Sunday, February 12, 2012

विद्यासागर नौटियाल का जाना

विद्यासागर नौटियाल के निधन से हिन्दी ने एक समर्थ भाषा-शिल्पी और अप्रतिम गद्य लेखक को खो दिया है.29 सितंबर 1933 में जन्मे नौटियालजी का जीवन साहित्य और राजनीति का अनूठा संगम रहा. वे प्रगतिशील लेखकों की उस विरल पीढी से ताल्लुक रखते थे जिसने वैचारिक प्रतिबद्धता के लिये कला से कभी समझौता नहीं किया.हेमिंग्वे को अपना कथा गुरू मानने वाले नौटियाल जी 1950 के आस-पास कहानी के क्षेत्र में आये और शुरूआत में ही भैंस का कट्या जैसी कहानी लिखकर हिन्दी कहानी को एक नयी जमीन दी.शुरआती दौर की कहानियां लिखने के साथ ही वे भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी से जुड़ गये और फिर एक लम्बे समय तक साहित्य की दुनिया में अलक्षित रहे. उनकी शुरूआअती कहानियां लगभग तीस वर्षों बाद 1984 में टिहरी की कहानियां नाम से संकलित होकर पाठकों के सामने आयीं.नौटियालजी की साहित्यिक यात्रा इस मायने में भी विलक्षण है कि लगभग चार दशकों के लम्बे hibernation के बाद वे साहित्य में फिर से सक्रिय हुए! इस बीच वे तत्कालीन उत्तर-प्रदेश विधान-सभा में विधायक भी रहे. विधायक रह्ते हुए उन्होंने जिस तरह से अपने क्षेत्र को जाना उसका विवरण एक अद्भुत आख्यान भीम अकेला के रूप में दर्ज किया जिसे विधागत युक्तियों का अतिक्रमण करने वाली अनूठी रचना के रूप में याद किया जायेगा.लेखन की दूसरी पारी की शुरूआत में दिये गये एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था ,“ मुझे लिखने की हडबडी नहीं है".आश्चर्य होता है कि जीवन के आखिरी दो दशकों में उनकी दस से अधिक किताबें प्रकाशित हुईं जिसमें कहानी संग्रह ,उपन्यास,संस्मरण,निबन्ध और समीक्षाएं शामिल हैं.यह सब लिखते हुए वे निरन्तर सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय रहे.देहरादून के किसी भी साहित्यिक -सामाजिक कार्य-क्रम में उनकी मौजूदगी हमेशा सुख देती थी-वे वक्त पर पहुंचने वाले दुर्लभ व्यक्तियों में थे-प्राय: वे सबसे पहले पहुंचने वालों में होते.उनकी विनम्रता और वैचारिक असहमतियों को दर्ज करने की कठोरता का सामंजस्य चकित करता था.
वे एक प्रयोगशील कथाकार थे. सूरज सबका है जैसा उपन्यास अपने अद्भुत शिल्प -विन्यास और पारदर्शी भाषा के लिये हमेशा याद किया जायेगा.उनकी कहानियों में पहाड़ की औरत के दु:ख, तकलीफें,इच्छायें और एकाकीपन की जितनी तस्वीरें मिलती हैं वे अन्यत्र दुर्लभ हैं. उनके यहां फट जा पंचधार,नथ, समय की चोरी,जैसी मार्मिक कहानियों की लम्बी सूची है.उनके समग्र-साहित्य का मूल्यांकन करने में अभी समय लगेगा किन्तु एक बात बहुत बहुत स्पष्ट रूप से कही जा सकतीहै कि यदि पहाड़ के जीवन को समझने के लिये साहित्य में जाना हो तो विद्यासागर नैटियाल के साहित्य को पढ लेना पर्याप्त होगा.

