Wednesday, June 19, 2013

ताइवान : प्रतिरोध की कविता

ताइवान : प्रतिरोध की कविता आज से करीब सोलह साल पहले ताइवान के हजारों कारखाना मजदूरों को बढ़ती प्रतिद्वंद्विता को देखते हुए उत्पादों की लागत कम करने के नाम पर बगैर कोई हर्जाना दिए नौकरी से निकाल दिया गया था। अचानक आई इस बिपदा से मजदूरों और उनके परिवारों का जीवन छिन्न भिन्न हो गया ,हाँलाकि यूनियनों के हस्तक्षेप से यह रहत मिली कि सरकारी श्रम विभाग उनको कुछ राशि "ऋण" के तौर पर देने को तैयार हो गया जो बाद में दोषी कारखाना मालिकों से वसूल लिया जाना था। अब सोलह साल बाद सरकार ने लाभार्थी मजदूरों ( जिनमें से अधिकतर अब मौत के मुंह पर दस्तक दे रहे हैं) को दिए गए "ऋण" को वापस लेने के लिए कानूनी अभियान चलाया है। गैर कानूनी ढंग से सरकारी ऋण डकार जाने का अभियोग उन मजदूरों पर लगाया गया है और कोर्ट में मुकदमा चलाया जा रहा है। ताइवान के एक कलाकार लेखक "BoTh Ali Alone" ( सरकारी दमन से बचने के लिए रखा गया छद्म नाम) ने इस घटना को रेखांकित करते हुए और पीड़ित मजदूरों की तकलीफ से खुद को अलग और मसरूफ रखने वाले सुविधा संपन्न वर्ग की ओर इशारा करते हुए एक कविता लिखी। http://globalvoicesonline.org/2013/02/11 से ली गयी यह कविता यहाँ प्रस्तुत है
प्रस्तुति : यादवेन्द्र 


रेल की पटरी पर सोना

यह एक द्वीप है जिसपर लोगबाग़
लगातार ट्रेन में चढ़े रहते हैं
जब से उन्होंने कदम रखा धरती पर।
उनके जीवन का इकलौता ध्येय है
कि आगे बढ़ते रहें रेलवे के साथ साथ
 उनकी जेबों में रेल का टिकट भी पड़ा रहता है
 पर अफ़सोस,रेल से बाहर की दुनिया
 उन्होंने देखी नहीं कभी ...
डिब्बे की सभी खिड़कियाँ ढँकी हुई हैं
 लुभावने नज़ारे दिखलाने वाले मॉनीटर्स से।

ट्रेन से नीचे कदम बिलकुल मत रखना
एक बार उतर गए ट्रेन से तो समझ लो
वापस इसपर चढ़ने की कोई तरकीब नहीं ...
तुम आस पास देखोगे तो मालूम होगा
सरकार बनवाती जा रही है रेल पर रेल
जिस से यह तुम्हें ले जा सके चप्पे चप्पे पर
पर असलियत यह है कि इस द्वीप पर बची नहीं
कोई जगह जहाँ जाया जा सके अब घूमने फिरने
क्यों कि जहाँ जहाँ तक जाती है निगाह
नजर आती है सिर्फ रेल ही रेल।

जिनके पास नहीं हैं पैसे रेल का टिकट खरीदने के
वे किसी तरह गुजारा कर रहे हैं रेल की पटरियों के बीच ..
जब कभी गुजर जाती है ट्रेन धड़धड़ाती हुई उनके ऊपर से
डिब्बे के अन्दर बैठे लोगों को शिकायत होती है
कि आज इतने झटके क्यों खा रही है ट्रेन। 

Saturday, June 1, 2013

कविता के वाद्ययंत्र पर झंकृत जीवन की लय



                                - महेशचंद्र पुनेठा



  सिद्धेश्वर सिंह युवा पीढ़ी के उन विरले कवियों में हैं जो बिना किसी शोर-शराबे के अपने कवि कर्म में लगे है। अपनी कविता को लेकर उनमें न  किसी तरह की आत्ममुग्धता है और न कहीं पहुंचने या कुछ  पा लेने की हड़बड़ाहट। उनका विश्वास चुपचाप अपना काम करने में है। फालतू कामों में लगकर स्वयं को नष्ट नहीं करना चाहते हैं। एक साधक के लिए यह बड़ा गुण कहा जा सकता है। विज्ञापन के इस युग में यह बड़ी बात है। कवि किसी तरह के बड़बोलेपन का शिकार भी नहीं है और न ही किसी बड़े आलोचक का बरदहस्त पाने के लिए उतावला।  उनके व्यक्तित्व की इन वि्शेषताओं की छवि हमें पिछले दिनों प्रका्शित उनके पहले कविता संग्रह "कर्मनाशा" की कविताओं में भी दिखाई देती है।उनकी कविताओं में किसी तरह का जार्गन न होकर धीरे-धीरे मन में उतरने का गुण है।ऊपर से देखने में सीधी-सपाट भी लग सकती हैं। वे अपनी बात को अपनी ही तरह से कहते हैं।पूरी शालीनता से। अच्छी दुनिया के निमार्ण की दिशा में अपनी प्राथमिकता को बताते हुए  "काम" कविता में वे कहते हैं-दुनिया बुराइयों और बेवकूफ़ियों से भरी पड़ी है/ऊपर से प्रदूषण की महामारी /अत:/धुल और धुंए से बचानी है अपनी नाक/ पांवों को कीचड़ और दलदल से बचाना है/आंखों को बचाना कुरूप दृश्यों से/और जिह्वा को बचाए रखना है स्वाद की सही परख के लिए।

