Thursday, April 13, 2017

अम्‍बेडकर को याद करते हुए

14 अप्रैल अम्‍बेडकर को याद करने का दिन है। जाति विषमता के विरूद्ध अम्‍बेडकर ने जो लड़ाई लड़ी है, उसे याद करने और आगे बढ़ाने का दिन है। इस मौके पर मार्टिन लूथर किंग की याद किसी भी तरह के विभेद के विरूद्ध जारी मुहिम को ही वैश्विक स्‍तर पर देखने की ही कोशिश है। भारतीय समाज में जाति की संरचना ने भी एक बड़े कामगार वर्ग को गुलामी की दास्‍ता में न सिर्फ जकड़ा बल्कि गुलामी का जीवन जीने वालों को उसे स्‍वीकारते रहने की मन:स्थिति में भी पहुंचाये रखा। 

मेरा एक सपना है 

                             मार्टिन लूथर किंग, जूनियर 

इस घटना के सौ साल बीत चुके पर आज भी नीग्रो  गुलामी से मुक्त नहीं हुआ....वह आज भी अलगाव और भेद भाव की बेड़ियों में जकड़ा हुआ जीवन जीने को अभिशप्त है.सौ साल बीत जाने के बाद भी नीग्रो आज भौतिक सुख सुविधाओं और समृद्धि के विशाल महासागर के बीच में तैरते हुए निर्धनता के एक टापू पर गुजार बसर कर रहा है...अमेरिकी समाज के कोनों अंतरों में नीग्रो आज भी पड़े पड़े कराह रहे हैं और कितना दुर्भाग्य पूर्ण है कि उनको अपने ही देश में निर्वासन की स्थितियों में जीना पड़ रहा है. हम आज यहाँ इसी लिए एकत्रित हुए हैं कि इस शर्मनाक सच्चाई पर  अच्छी तरह से  रौशनी डाल सकें.

इसको ऐसे भी समझ सकते हैं कि हम अपने देश की राजधानी में इसलिए एकत्र हुए हैं कि एक चेक कैश करा सकें. जब हमारे देश के निर्माताओं ने संविधान और आजादी की घोषणा का मजमून स्वर्णाक्षरों में  लिखा था तो वे दरअसल एक  रुक्का देश के हर नागरिक के हाथ में उत्तराधिकार के तौर पर थमा गए थे.इसमें लिखा था कि हर एक अदद शख्स -- चाहे वो गोरा हो या काला -- इस देश में जीवन, आजादी और ख़ुशी के लिए बराबर का हकदार होगा.

यह हम सबके सामने प्रत्यक्ष है कि पुरखों द्वारा दिया गया यह रुक्का आज इस देश के अश्वेत लोगो के लिए मान्य नहीं है...इसकी अवहेलना और बे इज्जती की गयी है. इस संकल्प की अनदेखी कर के नीग्रो  लोगों के चेक यह लिख कर वापिस लौटाए जा रहे हैं कि इसको मान्य करने के लिए कोश में पर्याप्त धन नहीं है.

पर हम यह मानने को तैयार नहीं हैं कि न्याय के बैंक की तिजोरी खाली होकर दिवालिया घोषित हो गयी है.हम ये कैसे मान लें कि अपार वस्रों वाले  इस देश में धन की  कमी पड़ गयी है?

इसको देखते हुए हमलोग आज यहाँ इकठ्ठा हुए हैं कि अपना अपना चेक भुना सकें-- ऐसा चेक जो हमें आजादी और न्याय की माँग करने का हक़ दिलवा  सके. हम इस पावन भूमि पर आज इसलिए आये हैं कि अमेरिका को अपनी समस्या की गंभीरता और तात्कालिक जरुरत का भान करा सकें.अब सुस्ताने या नींद की गोलियां खा के निढाल पड़े रहने का समय नहीं है.

अब समय आ गया है कि लोकतंत्र को वास्तविकता का जामा  पहनाया जाये...अब समय आ गया है कि अलगाव की अँधेरी और सुनसान गलियों से निकल कर हम रंग भेद के विरुद्ध सामाजिक न्याय के प्रशस्त मार्ग की ओर कूच करें... यह समय है चमड़ी के रंग को देख कर अन्याय किये जाने की नीतियों से इस देश को मुक्त कराने का जिस से हमसब भाईचारे के ठोस और मजबूत धरातल पर एकसाथ खड़े हो सकें....यही वो अवसर है जब ईश्वर के सभी संतानों को न्याय दिलाने के सपने को साकार किया जाये.

हमारा देश यदि इस मौके की फौरी जरुरत की अनदेखी करता है तो यह उसके लिए प्राणघातक भूल होगी. नीग्रो समुदाय की न्यायपूर्ण मांगों की  झुलसा देने वाली गर्मी की ऋतु  तब तक यहाँ से टलेगी नहीं जबतक आजादी और बराबरी की सुहानी  शरद  अपने जलवे नहीं बिखेरती.

उन्नीस सौ तिरेसठ किसी युग का अंत नहीं है...बल्कि यह तो शुरुआत है.

