Thursday, January 25, 2018

सोशल‌ मीडिया के आत्मसजग समय में ‌

पिछले दिनों कथाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की आत्मकथा ‘जूठन’ को विवाद में घसीटकर पाठ्यक्रम से उसे बाहर निकलवाने का जो षड़यंत्र सामने आया। उसकी तीखी प्रतिक्रिया हिंदी समाज में हुई। बहस में ‘जूठन’ ही नहीं अन्य दलित रचनाकारों की आत्मकथाओं के भी इस पहलू को उजागर किया गया कि आत्मकथाओं में एक व्यक्ति के जीवन के ब्योरे भर ही जगह नहीं पाते, बल्कि समाज व्यवस्था की पर्तें भी ज्यादा प्रमाणिक रूप से खुलती हैं। वाल्मीकि जी की आत्मकथा पर लिखी गयी टिप्पणी को आगे भी इस ब्लाग में पढ़ा जाना संभव होगा। अभी तो वाल्मीकि जी के सबसे घनिष्ट पारिवारिक मित्र कथाकार मदन शर्मा जी आत्मकथा में आए प्रसंगों पर कुछ बात करना ही उचित लग रहा है। कवि एंव आलोचक गीता दूबे ने हाल ही प्रकाशित इस आत्मकथा ‘’उन दिनों’’ के उन पक्षों को रेखाकिंत किया है जिसका वास्ता देश विभाजन की दास्तान से है। इस रचनात्‍मक सहयोग के लिए गीता दूबे जी का आभार। उनका यह आलेख न सिर्फ इस ब्लाग को समृद्ध कर रहा है, अपितु आत्मकथाओं के लिखे जाने औचित्य को भी महत्व‍पूर्ण मान रहा है।
वि. गौ.

सहजतापूर्ण आत्मीय अभिव्यक्ति से सराबोर आत्मकथा :  उन दिनों (मदन शर्मा

गीता दूबे

आत्मकथाएं लिखी क्यों जाती हैं, इस पर सोचने बैठें तो कई बातें दिमाग़ में चक्कर लगाने लगती हैं। किसी की आत्मकथा पढ़कर भला हमें मिलने क्या वाला है ? लेकिन इसके बावजूद आत्मकथाएं लिखीं और पढ़ी जाती हैं । इसके पीछे जहां एक ओर अपनी कहानी लोगों को सुनाने की ख्वाहिश काम करती है तो दूसरी ओर किसी और के बारे में जानने का कौतूहल भी अहम भूमिका निभाता है। 'बिग बास' जैसे धारावाहिकों का निर्माण भी इस मानवसुलभ जिज्ञासा या कौतूहल को भुनाने के लिए ही हुआ है। इसके साथ ही यह प्रश्न भी सिर उठाता दिखाई देता है कि जब भी कोई रचनाकार अपनी आत्मकथा लिखता है तो उसके पीछे उसका उद्देश्य क्या होता है। खुद को उधेड़ना या छिपाना। अगर उधेड़ना तो कितनी निर्ममता से और छिपाना तो भला क्यों, क्योंकि जब आपबीती सुनाने की ठान‌ ही ली है‌ तो‌ फिर लुकाछिपी का खेल भी क्यों खेलना? लेकिन यह खेल खेल जाता है और पूरे कौशल के साथ। जिस तरह अदालत में गीता पर हाथ रखकर झूठी कसमें बेशर्मी से खाईं जाती हैं ठीक उसी तरह आत्मकथा लेखक भी बड़े मजे से‌ मनगढ़ंत गप्पे कुछ इस अंदाज में हांकता है कि सजग पाठक ही नहीं रचनाकार के‌ समकालीन लेखक भी हतप्रभ-से रह जाते हैं। इसी कारण बहुत सी आत्मकथाएं झूठ का पुलिंदा साबित नहीं तो घोषित जरूर हो जाती हैं और‌ उनके प्रकाशन के साथ ही बहस का तूफान उठ खड़ा होता है। लेकिन इसके साथ यह भी कहना चाहूंगी कि कई बार ये बहसें प्रायोजित भी होती हैं जिनका उद्देश्य रचना विशेष को समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में हिट या फिट करना होता है। बहुधा आत्मककथा लेखक अपनी उपलब्धियों का डंका तो जोर- शोर से पीटते हैं और अपने संघर्षों की कथा भी बहुत दर्दभरे अंदाज में बयां करते हैं लेकिन अपनी जिंदगी के बहुत से पन्नों को अंधेरे में रखने का खेल भी बेहद कुशलता से खेलते हैं। वहीं कुछ तथाकथित बोल्ड लेखक जानबूझकर कुछ सनसनीखेज खुलासों को परोसने के लिए ही आत्मकथा लिखने का जोखिम उठाते हैं। जाहिर है कि इन खुलासों में बहुत से जाने-पहचाने चेहरे भी शामिल होते हैं और लेखक खुद भी कटघरे में खड़ा होने की स्थिति में पहुंच जाता है। लेकिन बदनाम गर हुए तो नाम भी तो होगा की तर्ज पर कुछ साहसी (?) रचनाकार यह जोखिम उठाने को तैयार रहते हैं। तो क्या जिस लेखकीय तटस्थता की बात बार- बार कही जाती है वह 'आत्मकथा' में संभव है ? कविता, नाटक, कथा साहित्य या फिर अन्य साहित्यिक विधाओं में लिखते हुए तो लेखक फिर भी तटस्थ हो सकता है लेकिन आत्मकथा में तो उसका स्व इस कदर घुला मिला होता है कि तटस्थ होना बेहद मुश्किल होता है और इसी कारण बहुत से रचनाकार आत्ममुग्धता के शिकार होकर आत्मप्रशंसा और परनिंदा पर उतर आते हैं। कहीं -कहीं तो भावुकता की चाशनी इतनी गाढ़ी हो जाती है कि तथ्य उसमें डूब जाते हैं। खैर आत्मालोचन के साथ- साथ जग की पड़ताल और अपने समय का दस्तावेजीकरण करती हुई आत्मकथाएं भी लिखी गयी हैं जो सिर्फ साहित्य न ह़ोकर इतिहास का हिस्सा भी बन जाती हैं । भारतीय संदर्भ में गांधी और नेहरू की आत्मकथाएं तो उल्लेखनीय हैं ही। कुलदीप नैयर की आत्मकथा 'एक जिंदगी काफी नहीं' भी एक महत्वपूर्ण और पठनीय आत्मकथा है। 