  माना कि "अच्छी दुनिया के निर्माण" के लिए इतना पर्याप्त नहीं है पर आज के दौर में जब "हर ओर काठ और केवल काठ" ही दिखाई दे रहा हो खुद को काठ होने से बचा लेना भी किसी संघर्ष से कम नहीं है। यही से होती है दुनिया को बचाने की शुरुआत। सिद्धे्श्वर "ठाठें मारते इस जन समुद्र में/वनस्पतियों का सुनते हैं विलाप" यह सामान्य बात नहीं है। यह उनकी संवेदनशीलता कही जाएगी कि उन्हें पहाड़ खालिस प्रकृति के रूप में नहीं दिखाई देते हैं- पहाड़ केवल पहाड़ नहीं होते/न ही होते हैं/नदी नाले पेड़ बादल बारिश बर्फ/पहाड़ वैसी कविता भी नहीं होते /जैसी कि बताते आए हैं कविवर सुमित्रानंदन पंत। पहाड़ को कवि उसके जन के सुख-दु:ख और संघर्षों के साथ देखता है। उनकी  कविता "दिल्ली में खोई हुई लड़की" इसका प्रमाण है। यह अपने-आप में एक अलग तरह की कविता है जिसके कथ्य में एक मार्मिक कहानी बनने की पूरी संभावना है। यह कविता उस पहाड़ के दर्द को व्यक्त करती है-जहां से हर साल ,हर रोज धीरू जैसे पता नहीं कितने धीरू दिल्ली आते हैं और खो जाते हैं। जिनकी ईजाएं रात-रात भर जागकर डाड़ मारकर रोती हैं और आज एक "बैणी" अपने भाई को ढूंढने निकली है। जिसे वहां हर जगह-हर तीसरा आदमी धीरू जैसा ही लगता है। वह सोचती है-क्यों आते हैं लोग दिल्ली/क्यों नहीं जाती दिल्ली कभी पहाड़ की तरफ? कविता में बस कंडक्टर का यह कहते हुए उस लड़की को समझना कि-तेरे जैसों के लिए नहीं है दिल्ली/हम जैसों के लिए भी नहीं है दिल्ली/फिर भी यहां रहने के लिए अभिशप्त हैं हम। मानवीय विडंबना को व्यक्त करती है।साथ ही ये पंक्तियां कविता को एक राजनैतिक स्वर प्रदान करती है। यह कविता दिल्ली पर लिखी गई तमाम कविताओं से इस अर्थ में अलग है कि इसमें दिल्ली में एक और ऐसी दिल्ली है जहां के लोगों को "लोगों में गिनते हुए शर्म नहीं आती"। इस कविता में पहाड़ के संघर्ष और दिल्ली के हृदयहीन चरित्र को व्यक्त करने की पूरी को्शिश की गई है।                                   

  युवा कवि-चित्रकार सिद्धेश्वर सिंह की कविताओं में-बढ़ते बाजारभाव की कश्मकश में/अब भी/बखूबी पढ़े जा सकते हैं चेहरों के भाव। सुनी जा सकती है अपील-आओ चलें/थामे एक दूजे का हाथ/चलते रहें साथ-साथ। व्यक्तिवादी समय में साथ-साथ चलने की बात एक जन-प्रतिबद्ध कवि ही कह सकता है।  उन्हें "कुदाल थामे हाथों की तपिस" दिलासा देती है कि अब दूर नहीं है वसंत---खलिहानों-घरों तक पहुंचेगा उछाह का ज्वार। उनकी कविता में सामूहिकता और उम्मीद  का यह स्वर उस उजले चमकीले आटे की तरह लगता है जिससे उदित होती है फूलती हुई एक गोल-गोल रोटी जो कवि को पृथ्वी का वैकल्पिक पर्याय लगती है। पृथ्वी को रोटी के रूप में देखना पृथ्वी में रहने वाले अनेकानेक भूखों को याद करना है।  इतना ही नहीं अपने कविता संग्रह का शिर्षक एक ऐसी नदी के नाम को बनाता है तो अपवित्र  मानी जाती है। यह यूं ही अनायास नहीं है बल्कि सोच-समझकर किया गया है। इससे साफ-साफ पता चलता है कवि किसके पक्ष में खड़ा है। उसने गंगा-यमुना को नहीं "कर्मनाशा" को चुना। पुरनिया-पुरखों को कोसते हुए वह पूछता है-क्यों-कब-कैसे कह दिया/कि अपवित्र नदी है कर्मनाशा !/भला बताओ/फूली हुई सरसों/और नहाती हुई स्त्रियों के सानिध्य में/कोई भी नदी/आखिर कैसे हो सकती है अपवित्र ? इस तरह कवि  उपेक्षित-अवहेलित चीजों-व्यक्तियों को अपनी कविता के केंद्र में लाता है। वह दो दुनियाओं को एक-दूसरे के बरक्स खड़ा कर हमारे समाज में व्याप्त वर्ग विभाजन को और दोनों ओर व्याप्त "हाय-हाय-हाहाकार" दिखाता है। उनकी कविता "दो दुनियाओं के बीच" संबंध जोड़ती, संघर्ष करती , दीवारों को तोड़ती, जनता से परिचय कराती है। " बाल दिवस " कविता में इसे देखा जा सकता है- इस पृथ्वी के कोने-कोने में विद्यमान समूचा बचपन/एक वह जो जाता है स्कूल/एक वह भी जो हसरत से देखता है स्कूल को/एक वह जो कंप्यूटर पर पढ़ सकेगा यह सब/एक वह भी/जो कूड़े में तलाश रहा है काम की चीज---पर कवि को विश्वास है कि-बच्चे ही साफ़ करेंगे सारा कूड़ा-कबाड़। अंधेरे-उजाले का संघर्ष सदियों से चला आ रहा है और तब तक चलता रहेगा जब तक धरती के कोने-कोने से अंधेरा का नामोनिंशापूरी तरह मिट नहीं जाता है। कवि जीवन के हर अंधेरे कोने में "उजास" की चाह करता है-उजाला वहां भी हो/जहां अंधेरे में बनाई जा रही हैं/सजावटी झालरें/और तैयार हो रही हैं मोमबत्तियां/ उजाला वहां भी हो/जहां चाक पर चलती उंगलियां/मामूली मिट्टी से गढ़ रही हैं/अंधेरे के खिलाफ असलहों की भारी खेप। कवि अपील करता है-आओ!/जहां-जहां बदमाशियां कर रहा है अंधकार/वहां-वहां/रोप आएं रोशनी की एक पौध। इस तरह उनकी कविता अंधेरे से उजाले के बीच गति करती है। कवि जानता है -साधारण-सी खुरदरी हथेलियों में/कितना कुछ छिपा है इतिहास। कवि हथेलियों का उत्खनन करने वालों की चतुराई को भी जानता है कि-वे चाहते हैं कि खुली रहें सबकी हथेलिया/चाहे अपने सामने या फिर दूसरों के सामने/हथेलियां बंद होकर मुटि्ठयों की तरह तनना/उन्हें नागवार लगता है। पर कवि का विश्वास है-किसी दिन कोई सूरज/यहीं से बिल्कुल यही से/उगता हुआ दिखाई देगा। ---।यह रात है/नींद/स्वप्न/जागरण/और---/सुबह की उम्मीद। सिद्धेश्वर सिंह की कविताओं में मुक्तिबोध की तरह अंधेरे और रात का जिक्र बहुत होता है इसके पीछे कहीं न कहीं कवि की रोशनी और सवेरे की आस छुपी हुई  है। कवि यत्र-तत्र उगते बिलाते देखता है उम्मीदों के स्फुलिंग, उनमें से एक कविता भी है। वह "निरर्थकता के नर्तन पर नतशीश" कविता से कुछ उम्मीद पाले हुए है। भले ही कवि के शब्दों में-कविता की यह नन्हीं-सी नाव/हिचकोले खाए जा रही है लगातार-लगातार।

