Thursday, July 26, 2012

सारी भागमभाग को धता बताती कविताएं

 &a   - महेश चंद्र पुनेठा 
 punetha.mahesh@gmail.com
   


जनपदीय चेतना और लोकधर्मी काव्य प्रवृतितयों के लिए इधर की हिंदी कविता में जिन युवा कवियों का नाम लिया जाता है उनमें आत्मारंजन का नाम उल्लेखनीय हैं। उनकी कविताओं की सबसे बड़ी खासियत है कि उनके यहाँ हिमाचल का पूरा जन-जीवन अपने भूगोल-इतिहास और संस्कृति के साथ उपसिथत होता है। प्रकृति अपनी विविध छटाओं के साथ दिखती है। वहाँ का श्रमशील जन जो पूरी मुस्तैदी के साथ सभ्यता-विकास के तमाम रास्ते अपनी देहों पर उठाए हुए है तथा समाज की अर्थव्यवस्था को 'डंगा की तरह ढहने नहीं देता है] उनकी कविताओं का नायक है। वे स्थानीयता को समकालीन समय की जटिलताओं के बीच रखकर देखते हैं। कवि की अनुभूति और संवेदना का साधारण ,वंचित और उपेक्षित से गहरा रिश्ता है। समाज का हर उपेक्षित और हाशिए में पड़ा उनकी कविता के केंद्र में आता है। वह किसान-मजदूर हो या फिर स्त्री व बच्चा। जो शुचिता के ऊँचे चबूतरे पर विराजमान नहीं है और जिसके पास न देव संस्कृति से जुड़े होने का गौरव है] न महान ग्रंथों में दर्ज मुग्धकारी इतिहास और जो न कोई महान धर्माचारी या महानायक हैं उनकी कविताओं में गौरव प्राप्त करता है। उनकी कविता इस बात की गवाही देती है कि है---- कि जो पूजा नहीं जाता‍/ नहीं होता इतिहास के गौरवमयी पन्नों में दर्ज वह भी अच्छा हो सकता है। वे लोक की रग-रग से वाकिफ हैं उसकी जीवन-गंध उनकी कविताओं में बसी है। वे पनिहारनों और घसियारनों से बतियाये हैं तथा उनके सुख-दुख के मर्म को समझते हैं। उनके सद्य प्रकाशित पहले कविता संग्रह पगडंडियाँ गवाह हैं की कविताएं इस बात की प्रमाण हैं।
    प्रस्तुत संग्रह की कविताओं में लोकगीतों की गूँज भी है और समूची मानवीय हलचल में डोलते-लहराते लोकवृक्ष की लय भी। यह कवि दूर महानगर में बैठा स्मृतियों के आधार पर अपने अंचल पर या छूटी चीजों पर कविता नहीं लिख रहा बलिक लहराते मकई के खेतों के छोर पर खड़ा सामने पसरे खेतों को देख कविता रच रहा है अर्थात अपनी जमीन पर रच-बस कर। वह पहले कसकती तान की गूँज को अपने भीतर महसूस करता है फिर अपनी कविता में उतारता है। खोती जा रही सामूहिकता की जीवन-संस्कृति के बारे में पूछता है- कहाँ है वह गाँव भर से जुटे बुआरों का दल