फिलहाल मैं बात करना चाहूंगी हाल ही में प्रकाशित साहित्यकार मदन शर्मा की आत्मकथा 'उन दिनों' का जिसकी सहजता ने बरबस मुझे आकर्षित किया और एक बैठक में पढ़वा भी लिया। हालांकि मदन शर्मा मेरे लिए चर्चित और परिचित नाम नहीं था लेकिन आत्मकथा के दो एक पन्ने पलटते -पलटते कब मैं इसे पूरा पढ़ गयी पता ही नहीं चला । सवाल है कि ऐसा कैसे होता है। बहुधा आप बहुत से महान रचनाकारों की बेहद बेहद चर्चित, पुरस्कृत रचानाओं की प्रसिद्धि की अनुगूंज से प्रभावित होकर उन्हें पढ़ना शुरू तो करते हैं लेकिन पूरा पढ़ नहीं पाते। और खुद को कोसते भी हैं कि कमी शायद कहीं न कहीं अपनी समझ में होगी जो इस दुर्लभ रस का आस्वादन कर पाने में असमर्थ है। लेकिन कुछ रचनाएं ऐसी भी होती हैं जिनके नाम का चर्चा या डंका भले न गूंज रहा हो पर‌ वे साहित्य के परिदृश्य पर इतने हौले से अपनी जगह बना लेती हैं जैसे शक्कर दूध में और नमक सब्जी में घुल जाता है। जिसकी उपस्थिति के बिना सब कुछ बेस्वाद हो जाए यह बात और है कि उस उपस्थिति का कोई नोटिस ले‌ या न ले पर उसकी कमी से सब कुछ अधूरा-अधूरा सा जरूर लगने‌ लगे। 

मदनजी की आत्मकथा की सबसे बड़ी खासियत है इसकी सहजता और वही तटस्थता जोकिसी भी रचनाकार के लिए एक चुनौती की तरह होती है।मदन शर्मा ने इस कला को बड़ी सहजता से इसे साध लिया है।जब वह अपनी तकलीफों, संघर्षों या अभावों की बात करते हैं तो कहीं भी अश्रुविगलित भावुकता की तैलीय परत तैरती नजर नहीं आती। वह इतने सहजता से अपने संघर्षों को उकेरते हैं जैसे अपनी नहीं किसी और की बात कर रहे हैं।और  रही बात उधेड़ने की तो अपने पूरे परिवेश के साथ- साथ वह अपने परिवार, रिश्तेदारों आदि को भी बेबाकी से तो उधेड़ते ही हैं खुद अपने आपकोभी नहीं बख्शते।अपने पिता का चित्र खींचते करते हुए उनके जेलर जैसे व्यवहार का जिक्र करते हैं तो उनकेकोमल पक्षों की ओर भी इंगित करते हैं।  कोई भी रचनाकार जब अपनी आत्मकथा लिखता है तो दो तरह की मनोवृत्तियां दिखाई देती हैं , एक तो वह अपने परिवार, कुल या खानदान की गौरवशाली परंपरा के माहात्म्य का वर्णन करते नहीं अघाता दूसरी ओर वह अपनी दीनता के ऐसे चित्र खींचता है कि पाठक के मन में रचनाकार के प्रति दयामिश्रित सहानुभूति जैसा भाव उत्पन्न होने लगता है। साथ ही कहीं न कहीं इस लेखन के पीछे खुद को महान समझने या समझाने की प्रेरणा भी काम करती है लेकिन मदन शर्मा जी की आत्मकथा इस मायने में जुदा है कि वहां किसी प्रकार की आत्ममुग्धता या आत्मप्रशंसा की कोई भावना दिखाई नहीं देती।वह पहले ही खुद से सवाल करते हैं कि "मैं यह राग क्यों अलापने लगा हूं ?‌ क्या होगा इससे ? किसी को क्या मतलब, मुझे बचपन में किस किस ने दुलारा, पुचकारा या लताड़ा..."(पृ.11) लेकिन इसके बावजूद लेखक अपने बचपन से लेकर अपने विवाह तक  की कथा को इतने सहज और दिलचस्प तरीके से बयां करता है कि साधारण पाठक को भी इस रचना को पढ़ते हुए किसी उपन्यास को पढ़ने जैसा आनंद मिलता है। अपने परिवार की समृद्धि के दिनों का वर्णन करते हुए पारिवारिक झगड़ों और पारिवारिक सदस्यों की आपसी तनातनी का वर्णन भी दिलचस्प  अंदाज में पर बेहद निस्पृह ढंग से करते हैं। कभी -कभी यह निस्पृहता ऐसी लगती है मानो लेखक आपबीती नहीं कोई रोचक किस्सा सुनाने बैठा है। अपने परिवार में पिता- चाचा के झगड़े हों या स्त्रियों की दुर्दशा या फिर विभिन्न पारिवारिक सदस्यों की खामियां और खूबियां, इन सभी का वर्णन मदन जी जीवंतता से करते हैं जिन्हें पढ़कर पाठक उनसे सहज सामंजस्य बैठाता चला जाता है। अपने चचेरे भाई परमानन्द का चित्रण करते हुए वह एक  घटना का जिक्र बड़े रोचक ढंग से करते हैं जब भाई परमानन्द गाजरपाक बना रहे हैं और  एक बुजुर्ग के बार -बार पूछे जाने पर कि हलवा बन गया या नहीं खीजकर उनके मुंह में गर्मागर्म गाजर का हलवा ठूंस कर खिलखिलाते हुए कहा उठते हैं-" बहन के यार ने सुबह से परेशान कर रखा था...बच्चा गाजर पाक का।"(पृ 29)  हालांकि सामान्य दृष्टि से देखने पर परमानंद का यह व्यवाहर उचित नहीं लगता लेकिन इस घटनाक्रम से गुजरते हुए पाठक भी परमानंदकी खिलखिलाहट को आत्मसात कर उसके साथ खुद भी खिलखिला उठता है। किसी भी रचनाकार की बड़ी विशेषता होती है जब वह अपने पाठकों को अपने पात्रों के साथ हंसने- रोने को विवश कर देता है और इस रचना में निसंदेह यह खूबी है। इसी तरह वह अपनी चचेरी बहनों का किस्सा भी बड़ी बेबाकी से कहते हैं। उनकी तथा अपनी भाभियों की जिंदगी के चित्रण के माध्यम से तत्कालीन समाज में स्त्रियों की दशा कावर्णन सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि से करते हुए उनके दुख दर्द और  संघर्षों को उकेरते हुए उनके साहस की सराहना भी करते हैं।