   प्रस्तुत संग्रह की बहुत सारी कविताएं पाठक को अपने साथ यायावरी में भी ले जाती हैं। नए-नए स्थानों के दर्शन कराती हैं।वहां के जनजीवन से  परिचित कराती हैं।साथ ही कुरेदती है वहां के "व्यतीत-अतीत" को और खंगालती है इतिहास को।"बिना टिकट-भाड़े-रिजर्वेशन के" कभी वे विंध्य के उस पार दक्षिण देश ले जाते हैं, कभी आजमगढ़ तो कभी शिमला ,कौसानी ,रामगढ़,रोहतांग,नैनीताल। कवि वहां की प्रकृति और जन के साथ एकाकार हो जाता हैं। उसको अपने-भीतर बाहर महसूस करने लगता है। खुद से नि:शब्द बतियाने लगता है। अडिग-अचल खड़ा नगाधिराज,तिरछी ढलानों पर सीधे तने खड़े देवदार, बुरांस , सदानीरा नदियां, फूली हुई सरसों के खेत के ठीक बीच से सकुचाकर निकलती कर्मनाशा की पतली धार ,तांबे की देह वाली नहाती स्त्रियां ,घाटी में किताबों की तरह खुलता बादल उनकी कविता में एक नए सौंदर्य की सृर्ष्टी करते हैं।साथ ही पिघलते हिमालय की करुण पुकार ,आरा मशीनों की ओर कूच कर रहे चीड़ों, नदियों में कम होते पानी,ग्लोबल वार्मिंग की मार से गड़बड़ाने लगा शताब्दियों से चला आ रहा फसल-चक्र की चिंता उनकी कविताओं में प्रकट होती है। यह प्रकृति और  पर्यावरण के प्रति उनकी अतिरिक्त चेतना और संवेदना को बताता है। एक पर्यावरण चेतना का कवि ही इस तरह देख सकता है-यत्र-तत्र प्राय: सर्वत्र/उभर रही हैं कलोनियां/जहां कभी लहराते थे फसलों के सोनिया समंदर/और फूटती थी अन्न की उजास/वहां इठला रही हैं अट्टालिकाएं/एक से एक भव्य और शानदार(रसना विलास)। उसे ही महसूस हो सकती है-डीजल और पेट्रोल के धुएं की गंध।सूर्य का ताप।  यही है "हमारी लालसाओं की भट्ठी की आंच" जिसके चलते नगाधिराज की देह भी पिघलने लगी है। उनका विनम्र "आग्रह" है कि-कबाड़ होती हुई इस दुनिया में/फूलों के खिलने की बची रहनी चाहिए जगह। कवि वसंत को खोजता है। उस समय को खोजता है जब आग,हवा,पानी ,आका्श ,प्यार यहां तक कि नफरत भी सचमुच नफरत थी। कुछ खोते जाने का अहसास इन कविताओं में व्याप्त है जो बचाने की अपील करता है।यह बचाना पर्यावरण से लेकर मानवीय मूल्यों को बचाना है।  

 समीक्ष्य संग्रह की अनेक कविताओं में व्यंग्य की पैनी धार भी देखी जा सकती है। पुस्तक समीक्षा आज एक ऐसा काम होता जा रहा है जिसे न पढ़ने वाला और न छापने वाला कोई भी गंभीरता से नहीं लेता है। उसका इंतजार रहता है तो केवल पुस्तक-लेखक को। यह बहुत चिंताजनक स्थिति है पर इसके लिए खुद समीक्षक जिम्मेदार है। जितनी चलताऊ तरीके और यार-दोस्ती निभाने के लिए समीक्षा लिखी जा रही है उसके चलते समीक्षा इस हाल में पहुंच गई है। सिद्धेश्वर सिंह की कविता "पुस्तक समीक्षा" इस पर सटीक और तीखा व्यंग्य करती है। व्यंग्य का यह स्वर "इंटरनेट पर कवि", "कस्बे में कवि गोष्ठी","लैपटाप","टोपियां","बालिका वर्ष"," जानवरों के बारे में" आदि कविताओं में भी सुना जा सकता है।

 कवि-अनुवादक सिद्धेश्वर सिंह रोजाना बरती जाने वाली भा्षा में अपनी बात कहने वाले कवि हैं। उनका इस बात पर विश्वास है-भा्षा के चरखे पर/इतना महीन न कातो/कि अदृश्य हो जाएं रे्शे/कपूर-सी उड़ जाए कपास। आज लिखी जा रही बहुत सारी कविता के साथ "अद्रश्य" हो जाने का संकट है।यह संकट उनकी भा्षा और कहन के अंदाज ने पैदा किया है।  इसकी कोई जरूरत नहीं है ---इस तद्भव समय में कहां से प्रकट करूं तत्सम शब्द-संसार/रे्शमी रे्शेदार शब्दों में कैसे लिखूं-/कुछ विशिष्ट कुछ खास। कविता के लिए "रेशमी-रे्शेदार शब्दों" की नहीं उन शब्दों की जरूरत है जो क्रियाशील जन के मुंह से निकले हैं।किसी भी समय और समाज  की सही अभिव्यक्ति उसके क्रिया्शील जन की भाषा-शैली में ही संभव है। यहां मैं प्रसंगवश "अलाव" पत्रिका के अंक-33 के संपादकीय में कवि-गीतकार रामकुमार कृ्षक की बात को उद्धरित करना चाहुंगा-"" कविता का कोई भी फार्म और उसकी अर्थ-गर्भिता अगर सबके लिए नहीं तो अधिसंख्यक पाठकों के लिए तो ग्राह्य होनी ही चाहिए। मैं उन विद्वानों से सहमत नहीं हो पाता हूं ,जो चाहते हैं कि कविता में अधिकाधिक अनकहा होना चाहिए या शब्दों से परे होती है, अथवा जिसे गद्य में कहा जा सके , उसे पद्य में क्यों कहा जाए।"" अच्छी बात है कि सिद्धे्श्वर की कविता अधिसंख्यक पाठकों के लिए ग्राह्य है। यह दूसरी बात है कि कुछ कविताओं में सिद्धे्श्बवर हुत दूर चले जाते हैं जहां से कविता में लौटना मुश्किल हो जाता है। शब्दों और पंक्तियों के बीच अवकाश बढ़ जाता है और कविता अबूझ हो जाती है। कुछ कविताओं में वर्णनाधिक्य भी हैं। पर ऐसा बहुत कम है।  