 कहाँ है वह बाजों-गाजों के साथ चलती गुड़ार्इ का शोर.....युवक-युवतियों के टोलों के बीच
.....किसी का काम न छूटने पाएबारी-बारी सबके खेतों में उतरता सारा गाँव। आज कहाँ रह गयी यह चिंता। व्यकितवाद हावी हो गया है। धन के बढ़ते प्रभाव ने एक आदमी को दूसरे आदमी की जरूरत को ही समाप्त कर दिया है। भार्इ-बिरादर या पड़ोसी की अहमियत को कम कर दिया है। जिसके पास धन है उसे रिश्तों बोझ लगने लगे हैं।  आज सिथति यह हो गयी है- खेतों में अपने-अपने जूझ रहे सब खामोशपड़ोसी को नीचा दिखातेखींच तान में लीनजीवन की आपाधापी में जाने कहाँ खो गयासंगीत के उत्सव का संगीत। जीवन का बदलना स्वाभाविक और जरूरी  है पर उसके चलते जीवन के मानवीय-मूल्यों और सकारात्मक तत्वों  का समाप्त होना अवश्य चिंता का विषय है। वही चिंता यत्र-तत्र इन कविताओं में आती है। बोलो जुलिफया रे कविता में कवि के लिए जुलिफया मात्र एक गायन शैली नहीं है जो बुआरा प्रथा में सामूहिक गुड़ार्इ के अवसर पर लोक वाधों की सुरताल के साथ गाया जाता है बलिक- मिटटी की कठोरता में उर्वरता औरजड़ता में जीवन फूँकतेकठोर जिस्म के भीतर उमड़तेझरने का नाम है जुलिफयाचू रहे पसीने का खारापन लिएकहीं रूह से टपकता प्रेमरागऐसे अनन्य लोकगीत तुम। कवि प्रश्न करता है- कैसे और किसने कियाश्रम के गौरव को अपदस्थक्यों और कैसे हुए पराजित तुम खामोशअपराजेय सामूहिक श्रम की। यह कविता पीड़ा है अपराजेय सामूहिक श्रम और श्रम के गौरव के अपदस्थ होने की एक लोकगायन शैली के लुप्त हो जाने की नहीं।
   रंजन बदलते वर्तमान के आलोक में अपने लोक को देखते हैंं। वे पुनरुत्थानवादी या भावुकता भरा विलाप करने वाले कवि नहीं हैं। उनके लिए लोक की स्मृतियाँ या दृश्य सजावटी सामान की तरह नहीं हैं जैसा कि महानगरों में रहने वाले अभिजात्य लोगों के लिए होता है। वे लोक को भोक्ता की नजर से चित्रित करते हैं। पहाड़ के कठिन जीवन के संघर्षों और कष्टों को कभी नहीं भूलते हैं। जैसे उनके यहाँ बर्फवारी के सौंदर्य का जिक्र आता है तो उससे स्थानीय जनों को होने वाली परेशानी का भी....जाड़ा कृतार्थ कर जाता शिखरों कोपेड़ भी सहार लेते बर्फ लेकिन घास -मौत से जूझती हर बारकि जीने की शर्त है धूपदिनों हफतों कभी महीनों तकतरसती धूप कोओढे़ हुए छीजत-सी आशा और विश्वासमर-मर कर जीती है घास। इस कविता में घास आम-पहाड़ी की प्रतीक है जो बर्फवारी के कष्टों के बोझ को झेलता है। यहाँ एक है जो बर्फ से लड़ता है और दूसरा जो बर्फ से खेलता है। लड़ने वाला वह है जो बर्फ के आसपास या बीच रहता है और खेलने वाला जो दूर देश से बर्फवारी का आनंद लेने आता है-दौड़ आते दूर-दूर सेपर्यटकों के टोलेभर-भर गर्म कपड़े गर्म सामानदिन-भर पहाड़ों के पेड़ों का सौंदर्यकैद करते आयातित कैमरों मेंमोटे दस्ताने चढ़े हाथ मजे से खेलते बर्फ। एक ओर बर्फ पर चलने की मजबूरी ढोताआदमी है तो दूसरी ओर छकता हुआ बर्फ का विलास । बर्फ पर चलता हुआ आदमी कविता में कवि इन दोनों की चाल की भिन्नता को पकड़ता है। साथ ही सुनता है बर्फ में चलने के लिए मजबूर आदमी के बच्चों से लेकर मवेशियों तक के कट-कटाते दाँतों की आवाज ,बर्फानी हवाओं की सिहरन उससे भी अधिक पिछले वर्ष बर्फ में मिली लाशों की डरावनी स्मृतियों की सिहरन। जिनके लिए बर्फ आश्चर्य नहीं बलिक आफत है जिसके चलते वह बर्फ को सराहता नहीं कोसता है। कवि आम और खास के बीच के अंतर को अच्छी तरह जानता है।टहलते हुए आदमी और काम पर जाते या लौटते आदमी के अंतर को अच्छी तरह पहचानता हैं। दो अलग-अलग वर्गों की दुनिया के दृश्यों को आमने-सामने रखते हुए कवि उनके बीच के अंतर को बखूबी उभार देता है। अलग से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। 
   भागते हाँफते समय के बीचाेंबीच सारी भागमभाग को धता बताते हुए आत्मारंजन तमाम व्यस्तताओं को खूँटी पर टाँग कविता लिखने बैठते हैं तो पूरी तन्मयता और पूरी तल्लीनता  से अपने जन और जनपद के सौंदर्य को नर्इ ऊँचाइयाँ प्रदान करते हैं और विद्रूपताओं को दाल के कंकड़ों की भाँति छाँट देते हैं। कुछ उसी तरह जैसे प्रस्तुत संग्रह की पहली कविता में कंकड़ छाँटती स्त्री। एक स्त्री की अन्न को निष्कंकर होने की गरिमा भरी अनुभूति और इस कवि की अपने जन के हर्ष-विषाद को स्वर देने की अनुभूति में बहुत अधिक समानता है। तभी तो कवि दाल में से कंकड़ छाँटती औरत के हाथ को इस रूप में देख पाता है-एक स्त्री का हाथ है यहजीवन के समूचे स्वाद में सेकंकड़ बीनता हुआ। वास्तव में एक स्त्री दाल से ही कंकड़ नहीं बीनती बलिक जीवन में आने वाले तमाम कंकड़ों को बीनकर जीवन को स्वादिष्ट बनाती है। पर दुखद है कि हमारे जीवन में इतनी महत्वपूर्ण स्थान रखने वाली स्त्री का जीवन हाँडी के जीवन से बहुत अलग नहीं है। कितनी समानता है इन दोनों में -तान देती है जो खुद को लपटों परऔर जलने कोबदल देती है पकने में। स्त्री खुद तमाम कष्ट सहन करते हुए अपने परिजनों के लिए सुख का संसार रचती है। उसका श्रम, महक ,स्वाद.....हाँडी की तरह है उसका जीवन जो खुद जलकर दूसरों को स्वादिष्ट भोजन उपलब्ध कराती है। कवि प्रश्न करता है-सच-सच बताना क्या रिष्ता है तुम्हारा इस हाँडी से माँजती हो इसे रोजचमकाती हो गुनगुनाते हुएऔर छोड़ देती हो उसका एक हिस्साजलने की जागीर साखामोशी से। इस कविता में कब हाँडी स्त्री में बदल जाती है पता ही नहीं चलता है। स्त्री की सदियों की खामोशी और भरे मन की बेचैन कर देने वाली अभिव्यकित यहाँ दिखती है। यह आत्मारंजन का कवि-कौशल कहा जाएगा कि उन्होंने हमारे समाज में स्त्री की सिथति को बताने के लिए बहुत सटीक प्रतीक का प्रयोग किया है।
  इधर युवा कवियों की एक बात के लिए प्रशंसा की जानी चाहिए कि स्त्री को लेकर उनमें गहरी संवेदनशीलता के दर्शन होते हैं। वे उसके दु:ख-दर्द को शिददत से महसूस करते हैं। स्त्री के प्रति उनका रवैया पुरुषवादी नहीं है। वे उसकी बराबरी के पक्षधर हैं। उसके योगदान को मुक्तकंठ से स्वीकार करते हैं तथा उसके प्रति कृतज्ञता-भाव से भरे हैं। उन्हें औरत की आँच नंगे बदन में नहीं ,उसके प्रेम-स्नेह-ममता में महसूस होती है-जो पत्थर ,मिटटी ,सिमेंट को सेंकती हैबनाती है उन्हें एक घर। वे जानते हैं स्त्री-पूजने से जड़ हो जाएगीकैद होने पर तोड़ देगी दम। उसे तो चाहिए बस अपने जीवन के बारे में निर्णय लेने की स्वतंत्रता और मानव की गरिमा। खुलकर हँसने की आजादी ताकि उसे हँसते हुए यह अपराधबोध न हो कि-ऐसे हँसना नहीं चाहिए था उसेवह एक लड़की है। आत्मारंजन अपनी कविताओं में औरत की इस विडंबना पर सटीक चोट करते हैं और उसकी पारदर्शी हँसी जो सुबह की ताजा धूप सीहवाओं में छिटकी है ,से हमारा परिचय कराते हैं। इतना  सुंदर बिंब वही कवि रच सकता है जो स्त्री का सम्मान करता हो और सुविधा,लाभ या मनोरंजन केअर्थों से दूर हो । उसे ही एक स्त्री का होना एक सुखद उपसिथति लग सकती है।
    कुछ ऐसा ही सम्मान कवि  का श्रमसंलग्न लोगों के प्रति भी दिखार्इ देता है। वे श्रम से जुड़ी कि्रयाओं को एकदम अलग तरीके और उनके वास्तविक रूप में देखते हैं। उनकी तह में जाकर समझते हैं। उनमें गहरी अंतदर्ृषिट के दर्शन होते हैं। हममें से अनेक कवियों ने किसान-मजदूरों को श्रम करते हुए थक जाने पर सुस्ताने के लिए पृथ्वी पर लेटे हुए देखा होगा पर किसी ने उनकी तरह नहीं देखा। उन्हें पृथ्वी पर लेटना पृथ्वी को भेंटना लगता है। यह भेंटना पृथ्वी और उसके पुत्रों के बीच रिश्ते की आत्मीयता और प्रगाढ़ता को बताता है। वास्तव में धरती के लाडले बेटे का पृथ्वी पर लेटने का अंदाज ही उसे भेटने जैसा हो सकता है। पृथ्वी से उसका संबंध उसी तरह का हो सकता है जैसा एक बेटे का अपनी माँ की गोद से। यहाँ कवि ने श्रम करते हुए थकी हुर्इ देह का पृथ्वी में लेटने का जो चित्रण किया है वह अदभुत है। ऐसी अलट नींद से किसे ना र्इष्र्या हो उठे। इस नींद में कहीं ना कहीं श्रम का आनंद छुपा हुआ है। इस तरह पृथ्वी में लेटना वास्तव में-जिंदा देह के साथजिंदा पृथ्वी पर लेटना है। कवि इसमें जिस तरह का सुख देखता है वह उसकी शारीरिक श्रम के प्रति अगाध आस्था केा बताता है।एक कवि और मजदूर-किसान ही इस सुख का अनुभव कर सकता है। पृथ्वी से थोड़ा ऊपर जीने वाले इस सुख को नहीं अनुभव कर सकते और न वे  मिटटी की महकधरती का स्वाद जान सकते हैं । एक कवि ही आलीशान गददों वाली चारपाइयों में सोने के सुख को इस तरह अंगूठा दिखा सकता है। इस कविता को पढ़ते हुए कबीर याद हो आते हैं-मिटटी से बेहतर कौन जानता हैकि कौन हो सका है मिटटी का विजेतारौंदने वाला बिल्कुल नहींजीतने के लिएगर्भ में उतरना पड़ता है पृथ्वी केगैंती की नोक,हल की फालया जल की बूँद की मानिंदछेड़ना पड़ता हैपृथ्वी की रगों में जीवन रागकि यहाँ जीतना और जोतना पर्यायवाची हैंकि जीतने की शर्तरौंदना नहीं रोपना हैअनंत-अनंत संभावनाओं कीअनन्य उर्वरताबनाए और बचाए रखना। यहाँ कविता मिटटी की महत्ता को भी बताती है और सृजन की भी। सही अथोर्ं में जीतना दूसरे को रौंदना नहीं है बलिक रोपना है अर्थात जीत ध्वंस करने में नहीं बलिक सृजन करने में है। इस कविता को पढ़ते हुए किसी भी शारीरिक श्रम करने वाले का मन एक अतिरिक्त गरिमा से भर उठेगा। उसे अपना काम दुनिया का सबसे बड़ा काम लगने लगेगा। यह संग्रह की बेहतरीन कविताओं में से एक है। कवि ने मिटटी में मिलाने तथा धूल चटाने जैसे मुहावरों की बहुत तर्कसंगत व्याख्या की है। निशिचत रूप से ये  मुहावरे विजेताओं के दंभ की उपज और पृथ्वी की अवमानना  हैं। उस आदमी की अवमानना है जो धूल-मिटटी में लेटा-लौटा रहता है। पृथ्वी और उसके बेटों से प्रेम करने वाला कवि ही उसके निहिताथोर्ं को इस तरह से पकड़ सकता है। खुद को  जमीन से जुड़ा कहने वाला  कवि भी न जाने कितनी बार इन मुहावरों का प्रयोग करता है। कुछ उसी तरह से जैसे स्त्री का सम्मान करने वाला भी जाने-अनजाने गुस्से में  माँ-बहन  की गाली दे देता है।
 इसी तेवर की एक अन्य कविता है पत्थर चिनार्इ करने वाले। कविता को पढ़ते हुए बचपन के वे दिन याद हो आते हैं जब मिस्त्री को दीवार चिनते हुए देखते थे तो देर तक डिबिया की तरह पत्थर काटते-छाँटते-बैठाते  हुए उसे देखते ही रहते थे। बहुत आनंद आता था। उस बात का बहुत हू-ब-हू चित्रण इन पंकितयों में मिलता है-कि डिबिया की तरहबैठने चाहिए पत्थरखुद बोलता है पत्थरकहाँ है उसकी जगहबस सुननी पड़ती है उसकी आवाजखूब समझता है वहपत्थर की जुबानपत्थर की भाषा में बतिया रहा हैसुन रहा गुन रहा बुन रहाएक-एक पत्थर। इस कविता में एक ओर श्रम का सौंदर्य है  तो दूसरी ओर सृजन का सौंदर्य। यह महत्वपूर्ण बात है कि कवि कला को श्रम से अलग नहीं मानता है -आदिम कला है यहसदियों से संचित। बरसों से सधी हुर्इपहुँच रही है एक-एक पत्थर के पासर्इंट नहीं है यहसुविधाजनक साँचों में ढलकर निकली। इस कविता में स्थापत्य कला की बारीकियाँ उतर आयी हैं। यह कविता कवि की इन शिल्पकारों से निकटता को बताती है। उनकी एक-एक गतिविधि पर कवि की बारीक नजर है। कवि कितनी गहरार्इ से जुड़ा है चिनार्इ करने वालों से ये पंकितयां उसकी साक्ष्य हैं- पत्थर चुनता है वहपत्थर बुनता हैपत्थर गोड़ता हैतोड़ता है पत्थरपत्थर कमाता है पत्थर खाता हैपत्थर की रूलता पड़ताधूल मिटटी से नहाता हैपत्थर के हैं उसके हाथपत्थर का जिस्मबस नहीं है तो रूह नहीं है पत्थरपत्थरों के बीच गुनगुनाताएक पत्थर को सौंपता अपनी रूह। यहाँ उसकी कला ही नहीं बलिक उसका संघर्ष और संवेदनशीलता (भीतर-बाहर) भी कविता में व्यंजित होती है। पत्थरों के बीच रहने वाला खुद पत्थर नहीं है। उसकी रूह नहीं है पत्थर। यही उसकी सबसे बड़ी खासियत है जिसके चलते वह कविता की विषयवस्तु बना। कवि की यह पारखी नजर ही कही जाएगी जो लगभग उपयुक्त विकल्प पर ही टिकती है। यहाँ बस नहीं है तो रूह नहीं है पत्थर कहकर कवि बिना कहे यह बात कह देता है कि श्रम से दूर रहने वाले लोग किस तरह आज पत्थरहोते जा रहे हैं।
  उनकी कविताओं की बनावट उतनी सरल नहीं है जितनी दिखती है। समाज में फैले बेढंगेपन और कठोरता के बीच से वे मजबूत कविता बुन लेते हैं। उनकी कविताओं में कब सजीव चीजें निर्जीव चीजों के भीतर और कब निर्जीव सजीव के भीतर प्रवेश कर जाती हैं पता ही नहीं चलता है। ये उनकी कविता की बहुत बड़ी खासियत है। रंजन की कलम में जादू है वह सामान्य काम को भी कला की ऊँचार्इ प्रदान कर देती है। समाज के बेकार कहलाने वाले उपेक्षित अंग को केंद्र में रखकर वे जिंदा कविता बनाते हैं,कुछ उसी तरह जैसे यह शिल्पी-बेकार हो चुके के भीतर खोजता रचता उसके होने के सबसे बड़े अर्थबेकार हो चुके के भीतर खोजता रचतापृथ्वी के प्राणपृथ्वी को चिनने की कला है यहटूटी-बिखरी पृथ्वी कोजोड़ने-सहेजने की कलारचने,जोड़ने,जिलाने कासौंदर्य और सुख! किसी कला की सार्थकता भी इसी में है। कविता पर भी यह बात पूरी तरह लागू होती है। ये वही मिस्त्री हैं जो तीखी ढलान की जानलेवा साजिशों के खिलाफ मजबूत डंगा का निर्माण करते हैं।
  युवा कवि आत्मारंजन के कविता संसार में श्रम करने वालों से भरा-पूरा है। खुदार्इ-चिनार्इ करने वालों के बाद रंग पुतार्इ करने वालेउनकी कविता में दिखार्इ देते हैं। इनकी जीवन-प्राथमिकता,जीवन सिथतियाँ ,विडंबनाएं ,हुनर की बारीकियाँ आदि इस कविता में चित्रित हुर्इ हैं-रंगों से खेलते रहते हैं वे अपने पूरे कला-कौशल के साथपर कोर्इ नहीं मानता इन्हें कलाकारवे जीते हैं पुश्त दर पुश्त अनामहालांकि कम नहीं है इनकी भी रंगों की समझ.....कितना सधा है उनका हाथदो रंगों को मिलाती लतरमजाल है जरा भी भटके सूत से। इससे पता चलता है कि कवि हुनरमंद को ही नहीं बलिक उसके हुनर को भी जानता है। कैसी विडंबना है जिनके हाथों में जीवित हो उठते ब्रश और लकदक हो उठते हैं रंग , उनके हिस्से हमेशा बदरंग ही आते हैं। इसे कवि तमाम रंगों की साजिश मानता है। कितनी बड़ी बात है कि तमाम कठिनाइयों के बावजूद श्रम करने वाले ये लोग -करते हँसी-ठठा ,बतियातेदूर देहात का कोर्इ लोक-गीत गुनगुनातेरंग पुतार्इ कर रहे हैं वेकहाँ समझ सकता कोर्इखाया-अघाया कला समीक्षकउनके रंगों का मर्मकि छत की कठिन उल्टान मेंशामिल है उनकी पिराती पीठ का रंग। इस तरह रंजन अभिजात्य रूचि के कला समीक्षकों को चुनौती देते हैं। कवि यह कहते हुए कि-चटकीले रंगों में फूटती ये चमकएशियन पेंट के किसी महँगे फामर्ूले की नहींइनके माथे के पसीने पर पड़तीदोपहर की धूप की है। किसी ब्रांड की चमक से ऊपर श्रम की चमक को रखते हैं। वे बताते हैं कि एशियन पेंट लगाने से जो चमक दिखार्इ देती है वह तब तक नहीं होती जब तक श्रम का पसीने का रंग उसमें नहीं मिलता। बाजार की जो चमक-दमक है उसके पीछे भी श्रम की ही ताकत है- हमारी रोजमर्रा की दृश्यावलियों कोखूबसूरत बनाया है इनके रंगों ने। कवि जानता है पृथ्वी की सीलन यदि किसी से कम होती है तो इन्हीं श्रमजीवियों से-इन हाथों के पास हैंतमाम सीलन को पोंछने हरने का हुनर। खुरदुरे हाथ ही चमकीली और पत्थर-जिस्म ही कोमल दुनिया का निर्माण करते हैं।दुनिया को सीलन मुक्त करते हैं।  श्रम करने वालों के प्रति ऐसी अगाथ श्रद्धा इधर के बहुत कम युवा कवियों में दिखार्इ देती है। शारीरिक श्रम को कला का दर्जा वही कवि दे सकता है जो जीवन में उसकी अहमियत को समझता है। नागरबोध के मध्यवर्गीय कवि इतनी गहरार्इ तक नहीं उतर सकते हैं। रंजन कदमों की ताकत को स्थापित करने वाले कवि हैं-पगडंडियाँ गवाह हैंकुदालियों ,गैंतियोंखुदार्इ मशीनों ने नहींकदमों ने ही बनाए हैंरास्ते। यह बहुत बड़ा सत्य है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता है। भले कितनी ही मशीनें बना ली जाएं पर आदमी की अहमियत समाप्त नहीं होगी।
 आत्मरंजन की छोटी कविताएं अधिक मारक और बेधक हैं। सीधे मर्म पर चोट करती हैं। ऐसा लगता है जैसे उन्होंने समय की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो। वह एक सुर्इ सी चुभा देते हैं जो देर तक अपनी चुभन का अहसास कराती रहती है। हादसे ,तमीज , देवदोष , रास्ते ,शकितपूजा,घर से दूर , आधुनिक घर आदि इसी तरह की कविताएं हैं। इन कविताओं में वे अपने समय और समाज की छोटी-छोटी सच्चाइयों को सूक्ष्मता से रेखांकित करते हैं। अंधविश्वासों-रूढि़यों पर तीखा व्यंग्य करते है। हर छोटी-बड़ी बात पर उनकी सूक्ष्म दृषिट रहती है। यह यथार्थ है कि हम अपनी लकीर को बड़ा करने के लिए दूसरे की लकीर को मिटाने के प्रयास में लगे हैं- लगातार-लगातारतलाश रहे हैं हमदूसरों की कमियाँकि हो सकेंताकतवर। हमारी राजनीति इसकी सबसे अधिक शिकार है।  आधुनिक घर कविता के माध्यम से कवि आधुनिक सभ्यता में सिकुड़ती संवेदना पर करारा व्यंग्य करता है-आधुनिक घरों के पास नहीं हैं छज्जेकि लावारिस कोर्इ फुटपाथी बच्चाबचा सके अपना भीगता सर नहीं बची है इतनी जगहकि कोर्इ गौरैया जोड़ सके तिनकेसहेज परों की आँचबसा सके अपना घर संसार। वास्तव में नहीं बची है इतनी भर जगह जिसमें किसी गरीब-बंचित-उपेक्षित के लिए कोर्इ स्थान हो। यह संकट बाहर की अपेक्षा भीतरी-जगह का अधिक है। दुनिया छोटी होती जा रही हैंं जिसमें मानवीय मूल्यों और भावनाओं के लिए स्थान सिकुड़ता जा रहा है। यह कविता उन लोगों की आँख खोलती है जो यह कहते नहीं थकते हैं कि समाज में यदि किसी भी वर्ग के हिस्से समृद्धि आती है तो उसका लाभ अंतत: समाज के सबसे निचले पायदान पर बैठे व्यकित तक पहुँचता है। जबकि वास्तविकता यह है कि एक वर्ग विशेष की सम्पन्नता दूसरे वर्ग के सिर की छत भी छीन लेती है।
    आत्मारंजन पेशे से शिक्षक हैं। ऐसे में भला बच्चे उनकी दृषिट से ओझल कैसे रह सकते हैं। प्रस्तुत संग्रह में बच्चों को लेकर कुछ बहुत सुंदर और प्यारी कविताएं हैं। बच्चों की सहजवृतित और बाल लीलाएं यहाँ बेहतरीन ढंग से चित्रित हुर्इ हैं। उन्हें बच्चों की जरूरत का पता भी है और उनके बचपन छिनने की चिंता भी। वे मानते हैं कि अभिभावकों की महत्वाकांक्षाएं बच्चों पर बहुत बड़ा बोझ हैंं। हर माँ-बाप चाहते हैं कि उनका लाडला पढ़ने-लिखने में सबसे अब्बल रहे। हर विषय में अच्छे अंक लाए और रहे टाप। खेलकूद में समय बरबाद ना करे। इस बोझ तले बच्चों का बचपन कैसे रौंदा जा रहा है ? उसकी रचनात्मकता को कैसे सुखाया जा रहा है? कैसे उसकी कल्पनाशीलता के पंख कतरे जा रहे हंैं? इसे आत्मारंजन बहुत अच्छी तरह व्यक्त करते हैं। कैसी बिडंबना है कि  आज का अभिभावक अपने बच्चे से तो बहुत कुछ चाहता है पर नर्इ सदी में टहलते हुए इसके पास उसके लिए समय नहीं है। वह अपनी ही दुनिया में  मग्न है। यहाँ तक कि घुमाने ले गए बच्चे से बात करने का भी उसके पास समय नहीं है चिपकाए हुए है कान में मोबाइल। बच्चों को लेकर कवि की चिंता जायज है-यह खुशी की नहीं ,ंिचंता की बात है दोस्तकि उम्र से पहले बड़े हो रहे हैं बच्चे। यह हर संवेदनशील व्यकित की चिंता है। ऐसे में कुछ तसल्ली देता है बच्चों का मौसम,विष ,तनाव और चिंता को धता बताकर खेलना- खेलते हैं बच्चेतब भीजब खेलने लायक नहीं होता है मौसम.....जब दुरस्त नहीं होता शरीर का तापमान.....तब भी जब वक्त नहीं होता खेलने का.....तब भी जब सर पर होती हैं परीक्षाएं (खेलते हैं बच्चे-एक) बच्चों का इस तरह खेलना कहीं ना कहीं बचपन को छीनने की साजिश का प्रतिकार है। लाख कोशिश कर ले जमाना बच्चों से उनका खेलना नहीं छीन सकता है। इस कविता में कवि साफ-साफ बच्चों के पक्ष में खड़ा दिखार्इ देता है विशेषरूप से उन बच्चों के ,जिनसे उनका बचपन भी खुद आँख मिचौली खेलता है- खेलते हैं बच्चेवे भी ,जिनके पास नहीं होते खिलौने....बड़ों की दुनिया का खुरदरापनअंकित है जिनकी नन्हीं हथेलियों में। बचपन के पक्ष में खड़ा कवि ही यह कह सकता है-वे लगते हैं बहुत अच्छेजब उनके बच्चा होने के खिलाफबड़ों की तमाम साजिशों कीखिल्ली उड़ाते हुएखेलते हुए बच्चे! आत्मारंजन इन कविताओं में न केवल बच्चों का पक्ष लेते हैं बलिक बलिक बच्चों की मासूमियत , खरेपन ,निष्कलुषता और निर्दोषता को रेखांकित कर बड़ों की हृदयहीनता और खुरदुरेपन पर भी गहरी चोट करते हैं-जैसे होते हैं बच्चेबड़े कहाँ होते हैं वैसे। बिल्कुल सही कहते हैं- दरअसल हमारा बड़ा हो जाना बच्चा होने के खिलाफएक समझौता हैबाहर बढ़तेंअंदर बौना होते जाने कोदृढ़ता से अनदेखा करजो जितनी कुशलता से इसे ढोता हैदुनिया में उतना ही सफल होता है। ये पंकितयाँ  बच्चों की निर्मलता और खरेपन को ही नहीं बताती बलिक बड़ों की दुनिया से खत्म होते मानवीय मूल्यों की गाथा को भी कहती हैं। कवि इस दुनिया की सुंदरता के लिए हम सब से बच्चों सी निर्मलता एवं निष्कपटता की कामना करता है। कवि  आडंबरी दुनिया से प्रश्न करता है यदि बच्चे भगवान के रूप होते हैं तो फिर बदहाल क्यों हैं? कवि की चाहत है कि- बहुत जरूरी है कि कुछ ऐसा करेंकि बना रहे यहअंगुलियों का स्नेहिल स्पर्शऔर जड़ होती सदी परयह नन्हीं सिनग्ध पकड़कि इतनी ही नर्म उष्मबची रहे यह पृथ्वी। कवि बच्चों की जरूरत को कितनी शिददत से महसूस करता है इसका पता इन पंकितयों से चलता है- उनके खेलने के लिए स्कूल प्रांगण तो क्याछोटी पड़ती हैपूरी की पूरी पृथ्वी । बाल हृदय की गहराइयों को जानने वाला कवि ही ऐसा कह सकता है।
 जो नहीं है खेल कविता खेलों में घुस आए छल-छदम का प्रतिरोध और खेल भावना को बचाने की अपील करती है। यह सच है आज खेल, खेल न रहकर युद्ध में तब्दील हो गए हैं। यह दुखद है। वास्तव में जो नहीं है खेल वहीं बचे हैं खेल। कवि कि्रकेट ,हाकी ,फुटबाल ,टेनिस जैसे लोकप्रिय खेलों के बरक्स गली-मुहल्लों में खेले जाने वाले गिल्ली-डंडा ,पिटठू ,लुका-छुपी ,चोर-सिपाही जैसे खेलों को रखकर कहता है-ओलमिपयाड ,एशियाड या राष्ट्रीय खेलों कीकिसी भी किताब में नहीं है इनका जिक्रखेल वालों के लिए नहीं है येकिसी भी श्रेणी के खेल। यह कविता सोचने को प्रेरित करती है कि आखिर क्यों गल्ली-मुहल्लों के ये खेल जो सदियों से खेले जा रहे हैं खेल की श्रेणी में शामिल नहीं हो पाए? इस तरह खेलों के साथ जुड़ी राजनीति और बाजार के गणित की ओर यह कविता पाठकों का ध्यान खींचती हैं। यह कविता बताती है कि हम जिन्हें खालिस खेल समझते हैं दरअसल वे मात्र खेल नहीं हैं उनके पीछे बहुत कुछ ढका-छुपा है। इस बाजार समय में खेलों को निर्दोष तरीके से नहीं देखा जा सकता है। जब चमक विज्ञापन और व्याख्या परलगार्इ जा रहीसारी की सारी ऊर्जा और मेधा खेल भला उससे कैसे बच सकते हैं। गनीमत है कि बाजार की चमक की चकाचौंध जिन स्थानों तक अभी नहीं पहँुच पायी है वहीं बचे हैं विशु़द्ध खेल जिनका उददेश्य पूरी तरह मनोरंजन की प्रापित है। वहीं बचपन भी बचा है और स्वाभाविकता भी। अन्यथा तो चारों ओर स्मार्ट लोग ही दिखार्इ देते हैं जो अपनी ही दुनिया में खोए हुए हैं जिन्हें धूल और पसीने से गहरी एलर्जी है। जिन्हें बड़ी साजिशों की कोर्इ खबर नहीं है । उन पर कृत्रिम रूप-रंग-गंध का जादू छाया हुआ है । यह जादू चलाने में ओलमिपक ,एशियाड या राष्ट्रीय खेलों की खास भूमिका है। इन स्मार्ट लोगों की दुनिया में-कहीं दबता जा रहा है घरकिताबें नहीं नजर आती हैं कहीं भी , न लाइब्रेरी। इस तरह आत्मारंजन अपनी कविताओं में अपने समय को दर्ज करने की सफल कोशिश करते हैं। कवि की कसौटी मानी जाती है कि वह अपने समय और समाज की गति को पकड़ने में कितना सफल रहा है। इस दृषिट से इस संग्रह की कविताएं हमें संतुष्ट करती हैंं। बाजार समय को कवि पूरी कुशलता से पकड़ता एवं चित्रित करता है। अपने समय की गहरी पहचान इन कविताओं में दिखार्इ देती है। इन कुछ पंकितयों में ही बाजार-समय का चेहरा झलक उठता है-सब कुछ आकर्षक-मोहकनयनाभिरामकैसी मोहक रसीली जुबानसत्कार भरे संबोधन......कहीं भी हो सकता है वह मोहक छलियाबाजार से लेकर घर तक......हमारे समय का सबसे बड़ा जादूगर है वह......किसी भी रूप में हो सकता हैवह बहुरूपियाहमारे आचार-व्यवहार में घुसता........जहाँ लटका है तराजूतोल में ठगे जाने कीसबसे अधिक संभावना भी रहती है वहीं। ......विश्वास बहेलिए की आड़ की तरह किया जा रहा हो इस्तेमाल।........रिश्तों की भीड़ का एकाकीपन.....चुपिपयों का चीत्कार। लेकिन  एक प्रतिबद्ध कवि की खासियत होती है कि समय चाहे कितना ही बुरा और कठिन हो वह निराश-हताश नहीं होता है। वह अपनी कविताओं में एक खूबसूरत दुनिया की सृषिट करना नहीं छोड़ता। मनुष्य को उसकी ताकत का अहसास करता है। आत्मरंजन भी यही काम करते हैं। एक ओर जब बाजार अपनी चमक-दमक से हर कम चमकीली चीज को हाशिए में धकेल रहा है वे हाशिए में उपेक्षित पड़ी चीजों को कविता के केंद्र में लाकर सबका ध्यान आकृष्ट कर रहे हंै और अहसास करा रहे हंै कि उनके बिना आधी-अधूरी और हवार्इ है यह दुनिया। खास के समानांतर आम को खड़ा कर एक नर्इ दुनिया की सृषिट कर रहे हंै। उनके लिए पुराना डिब्बा भी बेकार नहीं होता है रोप दिया जाय उसमें एक फूल का पौंधा फिर जी उठता है पुराना वह। वे र्इश्वर को मानव का रचा बता कर मानव की श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं और कहते हैं-तुम्हारी ऊँगली थामे ही तय होता हैघने से घने अंधेरे काअथाह सफर। वे अपील करते हैं-उदास मत हो मेरे दोस्तबहेलियों की कुटिल कालिमा के खिलाफ यूँ ही झिलमिलाते रहो यूँ ही टिमटिमाते कि बची रहे बनी रहेबहती रहे यह सृषिट अविरत अविरल।     
     कुल मिलाकर समीक्ष्य संग्रह की कविताएं जीवन के लिए संघर्ष करती सांसों और राहत की भीख माँगती कातर आँखों में जीवन रस की मिठास घोलती और उम्मीद की किरण जगाती हैं। जीवन की आपाधापी में खोती कोमल संवेदनाओं को बचाने और श्रम के गौरव को स्थापित करने की कोशिश करती हैं। यह बहुत अच्छी बात है कि कवि  की दृषिट में सबसे जरूरी है मानवीय होना। कोर्इ कितना ही बड़ा हो यदि मानवीय नहीं है तो उसकी कोर्इ अहमियत नहीं है। कवि की यह दृषिट लोकधर्मी कविता के भविष्य के प्रति हमें आश्वस्त करती है। 