ऐश्वर्यपूर्ण जिंदगी जीते हुए अचानक हालात के बद से बदतर होते जाने के कारणों के साथ अपनेपरिवार के कष्टोंऔर पारिवारिक सदस्यों  के संघर्षों का वर्णन लेखक तटस्थता से करता है। कहीं भी कष्ट या तकलीफ कोजरूरत से ज्यादा बढ़ा -चढ़ा कर नहीं दिखाया गया है। देश- विभाजन के दौरान हुए दो बड़े भाइयों की मृत्यु और उस दुख से कातर पिता और माता की मनःस्थिति का वर्णन बेहद मार्मिक बन पड़ा है। जब तक हम किसी को अपनी आंखों के आगे मरते हुए नहीं देखते वह हमारी स्मृति में हमेशा जीवित बने रहते हैं और हमारे दिल में उनकी अनकही प्रतीक्षा बनी रहती है, मृत घोषित भाइयों‌ के प्रति इस प्रतीक्षा या उम्मीद को रचनाकार में भी देखा जा सकता है- "मैं उस समय सातवीं में पढ़ रहा था। मौजूदा हालात में, पढ़ाई-लिखाई में बिल्कुल मन नहीं लग रहा था। ध्यान हर वक्त घर की बाहर वाली चौखट पर ही लगा रहता...शायद कोई आकर कह दे... किसी ने उन्हें वहां देखा है, या वे तो बस पहुंचने ही वाले हैं...बाहर दिल्ली दरवाजे के पास खड़े, किसी से बात कर रहे हैं....(पृ 64) आप कल्पना कीजिए जिस व्यक्ति का बचपन बेहद लाड़- प्यार और ऐशो- आराम से कट रहा हो कि अचानक उसे दो घूंट दूध के लिए भी तरसना पड़ जाए , बचपन में ही पिता का साया सिर से उठ जाने और बुआ के घर पर रहकर अपनी पढ़ाई आगे बढ़ाते हुए घर को संभालने के लिए खेलने- कूदने की उम्र अर्थात महज चौदह वर्ष में नौकरी से लगना पड़ाहो उसने क्या -क्या नहीं झेला होगा लेकिन हर बार वह मुश्किलों को धता बताते हुए उन्हें पीछे छोड़कर मुस्कराते हुए मानो उन्हें चुनौती देने के अंदाज में कहता हुआ नजर आता है-

"हमने बना लिया है नया फिर से आशियां जाओ ये बात फिर किसी तूफान से कह दो।"

अपनी छोटी- छोटी कमजोरियों और हल्के फुल्के आकर्षणों का वर्णन भी वह बड़े तटस्थ ढंग से करता है औरसगाई तथा शादी की घटनाएं तो बेहद नाटकीय ढंग से घटती दिखाई देती हैं।उसके बाद की घटनाओं को लेखक ने जिक्र भर में समेटते हुए अपने लिखने की शुरुआत की ओर भी संकेत सा ही किया है मानो वह कोई बहुत उल्लेखनीय बात ही न हो। जिस व्यक्ति ने अपने शुरुआती जीवन में हिंदी की शिक्षा ही न पाई हो उसका हिंदी में लिखना निश्चित तौर पर एक श्रमसाध्यकाम रहा होगा लेकिन लेखक उस श्रम को महिमा मंडित करना तो दूर उसके उल्लेख तक से कतराता है। आज सोशल‌ मीडिया के आत्मसजग समय में जब हम कुछ भी लिखकर लेखकीय पहचान कमाने के लिए व्याकुल रहते हैं वहीं बहुत कुछ लिखकर भी मदन शर्मा खुद को लेखन मानने से इन्कार करते हैं-" जितना छपा, उससे दुगना डस्टबिन के हवाले कर चुका था। इसके बावजूद, अपने छपे हुए को देख कितना दुख हुआ।वास्तविकता यही थी कि मुझे लिखना आता ही नहीं था।" (पृ 173) इस आत्मकथा को पढ़ते हुए मुक्तिबोध की कहानी 'मैं फिलसाफर नहीं हूं' की याद आ जाती है जिसमें ज्ञानी प्रोफेसर अपने आपको 'टैब्यूला रासा" अर्थात  बिलकुल कोरा बताने का साहस करता है। आत्ममुग्धता के दौर में जहां जीवन की हर छोटी-बड़ी घटना वह चाहे सुखद हो या दुखद प्रर्दशन की चीज समझी जाती है वहां आत्मस्वीकार का यह विनय या साहस कितनों में है यह प्रश्न भी इस रचना से गुजरते हुए सहज ही दिमाग में कौंध मारने लगता है। विनम्रता का यह भोला अंदाज और आत्मस्वीकृति का सहज साहस इस रचना की बड़ी खासियत है।