जिन लोगों को यह मुगालता था कि नीग्रो समुदाय के असंतोष की हवा सिर्फ ढक्कन उठा देने से बाहर निकल जाएगी और सबकुछ शांत और सहज हो जायेगा,उन्हें अब बड़ा गहरा  धक्का लगेगा...यदि बगैर आमूल चूल परिवर्तन  किये देश अपनी रफ़्तार से चलने की जिद करेगा.अमेरिका में तबतक न तो शांति होगी और न ही स्थिरता जबतक नीग्रो समुदाय को सम्मानजनक नागरिकता का हक़ नहीं दिया जाता.न्याय की  रौशनी से परिपूर्ण प्रकाशमान दिन जबतक क्षितिज पर उदित होता हुआ दिखाई नहीं देगा तबतक बगावत की आँधी इस देश की नींव  को जोर जोर से झगझोरती  रहेगी

पर इस मौके पर मुझे अपने लोगों से भी यह कहना है कि न्याय के राजमहल के द्वार पर दस्तक देते हुए यह कभी न भूलें कि अपने  अधिकारपूर्ण और औचित्यपूर्ण स्थान पर पहुँचने के क्रम में वे कोई गलत या अनुचित कदम उठाकर पाप के भागीदार न बनें. आजादी की अपनी भूख और ललक  के जोश में हमें यह निरंतर ध्यान रखना होगा कि कहीं हम कटुता और घृणा के प्याले को उठा कर अपने होंठों से लगाने लगें... हमें अपना संघर्ष शालीनता और अनुशासन के उच्च आदर्शों के दायरे में रहकर ही जारी रखना पड़ेगा.हमें सजग रहना होगा कि हमारा  सृजनात्मक विरोध कहीं हिंसा में न तब्दील हो जाये...बार बार हमें रुक कर देखते रहना  होगा कि यदि कहीं से भौतिक हिंसा राह रोकने के लिए सामने आती भी है तो उसका मुकाबला हमें अपने आत्मिक बल से करना होगा. आज नीग्रो समुदाय जिस अनूठे उग्रवाद के प्रभाव में है उसको समझना होगा कि सभी गोरे लोग अविश्वास के काबिल नहीं है...आज यहाँ भी अनेक गोरे लोग अपनी 
आज यहाँ भी कई गोरे भाई यहाँ दिखाई दे रहे हैं...जाहिर है उनको एहसास है कि उनकी नियति हमारी नियति से अन्योन्यास्रित ढंग से जुड़ी हुई है.वे यह अच्छी तरह समझने लगे हैं कि हमारी आजादी के बगैर उनकी आजादी कोई मायने नहीं रखती.

यह एक सच्चाई है कि हम अकेले आगे नहीं बढ़ सकते.इतना ही नहीं हमें यह संकल्प भी लेना होगा कि जब हमने आगे कदम बढ़ा दिए हैं तो अब  पीछे नहीं मुड़ेंगे..हम पीछे मुड़ ही नहीं सकते.
ऐसे लोग भी हैं जो नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं से पूछते है: आखिर तुम संतुष्ट कब होओगे?
जबतक एक भी नीग्रो पुलिस की अकथनीय न्रिशंसता का शिकार होता रहेगा, हम संतुष्ट नहीं हो सकते.
जबतक लम्बी यात्राओं से हमारा थकाहारा शरीर राजमार्गों के मोटलों  और शहरों के होटलों  में  टिकने का अधिकार नहीं प्राप्त कर लेता,हम संतुष्ट नहीं हो सकते.
जबतक एक नीग्रो की उड़ान एक छोटे घेट्टो से निकल कर बड़े घेट्टो पर समाप्त होती रहेगी, हम संतुष्ट नहीं हो सकते.जबतक हमारे बच्चे अपनी पहचान से वंचित किये जाते रहेंगे और "सिर्फ गोरों के लिए "लिखे बोर्डों की मार्फ़त उनकी प्रतिष्ठा पर आक्रमण किया जाता रहेगा, हम भला कैसे संतुष्ट हो सकते हैं.

जबतक मिसीसिपी में नीग्रो को वोट देने का हक़ नहीं मिलता और न्यूयोर्क में रहनेवाला नीग्रो यह सवाल पूछता रहे कि देश के चुनाव में  ऐसा क्या है कि वो वोट डाले...तबतक हम संतुष्ट नहीं हो सकते....नहीं नहीं,हम संतुष्ट बिलकुल नहीं हो सकते...तबतक संतुष्ट नहीं हो सकते जबतक इन्साफ पानी की तरह बहता हुआ हमारी ओर न आये...न्यायोचित नीतियाँ जबतक एक प्रभावशाली नदी की मानिंद यहाँ से प्रवाहित न होने लगे.

मुझे अच्छी तरह मालूम है कि आपमें से कई लोग ऐसे हैं जो लम्बी परीक्षा और उथल पुथल को पार करके यहाँ आये हैं ...कुछ ऐसे भी हैं जो सीधे जेलों की तंग कोठरियों से निकल कर आये हैं... अनेक ऐसे लोग भी हैं जो पुलिस बर्बरता और प्रताड़ना की गर्म आँधी से लड़ते हुए अपने अपने इलाकों से यहाँ तक आने का साहस जुटा पाए हैं.

सृजनात्मकता से भरपूर यातना क्या होती है ये कोई आपसे सीखे...आप इस विश्वास से ओत प्रोत होकर काम करते रहें कि यातना अंततः मुक्ति दायिनी ही होती है

आप वापस यहाँ से मिसीसिपी जाएँ..अलबामा जाएँ.. साऊथ कैरोलिना जाएँ...जोर्जिया जाएँ...लूसियाना जाएँ...उत्तरी भाग के किसी भी स्लम या घेट्टो में जाएँ...पार यह विश्वास लेकर वापिस लौटें कि वर्तमान हालात बदल सकते हैं और जल्दी ही बदलेंगे.