पगडंडियाँ गवाह हैं( कविता संग्रह% आत्मरंजन
प्रकाशक- अंतिका प्रकाशन सी- यू जी एफ-  शालीमार गार्डन एक्सटेंशन- गाजियाबाद-201005
मूल्य- दो सौ रुपए।

Tuesday, July 10, 2012

जिन्दगी से रची सरगम

पेशे से डाक्टर डा. जितेन्द्र भारती साहित्य के अध्येता हैं। कहानियां लिखते हैं। वैसे सच कहूं तो लिखते कम हैं सुनाते ज्यादा हैं। घटनाओं को कथा के रूप में सुनाने का उनका अंदाज निराला होता है। यकीकन वे किस्सागो हैं। उन सभी किस्सों को यदि वे लिख ले तो बेहतरीन कहानियां हैं। लेकिन वे लिखते कम ही हैं। कुछ ही कहानियां लिखी हैं। वैसे भी उनसे कुछ लिखवा लेना बड़ा मुश्किल होता है। लेकिन पेरिन दाजी पर लिखी संस्मरणात्मक  किताब के बाबत उन्होंने अपनी खुद की प्रेरणा से लिखा है।   डा.  भारती की यह खूबी है कि उनका मन जिस बाबत खुद से होता है, वही लिखते हैं और मनोयोग से लिखते हैं। उनके लिखे को यहां प्रस्तुत कर पाना हमारे लिए उपलब्धि से कम नहीं। 
वि.गौ.

