Monday, October 3, 2016

क्लिक्टिविज़्म

चाय की प्याली में तूफ़ान


यादवेन्‍द्र 


अभी अभी ऑक्सफ़ोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी ने अपने नए एडिशन में करीब बारह सौ नए शब्द सम्मिलित किये हैं।संपादकों का कहना है कि नीतिगत तौर पर आम तौर पर वे कोई नया  शब्द तब स्वीकार करते हैं जब दस सालों तक उसका सार्वजनिक प्रयोग करने की सकारात्मक प्रतिक्रियाएँ उनतक पहुँचती हैं। अभी शामिल नए शब्दों में एक शब्द है "क्लिक्टिविज़्म" (cliktivism) जिसका अर्थ है बगैर किसी सीधे प्रत्यक्ष प्रदर्शन में हिस्सेदारी किये इंटरनेट या सोशल मीडिया के प्रचलित उपकरणों के माध्यम से किसी राजनैतिक या सामाजिक मुद्दे का समर्थन करना।अनेक विचारक विरोध प्रदर्शन के इस मार्केटिंग औजार को लोकतंत्र के लिए प्रतिगामी मानते हैं क्योंकि यह आम आदमी को पारम्परिक ( जो सदियों से आजमाया हुआ कारगर तरीका भी है ) शैली के एक्टिविज़्म से विमुख करता है।प्रसिद्ध इतिहासकार रॉल्फ़ यंग ( जिनकी किताब "डिसेंट : द हिस्ट्री ऑफ़ ऐन अमेरिकन आइडियल" हाल में खूब चर्चा में आयी है)कहते हैं कि "टेक्नॉलॉजी प्रतिरोध का महत्वपूर्ण औजार है पर इन दिनों यह देखने में आया है कि कुछ लोग "क्लिक्टिविज़्म" जैसी गतिविधियों में शामिल हो जाते हैं - किसी बात के पक्ष में "लाइक" क्लिक कर के समर्थन व्यक्त करते हैं -पर यह कृत्य कुछ हज़ार लोगों के सड़क पर निकल कर डंडे और आँसू गैस की मार झेलते हुए विरोध प्रदर्शन करने की कतई बराबरी नहीं कर सकता। मुझे लगता है कि ऐक्टिविस्ट और मिलिटेंट लोगों को टेक्नॉलॉजी का सोच समझ कर और जमीनी तौर पर असर पैदा करने वाले ढंग से उपयोग करना चाहिए। "

Monday, September 19, 2016

नदी गुमसुम क्यों हो गयी

85 वर्षीय ज़करिया तामेर सीरिया के दुनिया भर में लोकप्रिय कथाकार हैं जिनकी रचनाएं अनेक भाषाओं में अनूदित हुई हैं,अंग्रेज़ी में उनके तीन कहानी संकलन प्रकाशित हुए।वे कहानी को साहित्यिक अभिव्यक्ति का सबसे मुश्किल स्वरुप मानते हैं और मानव त्रासदी और शोषण को अपनी रचनाओं का मुख्य स्वर बनाते हैं।उनकी कुछ कहानियां तो तीस चालीस शब्दों तक सीमित हैं। मैंने ज़करिया तामेर की अनेक कहानियों के अनुवाद किये हैं। वर्तमान कहानी भले ही फ़ेबल जैसी लगती हो पर विषय वस्तु के दृष्टिकोण से भारतीय समाज में सिर उठा रही असहिष्णुता और तलवारभाँजी पर सटीक टिप्पणी करती है - हमारी पीढ़ी का दायित्व है कि नदी हताश होकर गुमसुम होने का फैसला करे इस से पहले सक्रिय संघर्ष छेड़ के आततायी को भगाने का संकल्प लें।