  सिद्धेश्वर उन कवियों में से है जो अपनी पूरी काव्य-परम्परा से सीखते भी हैं और तब से अब तक के अंतर को रेखांकित भी करते हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए सुमित्रानंदन पंत ,महादेवी वर्मा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला,नागार्जुन, मुक्तिबोध, वेणुगोपाल, हरी्श चंद्र पांडेय, विरेन डंगवाल, जीतेन्द्र श्रीवास्तव आदि कवि अलग-अलग तरह से याद आते हैं। उनकी कविता अपने समय को देखती-परखती-पहचानती चलती है जो एक बेहतर दुनिया के सपने देखती है। वह अपने समय को हवा-पानी की तरह निरंतर बहता देखना चाहते हैं। इस संग्रह की एक खास बात यह है कि इनमें कविता के परम्परागत वि्षयों से बाहर निकलकर फेसबुक, इंटरनेट, मोबाइल, लैपटाप जैसे वि्षयों पर भी कविताएं लिखी गई हैं। भले ही कवि को इन कविताओं में और गहराई में जाने और संश्लिष्टता लाने की जरूर थी बावजूद इसके इन कविताओं के माध्यम से  कवि अपने समय की गति से अपनी चाल मिलाता चलता है।  उन्हें कवि कर्म "शब्दों की फसल सींचना" या "शब्दों को चीरना" "शब्दों का खेल कोई" जैसा कुछ लगता है। "सिर्फ जेब और जिह्वा भर नहीं है जिनका जीवन" वे जरूर सुन सकते हैं उनकी कविता के वाद्ययंत्र पर झंकृत जीवन की लय। आशा करते हैं उनकी कविताओं में जीवन की यह लय आने वाले समय में और व्यापक और गहरी होती जाएगी।

   

कर्मनाशा ( कविता संग्रह) सिद्धेश्वर सिंह  प्रका्शक - अंतिका प्रका्शन गाजियाबाद। मूल्य-225 रु0 

Saturday, May 18, 2013

नागरिक कर्म और रचना कर्म को साथ-साथ चरित्रार्थ करने की बेचैनी से भरा कवि



                                   
                                                                          - महेश चंद्र पुनेठा



  भले ही हिंदी कविता में जनपदीयता बोध की कविताओं की परंपरा बहुत पुरानी एवं समृद्ध है पर उच्च हिमालयी अंचल की रूप-रस-गंध ली हुई कविताएं अंगुलियों में गिनी जा सकती हैं। अजेय उन्हीं गिनी-चुनी कविताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनकी कविता के केंद्र में इस अंचल का क्रियाशील जनजीवन ,प्रकृति तथा विकास के नाम पर होने वाली छेड़छाड़ के चलते भौतिक और सामजिक पर्यावरण में आ रहे बदलाव हैं। कविता में उनकी कोशिश है कि अपने पहाड़ी जनपद की उस सैलानी छवि को तोड़ा जाय जो इस बर्फीले जनपद को वंडरलैंड बना कर पे्श करती है। वे बताना चाहते हैं कि यहां भी लोग शेष वि्श्व के पिछड़े इलाकों और अनचीन्हे जनपदों के निवासियों की भांति सुख-दु:ख को जीते हैं-पीड़ाओं को झेलते और उनसे टकराते हैं। जिनके अपने छोटे-छोटे सपने और अरमान हैं। कहना होगा कि इस कोशिश में कवि  सफल रहा है। हिंदी कविता में अजेय का नाम नया नहीं है। एक चिरपरिचित नाम है जो अपनी कविता की इस वि्शिष्ट गंध के लिए जाना जाता है। वे अरसे से कविता लिख रहे हैं और महत्वपूर्ण लिख रहे हैं। उन्होंने अपनी देखी हुई और महसूस की हुई दुनिया को बड़ी तीव्रता एवं गहराई से उतारा है  इसलिए उनके कहन और कथ्य दोनों में मौलिकता है। निजी आत्मसंघर्ष और सूक्ष्म निरीक्षण इस मौलिकता को नई चमक प्रदान करते हैं। सहज रचाव , संवेदन, ऊष्मा ,लोकधर्मी रंग , एंद्रिक-बिंब सृजन ,जीवन राग और सजग रचना दृष्टि इन कविताओं की विशिष्ट्ता है। अजेय बहुत मेहनत  से अपने नाखून छीलकर लिखने वाले कवि हैं जो भी लिखते हैं शुद्ध हृदय से ,कहीं कोई मैल नहीं। लोक मिथकों का भी बहुत सुंदर और सचेत प्रयोग इन कविताओं में मिलता है। अजेय उन लोगों में से हैं जो लोक के ऊर्जावान आख्यानों , सशक्त मिथकों और जीवंत जातीय स्मृतियों को महज अनुसंधान और तमा्शे की वस्तु नहीं बनाए रखना चाहते हैं बल्कि उन्हें जीना चाहते हैं। साथ ही किसी अंधविश्वास और रूढ़िवादिता का भी समर्थन नहीं करते हैं।

   उनकी कविताएं देश के उस आखिरी छोर की कविताएं हैं जहां आकाश कंधों तक उतर आता है। लहराने लगते हैं चारों ओर घुंघराले मिजाज मौसम के। जहां प्रकृति , घुटन और विद्रूप से दूर अनुपम दृश्यों के रूप में दुनिया की सबसे सुंदर कविता रचती है। जहां महसूस की जा सकती है सैकड़ों वनस्पतियों की महक व शीतल विरल वनैली छुअन। इन कविताओं में प्रकृति के विविध रूप-रंग वसंत और पतझड़ दोनों ही के साथ मौजूद हैं। प्रकृति के रूप-रस-गंध से भरी हुई इन कविताओं से रस टपकता हुआ सा प्रतीत होता है तथा इन्हें पढ़ते हुए मन हवाओं को चूमने,पेड़ों सा झूमने ,पक्षियों सा चहकने ,बादलों सा बरसने तथा बरफ सा छाने लगता है। इस तरह पाठक को प्रकृति के साथ एकमेक हो जाने को आमंत्रित करती हैं।  इन कविताओं में पहाड़ को अपनी मुटि्ठयों में खूब कसकर पकड़ रखने की चाहत छुपी है। पहाड़ ,नदी ,ग्लेशियर , झील ,वनस्पति , वन्य प्राणी अपने नामों और चेहरों के साथ इन कविताओं में उपस्थित हैं जो स्थानीय भावभूमि और यथार्थ को पूरी तरह से जीवंत कर देती हैं। अजेय उसके भीतर प्रवेश कर एक-एक रगरेशे को एक दृष्टा की तरह नहीं बल्कि भोक्ता की तरह दिखाते हैं। वे जनपदीय जीवन को निहारते नहीं उसमें शिरकत करते हैं। अपनी ज्ञानेन्द्रियों को बराबर खुला रखते हैं ताकि वह आसपास के जीवन की हल्की से हल्की आहट को प्रतिघ्वनित कर सकें।  यहां जन-जीवन बहुत निजता एवं सहजता से बोलता है।  ये कविताएं अपने जनपद के पूरे भूगोल और इतिहास को बताते हुए बातें करती हैं  मौसम की ,फूल के रंगों और कीटों की ,आदमी और पैंसे की , ऊन कातती औरतों की ,बंजारों के डेरों की ,भोजपत्रों की , चिलम लगाते बूढ़ों की , आलू की फसल के लिए ग्राहक ढूंढते का्श्तकारों की, विष-अमृत खेलते बच्चों की ,बदलते गांवों की। इन कविताओं में संतरई-नीली चांदनी ,सूखी हुई खुबानियां ,भुने हुए जौ के दाने ,काठ की चटपटी कंघी ,सीप की फुलियां ,भोजपत्र ,शीत की आतंक कथा आदि अपने परिवेश के साथ आती हैं।  