 
डा. जितेन्द्र भारती
 
बेशक पेरिनदाजी और होमीदाजी ने प्रेम किया, विवाह किया और साठ वर्षो का एक लम्बा पारिवारिक जीवन जिया। अपनी आंखों कें सामने अपने जवान बच्चो को एक के बाद एक केंसर व अन्य जान लेवा बिमारियों मे जाते देखा। होमी दाजी ने स्वयं भी कई सारी तकलीफदेह बिमारियों को झेला। सेहत छिनी। सुख-चैन छिना। जिन्दगी के हालात भी बद से बदतर होते रहे लेकिन इन दोनों दाजियो के बीच इनका प्रेम उत्तरोतर समृद्ध ही होता गया। एक र्साथक प्रेम की सरगम थी इन की जिन्दगी। पेरिन दाजी ने बात तो अपनी और होमी दाजी की कही, मगर नहीं, उन्होने जमाने की नब्ज पकडी और जमाने की ही बात कही। इन्दौर के औधोगिक राजधानी  बनने, उसके शहरीकरण, उसके सर्वहाराकरण, राजनितिक सत्ताओं के गठजोड, चुनाव की उत्सवधर्मिता की बातें और बाकी तमाम बातों मे ही होमी दाजी, बतौर कामरेड, बतौर इसान हर कहीं मौजूद हैं। उन दोनो का प्रेम उनकी सीमाओं से बाहर-बाहर तक फैला हुआ। यह पेरिन दाजी की निर्दोष लेखनी का कमाल है जो अनजाने मे इतना कुछ कह गयी है जे सधे हुए लेखको के लिए सीखने लायक है। एक तरफ बांहें फैलाता पेरिन दाजी और होमी दाजी का प्रेम है। दूसरी तरफ लेखन के कथित विश्वास से भरे सुधी जनो के साहित्य जगत मे इस बीच प्रेम को लेकर कई सारे विशेषांक निकले। जिनमे दर्जनो कहानियां, बिसियों लेख और सैंकडो कविताएं साथ ही ढेर सारी टिप्पणियां पाठको ने देखी। प्रेम ही प्रेम था हर तरफ। शायद नहीं था। हंस के सम्पादक राजेन्द्र यादव ने अपने सम्पादकीय में प्रेम भावों का जायजा लिया। उन्होने अफसोस जनक सिथतियों और उनकी अभिव्यकितयों में हस्तक्षेप किया और रुटीन प्रेम को सन्देह से देखते हुए बलिक अपर्याप्त सा मानते हुए लिखा कि पिछले पचास सालों मे पति-पत्नी के बीच प्रेम की कोई रचना उन्होने नहीं देखी। बात यूंही और महज छेडखानी भी नही थी। पति-पत्नी के बीच का प्रेम या कहा जाय उनका प्रेम कब और कहां बिला जाता है यह शायद उन्हें भी पता नही चलता। उसकी ऊष्मा और उद्वेग क्या सिथति ग्रहण कर लेते हैं? या उनहे चिह्नित नहीं किया जा सकता या मुशिकल  हो जाता है,  बहर हाल! मामला आसान तो नही रह जाता।
 नैतिक व उपदेशात्मक कथित ज्ञान आमतौर पर द्वन्दात्मक और अनतर तनावों को संप्रेषित न करके एकतरफियत के संवाहक होते हैं, लिहाजा काम नही करते। इनका नाकाम रह जाना ही यह भी बता जाता है कि वें स्थितियां उतनी समान और सामान्यता से गुंथी नही हैं बलिक असामान्य व असमानता उनकी हकीकत है। अब उस असामान्य सिथतियों को देखने, समझने और उनमे हस्तक्षेप के दृषिटकोणों का संम्बन्ध और अन्तर-सम्बन्धों का तादात्मय से एक नया उत्कर्ष पैदा होगा। जो उन्हे महज पति-पत्नी न रहने देकर, उन्हें साथ ही एक कार्मिक भी बनाता है। यहां भी एक अपनापा और प्रेम का उन्मेष उपजता है जिसमे एक आर्कषण भी होगा। बेशक वे मौजूदा अर्थों वाले पति-पत्नी रह भी नहीं जायेगें। ये अन्तर्विरोधी और द्वन्दात्मक तनावों से ओत-प्रोत परिवेश, उनमें ठहराव आने ही नही देगा। यह वस्तुगत यथार्थ है जो गतिशील है, और इससे उपजा प्रेम भी।
पेरिन दाजी और होमी दाजी का यह प्रेम प्रेरणादायक है। जो पति-पत्नी को उस सम्बंध से बाहर असीमता और विस्तार में ले जाता है जहां उनका व्यकितत्व और भी खुलता और खिलता है।
कामरेड होमी दाजी किसी भी पार्टी मे होते तो भी वे कामरेड ही होते। अगर वे ऐसा संघर्ष कर रहे होते तो। बेशक वे कम्युसिट पार्टी मे प्रतिबद्धता के साथ रहे।
कामरेडस इन आर्म्स। इसका भावार्थ ही-सकारात्मक और रचनात्मक आयामों मे-साथी और साझीपना है। वे अच्छे कामरेड थे, इसलिए एक अच्छे कम्युनिस्ट थे।
पेरिन दाजी द्वारा 'अपने कामरेड को यूं याद किया जाना, जिन्दगी की एक सरगम जैसा ही है। पेरिन दाजी ने अपने अनजाने ही यादो की रोशनी के माघ्यम से एक बेहतरीन रचना-कथा संस्मरण हिन्दी के साहित्य और समाज को दिया है जिसमे सीखने को काफी कुछ है उसे पढा और पढवाया जाना चाहिए ,                          
-और, पेरिन दाजी को ? होमी दाजी तक पहुंचने वाला-लाल सलाम ।

Sunday, June 10, 2012

बागी टिहरी गाये जा

ब्रिटिश शासन से कभी भी प्रत्यक्ष तौर पर शासित न होने वाला टिहरी, उस उत्तराखण्ड राज्य का एक जनपद है जो प्रत्यक्ष ब्रिटिश शासन के अधीन रहे (ब्रिटिश गढ़वाल और कुमाऊ कमिश्नरी) इतिहास का सच है। 1947 की आजादी के वक्त हैदराबाद और कश्मीर की तरह टिहरी भी गणतांत्रिक भारत का हिस्सा न था, यह इतिहास है। जबकि टिहरी की जनता गणतांत्रिक भारत का हिस्सा होने को बेचैन थी। टिहरी राजशाही के खिलाफ प्रजा मण्डल का आंदोलन इस बात का गवाह है। यह अलग बात है कि गणतांत्रिक भारत से अपने को स्वतंत्र मानने की जिद पर अड़ी रही राजशाही को आज अंधराष्ट्रवादी किस्म की राजनीति राष्ट्रवाद का तमगा देती हो और प्रजामण्डल जैसे राष्ट्रवादी आंदोलन में शिरकत करती जनता को बागी। 'बागी टिहरी गाये जा", कथाकार विद्यासागर नौटियाल का ललित निबंध है। प्रजा मण्डल के आंदोलन में ही शिरकत करते हुए युवा हुए विद्याासागर नौटियाल को हिन्दी का साहित्य जगत एक ऐसे कथाकार के रूप्ा में जानता है जिनका सम्पूर्ण रचनाकर्म अपने जनपद टिहरी की कथा को कहता रहता है। टिहरी का इतिहास, टिहरी का भूगोल और टिहरी के लोगों की मानसिक बुनावट के कितने ही चित्र उनकी रचनाओं में साक्षात हैं। वे 'टिहरी की कहानियां" कहते हैं। उनकी रचनाओं में सम्पूर्ण उत्तराखण्ड के पहाड़ों की पृष्ठ भूमि को देखना उस सच्चाई तक न पहुंचना है, जिसको लगातार-लगातार लिखने के लिए कथाकार विद्याासागर नौटियाल बेचैन रहे। उनका, शायद अन्तिम उपन्यास 'मेरा जामक" जिसे किताबघ्ार को भेजते हुए उन्होंने 6 अप्रैल 2011 को मुझे मेल किया था, मेरे कथन का साक्ष्य है। 29 सितम्बर 1933 को गांव मालीदेवल, टिहरी में पैदा हुए कथाकर विद्यासागर नौटियाल न सिर्फ हमें, बल्कि उस टिहरी को भी विदा कह चुके हैं, जो टिहरी गत वर्षों में झील में समा गयी। 12 फरवरी 2012 की सुबह उन्होंने अपनी अंतिम सांस बैंग्लोर के एक अस्पताल में छोड़ी।
विद्यासागर नौटियाल से मेरा सम्पर्क 1993 के आस पास हुआ था। उस वक्त वे 60 वर्ष की उम्र पार कर रहे थे।  60 वर्ष की उम्र प्राप्त कर चुके कथाकार विद्याासागर नौटियाल देहरादून में रहते हैं, यह जानना मेरे लिए एक अनुभव था। 'फट जा पंचधार" हंस में छप चुकी थी और मैं उस कहानी के गहरे प्रभाव में था। पहाड़ की मुख्यधार के जनजीवन से बाहर के समाज की कथापात्र, एक कोल्टा स्त्री की कथा में आक्रोश और विद्रोह की तीव्रता भरा आख्याान मैंने पहले किसी अन्य कहानी में न पढ़ा था। युगवाणी उस वक्त तक साप्ताहिक पत्र था। प्रजामण्डल के आंदोलन के दौर में जारी आंदोलन की खबरों को जनता तक पहुंचाने के वास्ते आचार्य गोपेश्वर कोठियाल ने युगावाणी की शुरूआत की थी। साठ वर्ष की उम्र पर पहुंच चुके कथाकार विद्याासागर नौटियाल के षष्ठी पूर्ति कार्यक्रम का आयोजन युगवाणी ने किया। शायद देहरादून की साहित्यिक बिरादरी के बीच नौटियाल जी की वह पहली ही-वैसी जीवन्त उपस्थिति थी। उससे पहले मेरी स्मृति में मैंने उन्हें किसी साहित्यिक कार्यक्रम में देखा न था। हां, कम्यूनिस्ट पार्टी से उत्तर प्रदेश विधान सभा में विधायक रहे विद्यासागर नौटियाल का नाम मैंने जरूर सुना हुआ था। लेकिन वह भी साहित्यिक मित्र मण्डली के बीच नहीं बल्कि टे्रड यूनियन के साथियों के मुंह से। साहित्य की दुनिया के साथियों का राजनीति से दूरी उसका कारण रहा हो शायद। क्योंकि बहुत से अन्य मित्र तब भी जानते थे कि 'फट जा पंचधार" का लेखक और देवप्रयाग सीट से विधायक रहा व्यक्ति एक ही हैं - यह मुझे बाद में यदा कदा की बातचीतों से मालूम हुआ। लेकिन मेरे लिए यह जानना उस वक्त हुआ जब उनकी षष्ठी पूर्ति पर कार्यक्रम आयेजित हुआ। उस कार्यक्रम के दौरान अपने प्रिय नेता के सम्मान समारोह में पहाड़ से पहुंचे सामान्य ग्रामीणों की उपस्थिति मेरे लिए जो सूचना लेकर आयी थी, कथाकार विद्यासागर नौटियाल के प्रति एक खास तरह की निकटता में ले गयी। यद्यपि उस वक्त नौटियाल जी विधायक नहीं थे। शायद कम्यूनिस्ट पार्टी में भी न थे उस वक्त। बांध के सवाल पर पार्टी से भिन्न बनी राय के कारण उन्हें निष्कासित होना पड़ा था। गहरी मानसिक उथल-पुथल के दौर में थे। ऐसा उन्होंने अपने किसी साक्षात्कार में भी स्वीकारा है और यह भी व्यक्त किया है कि 'फट जा पंचधार" उसी मानसिक उथल-पुथल की स्थितियों में लिखी रचना है जिसमें वे खुद को कथापात्र रक्खी की स्थितियों में महसूस कर रहे थे। उत्सुकता स्वभाविक थी कि आखिर साहित्य के कार्यक्रम में एक अच्छी खासी संख्या में उपस्थित ग्रामीणों की उपस्थिति का माजरा क्या है ? एक विधायक एवं एक कथाकार विद्यासागर को जानने का अवसर मुझे उपलब्ध हो रहा था। वहां उपस्थित ग्रामीणों की तादाद बता रही थी कि बहुत करीब से जुड़े रह कर राजनीति करने वाले व्यक्ति के प्रति उसके प्रशंसको और शुभ चिंतकों की भूमिका क्या होती है। शायद उन ग्रामीणों के लिए भी वह अवसर ही रहा होगा जब वे अपने प्रिय नेता को एक दूसरी भूमिका में देख रहे हों। कार्यक्रम में हिस्सेदारी करती उनकी चपलता ऐसा ही कुछ कह रही थी। उनमें से कुछ लोगों ने मंच से भी अपने प्रिय नेता के लिए शुभ कामनायें दी थी। ऐसा ही एक अन्य अवसर पहल के सम्मान समारोह के दौरान था। सिर्फ ये दो ही अनुभव थे जब मैं प्रत्यक्ष रूप्ा से जान सका था कि कथाकार विद्यासागर नौटियाल ही वह व्यक्ति है जो किसी समय उत्तर प्रदेश विधान सभा में कम्यूनिस्ट पार्टी के नुमाइंदे के तौर पर विधायक रह चुके हैं। अन्यथा कभी कोई ऐसी स्थिति जिसमें वे कथाकार की बजाय सिर्फ एक राजनैतिक कार्यकर्ता रहे हों, देखने का अवसर मुझे नहीं मिला जो कि इसलिए भी प्रभावित करने वाला था कि समाज के भीतर चीजें इतनी स्पष्ट दिख नहीं रही होती। एक नौकरशाह अपनी असली भूमिका की निकम्मई को कैसे साहित्यकार होकर ढकना चाहता है या साहित्यकारों के बीच वह कैसे अपनी नौकरशाही के कारण हासिल मैरिट को भूनाता है, यह छुपा हुआ नहीं है। या अन्य क्षेत्रों के बीच भी इसे देखा जा सकता है जब अचनाक से एक दिन मालूम होता कि देश का जो प्रधानमंत्री है, वह कवि है और उसके प्रधानमंत्री बनते ही उसकी कविताअें की पुस्तकों के ढेर के ढेर छपने लगते हैं। दिग्गज आलोचकों की एक पूरी फौज उनकी कविताओं को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने की मांग करने लगती है। कोई मुख्यमंत्री अपने राजनैतिक कार्यों के लिए नहीं बल्कि अचनाक एक साहित्यकार के रूप्ा में देश विदेश के भीतर सम्मानित होने लग जाता है। बहुत सी अन्य स्थितियों को देखें तो सत्ता पद की गरीमा के दम पर किसी भी क्षेत्र में हिस्सेदारी का मतलब उस क्षेत्र का भी अव्वल कहलाये जाने का चलन जमाने में दिखायी देता है। विद्यासागर नौटियाल जी के संबंध में पायेंगे कि साहित्यकार की भूमिका में वे अपनी रचनाओं के दम पर होते हैं और राजनीति के क्षेत्र में अपने समझदारी और कार्रवाइयों के साथ। दो अलग क्षेत्रों के बीच दखल रखते हुए भी वे किसी एक क्षेत्र में अपनी स्थिति के दम पर दूसरे में प्रवेश नहीं करते। बल्कि कहें कि एक तीसरा क्षेत्र वकालत, जो उनके रोजी रोजगार का हिस्सा था, उसमें उनकी दक्षता को जानने के लिए उनके बस्ते पर ही जा कर जाना सकता था।       
         देश दुनिया के भूगोल से परिचित नौटियाल जी की रचनाओं में जिस भूगोल को हम पाते है, वह दुर्गम हिमालय क्षेत्र है। उसका भी एक छोटा सा हिस्सा- टिहरी-उत्तरकाशी क्षेत्र का हिमालय। वरना नेपाल से कच्च्मीर तक विस्तृत हिमालय का भूगोल भी तो एक जैसा नहीं। प्रत्यक्ष औपनिवेशिक स्थितियों के इतिहास की अनुपस्थिति में सामंती सत्ता के अत्याचारों का क्षेत्र। ऐसे अत्याचार, जिनकी अवश्यम्भाविता का विचार मानसिक जड़ता के साथ मौजूद रहता है। जहां शासन-प्रशासन का हर कदम पाप-पुण्य के भय का निर्माण करते हुए सामाजिक जड़ता को स्थापित करना चाहता रहा है। लेकिन लाख षड़यंत्रों के बावजूद भी सामाजिक गतिकी के नियम को फलांगना जिसके लिए संभव न हुआ और उठ खड़े हुए विद्रोहों से निपटने का रास्ता जहां खुलमखुल्ला निहत्थों पर हथियारबंद आक्रमण रहा। रंवाई का तिलाड़ी कांड निहत्थे ग्रामीणों की हत्या का इतिहास है जिसका जिक्र करने की जुर्रत भी करना विद्रोही हो जाना था। सामंती शासन के भीतर घ्ाटित ऐसे ढंढक/विद्रोह, दबी कुचली जनता की सामूहिक कोशिशें रही हैं। दस्तावेजी करण से उनका बचाया जाना सत्ता कोे कायम रखने के लिए जरूरी था। ऐसे ही इतिहास को अनेकों कथाओं में पिरोकर कथाकार विद्यासागर नौटियाल दर्ज करते चले गये हैं। इतिहास की घ्ाटनाओं का गल्प होते हुए भी अपने समय से जीवन्त संवाद बनाना उनकी रचनाओं का विशेष गुण है। इतिहास की सतत पड़ताल करती उनकी रचनाओं के पाठ हिन्दी साहित्य की दुनिया के दायरे को अपने तरह से विस्तार देते है। उनके अन्तिम उपन्यास 'मेरा जामक" में भी उस अलिखित इतिहास को जानने के स्पष्ट संकेत हैं।    
1992 में उत्तरकाशी में भूकम्प आया था, उपन्यास का कथ्य भूकम्प की त्रासद कथा है। जिसका स्मरण ही बेचैन कर देने वाला है। किसको याद करें, किसके लिए रोएं, किसको दें कंधा, किसके कंधें पर धरें सिर, अनंत हाहाकार के बीच किसको कहें पराया ? उत्तरकाशी भूकंप के बहाने लिखी गयी जामक की कथा का सच देश के हर हिस्से में घ्ाटी त्रासदी का सच है। क्या लातूर, क्या गुजरात। प्राकृतिक आपदाओं में ही नहीं, विकास के नाम पर जारी किसी भी योजना का सच उत्तरकाशी भूकंप राहत योजना से अलग नहीं है। व्यवस्था का ताना बाना कितना उलझा हुआ है कि अपनी ही बोली-बानी और क्षेत्र विशेष के व्यक्ति के हाथों भी छले जाने का उपक्रम होते हुए भी आम जनमानस इस यकीन के साथ हो जाता है कि जो कुछ अगला घटित हो रहा है शायद वह उसके हक में ही हो। पूरे उत्तराखण्ड के भीतर शिशु मन्दिरों की खुलती शाखाएं इसका जीवन्त उदाहरण है। उपन्यास में उन चालाकियों को पकड़ा जा सकता है जिनके रास्ते ऐसा झूठ रचा गया है और लगातार रचा जा रहा है। पहाड़ों के सीने को चीर देने वाली थर-थराहट और गाड।-गधेरों को किसी भी तरफ मोड़ देने वाली विध्वंश की गाथा वाला उत्तरकाशी का यथार्थ कुछ ही समय पहले का इतिहास है। हमारे देखे देखे का। टिहरी को डूबो लोगों को उनके घर-बार ही नहीं उनके पारम्परिक रोजी-रोजगार से बेदखल करने की चालाकियां भी हमारी देखी देखी हैं। उपन्यास की खूबी है कि पूरे पहाड़ को भण्ड-मज्या बनने को मजबूर करते इतिहास के एक काले दौर तक पड़ताल करने की युक्ति वह देता है। प्राकृतिक विध्वंश और कृतिम विध्वंश के कारण, जो वाचाल भाषा में राहत भरे शब्दों के रूप्ा में सुना जाता है, त्रस्त और अपने जीवन यापन की स्थितियों से जूझने के अवसर भी खो जाते जामक वासियों को भण्ड-मज्या बनाने के लिए अवसरों के रूप में दिखायी देने वाले स्वामियों और उनके चेले चपाटों की कमी नहीं है। ब्रिटिश शासन काल में ही जंगलो पर किये गये कब्जों के बाद पारम्परिक उद्योग (खेती बाड़ी और जानवर पालन) से वंचित कर दिये गये पहाड। वासियों के पहाड़ से पलायन और भण्ड-मज्या बनने को मजबूर हो जाने की कथा एक साक्ष्य है। बूट, पेटी और टोपी, जुराब के लिए पूरी जवानी को खंदकों में बीता देने का इतिहास सिर्फ देश प्रेम नहीं बल्कि उन स्थितियों से निपटने के लिए शुरू हुई फौरी कार्रवाइयां रही हैं। ऐसी ही जरूरी कथाओं को दर्ज करता नौटियाल जी का लिखित उनकी प्रिय जनता की धरोहर है।  