आत्मकथा को कथेतर गद्य की परिभाषा में बांधते हुए हम भले ही उसे किस्से कहानी से इतर विधामाने पर कथा रस कई मर्तबा वहां कहानियों से जरा भी कम नहीं होता यह बेझिझक कहा जा सकता है क्योंकि जिंदगी से दिलचस्प और हैरतअंगेज किस्सा कोई हो ही नहीं सकता। किस्सों कहानियों जहां में कोरी गप्प होती है वहीं आत्मकथा में सच्ची गप्प और आपबीती के साथ जगबीती भी। हालांकि इस आत्मकथा में आपबीती ही ज्यादा है पर अपनी कथा के साथ -साथ अपने रिश्तेदारों, दोस्तों की जिंदगी की झलकियां पेश करते हुए मदन शर्मा जी ने तत्कालीन शासक की सनकों के साथ शासन व्यवस्था की जो चंद तस्वीरें उकेरी हैं, उन्हें पढ़ते हुए किसी कथा को पढ़ने के  आनंद  के साथ ही इतिहास में झांकने  का अवसर भी मिलता है। मदनशर्मा जी की एक खासियत और है कि  इन्होंने लेखकीय सहजता को सपाटबयानी में ढलने नहीं दिया है। आलोच्य आत्मकथा  से गुजरते हुए सहज सरल और ईमानदार लेखन की प्रेरणा जरूर मिलती है। आज  के दौर में जब बतौर लेखक स्थापित या प्रचारित होने के लिए सिर्फ लिखना ही काफी नहीं होता बल्कि बहुत से कौशल भी करने पड़ते हैं, मदन शर्मा बहुत प्रसिद्ध या बड़े रचनाकार हैं या नहीं यह कहना तो मुश्किल है लेकिन इसमें कोई दो राय  नहीं कि बेहद सुलझे हुए भले और ईमानदार इंसान जरूर हैं।और अच्छा इंसान होना मशहूर लेखक होने से कहीं ज्यादा अच्छा है यह कहनेऔर स्वीकारने में मुझे जरा भी हिचक नहीं।

Monday, January 8, 2018

तिथि का बदला जाना चूक नहीं, षड्यंत्र है


कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति



आपको स्‍मरण करते हुए यूं तो देहरादून की उस गोष्‍ठी के प्रकरण को ही दर्ज करना चाहता था, जिसने हिंदी में दलित साहित्‍य की पूर्व पीठिका तैयार की। लेकिन इधर यह खबरें सुनने में आ रही है कि वर्णवादी संस्‍कारों में हिंसा का ताण्‍डव रचने वाले अपने तीखे नाखूनों से प्रहार करने लगे हैं। उनके प्रहारों की  ‘सांस्‍कृतिक’ बानी का रूप भी दिखने लगा है। वे आपकी आत्‍मकथा ‘जूठन’ को पाठ्यक्रम से हटा देना चाहते हैं। उनके कुतर्कों का पर्दाफाश करते हुए ही आलोचक वीरेन्‍द्र यादव को लिखना पढ़ा है कि ‘जूठन’ को न पढ़ाए जाने की मांग करने वालों का मानना है, ‘’इसको पढ़ाते हुए आध्‍यापकों की भावनाएं आहत होती हैं।‘’ समझना मुश्किल नहीं कि आहत भावनाओं वाले वे अध्‍यापक कौन हो सकते हैं, जैसे यह समझना मुश्किल नहीं कि इस रिपोर्ट को लिखने वाले पत्रकार के सरोकार क्‍या होंगे जो इस बात का ‘खुलासा’ करता है, ‘रूसा पाठ्यक्रम में अंग्रजी विषय के छठे सेमेस्‍टर में आजादी से पूर्व ओमप्रकाश वाल्‍मीकि के लिखे जूठन उपन्‍यास के अनुवादित अंश शामिल किए गए हैं।‘  यह 'खुलासा' इस बात का गवाह है कि वर्तमान को ही ठीक से न जानने वाली यह समझ इतिहास को किस तरह से तोड़ती मरोड़ती होगी। दिलचस्‍प तथ्‍य है कि मुख्‍यधारा की राजनीति करने वाले दो भिन्‍न धाराओं के छात्र संगठनों के बीच यहां कोई मतभेद नहीं। दोनों ही इस तरह की गफलत फैलाना चाहते हैं। तिस पर राजनेताओं का आलम यह कि वे तथ्‍यों के बारे में अनभिज्ञ होते हुए मामले की जांच करने की बात कहें तो।
  