नवीन कुमार नैथानी

Sunday, February 5, 2012

अन्छुए किनारों को देखने का सुयोग



 




Thursday, January 26, 2012

तोहफ़े


मदन शर्मा
संजीव और मैं, एक ही सरकारी संस्थान में नौकरी करते थे। हमारे बीच मित्रता का भाव था। जब भी समय या अवसर मिलता, हम इधर-उधर की दिलचस्प बातें करके, अपना और पास बैठे लोगों का दिल बहलाया करते। संजीव, कुछ अर्सा पहले, सरकारी नौकरी छोड़, किस्मत आज़मार्इ के लिये किसी प्राइवेट फ़र्म में जा लगा था। सुना है, वह आजकल दिल्ली में रह कर कारों के कारोबार में, खूब रूपये कमा रहा है।
    यहां से जाने से पूर्व, संजीव मुझे दो ऐसी चीज़ें सौंप गया, जिसके कारण, मैं शायद ही उसे कभी भूल पाऊं!
    मेरे घर में टी वी तो था, मगर रेडियो या ट्रांसिस्टर नहीं था। आकाशवाणी से प्रसारित अपनी कहानियां या व्यंग्य सुनने के लिये, मुझे इसकी ज़रूरत थी। संजीव ने बताया, कि उसके पास एक बढि़या रेडियो सेट पड़ा है। कहानियां सुनने के लिये वह काफ़ी होगा। नया लेने की क्या ज़रूरत है।
    रेडियो सौंपते हुए संजीव ने बताया, कि इसमें मामूली-सा नुक्स है। पांच-सात रूपये में यह अच्छा काम करने लगेगा।
    चालीस रूपये ख़र्च करके रेडियो ठीक चलने लगा। अपनी एक-आध रचना भी उस पर सुन ली। घर में रेडियो और मेरी कहानी की प्रशंसा हुर्इ। किंतु सप्ताह भर बाद ही उस रेडियो की मरम्मत का ऐसा सिलसिला चला, कि महसूस होने लगा, कि यह मरम्मत यदि यों ही चलती रही, तो इस बढि़या रेडियो के साथ-साथ, मेरा टी वी और फि्रज भी बिक जायेगा।
    संजीव ने वायदा किया, कि वह मुझे कहीं से नया टं्रासिस्टर सस्ते में दिला देगा। मगर उसका मौक़ा ही न आया।
    संस्थान में कुछ वर्करों का प्रमोशन हो जाने पर, उन्हें अलग अलग अनुभागों या दफ़तरों में नियुक्त किया जाना था। संजीव ने चुपके से मुझे सुझाया,  "आप गुरमीत को अपने स्टाफ में ले लो, बहुत बढि़या आदमी है।"
"मैंने तो सुना है, वह शराब पीता है।"
"तो क्या हुआ? मैं शराब नहीं पीता? यक़ीन मानो, उस जैसा आदमी आपको खोजने पर भी नहीं मिलेगा।"
    मैंने ऊपर कहसुन कर, गुरमीत को अपने स्टाफ में ले लिया। लम्बा-चौड़ा मगर ढीला-ढाला और फैला हुआ सा शरीर, उसी तरह की ढीली पगड़ी और दाढ़ी। लिबास तुड़ा-मुड़ा। आंखों में और चेहरे पर सुर्खी, जैसी शराबियों के चेहरों पर तमतमाहट-सी होती है।
"आप यहां मेहनत से काम कर सकेंगे?" मैंने पूछा।
"बिल्कुल जी। आप जैसा भी कहेंगे, वैसा ही करेंगे जी।"
    चार-पांच दिन में ही पता चल गया, गरमीत नाम की यह चीज़, उस रेडियो से कुछ अलग नहीं। यह आदमी तो यहां का साधारण कार्य भी सीखने के योग्य नहीं। बड़ी ग़लती हो गर्इ! मगर अब क्या हो! मैंने तो स्वयं ही सिफ़ारिश करके यह बला, अपने सिर पर ले ली है!
    उससे कोर्इ भी काम नहीं हो पा रहा था। न उसकी समझ में कुछ आ रहा था। परेशान होकर मैंने उसे रिकार्ड स्पलायर का काम करने को कह दिया।