हमलोगों को हताशा की घाटी में लुंज पुंज होकर ठहर नहीं जाना है...आज की  इस घड़ी में  मैं आपसे कहता हूँ मित्रों कि आज और बीते हुए कल की मुश्किलें झेलने के बाद भी मेरे मन के अंदर एक स्वप्न की लौ जल रही है...और यह स्वप्न की जड़ें  वास्तविक अमेरिकी स्वप्न  के साथ जुड़ी हुई हैं.

मेरे स्वप्न है कि वह दिन अब दूर नहीं जब यह देश जागृत होगा और अपनी जातीय पहचान के वास्तविक मूल्यों की कसौटी पर खरा उतरेगा की " हम इस सत्य को सबके सामने फलीभूत होते हुए देखना चाहते हैं कि इस देश के सभी मनुष्य बराबर पैदा हुए हैं."

मेरा स्वप्न है कि एक दिन ऐसा जरुर आयेगा जब जोर्जिया के गुलामों के बच्चे और उनके मालिकों के बच्चे एकसाथ भाईबंदी के टेबुल पर बैठेंगे.

मेरा स्वप्न है कि वह दिन दूर नहीं जब अन्याय और दमन की ज्वाला में झुलस रहे मिसीसिपी राज्य तक में आजादी और इंसाफ का दरिया बहेगा.

मेरा स्वप्न है कि मेरे चारो बच्चे एक दिन ऐसे देश की हवा में साँस लेंगे जहाँ उनकी पहचान उनकी  चमड़ी के रंग से नहीं बल्कि उनके चरित्रों की ताकत से की जाएगी

आज के दिन मेरा एक स्वप्न है...

मेरा स्वप्न है कि रंगभेदी दुर्भावनाओं से संचालित अलाबामा जैसे राज्य में भी-- जहाँ का गवर्नर अड़ंगेबाजी और पूर्व घोषणाओं से मुकर जाने के लिए बदनाम है -- एकदिन नन्हे अश्वेत लड़के और लड़कियां गोरे बच्चे बच्चियों के साथ भाई बहन की तरह हाथ मिला कर संग संग चल सकेंगे

यह सब हमारी आशाएं हैं...अपने दक्षिणी इलाकों में मैं इन्ही विश्वासों  के साथ वापिस लौटूंगा.. इसी विश्वास के बल पर हम हताशा के ऊँचे पर्वत को ध्वस्त कर उम्मीद के एक छोटे पिंड में तब्दील कर सकते हैं...इसी विश्वास के बल बूते हम अपने देश में व्याप्त अ समानता का उन्मूलन कर के भाईचारे की खूबसूरत संगीतपूर्ण स्वरलहरी  निकाल सकते हैं... इस विश्वास को संजो कर हम कंधे से कन्धा मिला कर  काम कर पाएंगे..प्रार्थना कर पाएंगे...संघर्ष कर पाएंगे...जेल जा पाएंगे...आजादी के आह्वान के लिए सिर ऊँचा कर खड़े हो पाएंगे...इन सबके बीच सबसे बड़ा भरोसे का संबल यह रहेगा कि हमारी मुक्ति  के दिन आखिरकार आ गए.

यही वो दिन होगा..जिस दिन खुदा के सब बन्दे इस गीत के  नए अर्थों को उजागर करते हुए साथ मिलकर गायेंगे.." मेरा देश...प्यारी आजादी की भूमि... इसके लिए मैं गाता हूँ...यही   धरती है जहाँ मेरे पिता ने प्राण त्यागे ... तीर्थ यात्रियों की शान का देश...इसके तमाम पर्वत शिखरों से आती है...आजादी की समवेत  ध्वनि...

और यदि अमेरिका को महान देश बनना है तो मेरी ऊपर कही बातों को सच होना पड़ेगा...सो न्यू हैम्पशायर  के गगन चुम्बी शिखरों से आनी चाहिए आजादी की पुकार...न्यू योर्क के पर्वत शिखरों से आना  चाहिए आजादी का उद्घोष..पेन्सिलवानिया से आनी   चाहिए आजादी की गर्जना..

आजादी का उद्घोष होने दो...जब ऐसा होने लगेगा और हम इसको सर्वत्र फैलने देंगे..हर गाँव से और हर बस्ती से... तो वह दिन सामने खड़ा दिखने लगेगा जब खुदा के बनाये सभी बन्दे...चाहे वे गोरे हों या काले...यहूदी हों या कोई और...प्रोटेस्टेंट हों या कैथोलिक.. हाथ से हाथ जोड़े एकसाथ पुराने नीग्रो गीत को गाने के लिए मिलकर स्वर देंगे.." अंततः हम आजाद हो ही गए...आजाद हो ही गए...'

सर्व शक्तिमान ईश्वर का शुक्रिया अदा करो कि अंततः हम आजाद हो ही गए...  

