Saturday, July 5, 2014

पहला युगवाणी सम्मान कथाकार गुरूदीप खुराना को



किसी भी तरह के हो-हंगामें की बजाय और बिना किसी पूर्व घोषणा के अचानक से कथाकार गुरूदीप खुराना के घर पर पहुंचकर उन्‍हें पहले युगवाणी सम्‍मान से सम्‍मानित करना, देहरदून के साहित्‍य समाज के अनूठे अंदाज ने न सिर्फ सम्‍मानित हो रहे रचनाकार को भौचक एवं भाव विभोर किया है बल्कि अपने प्रिय रचनाकरों को वास्‍तविक रूप से सम्‍मानित करने के अंदाज की एक बानगी भी पेश की है।
2 जुलाई 2014 की शाम जब देहरादून का मौसम मानसूनी हवाओं के असर में था, कथाकार गुरूदीप खुराना के घर पहुंचकर कथाकार सुभाष पंत उन्‍हें पहले युगवाणी सम्‍मान से सम्‍मानित किया। इस अवसर पर युगवाणी के संपादक संजय कोठियाल, पत्रकार जगमोहन रौतेला, कवि राजेश सकलानी, कथाकार अरूण असफल एवं आलोचक हम्‍माद फारूखी भी युगावाणी के अप्रत्‍याशित बुलावे पर वहां मौजूद थे। युगवाणी ने जुलाई 2014 के अंक को 75 वें वर्ष की यात्रा से गुजर रहे गुरूदीप खुराना पर केन्‍द्रीत रखा है, अलबत्‍ता उसकी तैयारी में उन रचनाकारों को सिर्फ इतना ही मालूम रहा है कि युगवाणी अपना जुलाई अंक गुरूदीप खुराना पर केन्‍द्रीत कर रहा है। इस अंक में कथाकर धीरेन्‍द्र अस्‍थाना, तेजिन्‍दर, सुरेश उनियाल, दिनेश चंद्र जोशी, राजेश सकलानी, नवीन नैथानी एवं कई अन्‍य साहित्‍यकारों ने गुरूदीप खुराना के व्‍यक्तित्‍व एवं कृतित्‍व पर अपने अनुभव एवं विचारों को सांझा किया है।
24 सितम्‍बर 1939 को क्‍वेटा, बलूचिस्‍तान में पैदा हुए कथाकार गुरूदीप खुराना देहरादून के निवासी हैं। उनकी मुख्‍य कृतियां ‘जिस जगह मैं खड़ा हूँ (कविता संग्रह), आओ धूप (उपन्‍यास), लहरों के पास (उपन्‍यास), उलटे घर (कथा संग्रह), बागडोर(उपन्‍यास), उजाले अपने अपने (उपन्‍यास), दिन का कटना (कविता संग्रह), एवं एक सपने की भूमिका (कथा संग्रह), अभी तक प्रकाशित हैं। उनका ताजा उपन्‍यास रोशनी में छिपे अंधेरे किताबघर प्रकाशन से वर्ष 2014 में प्रकाशनाधिन है।

देहरादून से निकलने वाली हिन्‍दी मासिक पत्रिका युगवाणी उत्‍तराखण्‍ड की ऐसी लोकप्रिय पत्रिका है जिसका मिजाज हिन्‍दी साहित्‍य के करीबी होने से देहरादून ही नहीं बल्कि कहीं से भी निकलने वाली हिन्‍दी की लोकप्रिय पत्रिकाओं से भिन्‍न है। वर्ष 2013 में आलोचक पुरूषोत्‍तम अग्रवाल को देहरदून आमंत्रित करके पहले आचार्य गोपेश्‍वर कोठियाल स्‍मृति व्‍याख्‍यान का शुभारम्‍भ करने के बाद युगवाणी का यह प्रथम युगवाणी सम्‍मान का आयोजन उसे हिन्‍दी के साहित्‍य समाज के बीच महत्‍वपूर्ण बना रहा है। आजादी के आंदोलन के दौरान शुरू हुए युगवाणी के प्रकाशन का अपना इतिहास है जो उसकी अभी तक की सतत यात्रा में परिलक्षित हुआ है।
गुरूदीप जी का सम्पर्क : 9837533838

Friday, June 6, 2014

मनुष्‍यता भी एक विचार है

 - महेश चंद्र पुनेठा
9411707470
 
 
किस पर लिखवाना और किससे लिखवाना के समीक्षात्मक वातावरण के बीच इस ब्लाग में पुस्तक समीक्षओं को आलोचक की स्वतंत्रता का साथ देने की कोशिश रही है। युवा कवि और आलोचक महेश पुनेठा ने पुस्तक समीक्षा में अपनी इस आलाचकीय स्वतंत्रता की भूमिका के साथ हर उस किताब पर लिखना अपना फर्ज समझा है जिसमें उन्हें अपने मुताबिक कहने की गुंजाइश दिखायी देती है। ऐसा सिर्फ उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानने की वजह से ही नहीं बल्कि उनके द्वारा लिखी समीक्षाओं को पढ़ते हुए भी समझा जा सकता है। हम अपने हमेशा के सहयोगी महेश के आभारी है कि समय-समय पर अपने द्वारा लिखी समीक्षओं से उन्होंने इस ब्लाग के आलोचकीय पक्ष को एक स्वर दिया है और बेबाक बने रह कर अपनी बात कहने के हमारे प्रयासों में उसी तरह साथ दिया है। कवि शिरीष कुमार मौर्य के हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह पर उनकी यह समीक्ष उसकी एक बानगी है। पहाड़ के कवि शिरीष कुमार की कविताओं की एक अन्य पुस्तक पर लिखी समीक्षा भी इस ब्लाग में अन्यत्र पढ़ी जा सकती है।
वि गौ

