का प्रतिकार है। इन कविताओं में नारी के प्रति कवि के मन का सम्मान भी प्रकट होता है। वही व्यक्ति स्त्री को धरती का नाम दे सकता है जो सचमुच उसका सम्मान करता हो। वही अपने भीतर औरत को टटोलना चाहता है ,उसकी भाषा में बात करना चाहता है उससे , उसी की तरह स्पर्श करना चाहता है उसे। अशोक यहां अपनी माघ् के दु:खों को याद करते हुए  स्त्री मात्र के दुख को स्वर देते हैं। कवि को चूल्हा याद आता है तो याद आ जाती है माघ् की -चिढ़-गुस्सा -उकताहट -आंसू  / इतना कुछ आता है याद चूल्हे के साथ / कि उस सोंधे स्वाद से / मितलाने लगता है जी--- ये चिढ़ ,गुस्सा ,उकताहट ,आंसू केवल कवि की माघ् के नहीं हैं बल्कि पूरी स्त्री जाति के हैं जो कल्पों से चूल्हे-चौखट तक सीमित है। यहां चूल्हे की याद से जी मितलाना इस पूरी व्यवस्था के खिलाफ खड़ा होना है जिसने स्त्री के जीवन को नरक बना दिया ।  " माघ् की डिग्रियां"' कविता में अपने परिवार के प्रति  औरत का समर्पण दिखाया गया है । बालिकाओं के रास्ते में आने वाली कठिनाइयां भी यहां दर्ज हैं। कैसी विडंबना है यह एक स्त्री जीवन की कि पढ़ने-लिखने के बाद भी किसी स्त्री के आंखों में जो स्वप्न चमकता है वह है - मंगलसूत्र की चमक और सोहन की खनक का। ऐसा क्यों होता है ? यह कविता उस ओर सोचने के लिए प्रेरित करती है। इसकी जड़ बहुत दूर तक जाती है । आखिर क्यों होता है ऐसा कि किसी लड़की की डिग्रियाघ् ही दब जाती हैं चटख पीली साड़ी के नीचे ? घर परिवार के लिए उसको ही क्यों करने पड़ते हैं अपने सपने कुर्बान ?अशोक  कामकाजी महिलाओं  के दोहरे बोझ को भी गहराई से समझते हैं। उनकी जीवनचर्या को लेकर " काम पर कांता" बेहद खूबसूरत कविता है। कांत के बहाने कामकाजी महिलाओं की घर-बाहर की परिस्थितियों को बारीकी से चित्रित किया गया है । इन महिलाओं की दिनचर्या सुबह पांच बजे से शुरू हो जाती है और रात ग्यारह बजे तक चलती रहती है। ये शारीरिक-मानसिक रूप से इतने अधिक थक जाती हैं कि कभी स्वर्गिक सुख की तरह लगने वाली प्रेम की सबसे घनीभूत क्रीड़ा भी रस्म अदायगी में बदल जाती है। सकून भरी जिंदगी उनके लिए नींद में आने वाले स्वप्नों की तरह हो जाती है। अक्सर यह कहा जाता है कि आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर औरत अपने जीवन को अपने तरीक से जीने के लिए स्वतंत्र होती है। क्या यह सही है ? यह कविता उस ओर सोचने को आमंत्रित करती है। 
 
संग्रह की पहली कविता है - सबसे बुरे दिन । इस कविता में वर्तमान के बारे में बताते हुए भविष्य की क्रूरता की ओर संकेत किया गया है । कवि का मानना है कि अभाव की अपेक्षा अकेलापन अधिक बुरा है । अकेलेपन में चाहे कितनी ही सुख-सुविधाएं हो वे सब तुच्छ हैं - बुरे होंगे वे दिन /अगर रहना पड़ा/सुविधाओं के जंगल में निपट अकेला । नई अर्थव्यवस्था यही कर रहीं है -व्यक्ति को सुख-सुविधा तो दे रही है लेकिन उससे उसका संग-साथ ,उसका सुकून ,उसकी स्वाभाविकता ,उसकी उमंग छीन ले रही है। उसे अकेला कर दे रही है। यहाघ् कवि का सामूहिकता के प्रति आग्रह सामने आता है। कवि जिन बुरे  दिनों के आने की आशंका व्यक्त कर रहा है दरअसल वे आ चुके हैं । आज "विश्वास किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के विज्ञापन" की तरह हो गया है और "खुशी घर का कोई नया सामान" जो चंद दिनों में ही पुरानी और फीकी पड़ जा रही है। समझौता आज के आदमी की आदत बन गई है। नि:संदेह ये सबसे बुरे दिन हैं। 
 