 प्रस्तुति-  यादवेन्द्र 


                             

Tuesday, April 4, 2017

पतरोल


(यह कहानी यू के की है। ओह उत्‍तराखण्‍ड की, जो कभी उत्‍तर प्रदेश का एक हिस्‍सा था। उत्‍तराखण्‍ड के एक छोटे से शहर के बहुत मरियल नाम वाले मोहल्ले की। )    

गुड्डी दीदी, जगदीश जीजू से प्रेम करती थी। जब तक हमें यह बात मालूम नहीं थी, जीजू हमारे लिए जगदीश सर ही थे। जगदीश सर, गुड्डी दीदी के घर किराये में रहते थे और ट्यूशन पढ़ाते थे। गुड्डी दीदी भी जगदीश सर से ट्यूशन पढ़ती थी। यह बात किसी को भी पता नहीं थी कि गुड्डी दीदी, जगदीश सर से प्रेम करती है। स्‍वयं गुड्डी दीदी को भी शायद ही पता रहा हो। वे इतना भर जानती थीं कि चश्‍मूदीन होने के बावजूद जगदीश सर बड़े सुन्‍दर है, बहुत अच्‍छे से पढ़ाते हैं। लम्‍बाई भी अच्‍छी है और जब हँसते हैं तो होंठों के ऊपर उगी हुई उनकी मूँछें भी हँसती है। ये सब बातें गुड्डी दीदी हमको उस वक्‍त बताती थीं, जब जगदीश सर आसा पास भी नहीं होते। मूँछों के हँसने वाली बात पर हम खूब खुश होते थे और जोर-जोर से हँसते थे। कई बार हमें सामूहिक रूप से हँसते हुए देख जगदीश सर आ भी जाते तो बस इतना ही कहते, ‘’अरे भाई हमें तो बताआो क्‍या बात है, हँसने का हक तक तो हमें भी है।‘’ उनको देखते ही बंद हो चुकी हमारी हंसी का फव्‍वारा एक बार फिर से फूट पड़ता था। लेकिन हम जगदीश सर को अपने उस आनंद का हिस्‍सा नहीं बनाते थे, जिसका रहस्‍य उठ जाने पर न मालूम वह उसी प्रकार बना रहता या नहीं।

जगदीश सर किराये का कमरा लेकर अकेले ही रहते थे। वे किसी सरकारी विभाग में मुलाज़िम थे और खाली वक्‍त में अपने कमरे में पढ़ते रहते थे। यदा-कदा मौसी, यानी गुड्डी दीदी की मां, जब अपने लिए भी चाय बनाती तो जगदीश सर के लिए भी भिजवा देती थी। कभी खाना खाने के लिए भी बुलवा लेती। गुड्डी दीदी ही दौड़-दौड़कर जाती- चाय पहुंचा देती या खाने के बुला लाती। प्रेम क्‍या होता है, हम में से कोई नहीं जानता था। हो सकता है जगदीश सर जानते रहे हों, बहुत सी बातों के जानकार होने के कारण ही वे हम सबके सर थे।  


जगदीश सर को शुक्रगुजार होना चाहिए मोहल्ले  क के दबंगों का कि उन्‍हें इस बात की भनक उस वक्‍त नहीं लग पायी कि गुड्डी दीदी और उनके बीच प्रेम पनप रहा है। इस बात की खबर उन्‍हें तब लगी, इतने बाद में कि तब जगदीश सर को मोहल्ले का ही निवासी मान लिया गया था। वरना, वह किस्‍सा तो आज तक मशहूर है- सुशीला दीदी, दीवान जी की बेटी जो मोहल्ले  क की पहली लड़की हुई जिसका किसी सरकारी नौकरी में चयन हुआ, घर लौटते हुए एक लड़के के साथ उसकी साइकिल में बैठकर आती थी। मोहल्ले की सरहद पर वह लड़का सुशीला दीदी को साइकिल से उतार देता था और वहां सुशीला दीदी पैदल-पैदल, बार-बार ढलक जाते अपने दुपट्टे को संभालते हुए घर तक पहुँचती थी। लड़का अपनी साइकिल पर पैडल मारकर कोई मधुर गीत गाते हुए निकल जाता था। मोहल्ले के दबंगों को यह बात चुभनें लगी थी कि कोई अनजान लड़का उनके मोहल्ले  क की लड़की को रोज साइकिल पर बैठाकर छोड़ने आता है। एक दिन उन्‍होंने मंत्रणा की और सुशीला दीदी के चले जाने के बाद भी उतर गयी साइकिल की चैन को चढ़ाने में व्‍यस्‍त उस लड़के पर हमला बोल दिया। जमकर उसकी कुटाई की। उसकी साइकिल तोड़ दी। लड़के की नाक से खून निकलने लगा। खून से लथपथ हो चुके चेहरे को देख दबंगों ने उस अकेले लड़के को धक्‍का दिया और वहां से रफू-चक्‍कर हो गये।                   

Friday, March 24, 2017

गरीब का नंगापन उसकी आर्थिक दरिद्रता है तो अमीर का नंगापन उसकी प्रदर्शन प्रियता

पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथ-साथ अध्‍ययन-अध्यापन के क्षेत्र से जुड़ी गीता दूबे मूलत: कवि हैं। कोलकाता के साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों में अपनी बेबाक आलोचनाओं के साथ सक्रिय रहने वाली गीता दूबे, प्रगतिशील लेखक संघ (हिन्दी इकाई) कोलकाता की सचिव भी हैं। अपनी बातों को साफ तरह से रखने का बौद्धिक साहस गीता दूबे के लेखन की ही नहीं, व्‍यवहार की भी एक विशेषता है। रचनाओं को प्रकाशन के लिए भेजने का संकोच गीता दूबे के भीतर मौजूद आलसपन को भी दिखाता है। कई बार के आग्रह के बाद गीता दूबे ने अपने मन से ‘आपहुदरी’ पर लिखी समीक्षात्माक टिप्पणी भेजकर इस ब्लाग को अनुग्रहित किया है। इस आशय के साथ कि आगे भी उनके सहयोग से यह ब्लाग आगे भी समृद्ध होता रहेगा, उनकी लिखी समीक्षा प्रस्तुत है। हमें उम्मीद है कि गीता दूबे की बेबाक समीक्षा पर पाठकों की बेबाक राय भी इस ब्लाग को समृद्ध करेंगी। 

वि.गौ.