पूँजीवादी वैश्‍वीकरण के बढ़ने के साथ-साथ जो सबसे बड़ी चिंता की बात हुई है वह है मनुष्‍यता  का लगातार क्षरण होना। सेंसेक्स में उछाल आया है और बाजार चमक रहा है लेकिन मनुष्‍यता  धुँधला रही है। 'अपने हार रहे हैं अपनापन हार रहा है।" दुनिया नजदीक आई है लेकिन रिश्‍तों के बीच दूरी बढ़ती गई है। एक दूजे की खोज-खबर लेना कम होता जा रहा है। लूटपाट,अनाचार-शोषण,पागलपन-उन्माद चारों ओर फैला है। लालसाओं के मुख खुले हैं। हाथ तमंचा हो गया है। दिल खून फेंकने वाली मशीन में बदल गया है। दिमाग बदबू से भर गया है। मनुष्‍य दो पाए की तरह हो गया है-'काम पर जा रहा है काम से आ रहा है।" जब मनुष्‍यता विचार हो तो उसके इस प्रकार क्षरण का अर्थ समझा जा सकता है। विचारहीन जीवन कितना खतरनाक होता है यह बताने की बात नहीं है। ऐसे में मनुष्‍यता को बचाए रखना सबसे बड़ी चुनौती हो गयी है। उसे बचा पाए तो बहुत कुछ अपने-आप बच जाएगा। ऐसे दौर में एक जनधर्मी कवि की चिंता के केंद्र में मनुष्‍यता का होना स्वाभाविक है। वही कह सकता है-'कि मेरा कवि अंतत: मनुष्‍यता  के दुर्दिनों का कवि है/जो अपनी पीड़ा,प्रेम और क्रोध के सहारे जीता है।" उसका मुँह खुलता है अब भी मुँह की तरह । वह 'बोलता है पूरी बची हुई ताकत से /उतना सब कुछ /जितना बोला जाना जरूरी है।" उसकी हर कोशशि  है कि मनुष्‍यता  को जीवन के केंद्र में पुनर्स्थापित किया जाय। कविता का यह सबसे बड़ा दायित्व भी  है। इस दायित्व का निर्वहन एक बड़ी कविता हमेशा से करती आई है। 'मनुष्‍यता  के दुर्दिनों" में उसकी भूमिका और अधिक बढ़ जाती है। पीड़ा,प्रेम और क्रोध उसके औजार बनते हैं। हमारे समय के चर्चित युवा कवि शिरीष कुमार मौर्य इन औजारों के माध्यम से मनुष्‍यता  को सहेजने का भरपूर प्रयत्न करते हैं। मनुष्‍यता  ही है जो उन्हें अपनों से और अपने सपनों से धोखा दे जाने के किसी भी संभावित खतरे से बचाती है और उन्हें कवि बनाती है।

मनुष्‍यता में कमी आने और गिर पड़ने के कारणों को वह कुछ इस तरह से समझते हैं-'ऊर्जा किसी को भी/कहीं तक भी ले जा सकती है/पर एक दिन/आपको वह छोड़ भी जाती है/उम्र से उसका लेना-देना उतना होता नहीं/कभी-कभी तो वह/दूसरों को रौंदते हुए निकल जाने को उकसाती है/सफलता का भ्रम पैदा करती हुई/आपकी मनुष्‍यता में कमी लाती है।" यहाँ कवि उस ऊर्जा की बात कर रहा है जो दर्प में बदल जाती है जो दूसरे को पीछे छोड़ जाने का भाव पैदा करती है। ऐसे में यह कहना बिल्कुल सही है कि 'अकसर राह को ठीक से देखते-परखते हुए चलने से मिला ज्ञान ही/काम आता है।" द्गिारीच्च सावधान करते हुए कहते हैं कि- 'जाहिरा तेजी ,तात्कालिक त्वरित ज्ञान और सिर चढ़े दर्प के अलावा भी/किसी के गिर पड़ने के कई कारण हो सकते हैं।"(किसी के गिर पड़ने के कई कारण हो सकते हैं) वह मानते हैं कि दर्प में डूबे व्यक्ति से प्रभावित होना भी उसके दर्प में सहभागी होना है। इस तरह दर्प से बचना और दर्पी व्यक्ति से प्रभावति न होना भी मनुष्‍यता  के पक्ष में खड़ा होना है। उनके लिए मनुष्‍यता  भी एक विचार है। यह विचार उनकी कविताओं में पत्ती में क्लोरोफिल की तरह मौजूद रहता है।

उनका 'ये जो मेरापन है" मनुष्‍यता  में उनकी गहरी आस्था का ही परिणाम है। 'मनुष्‍यता  की जद से बाहर" के किसी प्रसंग और विषय को यदि वह अपना नहीं करना चाहते हैं तो किसी और का भी नहीं करते हैं। कवि जिसे अपने लिए पसंद नहीं करता उसे किसी दूसरे के लिए भी पसंद नहीं करता है। कवि का मेरापन अनूठा है। इसमें अहंकार नहीं है, इसमें स्वार्थ नहीं है और न ही वर्चस्व का भाव है। यह अपने समकालीन युवा कवि केशव तिवारी की काव्य पंक्ति 'तो काहे का मैं" की तरह गहरे दायित्वबोध से आता है न कि अधिकार जताने के रूप में। इस 'मेरेपन" में गहरी आत्मीयता है जो दूसरे को भी उतने ही अपनेपन से भर देती है जितना कहने वाले के भीतर होती है। उनका यह मेरापन हर उस चीज,भाव,विचार,व्यक्ति और जगह से है जहाँ मनुष्‍यता  बची है। शिरीष की एक खासियत है कि वह अपने ही तर्कों से काम लेते हैं ,दूसरे के तर्कों को नहीं ढोते। यह ठीक भी है कोई जरूरी नहीं जिस राजनीति से सहमत हों उसके हर तर्क को पवित्र मंत्र की तरह स्वीकार करें। उनका 'मेरा कहने का तर्क" बिल्कुल अपना है एकदम मौलिक, जिसका आशय इन पंक्तियों से स्पष्‍ट हो जाता है- कि एक पेड़ को मेरा कहता हूँ तो सब पेड़ मेरे हो जाते हैं/एक मनुष्‍य को मेरा कहता हूँ तो सब मनुष्‍य मेरे हो जाते हैं ।।।।।/एक भाषा को मेरा कहता हूँ तो सब भाषाएं मेरी हो जाती हैं।" लेकिन उनके 'सब मनुष्‍य" में वे नहीं आते हैं जो अपनी मनुष्‍यता खो चुके होते हैं। उनके लिए सभी मनुष्‍य दो पाए जरूर हैं लेकिन सभी दो पाए मनुष्‍य की श्रेणी में नहीं आते हैं। उनका 'मेरा" कितना व्यापक है इन पंक्तियों से समझा जा सकता है-'मकई का वो प्यारा सुंदर फूल मलाला मेरी बेटी है।।।।।।दंतेवाड़ा के बेबस लाश कर दिए गए लोग मेरे हैं/वो मेरा मशहूर चेहरा है/जो गुजरात में बख्द्या देने के खातिर हाथ जोड़कर रो और गिड़गिड़ा रहा है/और जो पिछवाड़ा बन चला है देश का/जिसे दिल्ली में एक गोलाकार इमारत की तरह देखा जा सकता है/उसकी गंद में दबा/उससे लाख गुना विशाल देश मेरा है।" कौन हैं ये लोग जो उनके अपने हैं ? वही ना! जो शोषित-पीड़ित और उपेक्षित हैं लेकिन संघर्षरत हैं,जो दुनिया के हर कोने-कोने तक फैले हैं। जिनकी उम्मीदों और स्वप्नों से कवि का यथार्थ जुड़ा है। यहाँ 'मेरा" कहना उनके और नजदीक जाना है। वह अपनी चाहत व्यक्त करते हैं-'इस धरती पर बसे अपने सपनों और कुछ जरूरी इच्छाओं की पीड़ा में कराहते/मेरे असंख्य पिटे हुए लोगो/अधिक कुछ नहीं मैं तुम्हारे साथ सुबह तक रहना चाहता हूँ।"  कवि उनको सुप्रभात कहकर इस धरती पर बसे उन्हीं जैसे अन्य पिटे लोगों के जीवन में सुबह लाने को निकल जाना चाहता है। यह एक कवि की अनवरत यात्रा है। कवि शुभरात्रि नहीं सुप्रभात कहना चाहता है उन लोगों को जो सो नहीं पाए। जब तक इन असंख्य लोगों के जीवन में सुंदर सबेरा नहीं आ जाय तब तक भला एक जनपक्षधर कवि को नींद कैसे आ सकती है। वह कहता है-'हाँ ,मुझे नींद नहीं आ रही/अब मेरे लिए नींद न आना एक असमाप्त यात्रा है/सुंदर और खतरों से भरी/और मैं मेरी तरह जाग रहे लोगों को शुभरात्रि नहीं/सुप्रभात कहना चाहता हूँ।"(मुझे नींद नहीं आ रही है)