दारीकरण के दौर में जीवन बदलता जा रहा है न चाहते हुए भी व्यक्ति बाजारवाद के गिरफ्त में फंसता जा रहा है।बाजार हमारे आंखों में रंगीन सपनों की फसलें रोप रहा है। जो जरूरी भी नहीं है उसे भी हमारी जरूरत बना रहा है। बाजार में सतरंगे प्लास्टिकों में पैक सामान हमारे गुणवत्ता पूर्ण उत्पाद को बाहर कर दे रहा है। ये सारी प्रक्रिया चुपके-चुपके होती जा रही है किसी को कुछ पता तक नहीं चल रहा है । लोगों के संभलने तक बाजार अपना काम कर ले जा रहा है। छोटे-छोटे धंधे करने वाले लोग उजड़ते जा रहे हैं। सतरंगे पैकों में बंद चीजें न केवल कुटीर उद्योग-धंधों को निगल रही हैं बल्कि उन आत्मीय संबंधों को भी निगल गई हैं जो क्रेता-विक्रेता के बीच होता था वो ऐसा संबंध नहीं था जो किसी लाभ-हानि के आधार पर बनता-बिगड़ता हो।खून के रिश्तों की तरह था वह।   " कहां होगी जगन की अम्मा" इसी व्यथा की अभिव्यक्ति है। बेटी के लिए अंकल चिप्स खरीदते हुए कवि की चिंता फूटती है- क्या कर रहे होंगे आजकल / मुहल्ले भर के बच्चों की डलिया में मुस्कान भर देने वाले हाथ ? श्रम करने वाले हाथों की चिंता केवल जन सरोकारों से लैस कवि को ही हो सकती है।
   शोक की कविताओं में यत्र-तत्र व्यंग्य भी मिलता है। यह और बात है कहीं-कहीं यह व्यंग्य पूरी तरह उभर नहीं पाया है जैसे " किस्सा उस कमबख्त औरत का' कविता में। " वे चुप हैं' सत्ता से नाभिनालबद्ध बुद्धिजीवियों पर करारा व्यंग्य है । अच्चोक चुप्पी को जिंदा आदमी के लिए खतरा मानते हैं । इस कविता में एक ओर सत्ता तो दूसरी ओर उससे नजदीकियां गांठकर लाभ लेने वाले लोगों के चरित्र को उघाड़ा गया है।"एक पुरस्कार समारोह से लौटकर", " अच्छे आदमी " भी अच्छी व्यंग्य कविता है। 
   
वि का मानना है कि इस दुनिया में न प्रकृति का सौंदर्य बचा न शब्दों का वैभव और न भावों की गहराई । " दे जाना चाहता हूं" कविता ऊब और उदासी भरी इस दुनिया का एक सच बयान करती है - खेतों में अब नहीं उगते स्वप्न/ और न बंदूकें/ बस बिखरी हैं यहां-वहां / नीली पड़ चुकी लाशें / सच मानो / इस सपनीले बाजार में / नहीं बचा कोई भी दृश्य इतना मनोहारी - जिसे हम अपनी अगली पीढ़ी को दे सकें - नहीं बचा किसी शब्द में इतना सच /नहीं बचा कोई भी स्पर्श इतना पवित्र। इस सब के बावजूद कवि की सद्भावना है - बस/ समझौतों और समर्पण के इस अंधेरे समय में / जितना बचा है संघर्षों का उजाला / समेट लेना चाहता हूं अपनी कविता में । और इसे ही कवि उम्मीद की तरह नई पीढ़ी को देना चाहता है। यह बहुत बड़ी बात है कि कवि संघर्षों में ही उजाला देख रहा है और यही है जो चारों ओर फैले तमाम तरह के अंधकारों का अंत करेंगे। संघर्ष पर विश्वास अंतत: जनता की शक्ति पर वि्श्वास है। जनता का कवि ही जनता की शक्ति और उसके संघर्षों पर इतना विश्वास रख सकता है।
  