 -विजय गौड़

Thursday, May 24, 2012

ब्या-काज के वे दिन

हिन्दी का रचनात्मक साहित्य ज्यादातर आपसी संबंधों या एक हद तक राजनैतिक आर्थिक ताने बाने के इर्द गिर्द ही सामाजिक सवालों का लेखा जोखा संजाये है। विज्ञान, खेल-कूद, शाखा दर शाखा बढ़ती ज्ञान विज्ञान की स्थिति के साथ-साथ बदलती हुई तकनीकी स्थितियां, जैसे इतर विषय हिन्दी लेखन के दायरे से बहुधा बाहर ही दिखायी देते हैं। विषयगत शुद्ध लेखन की अनुपस्थिति तो पूरी तरह देखी जा सकती है। शुद्ध साहित्य के अलावा किसी भी अन्य विषय की मौलिक पुस्तक ही नहीं, छोटे-मोटे आलेख भी मुश्किल से दिखायी देते हैं। मामले के विश्लेषण पर औपनिवेशिक मानसिकता से जकड़े समाज को दर किनार नहीं किया जा सकता लेकिन साथ ही साथ लम्बे समय से अपने प्रभाव का विस्तार करती बाजारू संस्कृति के आरोपित प्रभाव को भी चिहि्नत किया ही जा सकता है। देश का मध्यवर्ग इस आरोपित प्रभाव की जद में पूरी तरह से है। बल्कि इसे यूं कहा जाये जीवन मूल्यों के आदर्श और गढ़ी जा रही नैतिकतायें भी इसी केे दायरे में तय कर रहा है। समझा जा सकता है कि इसी कारण उच्च शिक्षा का माध्यम सिर्फ अंग्रेजी ही दिखायी देता है। देवेंद्र मेवाड़ी हिन्दी के ऐसे लेखक हैं जिन्होंने विज्ञान विषय को गल्प में शामिल करते हुए अपनी सक्रिय भागीदारी की है। बल्कि कहें सकते हैं कि हिन्दी में विज्ञान लेखन पर सक्रिय चंद रचनाकारों में वे शुमार है। अभी प्रस्तुत है उनका एक बेहद आत्मीय संस्मरण।
-वि.गौ.

  देवेंद्र मेवाड़ी
dsmewari@rediffmail.com,
dmewari@yahoo.com
 
किन---कि---क्यान् क्यान् क्यान्
घि---घ्यान्---घ्यान् घ्यान्
कि---क्यान् क्यान् क्यान्---
घि---घ्यान्---घ्यान्---घ्यान्