  यह बात भी इन कविताओं से मुखर होकर निकली है कि पहाड़ अपनी नैसर्गिक सौंदर्य में जितना रमणीय है वहां सब कुछ उतना ही रमणीक नहीं है। प्रकृति की विभिषिका यहां के जीवन को बहुत दुरुह बना देती है। यहां के निवासी को पग-पग पर प्रकृति से संघर्ष करना पड़ता है। उसे प्रकृति से डरना भी है और लड़ना भी। प्रकृति की विराटता के समक्ष आदमी बौना है और आदमी की जिजीवि्षा के समाने प्रकृति। उनकी कविता में प्रकृति की हलचल और भयावहता का एक बिंब देखिए- बड़ी हलचल है वहां दरअसल/बड़े-बड़े चट्टान/गहरे नाले और खड्ड/ खतरनाक पगडंडियां हैं/बरफ के टीले और ढूह/ भरभरा गर गिरते रहते हैं/गहरी खाइयों में/ बड़ी जोर की हवा चलती है/ हडि्डयां कांप जाती हैं।       

 कवि के  मन में अपनी मिट्टी के प्रति गहरा लगाव भी है और सम्मान भी जो इन पंक्तियों से समझा जा सकता है- मैंने भाई की धूल भरी देह पर/ एक जोर की जम्फी मारी /और खुश हुआ/मैंने खेत से मिट्टी का/एक ढेला उठाकर सूंघा/और खुश हुआ। मिट्टी के ढेले को सूंघकर वही खु्श हो सकता है जो अपनी जमीन से बेहद प्रेम करता हो। वही गर्व से यह कह सकता है- हमारे पहाड़ शरीफ हैं /सर उठाकर जीते हैं/सबको पानी पिलाते हैं। उसी को इस बात पर दु:ख हो सकता है कि गांव की निचली ढलान पर बचा रह गया है थोड़ा सा जंगल , सिमटती जा रही है उसकी गांव की नदी तथा जंगल की जगह और नदी के किनारे उग आया है बाजार ही बाजार , हरियाली के साथ छीन लिए गए हैं फूलों के रंग ,नदियों का पानी ,उसका नीलापन ,तिलतियां आदि। वह जानता है यह सब इसलिए छीना गया है ताकि-खिलता ,धड़कता ,चहकता ,चमकता रहे उनका शहर ,उनकी दुनिया। इसलिए  कवि को असुविधा या अभावों में रहना पसंद है पर अपनी प्रकृति के बिना नहीं। वे अपने जन और जनपद से प्रेम अवश्य करते हैं पर उसका जबरदस्ती का महिमामंडन नहीं करते हैं। ये कविताएं जनपदीय जीवन की मासूमियत व निष्कलुशता को ही नहीं बल्कि उसे बदशक्ल या बिगाड़ने वालों का पता भी देती हैं। जब वे कहते हैं कि- बड़ी-बड़ी गाड़ियां /लाद ले जाती शहर की मंडी तक/बेमौसमी सब्जियों के साथ/मेरे गांव के सपने । तब उनकी ओर स्पष्ट संकेत करती हैं । बड़ी पूंजी गांव के सपनों को किस तरह छीन रही है? कैसे गांव शहरी प्रवृत्तियों के शिकार हो रहे हैं तथा अपने संसाधनों के साथ कैसे अपनी पहचान खोते जा रहे हैं? ये कविताएं इन सवालों का जबाब भी देती हैं। गांवों से सद्भावना और सामूहिकता जैसे मूल्यों के खोते जाने को कवि कुछ इस तरह व्यंजित है- किस जनम के करम हैं कि/यहां फंस गए हैं हम/कैसे भाग निकलें पहाड़ों के उस पार?/ आए दिन फटती हैं खोपड़ियां जवान लड़कों की /कितने दिन हो गए गांव में मैंने /एक जगह /एक मुद्दे पर इकट्ठा नहीं देखा---शर्मशार हूं अपने सपनों पर/मेरे सपनों से बहुत आगे निकल गया है गांव/बहुत ज्यादा तरक्की हो गई है /मेरे गांव की गलियां पी हो गई हैं। यहां गांव की तरक्की पर अच्छा व्यंग्य किया गया है। आखिर तरक्की किस दिशा में हो रही है? यह कविता हमारा ध्यान उन कारणों की ओर खींचती है जो गांवों के इस नकारात्मक बदलाव के लिए जिम्मेदार हैं। यह कटु यथार्थ है कि 'तरक्की’ के नाम पर आज गांवों का न केवल भौतिक पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है बल्कि सामाजिक पर्यावरण भी प्रदूषित हो रहा है। यह आज हर गांव की दास्तान बनती जा रही है।    

  स्त्री पहाड़ की जनजीवन की रीढ़ हैं। उसका जिक्र हुए बिना पहाड़ का जिक्र आधा है। उसकी व्यथा-कथा पहाड़ की व्यथा-कथा का पर्याय है। ऐसे में भला अजेय जैसे संवेदनशील एवं प्रतिबद्ध कवि से वे कैसे छूट सकती हैं। उनकी कविताओं में आदिवासी स्त्रियों के दु:ख-दर्द-संघर्ष पूरी मार्मिकता से व्यक्त हुए हैं। कवि को चुपचाप तमाम अनाप-शनाप संस्कार ढोती हुई औरत की एक अंतहीन दबी हुई रुलाई दिखाई देती है। साथ ही वह औरत जो अपनी पीड़ाओं और संघर्षों के साथ अकेली है पर 'प्रार्थना करती हुई/उन सभी की बेहतरी के लिए /जो क्रूर हुए हर-बार /खुद उसी के लिए "। इस सब के बावजूद कवि औरत को पूरा जानने का कोई दावा नहीं करता है- ठीक-ठीक नहीं बता सकता है/कि कितना सही-सही जानता हूं /मैं उस औरत को /जबकि उसे मां पुकारने के समय से ही/उसके साथ हूं---नहीं बता सकता/कि कहां था /उस औरत का अपना आकाश।  यह न केवल कवि की ईमानदारी है बल्कि इस बात को भी व्यंजित करती कि पहाड़ी औरत के कष्ट-दु:ख-दर्द इतने अधिक हैं कि उसके साथ रहने वाला व्यक्ति भी अच्छी तरह उन्हें नहीं जान पाता है। उन्होंने आदिवासी औरत की ब्यूंस की टहनियों  से सटीक तुलना की है- हम ब्यूंस की टहनियां हैं /जितना चाहो दबाओ/झुकती ही जाएंगी /जैसा चाहो लचकाओ /लहराती रहेंगी / जब तक हममें लोच है /और जब सूख जाएंगी/ कड़ककर टूट जाएंगी। यही तो है पहाड़ी स्त्री का यथार्थ। एक असहायता की स्थिति। वह अपने साथ सब कुछ होने देती है उन मौकों पर भी जबकि वह लड़ सकती है। उसके जाने के बाद ही उसके होने का अहसास होता है।  वे औरत के गुमसुम-चुपचाप बैठे रहने के पक्षधर नहीं हैं उनका प्रतिरोध पर विश्वास है ,तभी वे कहते हैं- वहां जो औरत बैठी है/उसे बहुत देर तक/ बैठे नहीं रहना चाहिए/ यों सज-धज कर/गुमसुम-चुपचाप।