शोक कुमार पाण्डेय की  कविताओं में उदासी-निराशा बहुत आती है। उनके लिए यह दुनिया ऊब और उदासी भरी हुई है जहां उदासी मां का गहना है ---,जिसके पास चटख पीली लेकिन उदास साड़ी है ,--- उदास हैं दादी ,चाची ,बुआ ,मौसी ---,चूल्हा लीपते हुए गाया करती है बुआ गीतों की उदास धुनें ,--- उदास कंधों पर सांसों को जनाजे की तरह ढो रहे हैं साम्प्रदायिकता के दंश से डसे  गुजरात के मुसलमान ,--- बारुद की भभकती गंध में लिपटे काले कपोत नि:शब्द -निस्पंद -निराश हैं,--- लौटा है अभी-अभी आज के अंतिम दरवाजे से /समेटे बीस जवान वर्षों की आहुति उदास आंखों में ,--- सदियों से उदास कदमों से असमाप्त विस्थापन भोग रहे आदिवासी ------यहां दफ्तर भी हैं जहां थके हुए पंखे बिखेरते हैं घ्ब और उदासी पर यह उदासी-निराशा इस अर्थ में नहीं कि सब खत्म हो गया है ,अब कुछ नहीं हो सकता है ,भगवान ही मालिक है इसका ,बल्कि इस अर्थ में कि इससे बाहर निकलने की आवश्यकता है । यह जितनी जल्दी हो सके इसको बदल देने की तीव्र लालसा पैदा करती है। संघर्ष इसका एकमात्र उपाय है। अंधेरे पक्ष को उदघाटित करने के पीछे कवि की उजाले की आकांक्षा छुपी है। वे अपनी कविता के माध्यम से बीजना चाहते हैं विश्वास उन हृदयों में जो बेचैन हैं ,हताश हैं ,निरा्श हैं जिनके सपने झुलसाए हैं लेकिन जिंदा हैं तथा जो संघर्षरत हैं। वे भर देना चाहते हैं आंखों में उमंग ,स्वरों में लय ,परों में उड़ान । " उम्मीद" और " विश्वास ' कवि के प्रिय शब्द हैं । कवि की दृढ़ आस्था है कि पार किए जा सकते हैं इनके सहारे गहन अंधकार ,दु:ख और अभावों के अनंतमहासागर । कवि खुद से ही शुरू करना चाहता है संघर्षों का सिलसिला गाता हुआ मुक्तिगान और तोड़ देना चाहता है सारे बंधनों को। वह कहता है - लड़ रहे हैं कि नहीं बैठ सकते खामोश/लड़ रहे हैं कि और कुछ सीखा नहीं / लड़ रहे हैं कि जी नहीं सकते लड़ बिन / लड़ रहे हैं कि मिली है जीत लड़कर ही अभी तक। यह पंक्तियां जीवन तथा आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाने वाला कवि ही लिख सकता है। 
  
स सब के अतिरिक्त अशोक की कविताओं में कहीं मां का संवलाया चेहरा दिपदिपाता है तो कहीं पसीने की गुस्साइन गंध कहीं जेठ के जलते सीने पर अंधड़ सा भागता " बुधिया" जो - पार कर लेना चाहता है /दु:ख के बजबजाते नाले / अभावों से उफनते महासागर /दर्द के अनगिनत पठार । " बुधिया" उस सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधि है जो वर्गीय व्यवस्था में हमेशा से शोषण का शिकार होता आ रहा है ,जिनसे सपने सदियों से रूठे हैं ,भूख जिनकी नियति है-जहां बच्चों को नहीं होती सुविधा /अठारह सालों तक /नाबालिग बने रहने की । जो कभी नहीं आते " अच्छे आदमी ' की श्रेणी में क्योंकि - अच्छे आदमी के /कपड़ों पर नहीं होता कोई दाग/ घर होता है सुंदर सा / पत्नी-सु्शील-बेटा मेधावी -बेटी गृहकार्य में दक्ष!--- संतोष एक पवित्र शब्द होता है जिनके शब्दको्श का जो चुपचाप नजरें झुकाए गुजर जाते हैं बाजार से/ जिन्होंने दूर ही रखा जीभ को स्वाद से पैरों को पंख से/आंखों को ख्वाब से। यही लोग हैं जिनकी आवाज को अपना स्वर देती है अशोक की कविताएं। इसी तरह के लोगों पर एक कविता है " उधार मांगने वाले लोग" जो उधार मांगने वालों की विवशता को व्यक्त करती है , उन हाथों की दास्तान को जो दूसरों के आगे पसरने को विवश हैं- मरे व नर मरने के पहले बार-बार/ झुका उनका सिर / और मुंह को लग गई आदत छुपने की / लजाई उनकी आंखें और इतना लजाई / कि ढीठ हो गई । यह कविता उन कारणों की ओर भी संकेत करती है कि आदमी अपना स्वाभिमान क्यों और कैसे खोते हैं ? ये कारण कहीं न कहीं व्यवस्थागत हैं - जान ही न हो शरीर में / तो कब तक तना रहे सिर ? / भूख के आगे /बिसात ही क्या कहानियों की ।
    