यह अपने पहाड़ और उसके जन के प्रति उनका मेरापन ही है जो उन्हें शरद की रातों में सोने नहीं देता है-'जमीनों की ढही हुई मिट्टी/शिखरों  में गिरे हुए पत्थर/उखड़े हुए पेड़/बादल फटने से मरे लोगों की लापता रूहें/इन्हें भारी बनाती हैं/अंधेरों में छुपाती हैं।" उनका मेरापन ही है जिसके चलते पहाड़ के पहाड़ से भारी दु:ख हमेशा उनके दिल पर बने रहते हैं। ' कुछ खास नहीं करता हूँ/तब भी कई सारे उम्मीद भरे नौउम्र चेहरे मेेरा इंतजार करते हैं/मैं वेतन लेता हूँ अमीरी रेखा का/और एक सरकारी कमरे में गरीबी रेखा को पढ़ाने जाता हूँ।" जैेसा यह अपराधबोध भी कहीं न कहीं कवि के मेरेपन की ही उपज और उनकी मनुष्‍यता  का लक्षण है।      

युवा कवि-आलोचक शिरीष कुमार मौर्य ताकतवरों की भीड़ में जहाँ भी मनुष्‍यता  की संभावना होती है वहीं उसे पुकारतेहैं। कमजोरों में उसको तलाशते हैं। उनका विश्‍वास है कि कमजोर अधिक मनुष्‍यवत हैं लेकिन किसी सार्वभौम सत्य की तरह नहीं है उनका यह विश्‍वास। कमजोर होना मनुष्‍यवत होने की कोई गारंटी नहीं है लेकिन वहाँ उसकी अधिक संभावना होती है। वहां मनुष्‍यता  के लिए स्पेस होता है। उन्हें एक-दूसरे की जरूरत होती है।

शिरीष अच्छी तरह जानते हैं कि पूँजीवाद मनुष्‍यता  का सबसे बड़ा दुश्‍मन है जो हमारे मन को बदल रहा है। ऐशो-आराम व विलासिता के प्रति बढ़ता मोह और एक आदमी का दूसरे आदमी के साथ घटता प्रेम इसी का लक्षण है। शिरीष इसे एक बड़े खतरे के रूप में देखते हैं। उनके कवि मन को मध्यवर्ग के भीतर घर करती यह प्रवृत्ति उद्वेलित कर देती है-आज बाजार से आते और अपनी पसंद की सारी चीजें घर लाते/एक सहपाठी दोस्त के अत्यंत धनवान पिता की करोड़ से ऊपर की कोठी/को निहारते/आह सी भरकर बोला-/बब्बा,काश ऐसा घर हमारा भी होता/फिर सामने से आते बारिश में भीगे/कीचड़ में सनी गंदी सरकारी स्कूल की यूनीफार्म वाले बच्चे को देख मुँह/बनाया-/कितना गंदा बच्चा है।।।।।हाऊ अनहाइजैनिक।(जीवन में खतरा है भी एक जरूरी कथा है)

भीतरी और बाहरी भय के खिलाफ घटता प्रतिरोध और वर्गीय एकजुटता में कमी भी मनुष्‍यता पर संकट का ही एक रूप है। कवि 'खेत में घर" कविता में प्रकृति के बीच मनुष्‍य द्वारा मकान बनाए जाने पर पक्षियों द्वारा किए जाने वाले प्रतिरोध को दिखाते हुए जहाँ उनकी एकजुटता को रेखांकित करते हैं वहीं मनुष्‍य पर व्यंग्य भी करते हैं-उनमें प्रजातियों की बहुलता बहुत/स्वरों की भी/बसेरे के आकार प्रकार रहन-सहन रंग-ढंग भी अलग/पर साबुत कायम अब भी वर्गबोध एक/एक प्रतिरोध/एक प्रतिद्गाोध/एक दूसरे को बिलकुल भी न सताते हुए।(खेत में घर) मनुष्‍यत में इन सारी बातों का अभाव होता जा रहा है। यह कवि के दिल में चुभता है दिमाग में उलझता है। इस सब के बावजूद वह मानते हैं कि-मेरी पट्टी में प्रतिरोध अब भी एक भाषा है समूची समग्र/पर उसे खेत की तरह जोतना पड़ता है।" इसी के चलते वह बार-बार कह पाते हैं कि 'हम हार नहीं रहे हैं।" उनका विश्‍वास है आग से भरे दिल जब तक धड़कते रहेंगे तब तक हार नहीं हो सकती है। बस उनमें एका जरूरी है। 'जो मारने को समझते हैं जीतना वे हमें हारता समझते हैं।" यह उनकी भूल है। कवि उनको सचेत करता हुआ कहता है-मनुष्‍यता के इस पहले और आखिरी द्वंद्व से परे खड़े लोगो/संसार में सब कुछ जीत लेने लिप्सा से भरी तुम्हारी प्रिय कविता और/राजनीति का हार जाना/तय जानो।" कवि का यह कहना केदारनाथ अग्रवाल की 'जनता कभी नहीं मरती" कविता की याद दिला देता है।

