Monday, September 14, 2015

महानगरीय शिल्प और पृष्ठभूमि से भिन्‍न

वागर्थ पत्रिका बेशक विशेषरूप से कहानियों के लिए न जानी जाती हो लेकिन 'महानगरीय शिल्प और पृष्ठभूमि" को ही साहित्य मानने वाली समझ से भिन्न सम्पादकीय सूझबूझ रखने के कारण अक्सर ही अपने पाठको को यादगार कहानियों के तोहफे से नवाजती है।
अगस्त 2015 के अंक में प्रकाशित एक ऐसी ही कहानी 'जै हिन्द" का जिक्र यहां किया जा सकता है। पृष्ठभूमि में पहाड़ की मुख्यधारा के जनजीवन से विलग उंचे पहाड़ेां में जानवरों के साथ रहने वाले पालसियों के जीवन के दुख दर्द, जै हिन्द कहानी का ताना बाना बुनते हैं और  हिन्दी कहानी के उस भूगोल को विस्तार दे रहे हैं जो हिन्दी कथा अलोचना की दरिद्र दृष्टि में कभी अट नहीं पाया है। 'महानगरीय शिल्प और पृष्ठभूमि" को ही कहानी मानने वाली आलोचना की स्थानाओं को ऐसी कहानियां धा पहुंचाती हैं।
नंद किशोर हटवाल के हम आभारी हैें जिन्होंने हमें कहानी को पुन:प्रकाशित करने का अवसर दिया। 

वि गौ 


जै हिन्द

-नंद किशोर हटवाल
hatwalnk@rediffmail.com
09412119112

हीरा की बकरियाँ थाली बुग्याल पहुँच गई। 
''हो प्पापा रे! यहाँ से आगे तो एकदम चैना लग जायेगा!!" हीरा बड़बड़ाया। थाली बुग्याल से छ्वोरी खर्क नहीं दिखता है। जहाँ पर उनका तम्बू है। न साथी पालसियों की 'टोख" सुनायी पड़ती है! एकदम्म सुन्न बुग्याल है थाली! 
बकरियाँ भी आज थिर-थम नहीं। उनको दो हफ्ते से नमक नहीं खिलाया। मंगल सिंह गया है नमक लेने। नमक नहीं खाया तो स्वाद खतम। चरने में दाँत नहीं लगते।।! 
।।अब दाँत क्या लगने।।।अबि तो दाँत टूटेंगे तुमारे! नमक की टपट्यास लग गयी!।। आज-कल की तो बात है।।! मंगल लायेगा तब तो खिलाऊंगा।।! खच्चर नयी मिल रे होंगे! कल तक खिला देंगे।।।। कुछ थिर-थम रखो!
पर बकरियाँ क्यों सुनती हीरा की। चरते-चरते थाली बुग्याल से आगे चली गयी।।।।इनके आज दिम्माक खराब हो गया।।। वो् बाग्ग!।।।।अब चैना में जायेंगी क्या नमक खाने?  
हीरा ने बकरियाँ वापस खदेड़ी।।।।वो  वो।।बाग्ग। हीरा ने झुंझला कर बाघ की गाली दी बकरियों को।
हीरा का साथी मंगल सिंह जोशीमठ गया है। बकरियों को नमक, राशन-पाणी लेने। कुछ बि तो नहीं बचा था-खाणा-पीणा, बीड़ी-तम्बाकू, चाय-चीनी। परसों का गया नहीं लौटा। आया होगा कि नहीं।।।।।।कैसे पता चलेगा!
हीरा ने एक जेब से चिलम निकाली। दूसरी जेब से तम्बाखू की थैली। लास्ट डोज है! थैली एक बार उसने फिर वापस रख दी। लास्ट अबि पी लूंगा तो फिर क्या पियंूगा? पर इस बार नहीं माना मन। उसने थैली झाड़ दी अपने हाथ में। एक चिलम तम्बाखू निकल गया। हीरा तम्बाखू को अपने दोनो हाथों से मसलने लगा। धीरे-धीरे, देर तक। उतनी देर तक जितनी देर तक उसका मन माने। ।।।कबि कबि पल काटने में जुग लगता है। 
हीरा ने तम्बाखू की कश खींची। खी-खी-खी खाँसी। और फिर होह्णक, हो ह्णक, होह्णक। खाँसी का बकरियों की 'हाँक" में रूपांतरण किया। 
उसने कोट की जेब टटोली ।।बीड़ी तो पैले ही खत्तम् थी।।अब तम्बाखू खत्तम्। और दूर-दूर तक कोई नहीं। सलूड़ वाले पालसियों के बाखरे आज सैद ल्वाजिंग के पली तरफ चले गये। मंगल न जाने कब तक आयेगा! ।।।जब तक खच्चर नयी मिलेंगे तो कैसे आयेगा? नमक लाना है।।। मंगल सिंह अपने मालिक जग्तू के यहाँ पीने बैठ गया होगा।।।।।।।। साला खाणा-पीणा दो-तीन दिन तक न भी मिले तो सैन कर सकता है वो।।।।। मगर बीड़ी तम्बाखू के बिगर एक मिलट भी।।।।।।
बकरियां अब थाली धार पर आ गयी हैं। वहां पर फुर्र फुर्र फुर्र फुर्र करती ठण्डी हवाएं हैं। सामने पंचचूली और चौखम्बा के हिंवाले पौड़। हीरा कुढ़ता उन पहाड़ों से।।साला ये पौड़ भी ह्यंू (बर्फ) अपनी खोपड़ी पर अटका कर हवा चचकार (ठण्डी) बणा देते हैं।।।मेरे को तो नयी जमा ये।।।। वो बर्फ पर चिढ़ा।।ये साला पिघ्ालता भी नहीं! ठण्ड को कोशा।।। ठण्ड साली ठीक नयीं है ये! ।।।असल बात बरफ और ठण्ड नहो तो।।। 
हीरा ने अपनी कनबुज्या टोपी गर्दन तक खींची और नाक से बहते पानी को साफ कर हो-बाह्णग कहा।।।एक-आद चिलम और होता।।।।तम्बाखू तो कुछ गर्मी लगती।।।।।।।।
उसने हाथ तम्बाखू पीने के अंदाज में बाँधे और मुँह की हवा से हाथों को गर्म करने लगा।।।।। हटाओ! अब ताकू भी नयीं काता जाता।