   अजेय अपने को केवल अपने जनपद तक ही सीमित नहीं करते हैं। उनकी कविताओं में खाड़ी युद्ध में बागी तेवरों के साथ अमरीकी सैनिक , अंटार्कटिका में शोधरत वैज्ञानिक ,निर्वासन में जीवन बिता रहे तिब्बती ,उनके धर्मगुरू आदि भी आते हैं। इस तरह उनकी कविता पूरी दुनिया से अपना रिश्ता कायम करते हैं। उनकी कविता का संसार स्थानीयता से वैश्विकता के बीच फैला है। अनुभव की व्यापकता के चलते विषयों की विविधता एकरसता नहीं आने देती है।  कहीं-कहीं कवि का अंतर्द्वद्व भी मुखर हो उठता है। कहीं-कहीं अनिर्णय और शंका की स्थिति में भी रहता है कवि । यह अनिर्णय और शंका व्यवस्था जनित है। उनके यहां ईश्वर भी आता है तो किसी चत्मकारिक या अलौकिक शक्ति के रूप में नहीं बल्कि एक दोस्त के रूप में जो उनके साथ बैठकर गप्पे मारता है और बीड़ी पीता है। यह ईश्वर का लोकरूप है जिससे कवि किसी दु:ख-तकलीफ हरने या मनौती पूरी करने की प्रार्थना नहीं करता है। यहां यह कहना ही होगा कि भले ही अजेय जीवन के विविध पक्षों को अपनी कविता की अंतर्वस्तु बनाते हैं पर सबसे अधिक प्रभावित तभी करते हैं जब अपने जनपद का जिक्र करते हैं। उनकी कविताओं में जनपदीय बोध का रंग सबसे गहरा है।

  युवा कवि अजेय की कविता की एक खासियत है कि वे इस धरती को किसी चश्में से नहीं बल्कि अपनी खुली आंखों से देखते हैं उनका मानना है कि चश्में छोटी चीजों को बड़ा ,दूर की चीजों को पास ,सफ्फाक चीजों को धुंधला ,धुंधली चीजों को साफ दिखाता है। वे लिखते हैं -लोग देखता हूं यहां के/सच देखता हूं उनका /और पकता चला जाता हूं /उनके घावों और खरोंचों के साथ। कवि उनकी हंसी देखता है ,रूलाई देखता है ,सच देखता है ,छूटा सपना देखता है। इस सबको किसी चश्में से न देखना कवि के आत्मविश्वास को परिलक्षित करता है। एक बात और है कवि चाहे अपनी आंखों से ही देखता है पर उसको भी वह अंतिम नहीं मानता है। विकल्प खुले रखता है। अपनी सीमाओं को तोड़ने-छोड़ने के लिए तैयार रहता है। हमेशा यह जानने की कोशिश करता है कि- क्या यही एक सही तरीका है देखने का। अपने को जांचने-परखने तथा आसपास को जानने-पहचानने की यह प्रक्रिया कवि को जड़ता का शिकार नहीं होने देती। यह किसी भी कवि के विकास के लिए जरूरी है। इससे पता चलता है कि अजेय किसी विचारधारा विशेष के प्रति नहीं मनुष्यता के प्रति प्रतिश्रुत हैं। उनकी कविताएं इस बात का प्रमाण हैं कि अगर कोई रचनाकार अपने समय और जीवन से गहरे स्तर पर जुड़ा हो तो उसकी रचनाशीलता में स्वाभाविक रूप से प्रगतिशीलता आ जाती है। 

   उनके लिए कविता मात्र स्वांत:सुखाय या वाहवाही लूटने का माध्यम नहीं है। वे जिंदगी के बारे में कविता लिखते हैं और कविता लिखकर जिंदगी के झंझटों से भागना नहीं बल्कि उनसे मुटभेड़ करना चाहते हैं। कविता को जिंदगी को सरल बनाने के औजार के रूप में प्रयुक्त करते हैं। उनकी अपेक्षा है कि- वक्त आया है/कि हम खूब कविताएं लिखें/जिंदगी के बारे में/इतनी कि कविताओं के हाथ थामकर/जिंदगी की झंझटों में कूद सकें/जीना आसान बने/और कविताओं के लिए भी बचे रहे/थोड़ी सी जगह /उस आसान जीवन में। अर्थात कविता जीवन के लिए हो और जीवन में कविता हो। उनकी कविता ऐसा करती भी है जीवन की कठिनाइयों से लड़ने का साहस प्रदान करती है। वे जब कहते हैं कि-यह इस देश का आखिरी छोर है/'शीत" तो है यहां/पर उससे लड़ना भी है/यहां सब उससे लड़ते हैं /आप भी लड़ो। यहां पर 'शीत" मौसम का एक रूप मात्र नहीं रह जाता है। यह शीत व्यक्ति के भीतर बैठी हुई उदासीनता और निराशा का प्रतीक भी बन जाता है , सुंदर समाज के निर्माण के के लिए जिससे लड़ना अपरिहार्य है। कविता का ताप इस शीत से लड़ने की ताकत देता है। कविता अपनी इसी जिम्मेदारी का निर्वहन अच्छी तरह कर सके उसके लिए कवि चाहता है कि कविता में -एक दिन वह बात कह डालूंगा /जो आज तक किसी ने नहीं कही/जो कोई नहीं कहना चाहता। यह अच्छी बात है कि कवि को अपनी अभिव्यक्ति में हमेशा एक अधूरापन महसूस होता है। अब तक न पायी गई अभिव्यक्ति को लेकर ऐसी बेचैनी के दर्शन हमें मुक्तिबोध के यहां होते हैं।यह नागरिक कर्म और रचना कर्म को साथ-साथ चरितार्थ करने की बेचैनी लगती है। वे मुक्तिबोध की तरह परम् अभिव्यक्ति की तलाश में रहते हैं। यह अजेय की बहुत बड़ी ताकत है जो उन्हें हमेशा कुछ बेहतर से बेहतर लिखने के लिए प्रेरित करती रहती है। उनके भीतर एक बेचैनी और आग हमेशा बनी रहती है। एक कवि के लिए जिसका बना रहना बहुत जरूरी है। जिस दिन कवि को चैन आ जाएगा। समझा जाना चाहिए कि उसके कवि रूप की मृत्यु सुनिश्चित है क्योंकि एक सच्चे कवि को चैन उसी दिन मिल सकता है जिस दिन समाज पूरी तरह मानवीय मूल्यों से लैस हो जाएगा ,वहां किसी तरह का शोषण-उत्पीड़न और असमानता नहीं रहेगी। जब तक समाज में अधूरापन बना रहेगा कवि के भीतर भी बेचैनी और अधूरापन कायम रहेगा। यह स्वाभाविक है। कवि अजेय अपनी बात कहने के लिए निरंतर एक भाषा की तलाश में हैं और उन्हें विश्वास है कि वह उस भाषा को प्राप्त कर लेंगे क्योंकि आखिरी बात तो अभी कही जानी है । कितनी सुंदर सोच है- आखिरी बात कह डालने के लिए ही /जिए जा रहा हूं /जीता रहुंगा। आखिरी बात कहे जाने तक बनी रहने वाली यही प्यास है जो किसी कवि को बड़ा बनाती है तथा दूसरे से अलग करती है। मुक्तिबोध के भीतर यह प्यास हमेशा देखी गई। उक्त पंक्तियों में व्यक्त संकल्प अजेय की लंबी कविता यात्रा का आश्वासन देती है साथ ही आश्वस्त करती है कि कवि अपने खाघ्चों को तोड़ता हुआ निरंतर आगे बढ़ता जाएगा जो साहित्य और समाज दोनों को समृद्ध करेगा।