यह शिरीष की मनुष्‍यता का प्रमाण है कि वह न प्रेम छुपाते हैं न  घ्रणा. उन्हें छुपाना परेशान करता है। वह जितनी गहराई से प्यार करते हैं उतनी ही तीव्रता से घ्ाृणा भी। प्यार उन लोगों से जो मनुष्‍यता से भरे हैं और घ्ाृणा मनुष्‍यता विरोधी लोगों से। उनके जीवन में जो भी है सब खुला हुआ। गोपनीयता के नियम को वह जीवन में  हमेशा तोड़ते रहे हैं। वह गोपनीयता को न्याय विरुद्ध मानते हैं। 'मुझे प्रेम छुपाना था पर बता बैठा/उससे भी अधिक मुझे घ्ाृणा छुपानी थी पर जता बैठा/दर्द हो दु: ख हो,अपमान हो, मैं न भी बोलूँ मेरा काला पड़ता चेहरा बोल /पड़ता है। (गोपनीय)इस कवि ने चुप रहना नहीं सीखा न जीवन में और न कविता में। हमेशा अपनी ताकत भर बोलता रहा है। संभलकर चलना इस कवि की फितरत में नहीं है। वह एक कविता में कहते हैं-मैंने अब तक अनजानी जगहों और झाड़-झंखाड़ मंे/सम्भल कर चलना नहीं सीखा।" जबकि ' प्रेम में हैरानी की तरह साँप भी डस गया था/एक बार।"(कभी चोट लगी थी अब तक तिड़क रही है)

मनुष्यता का संबंध केवल सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष से ही नहीं है बल्कि राजनीति और अर्थशास्‍त्र से भी इसका गहरा संबंध है। मनुष्‍यता को बनाने ,बिगाड़ने में इनका बहुत बड़ा हाथ होता है। इसलिए मनुष्‍यता का पक्षधर कोई भी कवि गैर राजनीतिक नहीं हो सकता है।शिरीष भी इसके अपवाद नहीं हैं। वह अपनी राजनीतिक संबंद्धता को खुलेआम स्वीकारते भी हैं। वह एक ऐसी राजनीति के पक्षधर हैं जो प्रतिबद्ध, प्रगतिद्गाील ,धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक मूल्यों पर विश्‍वास करती है। उनकी 'हम चुनाव में हैं" कविता दक्षिणपंथी, साम्प्रदायिक,बाजारवादी,अवसरवादी ,जनविरोधी  और साम्राज्यपरस्त राजनीति पर करारा व्यंग्य है।वह कहते हैं-हमें अपने बाजार को अभी और खोलना है/इसमें अभी एफ।डी।आई। वालमार्ट करना है/अभी हम आर्थिक विश्‍व-व्यवस्था से बहुत कम जुड़े हैं/इसलिए महंगाई और बेरोजगारी में पड़े हैं/व्यापक देश हित और जनहित में हमें ऐसा करने का मौका दें/ हम चुनाव  में हैं।"  'अभी सुबह नहीं हो सकती" कविता उनके पूरे राजनीतिक दर्शन को पूरी तरह सामने रख देती है। यह कविता पहली नजर में क्रांति के लिए उतावले लोगों को निराशावादी कविता लग सकती है पर इस कविता में यथार्थ को स्वीकार करने का गहरा बोध है। इसमें अपने वक्त का सही विश्‍लेषण है। कवि न किसी जल्दी में है और न किसी गफलत में। वह बदलाव के मार्ग में आने वाले अवरोधकों को सही तरीके से समझता है और जानता है कि ये अवरोध जब तक समाप्त नहीं कर लिए जाते हैं तब तक 'सुबह नहीं हो सकती" है। इस कविता की व्यंजना बहुत व्यापक हैं। यह बाजारवाद,साम्राज्यवाद,साम्प्रदायिकता के साथ-साथ उच्च स्तर पर व्याप्त भ्रष्‍टाचार ,संस्कृतिकर्मियों की निश्‍क्रि‍यता,जनता की यथास्थितिवादिता आदि पर एक साथ चोट करती है। तमाम निराशाजनक स्थिति को दिखाते हुए कविता जिस आशावादिता में समाप्त होती है वह जबरदस्त है। कवि इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है कि इन स्थितियों में परिवर्तन नहीं होगा और नई सुबह नहीं आएगी। कविता में व्यक्त यही यथार्थवाद है जो लड़ने की दिशा भी देता है और ताकत भी। यहाँ कवि यथार्थ को केवल सतह पर नहीं देखता है बल्कि सतह के नीचे छिपे अंतर्विरोधों को पकड़ता है और पूरी काव्यात्मकता के साथ अपने दृष्टिकोण को पाठक के समक्ष प्रस्तुत कर देता है। कविता कहीं भी बोझिल नहीं होती है। विचार को कविता में गूँथने का शिरीष का यह कौशल काबिले तारीफ है। उनकी यह कविता मुझे सबसे अधिक पसंद है इसलिए पूरी कविता को यहाँ देने का लोभ में संवलित नहीं कर पा रहा हूँ-

शहर में रात के 1 बजे हैं सड़कों पर ,शराब से चल रही गाड़ियां रसोई के
लिए नौकरी से लौटती लड़कियां उठा रही हैं
अभी सुबह नहीं हो सकती
बाजार जगमगा रहे हैं भरपूर अभी सुबह नहीं हो सकती
अभी न्यूयार्क के लिए हवाई पट्टी से दिल्ली ने दिन की पहली उड़ान भरी