क्‍या वे जानते हैं कि दलित आत्‍मकथाओं का इतिहास चेतना का सबक है ? ‘जूठन’ लिखकर तो आपने वह महती काम किया, बल्कि आपने ही क्‍यों, अन्‍य दलित रचनाकरों ने भी आत्‍मकथाओं का लिखकर इस बात को सुनिश्चित किया कि षड्यंत्रकारियों के लिए भविष्‍य में दलित रचनाकारों को उनकी पृष्‍ठभूमि से विलगाना संभव ही नहीं हो सकेगा। आप अक्‍सर कहा करते थे, ‘’ब्राह्मणवादियों ने बड़ी चालाकी से यह काम किया कि दलित-कामगार तबके का जो भी बौद्धिक दिखाई दिया उसे पुराणों में दर्ज करते हुए उन्‍होंने उसे ब्राह्मण मूल का ही बताया। इस तरह से सारे ज्ञान ध्‍यान का ठेका सिर्फ ब्राह्मणों के खाते में ही डाले रखा।‘’ अपनी बातों के पक्ष में आपके पास अकाट्य तर्क रहते थे। आत्‍मकथा लिखने के पीछे रचना का सुख प्राप्‍त करना जैसा तो उददेश्‍य था भी नहीं फिर आपका। आप तो दलित जीवन को दुनिया के सामने रख देने की जिम्‍मेदारी से भरे थे। अपने वर्तमान से प्रश्‍न करना चाहते थे। ‘’इस पीड़ा का अहसास उन्‍हें कैसे होगा जिन्‍होंने घृणा और द्वेष की बारीक सुइयों का दर्द अपनी त्‍वचा पर कभी महसूस नहीं किया ? अपमान जिन्‍हें भोगना नहीं पड़ा?  वे अपमान-बोध को कैसे जान पाएंगे ?  रेतीले ढूह की तरह सपनों के बिखर जाने की आवाज नहीं होती। भीतर तक हिला देने वाली सर्द लकीर खींच जाती है जिस्‍म के आर-पार।‘’[i] जैसे दूसरे लोगों की जिज्ञासाएं होती होंगी कि दलित लेखक शुरू में ही अपनी आत्‍मकथएं क्‍यों लिख देते हैं, मेरी भी रहती थी। पर आपकी बातें मुझे सोचने को मजबूर करती थी। मुझे यह समझने में दिक्‍कत नहीं आ रही थी कि दलित आत्‍मकथाओं को रचनाकारों का चूक जाना न मानू जैसा कि मुख्‍यधारा में मान लिया जाता है कि जब रचनाकार एक हद तक अपने रचनात्‍मक लेखन में कुछ जोड़ने के साथ नहीं रहता तो ही उसे आत्‍मकथा लिखनी चाहिए। दलित आत्‍मकथाओं को समझने के लिए यह तर्क कतई लागू नहीं किया जा सकता। बल्कि उन्‍हें तो इतिहास को बिगाड़ने वाली ताकतों के खिलाफ युद्ध के रूप में देखते हुए ही परिभाषित किया जा सकता है। इतिहास को बिगाड़कर प्रस्‍तुत करने वाले लाख चाहकर भी अपने षड्यंत्रों में सफल नहीं हो पाएंगे। दलित आत्‍मकथाओं का सच उनके हर झूठ का पर्दाफाश कर देगा और दुनिया भर के दलितों, शोषितों की उम्‍मीदों का चीराग बना रहेगा। एक रचनाकार के जीवन-संघर्ष, शोषित वर्ग के हर व्‍यक्ति को प्रेरित करते रहेंगे। उनकी रोशनी में वे दुनिया के षड्यंत्रकारियों को चुनौती देना सीखते रहेंगे।

आज जो ये आपके लेखन के दुश्‍मन हुए जा रहे हैं, वे थके हुए एवं हारे हुए लोग हैं। हिंसा को फैलाते हुए ही जिन्‍होंने हमेशा मेहनतकश तबके को शारीरिक ही नहीं मानसिक रूप से भी दबाए रखने के लिए हर हथकंडे का इस्‍तेमाल किया है। याद करो अपने पिता की कही वह बात जिसे आपने खुद ही दर्ज किया था, ‘’बेट्टे, तू एक गरीब चूहड़े का बेट्टा है ... इसे हमेशा याद रखियो...’’ [ii]  पिता ने आपको जिस ‘गरीब चूहड़े’ के जीवन को हमेशा याद रखने की हिदायत दी, यह वैसी ही हिदायत नहीं थी जो उसी जीवन के गलीचपन में डूबोने वाली थी। वरना आप जानते ही हैं आज जो ये आपको पाठ्यक्रम से निकालने की बात करने वाले लोग हैं, उस हेडमास्‍टर कलीराम से भिन्‍न कहां जो उस स्‍कूल से निकाल न पाने की स्थिति में पढ़ने से वंचित रखने और चूहडे़ के लड़के को चूहड़े का ही रहने देने के हालत बना देने में माहिर था।
‘’एक रोज हेडमास्‍टर कलीराम ने अपने कमरे में बुलाकर पूछा, ‘क्या नाम है बे तेरा ?’
’आमेप्रकाश’।
’चूहड़े का है ?’ यह वही हेडमास्‍टर था जिसे देखते ही बच्‍चे सहम जाते थे।
‘जी ।‘
’ठीक है... वह जो शीशम का पेड़ खड़ा है, उस पर चढ़ जा और टहनियां तोड़के णड़ू बना ले। पत्‍तों वाली झाड़ू बनाना। और पूरे स्‍कूल कू ऐसा चमका दे जैसा सीसा। तेरा तो यह खानदानी काम है। जा...फटाफट लग जा काम पे।‘’[iii]  