शोक की कविताएं पढ़ते हुए कहीं पाश ,कहीं धूमिल ,कहीं मुक्तिबोध तो कहीं नागार्जुन याद हो आते हैं । यह अच्छी बात है कि एक जनवादी कवि में उसकी पूरी परम्परा बोल उठती है और विस्तार पाती है । इस आधार पर  यह कहना होगा कि कवि दायित्व के प्रति सजग तथा मानवीय मूल्यों के प्रति समर्पित इस युवा कवि में अपार संभावना दिखाई देती हैं। वे सामंतवादी-साम्राज्यवादी-पूंजीवादी विकल्पों को खारिज करते हुए नया वैज्ञानिक , जनपक्षीय और श्रमपक्षीय विकल्प प्रस्तुत करते हैं।

- महेश चंद पुनेठा

Tuesday, July 5, 2011

सच सच बताना तुम्हें धूप पसंद है ?


बहुत संकोच से अपने लिखने को बयां करते हुए रेखा चमोली का कहना है कि लिखते पढ़ते हुए मनुष्य बने रहने की संभावना बनी रहती हैं तो लिखना पढ़ना जरूरी लगता है।

रेखा की कविताओं में बिम्ब और प्रतीकों का जो संयोजन है वह एक आम घरेलू स्त्री की जिन्दगी में रोजमर्रा शामिल होती चीजों के मार्फत दिखायी देता है। लेकिन उनकी उपस्थिति स्त्री जीवन की यथास्थिति को तोड़ने के साथ है।  फुर्सत की चाहत, जो अज्ञात यात्रा तक मंसूबे बांधना चाहती है, रेखा चमोली की कविताओं में बार बार सुनायी देने वाला स्वर है। उनकी लगातार की कोशिशों में उनके आसपास की दुनिया का समूचा भूगोल, जीवन का कार्यव्यापार और बेहद तंग होती दुनिया से मुठभेड़ करने की चाह, आकार लेती हुई है। उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी जिले में अध्यापिका के रूप में कार्यरत रेखा चमोली की कविताओं ने देश भर की महत्वपूर्ण हिन्दी पत्रिकाओं में अपनी उपस्थिति को दर्ज किया है और पाठकों का ध्यान खींचा है। यह ब्लाग इस युवा एंव संभावनाशील कवि को प्रकाशित करते हुए उनका आभार व्यक्त कर रहा है और शुभकानायें भी कि वे सतत रचनाशील रहें। 


वि.गौ.

जाने किन दिनों के इन्तजार में

महानगरीय लोगों को
याद आते हैं
पहाडी लोग
गर्मियों की छुटिटयों की तरह
और उनकी यादें
प्रमुख पर्यटक स्थलों के नामों की तरह
सामान्य ज्ञान का विषय बन जाती हैं
महानगर
सुखा देता है
संवेदनाओं की जडों को
भावनाओं के झरनों को सोख
उसके ऊपर
उगा देता है
कंक्रीट के जंगल
ऐसे में
कहीं दूर किसी पहाडी गॉव में
अल्सुबह से देर रात तक
घर ,खेत ,जंगल ,बाजार
के बीच
कमरतोड मेहनत के बाबजूद
जाने कैसे
दूर किसी महानगरीय जन की याद में
हर समय
झुँझलाती ,बेचैन होती ,अपने में मुस्कुराती रहती है
पहाडी स्त्री
जाने किन दिनों के इन्तजार में।