दूर किसी धार या मोड़ से आती हुई बाजे-गाजे की यह आवाज सुनते ही हम खाना छोड़ कर भागते हुए बाहर बट्या (सड़क)में आ जाते थे और सिर घुमा कर आवाज की दिशा में देखने लगते थे। हमारी आंख बर्यात देखने को बेचैन हो जाती थीं। कान बाजा की आवाज पर लगे रहते थे। 
तभी दूर से तूरी की आवाज आती---धूह्णह्ण तु  तु  तु तूह्णह्णह्ण हमारी उत्सुकता और बढ़ जाती। पंजा पर उचक-उचक कर उस तरफ देखते। बीच-बीच में हवा में शंख की लंबी आवाज गूंजती---पूह्णह्णह्णह्!
फिर अचानक धार के मोड़ से बारात निकल आती। ढोल-नंगारा की आवाज तेज हो जाती>---
किन---किन्---किन्---कि---किन्---किन्---किन्
घि---घ्यान्---घ्यान्---घ्यान!
घि---घ्यान्---घ्यान्---घ्यान!
ढोल-नगाड़े जैसे अपनी आवाज में बोल कर बताते थे-लो, हम ले आए हैं बरात। 
धीरे-धीरे बर्यात और नजदीक आ जाती। रंगीन छाता ओढ़े ब्यौला दिखाई देने लगता।
हमारी बाखली से भी कई बर्यात गईं। कई बर्यात बाखली में आईं। ददाओं की बर्यात जाती थी और वे ब्योली (दुल्हन) लेकर आते थे। जो बर्यात हमारे यहां आती थीं, वे किसी दीदी-बैनी को ब्योली बना कर ले जाते थे। दीदिया और बैनिया के जाने पर हम बहुत बुरा लगता था। लेकिन, ददाओं की बर्यात में सब खुश रहते थे।
बर्यात का दिन तय हो जाने पर ज्वेशिज्यू एक दिन पहले आकर हम बच्चों से गाय का गोबर, दूब और धूप देने के लिए "पाती" मंगाते। वैसे तो उसे "कुर्ज" कहते थे, लेकिन ब्या-काज और पूजा-पाठ में धूप देने के लिए पाती कहते थे। उसकी पत्तिया को घी में लटपटा कर जलते कोयलों पर रख देते। धूप का सुगंधित धुवां चारा ओर फैल जाता। कलश थापन करके, दिया जलाते, गणेश पूजा करते और वर के दांए हाथ की कलाई पर हल्दी रंग के पीले कपड़े में पिठियां, अक्षत और भेट (सिक्के) रख कर कंगन बांध देते।
घर में इष्ट-बिरादर आने लगते। दो-तीन लोग "पातों" (पत्तियों) के लिए भेज दिए जाते। वे सुबह ही गांव के पहाड़ के पार उतर कर जंगल से खूब मालू के पत्ते तोड़ते और पत्ता के गट्ठर लेकर शाम तक लौट आते। शाम को लोग बैठे-बिठाए बात करते-करते सिनके के टुकड़ा से जोड़-जोड़ कर पत्ता की दूनियां (दोने) और पत्तल बना देते। तिमिल के पत्ते मिल गए तो उनकी भी दूनियां बना लेते। दूनिया और पत्तला का ढेर जमा हो जाता। कमरे म हुक्का-चिलम और सुलपाई यानी हथेली में समा जाने वाली चिलम घूमती रहती। न्योतारे कश खींच कर, धुवां छोड़ते हुए उन्हें आगे बढ़ाते रहते। बीच-बीच में थाली में खूब मीठी गरमागरम चहा के गिलास घुमाए जाते। खाना तैयार हो जाने पर खाने का बुलावा आ जाता, "हं हौ, खान् हन उठा आब्।"
औरत, लड़कियां भीतर के कमरा में "त्यार सप्त दिदी" (तेरी कसम दीदी या "मैं खाली बैंनी" (मेरी प्यारी बहिन) कहते हुए अपने-अपने सुख-दुख लगी रहती। घर भीतर चूल्हे का गाढ़ा धुवां भरा रहता।
सुबह से ही झर-फर शुरू हो जाती। रश्यार (रसोइए) मकान की अगल-बगल में कहीं पर छप्पर के नीचे बड़े-बड़े पत्थर रख कर रसोई बना लेते। एक कमरे म सामल-पानी का भंडार बना दिया जाता। रश्यारा को वहीं से आटा, चावल, दाल, सब्जियां, घी, तेल, दूध, दही, चीनी, गुड़, मसाले छुहारे और किशमि्श वगैरह दिए जाते। बहू, बेटियां तांबे के फ्वांला (कलश), तौली और टीन के कंटरों में पानी भर देती। खा-पी कर बर्यात के जाने की तैयारी शुरू की जाती।
उधर ईजा, चाचियां, भाभियां और बहिन हल्दी-तेल का उबटन लगा कर ब्यौल (वर) को नहलाती। नहा-धोकर वह नए कपड़े पहनता। सफेद कुर्त्ता, पैजामा, टोपी। ऊपर से ब्यौले का झगुला पहनाया जाता। दोना कंधा और छाती पर से पीछे तक कस कर पट्टा बांधा जाता। कमर में कमरबंद और उसम खुकरी या तलवार। सिल पर चावल पीस कर सफेद और पिठियां घोल कर लाल घोल बनाया जाता था। फिर मुंह पर लिखाई की जाती। कपाल से गाला तक सफेद और लाल बिंदियां बनाई जाती थद्ध। माथे पर मुकुट बांधा जाता था। ब्यौल को रंगीन छाता ओढ़ाया जाता। इस सयानी फगारियां शकुन आंखर गा्तीं और हेलारियां उनके सुर में सुर मिला कर हेल देती रहती---
बट्यावाह्णह्णह्ण बट्यावाह्णह्णह्ण रामीचंदरह्णह्णह्ण
शकुना द्यालो, रामीचंदरह्णह्णह्ण
पैंलि शकुनो ध्यों-गूड़े को
फिरी दै-दूदै को---
पंचैनामा देबौ दैना ह्वै जायाह्णह्णह्ण
गोरखनाथ देबौ सुफल ह्वै जायाह्णह्णह्ण
तुमारा ऐ बेर ह्णह्ण हमरो काज
सुफल है जालो ह्णह्णह्ण
बट्यावाह्णह्णह्ण बट्यावाह्णह्णह्ण रामीचंदरह्णह्णह्ण
मां-बहिन आरती उतारती और अक्षत परखती। ईजा कहती, "द ज च्यला, भली-भलि सूनि (सुंदर) ब्यौलि लाए। भलि कै गए। द हिट ईजा---'' शकुन के लिए लोटे-गिलासा ्में पानी भर कर कलेश रखे जाते। कन्याएं पानी भरे कल्श लेकर खड़ी हो जा्ती। 
और, फिर बाजे गाजे के साथ बर्यात चल पड़ती।।।
क्यान्---कि---क्यान्---क्यान्---क्यान्,
घि---घ्यान्---घ्यान्---घ्यान्।
जाने से पहले तूरी अपनी तेज आवाज में दो-चार बार 'धूह्णह्णतू---तू---तू---तूह्णह्णह्ण---धुह्णह्णतूह्णह्णह्ण की धाद लगती और शंख लंबी 'पूह्णह्णह्णह!" कह कर चलने के लिए कहता। तब तक मशकबीन भी "आं---आंह्णह्णह्ण" करके चलने की तैयारी करती। 
हम बच्चों को मशकबीन बड़ी मजेदार लगती थी। बर्यात चलने से पहले मशकबीन बजाने वाला उसकी पिपिरियां साफ करता। धागे से बंधी पतली पत्ती जैसी पिपिरी को जीभ पर गीला करके उसम फूंक मारता था। फिर बाएं हाथ के नीचे मशकबीन का थैला दबा कर उसकी काले डंडे जैसी नलियां कंधे और बांह के सहारे पीछे की ओर टिका लेता। हम अंदाज लगा कर एक-दूसरे के कान में कहते थे, "पता है-मशकबीन का थैला बकरी की खाल से बनता है बल?'' हम तो वह बगल में दबाई हुई बकरी जैसा ही लगता था। मशकबीन वाला पतली नली मुंह में दबा कर, गाल फुला-फुला कर हवा भरता। खूब हवा भरने पर थैला तन कर मोटा हो जाता और डंडे जैसी नलियां भी आंह्णह्णह्ण आंह्णह्णह्ण करने लगती। तब वह बीन को हाथा म बंयी की तरह पकड़ता। उसके आगे बड़ा गोल सामा जैसा लगा रहता था। गाला से हवा फूंकता, बाएं बाजू से मयकबीन के थैले को दबाता और बीन को बंशी की तरह बजाने लगता---
आं ह्णह्णह्णआंह्णह्णह्ण आं ह्णह्णह्ण
पि पी पी पी ह्णह्णह्ण
पी ह्णह्णह्णपी ह्णह्णह्ण
बर्यात में आदमी आगे-पीछे निशान (झंडा) भी लेकर चलते थे। ऊंचे डंडे पर कपड़े का लंबा तिकोना निशान बंधा रहता था। आगे-आगे हवा में फहराता लाल और बर्यात के पीछे सफेद निशान। "क्यान् कि क्यान्---क्यान्---क्यान्, घि---घ्यान्---घ्यान्---घ्यान्" की आवाज पर छ्वलैतिए अपनी ढाल-तलवार हवा में लहरा कर फिरकी की तरह घूमते हुए चलते रहते। मकानों के आसपास आकर बर्यात रुकती। वहां बाजे की लय-ताल बदल जाती:
ट्यांक्ड़---टिक्ड़---ड्यांग्ड़---ड्यांग्ड
ट्यांक्ड़---टिक्ड़---ड्यांग्ड़---ड्यांग्ड
डिंग्डि---डिंग्ड़ि---टिक्ड़---टिक्ड़
टिक्ड़---टिक्ड़---डिंग्डि---डिंग्ड़ि---

नगाड़ा के बाजे पर छ्वलैतिए जोरदार नाच दिखाते। दो रुपए, पांच रुपए का नोट डाल देने पर तो उसे उठाने के लिए ऐसा नाच नाचते कि लोग देखते ही रह जाते। एक-दूसरे के हाठों में दबे नोट को छीनने के लिए भी जोरदार करतब दिखाते। छ्वलैतिए सफेद चोला, काला पट्टा और कमरबंद, काली भोटी, सफेद पगड़ी और चूड़ीदार पहने रहते थे।
घर के सभी लोग बर्यात को दूर किसी मोड़ पर ओझल होने तक टकटकी लगा कर देखते रहते। उसके बाद भी उस ओर कान लगाए रहते। ढोल, नंगारे, तूरी और यंख की आवाज काफी देर तक सुनाई देती रहती थी।
आदमिया के बर्यात में चले जाने के कारण घर में औरत और बच्चे ही रह जाते। बस, घर के दो-एक आदमी खाना पकाने और पहरा देने के लिए रोक दिए जाते थे। वह रत्याली की रात होती थी। औरता और छोटे बच्चा की रात। उस दिन वे खूब गातीं, भ्वैनी लगातीं। हंसी-ठिठोली करतीं। कोई औरत आदमी का भेष बना कर उनकी नकल उतारती। इसी तरह आंखों में रात बिता देतीं। अगले दिन सुबह से ही वे बर्यात की बाट जोहने लगतीं।
उधर, बर्यात बाजे-गाजे के साथ ब्योली के घर पहुंचती। घर के बाहर धूलिअर्ग की पूजा पूरा करके ब्योला और बर्याती घर म जाते। चाय-पानी के बाद गांव के रश्यारे खाने में पूरी, लगड़, हलुवा, साग, खटाई, रायता परोसते। खट्टी और मीठी दोना तरह की खटाई बनाने का रिवाज था। मीठी खटाई में छुहारे और किशमि्श भी होते थे। रात को लगन के समय विवाह कर दिया जाता। ब्योला-ब्योली को जीवन भर साथ निभाने का संकल्प कराया जाता था। उन्ह बाहर लाकर ज्वेशिज्यू सप्तऋव् की पूंछ में वसिष्ठ और अरुंधती तारे देखने को कहते थे। फिर बोलते, ""कहो, हम भी ऋषि वसिष्ठ और अरुंधती की तरह सदा साथ रहगे।''
बर्यात विदा करने से पहले सुबह या दिन में बर्यातियों को फिर जम कर खाना खिलाया जाता था-वही पूरी, लगड़, दाल, चावल, खटाई, छुहारे और गुड़ की मीठी खटाई, खूब राई पड़ा हुआ चरपिरा रायता और तली हुई लाल मिर्च! खा-पी कर, ब्योली को लेकर बर्यात वापस लौटती। ब्योली के जाते समय फगारियां फिर यकुनांखर गातीं:
---"बट्यावा---बट्यावा---शकुना द्यालो"---
और, मां-बहिन शक-शक् डाड़ मारते हुए बेटी को विदा करते बखत अपना आशीर्वाद दे रही होती थीं---द ईजा ज, भली कै जाए---(शक-शक्-शक्)। मेरि पोथी---सैनिक (औरत) जनम पायाक भै। जाना ही हुआ चेली। (शक्-शक्)
मैंने तुझे नौ महीने पेट में रखा, कारवी (गोद) में पाला पोथी---आज तू मुझे छोड़ कर जा रही है---(ओ ईजा! शक्-्शक्)---मैं कैसे रहूंगी? तुझे कोई कष्ट नहीं होने दिया मैंने---
(दूसरी औरत) क्या रुलाती है उसे? सभी को जाना हुआ एक दिन। हम नहीं आईं क्या मतिं (मायका) से? मन को समझा। अपने सौरास ही तो जा रही है बेटी---चल ईजू, चल। जल्दी फिर आएगी यहां मिलने। ठीक है?
(कोई और औरत) होई, किलै न? अपनी मयाड़ी (मां), अपने बाज्यू, ददा-भाई-बहना को जो क्या भूल जाएगी?---द, हिट चेली---आपन सौरास हन हिट--- शक्-्शक्
(तभी डाड़ मार कर बहिन) म क जन (मत) भुल्ये दिदी। आपनि बनि क जन भुल्यै!
पीछे से फगारियों के शकुनांखर---
बट्यावा---बट्यावा---
शकुना सुफल है जाओ, पंचनाम देबो
सुफल है जाओ, इष्टे भगबानो 
उस समय तो देख कर कठोर से कठोर कलेजे वाला के भी आंसू निकल आते थे।
बर्यात लौट आने पर ब्योली-ब्योला की आरती उतार कर, अक्षत परख करके उन्ह घर के भीतर ले जाते थे। ब्योली नई जगह और नए घर में अनजान लोगों के बीच सिकुड़ी-सिमटी बैठी रहती। नाक की टूकी से ऊपर पूरे कपाल तक पिठियां और अक्षत लगे रहते। औरत ओढ़नी उठा-उठा कर मुंह देखतीं और कहतीं, "ईजा, कतुक सूनि छ ब्योलि। अस्यानी छ। ईजु, नक जन मानेयां। हमरि ले चेली भई तू। तेरि सासु छों मैं।''
ब्योली को घर दिखाते। पानी की सीर (स्रोत) दिखाते। हम भी अपनी नई भौजी-ब्योलिया को धारे और डिग्गी पर ले जाते थे। वे देख लेती थीं कि पानी कितनी दूर से और किस धारे, नौले या डिग्गी से लाना है। ब्योल-ब्योली के चमकीले मुकुट हम पानी के शिराण में  रख देते थे। धीरे-धीरे भौजी अपनी नई घर-कुड़ि और गड़ि-भिड़ि देख कर पहचानने लगती थी। घर के लोगों और अपने गोरु-भैसा को भी पहचान लेती थी। गाय-भसिं भी उसे पहचानने लगतीं।