काश कि आपको व्‍यवस्थित पढ़ाई करने का मौका मिला होता। इतिहास, समाज, शिक्षा, धर्म, जाति- कितने ही तो विषय थे जिनसे आप रूबरू होने की इच्‍छा रखते थे। प्रश्‍नों को चुनौती की तरह स्‍वीकारते थे। एक समय तक जिस तरह से आप डॉ अम्‍बेडकर तक से परिचित न हो सके, ‘’मेरे लिए डॉ अम्‍बेडकर उस समय तक एक अपरिचित नाम था। मैं गांधी, नेहरू, पटेल, राजेन्‍द्र प्रसाद, राधाकृष्‍ण, विवेकानंद, टैगोर, शरत, तिलक, भगतसिंह, सुभाष बोस, चंद्रशेखर आजाद, सावरकर आदि के विषय में तो जानता था। लेकिन डॉ अम्‍बेडकर से अनजान था। ‘त्‍यागी इंटर कॉलेज, बरला’ में कक्षा बारह तक पढ़ाई करके भी किसी भी रूप में यह नाम मेरी जानकारी में नहीं आया था। उस पुस्‍तकालय में भी अम्‍बेडकर पर कोई पुस्‍तक नहीं थी।‘’[iv]  आज आपको पाठ्यक्रम से बाहर निकाल कर तमाम दलित विद्यार्थियों से आपको परिचित न होने देने का उनका षड्यंत्र ही है जो उस पत्रकार की लेखनी से उतरा है जिसमें वह आपके इस दुनिया से विदाई को आपकी पैदाइश के समय से भी वर्षों पहले लिख रहा है। वह अनाजने में की गई गलती नहीं है, एक षड्यंत्र ही है। जबकि आज सूचनाओं का इतना ढेर है। एक क्लिक में आपका नाम लिखकर भी आपके जन्‍म और विदा की तिथियों को कौन नहीं पा सकता था। आप ही ने तो उन्‍हें चेताया हुआ है कि एक पुस्‍तकालय से पुस्‍तकें लाकर और उन्‍हें पढ़-पढ़कर ही तो आप डॉ अम्‍बेडकर से परिचित होते गए। ‘’किताब लेकर मैं घर आ गया था। प्रारम्‍भ के पृष्‍ठों पर कुछ ऐसा नहीं था जिसे विशिष्‍ट कहा जा सके। लेकिन जैसे-जैसे मैं इस पुस्‍तक के पृष्‍ठ पलटता गया, मुझे लगा, जैसे जीवन का एक अश्‍याय मेरे सामने उघड़ गया है। ऐसा अध्‍याय जिससे मैं अनजान था। डॉ अम्‍बेडकर के जीवन-संघर्ष ने मुझे झकझोर दिया था।‘’[v]

वे ‘जूठन’ पढकर किसी दलित बच्‍चे को उसी तरह की छटपटाहट में जीने को मजबूर नहीं करना चाहते जैसा आप डॉ अम्‍बेडकर की पुस्‍तकों को पढ़ने के बाद करने लगे थे। कई दिन और कई रातों की उस बेचैनी में उसे डूबने देना नहीं चाहते, जिसमें आप डूबे रहे थे।

...जारी

  स्‍मृति


[i] जूठन, पृष्‍ठ 62
[ii] जूठन, पृष्‍ठ 84
[iii] जूठन, पृष्‍ठ 14/15
[iv] जूठन, पृष्‍ठ 88
[v] जूठन, पृष्‍ठ 88


Monday, December 25, 2017

दलित साहित्य सिर्फ संज्ञा नहीं, नये सौन्दर्यशास्त्र की स्पष्ट धमक हो

कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति



बहस तीखी हो चुकी थी। पहुंचे हुए अतिथि शायद जान ही चुके होंगे कि जो व्‍यक्ति अभी उनसे मुखातिब है उससे पार पाना आसान नहीं। वह तकरार नहीं, बहस थी और सामने वाले निरुत्‍तर।  

उस वक्‍त आपकी लड़ाई दलित साहित्‍य संज्ञा की नहीं, बल्कि उस चेतना की थी जिसमें दलितों को किसी भी अवसर से वंचित कर दिए जाने वाली मानसिकता से विरोध था। आप अपनी कविता के हवाले से कह ही सकते थे,

पथरीली चट्टान पर
हथौड़े की चोट
चिंगारी को जन्‍म देती है
जो गाहे-बगाहे आग बन जाती है

आग में तपकर
लोहा नर्म पड़ जाता है
ढल जाता है
मनचाहे आकार में
हथौड़े की चोट में ।
एक तुम हो,
जिस पर किसी चोट का
असर नहीं होता ।

लेकिन अतिथि के निवेदन पर भी आप कविता सुनाने को इच्‍छुक नहीं थे। यह आपकी फितरत भी तो नहीं थी कि सामने वाले को किसी भी तरह से प्रभावित करके अपने लिए एक सुगम रास्‍ता बना लें। यदि ऐसा किया होता तो फिर हो सकता है कि आपके नाम में ‘वाल्‍मीकि’ शब्‍द की जो अनुगूंज सुनाई देती है, उसे सुनना शायद ही मुमकिन हुआ होता। हो सकता है, हम सिर्फ किसी ओमप्रकाश को ही जानते। या फिर किसी ओमप्रकाश ‘खैरवाल’ को। यही तो था न आपके उस गोत्र का नाम जिसे चंदा भाभी अपने नाम के साथ इस्‍तेमाल कर लेती थी। चंदा खैरवाल। और आपसे भी जिक्र करती थी कि अपने नाम से वाल्‍मीकि हटाकर खैरवाल लिखे। कई बार मुझे भी सुननी पड़ी लताड़, ‘’ओए वाल्‍मीकियों हटो यहां से, मुझे बिस्‍तर उठाने दो। जाओ तब तक छत में जाके बैठो या निकलो यहां से, मुझे साफ-सफाई करनी है घर की।‘’ 