है अभी सुबह नहीं हो सकती

गुजरात में अभी वोट मोदी को पड़ते रहेंगे की अटूट भविष्‍यवाणी है अभी
सुबह नहीं हो सकती
बाल ठाकरे का स्मारक बनना अब तय हो गया है अभी सुबह नहीं हो सकती
हमारा सौम्य दिखने और कम बोलने वाला मुखिया देश को लगातार ठग रहा
है अभी सुबह नहीं हो सकती

मर्म को बेधने के लिए मद्गाहूर राजधानी का एक कवि
लोगों को मिलने में दरअसल उतना ही खूसट और रूखा है अभी सुबह नहीं
हो सकती
मैं अपने भीतरी विलाप और अवसाद में बहुत सुखी हूँ अभी सुबह नहीं हो सकती
मेरे सामने घंटों के सोच विचार के बावजूद मुँह चिढ़ाता एक कोरा सफेद
पन्ना है अभी सुबह नहीं हो सकती
मुझमें अब तक अभी सुबह नहीं हो सकती लिखने की कायर कला
साबुत सलामत है
अभी सुबह नहीं हो सकती

मगर नहीं हो सकती के बारे में इतना कहने वाला अपनी ही निगाह में

असफल हो चुका यह कवि
अपनी बेताब लानतें भेजता है उन्हें-
जो मेरे अभी पर चढ़कर कहते हैं कभी सुबह नहीं हो सकती।

मौर्य सत्ताओं और सभ्यताओं के उन दाँतों की कथा से अच्छी तरह परिचित हैं जो -'मनुष्‍यता की रातों में कभी सुनाई गई/कभी छुपाई गई" जिन दाँतों ने हमेशा मनुष्‍यता को लुहलुहान करने का काम किया और 'इधर भरपूर पैने और चमकीले हुए हैं दाँत"। ये 'सुघ्ाड़-सुफैद दाँत" कभी क्यूबा ,कभी इराक तो कभी अफगानिस्तान में अपने पैनेपन को दिखाते रहते हैं। इन दाँतों द्वारा-' हजारों साल पुरानी सांस्कृतिक विरासतें/अब चबा ली गर्इं/खा लिया गया इतिहास।"

शिरीष हर उस कोने-अंतरे की ओर नजर डालते हैं जहाँ मनुष्‍यता थोड़ी सी भी बची हुई है।उसे सहेजने और समेटने का कवि दायित्व बखूबी निभाते हैं। प्रकाद्गान व्यवस्ााय के दंद-फंद कौन नहीं जानता है। कैसे वहाँ किताबें छपती हैं ,कैसे उनकी बिक्री होती है और कैसे कवि का शोषण किया जाता है?कैसे उसे गुमराह किया जाता है? सब जानते हैं। लेकिन इस सब के बावजूद वहां भी कुछ ऐसे लोग हैं जिनमें बहुत मनुष्‍यता और संजीदगी है। 'संतो घ्ार में झगरा भारी" इसी बात को बहुत अच्छी तरह रेखांकित करती है। कुछ पंक्तियां देखिए- 'वह किताब बेचता है/जो उस तरह बिकती नहीं हैं जिस तरह वह बेचता है/उसे बेचना नहीं आता है/वह गाहक से बाद में कभी मिल जाने पर बिकी हुई किताबों के/हालचाल पूछता है।" ऐसा बाजार में कम ही दिखता है। क्योंकि 'जो बिक गया उसकी तरफ पलटकर देखना बाज़ार के नियमों में नहीं है।" यह बाजार के बीच खड़े होकर बाजार का प्रतिकार करना है।  

समीक्ष्य कविता संग्रह 'दंतकथा और अन्य कविताएं" की कविताएं बहुत धैर्य की मांग करती हैं। इनके भीतर उतर जाना बहुत आसान नहीं है। इन्हें बार-बार पढ़ने की जरूरत है। सरसरी तौर पर पढ़कर आगे नहीं निकला जा सकता है। ये कविताएं 'चपटी समझ वालों के लिए बिल्कुल नहीं हैं।" इन कविताओं के कथ्य और शिल्प दोनों में नयापन है जो अपनी विविधता में बांधती हैं। अपने समय और समाज का बहुस्तरीय यथार्थ इन कविताओं में छिपा है जिसका उत्खनन कोई आसान काम नहीं है।वह सीधे-सपाट तरीके से नहीं आता है। शिरीष की इन कविताओं को समझने के लिए उनके अनुभव संस्ाार से परिचित होना और उसमें उतरना जरूरी है तभी उनकी अनुभूति को सही-सही पकड़ा जा सकता है। वह जीवनानुभव को किसी खबर की तरह नहीं कहते बल्कि रचा-पचा कर व्यक्त करते हैं। उनकी आख्यान गढ़ने की शैली अद्भुत है जो उन्हें अपने समकालीनों से अलग करती है। यदि अनुभव की सही चावी मिल जाय तो कविता का ताला खुलते देर नहीं लगती। इसके लिए बौद्धिक नहीं संवेदनद्गाील होना ज्यादा जरूरी है। तब कविता खुद महसूस होने लगती है फिर किसी व्याख्या की जरूरत नहीं।वह खुद भी मानते हैं कि 'कविता दरअसल व्याख्या नहीं मांगती,वह खुद को महसूसना मांगती है जो व्याख्या मांगती है वह मेरे लेखे कविता नहीं।" वह एक ऐसे कवि हैं जो अर्थों में नहीं अभिप्रायों में खुलते हैं। शब्द को नया अर्थ प्रदान करते हैं। नया मुहावरा गढ़ते हैं। आशयों को शब्दों के आवरण से बाहर निकालते हैं। शब्द बेपरदा हो जाते हैं। उनका मानना है कि 'जिन शब्दों को लोग अपने अज्ञान में बहुत घिस देते हैं/वे नष्‍ट होने लगते हैं।" उनका विश्‍वास है- एक दिन मेरे जीवन के सारे संकेत ढह जाएंगे/मेरे सभी अर्थ व्यर्थ होंगे/मुझे पढ़ना जटिलतम सरल होगा/क्योंकि मेरे होने के कुछ अभिप्राय रह जाएंगे।(ये जो मेरापन है) वह अपनी बात प्रतीकों के माध्यम से अधिक कहते हैं। प्रतीकों का सटीक प्रयोग करते हैं जो नए होने के बावजूद भी अबोधगम्य नहीं होते हैं। छोटी कविताओं की अपेक्षा मंझली और लंबी कविताओं में अधिक सधते हैं। छोटी कविताएं पूरी तरह खुल नहीं पाती हैं। लंबी कविताओं में कहीं-कहीं अनावश्‍यक प्रसंग भी चले आते हैं जिनसे बचा जा सकता था।  इसके बावजूद भी कविता के मंतव्य पर कोई विद्गोच्च अंतर नहीं आता।