    सुपरवाइज़र के पद पर होकर, रिकार्डस्पलायर का काम सौंपे जाने पर उसने कोर्इ आपति न की। वह बड़े उत्साह में भरकर यह काम करने लगा। बलिक जब अर्दली छुटटी पर होता, तो चाय तैयार करके, पूरे स्टाफ़ को सर्व कर देता।
    वह थोड़ा लंगडा कर चलता था। पता चला, कभी फुटबाल खेलते हुए उसका एक्सीडेंट हो गया था। यह भी पता चला, वह अच्छे घर से है।  बड़ी बहन डाक्टर है। बच्चे पढ़ने लिखने में तेज़ हैं और इसकी पत्नी किसी अच्छे स्कूल में अंग्रेजी़ पढ़ाती है।
    दफ़तर में उससे किसी को कोर्इ शिकायत न थी। वह बड़ी विनम्रता से बात करता। कभी किसी की निंदा वह नहीं करता था।
    उसे कभी किसी बात पर क्रोध न आता था। कोर्इ बीमार होता, तो वह पता लेने उसके घर या अस्पताल पहुंचता। कोर्इ मौत हो जाने पर, वह अंतिम कि्रया में शामिल होने के लिये सबसे पहले मौजूद रहता। वह कितने ही ज़रूरतमंद रोगियों को अपना खून दे चुका था और खूबी यह, कि वह ये सब काम हंसते हुए और सहज भाव से करता था। मैं उसे 'संत जी कहने लगा।
    शराब तो वह पीता ही था। अब कुछ और अधिक पीने लगा। वह स्वयं पीता और यार-दोस्तों को भी पिलाता और शराब के साथ मछली के पकौड़े भी ज़रूर होते। यही साथ पीने वाले यार भार्इ ही उसे उस खर्च के लिये रूपये सूद पर उधार देते और बड़ी सख्ती से वसूल भी करते।
    कई लोग उसे दफ़तर में ही मिलने आने लगे। उसे बाहर ले जाकर मालूम नहीं, कैसे धमकाते रहते। वह वापिस लौटता, तो उसका चेहरा बुझा-बुझा-सा होता।
    पता चला, गुरमीत के सिर पर भारी कर्ज चढ़ चुका है। वे लोग दफ़तर में आकर ही उसे धमकाने लगे। मैंने उन लोगों का दफ़तर में आना बंद करा दिया, तो कर्ज वसूल करने वाले, उसे बाहर सड़क पर घेरने लगे। जेब में जो कुछ होता, वे छीन लेते। जेब खाली होती, तो उसके दो-चार हाथ जड़ देते।
    शराब पीने के लिये गरमीत जो रूपये उधार लेता, वह दस के बारह रूपये वाला होता था। वह तीन सौ उधार लेता, जो कुछ ही दि्नों में दो हज़ार हो जाता। बढ़-बढ़ कर क़र्ज़ की यह राशि साठ हज़ार तक पहुंच गर्इ थी। पूरा वेतन, ओवर टाइम और एरियर के पैसों में से, उसके पास कुछ भी हाथ में न रहता। घर खाली हाथ पहुंचता, तो वहां भी अच्छी आवभगत होती। खाने को कुछ न दिया जाता। दिन में भी भूखा रहता। छुटटी के बाद फिर कोर्इ मिल जाता, जो उधार रूपये देता और उसके साथ ठेके पर चल कर शराब पीता और मछली के पकौड़ों का मज़ा लेता।
    गुरमीत कई दिन से दफ़तर नहीं आ रहा था। पता चला, वह घर से भी ग़ायब है। बीस दिन बाद, दफतर वाले, उसे सड़क पर घूमते हुए को पकड़ कर ले आये।
    उसके कपड़े फटे और बेहद गंदे थे। नहाना तो क्या, उसने शायद कर्इ दिन से मुंह भी नहीं धोया था। आंखों में कीच भरी थी। दाढ़ी उलझी हुई। मुंह से गंदा-सा पानी बाहर को आ रहा था। उसके शरीर से बदबू आ रही थी। हाथ में छुटटी का आवेदन लिये, वह मेरे सामने सहमा-सा खड़ा था।
    "बैठिये संत जी।" मैंने कहा।
    वह बैठ गया।