वो बकरियों के पीछे-पीछे थाली धार के दूसरी तरफ आ गया। वहाँ से टिमरसैंण दिखता है। बहुत नीचे। वहाँ पर कुछ सूने बंकर थे।।।।।उनमें सैद कुछ मलेटरी वाले आ गये हैं।।।।।बाहर बैठे घ्ााम ताप रहे हैं।।।।।।नयीं।।।।ठाठ से ताश खेल रहे हैं।।।।।।।।
हीरा को फौजी जीवन अच्छा लगता है।।।।।। बस अपने खाणे-पीणे का सारा इंतजाम फिट रहता है उनका।।।।।। बल्कि जादा ही रहता है उनके पास।।।।। जो सिगरेट पीता है उसके लिए सिगरेट है जो बीड़ी पीता है उसके लिए बीड़ी है।।।।। मीट भी है।।।।।। वो भी डब्बा पर बंद वाला अलग और सौदा बाखरा अलग।।। उनका पार्कर कोट तो इतना गरम होता है कि कैसी-कैसी ठण्ड का कोई बस नहीं पार्कर के सामने।।।।।
हीरा को लगा कि उसके दोखे के अन्दर कहीं से ठण्डी हवा जा रही है। उसने टटोल कर देखा, पीठ की सिलायी उधड़ी है। दोखे के पल्ले खींच कर लपेट लिए थे इसलिए सिलाई उधड़ गई। उसने पागड़ा ढीला किया। पल्लों की कसावट कम की। पर अब आगे से हवा जाने लगी है।
खित्त।।।खित्त। उसे हँसी आ गई। ये मंगल भी कबि कबि क्या बात बोलता है।।।।मेरे मालिक साब।।। जग्तू ब्वोक्ट्या।।।।स्वेटर के बाहर ऊनी ओबर कोट पहन कर उसके बाहर से जो पश्मीना ओढ़ता है, काश कि उसकी गर्मी मुझे लगती।।।। हा! हा!! हा!!! अर ये ठण्ड उसको।।।।।। ब्वोक्ट्या बोलता कि ये ठण्डा कैसा लग गया मुझको।।।।इतना कपड़ा पैना है।।।। तबी पता लगता उसको कि ठण्डा कैसा होता है।।।।।। खित्त खित्त।।।। मंगल के डैलोक।।।भेड़ बाखरों की ऊन तब गरम होती है।।।।जब वो आदमियों ने पैनी हो।।।।न कि भेड़ों ने। इन भेड़ों से निकाली और उस भेड़ पर पैनायी।।।। जग्तू ब्वोक्ट्या।।।।खित्त खित्त खित्त।।।।
भूख ने हीरा पर फिर झपट्टा मारा। 
।।।।।। इन बुग्यालों मेंं इतनी भूख फैली होती है साली कि।।।। जिसकी कोई हद नहीं।।।।। । हीरा ने भूख पर चिढ़ निकाली। बचपन में जब भी उसे भूख लगती थी उसकी माँ भूख को कोशती। कहती थी कि भूख राक्स्योंण (राक्षसी) होती है। इसको काबू करना पड़ता है। नहीं तो ये इंसान को खा लेती है। इसी सीख के कारण भूख आज तक उसका कुछ नहीं बिगाड़ पायी। भूख की ऐसी तैसी साली।।।। पर तम्बाखू।।।।। बंकर पर जाकर ही तम्बाखू-पाणी का जुगाड़ बिठाणा पडेगा।।।।।
बकरियों का गोठ सीमा पार जाने को आतुर है! और कालू सो रहा है। उसने गुस्से में अपना डण्डा कालू की ओर फेंका।।।।साले को सुबह ठोक कर थांग्थू खिलाया है।।।और मजे से सो रा है! बाग फाड़े ढाड! हीरा ने मन ही मन कालू को गाली दी। धौलू भी पूंछ हिलाता खड़ा हो गया। 
बकरियों के गोठ को कालू-धौलू के हवाले छोड़ थाली धार से लड़खड़ाता हुआ हीरा ट्यमरसैंण में बंकर के सामने पहुँचा।
''जै हिन्द सुब्दार साब!"" हीरा फौजियों के रैंकों को पहचानता है। ।।।।हवलदार को सुबेदार साहब कहकर पटाया जा सकता है!
''जै हिन्द! जै हिन्द!!"" हवलदार ने ताश का पत्ता फेंकते हुए कहा।
''आप याँ पर कब आये सर?"" हीरा ने मुस्कराते हुए पूछा। वो सूरत से ही पहचानने में माहिर है कि ये गढ़वाल राइफल वाले हैं, ये गोरखा रेजीमेन्ट के हैं, ये सिख रेजीमेन्ट के हैं, ये डोगरा रेजीमेन्ट के आदि।।।।इनमें खिलाणे-पिलाणे के मामले में सिख रेजीमेन्ट के लोग सबसे जादा दिलदार होते हैं।।।।।।
हवलदार का ध्यान ताश में था। उत्तर देने में देर हुई, ''कली तो आये।।।। पालसी हो?""
''जी सर"" 
हवलदार ने एक नजर हीरा को देखा, ''कहाँ के हो?"" 
''पगनों के हैं सर।।।।ऊपर धार में इतनी हवा चल रही है कि बस! याँ पर ठीक आड़ है।।।और मेरे पास बीड़ी तम्बाखू भी खत्तम है।""
हवलदार ने सुनकर भी नहीं सुना। कुछ देर की चुप्पी के बाद हीरा ने फिर कहा, ''उधर तो पाणी का भी कयीं नाम नयीं है सर! बड़ी प्यास लग गयी। सोचा साब लोगों के पास से पाणी पीकर आता हूँ।"" पानी ही ऐसी चीज है जिसे माँगने में संकोच नहीं होता।
''वहाँ अन्दर नैक रामसिंग है, उससे माँगो।"" हवलदार ने ताश का पत्ता फेंका।
हीरा बंकर के अंदर गया। खाने की खुशबू का एक भभका उसकी नाक से होता हुआ प्राणों तक पहुँचा। कहाँ से आ रही है ये सुगंध! दुनियाँ की सबसे अच्छी सुगंध।।। वाह! बहुत सारा तैयार खाना बचा पड़ा है! हीरा के हाथ में ठण्डे पानी का गिलास है।।।।अब ये तो पीणा पड़ेगा। एक गिलास पानी गले के नीचे उतारा हीरा ने। अन्नदेवता! हीरा की माँ कहती थी।।।अन्न देवता होता है! भूख राक्स्योंण। अचानक उसके हाथ जुड़ गए।।।देवता! दाल-भात सब्जी-रोटी चावल। इन लोगों पे खाने की कमी नयीं होती।।।।।आज सुबह का होगा ?।।।।। कल का होगा तब भी चलेगा।।।।। परसों का भी होगा तो।।।।।अन्न देवता हैं।।। इस ठण्ड में खराब थोड़े ही होते हैं।।।
पर ना कह दिया तो? ।।।।अब इंसान का कोई पता थोड़े लगता।।। कैसे कैसे टैप के होते हैं।।।।ऐसा नहीं है कि फौजी हैं तो सब अच्छे ही होंगे।।।।खराब भी होते हैं। अनिच्छा से अपमान पूर्वक रोटी-सब्जी मेरी तरफ फेंकी तो? ।।।गले के नीचे कैसे उतारूँगा।।।।।।।
हीरा बंकर से बाहर आया। हवलदार के बगल पर बैठते हुए बोला, ''सर हम लोग कल बकरा मार रे हैं। मीट।।।।।""
''क्या?"" हवलदार का ध्यान हीरा की ओर खिंच गया। पहाड़ी बकरे का मीट! बहुत समय हो गया खाए हुए। उसका टेस्ट कुछ और है।
''हाँ सर! हम दो ही आदमी हैं, बकरा 'टन्न" है। हम तो खा नहीं पायेंगे पूरा बकरा, हमने सोचा।।।।
''तो हमें दे देना यार, पैंसा बता देना?"" ताश का खेल कुछ देर के लिए थम गया था।  
''पंैसा-वैंसा क्या सर, हो जायेगा।।।।।और क्या।।।अब इतना बि क्या है! आप लोग बि तो हमारी रक्षा कर रहे हो! इतना क्या हमारा फरज नहीं होता?""
क्या बात कह दी हीरा ने। फौजियों को अच्छा लगा। प्यार में ताकत तो होती ही है। हवलदार थोड़ा नरम हुआ।
''अरे रक्षक तो आप लोग हो भाई ।।।जो सीमाओं की चौकसी करते हैं। असली रेकी तो तुम करते हो। तुमारा सहारा नहो तो हम भी क्या कर पायेंगे।""
''मैं लेके आऊँगा सर।।।एक पोलीथीन।।।थैला।। कुछ देदो।।"" भोजन की खुशबू से हीरा अधीर हो गया था।
''रामसिंग इनको एक थैला दे दे।।।। ले आणा जितना भी होगा!।।ठीक है।"" हवलदार गड्डी फेंटते लगा।
''चिंता नी करो सर जी।।।। वो तो आजी था पुरगराम हमारा।।बकरे का।।।। पर साथी सामान लेणे गया कल का।।।। अबि तक नयी लौटा।।।। हद है! आज तो सुबह से ही खाणा नी खाया सर।।।कल साम को बि दो आलू बचे थे सिरप।। पता नी काँ टप गया साला।।।।।"" हीरा ने मंगल पर नकली गुस्सा दिखाया।
''अरे! तो बताया क्यों नहीं।।।।"" हवलदार ने कहा। ''अन्दर नैक रामसिंग से बोलो, खाणा बचा है, खालो।""
हीरा फिर बंकर में घ्ाुसा। जै!हो!! सही मन से देवता को चाहो तो मिलता है! भूख राक्स्योंण से अन्न देवता ही हमारी रक्षा करते हैं, माँ ठीक बोल्ती थी। 
हीरा ने धीरज के साथ, मान के साथ खाना खाया।
तृप्ति।।! अन्नमै प्राण।।।। छ खा लिया हीरा ने। आलस छाने लगा अब। लेटना चाहता था हीरा पर।।।बकरियाँ! अब।।।बकरियों की चिंता आलस पर भारी पड़ गई। 
आते समय उसने हवलदार से एक सिगरेट माँगी। एक फौजी ने पूरा पैकेट दे दिया हीरा को। हीरा ने पैकेट जेब में डाला और 'जै हिन्द!" कहकर भरड़ की तरह पहाड़ी पर कुलाँचे भरता बकरियों की तरफ दौड़ पड़ा।।।।।और तो कुछ नयीं पर कहीं चैना बौडर पार न चले जाँय बकरियाँ।
वो हाँफता वहाँ पहुँचा। ऐई श्याब्बास! मेरे पौर्यो।।! उसने कुत्तों को शाबासी दी। बकरियाँ उनकी पहरेदारी में चर रही थीं। बकरियों को रोकने के लिए चाइना की तरफ खड़े थे कालू-धौलू। स्वी।। स्वी।।। उसने प्यार से एक पतली सीटी कालू-धौलू के लिए बजाई। वोक वोक वोक।।।ओक हा! बकरियों के लिए मोहब्बत की हाँक मारी।
साम घ्ािरने लगी थी। ।।खर्क लौटने की बगत हो गई। वोक वोक वोक।।।ओक हा! बकरियों का गोठ इकट्ठे हो कर खर्क के रास्ते लग गया।।।।क्या कहा हवलदार ने।।।। रक्षक तो आप लोग हो भाई ।।।जो सीमाओं की चौकसी करते हैं। असली रेकी तो तुम करते हो। ।।।सही कहा हवलदार ने। वो जानता है।।।। बहुत समझदार लगा मुझे।।। अच्छा पढ़ा-लिखा होगा।।।अच्छे घ्ार का इंसान।।।!
हीरा ने देखा खर्क में धुआँ उठ रहा है। मंगल सिंह आ गया सैद! 
मंगल ने आग जला कर चावल चढ़ा लिए थे। कालू-धौलू के लिए थांग्थू बन चुका था। हरड़ की दाल तैयार थी, हीरा की खास पसंद। मंगल का खट्टा पेट होता है हरड़ खा के।।।। अक्सर वो मना करता हरड़ बनाने को। पर आज उसने खुद बना दी। ।।।भूख के कारण दूसरे पर च्योंग आती है हीरा को!
पर हीरा आग तापते हुए सिध्वाली गुनगुनाने लगा- 
द्वी भाई रमोला, छोमा छोमा। 
घ्ाांघ्ाू का पुत्तर, छोमा छोमा। 
मैंणा का लाड़ला, छोमा छोमा। 
तनि रैका रम्वोला, छोमा छोमा।
सिधुवा-बिधुवा की गाथा।।।वो भी तो पालसी थे।।हमारी तरह! द्वी भाई रमोला।

भादो खत्म होने को था। दो-चार दिन से मौसम साफ चल रहा था। दिन में चटक धूप लगती। पर धूप छुपते ही सरसराती हवा चलने लगती। छ्वोरी खर्क के आगे से बलखाती धौली हवा की ठण्ड बढ़ा देती। हीरा ने धौली की तरफ देखा आह! गंगे तरंगे!
''बैठ भायी मंगल। क्या लगा है तू काम पर।।। अरे हो जायेगा सब!"" हीरा ने लकड़ियों को चूल्हे में ठेलते हुए कहा।
मंगल हैरान है। आज कुछ बात तो है जो हीरा इतना खुश है। हीरा ने जोर की डकार ली। डकार का मतलब? न बीड़ी न तम्बाखू, न खाना न पीना।।।।। डकार आने का क्या मतलब होता है?
हीरा ने जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला। ठक-ठक उंगली से पैकेट को दो बार ठकठकाया। ठीक अपने गांव के ।रिटा0 कैप्टैन दारवीर सिंह रौतेला।। उर्फ दानीका।।।।मतलब दानी काका की तरह। उसी सलीके के साथ एक सिगरेट मंगल की ओर बढ़ाई।
''ये सिगरेट?"" मंगल समझ गया कि कोई फौजी टकरा है। पर उससे पूरा पैकेट कैसे निकल गया! अब कोई फिरी का तो मिलता नयीं फौज में पैले की तरह। पैले तो तारगेट, खुंखरी, नं। 10, गोल्डफलैक सिकरेट, मिलेटरी को फिरी होती थी।।।नौट फार सेल। ।।।उसने बि भौत सिकरेट फूंकी है फौजियों की पैले।।।पर अब।।।
''टिम्बरसैंण में जो बंकर हैं उनमें कुछ फौजी ठहरे हैं।"" हीरा ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा।
''तुमको पता कैसे चला?""
सीमाओं पर चौकसी के लिए बने खाली बंकरों में यदा कदा फौजियों का आना पालसियों के लिए उत्सव हो जाता है। नए चेहरे दिखते हैं। पर कई बार पता नहीं चलता।
''बकरियाँ आज थाली धार की तरफ लगी, वहाँ से दिखता तो है टिम्बरसैंण।""
''हाँ हाँ दिखता है।""
और फिर हीरा पूरा किस्सा सुनाने लगा। धीरे-धीरे। किसी सफल अभियान के नायक की तरह। बीच-बीच में सिगरेट पिलाता गया मंगल को, खुद भी पीता गया। और अंत में ''दुन्याँ में ठाठ हैं लोगों के"" कहकर हीरा दुनियाँ के बारे में सोचने लगा। 