प्रस्‍तुति : यादवेन्‍द्र 


ज़करिया तामेर 


एक समय था जब नदी बात करती थी.... जो बच्चे उसके किनारे पानी पीने या हाथ मुँह धोने आते उनसे नदी खूब घुलमिल कर बातें करती। वह  अक्सर बच्चों को छेड़ने के लिए उनसे सवाल करती :"अच्छा बोलो ,धरती सूरज के चारों ओर घूम रही है .... या सूरज धरती के चारों ओर ?"
पेड़ों की जड़ें सींचना  और उनके पत्ते हरे भरे बनाये रखना नदी  को अच्छा लगता था... गुलाब मुरझा न जाएँ इसको ध्यान में रखना और दूर देशों तक उड़ कर जाने वाले  परिंदों की यात्रा शुरू करने से पहले प्यास बुझाना उसको बहुत भाता था। बिल्लियों के साथ वह  खूब छेड़छाड़ भी करती जब वे नदी किनारे आकर पानी उछालते हुए उधम करतीं। 
एकदिन सारा मंजर बदल गया ,पथराई शक्ल वाला एक आदमी तलवार लेकर वहाँ आ पहुँचा और अकड़ कर बैठ गया कि उसकी इजाज़त के बगैर कोई भी नदी का पानी नहीं पियेगा - चाहे बच्चे हों ,पेड़ पौधे हों ,गुलाब हो या कि बिल्लियाँ हों। उसने फ़रमान सुनाया कि अब से नदी का मालिक सिर्फ़ वह है कोई और नहीं। 
नदी तुमक कर बोली : मैं किसी की मिल्कियत नहीं हूँ। 
एक बूढ़ा पक्षी बोला : इस धरती पर कोई प्राणी ऐसा नहीं जन्मा है जो दावा करे कि नदी का पूरा पानी मैं पी जाऊँगा। 
पर तलवारधारी व्यक्ति किसी की सुनने को तैयार नहीं था - नदी या बूढ़े पक्षी की बात का उसपर कोई असर नहीं हुआ। भारी भरकम रोबीली आवाज़ में उसने हुक्म दिया : अब से नदी का पानी जो भी पीना चाहेगा उसको मुझे सोने की एक अशर्फ़ी देनी पड़ेगी। 
सभी परिन्दे मिलकर बोले : हम तुम्हें दुनिया के सबसे खूबसूरत गीत गाकर सुनायेंगे। 
आदमी बोला : मुझे दौलत चाहिये ,संगीत तुम अपने पास ही रखो...मुझे नहीं चाहिए। 
पेड़ बोले : हम अपने फलों की पहली फसल तुम्हें दे देंगे। 
आदमी अकड़ कर बोला ; जब मेरा मन करेगा फल तो मैं वैसे भी खाऊँगा ही.. देखता हूँ  मुझे कौन रोकता है।
गुलाब एक स्वर में बोले : हम अपने सबसे सुंदर फूल तुम्हें दे देंगे। 
आदमी ने जवाब दिया : कितने भी सुंदर हों पर मैं उन फूलों का करूँगा क्या ?
बिल्लियां बोलीं : हम तुम्हारे मनोरंजन के लिए तरह तरह के खेल खेलेंगे ... और रात में तुम्हारी देखभाल भी करेंगे। 
आदमी को गुस्सा आ गया : खेल कूद से मुझे सख्त नफ़रत है ... और रही मेरी हिफ़ाजत की बात तो यह तलवार ही मेरा पहरेदार है  जिसका  मैं भरोसा करता हूँ। 
अब बच्चों की बारी थी ,बोले : हम वह सब करेंगे जो तुम कहोगे। 
बच्चों की ओर हिकारत से देखते हुए आदमी बोला : तुम सब मेरे किसी काम के नहीं मरगिल्लों... तुम्हारे बदन में कोई जान नहीं है। 
उसकी बातें और धिक्कार सुनके सब के सब मुँह लटका कर एक तरफ़ खड़े हो गए ,पर वह आदमी बोलता रहा : बात एकदम पक्की है ,नदी का पानी जिसको भी पीना हो वह मुझे सोने की अशर्फ़ी दे और पानी पी ले। 
एक नन्हा पक्षी प्यास से बेहाल हो रहा था और वह सब्र नहीं कर पाया ,उसने नदी का पानी पी ही लिया। आदमी उसके पास आया , कस कर उसको मुट्ठी में मसलने लगा और फिर तलवार से टुकड़े टुकड़े काट कर ज़मीन पर फेंक दिया।
उसकी दरिंदगी देख कर गुलाबों को रुलाई आ गयी ,पेड़ रोने लगे , पक्षी भी अपना धीरज खो बैठे , बिल्लियाँ भी स्यापा करने लगीं... बच्चे भला कहाँ पीछे रहते ,वे भी जोर जोर से रोने लगे। उनमें से कोई नहीं था जिसके पास एक भी अशर्फ़ी हो ,और पानी के बगैर उनका जीवन बचना असंभव था। और तलवारधारी आदमी था कि अपनी ज़िद पर कायम था ,पानी तभी मिलेगा जब सोने की अशर्फी के तौर पर उसको उसकी कीमत मिलेगी। देखते ही देखते गुलाब मुरझा गए ,पेड़ पौधे सूख गए ,पक्षी जान बचाने की ख़ातिर जहाँ तहाँ चले गए ,हँसते खेलते बच्चे और बिल्लियां सब वहाँ से गायब हो गए। इस दुखभरी वीरानी ने नदी को इतना हतोत्साहित किया कि उस दिन से उसने अपना मुँह सी लिया - उसने फैसला किया कि अब वह बोलेगी नहीं पूरी तरह गुमसुम रहेगी।
कुछ दिन ऐसे वीराने बीते पर बच्चों बिल्लियों गुलाबों पेड़ों और पक्षियों को प्यार करने वाले लोग वहाँ लौट आये - उन्होंने तलवारधारी आदमी के साथ लड़ाई की और उसको मिलजुल कर वहाँ से मार भगाया। उन्होंने नदी का पानी पहले जैसा सबके लिए मुहैय्या करा दिया - बगैर कोई कीमत अदा किये सब उसका पानी पी सकते थे। पर सब कुछ बदल जाने के बाद भी नदी की आवाज़ नहीं लौटी। लोगों ने बहुतेरा हौसला दिया पर नदी बीच बीच में अचानक घबरा कर थरथराने लगती है - उसके मन से तलवारधारी का खौफ़ गया नहीं। ... नदी को लगता है कभी भी वह आततायी लौट आएगा। 