शिरीष के कवि की एक खासियत यह भी है कि वह कहीं भी कविता संभव कर देते हैं। पुराना घ्ार छोड़ नए घ्ार में आते हैं पुराने घ्ार की स्मृतियां और नए घ्ार की परिस्थितियां कविता को जन्म दे देती हैं। रात को रसोई में छछूंदर घ्ाुस आता है कवि उसे भगाने जाता है और उसी से 'एक सुंदर छछूंदर कथा" बन जाती है। भूमाफिया द्वारा वसुंधरा को प्लॉट में बदल देने और जीवन से निकलकर एक बोर्ड में चले जाने से पैदा पीड़ा कविता के रूप में मुखरित हो उठती है जिसमें उन्हें 'वीरभोग्या वसुंधरा" की उक्ति अलग आशयों में सत्य सिद्ध होती लगती है। कभी जीवन में किसी लड़की द्वारा भेजा गया 'गुलाबी लिफाफा" तो कभी 'गोपनीय" लिखा सरकारी पत्र कविता का विषय बन जाता है। एक छोटे से रेलवे स्टेशन पर 'रेल की पटरियां" देखते हुए बहुत दिनों से खुदबदा रही कविता लिखी जाती है। इस तरह आसपास के अनुभवों से अपने समय और समाज का  साबुत,ठेठ और ठाठदार व बहुस्तरीय यथार्थ उनकी कविताओं में आकार लेता है।

उनके लिए कविता लिखना-पास की चीजों को दूर तक ले जाना है। जो जन बेनाम रहे  अब तक उन्हें नाम देना उनकी कविता का काम है। उनकी कविता जहां-तहां बिखरे पड़े जीवन को पकड़ने की कोशिश है। उसको एक तरतीब देना है। वह उनकी मंशा पर प्रश्‍न खड़े करते हैं जो पृथ्वी पर मनुष्‍यों का होना स्वीकार न कर जीवन की खोज में मंगल में जा रहे हैं।

श्सिारष खुद के कवि होने का कहीं कोई दावा नहीं करते हैं। खुद को 'लगभग कवि" और 'असफल कवि"तथा अपनी कविता को 'लगभग कविता" ही मानते हैं। इससे पता चलता है कि वह आत्ममुग्ध या आत्मग्रस्त नहीं है। यह उनकी विनम्रता भी है और प्रकारांतर से कवि कर्म की विराटता को स्वीकार करना भी। वास्तव में कवि कर्म आसान नहीं है। कवि होना किसी साधना से कम नहीं है। यह 'मनुष्‍य होते जाने के एक आदिम गर्व को साधना है। " जिसके लिए मानव विकास की पूरी बत्तीस लाख साल पुरानी यात्रा के आत्मसात करना पड़ता है। अपने भीतर के इंसान को कभी मरने नहीं देना पड़ता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि शिरीष ने इस कर्म को बहुत हद तक साध लिया है। उनकी 'संकरी जगह पर" कविता की ये पंक्तियां उन पर पूरी तरह सटीक बैठती हैं-'बिना किसी बिमारी के बीमार होना भी कवि होना है/पुरास्मृतियों में भटकना/बिना चले थकना/काल की हंडिया में हड्डी छोड़ देने की हद तक उसके फितूर का पकना/अपने उन लोगों के लिए उसका बिलखना कलपना जिन्हें बचाने की खातिर/अब भी किन्हीं गुफाओं के अंधेरे में छुपना पड़ता हैै।"  आशा की जानी चाहिए कि उनकी कविता का यह स्वर आगे और सांद्र से सांद्र होता जाएगा और यह कवि मनुष्‍यता के पक्ष में अपनी लड़ाई इसी तरह अनवरत जारी रखेगा।

        दंतकथा  और अन्य कविताएं(कविता संग्रह) शिरीष कुमार मौर्य
        प्रकाशक-दखल प्रकाद्गान 104 नवनीति सोसायटी
        प्लाट न0 51,आई0पी0 एक्सटेंद्गान पटपटगंज,दिल्ली 110092
        मूल्य-एक सौ पच्चीस रुपये। 