हीरा की दुनियाँ। माने अपना गाँव, जोशीमठ का बाजार, टिम्बरसैंण का बंकर, थाली, लफ्तिल, रिमखिम के बुग्याल और भाबर के जंगल। इस दुनियाँ के बाहर भी एक दुनिया है। वो बहुत बड़ी है। हीरा के खयालों में नहीं समा सकती। बहुत बाहर है। हीरा को नहीं छू सकती। और ठाठ करने वाले लोग हैं फौजी ।।।आर्मी परसन।।। 
ऐशो आराम और बिलासिता के संसार में फौजी नं0 1 हैं। उससे ऊपर हीरा की दुनिया में दिखा नहीं कुछ। वो दु:खी रहता है कि उससे गया-बीता कोई नहीं और खुश भी कि उसके अपने संसार में उससे बेहतर सिर्फ आर्मी परसन हंै। वो सिरप एक सीढ़ी नीचे!
हीरा ने बचपन से फौजियों के ठाठ-बाट देखे। छुट्टी पर घ्ार आना। उनका नाम-नम्बर लिखा काला बक्सा, कई बार तो उसने पहुँचाया है गाँव तक।।।।।। लैंची चने के लालच में। फट्ट-फट्ट करती नयी चप्पलें, उनका सिगरेट पीना। देश विदेश के किस्से हिन्दी में सुनाना। ।।।।।फिट्ट हिसाब किताब रहता आर्मी परसन का।।।। फौजियों के घ्ार पर सजी बैठकें, पीने-पिलाने का दौर।।।। दुन्या-समाज में इसीलिए उनका मान है! 
।।।।हर कोई पूछता है कितनी छुट्टी आये हैं।।। कब जाना है।।। कहां पोस्टिंग है।।। ये किस तरफ हुआ।।। कितने दिन का रास्ता है।।।। कितनी पूछ है उनकी! 
।।।पढ़ लेता तो भर्ती हो जाणा था। साला फिट बौडी थी।।।। ।।।लैन में खड़ा हो गया था लैंसीडोन।।।में।।। तब पता चला कि आठ पास चाहिए। हत्त तेरा भला! सीधे घ्ार आ गया।।।पढ़ने के टैम पे बाप मर गया था। 
हीरा का बाप भी नन्दन मुच्छड़ का पालसी था। वो एक पहाड़ी से बकरियों को पार करने के चर में नीचे लुड़क गया था। तो नंदन मुच्छड़ ने हीरा को 'नौकरी" पर लगा दिया।
आर्मी में न जा पाने का उसे आज भी अफसोस है।
यू आर जस्ट लैक आर्मी परसन। भौत टफ लैफ है।  ।।रिटा0 कैप्टैन दान सिंह रौतेला उर्फ दानीका खुद मेरे को बोला था। 
''।।।।पर सुण यार।।।बकरा बकरा।।"" हीरा चौंका। मंगल उसको हिला हिला कर कुछ कह रहा है। ।।।।हवलदार को बकरा देने वाली बात।।।। ।।।दो मैना हो गया।।।हमने बि मीट नयीं चाखी।।।।मंगल के मुँह में पानी भर आया।
सौदा घ्ााटे का है पर जुबान निकल गई! जुबान भी कोई चीज होती है। बिस देना बिस्वास नहीं। एक बाप की एक जुबान, सौ बाप की सौ जुबान। जो बोल दिया सो बोल दिया। मरद की जुबान।।।। 
''ये बात तो ठीक है!कि जुबान निकल गई तो निभानी है।"" मंगल ने कहा।
''अब देख मंगल, बाग बोल्ता मी खाता, च्यांकू बोल्ता मि खाता, थरबाग बोल्ता मि खाता, मसाण बोल्ता मि खाता अर द्येबी-द्यब्ता बोल्ते हम खाते।।। जो सबकी रक्षा करते हैं वे बि बकरी खाते।।।।तो।।तो।।।ये आरमी वाले बि तो हमारी रक्षा करते।।।""
''ये बिल्कुल सयी बात है!""
''इधर बौडर पे इन लोगों को हमारा भौत सारा रैता है।।बिना हमारे ये कुछ नयी कर पाते।""
''ये तो सयी बात है भाय! क्या कर पायेंगे?""
''दानीका इसलिए तो जस्ट लैक आर्मी परसन बोलता है हमको!""
''दानीका जो बोल्ता एकदम फिट बात बोल्ता है। आल्तु-फाल्तु की बात नयी बोल्ता।""
''आर्मी में कोयी कैप्टैन बण के दिखाये!।।ऐसेयी थोड़ी हो जाता कोयी।""
सुबह उठते ही मंगल थमाली पल्याने लगा। हीरा ने गोठ से 'टन्न" लगोठा छाँटा। जैसा कि जुबान दी थी। चालीस-पैंतालीस किलो मीट निकल गई उस पर। एक सिरी-दो फट्टी खुद रखी और बाकी पैक कर ट्यमर सैंण की तरफ चल दिया।
वहाँ पहुँचा तो बंकर खाली। अरे ये कहाँ निकल गए। जाने के रास्ते जहाँ तक नजर पहुँच सकती थी वहाँ तक नजर दौड़ाई। कहीं नहीं दिख रहे थे। हाँ, उस रास्ते ऊपर आता कोई दिख रहा था।।।।बिणै का जितसिंग। 
""वो तो चले गये वापस। अब तक तो र्योलू बगड़ पहुँच गए होंगे।"" जितसिंग ने कहा।
धोखा!! हीरा की छाती पर जैसे किसीने बहुत बड़ा पत्थर बाँध दिया!
''पर हुआ क्या?""
हीरा कुछ नहीं बोला। कैसे बोलेगा जितसिंग से। बदनामी होगी। और वो बेतहाशा र्योलू बगड़ की तरफ भागने लगा।।।।कोई उसने जानबूझ के थोडे ही किया।।।। हीरा खुद को समझा रहा था?
सुब्दार साब! उसने बाम्पा धार से आवाज दी। नीचे घ्ााटी में वापस जाता हुआ उनका ट्रूप दिख गया था। आवाज पहाड़ियों से टकराती हुई वापस आ रही थी। सैद सुब्दार नयीं सुन रा।।। वे लगातार आगे बढ़ रहे थे। हीरा ने अपनी अनामिका मोड़कर कर मुँह में डाली लम्बी पट्टासुड़ी मारी। स्वी स्वी स्वी स्वी। आवाज पहाड़ियों से टकराती, सन्नाटे को चीरती हवलदार के कानो तक पहुँची। शायद कोई कुछ बोल रहा है। वे रूक गए। रास्ते की लकीर से हवलदार अपनी नजरों को वापस दौड़ाने लगा तो ऊपर उन्हें हीरा आता दिख गया। वो हाथ हिला रहा था।
पता नहीं क्या बात है! वे बैठ कर इंतजार करने लगे। काफी देर बाद पीठ में पिट्ठू लगाये हीरा उनके सामने उपस्थित था। वो हाँफ रहा था।
''क्या बात हो गई?"" हवलदार ने पूछा।
''हद हो गयी सर जी! अरे सर कल बता तो देते कि।।।। ये तो धोखा हो गया था सर जी।"" हीरा ने  पिट्ठू से मीट का थैला निकालते हुए कहा।
थैला देख कर हबलदार सर पकड़ कर हँसने लगा, ""ओहो! यार।।।वो तो कल यूँही।।।।। अरे यार।।तुमने सचमुच।।।। साम को वायरलैस आया।।।कि र्योलू कैम्प पहुँचो।।। अबे यार तुम इतना भाग कर।।।।। बताओ दस किमी होगा।।।। ये पिट्ठू लाद के लाए।।।इतना भारी!"" हवलदार को बड़ा अफसोस था, ''कल की बात पर।।।।सचमुच! वो तो यूंही।।।अब।।।ये तो गलत हो गया।।।गलत हो गया।।।"" 
''तुमने मेरी छाती का पत्थर हटा दिया सर जी!"" 
'' पर ।।।।।!""
''जै हिन्द सुब्दार साब!"" इससे पहले कि हवलदार कुछ सोचे हीरा ने खाली पिट्ठू संभाला और कुलांचे भरता वापस चला आया। 



Wednesday, September 2, 2015

भ्रष्ट मध्यवर्गीय आधुनिकता के पूर्व प्रसंग

यह आलेख इलाहाबाद से भाइ्र संतोष चतुर्वेदी के सम्‍पादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका अनहद में प्रकाशित हुआ है। हिन्‍दी कहानियों के जरिये समाज में व्‍याप्‍त ओर कला साहितय को प्रभावित करती गंवई आधुनिक प्रवृत्तियों को समझने की कोशिश की यह दूसरी कड़ी है। इससे पूव्र एक आलेख हिन्‍दी चेतना में प्रकाशित हुआ। यहां क्लिक करके उसे पढ़ा जा सकता है। इस कड़ी का तीसरा आलेख कथाकार उदय प्रकाश की कहानी 'मोहन दास', अखिलेश की 'ग्रहण' और अरूण कुमार असफल की कहानी 'पांच का सिक्‍का' को आधार बना कर लिखा जा रहा है। अनहद के अगले अंक में उसको पढ़ा जा सकेगा। आगामी आलेख की योजना संभवत: कथाकार अल्‍पना मिश्रा, नवीन नैथानी और कुमार अम्‍बुज की कहानियां से गुजरते हुए गंवइ आधुनिक समय के साथ विकसित होती भाषा को समझने की कोशिश के तौर पर रहेगी। पाठकों की बेबाक राय के बिना मेरे लिए आगे बढ़ना मुश्किल है। अत: विनम्र निवेदन है कि निसंकोच अपनी राय जरूर दें और मुझे इस विषय को समझने का मार्ग सुझाएं। 