Tuesday, August 23, 2016

लंबी दूरी के धावक का अकेलापन

पिछले दिनों पढ़ते हुए मेरे हाथ एक अनूठी सी बेहद छोटी कविता हाथ आयी। संयोग से कुछ शब्दों वाली इस कविता का शीर्षक ऐसा था जिसने मेरा ध्यान एकदम से खींच लिया - लंबी दूरी के धावक का अकेलापन। इसको पढ़ते हुए मुझे बार बार लगा कि दूर के निशाने साधने के लिए कितनी कुशल कारीगरी और फ़ोकस की दरकार होती है। प्रचुर मात्रा में कवितायें ,उपन्यास और नाटक लिखने वाले कनाडा के प्रसिद्ध कवि एल्डेन नोव्लेन - एक संघर्षशील परिवार में उनका बचपन मुश्किलों और घनघोर अकेलेपन में बीता और लम्बी दूरी तय कर चोरी चोरी लाइब्रेरी से किताबें लेकर वे साहित्य की ओर उन्मुख हुए। पूरे जीवन में उनको कभी साल भर की स्थायी नौकरी नहीं मिल पायी ..... कोई गाड़ी खरीदने की कभी उनकी औकात नहीं हुई, न उन्हें ड्राइविंग आयी। एल्डेन कहते भी हैं कि "इस मुसीबत में मेरे पास तीन रास्ते थे - पागलपन , मौत या कविता"- ज़ाहिर है उन्होंने कविता का रास्ता चुना। पर इस मुफलिसी में भी एल्डेन नोव्लेन ने उम्मीद का साथ कभी नहीं छोड़ा।उनकी कुछ पंक्तियाँ यहाँ उदधृत हैं ।
(प्रस्तुति : यादवेन्द्र)