    "छुटटी की अर्जी बाद में देखेंगे। पहले यह बताइये, बीस दिन तक कहां ऐश उड़ाते रहे?"
    वह रोने लग पड़ा। थोड़ा शांत हुआ, तो बोला, "कौन सी ऐश साहब, बीस दिन से धक्के खाता फिर रहा हूं। किसी की सब्ज़ी की दुकान पर, आलुओं के ढेर पर सोता रहा हूं। कमर बुरी तरह दर्द कर रही है।"
    "मगर घर से भागे क्यों?"
    "भागा कहां, धक्के मार कर निकाला गया। वरना अपना घर छोड़कर जाने को किसका मन होता है!"
   "जब घर पर कुछ दोगे नहीं, तो धक्के ही मिलेंगे। वह बेचारी प्राइवेट स्कूल की नौकरी करके घर चला रही है और तुम्हें शराब पीने से फर्सत नहीं। शरम आनी चाहिये!"
    वह फिर रोने लग पड़ा। चुप हुआ, तो कहने लगा, "यह बात नहीं सर! कभी किसी ने यह नहीं सोचा, गुरमीत शराब क्यों पीता है।"
    "क्यों पीता है?" मैंने जानना चाहा।
    "मैं आप को अब क्या बताऊं!... मेरा जब से एक्सीडेंट हुआ है, मैं तब से... वह दरअसल अपने स्कूल के एक टीचर के साथ ... बच्चे स्कूल जाते हैं और वह घर में जमा रहता है...।"
    "तुमने मना नहीं किया?"
    "वह तो उसे ही भला मानती है। दोनों ने मिलकर ही तो मुझे घर से बाहर निकाला था।"
    मगर मिसेज गुरमीत ने किसी को बताया कि उसका पति एक नम्बर का झूठा है। वह अपनी मर्जी़ से घर छोड़ कर गया है। यह घर तो उसी का है। जब चाहे, लौट कर आ सकता है।
    कुछ दिन के बाद मिसेस गुरमीत ने महाप्रबंधक के पास अपील कर दी, कि उसका पति घर में बाल बच्चों की परवरिश के लिये, एक पैसा भी नहीं देता, लिहाज़ा घर में गुज़र के लिये, वेतन की राशि, बेदी के बजाय, स्वयं उसे देने की व्यवस्था कर दी जाये।
    महाप्रबंधक ने मुझे अपने दफ़तर में बुलाकर कहा, "आपके स्टाफ़ का कोर्इ गै़र जि़म्मेदार आदमी है, जिस की बीवी ने अपील की है। आप इस केस को जल्दी निबटाइये।"
    मैंने श्रमकल्याण अधिकारी और कैशप्रभारी से मिलकर, व्यवस्था करा दी, जिससे गुरमीत का वेतन हर मास, उसकी पत्नी को फैक्टरी गेट पर दिया जा सके।
    गुरमीत रोनी सूरत लिये मेरे पास आकर बोला, "सर, यह आपने क्या कर डाला! अब मेरा क्या होगा?"
    मैंने उसे सांत्वना दी, "मेरी बात हो चुकी है। तुम्हें घर से दोनों वक़्त का खाना और नाश्ता मिलेगा। धुले कपड़े और बस का किराया भी मिलेगा। और क्या चाहिये?"
"साहब मेरे पीने का क्या होगा?"
    मन हुआ, जूता निकाल कर, इसके सिर पर दे मारूं! मगर उस मरदद की शक्ल ही कुछ ऐसी थी, कि पहले देखते ही मुंह पर दो थप्पड़ मारने की इच्छा होती थी। मगर उसके चेहरे पर पसरी बेबसी देख, फिर उसके लिये कुछ करने का कर्तव्य बोध होने लगता था।
    मैंने बार बार कोशिश की, कि गुरमीत नाम की इस बीमारी को अपने दफ़तर से भगा दूं। मगर कोर्इ सुनने को तैयार ही न था। उपमहाप्रबंधक हंसकर कहते, "यह हीरा तो आपने अपनी मर्जी से ही चुनकर लिया है। इसे अपने पास ही रखिये। कोई और इसे लेने को तैयार भी नहीं । वैसे मुझे आपसे पूरी हमदर्दी है!"