विजय गौड़


इस वक्त तीन ऐसे कथाकरों के संग्रहों के साथ हूं, जिनको पिछले कुछ समये से प्रचलन में आयी संज्ञा 'युवा कहानीकार और उनकी रचनाओं को 'युवा कहानी' कहा जाता रहा है। हिन्दी साहित्य के चरणबद्ध इतिहास में निर्धारित हुए आधुनिक काल के भीतर जारी साहितियक आंदोलनों की इस सबसे नयी संज्ञा वाले आंदोलन की विशेषतायें क्या हैं ? किन रचनाओं को इसमें अटा हुआ माने जाये ? ऐसे कोर्इ स्पष्ट मानदण्ड तो मेरे देखे में नहीं है। इसीलिए रचनाओं को अलग अलग आंदाेंलनों के साथ पहचानना मेरे लिए हमेशा मुशिकल रहा है। हां, सबसे नयी संज्ञा 'युवा कहानी आंदोलन से मेरा परिचय आधुनिक काल के साहितियक इतिहास में गिनाये गये अन्य कहानी आंदोलनों की तरह ही हुआ। आंदोलन विशेष के साथ रचनाकारों के नाम गिनाऊ आलोचनाओं ने ही कथाकारों के नामें से भी परिचित कराया है। यदि रचनाओं के साथ रचनाकार का नाम न हो और रचना पहले से  संज्ञान में भी न हो तो मैंने हमेशा महसूस किया है कि अमुक रचना को किस आंदोलन के से देखा जाये, यह तय करने में मैंने हमेशा परेशानी महसूस की है। जहां तक मेरा अनुमान है, यह समस्या मुझ अकेले की ही नहीं है बल्कि बहुत से दूसरे लोगों की भी हो सकती है। सबसे ज्यादा तो उस आलोचना की होनी चाहिए जो आंदोलन की प्रवृत्तिजन्य विशेषताओं में रचना की व्याख्या करना चाहेगी।

मेरा मानना है कि रचनाओं की प्रवृत्ति, उसमें व्यक्त होते दौर विशेष की सामाजिक चेतना से पहचानी जा सकती है। उससे भिन्न उसका कोर्इ अस्तित्व हो नहीं सकता। इस तरह से देखें तो हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल जिस सामाजिकी में विकसित हुआ, उसकी प्रवृत्तियां भी रचनाओं में साथ साथ मौजूद रही। विधागत भिन्नताओं में भी उन्हें खोजना मुशिकल नहीं। हां, यह जरूर है कि कथा साहित्य के जरिये उसको पहचानना ज्यादा आसान है। बहुत धीमी गति से बदलती सामाजिकी आजादी के आदाेंलन से आज तक एक सतत प्रवाह में रही है।  जिक्र किये जा रहे संग्रहों की रचनाओं की  पृष्ठभूमि हाल ही में गुजर गये और साथ-साथ गुजर रहे समय वाली है। सवाल है कि क्या है वह रोजमर्रा का जीवन ? क्या है उसकी सामाजिकी ? और कैसे चरणबद्ध तरह से वह लगातार विकास करती रही ? साथ ही, रचनाओं में उसके ज्यों का त्यों आ जाने के मायने क्या है ?

संदर्भित कथा संग्रहों की रचनाओं की समकालीन प्रवृतित को जानने के लिए वैश्विक स्तर पर होने वाले बदलावों के प्रभाव में असरकारी रही स्थानिकता को समझना जरूरी है। देख सकते हैं कि इस बिन्दु से गुजरते ही बहुत कुछ साफ दिखायी देने लगता है और हिन्दी कथा साहित्य की प्रवृत्ति का इतिहास भी खुद ब खुद तार्किक परिणति पाने लगता है। यूं भी उसके लिए बहुत पीछे जाने की जरूरत नहीं है। बीसवीं सदी के आरम्भ में जारी आजादी के संघर्ष के साथ ही हम अपने समय की आधुनिकता को पहचानते रहे हैं। वही समय, जब प्रथम विश्वयुद्ध के साथ ही वैशिवक पूंजी ने यह भली भांति जान-समझ लिया था कि शुरू हो चुके दुनियावी बदलावों के माहौल में प्रत्यक्ष औपनिवेशिक ढांचों को कायम रखना अब संभव नहीं। परिणामत:, अप्रत्यक्ष औपनिवेशिक ढांचों की विश्व व्यवस्था को विस्तार देने के लिए नये प्रारूपों के मायाजाल तैयार करना उसकी प्राथमिकता हो गया और द्वितिय विश्वयुद्ध के अंत के साथ ही वह अपने प्रत्यक्ष शासन वाले औपनिवेशिक चेहरे से किनारा करने का रास्ता तलाशने लगी। अपने प्रति नरम रुख रखने वाले स्थानीय नेतृत्व को इक्टठा करके सरकार बनाने की लेने की प्रक्रिया तक वह प्रत्यक्ष दिखायी देती है लेकिन सत्ता की बागडोर बनवा दी गयी स्थानिक सरकारों के हवाले कर देने के बाद से उसके प्रत्यक्ष रूप को देखना तो उन क्षणों में भी संभव नहीं हुआ जब आधुनिक से आधुनिक हथियारों से सुसज्जित उसकी सेनायें देश विशेष की सीमाओं के भीतर घुस कर आदिम हवलावरों की तरह आक्रामक होती रही हैं। स्थानीय नेतृत्व के सहयोग से बनवा दी गयी सरकारोंं के मुख्य घटक उसके तय किये गये उसे खेमे से रहे जिन्हें उसने काफी हद तक अपने मंसूबो के करीब पाया। सामान्य जन का एक सीमित धड़ा, जो औपनिवेशिकता के प्रति तीखा नहीं था, और जनभागीदारी के चलते अप्रसांगिक हो चुके प्रभुवर्ग लोग उसे इसके लिए सबसे अनुकूल नजर आये। अप्रसांगिक हो चुके प्रभु वर्गं के लिए भी यह एक स्वर्णिम अवसर था, कि पुन: अपनी पूर्व सिथति को प्राप्त कर सके और शासन की बागडोर को अपने हाथ में ले ले। जैसे भी हो, जल्द से जल्द वह सत्ता हस्तातंरण की प्रक्रिया को निपटवा लेना चाहता था। खूनी जंग भरा बंटवारा तक उसके मंसूबों को रोक नहीं सकता था। चोला बदलकर सत्ता हासिल करने की उसकी रणनीति वैशिवक पूंजी के ऐसे मंसूबों को भी साधती थी जिसके जरिये तख्ता पलट कर आवाम का राज कायम करने वाली सिथतियाें से बेखौफ हुआ जा सकता था। सामान्य जन का वह सीमित धड़ा तो सामाजिक पिछड़ेपन से निपटना चाहता था और औपनिवेशिक शासन की उन खूबियों का कायल था जो सामाजिक बदलाव की उसकी कार्रवाइयों का पक्षधर ही थी। भारतीय मध्यवर्ग का यह सबसे आधुनिक चेहरा था और यकीनन ज्ञान विज्ञान के साथ विस्तार लेती आधुनिकता के प्रभाव में राष्ट्रवादी होते हुए भी शासन के स्तर पर किसी बड़े बदलाव के प्रति बहुत मुखर नहीं होना चाहता रहा।  और देखते देखते, जनतंत्र का छदम फैलाती शासन व्यवस्थाओं ने पांव पसारने शुरू किये।

शोषण का चक्र चलाती शासन व्यवस्था के खिलाफ शुरू हो चुकी शोषितों की जंग और जंग में विजय की स्थितियों से निपटने के लिए वैशिवक पूंजी कल्याणकारी राज्यों की अवधारणा वाले अर्थतंत्र के साथ समाने आ रही थी। अप्रत्यक्ष औपनिवेशिक नियंत्रण को पूरी तरह से कायम करने में उसे वह माडल ज्यादा असरकारी दिख रहा था। तीसरी दुनिया के प्रभु वर्ग को भी ऐसे ही शासन प्रसाशन वाले माडल के नुस्खे दिये गये। अपने हितों की सुरक्षा के लिए भी प्रभु वर्ग को माडल भा रहा था। जनता के एक छोटे हिस्से को थोड़ी सुविधा जनक स्थिति में आने के अवसरों को मुहैया कराते हुए सामाजिक विभेद की गहरी खार्इ को खोदना उसके लिए आसान था। आजादी का झूठ रचती ये ऐसी स्थितियां थी जो राष्ट्रवाद का विभ्रम भी फैलाने लगी और झूठी राष्ट्रवादी ताकतों को भी आवाम के बीच घुसपैठ करने का मौका देने लगी और खतरनाक मंसूबों के साथ समाज को बांटने असरकारी होने लगीं। आवाम के लिए ऐसी स्थितियों में राष्ट्रवादी उभार के सच और झूठ को पहचानना मुश्किल भी रहा। और बाजार के विस्तार और उसके लिए ही अपना सर्वोच्च न्यौछावर कर देने वाले झूठे नायकों को ही जननायक नायक बनाकर प्रस्तुत करने वाला प्रभुवर्ग झूठे राष्ट्रवाद को ही वास्तविक राष्ट्रवाद के रूप में प्रचारित करने में सफल होता रहा।