मैंने , एक इंसान ने , मौत तक को पालतू बना लिया।

*******************मैं बुढ़ा ज़रूर गया हूँ
पर जादू टोना जानता हूँ
और जा घुसा हूँ
एक जवान आदमी के शरीर के अंदर .....
****************
मैं कविता को आवाज़ लगाता हूँ
और वह है कि मुस्कुरा कर कहती है :
तुम कभी सयाने नहीं हुए ....
**********************
कितना अच्छा है कि
हम साझा करते हैं धरती को तमाम जीवों के साथ ...
कितना अकल्पनीय होता
कि मैं जन्म न लेता 
और अनुपस्थित हो जाता यह संग साथ ....
*********************
कोई बच्चा जिस दिन समझ लेता है
कि सभी वयस्क आधे अधूरे दोषपूर्ण हैं
वह किशोर हो जाता है ...
जिस दिन वह उनको माफ़ कर देता है
वह बच्चा नहीं रहता वयस्क हो जाता है
और जिस दिन ऐसा करने के लिए
वह स्वयं को माफ़ कर देता है
बच्चा बुद्धिमान हो जाता है।
***********************
मुझे यह ईश निंदा जैसा कृत्य लगता है
कि कवितायें लिखी जायें
उन दुखों के बारे में
जिन्हें महसूस ही न किया गया हो ....
******************

लंबी दूरी के धावक का अकेलापन


मेरी पत्नी आ धमकी कमरे में
जहाँ मैं लिखने में तल्लीन था
प्रेम कविता
उसी के लिए .....
और अब जब वह कविता
एकदम से लुप्त हो गयी
मन ही मन
बैठा बैठा कोस रहा हूँ
मैं अब उसी को ....

Tuesday, July 12, 2016

सर्दी देखूँ या सर्दी का बाज़ार देखूँ

कुमांऊनी चेली’ ब्लाग चलाने वाली शैफाली पाण्‍डे की ये कविताएं अपने ही तरह की हैं जिनका रंग स्थितियों से चुटकी लेते हुए खिला है। गम्भीर मिजाज की कविताओं से इनका रिश्ता इसी कारण कुछ जुदा है, वरना प्रतिरोध की आवाज यहां भी हर वक्ता सुनी जा सकती थी। शैफाली को पढ़ते हुए इस बात का एक सुखद अहसास मिलता है कि रोजमर्रा की बहुत सी स्थितियों पर चुटकी लेते हुए भी कविता के शिल्प में बात की जा सकती है । प्रस्तुतत हैं उनके प्रकाशनाधीन संग्रह से कुछ कविताएं।
वि.गौ.



खेल रंग की जंग

मत देख लंका, मत देख इटली
मत देख दंगा, मत ले पंगा
मत देख भूख, मत देख रसूख
मत देख गरीबी, मत देख फरेबी।

मत सुन कराह, मत सुन आह
मत सुन धमकी, मत सुन भभकी
मत सुन महंगाई, मत सुन काली कमाई
मत सुन भ्रष्टाचार, मत सुन व्यभिचार।

मत कह मेरी मर्जी, मत कह एलर्जी
मत कह शुगर, मत कह ब्लडप्रेशर
मत कह केमिकल, मत कह हर्बल
मत कह बुखार, मत कह अगली बार।

आज बस झूम झूम कर गाले होली
आज बस झूम-झूम कर सुन ले होली
आज बस झूम झूम कर देख ले होली
सखी-सहेली, पास-पड़ोसी या प्रियतम के संग
खेल रंग की जंग, बस तू खेल रंग की जंग।

सुगम बनाम दुर्गम

दुर्गम..........

साफ़-सुथरी आबो-हवा
मीठा-मीठा ठंडा पानी
शुद्ध है दूध दही यहाँ
लौट के आए गई जवानी|

घर-गृहस्थी का जंजाल नहीं
बीवी-बच्चों का मायाजाल नहीं
सब्जी लाने को मना कर दे
ऐसा माई का कोई लाल नहीं|

स्नेह प्रेम और मान मिलेगा
आँखों में सम्मान मिलेगा
आप पढ़ा रहे उनके बच्चे
हर दिल में यह एहसान मिलेगा|

अफसर की फटकार नहीं
छापों की भरमार नहीं
छुट्टी को अर्ज़ी की दरकार नहीं
एक दूजे के के करने में साइन
हम जैसा फ़नकार नहीं|

दूर पहाड़ों पर हम
चढ़ते और उतरते हैं
हर बीमारी को अपनी
मुट्ठी में रखते हैं
और जिस घर से जा गुज़रते हैं
डिनर के बाद ही उठते हैं|

यहाँ पढना क्या पढ़ाना क्या
जोड़ क्या घटना क्या
कहाँ की घंटी वादन कैसा
धेले भर का खर्च नहीं
खाते में पूरा पैसा|

सुगम.......................