    मिसेस गुरमीत हर महीने मेनगेट पर आकर, गुरमीत का वेतन ले जाती। मेरी सिफ़ारिश पर गुरमीत को तफ़रीह के लिये भी थोड़ा-बहुत मिल जाता। सभी कुछ सामान्य हो चला। किंतु गुरमीत से जो क़र्ज वसूल करने वाले थे, वे तो परेशान हो चले थे। एक दो बिफरे हुए से आकर मुझे भी कह गये थे... शर्मा साहब, आपने हमें मुशिकल में डाल दिया है...।
    गुरमीत के वेतन का एक भाग, हम उसके बैंक के खाते में डालते जा रहे थे। पास बुक हम लोगों ने अपने पास सम्भाल ली थी और बैंक वालों से कह रखा था, कि गुरमीत को बिना पास बुक, रूपया न निकालने दें। दरअसल हम दफ़तर वाले यह चाहते थे, कि यह रूपया इकटठा करके गुरमीत की बेटी के विवाह पर दे देंगे।
    किंतु एक दिन सभी यह जान कर चकित रह गये, कि गुरमीत के एकाउंट में कुछ भी नहीं है। पता भी न चला, वह कब से, बैंक के किसी कर्मचारी को पटा या पिला कर अपना कार्य सम्पन्न करने लग पड़ा था।
    गुरमीत की फिर पिटार्इ हो गई। इस बार अच्छी खासी धुनाई हुई थी। पूरा मुंह सूजा पड़ा था। ठीक से चला भी नहीं जा रहा था। कपड़े फटे पडे़ थे। बराबर रोये चला जा रहा था। दफ़तर वालों ने आपस में मिलकर रूपये इकटठे किये और संडे मार्किट से उसके लिये कपड़े ख़रीद कर लाये। मैंने स्वयं अपने घर में वे कपड़े धो, सुखा और प्रेस करके उसे पहनने को दिये।
    मैं बार बार संजीव की जान को रो रहा था।
मिसेस गुरमीत को नियमित रूपये मिल रहे थे। गुरमीत का अपना काम चल ही रहा था। किंतु क़र्ज़ वसूल करने वाले तो बराबर तिलमिला रहे थे। वे क्या करें, मार पिटार्इ से उनके हाथ में कुछ भी नहीं पड़ रहा था। उन्हीं में से एक ने जाकर मिसेस गुरमीत को कह डाला, "गुरमीत  के दफ़तर वाले, आपके स्कूल के किसी टीचर के साथ, आपके सम्बन्धों की चर्चा करते रहते हैं। वहां का इंचार्ज मदन शर्मा नाम का आदमी, इस बारे में कोर्इ कहानी लिख कर अख़बार में देने वाला है।"
    मिसेस गुरमीत ने तुरंत लिख कर, महाप्रबंधक के पास शिकायत भेज दी, कि दरअसल गुरमीत के दफ़तर वाले ही उसे तबाह और बर्बाद कर रहे थे। इसलिये उसकी किसी अन्य अनुभाग में बदली कर दी जाये।
    गुरमीत  भागता हुआ मेरे पास आया और बोला, "सर, मेरा यहां से ट्रांसफर हो रहा है। मैं साफ़ कहे देता हूं, मैं यहां से कहीं नहीं जाउंगा। आप किसी तरह मुझे यहीं रूकवा लें।"
मैंने कहा, "मैं भला कैसे रूकवा सकता हूं! जी. एम. का आर्डर है। तुम्हें यहां से जाना होगा।"
"नहीं सर, मैं यहीं रहूंगा। ऐसे लोग मुझे कहां मिल सकेंगे, जो मेरा इतना ध्यान रखें। आप जैसे इंचार्ज को मैं कभी छोड़कर नहीं जा सकता, भले ही मुझे अपने बाल बच्चों को छोड़ना पड़ जाये।"
"मगर अब तो बहुत देर हो चुकी है।"
"कोई देर नहीं हुई जी, मैं अभी जनरल मैनेजर के पास जा रहा हूं। मैं उन्हं बता देता हूं। मैं उन्हें बता देता हूं, किस किसने हमारे खि़लाफ़ साजि़श की है।"
संजीव ने एक बात तो ठीक ही कही थी... गुरमीत जैसा आदमी खोजने पर भी नहीं मिलेगा!