विकासक्रम की इस समूची प्रक्रिया में प्रभु वर्ग पूरी तरह सामंती मूल्यों के लिए प्रतिबद्ध था लेकिन आधुनिकता चेतना के साथ गठजोड़ करना उसकी मजबूरी थी। निर्णायक भूमिका में होने के कारण पुरातन चेतना ने न सिर्फ आधुनिक मूल्यबोध की गति को अवरूद्ध करना शुरू किया बल्कि किसी भी नये विचार की स्वीकारोक्ति को उन पिछड़ी मान्यताओं की नैतिकता के आधार पर ही प्राथमिक मानने की सिथति पैदा की। कानून लिखी हुर्इ किताब होने लगा और उसके लागू होने की स्थितियां सीट पर बैठे व्यक्ति की चेतना पर निर्भर करने लगी। चैराहे पर खड़े सिपाही की सीटी की आवाज या उसका उठा हुआ हाथ ही वह निर्देश हो गया जिस पर सवाल उठाना तक भी राष्ट्रद्रोह करार दिया जा सकता था और दिया भी जाने लगा। आधुनिक होने की चाह रखते हुए भी पिछड़े मूल्यबोध को ही पैमाना मानकर हमेशा किलशने, कलपने वाली इन स्थितियों ने एक ऐसे मध्यवर्ग को जन्म दिया जो दिखते हुए तो आधुनिक होना चाहता था लेकिन गंवर्इ पिछड़ेपन से भी उसे ऐसा परहेज न रहा कि उसके विरूद्ध निर्णायक संघर्ष ही छेड़ दे। साहित्य के भीतर उसकी सीमायें, संवेदनाओं का जागरण करने के बावजूद, निर्णायक संघर्षों की दिशा का पक्ष न चुन पा रहे पात्रों के रूप में जगह पाने लगी। एक ओर आधुनिक मूल्य चेतना और दूसरी ओर पुरातनपंथी सांस्कृतिक मूल्य, आदर्श के रूप में प्रस्तुत किये जाने लगे। ऐसे ही मंसूबों की कामयाबी के लिए उस शिक्षा पद्धति को ही आधुनिक कहकर स्वीकार्य बनाया जाने लगा, जो नये किस्म के गुरूकुलों वाली थी। सांस्कृतिक निर्माण की इस पूरी प्रक्रिया ने समाज को इस कदर 'गंवर्इ आधुनिक बनाये रखा कि आधुनिकता के वास्तविक मायने क्या हो सकते हैं, लगातार विकसित होता मध्यवर्ग उसके कोर्इ ठोस पैमाने तय करने में अक्षम हुआ। प्रवृत्तियों के आधार पर रचनाओं को विश्लेषित न कर पाने की आलोचना ने ऐसे आधुनिक काल को ही भिन्न भिन्न साहितियक आंदोलनों वाली संज्ञाओं से विभूषित करने में ही अपने होने को सार्थकता दी। जबकि रचनाओं को समाज की मूल प्रवृतित के संग साथ 'गंवर्इ आधुनिकता से परिभाषित करना ज्याद तार्किक हो सकता था। मनोगत आधार पर व्याख्याओं की ये स्थिति सिर्फ साहित्य के क्षेत्र का ही मसला नहीं रही बलिक आजादी के बाद विकसित होते गये भारतीय समाज की ऐसी प्रवृत्ति के रूप में दिखायी देता है जिसने ज्ञान-विज्ञान से लेकर जीवन के कार्यव्यापार के हर क्षेत्र को गंवर्इ-आधुनिक बनाये रखने में कोर्इ कसर नहीं छोड़ी। झूठ, मक्कारी, धोखेबाजी, दलाली जैसी गतिविधियां सार्वजनिक मंचों पर सम्मान की हकदार होने लगी। किसी भी गैर तार्किक और भ्रष्ट सिथति पर आलोचनात्मक रवैया अपनाते हुए भी भिन्न स्थिति में खुद वैसा ही व्यवहार करती गंवर्इ मानसिक बुनावट वाले समाज का ताना बाना विस्तार लेता रहा। वैशिवक पूंजी की चमक और जटिल होते जा रहे सामाजिक ढांचे के बीच आधुनिकता के नाम पर में ऐसे आदर्श भी निशाने पर रखे जाने लगे, जो सांझी विरासत की सामाजिक जिम्मेदारियों से भरे थे। सहयोग, ममत्व और संवेदनाओं भरे व्यवहार को पिछड़ा समझा जाने लगा। लगातार की इन स्थितियों के चलते गंवर्इ आधुनिकपन में डूबी मध्यवर्गीय मानसिकता बहुत आधुनिक दिखने की चाह में सहमति और असहमति को स्पष्ट रखने से परहेज करते हुए भले भले का पाठ होने लगी।

देख सकते हैं कि कथा साहित्य के भीतर मौजूद यह सत्तता ही वह ताना बाना बुनती रही जिन्हें भिन्न भिन्न संज्ञाओं वाले साहितियक आंदोलनों से पहचानने की कोशिश की गयी। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि आंदोलनं विशेष की खास-खास प्रवृतितयों को चिहिनत करना जरूरी नहीं समझा गया।

जिक्र की जा रही तीनों किताबों की रचनायें न सिर्फ रचनाकारों की पृष्ठभूमि वाले भौगोलिक स्थिति के कारण जुदा है बलिक संवेदना के स्तर पर भी भिन्न सामाजिक रिश्तों के साथ हैं। जहां एक में पहाड़ी जनमानस की तकलीफें हैं तो बाकी दो में मैदानी क्षेत्रों का कस्बार्इ समाज और कुछ कुछ शहराती क्षेत्रों का घटनाक्रम। पहाड़ के भूगोल पर दिनेश कर्नाकटक का कथा संग्रह ''पहाड़ में सन्नाटा। कस्बार्इ जनसमाज पर केनिद्रत कथानकों वाली विमल चन्द्र पाण्डेय की किताब ''उत्तर प्रदेश की खिड़की जिसमें मैंदानी क्षेत्रों के गांव की झलक भी दिखती ही रहती है और दीपक श्रीवास्तव का कहानी संग्रह ''सत्तार्इस साल की सांवली लड़की जो अपनी कथाओं में कस्बे से शहर की ओर प्रसार करते जीवन की झलक लिये है। तीनों ही किताबों को पढ़ने के बाद एकाएक जो कहते बन पड़ रहा है वह यही कि उपरोक्त चिहिनत की गयी गंवर्इ-आधुनिकता भौगोलिक पृष्ठभूमि तक सीमित नहीं रहती बलिक संवेदनात्मक दायरे की सरहदों तक विस्तार किये होती है। एक और बात- गंवर्इ आधुनिकता के गंवर्इपन को छांटने में जुटी वैशिवक पूंजी के प्रभाव भी एक ही तरह से असर डालते हैं। हिन्दी साहित्य की पड़ताल में भारतीय राज्य का राजनैतिक नक्शा बेशक उसका वास्तविक भूगोल हो पर संवेदना के स्तर वह उन वैश्विक दूरियों तक मौजूद हो सकती है जहां-जहां आधुनिकता का चरण सामंती मिजाज से गठजोड़ करने के कारण जनतांत्रिक प्रक्रिया के विकास में ही रुकावट होता चला गया। इन तीनों ही किताबों में जो बात प्रमुखता से दिखायी देती है वह यही कि यथार्थ को सृजित करने के लिए कहानियों के कथानक- सामाजिक बुनावट, अर्थतंत्र, राजनीति और संस्कृति जैसे ढेरों अन्य संदर्भो से एक साथ टकराना चाहते हैं। लेकिन टकराहट की गड़गड़ाहट में झांकता उनका गवंर्इपन उस मध्यवर्गीय आधुनिकता की लपक वाला है जो 'भ्रष्ट आधुनिकता के पूर्व प्रसंगों के रंग में रंगा दिखता है। वही भ्रष्ट आधुनिकता जो खुद के करेक्ट होने का क्लेम ज्यादा करती है लेकिन व्यवहार में आक्रामक शकितयों के पैमाने को ही सर्वोच्च मानते हुए वैसा ही माहौल रच देना चाहती है।

गंवर्इ आधुनिकपन और भ्रष्ट आधुनिकता के अन्र्तर्विरोधों को पहचाने बगैर इन्हें व्याख्यायित करना संभव नहीं। विमल चंद्र पाण्डेय की ज्यादातर कहानियां तय निष्कर्षों की कहानियां हैं। शिल्पविधान के रचनात्मक कौशल के बावजूद उनकी बुनावट के बिखराव में कथा के अन्यत्र फैलते जाने का सिलसिला लगातार बना रहता है। एक ही कहानी में बहुत कुछ कह देने की आतुरता 'उत्तर प्रदेश की खिड़की और 'सातवां कुंआ' में ज्यादा साफ तौर पर दिखती है। दिनेश कर्नाटक की कहानी 'काली कुमाऊ का शेरदा भी वैसे ही व्यामोह में फंसी हुर्इ है। 'सातवां कुंआ की बुनावट जिस फ्रेम के साथ की गयी है, स्वाभाविक है दुनिया को तान लेने की गुंजार्इश उसमें है। लेकिन कहानी का फोकस बिन्दु डगमगाता रहता है। गोल-गोल घूम कर फिर फिर प्रस्थान बिन्दु की ओर लौटना लेखक की मजबूरी होता रहता है। यहां सवाल उस फ्रेम का नहीं है जिसका इस्तेमाल विमल चन्द्र पाण्डे ने किया है बलिक उसके मोह की गिरफत में होने की मन:सिथति का है जो इधर युवा कहलायी जा रही कहानियों में ज्यादा प्रमुखता से नजर आता है। 'पहल-97 में सबसे ताजा प्रकाशित मनोज रूपड़ा की लम्बी कहानी 'आग और राख के बीच को यहां प्रसंगवश देख सकते हैं। युवा कहलायी जा रही इन कहानियों में मध्यवर्गीय आधुनिकता की उस पदचाप को साफ सुना जा सकता जो गंवर्इ आधुनिकता से त्रस्त तो है लेकिन उससे मुकित के रास्ते को ठहर कर तलाशने की बजाय हड़बड़ाहट भरी तीव्रता में है। 'वागर्थ अक्टूबर 2014 के अंक में प्रकाशित जितेन ठाकुर कहानी 'एक अण्डे का स्वागत गान का उल्लेख इसलिए भी जरूरी हो जाता है कि पारम्परिक शिल्प और अनावश्यक विस्तार से बचते हुए, चमकदार भाषा और शिल्प के नये पन के लिए छटपटाती युवा कहानियां जिसके बिना अधुरी हैं,  अपनी दिशा का मूल्यांकन करा सकती है।

सामाजिक अन्र्तर्विरोधों की टकराहट को पकड़ने की कोशिशों में इन कहानियों का कहानीपन कर्इ बार औपन्यासिक विस्तार की उन हलचलों तक चला जा रहा है, जहां कहानी का शास्त्रीय ढांत्रा टूटने लगता है। यानी कहानियाें में एक केन्द्रीय कथा को बचाये रखना रचनाकार के लिए मुशिकल हो जाने वाला सा भी दिख रहा है। गौर किया जा सकता है कि इधर ऐसी कहानियों को सिर्फ 'कहानी की संज्ञा से उच्चारित करने के बजाय 'लम्बी कहानी कहा जाने लगा है। यह समझने की जरूरत है कि हिन्द कहानी में आ रहे इन बदलावों के कारण क्या हो सकते हैं ? क्या इसे नये मूल्य बोध का तलाशने में स्वंय जगह बना ले रहे शिल्प के रूप में देखा जा सकता है ? कहानी के भीतर अक्सर बहुत सी अवांतर कथाऐं दिखायी दे रही हैं। कथाकार बार बार उस कथा बिन्दु की ओर लौटता रहता है जो कहानी की केन्दीय संवेदना होती है। वैसे भिन्न संवेदनों को संजोयी अवांतर कथायें अक्सर ऐसे व्यवधान भी उत्पन्न कर दे रही हैं जिनकी भूल भूलैया में न सिर्फ पाठक खो जाने को मजबूर है बल्कि देख सकते हैं कि लेखक भी उन गलियों में ही भटक चुका होता है। भटकाव के कारणों को रचनात्मक कौशल की सीमा भी माना जा सकता है या, ऐसा भी जान पड़ता है कि वे कहानियां शायद रचनाकरों के भीतर पूर्व में ही आकार ले चुके अंत की कहानियां हैं और चलन में लम्बी कहानी कहलाये जाने भर के लिए ही असंगत अवांतर कथाओं के साथ हैं।