बरसात की एक शाम छत पर

पूरे दिन घिरे रहने के बाबजूद
बादलों ने कपडे धो कर झटके भर हैं

और अब
एक पहाड को दूसरे से जोडती
बादलों की सीढियों पर चढ फिसल रही हैं किरणें

कुछ दिनों पहले लगी आग में
झुलसे अधजले पेडो की जडे
अपनें अंधेरे किचन में व्यस्त हैं
निराश हैं अपनी जडता पर

तेजी से आता एक पंछी
तार से टकराकर घायल हो गया है ।

हवा को अपना दुपटटा तेजी से लहराता देख
सूरज ने कस कर अपना लाल मफलर लपेट लिया

दस खिडकियों वाले घर से
सूरज की मॉ नें
सूरज को बुलाना शुरू कर दिया है ।


फुर्सत

दाल में नमक जितनी
घर में ऑगन जितनी
सन्नाटे में सरगम जैसी
सुन्दरता में विनम्रता जैसी
मुझे
तुम्हारी
थोडी सी
फुर्सत चाहिए।



सवाल



खूब अच्छी खिली धूप में
बर्फ से भरा-पूरा
हिमालय
चमक रहा है
खुश है बर्फ
धूप से पिघल कर
निकल पडेगी
एक अज्ञात यात्रा पर
हिमालय ! सच सच बताना
तुम्हें धूप पसंद है ?


मैं कभी गंगा नहीं बनूंगी


तुम चाहते हो
मैं बनूं
गंगा की तरह पवित्र
तुम जब चाहे तब
डाल जाओ उसमें
कूडा-करकट मल अवशिष्ट
धो डालो
अपने
कथित-अकथित पाप
जहॉ चाहे बना बॉध
रोक लो
मेरे प्रवाह को
पर मैं
कभी गंगा नहीं बनूंगी
मैं बहती रहूंगी
किसी अनाम नदी की तरह
नहीं करने दूंगी तम्हें
अपने जीवन में
अनावश्यक हस्तक्षेप
तुम्हारे कथित-अकथित पापों की
नहीं बनूंगी भागीदार
नहीं बनाने दूंगी तुम्हें बॉध
अपनी धाराप्रवाह हॅसी पर
मैं कभी गंगा नहीं बनूंगी
चाहे कोई मुझे कभी न पूजे।

Monday, July 4, 2011

याद आया "विचारधारा वाला पत्रकार"

अभिनव श्रीवास्तव की यह रिपोर्ट एक मित्र के मार्फ़त मेल से प्राप्त हुई। राजस्थान पत्रिका जयपुर में काम करने वाले अभिनव भारतीय जनसंचार सस्थान से पास आऊट हैं। पत्रकारिता के साथ साथ साहित्य में उनकी गहरी अभिरूचि है। अभिनव का आभार।
गाँधी शांति प्रतिष्ठान में शनिवार 2 जुलाई को दोपहर एक बजे से ही छात्रों,नौजवानों और मानवधिकार कार्यकर्ताओं की भीड़ जुटनी शुरू हो गयी थी. धीरे धीरे सभागार भरने लगा था और २ बजते बजते लगातार आ रहे  लोगों के लिए सभागार में खड़े  होने की जगह नहीं बची थी. यह मौका था उस पत्रकार को याद करने का जिसने बदलाव के सपने और चट्टानी इरादों  के साथ अपनी पूरी जिन्दगी को जिया. जिसने आदिलाबाद के जंगलों में फर्जी मुठभेड़ में आंध्र प्रदेश पुलिस द्वारा मारे जाने से पहले  दमनकारी होते राज्य की  नीतियों पर अपनी बेबाक कलम से लगातार हमले  किये . बात हो रही है पत्रकार हेम चन्द्र पाण्डेय की जिनकी पहली बरसी पर हेम चन्द्र पाण्डेय मेमोरियल लेक्चर सीरीज की शुरुआत की गयी. यह शुरुआत जनता के पत्रकार हेम चन्द्र पाण्डेय के सपने को जिन्दा रखने का प्रयास भी था और गंभीर चर्चा के माध्यम से हेम जैसे मीडिया एक्टिविस्टों की लड़ाई को समझने का भी.यही कारण था कि सीरीज का पहला लेक्चर जनपक्षीय पत्रकारिता और मीडिया एक्टिविजम के रिश्ते जैसे विषय पर आधारित था. प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता सुमंता बनर्जी ने अपनी मुख्य वक्तृता में हेम चन्द्र पाण्डेय की हत्या का उदहारण लेकर भारतीय राज्य में पत्रकारों की सुरक्षा, पुलिसिया राज के  कारण लगातार प्रभावित होती पत्रकारीय स्वतंत्रता जैसे मुद्दों के माध्यम से कई महत्वपूर्ण सवाल उठाये. उन्होंने यह भी कहा कि वर्तमान मीडिया का आर्थिक ढांचा  ऐसा है कि यह  पूरी तरह  लाभ लेने वाली संस्था बन गयी है.जब एक संचार मीडिया का उद्देश्य ज्यादा ज्यादा लाभ कमाना हो तो वह लोगो को राजनीतिक रूप से शिक्षित करने की भूमिका  से बहुत दूर होती चली जाती है. इस तरह का मीडिया  सरकारी योजनाओ की पोल खोलने वाले पत्रकारों को सुरक्षा नहीं दे सकता.  भारत में  मीडिया एक्टिविजम के भविष्य पर
बोलते हुए बनर्जी ने कहा कि मीडिया एक्टिविजम के स्वरूप को और अधिक संगठित बनाने की जरुरत है. इसके बिना कोई व्यापक हस्तक्षेप नहीं हो सकता.अरुंधती रॉय ने भारतीय राज्य के लगातार होते सैनिकीकरण पर चिंता जताते हुए बोला  कि बेशक हम सैधांतिक तौर पर लोकतंत्र हैं लेकिन आज भारतीय राज्य  में एक भी ऐसी लोकतान्त्रिक संस्था नहीं है जिसमे जाकर एक आम आदमी
न्याय की उम्मीद कर सके. अरुंधती के विचार में लोकपाल बिल को पास कराने की आड़ में कई महत्वपूर्ण मुद्दों को छिपाया गया.