मीडिया, पत्रकार, रिपोर्टर
एक टीचर हज़ार नज़र
अफसरों का सुलभ शौचालय
पिघलता नहीं कभी उनकी
शिकायतों का हिमालय|

हर आहट पर दिल
काँपता ज़रूर है
कुत्ता भी गुज़रे सड़क से
एक बार झांकता ज़रूर है|

कोई सफ़ेद गाड़ी
दूर से भी दे दिखाई
डाउन हो जाए शुगर
ब्लड प्रेशर हाई|

अभिभावक हैं अफसर
हर छुट्टी पर रखें नज़र
फ्रेंच की बात तो दूर रही
कैजुअल पर भी टेढ़ी नज़र|

पाई-पाई का हिसाब दीजिये
एक दिन की सौ डाक दीजिये
राजमा की जगह छोले
बच्चा कापी किताब ना खोले
दो-दूनी चार ना बोले
तब भी आप ही जवाब दीजिये|

रोज़-रोज़ नित नए प्रशिक्षण
सुबह से शाम की कार्यशाला
सिवाय पढ़ाने के बच्चों को
बाकी सब है कर डाला|

हर साल ट्रांसफर की तलवार
सिर में लटकती है
सुगम की नौकरी साथियों
सबकी आंख में खटकती है|

अतः ........................

सुगम के माने सौ - सौ ग़म, यह मान लीजिये
दुर्गम माने दूर हैं गम, यह  जान लीजिये|


सर्दी देखूँ या सर्दी का बाज़ार देखूँ .......

रंग-बिरंगे स्वेटर
टोपी, जैकेट, मफलर
शाल, मोज़े, दस्ताने
गरम इनर, पायजामे
जूते और कोट से जगह जगह
पटा हुआ बाज़ार देखूं।
सर्दी देखूं या सर्दी का बाज़ार देखूं?

बकरे की जान
मुर्गे की टांग
मछली के पकौड़े
अण्डों की बिक्री ने
पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़े
सब्जी-फल गर्मी के हवाले
फल-फूल रहा सर्वत्र
मांसाहार देखूं।
सर्दी देखूं या सर्दी का बाज़ार देखूं?

गजक, रेवड़ी, लड्डू
मूंगफली, पकौड़ी, हलवा
जिसकी जेब में माल भरा हो
मौसम भी देखे उसका जलवा
दो दिन के इस मेहमान का
शाही स्वागत-सत्कार देखूं।
सर्दी देखूं या सर्दी का बाज़ार देखूं?

कॉफ़ी, सूप, चाय
अद्धी, व्हिस्की, रम
जितनी भी पी लो
लगती है कम
पानी की किल्लत
शराब की इफरात में
बह रहे देश के भावी
कर्णधार देखूं।
सर्दी देखूं या सर्दी का बाज़ार देखूं?

गठिया, दमा, जोड़ों के दर्द
जानलेवा बन गए दिल के सारे मर्ज़
हीटर, गीज़र, ब्लोअर, इन्हेलर
कम्बल, थुलमे, गर्म रजाई
ठंडक सीधी हड्डी तक घुस आई
खबर से ज्यादा इन दिनों
शोक वाले समाचार देखूँ।
सर्दी देखूं या सर्दी का बाज़ार देखूं?

क्रीम की गहरी पर्तें हैं
सौन्दर्य की अपनी शर्तें हैं
होंठों की रक्षा, पैरों की सुरक्षा
रेशम सी चिकनी और मुलायम
त्वचा के पीछे
संवेदनाओं का सूख चूका
संसार देखूं।
सर्दी देखूं या सर्दी का बाज़ार देखूं?