  अजेय उन कवियों में से हैं जिन्हें सुविधाएं बहला या फुसला नहीं सकती हैं। चारों ओर चाहे प्रलोभनों की कनात तनी हों पर वे दृढ़ता से संवेदना के पक्ष में खड़े हैं। यह सुखद है कि कवि तपती पृथ्वी को प्रेम करना चाहता है -कि कितना अच्छा लगता है/ नई चीख/नई आग/ और नई धार लिए काम पर लौटना। ठंड से कवि को जैसे नफरत है । वह ठंडी नहीं तपती पृथ्वी को प्रेम करना चाहता है। तपते चेहरे की तरह देखना चाहता है पृथ्वी को। आदमी की भीतर की आग को बुझने नहीं देना चाहता है शायद इसीलिए इन कविताओं में 'आग’ शब्द  बार-बार आता है। यही आग है जो उसे जीवों में श्रेष्ठतम बनाती है। कवि प्रश्न करता है-खो देना चाहते हो क्या वह आग? यह आग ही तो आदमियत को जिंदा रखे हुए है। आदमियत की कमी से कवि खुश नहीं है। कवि मानता है कि ठंडे अंधेरे से लड़ने के लिए मुट्ठी भर आग चाहिए सभी को। उनके लिए महज एक ओढ़ा हुआ विचार नहीं सचमुच का अनुभव है आग। इन कविताओं में अंधेरे कुहासों से गरमाहट का लाल-लाल गोला खींच लाने की तासीर है जिसका कारण कवि का यह जज्बा है -कि लिख सको एक दहकती हुई चीख/ कि चटकाने लगे सन्नाटों के बर्फ/ टूट जाए कड़ाके की नींद।  

   जहां तक भाषा-शिल्प का प्रश्न है , कहना होगा कि उनकी काव्यभाषा में बोधगम्यता और रूप में विविधता है। वे परिचित और आत्मीय भाषा में जीवन दृश्य प्रस्तुत करते हैं। उनकी भाषा में जहां एक ओर लोकबोली के शब्द आए हैं तो दूसरी ओर आम बोलचाल में प्रयुक्त होने वाले अंग्रेजी शब्दों का भी धड़ल्ले से प्रयोग हुआ है। इन शब्दों का अवसरानुकूल और पात्रानुकूल प्रयोग किया गया है।  इसके उदाहरण के रूप में एक ओर बातचीज तो दूसरी ओर ट्राइवल में स्की फेस्टीवल कविता को देखा जा सकता है। कवि जरूरत पड़ने पर अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग से भी परहेज नहीं करता है। स्वाभाविक रूप से उनका प्रयोग करता है। रूप की दृ्ष्टि से भी इनकी कविताओं में विविधता और नए प्रयोग दिखाई देते हैं। आर्कटिक वेधशाला में कार्यरत वैज्ञानिक मित्रों के कुछ नोट्स और 'शिमला का तापमान" इस दृष्टि से उल्लेखनीय कविताएं हैं। ये बिल्कुल नए प्रयोग हैं। इस तरह के प्रयोग अन्यत्र कहीं नहीं दिखते।कनकनी बात, कुंआरी झील, तारों की रेजगारी, जैसे सुंदर प्रयोग उनकी कविताओं के सौंदर्य को बढ़ाते हैं। उनके अधिकांश बिंब लोकजीवन से ही उठाए हुए हैं जो एकदम अनछुए और जीवंत हैं। इन कविताओं का नया सौंदर्यबोध ,सूक्ष्म संवेदना और सधा शिल्प अपनी ओर आकर्षित करता है।

    अजेय की कविताओं को पढ़ते हुए मुझे कवि भवानी प्रसाद मिश्र की ये पंक्तियां बार-बार याद आती रही कि यदि कवि व्यक्तित्व स्वच्छ है ,उसने जाग कर जीवन जिया है और उसके माध्यम के प्रति मेहनत उठाई है तो वह सौंदर्य से भरे इस जगत में नए सौंदर्य भी भरता है। ये पंक्तियां अजेय और उनकी कविताओं पर सटीक बैठती हैं। उनकी कविताओं में भरपूर सौंदर्य भी है और सीधे दिल में उतरकर वहांघ् जमी बर्फ को पिघलाने की सामर्थ्य भी। आ्शा है उनकी धुर वीरान प्रदेशों में लिखी जा रही यह कविता कभी खत्म नहीं होगी तथा कविता लिखने की जिद बनी रहेगी। हिंदी के पाठक  इसका पूरा आस्वाद लेंगे।







  

Monday, April 22, 2013

पेशावर विद्रोह की वर्षगांठ (23 अप्रैल:) पर विशेष



हुतात्मा एक सच्चे जनयोद्धा की महाकाव्यात्मक संघर्ष गाथा
एक सच्चे जनयोद्धा की महागाथा