ब्याह के बाद भौजिया का घर में आना जितना अच्छा लगता था, उतना ही बुरा लगता था दीदिया और बहिना का जाना। बहुत नियाय लगता था। दीदी आती तो हम सब बहुत खुश हो जाते थे। लेकिन, जिस दिन मेरी सीता दीदी जाने वाली होती थी, उससे पहली रात को ईजा और दीदी तो सोती ही नहीं थीं। रात भर सुख-दुख लगी रहतीं। बीच-बीच में शक्-्शक् करके रो पड़्ते। मुंह अंधेरे ही ईजा, पूरी, हलुवा, कोश्योल (मीठा भुना चावल) और बड़े बना कर छापरी (टोकरी) में संभाल कर रख देती। धोती या ओढ़नी लपेट कर उसे चारा ओर से कस देती। रास्ते में खाने के लिए अलग से बांध देती। हमारा गला गगलसा उठता। दीदी के आंसू बहते रहते।
"द हिट ईजा, तू चेलि भई। सौरास जान्वे भै। मैं खाली इजू, हिट---'' दीदी की आंखा के भुमके (सोते) फूट पड़ते। चड़ी डाड़ मार देती। बाज्यू, ददा, को ढोक देकर पैंलाग कहती। मेरे गालों पर, माथे पर भुकी (चुंबन) ले-लेकर छाती से चिपटाती। और, फिर हम दीदी को दूर धार तक छोड़ने चल पड़ते। कभी भिना (जीजा) आए होते तो उनके साथ जाती या फिर किसी और चेलि-बेटी की संगीत (साथ) होती। दूर तक साथ जाकर ईजा छापरी उसे सौंपती। वह गले से लिपट-लिपट कर रोती। हमारे मुंह से भी बोल नहीं फूटते थे। कुछ कहने की कोशिश ्में गगलसाए हुए गले से रुलाई फूट पड़ती।
आखिर, जाना ही पड़ता था। दीदी सौरास को चल पड़ती। पांच-दस कदम चलती। फिर पलट कर हमारी ओर देखती। हर मोड़ से मुड़ कर देखती। फिर किसी धार से ओझल हो जाती। ईजा अब रो रही होती थी, ""चेलिकि जुहुनि में पैद भैछ, ईजा, जान्वे भै।'' फिर भारी कदमा से मुझे लेकर घर लौट आती। उदास होकर कहती थी, ""चेलि-बेटि चाड़ां जसि ह्व छ च्यला। आज हमारि कुड़ि में भैरी, भ्वल उड़ि बेरि दुसरि कुड़ि में न्हें जानीं।'' यानी, बेटियां तो चिड़िया की तरह होती हैं  बेटा। आज हमारे मकान में बैठी हैं, कल उड़ कर दूसरे के मकान में चली जाती हैं।  
"तू ले चड़ींकि परि उड़ि बेर ऐछी ईजा?''
"होई। यां आछा, ये कुड़ि में। फिरि तू भछै, तेरि दिदि-दाद् भईं।''
चेलि-बेटियां दूर-दूर के गांवा में ब्याही जाती थीं। वे त्यों-त्यारों या सुख-दुख में ही मायके आ पाती थीं। मेरी दीदी घने जंगलों, पहाड़ों के पार, हमारे गांव से करीब तीस-बत्तीस किलोमीटर दूर डांड़ा गांव में ब्याही गई थी। इसलिए दो-चार साल बाद ही आ पाती थी। हमारे और उसके गांव के पहाड़ा के बीच जंगला म श्यूं-बाघ् भी रहते थे। मैंत आने का इतना उत्साह होता था कि जंगल, जानवर, गाड़-गधेरे कुछ नहीं दिखाई देते थे। एक बार दीदी अपनी बेटी भगवती को लेकर उसी रास्ते से बिना संगीत के अकेली चली आई। रास्ते की उसकी बात सुन कर हम कांप गए---
दीदी ने बताया, "यहां घर के बारे में सोचते-सोचते लमालम चली आ रही थी। आगे से यही भगवती चल रही थी। दोना ओर कुरी की घनी झाड़ियां। उनके भीतर तो कुछ भी हो सकता था। ईजा, जमीन ्में जो देखूं तो श्यूं क तात् गोबर! भाप उठ रही थी। उसी समय निकला होगा। मैंने सोचा, आज हम मां-बेटी को खा जाता है। लेकिन, क्या करती? चलती रही---कुंडल गांव के आसपास पहुंची तो घनी झाड़िया के बीच खम्म से एक जोगी मिल गया। गेरुवा चोला, हाथ में कमंडल और लाठी। बोला-बेटी अकेले जा रहे हो। साथ में कोई नहीं है? मैंने हाथ जोड़ कर सिर हिलाया। कहा, मैत जा रही हूं बाबा। उन्हाने आर्शीवाद दिया। कहा-बेटी तू बड़ी हिम्मती है। ईश्वर तेरी मदद करेगा। तुझे कुछ नहीं होगा। डरना मत---आर्शीवाद देकर जोगी बाबा चले गए। हम मां-बेटी र की ओर चलते ही रहे।''
चेलि-बेटियां इसी तरह लंबे-लंबे रास्ते पार करके दूर अपने मैत या सौरास जाती ्थईं। दीदी कहती थी, उसे सदा अपना घर, ईजा-बाज्यू, ददा-भाई, मकान, पेड़-पौधे, गोरु-भैंसें सब याद आते रहते ह। घुघुती और कफुवा बोलते हैं तो मन घर पहुंच जाता है। कौवा बोलता है तो लगता है, मेरे मैत से कोई आने वाला है।
ब्याह से बहुत पहले या फिर ब्याह के एक दिन पहले जनेऊ या बर्तबंध (यज्ञोपवीत) किया जाता था। जिन लड़कों का बर्त हो जाता था, वे जनेऊ पहनते थे। सुबह-शाम कसौंड़ीं (लोटा) या गिलास में पानी लेकर आचमन करते। मंतर बुदबुदा कर संध्या-पूजा करते थे। वे तो शौच के लिए जाते समय कान में जनेऊ भी लपेट लेते थे। वे ब्या-काज के मौका पर, धोती पहनते और बड़ा के साथ पंगत म बैठ कर दाल-भात खा सकते थे। घर में भी वे सयाने लोगा के साथ रसोई में धोती पहन कर दाल-भात खाते। हम लगता था, अचानक वे हमसे सयाने हो गए हैं। हम पंगत में नहीं बैठने दिया जाता था। अलग बैठ कर खाना पड़ता था। उन दिना तो हम से उम्र में बहुत छोटे बच्चा का भी बर्त कर दिया जाता था।
एक बार जैंतुवा के साथ गजुवा के बर्त म गांव से 19-20 किलोेमीटर दूर गौन्यारो गया था। वहां खाना तैयार होने पर म "उठा, खान् तैयार छ" की आवाज आई। घर के सामने खेत में गए तो देखा धोती-जनेऊ पहने छोटे-छोटे बच्चा की लंबी लाइन लगी है। हम शरमाते-सकुचाते खड़े हो गए। हम देख कर कुछ लोग हंसने लगे, "है, तन क्व छ? कौन है ये? अभी तक बर्त नहीं हुआ है?'' औरत और लड़कियां भी मुंह दबा कर हंसने लगीं। हम चुपचाप फिर भीतर कमरे में चले गए। हम थाली में दाल-चावल डाल कर वहीं दे दिया गया।
जिस बच्चे का बर्त होता था, उसे देखने में बहुत आनंद आता था। उसके बालों में सिर पर चार तरफ जुटिका बांधी जाती थी। फगारियां मंगल गीत गातीं और धीरे-धीरे उस्तरे से बाल उतारे जाते। बीच में मोटी-सी चुली (चुटिया) छोड़ दी जाती। बर्त्यिया बच्चे के आंग में हल्दी-तेल का उबटन लगा कर मां-बहिन नहलाती थीं। फिर उसे धोती पहनाई जाती। कंधे पर जनेऊ पहनाया जाता। हाथ की अंगुलिया पर लपेट कर आचमन करने, संध्या पूजा करने और जल चढ़ाने की विधि बताई जाती। उसके कंधे पर धोती का फेट बनाया जाता। हाथ में लाठी दे दी जाती। ज्वैशिज्यू कहते, "बटुक, अब तुम काशी पढ़ने जा रहे हो। माताओं से भिक्षा मांग लाओ।'' सामने माताएं चावल लेकर खड़ी रहतीं। ज्वैशिज्यू बटुक से कहते, ""मेरे साथ कहो-भो गुरो, इदम भिक्षाम, मया लब्ध---माई भिक्षा दे। मैं हनले दे, म्यार गुरु हन ले दे---'' मेरे लिए भी दो, मेरे गुरु के लिए भी दो! मां-बहिन धोती के फेट में भिक्षा डाल कर आशीष दे्तीं, "खूब पढ़ि बेर आए।'' 
फिर वह काशी पढ़ने के लिए निकल जाता। हम उसके पीछे-पीछे दौड़ते। दरवाजे से बाहर जरा-सा चर लगा कर वह फिर भीतर लौट आता। सब लोग खुश हो जाते। मां कहती, ""ऐ गौ म्यर पोथि, का्शि पढ़ि बेर ऐगो।'' फिर बाकी काम संपन्न होता। उतरे हुए बाल दाड़िम के बोट की जड़ में डाल दिए जाते। बच्चा कई दिन तक जनेऊ हाथ पर लपेटने और संध्या-पूजा करने का अभ्यास करता रहता। फिर धीरे-धीरे घर भीतर या खेतों के काम में उलझे रहने के कारण कभी ध्यान रहता, कभी नहीं भी रहता था। हां, गांव के बड़े बुजुर्गों को हम जब भी रात्ते-ब्यान (सुबह) कान में जनेऊ लपेटे देखते तो जरूर समझ जाते, वे झाड़-पिशाब जा रहे हैं। उसके बाद वे हल-बैल या आंसी-कुटला लेकर खेति-पाति के काम के लिए निकल जाते। खेति-पाति भी कोई आज की जैसी जो क्या हुई?
सुन रहे हैं?
"अँ'' 
     