ये सर्दी के मेले
मेले में कुछ लोग अकेले
इन लोगों का
रैन बसेरों में सिमटा
कम्बल में लिपटा
चौराहों के अलाव में
माँ की गोद में चिपटा
दूसरा ही संसार देखूँ
सर्दी देखूँ या सर्दी की धार देखूँ.......

मौसम की मार से ज्यादा
मौसम का कारोबार देखूँ

 
खेल रंग की जंग

मत देख लंका, मत देख इटली
मत देख दंगा, मत ले पंगा
मत देख भूख, मत देख रसूख
मत देख गरीबी, मत देख फरेबी।

मत सुन कराह, मत सुन आह
मत सुन धमकी, मत सुन भभकी
मत सुन महंगाई, मत सुन काली कमाई
मत सुन भ्रष्टाचार, मत सुन व्यभिचार।

मत कह मेरी मर्जी, मत कह एलर्जी
मत कह शुगर, मत कह ब्लडप्रेशर
मत कह केमिकल, मत कह हर्बल
मत कह बुखार, मत कह अगली बार।

आज बस झूम झूम कर गाले होली
आज बस झूम-झूम कर सुन ले होली
आज बस झूम झूम कर देख ले होली
सखी-सहेली, पास-पड़ोसी या प्रियतम के संग
खेल रंग की जंग, बस तू खेल रंग की जंग।

सुगम बनाम दुर्गम

दुर्गम..........

साफ़-सुथरी आबो-हवा
मीठा-मीठा ठंडा पानी
शुद्ध है दूध दही यहाँ
लौट के आए गई जवानी|

घर-गृहस्थी का जंजाल नहीं
बीवी-बच्चों का मायाजाल नहीं
सब्जी लाने को मना कर दे
ऐसा माई का कोई लाल नहीं|

स्नेह प्रेम और मान मिलेगा
आँखों में सम्मान मिलेगा
आप पढ़ा रहे उनके बच्चे
हर दिल में यह एहसान मिलेगा|

अफसर की फटकार नहीं
छापों की भरमार नहीं
छुट्टी को अर्ज़ी की दरकार नहीं
एक दूजे के के करने में साइन
हम जैसा फ़नकार नहीं|

दूर पहाड़ों पर हम
चढ़ते और उतरते हैं
हर बीमारी को अपनी
मुट्ठी में रखते हैं
और जिस घर से जा गुज़रते हैं
डिनर के बाद ही उठते हैं|

यहाँ पढना क्या पढ़ाना क्या
जोड़ क्या घटना क्या
कहाँ की घंटी वादन कैसा
धेले भर का खर्च नहीं
खाते में पूरा पैसा|

सुगम.......................

मीडिया, पत्रकार, रिपोर्टर
एक टीचर हज़ार नज़र
अफसरों का सुलभ शौचालय
पिघलता नहीं कभी उनकी
शिकायतों का हिमालय|

हर आहट पर दिल
काँपता ज़रूर है
कुत्ता भी गुज़रे सड़क से
एक बार झांकता ज़रूर है|

कोई सफ़ेद गाड़ी
दूर से भी दे दिखाई
डाउन हो जाए शुगर
ब्लड प्रेशर हाई|

अभिभावक हैं अफसर
हर छुट्टी पर रखें नज़र
फ्रेंच की बात तो दूर रही
कैजुअल पर भी टेढ़ी नज़र|

पाई-पाई का हिसाब दीजिये
एक दिन की सौ डाक दीजिये
राजमा की जगह छोले
बच्चा कापी किताब ना खोले
दो-दूनी चार ना बोले
तब भी आप ही जवाब दीजिये|

रोज़-रोज़ नित नए प्रशिक्षण
सुबह से शाम की कार्यशाला
सिवाय पढ़ाने के बच्चों को
बाकी सब है कर डाला|

हर साल ट्रांसफर की तलवार
सिर में लटकती है
सुगम की नौकरी साथियों
सबकी आंख में खटकती है|

अतः ........................

सुगम के माने सौ - सौ ग़म, यह मान लीजिये
दुर्गम माने दूर हैं गम, यह  जान लीजिये|

उसका बलात्कार होगा....