Sunday, January 22, 2012

वोट मांगने की विविध शैलियां

दिनेश चन्द्र जोशी
dcj_shi@rediffmail.com
09411382560 
जैसे गायकी की विविध शैलियां होती हैं,घराने होते हैं, वैसे ही वोट मांगने की भी विविध शैलियां और घराने होते हैं। चुनावी मौसम में इन शैलियों की अदायगी और प्रदर्शन का उत्सवनुमा माहौल होता है। यहां कलाकार नेता होते हें और दर्शक मतदाता, यानी मतदाता के लिए चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात। सो, जनता इस चार दिन की चांदनी के उत्सव में नेताओं की विभिन्न याचक मुद्राओं का दर्शन करती है, आनन्दित होती है और जूते,चप्पल,झापड़,टमाटर,अंडों से परहेज रख कर नेता का अपमान नहीं करती तथा उससे स्वयं का सम्मान करा कर धन्य धन्य हो जाती है।  आधुनिक दौर में जिसे देह भाषा ( बाडी लेंग्वेज)  कहते हैं, उसका प्रयोग भी 'मार्डन' किस्म के नेता  वोट मांगने हेतु करने लगे हैं। एक ऐसे ही युवा नेता ने तय कर रक्खा था, अगर मतदाता साठ साल से उपर का होगा तो, उसके पांव छू कर वोट मांगूगा, अगर प्रौढ़ होगा, चालीस से पचास के बीच का, तो उसके समक्ष हाथ जोड़ूंगा, अगर बीस से चालीस के बीच का होगा तो उसे 'सहारा प्रणाम' कहूंगा, बीस से नीचे का होगा तो 'फ्लाइंग किस' दूंगा।  और सचमुच उसकी इस अन्तिम अदा पर फिदा होकर ,फ्लाइंग किस' के कारण यंग इंडिया ने उसे जिता दिया।
वोट मांगने की देह भाषा (बाडी लेंग्वेज) के  प्रयोग व विश्लेषण हेतु प्रबन्धन संस्थानों ने स्पेशल पैकेज तैयार कर लिये हैं। उनके अनुसार अगर नेता जी की परम्परागत शैली वोट बटोरने में नाकाम साबित हो रही है तो उन्हें तत्काल आधुनिक बाडी लेंग्वेज का प्रदर्शन सीखना चाहिए। यानी 'कीप स्माइलिंग' 'बी पाजीटिव', 'लुक कान्फीडेन्ट' 'आई टू आई कांटेक्ट' 'फोल्डिंग हैंड्स नाट नेसेसरी'( हाथ जोड़ना जरूरी नहीं) आदि आदि।
महानगरों और शहरी क्षेत्रों में यह मार्डन शैली काफी लोकप्रिय हो रही है।
ग्रामीण व कस्बाई क्षेत्रों में अलबा अभी वही पुरानी शैली से वोट मांगे जा रहे हैं। घिघियाते हुए, झुक कर हाथ जोड़ते हुए, बेशर्म शरारती मुस्कान के साथ थोड़ा लाचार, थोड़ा भिखारी विनम्रता ओढ़ी हुई अकिंचन शैली में।
इधर, मतदाता को भावुकता के चरम पर लाने हेतु नेताओं द्वारा रुदन क्रन्दन शैली का प्रयोग किया जाने लगा है।