Wednesday, June 4, 2014

फैशनेबुल लेखन भी क्या कोई लेखन है


विजय गौड़


शर्मिला इरोम किसी भी फैशनेबुल लेखन का विषय नहीं हो सकती। कम से कम हिन्दी भाषा में लिखे जा रहे साहित्य का जहां इतनी जलालत भरे समय में धकेली जा रही दुनिया के बावजूद फिर भी कुछ मूल्य ऐसे हैं जिन्हें प्रगतिशीलता की कसौटी पर खरा उतरना ही लेखन का एक उद्देश्य तो तब भी है। साहित्य इसीलिए फिर भी एक उम्मीद की जगह है। फिर वर्षों से नाक में लगी नली वाली किसी स्त्री- छवी में संघ्ार्षरत इस योद्धा का वर्णन करना यूं कोई बहुत लोकप्रिय होना जैया भी तो नहीं। अशोक कुमार पाण्डे के हाल ही में प्रकशित कविता संग्रह ''प्रलय में लय जितना" इसीलिए महत्वपूर्ण है कि शर्मिला इरोम वहां अपनी मुमल उपस्थिति के साथ दर्ज होती है और उसकी छवी के साथ ही हम उस राष्ट्रीय चेतना को परखने के साथ होते हैं जो निर्मम होकर एक स्त्री का स्नै:-स्नै: मरना तस किसे दिखायी देती है।
किसी भी ऐसे रचनाकार का मूल्यांकन, जो बहुधा अपने रचनाकर्म के साथ-साथ सामाजिक, राजनैतिक गतिविधियों का हिस्सा भी हो रहा होता है, निश्चित ही कठिन काम हो जाता है। ऐसे व्यक्तित्व की आलोचना में उसका एक न एक पक्ष हमेशा छूट जाता है। रचना का विवेचन करते हुए उसके व्यक्तित्व गौण हो सकता है तो व्यक्तित्व की आलोचना करते हुए रचनात्मक प्रतिबद्धता अलक्षित रह सकती है। जबकि रचना और व्यक्तित्व को एक साथ रखे बगैर मूल्यांकन की कोई कसौटी मुझे उचित नहीं लगती। ग्वालियर से दिल्ली तक की यात्रा के दौरान भी अपनी हर गतिविधि के साथ दिखायी देते रहे इस कवि सारी छवियां उसकी कविताओं में जगह पा रही हैं, यह न सिर्फ व्यक्ति की रचनात्मकता के लिए बल्कि समकालीन पीढ़ी की उम्मीदों को लिए एक सहारा बन रही है। अशोक के जीवनानुभवों की छाया से उसकी रचनाएं बची न रही होंगी, ऐसा मानते हुए यदि हाल में प्रकाशित उसकी उपरोक्त संदर्भित पुस्तक की रचनाओं से गुजरें तो उनमें दिखायी देते बिम्ब और प्रतीकों का खुलासा जिस समझदारी की ओर इशारा करता है, उसमें हर गलत के प्रति एक तीखापन, उससे टकराने की ललक एवं दुनिया को अंधेरे ऐ उजाले में ले जाने के बेचैनी भरे रास्ते की शिनाख्त करता रचनाकार नजर आता है। ये ऐसे रास्ते हैं जिन पर बहुत दूर तक साथ चलते रहने की स्थितियों के बावजूद यदि वह छूटता हुआ लगता है तो भी उसमें अपने उद्देश्य से विमुख होना नहीं बल्कि समझदारियों में असहमतियों का उपजना ही है। बहुत कुछ कहने की बजाय अशोक की कुछ काव्य पंक्तियों के साथ उसे प्यार:
अब ऐसा भी नहीं
कि बस स्वप्न ही देखते रहे हम
रात के किसी अनन्त विस्तार सा नहीं हमारा अतीत
उजालों के कई सुनहरे पड़ाव इस लम्बी यात्रा में
वर्जित प्रदेशों में बिखरे पदचिन्ह तमाम
हार और जीत के बीच अनगिनत शामें धूसर
निराशा के अखंड रेगिस्तानों में कविताओं के नखलिस्तान तमाम
तमाम सबक और हजार किस्से संघ्ार्ष के

Friday, May 9, 2014

बारिश मेरा घर है


कुमार अनुपम की कविताओं का अपना मिजाज है जो न सिर्फ उनके शिल्प की बुनावट से बनता है बल्कि कथ्य में इतना तरल है कि एकाग्रचित हुए बिना पढ़े जाने पर जो कटोरे से छलकते पानी की तरह इधर उधर बिखर सकता है. यहां  तमगा लूटने के लिए लगाये जाते निशाने को साधने वाली एकाग्रता से कोई लेना देना नही. वह पारे की सी तरलता है जो उतनी ही ठोस है जितना किसी ठोस को होना चाहिए अपनी तरलता को बचाये रखते हुए.
माना कि दिल्ली में इस वक्त धूप तीखी पड़ रही. बेहद गरमी. उमस और चिपचिपापन. तो क्या उसे चुनौति देने के लिए हमें भी दोहराना होगा कवि के साथ बारिश मेरा घर है? कुमार अनुपम की कविता का यह पद तेज रफ्तार वाली दिल्ली को बारिश के पानी के कारण हो जाने वाले घिचपिचेपन  में फंसा देना चाहता है.चौकन्ने होकर सुनो वह कितना कुछ कह रहा. मसलन
यह
धार्मिकता का
सुपीरियारिटी का सत्यापन

फासिस्ट गर्व और भय
की हीनता का उन्मांद

यह
जाति धारकों
के निठल्लेपन का पश्चाताप

यह तत्काल टिप्पणी है. विस्तार से लिखने का मन है.

Thursday, May 8, 2014

चाय की प्याली में तूफान उठा देने वालों

हमारे सहयोगी यादवेन्द्र जी का यह आलेख उनके लेखन की ऐसी बानगी है कि हमारा आसपास बज बजाता हुआ सामने आने लगत है.



आज सुबह चाय बना कर पीने ही जा रहा था कि एक मित्र का फ़ोन आ गया -- आम तौर पर देर से उठने के आदी मित्रों और परिजनों के फ़ोन से मुक्त रहती हैं मेरी सुबहें ,पर कुछ चुनिंदा लोगों को सुबह सुबह मुझे पकड़ लेने की तरकीब मुफ़ीद लगती है। मित्र ने मुझसे कुछ पढ़ कर सुनाने का आग्रह किया सो चाय किनारे रखनी पड़ी -- हाँलाकि बीच बीच में चुस्कियाँ लेने से खुद को रोक नहीं पा रहा था।
पर अंत में बची हुई चाय ने अपने हाव भाव ( स्वाद और गंध) से साफ़ साफ़ कह दिया कि पीनी है तो ढंग से चाय पियो प्यारे.... कई काम एक साथ करते हुए सब के साथ नाइंसाफ़ी और तौहीनी करते हो .... मुझे यह बिलकुल पसंद नहीं।
चाय ने सचमुच इस बेरुखी पर क्रोधित होकर अपना स्वाद बदल लिया था -- सुबह की ताज़गी के बदले उसमें उबा देने वाला बासीपन घर कर गया था। दिलचस्प बात ये कि एक घूँट ख़राब चाय पी कर चार पाँच बार अच्छी चाय पी भी लें तो मामला बनता नहीं -- चाय मेरे लिए ऐसी प्रेमिका की मानिंद है जो पल पल समझाती रहती है कि मेरे जीवन में जो कुछ भी श्रेष्ठ और चमकदार है उसमें उसका स्थान हमेशा सबसे ऊपर रहेगा … जिसका मूड ख़राब करने का जोखिम आप उठा नहीं सकते .... और ऐसी गलती कर ही बैठे तो आपको  एड़ी छोटी का जोर लगाना पड़ेगा , फिर भी सब कुछ सहज सामान्य हो ही जाएगा इसकी कोई गारण्टी नहीं।
दरअसल चाय के इतने रूप रंग होते हैं कि एक से दूसरे के बीच के अंदर को मैं पहचान तो सकता हूँ पर शब्दों में उनका वर्णन नहीं कर सकता .... जैसे सुबह सुबह बनायी चाय के ही थोड़े से अंतराल के बाद बदल गये दो अलग अलग स्वाद को ही लें। यदि चाय किसी पतली गर्दन वाले बर्तन में बनाई जाये तो भगौने जैसे चौड़े मुँह के बर्तन में बनाई गयी चाय से उसका स्वाद बिलकुल अलग होगा। वैसे ही उबलते पानी में चाय की पत्ती डाल कर ढक्कन से ढँक दिया जाए तो उसका स्वाद बगैर ढक्कन के देर तक उबाल कर बनायीं गयी चाय से बिलकुल अलहदा होगा। जो लोग पानी और दूध बगैर नापे अंदाज से डाल कर चाय बनाते हैं उनकी चाय का स्वाद सब कुछ नाप तोल कर डाली गयी सामग्री की चाय से जुदा होगा। पानी दूध और चीनी का अनुपात  बदल जाने से ज़ाहिर है चाय का स्वाद बदल जाता है। गाय ,भैस और डेयरी के दूध ( वह भी टोन्ड और फ़ुल क्रीम ) से बनायीं गयी चाय एकदम अलग स्वाद और गंध की होती है। इतना ही नहीं अलग अलग व्यक्ति की बनायीं चाय में अलग अलग स्वाद मिलेगा। शाम को दफ़्तर की थकान के बाद मिलने वाली दैनिक रूटीन वाली चाय का स्वाद वह हो ही नहीं सकता जो लिखाई पढ़ाई में तल्लीन रहने पर देर रात मिलती है .... या रात भर अच्छी नींद लेकर उठने के बाद दिन की पहली चाय ( आहार) का होता है।यानि चाय पानी दूध चीनी चाय की पत्ती को फेंट कर तैयार किया गया महज़ एक द्रव नहीं होती बल्कि एक जीवंत शख्सियत होती है --- और मन के भावों के प्रति बेहद संवेदनशील होती है।