वह आकाश में उडती है। पानी में तैरती है| उसने पर्वतों पर जीत की पताकाएँ फहराईं हैं। अन्तरिक्ष ने उसके हौसलों की गाथाएं गाईं हैं। भीग गया पर फिर भी परवाज़ किया उसने। टूट गया दम फिर भी आगाज़ किया उसने।
उसका भी होगा बलात्कार….

वह कायदों पे चलती है। नियम - -क़ानून से रहती है। उसूलों पर कड़क रहती है। हिम्मत के इतिहास में नित नया अध्याय लिख रही है। सही को सही, गलत को गलत कह रही है। जब पडी ज़रुरत, रणचंडी सा रूप धरा उसने। किसी कीमत पर भी समझौता किया उसने। आज उसके आगे सिर झुकाना मजबूरी है| घर हो या बाहर, उसकी उपस्थिति हर हाल ज़रूरी है।
उसका भी होगा बलात्कार....

उसके हाथों में स्कूटर, मोटरसाइकिल, जहाज और कार है| ऊँचे से ऊँची नौकरी, बड़े से बड़ा व्यापार है| बैंक बैलेंस तगड़ा है, घर है कोठी है, बँगला है। पुरुष के वह कंधे से कन्धा मिलाती है। उसका सहारा लेकर उससे भी आगे बढ़ जाती है। हर बड़े पद पर उसकी सूरत दिख जाती है। रात-दिन जी तोड़ काम करती है। मेहनत को उसकी सारी दुनिया सलाम करती है।
उसका भी होगा बलात्कार...

उसने अकेले बच्चों को पाला। माँ-बाप, भाई-बहिन को सम्भाला| सास-ससुर को मान दिया। रिश्तेदारों को सम्मान दिया। सबके सुख-दुःख में काम आती है। सारे रिश्ते, सारे नाते अकेले निभा ले जाती है। अब उसका भी अपना एक नाम है। कहीं -कहीं तो पत्नी का नाम ही पति की पहिचान है।
उसका भी होगा बलात्कार...

वह इतनी मगरूर है। पिट जाने पर भी बोलती ज़रूर है| उसके मुंह पर जुबां गयी है। समझने और सोचने की अक्ल गयी है| खुद पर उठते हाथों को रोक लेती है| गलत हो कोई तो भरी सभा में टोक देती है| अधिकार की बात करती है| काम के बदले पगार की बात करती है। हर बात पर तर्क करती है। अच्छे-बुरे पर खुद फर्क करती है। 
उसका भी होगा बलात्कार....

वह लजाती, शर्माती, सकुचाती नहीं है| चूहे, कॉकरोच, छिपकली से भय खाती नहीं है| खाट की तरह अब बिछती नहीं है। दबी, कुचली, डरी, सहमी दिखती नहीं है| अपने शरीर पर अपना हक़ मांगती है। गंदी से गंदी नज़र को झेलती है। तेज़ाब से जब जल जाती है, शक्लो--सूरत तक गल जाती है, फिर भी जुल्मो-सितम की दास्ताँ दुनिया को बतलाने बाहर निकल जाती है।
उसका भी होगा बलात्कार....

पढ़ाई को शादी पर अब कुर्बान नहीं करती। नौकरी की कीमत पर समझौता नहीं करती।  आए पसंद तो रिश्ता वापिस कर देती है| दहेज़ नहीं मिलेगा, पहिले ही साफ़ कर देती है। भरे मंडप से बारात को लौटा देती है। लोभियों को हथकड़ी पहना देती है। पैर किसी के अब पड़ती नहीं है। उठाकर सिर, बना कर राह अपनी, शान से निकल पड़ती है।
उसका भी होगा बलात्कार...

उसे समाज का डर नहीं रहा। अलगाव का भय नहीं रहा| अपने दम पर घर चलाती है। लेना हो तलाक ज़रा सा भी हिचकिचाती नहीं है। घुट-घुट कर जीना किसी हाल भी अब चाहती नहीं है। लोगों की नज़रों से लड़ना उसको गया। कितने भी कठिन हों ज़िंदगी के सवाल, अकेले हल करना गया।

बता फिरक्यूँ हो उसका बलात्कार? क्यूँ हो उसकी इज्ज़त तार-तार?