भावुक मतदाता विवेकशून्य हो जाता है तथा दयाभाव की वर्षा कर वोट, क्रन्दन शैली के नेता के पक्ष में डाल देता है। इस चुनाव में यह शैली रिले रेस की तरह प्रयुक्त हो रही है। एक नेता का रुदन क्रन्दन इतना स्थाई भाव हो गया कि उसकी देखादेखी दूर दूर के कई अन्य नेताओं ने रो धो कर, आंसू टपका कर, दहाड़े मार कर,  बुक्का फाड़ कर उस शैली को आलम्बन भाव की तरह गले लगा लिया।
कुछ नेता अभी भी अपनी अकड़ शैली के लिए विख्यात होते हैं। इनमें भूतपूर्व राजा,उजड़े हुए नरेश किस्म के नेता होते हैं। ये अपनी अकड़ शैली के बावजूद भी चुनाव में बाजी मार ले जाते हैं। एक ऐसे ही राजा के वंशज
वोट मांगते वक्त जनता के समक्ष कभी भी हाथ नहीं जोड़ते थे। मतदाता को स्वयं ही इज्जतवश हाथ जोड़ने पड़ते थे। नबाबजादे ने हाथ जोड़ने के लिए दो कारिन्दे किराये पर ले रक्खे थे। वे, नबाबजादे की ओर से हाथ भी जोड़ते थे और पांव भी छूते थे। नबाबजादे, बीच बीच में अपनी मूछें ऐंठते रहते थे और आखों से ऐसी आग उगलते थे जैसे मतदाता को भस्म कर देंगे। लेकिन मतदाता नबाबजादे को उनके राजसी खानदान और क्षेत्र में की गई धन वर्षा के कारण हर बार जिता देते थे। एक बार कुछ मतदाताओं ने गल्ती से पूछ लिया, हजूर, आपने संसद में कभी क्षेत्र के विकास हेतु कोई मांग नहीं रक्खी।
वे बोले, 'राजा कभी किसी से कुछ मांगता नहीं है, देता है। आपको क्या चाहिये बोलिये प'
मतदाता बोले, 'सरकार, रेलवे लाइन चाहिए,रेलवे लाइन के आने से क्षेत्र का विकास होगा।'
नबाबजादे बोले, 'मेरी टांसपोर्ट कम्पनी की जीप टोयेटा,बुलेरो गाड़ियां दौड़ती रहती हैं उनमें यात्रा किया करें आप लोग, रियायती पास मुझसे ले जाया करें। मैं रेल मंत्री से रेलवे लाइन नहीं मांग सकता,, वरना राजा किस बात का! उनको अगर रेल कर इंजन चहिये तो खरीद कर दे दूंगा,उनसे मांग नहीं सकता।'
ऐसे अकड़ू नेताओं की शैली अकड़ शैली कहलाती है।
कुछ नेता आते हैं,, ध्यानावस्था में आंखें बन्द किये हुए जैसे जनता के दुख कष्टों के निवारण हेतु जप तप योग कर रहे हों। वे जनता के समक्ष हाथ नहीं जोड़ते उल्टा आशीर्वाद देते हैं, जनता उनके आशीर्वाद से अभिभूत हो कर उनके पैर छूने लगती है। ऐसे सन्त बाबा किस्म के नेताओं की वोट मांगने की द्रौली 'स्थितप्रज्ञ शैली' कहलाती है।
अब ये जनता का अपना अपना नसीब है कि उसके क्षेत्र के भूतपूर्व, अभूतपूर्व,भावी, प्रभावी निष्प्रभावी नेता वोट मांगने की किस शैली में सिद्धथस्त हैं।
 