'आपहुदरी' (रमणिका गुप्ता की आत्मकथा) के हवाले से


गीता दूबे 

आज का समय साहित्य के क्षेत्र में विस्फोट के साथ साथ सनसनी का भी समय है। अधिकांश रचनाकार शायद इसलिए लिख रहे हैं कि छपते ही छा जाएं। न भी छाएं तो एक सनसनी जरूर पैदा कर दें। सुजाता चौहान लिखित 'पतनशील पत्नियों के नोट्स' या फिर क्षितिज राय लिखित 'गंदी बात' जैसे किताबों ने इस क्षेत्र में नयी धारा का सूत्रपात किया है। अब यह धारा कितनी दूर जाएगी और इसमें क्या क्या बहेगा या बचेगा ,यह मुद्दा गौरतलब है और इस पर बहस जरूर होनी चाहिए लेकिन फिलहाल कुछ बातें मैं 'आपहुदरी' के बहाने स्त्री आत्मकथाओं पर करना चाहती हूं। 

इस समय आत्मकथाएं खूब लिखी जा रही हैं और उनके प्रकाशन के साथ साथ विवाद भी चलते रहते है। शायद ही कोई आत्मकथा ऐसी होगी जिसके प्रकाशन के बाद बहस का तूफान न उठा हो या आरोपों प्रत्यारोपों के दौर न चले हों। सवाल यह है कि आत्मकथाएं क्यों लिखी जानी चाहिए ? आत्मकथाओं का उद्देश्य किसी रचनाकार के सिर्फ और सिर्फ व्यक्तिगत अनुभवों से रूबरू करवाना ही है या तत्कालीन इतिहास की अनुगूंज भी उसमें सुनाई देनी चाहिए। इस संदर्भ में गांधी और नेहरू द्वारा लिखित आत्मकथाओं का जिक्र जरूरी है जिनमें सिर्फ उनके निजी अनुभव ही नहीं हैं बल्कि उनके समय का इतिहास भी झांकता है। कुछ वर्षों पूर्व प्रकाशित कुलदीप नैय्यर की आत्मकथा भी कई मायने में इतिहास की तरह पढ़ी और संजोई जा सकती है। स्त्री आत्मकथाओं के संदर्भ में बात करें तो पहले पहल जब स्त्रियों ने अपनी कहानी अपनी जुबानी सुनाने का फैसला किया तो लोगों को यह सहज उत्सुकता हुई कि ये औरतें भला कहना क्या चाहती हैं ? और कहेंगी भी तो आखिर क्या वही घर गृहस्थी के घरेलू किस्से और कहानियां। रही बात उनके सामाजिक अवदान या भूमिका की तो वह तो साहित्य में कहा और लिखा ही जा रहा है।पुरूष रचनाकार बड़े अनुग्रहपूर्ण ढंग से भारतीय स्त्रियों के त्याग और बलिदान को महिमामंडित करते हुए यदा कदा उनके दुख दर्द, शोषण और संघर्ष को भी वाणी दे ही रहे थे। लेकिन इसके बावजूद स्त्रियों ने तय किया कि अपने देखे और भोगे यथार्थ को वह खुद पूरी प्रामाणिकता से पाठकों के सामने रखेंगी। हालांकि प्रेमचंद द्वारा संपादित हंस के आत्मकथा विशेषांक में यशोदा देवी और शिवरानी देवी के आत्मकथ्य प्रकाशित हो चुके थे लेकिन पुस्तकाकार रूप में प्रतिभा अग्रवाल की दो खंडों में प्रकाशित आत्मकथा 'दस्तक जिन्दगी की' (1990) और मोड़ जिन्दगी का(1996) से स्त्री आत्मकथा लेखन की शुरुआत हुई । इसी क्रम में क्रमश: 'जो कहा नहीं गया'(1996) कुसुम अंसल, 'लगता नहीं है दिल मेरा'(1997) कृष्णा अग्निहोत्री, 'बूंद बावड़ी' (1999) पद्या सचदेव, 'कस्तूरी कुण्डल बसै'(2002)मैत्रेयी पुष्पा आदि ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। चंद्रकिरण सौनरेक्सा की 'पिंजरे की मैना' (2005) छपकर आई तो पाठकों ने उसे हाथों हाथ लिया क्योंकि पराधीनता की जंजीरों में जकड़ी नारी की मुक्ति कामना के साथ ही उसकी पीड़ा और संघर्ष को लेखिका ने बड़ी शिद्दत से उकेरा था। जानकी देवी बजाज की 'मेरी जीवन यात्रा'(2006) में मारवाड़ी परिवार की स्त्रियों का जीवन ही नहीं वर्णित हुआ बल्कि स्वाधीनता आंदोलन के कई कोलाज भी बड़ी ईमानदारी से अंकित हुए हैं। मन्नू भंडारी की 'एक कहानी यह भी'(2007) , प्रभा खेतान की 'अन्यार से अनन्या'(2007) मैत्रेयी पुष्पा की 'गुड़िया भीतर गुड़िया'(2008), कृष्णा अग्निहोत्री 'और और औरत' (2010) इस सिलसिले की अगली कड़ियां थीं। इसे उर्मिला पंवार के 'आयदान' (2003) कौशल्या बैसंत्री के 'दोहरा अभिशाप' (2009) और सुशीला टांकभौरे के 'शिकंजे का दर्द' (2011) ने एक नया आयाम दिया। 