असंगति का विन्यास बहुधा इधर की कहानियों के शीर्षकों में भी उभरता है। यह असंगति कर्इ बार बहुत ही अतार्किक हो जाती है तो कर्इ बार उनके अर्थों का दायरा इतना विस्तृत होता है कि बहुत सीधी-सीधी और सहज कहानी को उसके शीर्षक से ध्वनित होते अर्थ के लिए पाठक को उसके एक से ज्यादा पाठ करने को भी विवश हो जाना होता है। यहां उन कहानियों का उल्लेख यदि न भी किया जाये जो एक समय मेंं 'कथादेश के 'गहरे पानी पैठ शीर्षक के अन्तरगत प्रकाशित होती रहीं तो भी दीपक श्रीवास्तव की कहानी 'लघुत्तम समापवर्तक के शीर्षक पर बात की ही जा सकती है। यह एक महत्वपूर्ण कहानी है। विकास की अफरातफरी में आधुनिकता को बाधित करती गंवर्इ स्थितियों को बहुत साफ तरह से रखने में सक्षम है। इस कहानी के जरिये उन स्थितियों को भी पकड़ पाना सहज हो रहा है जो श्रम को हेय मानने वाली मानसिकता के रूप में आधुनिक होना चाहती रही और जिसने समाज में गंवर्इ आधुनिकपन की स्थितियों को विस्तार दिया। आधुनिकता के नाम पर संवेदनहीन होते जाते समय की अवश्यम्भाविता का माहौल रचा। यह कहानी, प्रेम और संवेदना के लघुगणक को तलाशने की कोशिश करती है और गंवर्इ आधुनिकता में विस्तार ले चुकी समाजिकता के कारणं उपेक्षित हो जा रहे सोनू जैसे पात्रों के सपनों, उनकी इच्छाओं का साथ देने का पाठ हो जाना चाहती है। घर परिवार के बड़ों की हिकारत के कारण हिंसा की मानसिकता की गिरफत में होता जा रहा सोनू अभी भी प्रेम की झिड़कियों भरी प्रताड़ना को पहचान पा रहा है, ऐसे विश्वास जगाती यह कहानी उन सामाजिक खतरों की ओर भी इशारा कर रही है जो समाज मेंं निरूददेश्य जारी हिंसा के बीज बोने वाली होती है। प्रसंगवश यहां दिनेश कर्नाटक की कहानी ''कितने युद्ध'' का पात्र गोपाल भी याद आ रहा है जो सामाजिक प्रताड़ना के कारण हिंसक होते जाने की उस पराकाष्ठा में पहुंच जाता है कि जीवन के संघर्ष में आत्मीय आधारों के सहारे आगे बढ़ने वाली मां को भी लांछित कर आरोपित करने लगता है। लेकिन जीवन की घमासान के लगातार सम्पर्कों से मिलने वाले अनुभव में वह भी दीपक श्रीवास्तव की कहानी के पात्र की तरह मीठी झिड़क को मचल रहा होता है। लघुत्तम समापवर्तक का पात्र सोनू प्रेम की झिड़कियां देती दादी को प्रताडि़त करते दूसरे पात्रों की तरह नहीं देखता बलिक ऐसे ही क्षणों में ममतामयी दादी के असली रूप को पा रहा होता है। इस तरह से देखे तो दीपक श्रीवास्तव की कहानी लघुत्तम समापवर्तक का शीर्षक तार्किक संगति में ही रहता है लेकिन गणित में इस्तेमाल होने वाले इस पद से अनभिज्ञ पाठक के लिए, बहुत ढूंढ कर लाये गये, ऐसे शीर्षक कहानी की निरर्थकता को ही रख रहे होते हैं। लघुत्तम समापवर्तक गणित का पद है। दो और दो से अधिक संख्याओं का लघुत्तम खण्ड। लेकिन यह सवाल तो उभरता ही है कि कहानी के पाठक के लिए गणित के इस पेचीदे पद भरे शीर्षक में क्यों उलझा दिया जा रहा है ? गंवर्इ आधुनिकता के रंग में रंगी मध्यवर्गीय मानसिकता, चलन की विचित्रता के साथ होती है। इधर की कहानियों में यह बहुतायत से देखी जा सकती है। विशिष्टता के दायरे में हो जाने की यह चाह हमारे दौर की उस सच्चार्इ से भी रूबरू करवाता है जो गंवर्इ आधुनिकता में विकसित होती जा रही उस भ्रष्ट आधुनिकता के प्रभाव का होना साबित करती है जिसकी जकड़बंदी एक हद तक सामाजिक रूप से सचेत समूहों को भी अपनी लपेट में लिये है। अपने असरकारी प्रभाव में वह मुनाफाखौर पूंजी के प्रति मध्यवर्गीय आकर्षण के होने से उपजते है। चौंकाऊपन को ही सौन्दर्य का मानक मानते हुए मुनाफाखौर संस्कृति को सैद्धानितक आधार देती मध्यवर्गीय आधुनिकता उत्पादों की ब्राण्डीय किस्म को ही गुणवत्ता की कसौटी मानने वाली होती है। यह समझ पाना मुशिकल नहीं कि चौंकाऊपन के रंग में रंगा मध्यवर्ग ही सामाजिक बदलाव के वास्तविक संघर्षों के रास्ते में बाधा बना है और आधुनिकता की किसी सकारात्मक धारा की बजाय भ्रष्टता की ओर बढ़ता हुआ है। 'पहाड़ में सन्नाटा दिनेश कर्नाटक की किताब की शीर्षक कथा भी है। शीर्षक की अनुगूंज ऐसी कि पाठक के भीतर बहुत से सवाल पैदा करती है। लेकिन एक खबर की सनसनी की तरह कहानी अपने शीर्षक से बिल्कुल जुदा दिखायी देती है। शीर्षक की अनुगूंज से पैदा होते प्रश्न अनुतरित ही रह जा रहे हैं। देख सकते है कि शीर्षकों की स्वतंत्र सत्ता भी रचनाओं की प्रवृतित के तौर पर दिखायी दे रही है।

गंवर्इ आधुनिकता के गंवर्इपन से मुक्ति का मध्यवर्गीय आधुनिकता वाला रास्ता सिद्धान्त और व्यवहार की असंगतता से उपजने वाली वैचारिकता और बदलावों के अतिवादी दावों में शरण पाता है एवं वित्तीय पूंजी के चालाक मंसूबों के पक्ष को ही मजबूत होने के अवसर देता है। अतिदावों की छवियां शिल्प और भाषा की विशिष्टता में ही नहीं, अपितु वाचाल होने की हद तक वैचारिक प्रदर्शनों के रूप में होती हैं। वैचारिक संकट की ऐसी ही सिथतियों को हर उस जगह देखा जा सकता है जहां खुद को पाक साफ मानने वाली मध्यवर्गीय आधुनिकता न सिर्फ अपने से ऊपर और नीचे के ऊध्र्वाधर वर्गीय आधार पर निशाना साधती हुर्इ होती है बल्कि क्षेतीज में फैले हुए अपने ही वर्ग के सदस्यों तक को भी भ्रष्ट माने हुए होती है। ऐसा उन मनोगत कारणो की वजह से भी होता कि जिनमें व्यकितवादी प्रवृतितयाें की पराकाष्ठा अहंकार की हदों तक होती हैं। सामाजिक अन्तर्विरोधों को पूरी तरह से समझने में वे चूकती ही नहीं रहती बलिक ऐसे विभ्रम में होती हैं कि भ्रष्टता के मूल कारणों को समझना उसके लिए हमेशा मुशिकल होता है। अपनी सबसे उन्नत चेतना में वे विरोध के ऐसे ऐसे 'लोकप्रिय अंदाजों वाले प्रयोग करती है कि मुनाफाखौर बाजार की चालाकियों के शिकार मीडिया के लिए विरोध का इवेंट हो जाती है। वही मीडिया जो तटस्थ रह कर सूचनाओं को प्रेषित करने की बजाय टी आर पी को बढ़ा कर ज्यादा से ज्यादा पूंजी जुटा लेने की मानसिकता से ग्रसित है। उसकी चालाक कोशिशों का नतीजा है कि किसी भी तरह की अनैतिकता और भ्रष्ट स्थिति पर साधे जाने वाले विरोध के निशाने ही मखौल बना दिये जा रहे हैं। गैर जनतांत्रिक गंवर्इ आधुनिकता की वैचारिकी में ही ऐसी स्थितियां विस्तार करती मध्यवर्गीय आधुनिकता का आदर्श बन कर चारों ओर व्याप्त होती जा रही हैं। हिन्दी कथा साहित्य में भी दिखायी देती इस प्रवृत्ति, उसके विस्तार एवं स्वीकारोकित को इस रूप में भी देखा जा सकता है कि सामाजिक प्रतिबद्धता की बजाय व्यकितगत कौशल को चमकाने के असर ने हिन्दी के रचनात्मक जगत पर अपने प्रभाव बढ़ाने शुरू किये हैं।