उषा नौडियाल



डॉ. शोभा राम शर्मा द्वारा रचित महाकाव्य हुतात्मा पेशावर विद्रोह के महानायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के संपूर्ण जीवन की महाकाव्यात्मक प्रस्तुति है। आत्मविज्ञापन, आत्मश्लाघा के इस दौर में जब हर वस्तु, हर विचार बाजारवाद का शिकार या पोषक हो रहा है। ऐसे समय में साहित्य ही मनुष्य को उसके जीवन मूल्यों का बोध कराने के साथ साथ उसकी संघर्षशीलता का स्मरण करा सकता है। 
आजादी के सच्चे सिपाहियों के जीवन संघर्ष और आत्म बलिदान से अवगत कराए बिना दिग्भ्रमित युवा पीढी को विचार शून्यता से बचाना असं व है। उत्तराखंड समेत पूरे देश में आज निजी स्वार्थों को लेकर जिस तरह की राजनीति हो रही है उसमें पेशावर विद्रोह के नायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली और ी प्रासंगिक हो गए हैं। इन स्थितियों में वंशवाद व सांप्रदायिकता में लिपटी थोथी देशभक्ति की पोल खोलना ी जरूरी है। चंद्र सिंह गढ़वाली जिन्हे पहले अंग्रेजों ने करीब 13 वर्ष फिर देश की आजाद सरकार ने कई बार कारावास में रखा। आर्य समाज से गांधीवाद, फिर कम्युनिज्म तक उनकी विचारयात्रा ,उथलपुथल से री 20वीं सदी के ारत के राजनीतिक इतिहास की महागाथा है। तमाम विपरीत परिस्थितियों में ी वीर चंद्र सिंह गढ़वाली टूटे न झुके। वह चाहते तो आसानी से विधायक या सांसद हो सकते थे। पंडित नेहरू ने उन्हे खुद कांग्रेस का टिकट देने की पेशकश की थी। लेकिन उन्होनेे विचारधारा से समझौता नहीं किया। आर्थिक तंगी के वावजूद वे विचारधारा की तलवार लिए आजादी के बाद ी वंचित वर्ग की असली आजादी के लिए लड़ते रहे। जिसका स्वप्न कितने कर्मवीरों और शहीदों ने देखा था। कविता के रूप में उनके संघर्ष का समग्र चित्रण निश्चय ही पाठकों को कौतुहूल के साथ उद्वेलित, आनंदित व किंचित विस्मित करने में समर्थ है। 
कविता का वास्तविक उद्देश्य जितना पाठकों के हृदय में सौंदर्यानुभूति जगाना है,उससे अधिक उद्दात मानवीय अनुभूतियों का प्रस्फुटन करना है। प्रकृति की तरह ही कविता ी त्रस्त हृदय के लिए मरहम का काम करती है। 
नर को अपना लोक न ाता, ाता मन का छायालोक। 
त्रस्त हृदय की पीड़ा हरता, सुख सपनों का मायालोक।। (केदार यात्रा पृष्ठ-28)
उच्च कोटि की कविता में एक यूनिवर्सल अपील होती है। वह सार्वभौमिक और सर्वकालिक होती है। हुतात्मा महाकाव्य का फलक अपने नाम के अनुरूप विस्तृत और व्यापक है। जहां एक ओर नायक के जीवन का सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवरण है, वहीं दूसरी ओर तत्कालीन समाज, उसके परिवेश, संस्कृति का सूक्ष्म और गहन चित्रण ी है। मानवीय ावनाओं पर गहरी पकड़ और अंतर्मन की गुत्थियों को उजागर करता मनोवैज्ञानिक विश्लेषण ी परिलक्षित होता है। प्रामाणिक युग चित्रण कवि की विद्वता और अध्ययनशीलता की छाप छोड़ जाता है। महाकाव्य एक ओर गुलाम ारत में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा दारुण यंत्रणा का मार्मिक चित्रण है वहीं दूसरी ओर प्रथम विश्वयुद्ध व सके कारणों और प्रभावों का सरल विवरण है
पूरबपश्चिम, उत्तर दक्खिन बांट चुके सब योरुप वाले।
दुनिया उनके हाथों में थी, दास बने जन पीले काले।।
बाजारों की छीनाझपटी, अपनी अपनी धाक जमाना।
गौरांगों में होड़ लगी थी, युद्ध-युद्ध का छेड़ तराना।। (प्रथम विश्वयुद्ध पृष्ठ-4)
  ारत की आजादी के संघर्ष का हो या आजादी के बाद का काल। तमाम राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं का विशद विवरण निश्चय ही गहन अध्ययन और सूक्ष्म अनुसंधान के बिना सं व नहीं हो सकता। पर्वतवासियों के सरल जीवन की विकट परिस्थितियों का चित्रण, उनकी स्वभावगत सरलता, जुझारूपन और खुद्दारपन का चित्रण गढ़वालीजी के जीवन चित्रण के माध्यम से उ रकर आया है। पलायन की समस्या पर ये पंक्तियां सटीक और मार्मिक प्रतीत होती हैं- 
इस धरा के फूल कितने खल अ ावों में पले हैं।
शठ उदर का पेट रने हर छलावों में छले हैं।।
स्वर्ग जैसी ूमि से उड, दूर बीती है जवानी।
हिम शिलाओं के तले यह आपबीती है पुरानी ।।(केदारभूमि पृष्ठ-14)
प्रगतिशीलता के प्रति कवि की निजी प्रतिबद्धता, व्यवस्था परिवर्तन की अदम्य आकांक्षा काव्य में आद्योपांत झलकती है। अभिव्यक्ति की स्पष्टता, ावोें की संप्रेषणीयता ाषा के सहज सौंदर्य व सौष्ठव के माध्यम से बरकरार है। प्रकृति चित्रण में संस्कृतनिष्ठ शब्दावली का प्रयोग जहां अनिवार्य प्रतीत होता है वहीं अन्य घटनाओं के चित्रण में बोलचाल की ंिहदी और स्थानीय गढ़वाली शब्दों का प्रयोग प्रशंसनीय है। करीब 300 पृष्ठो का यह महाकाव्य इन अर्थों में महत्वपूर्ण है कि हिंदी कविता से लग ग बाहर कर दी गई छंदबद्ध कविता को यह पुनर्प्रतिष्ठित करने का प्रयास करता है। हुतात्मा को ंिहदी कविता में महाकाव्य और छंद की वापसी के तौर पर ी देखा जा सकता है। महाकाव्यो में जहां नायक राजा महाराजा, उच्चकुल उत्पन्न, दिव्यगुणों, महान आदर्शों वाले व मानवीय दुर्बलताओं से मुक्त होते हैं वहीं हुतात्मा का नायक वीर ढ़़वाली एक सामान्य कुल में उत्पन्न आम आदमी हैं जिन्होंने उच्च मानवीय आदर्शों को जिया। इस नाते यह पुस्तक महाकाव्य की शाóीय परिभाषा की रुढ़ि को ी तोड़ती है।  

Thursday, April 18, 2013

हरजीत का एक शे’र

(य्ह पोस्टर पुराने देहरादूनी और अब जयपुर वासी दीपक द्वारा परिकल्पित)