आज का समय साहित्य के क्षेत्र में विस्फोट के साथ साथ सनसनी का भी समय है। अधिकांश रचनाकार शायद इसलिए लिख रहे हैं कि छपते ही छा जाएं। न भी छाएं तो एक सनसनी जरूर पैदा कर दें। सुजाता चौहान लिखित 'पतनशील पत्नियों के नोट्स' या फिर क्षितिज राय लिखित 'गंदी बात' जैसे किताबों ने इस क्षेत्र में नयी धारा का सूत्रपात किया है। अब यह धारा कितनी दूर जाएगी और इसमें क्या क्या बहेगा या बचेगा ,यह मुद्दा गौरतलब है और इस पर बहस जरूर होनी
अब बात करना चाहूंगी 2016 में सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित रमणिका गुप्ता की आत्मकथा 'आपहुदरी' की । चूंकि यह शब्द पंजाबी भाषा का है संभवत इसी लिए नीचे एक पंक्ति में इसका आशय भी भी साफ कर दिया गया है , एक जिद्दी लड़की की आत्मकथा'। यहां यह बताना जरूरी है कि इसके पहले रमणिका अपनी एक और आत्मकथा 'हादसे'(2005) लिख चुकी हैं जिसमें मजदूर नेता के रूप में उनके एक्टिविस्ट और उसके साथ राजनीतिक जीवन की झलक मिलती है और उसे पढ़कर पाठक उनके जुझारू व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता । उनके जीवन संघर्ष से उपजा यथार्थ , उनकी स्त्रीवादी विचार धारा और बेबाक व्यक्तित्व पाठकों के मन पर निस्संदेह गहरी छाप छोड़ता है। उनके निष्कर्षों से सहमत भी होता है कि, " पुरूष नारी को उसी हालत में बर्दाश्त करता है जब उसे यकीन हो जाए कि वह पूरी तरह उसी पर आश्रित है और खुद कोई निर्णय नहीं ले सकती या वह स्वयं उस औरत से डरने लगे तो उसे सहता है।" चूंकि इस आत्मकथा में उनके व्यक्तिगत जीवन के अनुभवों को अभिव्यक्ति नहीं मिली थी शायद इसी वजह से उन्होंने 'आपहुदरी' रचना की। किताब के फ्लैप पर लिखी घोषणा बरबस ध्यान खींचती है, "विविधता भरे अनुभवों की धनी रमणिका गुप्ता की आत्मकथा की यह दूसरी कड़ी 'आपहुदरी' एक बेहद पठनीय आत्मकथा है।उनकी आत्मकथा की पहली कड़ी हादसे से कई अर्थों में अलग है। सच कहें, तो यही है उनकी असल आत्मकथा....।" जाहिर है कि इस घोषणा से आकर्षित या प्रेरित होकर पाठक बड़े चाव से इस रचना से मुखातिब होता है कि उसे कुछ नया जानने या समझने को मिलेगा। निस्संदेह मिलता है । रमणिका या रमना या रम्मो के परिवार का संक्षिप्त इतिहास , देश- विभाजन के एक आध चित्र और मजदूर आंदोलन के साथ साथ भारतीय राजनीति की कुछ झलकियां भी। पर सबसे अधिक पन्ने इस जिद्दी लड़की ( ?) ने अपनी प्रेमकथा के वर्णन में खर्च किए हैं। बचपन में हुए यौन शोषण और परिवार वालों द्वारा की गयी अपनी उपेक्षा के कारण वह आजीवन प्रेम की तलाश में भटकती रही और यौनेच्छाओं की पूर्ति के साथ साथ अपने विलास पूर्ण जीवन के खर्चों को पूरा करने के लिए वह लगातार एक के बाद एक साथी बदलती रहीं। रमणिका की तारीफ इस बात के लिए तो होनी ही जानी चाहिए कि वह अपने इन भटकावों , विचलनों को ईमानदारी से स्वीकारती हैं और बिना किसी अफसोस के लिखती हैं, "पीछे मुड़कर देखती हूं तो महसूस होता है, मैंने जिंदगी को भरपूर जिया। तुमुल कोलाहल के बीच भी मैंने अपने मन को कभी बनवास नहीं दिया।मेरी प्रेम यात्राएं कभी रुकी नहीं।.... कुछ ग्रंथियां और कुछ हादसे मेरे अंतर्मन में ऐसे पैठ गये थे कि मैं उनसे उबर नहीं पा रही थी। उनसे पीछा छुड़ाने के लिए मैं रास्ते तलाशने लगी और रास्ते की खोज में मैंने तय कर डाली कई यात्राएं।.....कितनी यात्राएं गिनाऊं।" इसके आगे वह लिखती हैं, "कई सच्चे और वक्ती मित्र आए और गये पर मेरी यात्रा जारी रही। दर असल तब तक मैं यह समझ न पाई थी कि यह जद्दोजहद मेरी अस्मिता की ललक का अंग है।.... बहुत बाद में मुझे स्त्री की अलग पहचान का विमर्श समझ में आया।" मेरी दिक्कत यहीं से शुरू होती है जब रमणिका अपनी यौनाकांक्षा को स्त्री मुक्ति के साथ जोड़कर देह विमर्श को ही स्त्री विमर्श के रूप में स्थापित करना चाहती हैं। स्त्री मुक्ति के साथ साथ देह पर उसके अधिकार की बात तो उठती रहती है पर जहां देह ही मुख्य हो जाती है और बाकी चीजें गौण तो माफ कीजिएगा इस मुक्ति से स्त्री हो पुरूष दोनों अर्थात् पूरे देश और समाज की भी कोई बहुत ज्यादा तरक्की होनेवाली नहीं। और डर इस बात कार्यक्रम भी है कि इस देह विमर्श की आंधी में स्त्री विमर्श के जरूरी मुद्दे कहीं उड़ न जाएं। 