प्रगतिशील पक्षधरता और इंक्लाबी पक्षधरता गंवर्इ आधुनिकता के दो पक्ष रहे हैं लेकिन हिन्दी भाषायी चेतना में इन्हें दो भिन्न पक्ष मानने की बजाय प्रगतिशील पक्षधरता के साथ ही परिभाषित किया जाता रहा। उसका मुख्य कारण हिन्दी क्षेत्र में पूरी तरह से गायब रही इंक्लाबी राजनीति का असर है। जबकि अन्य भाषायी क्षेत्रों में यदा कदा की उपसिथतियों के बावजूद बदलाव के स्वर में उसके महत्व को स्वीकारने की सिथति भी बनी रही। यही वजह है उन स्थितियों के गहरे प्रभाव अमुक भाषायी साहित्य की प्रगतिशीलता को इंक्लाबी पक्ष में जांचने वाले भी रहे। मारठी में दलित पैंथर का दौर उल्लेखनीय है जिसने अन्य भाषाओं के साहित्य में भी दलित अनुगूंज को स्थापित होने में मदद की। इंक्लाबी पक्षधरता को धारण करते हुए गंवर्इ आधुनिकता अपने गंवर्इपन से मुक्त हो सकती थी लेकिन उस तरह के राजनैतिक आंदोलन की अनुपसिथति और वैशिवक पूंजी की बढ़ती हुर्इ पहुंच के साथ विस्तार लेती भ्रष्ट मध्यवर्गीय आधुनिकता में उसका मिथ्या इंक्लाबी रूप ज्यादा बिकाऊ होने वाला हुआ और उसकी उपस्थिति को एक मूल्य मान लेने वाले भाषायी चौंकाऊपन में नक्सल, माओ, जंगल, आदिवासी, दलित आदि शब्दावली के साथ कथा को संयोजित कर ले जाना नये पन का परिचायक हुआ है। विमल चंद्र पाण्डे की कहानी 'उत्तर प्रदेश की खिड़की यहां उस दायरे में देखी जा सकती है। युवा कहलायी जाने वाली कर्इ अन्य रचनाओं में प्रवृत्तिजन्य इस उपस्थिति की पुष्टी के लिए इधर आयी बहुत सी कहानियां और कविताऐं भी संदर्भ हो सकती हैं। तत्काल याद आ रही चन्दन पाण्डे की कहानी 'भूलना और 'पहल-82 एवं 'जलसा के एक अंक में प्रकाशित देवी प्रसाद मिश्र की कविताओं को संदर्भ के रूप में देख सकते हैं। वैसे 'भूलना में चौंकाऊपन की बजाय इंक्लाबी राजनीति से जुड़ाव की मासूमियत का अंदाज उसे यादगार कहानी बनाता है। वैशिवक पूंजी के प्रभाव में विस्तार लेती भ्रष्ट आधुनिक चेतना संवदेन के उन क्षेत्रों से भली भांति परिचित होती है जो किसी भी नये उत्पाद को विशिष्ट पहचान देने में सहायक हो सकते हैं। समाज की उन नब्जों पर हाथ रखकर ही मुसिबतों से राहत दिलाने के नाम पर वह उपभोगतावाद को मथती रहती है और अपने उत्पाद के इस्तेमाल करने वाले के भीतर विशिष्ट हो जाने का सा भाव पल्लवित करती रहती है। उसके द्वारा मूल्य और आदर्श के झूठे खेल रचना अपनी उस चालाकी को छुपा ले जाने के लिए जरूरी होता है जो उसके मूल मंतव्यों को छुपा ले जाने में सहायक होता है। 'उत्तर प्रदेश की खिड़की की अन्तरकथा को खोलने पर पाया जा सकता है कि वह दो मुंहेपन की प्रवृत्ति, सामाजिकी और राजनीति के पक्ष में नहीं है, उन्हें तात्कालिक निशाने पर रखती है लेकिन परिदृश्य के सम्पूर्ण विभ्रम पर तीखेपन के साथ प्रहार करने की बजाय लुत्फ लेते हुए अंदाज में कथानक का विस्तार करती है। बदलाव का इंक्लाबी संघर्ष मजबूत और निरंकुश शासन व्यवस्था के होते हुए लम्बे समय तक कैसे अपनी उपसिथति को बनाये रखने वाला रहा, पाठक को उसकी वास्तविक पड़ताल करने तक को प्रेरित करने की बजाय वह अपने प्रिय पात्र उदभ्रांत की गिरफतारी के विवरणों से उसके होने को ही संदेह के घेरे में ला देती है। समझी जाने वाली बात है कि मनोगत आग्रहों से किसी राजनीति का न तो समर्थन संभव है न ही विरोध। जरूरी है कि रचनाओं में भी ऐसी घटनाओं की वस्तुपरक उपसिथति हो क्योंकि वर्तमान दौर का बिका हुआ मीडिया तो पहले ही अपनी प्राथमिकता मुनाफे के साथ तय किये है और रिपोर्टिंग के स्तर पर भी एक निशिचत पक्ष को ही रखने में माहिर है। पाठक मीडिया केे मिथ्या प्रचार के प्रभाव से पैदा होते आग्रहों से मुक्त होकर किसी राजनैतिक दिशा को ठीक तरह से समझे, लेखकीय चिन्ता के दायरे ऐसे भी तय होने चाहिए। यहां दिनेश कर्नाटक की कहानी 'मुमताज के बहाने टिप्पणी करना मुझे समीचीन लग रहा है जो साम्प्रदायिकता पर केन्द्रीत कथा है। चंद प्रचलित मुहावारों वाले संवादों के जरिये दिनेश कर्नाटक साम्प्रदायिकता विरोध की ऐसी कहानी रच रहे हैं जो ऐसे सहृदय मंसूबों के साथ है जिसमें साम्प्रदायिकता की उन्मादी लहर के उभरने के कारणों को नहीं तलाशा जा सकता।

सामाजिक रूप से बढ़ते अन्याय, असमानता, गैरबराबरी, जातीय उन्मांद और साम्प्रदायिक सिथतियों की प्रवतितयाें के यदि वर्गीय विश्लेषण किये जायें तो पायेगें कि आधुनिक हलचलों के साथ अपनी संततियों को आगे बढ़ता हुआ देखने की चाह संजोया भारतीय मध्यवर्ग जहां एक ओर उसे घुड़सवारी, तैराकी, नौकाचालन, आधुनिक से आधुनिक मशीन का परिचालन करने सकने की दक्षता से वाकिफ करने और व्यकितत्व विकास की प्रक्रिया वाली दूसरी बहुत सी शिक्षा देना चाहता रहा वहीं ठेठ पारम्परिक गुरूकलों के उस वातावरण को बनाये रखने का हिमायती हुआ जो अपने विचारों, इच्छाओं और सपनों को स्वतंत्र रूप से रखने की छूट भी नहीं देना चाहता है। द्विचितेपन के गंवर्इ आधुनिक माहौल ने न सिर्फ हिंसा और बलात्कारी स्थितियों को बढ़ाया है बलिक जमाने भर को बड़े पैमाने पर मानसिक रुग्णता में डूबते जाने को मजबूर किया है। 'काली कविता के कारनामे, विमल चंद्र पाण्‍डेय की कहानी इसलिए उल्लेखनीय है मानसिक रूगणता के खिलाफ मुखर होता स्त्री स्वर आश्वस्त करने वाला है। झूठे मानदण्ड खड़े करती शिक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाते आश्वस्ती के स्वरों का असर साफ दिखता है। ढेठे जननायको के कारनामों प्रश्न उठाती चेतना कहानी में शुरू से अंत तक दिखायी देती है। बानगी के लिए एक पूछा गया प्रश्न और दिया गया जवाब उल्लेखनीय है,

''बेटा भारतीय कि्रकेट टीम का कप्तान कौन है ?
''पता नहीं सर कोर्इ होगा, इसका हमारे पाठयक्रम से क्या मतलब है ?

गंवर्इ आधुनिकता हमेशा अपने गंवर्इपन की यादों के साथ ही आधुनिक होना चाहती है। अपने समय की ऐतिहासिक विसंगतियों पर वह बहुत आलोचनात्मक होने से बचती है बल्कि कालांतर के किसी समय को ही वर्तमान पर चस्पा किये रहती है और निष्कर्षों में बनावटी हो जाती है। लड़की के विवाह के प्रसंग पर केनिद्रत एक कहानी दीपक श्रीवास्तव की है- 'सतार्इस साल की सांवली लड़की और एक इसी शीर्षक से अभी हाल ही में 'पाखी में प्रकाशित हुर्इ हरीचरण प्रकाश की कहानी है। इक्क्सवीं सदी के दूसरे दशक में प्रकाशित होते हुए भी दीपक श्रीवास्तव की कहानी 1990 के आसपास के समय बाहर नहीं निकलती। अवांतर कथाओं की अनंत गलियों से गुजरती रहती है और अन्तत: स्त्री विमर्श के उस सीमित पाठ से आगे नहीं बढ़ पाती जो आर्थिक स्वतंत्रता में ही स्त्री विमुकित को देख रही है। हरीचरण प्रकाश की कहानी का पाठ थोड़ा भिन्न है। हालांकि हरीचरण प्रकाश जिस पाठ के साथ आते हैं वह भी दीपक श्रीवास्तव की कहानी के पाठ की तरह एक सीमित सामाजिक सिथति है तब भी देख सकते हैं कि वहां गंवर्इ आधुनिकता की फलांग लैंगिक असमानता को लांघ जाने की कोशिशों के साथ है। ऐसे ही विषय पर एक अन्य कहानी विमल चंद्र पाण्डेय की है- 'खून भरी मांग। विमल जाति और धर्म की खाइयों में धंसी समाज व्यवस्था के भीतर उतर कर कथा को रचते हैं। दहेज प्रथा जैसी सामाजिक बुरार्इ पर आधारित यह कहानी उस सार्वभौमिक यथार्थ की कहानी है जो गंवर्इ आधुनिकता के निशाने पर हमेशा से रहा है। गंवर्इ आधुनिकपन की ऐसी मिसालों को पकड़ने के लिए तीनों ही कथाकारों की कर्इ कहानियों की पृष्ठभूमियां उल्लेखनीय है। आधुनिकता की वास्तविक बयार में विकसित होता जन समाज कैसे अपने गंवर्इपन से मुक्त हो चुका होता है, दिनेश कर्नाटक की कहानी 'खाइयां के ड्राइवर से होने वाली बातचीत उसका पता देती है। कहानी का वह आखिरी संवाद जिसमें एक ऐसी सूत्रात्मकता है कि जीवन की कैसी भी जड़ताओं को ठीक से विश्लेषित करने का रास्ता दिखा रही है!