बहुत सामान्‍य सी बातों में भी उनके व्‍यंग्‍य में छुपी वेदना छलक ही आती थी। उनके घर साफ करने तक हम दोनों ही चुपचाप सड़क पर निकल आते थे। लेकिन आप उनके उस स्‍नेहपूर्ण व्‍यंग्‍यात्‍मक आग्रहों के आगे भी खुद को टूटने से बचाते रहे और अपने नाम के साथ जुड़े उस वाल्‍‍मीकि शब्‍द को बचाए रखते रहे। आपका सीधा सा तर्क था। जो आज वाल्‍मीकि से खैरवाल लिख दिया तो मालूम नहीं बाद में वह खैरवाल भी कभी अपनी ‘वाल’ को भी जुदा कर दे। ‘खैर’, ‘खुरी’, ‘खरे’ जैसे किसी सामाजिक रूप से ‘प्रतिष्ठित’ संज्ञा में बदल जाए। आपने उन ‘दुनियादार’ किस्‍म के लोगों की भी परवाह नहीं कि जो  आपका एक आकलन तो नाम सुनकर ही कर लेने के दुराग्रह के साथ थे। उन दुराग्रह से ग्रसित लोगों को ही तो संबोधित रही आपके कवि की आवाज। उन्‍हें ही तो लताड़ लगाती हुई है आपकी कविता। राजेन्‍द्र यादव से आप लड़ रहे थे और मानते थे कि वे वैसे दुराग्रही व्‍यक्ति नहीं है। क्‍या इस कारण ही तो कहीं आपने उनके अनुरोध पर भी कविता सुनाना उचित न समझा हो ?
आपका रोष किसी अवसर को चुरा लेने का नहीं था। वह आपकी फितरत की स्‍वभाविकता में था। लेकिन राजेन्‍द्र यादव तो उसमें एक दलित का आक्रोश देख रहे थे। इस मायने में उन्‍हें युगदृष्‍टा कहना ही पड़ेगा। वरना ‘सदियों का संताप’ के प्रकाशित होते हुए भी हम उस पुस्‍तक को दलित साहित्‍य की पुस्‍तक कहां कह पाए थे। अन्‍य कविता पुस्‍तकों की तरह वह भी मात्र एक कविता पुस्‍तक की तरह ही छपी थी। नेहरूयुवक केन्‍द्र के बगीचे में बैठकर उन कविताओं को भी तो दूसरी समकालीन कविताओं की तरह से परखने की कोशिश की गई थी। बाद के दौर में तो जब आप लगातार पत्रिकाओं में मौजूद रहने के चलते आत्‍मविश्‍वास महससू करने लगे तो आपने इस बात को जरूरी तौर पर रखना शुरु किया था कि दलित साहित्‍य के मूल्‍यांकन का पैमाना पहले से चले आ रहे सौन्‍दर्यशास्‍त्र से संभव नहीं। आपकी पुस्‍तक ‘दलित साहित्‍य का सैन्‍दर्यशास्‍त्र’ इस बात की गवाह है कि आप एक नया सौन्‍दर्यशास्‍त्र रचना चाहते थे। उस पुस्‍तक में तो आपने कुछ प्रारम्भिक बातें ही की। भविष्‍य में संभव होता कि आप कुछ निश्चित अवधारणओं तक पहुंचते। पर कम्‍बखत समय ने हमें भी वंचित कर दिया उससे।
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  स्‍मृति