दूसरी महत्वपूर्ण बात जो मेरी समझ में आती है कि आत्मकथा लेखन सच में जोखिम और साहसभरा काम है क्योंकि खुद को लोगों के बीच उघाड़ने और उधेड़ने के लिए साहस की जरूरत तो पड़ती ही है पर जब इसमें सनसनी वाला तत्व भी जुड़ जाता है तो यह जोखिम मजे या प्रचार के लिए उठाए जोखिम में जरूर बदल जाता है । और साहित्य या समाज के लिए यह स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं मानी जा सकती है। एक गरीब का नंगापन जहां उसकी आर्थिक दरिद्रता को दर्शाता है तो वहीं अमीर का नंगापन उसकी प्रदर्शन प्रियता या फैशन को। रमणिका ने जिस तरह से रस लेते हुए अपने प्रेम प्रसंगों या देह गाथा को उकेरा है उसे प्रेम कथा के रूप में तो पढ़ा जा सकता है पर उसे स्त्री मुक्ति का आख्यान मानने में मुझे आपत्ति है। कुछ पाठकों को इस तरह की कथा में रस भले ही मिले पर सिर्फ और सिर्फ यही पढ़ना हो तो इस विषय पर प्रचुर साहित्य सहज ही उपलब्ध है। आश्चर्य होता है कि देह की भूख क्या इतनी प्रबल है कि ट्रेन में सफर के दौरान एक अजनबी के साथ भी बड़ी सहजता से निसंकोच उसे तृप्त किया जा सकता है। इसके साथ ही एक ही समय में एकाधिक साथियों के साथ अपने संबंधों को भी लेखिका ने गर्व के साथ स्वीकारा है। लगता है लेखिका सिर्फ देह का उत्सव मनाते हुए , उसे गरिमा मंडित करते हुए हर हाल में सही ठहराना चाहती हैं। हालांकि अपनी कमजोरियों को रमणिका सहज भाव से स्वीकारती हैं, " सत्य तो यह है कि मुझे खुद ही खुद से मुक्त होना है । मैं अपनी ही कमजोरी काम शिकार होकर फिसल जाती रही हूं ।जिन कमजोरियों के खिलाफ मैं झंडा बुलंद करती रही, उन्हीं कार्यक्रम शिकार मैं खुद होती रही। पुरुष मेरी ग्रंथि है।औरत को खुद अपने को ही मुक्त करना है पुरुष ग्रंथि से।" पता नहीं लेखिका इस ग्रंथि से मुक्त हो पायीं या नहीं पर अपनी प्रेम कथाओं के साथ साथ उन्होंने अपने पारिवारिक सदस्यों की कथाओं का भी खुलकर वर्णन किया है। ऐसा लगता है कि संसार की एकमात्र सच्चाई देह ही है और दैहिक तृप्ति ही वास्तविक तृप्ति है। 

ईमानदारी से कहना चाहती हूं कि रमणिका की यह आत्मकथा पढ़ते हुए मुझे तसलीमा याद आती रहीं जिन्होंने 'द्विखंडित' (2004) में अपने पुरुष मित्रों के साथ अपने संबंधों को खुल कर स्वीकारा था और यौन प्रसंगों का सतही और उत्तेजक वर्णन भी किया था। और शायद उसपर लगे बैन और विवादों के कारण लोगों ने उसे खूब पढ़ा भी था पर पसंद शायद ही किया था। और एक किताब का नाम लेना चाहूंगी वैशाली हलदणकर की 'बारबाला' (2009)। उसमें भी ऐसे प्रसंग भरे पड़े हैं। प्रश्न यह भी है कि ऐसी आत्मकथाएं क्या सिर्फ इसीलिए पढ़ी जानी चाहिए कि इनमें यथार्थ के नाम पर मुक्त यौन चित्र हैं भले ही इनसे स्त्री मुक्ति की रूपरेखा बने या न बने । या फिर इससे किसी को प्रेरणा मिले न मिले। एक जिद्दी लड़की क्या सिर्फ पैसों , शोहरत, ऐशो आराम या सत्ता के गलियारे में पैठ बनाने के लिए अपने शरीर को इस्तेमाल करने में ही अपनी जिद और स्वाभिमान की इंतहा मानती है ? उसका स्वाभिमान क्या छोटे छोटे सुखों पर न्योछावर किया जा सकता है,? क्या पेट की भूख और शरीर की भूख में कोई अंतर नहीं है ? और इस भूख की आग में रिश्ते नाते भी जला दिए जाएं ? आखिर हमें कहीं तो रुकना पड़ेगा, या इस भूख या छद्म मुक्ति की तलाश में हम यूं ही भटकते रहेंगे ? इस तरह के कई सवाल इस आत्मकथा को पढ़ते हुए मन में उपजते हैं। सच में अगर स्त्री का संघर्ष और उसकी उपलब्धियों से रूबरू होना ही है तो क्यों न हम एक विकलांग पर जुझारू महिला नसीमा हुरजूक की आत्मकथा 'कुर्सी पहियों वाली' (2010) जैसी किताब पढ़े जो पूरे समाज को उद्वेलित ही नहीं प्रेरित भी करती हैं। और अगर देह गाथा ही पढ़नी है तो उसके लिए एक दूसरी तरह काम साहित्य सहज ही उपलब्ध है।