Thursday, May 17, 2012

कितनी बाते हैं जिनको लिखा जाएगा खुलकर


संकुचन और विरलन की घटनायें प्रकृति की द्वंद्वात्मकता का इजहार है। जिसके प्रतिफल भौगोलिक संरचना के रूप्ा हो जाते हैं। खाइयां और पहाड़, समुद्र और वादियां, मैदान और पठार न जाने कितने रूपाकारों में ढली पृथ्वी अपने यथार्थ में अन्तत: एक रूपा है। भूगोल की दूरी पैमानों पर दर्ज होती हुई दूरी ही है लेकिन सभ्यता, संस्कृति और मनुष्यता के हवाले से विकास की हर वह कोशिश जो ब्रहमाण्डीय सीमाओं के साथ सामंजस्य बैठाते हुए जारी रही है, एक रूपा होने की अवश्यम्भाविता के साथ है। युवा कवि शिरीष कुमार मौर्य के सद्य प्रकाशित संग्रह पृथ्वी पर एक जगह में भी ऐसे ही विचार यात्रा के पड़ावों पर रुका जा सकता है-
समन्दर को पुकारने लगते थे पहाड़
और समन्दर पहाड़ों को
हालांकि दोनों के बीच बहुत लम्बा फासला था।   
कविता पुस्तक का शीर्षक है ''पृथ्वी पर एक जगह"। उसे दो तरह से पढ़ पा रहा हूं। एक, पृथ्वी पर एक -जगह और दूसरा पृथवी पर एऽऽक जगह।  कौन सा पाठ ज्यादा उपयुक्त है ? कह सकता हूं कि यह तो कविताओं को पढ़ने के पाठ पर निर्भर है। 'पृथ्वी पर एक -जगह", पढ़ता हूं तो भीतर की कविताओं के मंतव्य किसी निश्चत भू-भाग के बारे में रचे गए होने का भान देता हैं लेकिन यदि पृथवी पर एऽऽक जगह पढ़ता हूं तो इस पृथ्वी के बहुत से भू-भाग जो किन्हीं खास वजहों से समानता रखते हो सकते हैं, दिखने लगते है। दो भिन्न अर्थों से भरे इस पदबंध में अपने-अपने तरह से स्थानिकता की पहचान की जा सकती है। बहुधा स्थानिकता को परिभाषित करते हुए शीर्षक का पहला पाठ लुभाने लगता है और उस वक्त जो स्थानिकता उभरती है वो इतनी एकांगी होती है कि उसे क्षेत्रियततावाद की गिरफ्त मेंे फंसे हुए देखा सकता है। स्थानिकता का दायरा किसी निश्चित भू-भाग तक ही हो तो कविताओं की व्यापप्कता चूक सकती है। हां किसी देखे जाने गये भूगोल के इर्द-गिर्द होती हुई भी यदि वे अन्य स्थितियों के विस्तार में भिन्न भूगोल को भी स्थानिक बना देने की क्षमता से भरी हों तो उनकी सार्वभौकिता पर संदेह नहीं किया जा सकता। शिरीष कविता स्थानिकता की पड़ताल में ज्यादा साफ और सही रूप्ा से सार्वभौमिक होने के ज्यादा करीब है -
पृथ्वी में एक जगह भूसा है।
पृथ्वी में एक जगह जहां हल हैं, दोस्त हैं।
सार-सार को गही रहे, थोथा देई उड़ाय वाला दर्शन आज उपभोक्तावाद ने हथिया लिया है। यूज एण्ड थ्रो जैसा नारा उसके गहराते संकट से उबरने की चालाकी है, जिसके कारण एक ऐसी संस्कृति जन्म लेती जा रही है जिसमें व्यक्ति खुद को ही हीन समझने के लिए मजबूर है। उसकी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफेद कैसी ? हर अगले दिन पैदा होता उसका उत्पाद पिछले दिन पैदा किये अपने ही उत्पाद को कमतर बताने के साथ है। उसका दर्शन सिर्फ मुनाफे पर टिका है। आपसी रिश्तों की ऊष्मा से उसका कोई लेना देना नहीं। इसीलिए वहां रिश्तों के अपनापे में संबंधों को परिभाषित करने की कोई कोशिश भी संभव नहीं हो सकती। वस्तु के उपयोग और उसकी सार्थकता को भी भिन्न तरह से परिभाषित करते किसी भी वैज्ञानिक चिंतन से उसे चिढ़ होती है। शिरीष की कविताएं भिन्नता के उस दर्शन के साथ हैं जिसमें दानेदार फसल और उन दानों को मौसम के थपेड़ों से बचाये रखने में भूसा हो गयी बालियों, दोनों की महत्ता स्थापित हो सकती है।
पृथ्वी में एक जगह हैं ये सब। पर पृथ्वी में वह एक ही जगह नहीं है जहां हैं, ये सब। स्थानिकता का सार्वभौमिकीकरण इनके एक ही जगह मात्र होने पर, हो भी नहीं सकता है। विभिन्न रूपाकारों में ढली पृथ्वी को उसकी भिन्नता से प्रेम करके ही जाना जा सकता है। शिरीष की कविताओं में भिन्न्ता का यह भूगोल उस सांस्कृतिक भिन्नता की पड़ताल करता हुआ भी है जो एक सीमित लोक का विस्तारीकरण करने के लिए आवश्यक तत्व है। उनके पाठ पदबंध के दूसरे पाठ के ज्यादा करीब से गुजरते हैं। लोक के सार्वभौमिकीकरण में ही शिरीष काव्य तत्वों को गुंथता है और उनको बचाये रखने की सुसंबद्ध योजना का आधार तैयार करता जाता है-
छोटे शरीर में भी बड़ी आत्माएं निवास करती हैं
छोटे छोटे पग भी
न्ााप सकते हैं पूरी धरती को
उस अपने तरह की सार्वभौमिकता के गान, जो शब्दों में बहुत वाचाल और व्यवहार में संकीर्ण एवं लुटेरी मानसिकता का छलावा बन कर सुनायी दे रहा है, कवि शिरीष कुमार मौर्य की उससे स्पष्ट नाइतफाकी है। स्थानिकता की एक परिभाषा जिस तरह से आज दक्षिणपंथी उभारों तक जाने को उतावली दिखायी देती है ठीक उसी तर्ज पर बहुत चालाकी बरतने वाली सार्वभौमिकता का नारा भी हर ओर सुनायी दे रहा है। यूं दोनों की उपस्थिति से भी दुनिया के दो ध्रुव बनने चाहिए थे लेकिन देख सकते हैं अपने अपने छलावे में दोनों की साठगांठ एक ऐसी मूर्तता को उकेर रही है जिसमें निर्मित होता वातावरण  लगभग एक ही ध्रुव की ओर बढ़ता जा रहा है। आंधियों की तरह आती यह सार्वभौमिकता, भौगोलिकरण का दूसरा नाम है, उसमें एक स्वांग है मिलन का। धूल और गर्द उड़ाती, छप्परों को उजाड़ती उसकी आवाज़ का शौर इतना ज्यादा है कि चाहकर भी उदासीन बने रहना संभव नहीं है। एक सचेत रचनाकार की भूमिका उसकी उस प्रवृत्ति को भी उजागर करना है जो हमारी स्थायी उदासीनता का कारण बनती जा रही है और इस स्थायी उदासीनता में वह जिस तरह की खलबली मचाना चाहती है, उसके प्रति भी सजग रहने की कोशिश एक रचनाकार का दायित्व है। शिरीष की कविताओं में दोनों ही स्थितियों से मुठभेड़ करने की कोशिश के बयान कुछ यूं हैं कि आखिर साधो हम किससे डरते हैं? नींद तो केवल अपनी ही बनाई सुरंगों में घ्ाुसे मेढ़कों को आती है।
पृथ्वी पर उस जगह को, जहाँ स्थायी किस्म की उदासी के बावजूद जगर-मगर दुनिया है, एक चिहि्नत भूगोल की स्थानिक रंगत से भरने की एक खास जिद्द इसीलिए शिरीष के यहां भी मौजूद है। कविताओं में जगहों के नामों की उपस्थिति कवि की सायाश कोशिशों की वजह है।
इस पृथ्वी पर एक जगह है
जिसे मैं याद करता हूँ
आक्षांश और देशान्तर की सीमाओं में बांधे बगैर
जीवन की यात्रा के ढेरों पड़ाव भी शिरीष की कविता में दर्ज पाये जा सकते हैं। उनका संग-साथ अतीत से आती हवाओं में देखा जा सकता है, मित्रों की उपस्थितियों के साथ उनका होना महसूसा जा सकता है और हमेशा एक विनम्र किस्म की, बहुत भीतर तक से उठती, बेचैन हूक में उसे सुना जा सकता है। आत्मीयजनों को समपर्ण के भाव कविता के शीर्षक के साथ गुंथे हुए देखे जा सकते हैं। पर आत्मीयजनों को समर्पित होते हुए भी मात्र उनके लिए ही नहीं हैं वे। उनका दायरा चिहि्नत आत्मियताओं से होता हुआ अचिहि्नतों तक पहुँचता है। कवि चन्द्रकांत देवताले को समर्पित एक कविता की कुछ पंक्तियां हैं-
मेरे पास
बहुत पुराने दिनों की हवाँए हैं
इतिहास से आती इन हवाओं में भावुक मोहकता नहीं बल्कि पूर्वजों की महान विरासत का स्मरण है। लोक तत्वों की पुष्टी भी बिना ऐतिहासिक चेतना के कहां संभव हो सकती है ? भीतर की धूल को उड़ा देने वाली उस इतिहास चेतना की तीव्रता इतनी ज्यादा है कि बहुत चालाक होकर छुपायी जा रही 'आधुनिकता" भी उसकी चपेट में आने से बच नहीं पा रही। वातावरण को नरम और मुलायम बनाने वाली, अतीत से आती, इन हवाओं का संग-साथ युवा कवि की काव्य चेतना में इस कदर रचा बसा है कि बहुत हताशा के क्षणों में भी वह गुस्से के इजहार के साथ अपनी ऊर्जा को समेट लेना चाहता है। नर्वस एनर्जी एक शब्द है, जिसका प्रयोग उस भाव को व्यक्त करने में मेरे प्रिय कवि राजेश सकलानी करते हैं, जो बहुत मुसीबतों के समय अचानक से व्यक्ति को कुछ भी अप्रत्याशित कर देने की ताकत दे देती है और मुसीबत में फंसा व्यक्ति उसके ही बल पर बाहर निकल आता है। कवि कुमार विकल की स्मृतियों में रची गयी कविता की पंक्तियां शिरीष को भी उसी नर्वस एनर्जी से सवंद्र्धित कर रही हैं-
ओ मरे पुरखे!
आखिर क्या हो गया था ऐसा
कि अपनी आखिरी नींद से
पहले तुम दुनिया को
सिर्फ अपनी उदासियों के बारे में बताना चाहते थे।
आज का रचनाकार अतीत से भविष्य तक की अपनी यात्रा में अपने वर्तमान की उपस्थिति से, बेखबर नहीं रहना चाहता है। रास्ते में पड़ने वाले दोस्तों के डेरे शिरीष के भी पड़ाव हैं। ऐसे ही डेरों में शाम बिताते हुए उन अवसरों को तलाशा जा सकता है जो आत्म मंथन के लिए जरूरी भी हैं।
जैसे आटे का खाली कनस्तर
जैसे घ्ाी का सूना बरतन
जैसे पैंट की जेब में छुपा दिन का
आख्ािरी सिा।
मित्रों के इन अड्डों पर ही वे बेपरवाह टिप्पणियां सुनी जा सकती हैं जिन में आत्मालोचना करना जरूरी लगने लगता है-
जैसे तालाब को खंगाले उसकी लहर
जैसे बादल को खंगाले उसकी गरज
हमने खंगाला खुद को।
खुद को खंगालना इतना आसान भी नहीं होता। बहुत पीड़ादायक होता है अक्सर उससे गुजरना भी। टूटन होती है ऐसी कि जिसको व्याख्यायित करने की कोई भी कोशिश अधूरी ही रह जाती है। कई बार आपसी रिश्तों की टूटन की आवाज़ों को सुनना होता है। अवसाद भरी नाजुकताएं इच्छाओं की भीत पर इस कदर असर डालने वाली हो जाती है कि नींद और जाग की मनोदशाओं मेंं डूबता मन अस्वस्थता का कारण होने लगता है।
हम जहाँ से कहीं जाते
वहाँ से
कोई नहीं आता हमारे पास।
यकीन भरी आत्मीय पुकार के ये अड्डे शिरीष के यहां बहुत भरोसे के साथी के रूप्ा में दर्ज है। उनमें रुकना सिर्फ भौतिक रूप्ा से रात काटना भर नहीं बल्कि बहुत कुछ को बचा लेने की संभावनाओं का तलाशना जाना है- 
बचे रहे हम
जैसे आकाश में तारों के निशान
जैसे धरती में जल की तरलता
जैसे चट्टानों में जीवाश्मों के साक्ष्य।
'पोस्टकार्ड" इस संग्रह की एक बहुत ही महत्वपूर्ण कविता है। दुनियादारी को निभाने में आज के संचार की ढेरों युक्तियां आज हमारा समाज संजोता जा रहा है। ऐसे में पोस्टकार्ड के खुलपेन को याद करना न सिर्फ एक संदेश को पहुंचाने की युक्ति को याद करना है बल्कि उस झूठ का पर्दाफाश करना भी है जो एक तरह से ज्यादा पारदर्शी होने का भ्रम पैदा कर रही है।
कैसा है मेरा रंग
हल्का भूरा धूसर पीला मटमैला
कुछ
कहा नहीं जा सकता

लेकिन कहा जा सकता है
क्या लिखा जाएगा मुझ पर

आख्ािर दुनिया में बातें ही कितनी हैं
जिनको
लिखा जाएगा खुलकर ?
वर्तमान दुनिया ने ख्ुाशियोंे को चंद मुटि्ठयों में दबोचा हुआ है और दु:ख और संताप से भरी एक भीड़ को जन्म दिया है।
हम बाहर हैं इस समूचे संसार से
जो लोगों से नहीं सूचनाओं से बना है।
लेकिन अफसोस इस बात का है कि दु:ख और संताप में डूबी उस बड़ी भीड़ का हर व्यक्ति इतना अकेला है कि अपनी बेचैनी, तकलीफें और अपनी खुशियों को बहुत सामूहिक तौर पर शेयर करने की स्थितियां भी उसके पास नहीं हैं।
तुम्हारे भीतर एक उलझा हुआ जाल है
धमनियों और शिराओं का
और वे भी अब भूलने लगी हैं तुमहारे दिमाग तक
रक्त पहुंचाना
इसीलिए
तुम कभी बेहद उत्तेजित
तो कभी
गहरे अवसाद में रहते हो।
निराशा और पस्ती के ऐसे वक्त में एक सचेत रचनाकार की भूमिका सिर्फ इतनी ही नहीं हो सकती कि वह स्थितियों का जिक्र मात्र करके मुक्त हो जाए। यथास्थिति को तोड़ने की कोशिश और वैकल्पिक दुनिया की तस्वीर की कल्पना के बिना रचना की सार्थकता तय नहीं हो सकती है। शिरीष एक जिम्मेदार रचनाकार की भूमिका में दिखाई देते हैं। अपने पाठक को निराशा में डूबने नहीं देना चाहते-
अब तुम
अपने भीतर के द्वार खटखटाओ
तो तुम्हें सुनाई देंगी सबसे बुरे समय की मुसलसल
पास आती पदचाप

अब तुम्हारा बोलना कहीं ज्यादा अर्थपूर्ण
और मंतव्यों से भरा होगा।
गहन उदासी की रुलाई में भी नमक के खारेपन पर शिरीष का यकीन है। समुद्र के अथाह पानी में अपने आंसुओं को मिलाती मछलियों और दूसरे जलचरों से ली जाती प्रेरणा एक अनूठी युक्ति है उस चेतना के प्रकटीकरण की जो पाठक को निराशा और पस्ती में घ्ािरने नहीं देती। शिरीष की कविताओं की एक उल्लेखनीय विशेषता है कि वस्तुगत यथार्थ की उपस्थिति के साथ वहां उम्मीदों को बांधे रखने वाला एक संगत स्वर लगातार मौजूद है
उसमें बैलों की ताकत है और लोहे का पैनापन
हल के बारे में कही गयी यह पंक्तियां उस अनूठी कोशिश का एक नमूना है। इसके पाठ के साथ ही एक दृश्य खुलने लगता है और जमीन में खुंपे, ढेलों को पलट पलट देते हल की मूंठ पर थमी हथेली और बैलों को हांकती आवाजों के साथ खेत को उपजाऊ बनाने में जुटे किसान के चेहरे से उत्कट मानवीय इच्छा रूपी पसीने को बहते देखा जा सकना संभव हो रहा होता है। वही हल जिसका गायब हो जाना किसी उन्नत यंत्र से अपदस्थ होती प्रक्रिया का प्रतिफल नहीं है बल्कि गायब कर दिये जाने की एक साजिश है। कर्ज के बोझ से दबे, उन्नत बीजों के नाम पर हाईब्रीड फसलों को उगाने के लिए मजबूर कर दिये गये और चौपट होती फसल के कारण आत्महत्या करने को मजबूर किसानों की बदहाली के चलते भी उसका गायब हो जाना स्वभाविक ही है। शिरीष के यहां उसके गायब होने की कथा ऊंचे ढंगारों वाले पहड़ों पर सीढ़ीदार खेतों की उत्पादक सीमाओं के साथ छूट जा रही खेती भी एक कारण के रूप्ा में मौजूद है। खेती किसानी की दुनिया से लगाव शिरीष की कविताओं में इतना गहरा है कि फसल के साथ काट कर सहेजे जाना वाला भूसा तक वहां उम्मीदों की फसल बन जाता है।
बहरहाल इतना तो साफ है कि इसे भी सहेज रहे हैं लोग
दानों के साथ
इस दुनिया में वे सार भी बटोर रहे हैं
और थोथा।
सार-सार को गही रहे, थोथा देई उड़ाय वाला दर्शन आज उपभोक्तावाद ने हथिया लिया है। यूज एण्ड थ्रो जैसा नारा उसके गहराते संकट से उबरने की चालाकी है, जिसके कारण एक ऐसी संस्कृति जन्म लेती जा रही है जिसमें व्यक्ति खुद को ही हीन समझने के लिए मजबूर है। उसकी कमीज मेरी कमीज से ज्यादा सफेद कैसी ? हर अगले दिन पैदा होता उसका उत्पाद पिछले दिन पैदा किये अपने ही उत्पाद को कमतर बताने के साथ है। उसका दर्शन सिर्फ मुनाफे पर टिका है। आपसी रिश्तों की ऊष्मा से उसका कोई लेना देना नहीं। इसीलिए वहां रिश्तों के अपनापे में संबंधों को परिभाषित करने की कोई कोशिश भी संभव नहीं हो सकती। वस्तु के उपयोग और उसकी सार्थकता को भी भिन्न तरह से परिभाषित करते किसी भी वैज्ञानिक चिंतन से उसे चिढ़ होती है। शिरीष की कविताएं भिन्नता के उस दर्शन के साथ हैं जिसमें दानेदार फसल और उन दानों को मौसम के थपेड़ों से बचाये रखने में भूसा हो गयी बालियों, दोनों की महत्ता स्थापित हो सकती है।      


-विजय गौड़



पुस्तक का नाम :  पृथ्वी पर एक जगह
लेखक का नाम: शिरीष कुमार मौर्य
प्रकाशक: शिल्पायन, दिल्ली