Wednesday, January 4, 2012

साहेल घनबरी इरान की एक दस साल की छोटी बच्ची है जिसके पिता डा. अब्दोलरजा घनबरी अपनी सांस्कृतिक,राजनैतिक और यूनियन गतिविधियों के कारण दिसम्बर 2009 से जेल में बंद हैं और इरान की अदालत ने उन्हें खुदा की शान में गुस्ताखी करने के लिए मृत्यु दंड दिया है.इरान के पिछले राष्ट्रपति चुनाव में धांधली को लेकर वहाँ विशाल प्रदर्शन हुए थे और कहा जाता है कि जिस समय ये प्रदर्शन हो रहे थे उस समय अब्दोलरजा अपनी बेटी का हाथ थामे सड़क पर उपस्थित थे.42 वर्षीय अब्दोलरजा फारसी साहित्य में पी.एच.डी. हैं,सोलह सालों से अध्यापन करते रहे हैं और उनकी कई किताबें प्रकाशित हैं.जेल में अपने पिता से मिलने जाने पर साहेल को पिता ने ही मौत की सजा की बाबत जानकारी दी.साहेल की माँ का कहना है कि इस घटना के बाद से ही उसकी सेहत बिगडनी शुरू हुई और जब भी वो अपने पिता के बारे में कुछ सुनती है उसको भावनात्मक और बेहोशी के दौरे पड़ने लगते हैं. यहाँ प्रस्तुत है फरवरी 2011 में सालेह की अपने अब्बा को लिखी चिट्ठी:--
यादवेन्द्र
प्यारे अब्बा,

मुझे पूरी उम्मीद है कि आप सकुशल और सेहतमंद होंगे.कई सालों बाद आज ऐसा दिन है जब आप फादर्स डे के मौके पर मेरे पास नहीं हो. मैं जब भी आप को शिद्दत से याद करती हूँ तो या तो आपको चिट्ठी लिखती हूँ...या उस नीली घड़ी को चुपचाप निहारती हूँ जो अपने मुझे जन्मदिन पर तोहफे में दिया दिया था.उसको देख के मुझे समझ आता है कि मेरा वक्त आपकी ना मौजूदगी में कितनी जल्दी जल्दी बीत जाता है.हर रोज मैं थोड़ा थोड़ा बढ़ जाती हूँ...अब मैं पहले से लम्बी भी हो गयी हूँ. आज फादर्स डे है...आपके बगैर ही हमने इसको मनाया और आपके लिए तोहफे ख़रीदे...हमारे बीच से गए हुए आपको छह महीने से ज्यादा बीत गए.आप नहीं हो तो मैंने अपनी मेज पर आपकी एक फोटो लगा रखी है...उससे मैं अक्सर बातें करती हूँ...और अदम्य साहस दिखाने के लिए शाबाशी देती हूँ.मुझे पूरा यकीन है कि प्यारे फ़रिश्ते फादर्स डे की मेरी दुआएं आपतक जरुर पहुंचा देंगे. प्यारे अब्बा, आज जिस वक्त हम त्यौहार मना रहे थे तो अम्मी के आंसुओं से सारा माहौल गमगीन हो गया.टी वी पर आज के दिन ढेर सारे प्रोग्राम आते हैं पर मैं इन्हें देखने का हौसला नहीं जुटा पाई...इनमें सभी बच्चे आपने अब्बा को फूलों का गुलदस्ता तोहफे में देते हैं और उनकी लम्बी उम्र के लिए दुआ करते हैं...इन सब को इकठ्ठा हँसता बोलता देख कर बहुत अच्छा लगता है....मुझ जैसी अभागी बच्ची की किसी को फ़िक्र नहीं होती जिसके अब्बा उस से बहुत दूर हैं.यही सब सोच के मैं आज बहुत उदास हो गयी थी और इसी लिए मैंने बिना कोई प्रोग्राम देखे टी वी बंद भी कर दिया. मेरे प्यारे अब्बा,मेरी एक ही ख्वाहिश है...मुझे और कुछ नहीं चाहिए बस आप मेरे पास वापिस लौट आओ ...और हमेशा मेरे साथ बने रहो....मैं बेसब्री से आपका इंतज़ार कर रही हूँ ...आप जल्द से जल्द मेरे पास आ जाओ...


आपकी बच्ची
साहेल