साहित्यकार मंगलेश डबराल ने इस बात जोर दिया कि जब तक छोटे छोटे स्तर पर चल विरोधों को संगठित  नहीं किया जायेगा तब तक  कोई भी विचार हस्तक्षेप करने की स्थिति में नहीं पहुंचेगा . बाजार के ही विचार माने जाने वाली मान्यता पर भी उन्होंने सवाल उठाये. उन्होंने कहा कि  मीडिया का आकार में लगातार विस्तार होने के बावजूद फलक पर सच दिखाई नहीं देता.यह अफ़सोस जनक
स्थिति है. मीडिया विश्लेषक आनंद प्रधान ने भारतीय राज्य के दमनकारी चरित्र पर जमकर बरसे और मीडिया की वर्तमान आर्थिकी में विलुप्त होते पत्रकार संघो को पत्रकारों की खराब हालत के लिए जिम्मेदार बताया. उन्होंने  अखबार के मालिको  द्वारा इस बात का प्रचार किये जाने पर  आश्चर्य व्यक्त किया कि वेज बोर्ड लागू होने के बाद आर्थिक भार के कारण अखबार बंद हो जायेंगे.  कवी और पत्रकार नीलाभ ने माना कि पत्रकारों की आर्थिक स्थिति का खराब होना उनको सच कहने और लिखने से रोकता है.सत्ता और संरचना जान-बूझकर ऐसी स्थितियां बनाती है जिससे पत्रकार सच लिखने में असमर्थ हो जाये. संजय काक ने वैकल्पिक पत्रकारिता को मजबूत बनाये जाने पर जोर दिया. काक ने मुख्य धारा पत्रकारिता के समान्तर खड़ी हो रही वैकल्पिक पत्रकारिता को सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दे उठाने का सशक्त माध्यम बताया. संजय ने वैकल्पिक पत्रकारिता की ताकत को नए सिरे से समझने की जरुरत पर बल दिया.  हेम के याद करते हुए पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्त्ता भूपेन सिंह द्वारा सम्पादित किताब "विचारधारा वाला पत्रकार" का विमोचन भी किया गया.
विमोचन हिंदी मासिक हंस के संपादक  राजेंद्र यादव ने किया. किताब के एक लेख में हेम चन्द्र पाण्डेय की पत्नी बबिता उप्रेती ने हेम को याद करते हुए लिखा है कि कुछ लोगों की मौत पर्वत से भी ज्यादा भारी और कुछ की पंख से भी हलकी होती है. जनता के पत्रकार हेम की मौत वाकई पर्वत से भी ज्यादा भारी थी