मुझे याद है जब 1995 में मैं पहली दफ़ा विदेश ( अमेरिका ) गया और वहाँ पहुँच कर होटल में चाय की माँग की तो मुझे मिंट ( पुदीना ) की गंध वाली चाय का पैकेट दिया गया --- जबरदस्त तलब के बावज़ूद मैं उस चाय को स्वीकार नहीं कर पाया ,क्योंकि अपने चालीस साल के जीवन में पहले कभी चाय के साथ पुदीने की गंध /स्वाद का अनुभव नहीं किया था। जब मुझसे पुदीने वाली चाय नहीं चली तो बार बार माँगने पर दूसरी गंध वाले टी बैग्स मिले , सादा चाय मिली ही नहीं। जैसे तैसे कुछ घंटे होटल में गुज़ारने के बाद मैं निकल कर खुद डिपार्टमेंटल स्टोर गया और सादा चाय के लिए मगजपच्ची करता रहा। पूछ ताछ करने पर मुझे बताया गया कि दार्जिलिंग टी का पैकेट खरीदो ,यहाँ सादा चाय वही मानी जाती है --- हाँलाकि मुझ जैसे इंसान के लिए उबाल कर बनायी गयी सादा  चाय ही चाय का स्थायी भाव है ,दार्जिलिंग चाय तो कभी कभार मिल जाने वाली लग्ज़री है। इसी यात्रा में मेरा सामना काँच के पारदर्शी प्याले में बर्फ़ और नींबू की पतली फाँक तैरती हुई ठण्डी चाय से हुआ --- तज़ुर्बे के तौर पर मेरी स्मृति में सिर्फ़ आग पर उबली हुई चाय मौज़ूद थी और बर्फ़ वाली चाय मुझे बड़ी अटपटी लगी थी पर बाद के दिनों में जब भारत में नेस्ले ने आइस टी बेचनी शुरू की तो इसका स्वाद मेरे मुँह को खूब लगा।

पिछले साल राजस्थान में नाथद्वारा जाने पर पुदीने वाली चाय पी और खूब छक कर पी -- यह वहाँ की वैसी ही खासियत है जैसे सैकड़ों की संख्या में बनी दूकानों में बिक रहा मंदिर में दिन में सात बार चढ़ाया गया प्रसाद। जब जब वहाँ चाय पीता  हूँ मुझे अमेरिका का वह अनुभव याद आता है और अचरज होता है कि वहाँ जिसको स्वीकार करना मुश्किल था वहीँ नाथद्वारा पहुँचते ही मुझे पुदीने वाली चाय की जबरदस्त तलब होती है।
 
पचमढ़ी में खूब देर तक अदरक के साथ उबाल कर तीन चरणों में बनायीं गयी चाय लोगों के इतने मुँह लगी रहती है कि एक कप चाय के लिए बीस पच्चीस मिनट तक इन्तज़ार करते हैं-- इस प्रक्रिया को पूरा होने में आधे घंटे तक का समय लगता है।पहली बार में मुझे तेज अदरक वाली यह चाय इतनी कड़वी लगी कि एक दो घूँट के बाद छोड़ दी पर थोड़ी देर बाद उसमें ही अनूठा स्वाद आने लगा।

तिरुपति में चाय बनाने का अलग ढंग है -- कॉफी के लिकर की तर्ज पर चाय का भी लिकर बना कर ताम्बे के लम्बे गोल बर्तन में रखा जाता है और ग्राहक के आने पर दूध और चीनी मिला कर दे दिया जाता है।

हालिया अनुसंधान से मालूम हुआ कि हमारी नाक लाखों अलग अलग गंधों को पहचान सकती है ,यह अलग बात है कि हम अपनी इस क्षमता का उपयोग करना भूलते जा रहे हैं। वैसे ही हमारी जीभ और स्वाद पहचानने वाली ग्रंथियाँ भी भिन्न भिन्न प्रकार के स्वाद पहचान सकती हैं पर हम उनका प्रयोग करना भूलने लगे हैं .... और  उनके बारीक अंतर को शब्दों में बयान करना तो बिलकुल असंभव है।

कैसी विडंबना है कि चाय के  इतने सारे भिन्न स्वरुपों को समेट कर हम देशवासियों पर यह धौंस जमा रहे हैं कि चाय पीनी है तो सिर्फ़ नमो चाय पियो ,वरना पाकिस्तान जाओ।    

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यादवेन्द्र
*Mob.*    *+ 09411100294*