Saturday, January 28, 2017

बनारस कालिज के प्रिन्सिपल और प्रोफेसर(3)







संस्कृत विभाग के उपाचार्य पहले एक साहब थे जिनका नाम संस्कृत के आन्दोलन में कुछ-कुछ लिया जाता है.ग्रिफिथ साहव के स्थान में, उनके प्रिन्सिपल बनने पर, डाक्टर थीवी जर्मनी से लाये गये.उनकी विद्या और विशेषतः परिश्रम की धूम मची हुई थी.गर्मियों में रात की आँधी में न बुझने वाला लैम्प जलाकर ग्यारह बजे तक उन्हें पढ़ते देख एक आदमी ने आश्चर्य प्रकट किया.उत्तर मिला कि रात को गणित का फिर से अभ्यास किया करते हैं और इस प्रकार किसी भी पढ़े हुए विषय का ज्ञान बासी नहीं होने देते.आते ही पं० बालशास्त्री से दर्शनशास्त्र का पढ़ना और संस्कृत संभाषण का अभ्यास आरम्भ कर दिया.थोड़े दिन पीछे ही षाण्मासिक परीक्षा में संस्कृत के परीक्षक हुए.एक भी अनुत्तीर्ण न हुआ.यह पहले यूरोपियन थे जिनकी दाढ़ी के साथ मूँछों का भी सफाया मैंने देखा.प्रसिद्ध यह था कि धर्मशास्त्र में उच्चिष्ट की निन्दा सुनकर इन्होंने मूँछ मुड़ा ली है , जिससे बालों में उच्चिष्ट न फँस जाए.
गणित के प्रोफेसर मिस्टर राजर्स भी अपने विषय में निपुण थे और उन्हीं के पढ़ाये हुए, उनके शिष्य, लक्ष्मी नारायण मिश्र सहायक प्रोफेसर थे और पीछे से गणित-साइन्स, दोनों के प्रोफेसर हो गये.
इतिहास के प्रोफेसर इङ्लिस्तान से एक सिफारिशी युवक बुलाये गये,जिनको अयोग्यता के कारण कोई डिग्री न मिल सकी तो उन्हें बनारस कालिज के गले मढ़ा गया.इनको विद्यार्थी बहुत तंग किया करते थे और इनकी इतिहास से अनभिज्ञता की पोल खोला करते थे.
अंग्रेजी के सहायक प्रोफेसर दो हिन्दुस्तानी एम०ए० थे-एक बाल्कृष्ण भट्ट और दूसरे उमाचरण मुकर्जी.ये दोनों भी अपने विषय में बहुत योग्य थे, जिनमें भट्टजी तोसदाचार की मूर्ति थे.दोनों ही कालिज के अतिरिक्त एण्ट्रेंस की दोनों कक्षाओं को भी पढ़ाया करते थे.रह गये दो प्रोफेसर उन विषयों के जो गौण सस्मझे जाते हैं .अंग्रेजी उस समय मुख्य भाषा समझी जाती थी.ब्रिटिश गवर्नमेंट के स्कूलों और कालिजों में अब भी मुख्य भाषा अंग्रेजी और संस्कृत तथा फारसी-अरबी दूसरी वा गौण भाषा समझी जाती हैं.संस्कृत के उपाध्याय पण्डित रामजसन थे जो प्रिन्सिपल ग्रिफिथ को संस्कृत से अंग्रेजी उल्था में भी सहायता देते थे.इसके अतिरिक्त किसी विशेष आश्रय पर इनका ग्रिफिथ साहब पर बड़ा अधिकार था.यही कारण था कि इनके बड़े लड़के लक्ष्मीशंकर मिश्र एम०ए०पास करते ही प्रोफेसर बन गये.दूसरे उमाशंकर अंग्रेजी में फ़ेल होकर बिजनौर जिला के ताजपुर के राजा के पुत्रों के अध्यापक नियत  होकर भेजे गये और तीसरे रमाशंकर मिश्र एम०ए० परीक्षोत्तीर्ण होते ही पहले बनारस कालिज केमें गणित के सहायक प्रोफेसर और फिर अलीगढ़ मेंस्थापित नये  ऐंग्लो महम्मडन कालिज के गणित के मुख्य प्रोफेसर बन कर गये.