'' ड्राइवर होने के नाते ये मेरा अनुभव हुआ कि मशीन आदमी को धोखा कम ही देती है। आदमी खुद ही धोखा खा जा जाता है और अपनी गलती को छुपाने के लिए बात किस्मत पर डाल देता है।

दिनेश कर्नाटक की कहानियों के विषय की केन्द्रीयता पहाड़ी युवाओं के भीतर मचलती सतरंगी दुनिया के आकर्षण को भी अपने में समेटती है। वालीवुड के बीच खुद की सिथति को देखने वाले शंकर जैसे पात्र फिल्मी दुनिया के सच को जीवन की कथा बनाना चाहते हैं लेकिन उन मजबूत किवाड़ों को खोलने में अक्षम है जो अवसरों के फर्श से चमचमाते कमरे के रूप में बंद पड़े होते हैं। कुंठा, हताशा में डूब जाने को मजबूर करती स्थितियां उन्हें उसी जीवन में वापिस लौटने को मजबूर करती है जिससे निकल भागने को वे हर वक्त मचलते रहते हैं। मध्य वर्गीय आधुनिकता ने पिछड़ी पृष्ठभूमि के हार खाये युवाओं के भीतर ऐसी कुंठाओं को जन्म दिया ह,ै जिसमें खुद की सिथतियों पर सहानुभूति से भरी कोर्इ आवाज भी उन्हें तंज लगती है। तिलमिलाहट में वे अपने करीबी के प्रति भी नफरत से भरे रहते हैं। वहीं दूसरी ओर उच्श्रंृखल किस्म का वातावरण का निर्माण करती युवा चेतना को ही नये युग की शुरूआत माना जाता रहा।

आधुनिकता के प्रतीक निर्मिति की भव्यताओं में शहरीपन का सबब हुए हैं। 'बड़े लोगों का पार्क, विशिष्ट जीवन शैली के रूप में उभरा है जिसने आम जनमानस की सार्वजनिकता पर हमला किया है। प्रतिरोध का गंवर्इपन क्यों जगह न पाये फिर ? ऐसे ही प्रतिरोधों को आकार देती दीपक श्रीवास्तव की कहानी भ्रष्ट आधुनिकता के साथ बढ़ते वर्गीय विभाजन को रखने में कोतार्इ नहीं बरतती है। प्रतिरोधों के जनवादी, प्रगतिशील सामान्तरी और दलित अंदाज का उत्कृष्ट नमुना कहानी को यादगार बनाता है। यह देखना दिलचस्प है कि जश्न का झूठ उस गंवर्इ आधुनिकता को ही मुखरित करता है जो भ्रष्ट मध्यवर्गीय आधुनिकता का रास्ता पकड़ती है। दीपक श्रीवास्तव कहानी 'पिशाचों की उर्वशी हो चाहे 'प्रेम का उपरांत दोनों ही कहानियों के संकेत स्पष्ट हैं कि भ्रष्ट मध्यवर्गीय आधुनिकता पद और प्रतिष्ठा की सार्वजनिक भूमिकाओं में बेहद शालीन और सभ्य दिखायी दे रही हो पर अपने एकांत में वे बेहद वाहियात होती हैं। दलाल मानसिकता में विकसित होती यह आधुनिकता मूल रूप से लम्पट होने की प्रवृतित के साथ होती है। 'प्रेम के उपरांत कहानी ये संकेत भी कर रही है कि गैर उत्पादक गतिविधियों के दम पर बाजार के उतार चढ़ाव को ही प्रमुख मानने वाली कुशलता के अर्जन के बावजूद भी बाजार की चालाकियों से लड़ना आसान नहीं। साम्राज्यवादी मूल्यों का अटटाहास प्रतिरोध की बजाय स्थितियों से पलायन को ही प्रमुख मान लेने के साथ है।

यूं पीडि़त का पक्ष बनते हुए ही गंवर्इ आधुनिकता का आलोक साहित्य और कलाओं में प्रगतिशीलता के दायरे तय करता रहा है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि नैतिक रूप से वंचित का पक्षधर होते हुए भी गंवर्इ आधुनिकता वैचारिक विभ्रम को पूरी तरह से चिहिनत न कर पाने की सीमा के साथ होती है और वैचारिक शुद्धता की मांग करते हुए भी बदलाव के निर्णायक संघर्षों की दिशा का पक्ष नहीं चुन पाती। कारणों की तलाश समाज के विस्तृत अध्ययन के सर्वेक्षण और सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक दायरे में तलाशे जा सकते हैं। साहित्य के भीतर उसकी उपसिथति को रचनाओं की पृष्ठभूमि, पात्रों के सृजन, भाषायी और शिल्पगत कौशल और प्रबल रूप से मौजूद रचनात्मक हस्तक्षेप के अध्ययन से पाया जा सकता है।
                    

Saturday, August 22, 2015

क्या ऐसे प्यार किया

अनेक चर्चित कविता संकलनों के रचयिता टोनी हॉगलैंड ने 2003 में "द चेंज" शीर्षक से एक कविता लिख कर सेरेना विलियम्स के "बड़े ,काले और किसी धौंस में न आने वाले शरीर" पर कटाक्ष कर के अश्वेत समुदाय की प्रचुर आलोचना झेली। एक दशक से ज्यादा समय से अविजित टेनिस किंवदंती सेरेना विलियम्स को खेल और ग्लैमर के लिए जाना जाता रहा है पर बहुत कम लोगों को खबर है कि 2008 में उन्होंने एक प्रेम कविता भी लिखी और अपने आधिकारिक वेबसाइट पर लोगों को पढ़ने के लिए प्रस्तुत  भी की। ज़ाहिर है, कविता और प्रेम दोनों किसी ख़ास वर्ग की बपौती नहीं हैं ………  

क्या पहले कभी ऐसा प्यार किया
कि बात बात में आने लगे रुलाई?
क्या पहले कभी ऐसा प्यार किया
कि हमेशा के लिए मुल्तवी कर दी जाये मौत भी?
ऐसा जो नहीं किया
तो कैसे रह पाओगी उसके साथ साथ ?

क्या पहले भी प्यार का एहसास मन में जागा
प्यार जो खरा निर्विकार है
क्या पहले भी प्यार का एहसास मन में जागा
प्यार जो इतना भरोसा पैदा कर दे
अपने आप पर
अपनी शक्ति पर
अपनी समझ पर ?

कभी किसी को इतना प्यार किया
कि उनके हाथ सौंप दो अपने जीवन की पतवार ?
कभी किसी को इतना प्यार किया
कि उनके ऊपर न सिर्फ़ मचल मचल आये दिल
बल्कि फूट फूट आये उनपर प्यार की धार
खुल जाये जिनके सामने सारी गाँठें
और बन जाओ एकदम उन्मुक्त ?

कभी किसी के लिए प्यार सिर चढ़ कर बोला
कि छाया की तरह ख़्वाहिश होने लगे उसके साथ की पल पल ?
कभी किसी के लिए प्यार सिर चढ़ कर बोला
कि उसके लिए नामुमकिन हो जाये कुछ भी इनकार कर देना
भीख , उधारी से लेकर चोरी तक सबकुछ
खाना पकाओ, पहिये साफ़ करो .... सब कुछ ?

 
कभी किसी को इतना प्यार किया
कि घर से बाहर निकलो और चिल्ला चिल्ला कर
इसकी बाबत सुना डालो सारी दुनिया को ?
कभी किसी को इतना प्यार किया
कि विस्मृत हो जाये मन से अच्छा बुरा
दूसरे सबने जो कहा अबतक … सब कुछ ?
चाहत यह कि बस थामे रहे तुम्हें प्रिय हर पल
और डाँट भी लगाये जब जब हो जाये कोई गलती
पर इज्ज़त और अपनेपन से?
वह प्यार से तुम्हें सँभाल लेगा बड़ा बन कर
जितना ही गहरा जायेगा प्यार में

प्यार बड़ा  है प्रबल
प्यार में है बहुत जोर
और  जब मिल जाये प्रिय कोई ऐसा
कर नहीं सकता कोई बाल बाँका
खुल कर प्यार करो तोड़ कर सारी सीमायें
वैसे ही जैसे गाड़ी करती हो स्टार्ट पहली पहली बार
फिर प्यार भी जी जान से करेगा हिफ़ाज़त तुम्हारी।  
                                ( प्रस्तुति : यादवेन्द्र )
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Sunday, August 16, 2015

कहानी पाठ

ब‍हुत दिनों बाद एक ऐसी कहानी पढ़ने को मिली जिसे जोर जोर से उव्‍वारित करके पढ़ने का मन हुआ। यह कहानी के कथ्‍य की खूबी थी या उसका शिल्‍प ही ऐसा था कि उसे उच्‍चारित करके पढ़ने का मन होने लगा, इस बहस में नहीं पढ़ना चाहता। लीजिए आप भी सुनिए।

  

Friday, July 31, 2015

अनजाना फासीवाद


लोकतंत्र का मतलब इतना ही नहीं कि किसी भी संस्‍था के हर फैसले को किसी भी कीमत पर उचित ही मान लिया जाए। वैधानिक ढांचे के कायदे से चलती संस्थाओं की कार्यशैली और निर्णय भी। उन पर स्‍वतंत्र राय न रख पाने की स्थितियां पैदा कर देना तो नागरिक दायरे को तंग कर देना है। स्‍वतंत्र राय तो जरूरी नागरिक कर्तव्‍य है, जो वास्‍तविक लोकतंत्र के फलक को विस्‍तार देती है। सहमति और असहमति की आवाज को समान जगह और समान अर्थों में परिभाषित करने से ही लोकतंत्र का वास्‍तविक चेहरा आकार ले सकता है। ऐसे लोगों का सम्‍मान किया जाना चाहिए जो बिना धैर्य खोये भी असहमति के स्‍वर को सुनने का शऊर रखते हैं। सम्‍मान उनका भी होना चाहिए जो बेलाग तरह से नागरिक कर्तव्‍य को निभाने में अग्रणी होते हैं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया को वास्‍तविक ऊंचाईयों तक पहुंचाने में ऐसी दृढ़ताएं महत्‍वपूर्ण साबित होती हैं।
आदरणीय कलाम साहब, भूतपूर्व राष्‍ट्रपति की लोकप्रियता को कोई दाग नहीं लगा सकता। उनका घोर विरोधी भी नहीं। वे सादगी पसंद, भारत के ऐसे राष्‍ट्रपति थे, टी वी पर जिन्‍हें कई बार स्‍कूली बच्‍चों के बीच देख मन प्रफुल्लित हो जाता था। अन्‍य मौकों पर भी उनकी सहजता, सरलता की ऐसी तस्‍वीरें देखते हुए उनके प्रति आदर उमड़ता था, यह कोई आश्‍चर्य की बात नहीं। उनके व्‍यक्तित्‍व में एक सच्‍चे नागरिक का तेज नजर आता था। वे विज्ञान के अध्‍येता थे, वैज्ञानिक थे, यह कोई छुपा हुआ तथ्‍य नहीं। लेकिन उनके वैज्ञानिकपन को अनुसंधान के शास्‍त्रीय पक्ष के साथ पहचान करती आवाज पर हिंसक हो जाना,  लोकतंत्र का मखौल बना देना है। सहमति के संतुलन की ऐसी आवाज से असहमति रखना लोकतंत्र की खासियत हो सकता है, वाजिब भी है। लेकिन हिंसक हो जाना तो अनजाने में ही हो चाहे, फासीवादी मूल्‍यों का ही समर्थन है।
न्‍याय के विभिन्‍न रूपों में फांसी सबसे बर्बर अंदाज है, यह कहना भी लोकतंत्र का पक्ष चुनना है और वैश्विक दृष्टि का पक्षधर होना है। अंधराष्‍ट्रवादी निगाहें यहां भी विरोध के फासीवादी चेहरे में नजर आती हैं।
आश्‍वस्ति की स्थिति हो सकती है कि खुद के भीतर उभार ले रहे फासीवाद को पहचानना शुरू हो और अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के स्‍वस्‍थ लोकतंत्र की दिशा निश्चित हो।     
-- विजय गौड