Sunday, December 17, 2017

कुछ संस्कारित फुसफसाहटें

कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति



     निश्चित ही उस दिन ‘हंस’ संपादक राजेन्‍द्र यादव, कथाकार गिररिराज किशोर और प्रियवंद जी ने जान ही लिया होगा कि अजीब अहमकों का शहर है देहरादून, अतिथियों के आगमन को स्‍वीकार लेने ;से अनुग्रहित होने की बजाय, हर व्‍यक्ति अपनी ही तरह की अकड़ में रहे। घीसू-माधव की अकड़ को भी क्‍या अकड़ कहा जा सकता है ?
गए तो थे ऋषिकेश इसलिए कि अतिथियों को लिवा लाएंगे, पर लौटे ऐसे, मानो पहुंचने वाले उन्‍हें ही उनके शहर पहुंचाने आए हों। एक ड्राइवर के अलावा तीन व्‍यक्ति जब पहले से गाड़ी में हों तो उसी में ठुंस कर चले आने वाले घीसू-माधव के बारे में क्‍या कहा जाए भला। ऊपर से तुर्रा यह कि अतिथियों को कहां रुकवाना है, इस तक का भी कोई इंतजाम नहीं। अतिथियों को इच्‍छा जाहिर करनी पड़ रही हो कि जहां गोष्‍ठी रखी है, पहले वहीं चलते हैं, तो दोनों मेजबान हंसते है अपनी तरह। भोलेपन की मुस्कियों भरी विलम्बित लय में अवधेश और ठहाक भरे अंदाज में ताल की संगत देते हुए नवीन।  भला हो हम्‍माद जी का, यमुना भवन  का गेस्‍ट हाऊस खुलवा दिया। 
शाम घिर चुकी थी। कमरा खुल गया था। ‘टिप टॉप’ में खबर पहुंचा दी गई, सभी ‘टंटे’ यमुना कालोनी पहुंचे। आज की शाम रंगीन है। भाई जितेन ठाकुर को जिम्‍मेदारी तो पहले ही सौंपे हुए थे कि फौजी कैं‍टीन का जुगाड़ रखेंभाई।   जिन्‍हें खबर हुई, वे पहुंच गए। जिन तक खबर नहीं पहुंची, वे नहीं पहुंचे। आने वाले आए और अपने-अपने गिलास थाम कर बैठते गए। एक पत्रिका का संपादक सामने हो और शहर के अनाम लेखक अपनी रचना पढ़ने का उतावले न हों, यही अंदाज तो है देहरादून की गोष्ठियों का। आप मुझसे बेहतर जानते हैं, दून के बाशिंदे सुनाने में नहीं, सुनने में यकीन करते हैं। विद्धानों को सुनने का अवसर जुटाने के लिए गोष्‍ठी करते हैं।         
यमुना भवन की वही गोष्‍ठी थी जिसमें आपने ‘हंस’ संपादक राजेन्‍द्र यादव से सीधे सीधे तकरार शुरू कर दी थी। देहरादून में लिखने पढ़ने वालों के रूप में शायद राजेन्‍द्र यादव कुछ ही नामों से परिचित थे। मुख्‍य तौर पर सुभाष पंत, जितेन ठाकुर और अवधेश। नये लिखने वालों में नवीन नैथानी के बारे में भी उनकी कुछ राय बनने लगी थी। शायद, अपने मन की कोई ऐसी ही बात उन्‍होंने जाहिर कर भी दी थी। बस, वहीं वे फंस चुके थे। हिंदी साहित्‍य की दुनिया कैसे तथा‍कथित केन्‍द्रों  में तक अपना घेरा बनाए रहती है और कैसे गिरोहबाज लोग, छोटे शहरों की पहुंच को एक हद से आगे नहीं बढ़ने देते, जैसे विषय की जो परिणति आपकी उपस्थिति से जन्‍म ले सकती थी, आखिर वही हुआ। आपने तो अन्‍य मामालों में भी वंचनाओं की जो पीड़ा भोगी थी, उसका तार आखिर समाज को वंचित बनाए रखने वाले जाल को क्‍यों न भेदता भला। आपके कहे के आशयों को तजुर्मा करूं तो शायद उन बातों को रख पाना आसान हो कि राजेन्‍द्र यादव जी ने जो सुना, उसके अर्थ क्‍या लिए होंगे। निश्चित ही उन्‍हें अहसास हो गया होगा कि हिंदी के हम स्‍थापितों ने जो कुछ माहौल रचा हुआ है, उसके कारण हिंदी की दुनिया के अनुभवों का दायरा इकहरा है। वंचितों के प्रति संवेदनशीलता तो हमने बहुत प्रकट की है, लेकिन उस तबके के व्‍यक्ति के भीतर जो गुस्‍सा है, वह तो कहीं आया ही नहीं है। आप उस गोष्‍ठी में हो रही बातचीत का केन्‍द्र हो चुके थे।
काश, कि उस दिन नाटक की रिहर्सल में व्‍यस्‍त न होने की वजह से मैं भी उस गोष्‍ठी में होता। जो कुछ घटा, उसे बाद के दिनों में मित्रों से सुनकर जानने की बजाय साक्षात महसूस करता। आपसे कहूं कि यदि मैं वहां रहा होता तो उस वक्‍त अपने दूसरे साथियों के भीतर आपको लेकर जो गुस्‍सा फूट रहा होता, उसे भी बयान कर ही पाता। ‘शाम का मजा’ खराब हो जाने की वजह से उनके भीतर फूटने वाला गुस्‍सा कुछ इस की ‘संस्‍कारित फुसफसाहटों’ में ही होता कि वाल्‍मीकि तो यहां भी अपना ही राग लेकर बैठ गया, एक ही तो विषय है इसके पास। ऐसी गुनगुनाहटें मैं पहले भी और बाद बाद में भी कभी कभार सुनता ही रहा हूं। आपके न होने पर ताने मुझे ही झेलने पड़े हैं। मेरे सामने कह देने पर शायद वे मुझे अपने बीच का ही मानकर ऐसा कह पा रहे होते थे। यह बात मैंने आपको पहले कभी नहीं बतायी तो सिर्फ इसलिए कि आपके अंदाज में बढ़ जाने वाली तकरार हमारी सामूहिक दोस्तियों के लिए ठीक नहीं रहती, यह मेरी आशंका भर नहीं थी, आप जानते हैं एक दिन आप हरजीत पर कैसे चढ़ बैठे थे जब एक पोस्‍टर बनाकर उसने टिप टॉप में टांगा था जिसमें किसी अभिव्‍यक्ति (अभी याद नहीं कि किस विषय पर ) को प्रयुक्‍त हुए ‘भंगिमा’ शब्‍द को उसने कुछ इस अंदाज में लिखा था- भंगी-मां। आपके गुस्‍सा ऐसा फूटा था कि सिक्‍ख धर्म को अंगीकार करने वाले ज्‍यादातर लोग दलित जातियों से हैं, ऐसा उस दिन ही, पहली बार मुझे मालूम हुआ था। क्‍योंकि आपने हरजीत को कुछ इसी तरह की बातों से लताड़ा था और हरजीत को उसके पुश्‍तैनी कारोबार- ‘बढ़ई’ की याद दिलायी थी। आपके गुस्‍से में तो दूसरे दोस्‍त भी ब्राहमणवादी करार दे दिए जाते। जबकि मैं उनके बारे में भी जानता था कि ब्राहमण का ‘ब्रहम’ भी उनकी प्रेरणा कभी नहीं रहा। हां, संस्‍कारों से मिली शिक्षा के असर में वे कई बार ऐसी टिप्‍पणियों को कर जाते थे, जिन्‍हें वे खुद भी सही नहीं मानते रहे।
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Thursday, December 7, 2017

सेक्स और जनवाद को खदेड़ती लड़कियां

कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति


कौन जानता है कि कब किसका हंसना, बोलना, उठना, बैठना, रूठना, मनाना जैसा तात्‍कालिक भाव, भविष्‍य में जिक्र के साथ व्‍यक्तित्‍व का स्‍थायी मामला जैसा दिखने लगे। घीसू, माधव भी कहां जानते थे कि उनकी हरकतें इतिहास की किसी ऐसी कथा का हिस्‍सा हो जाएंगी जिसमें हिंदी का दलित साहित्‍य जन्‍म लेगा। मैं कथा सम्राट प्रेमचंद की कहानी के पात्र घीसू, माधव की बात नहीं कर रहा। अपने ही तरह के उन दो इंसानों की बात कर रहा जिनके भोलेपन में भी कितनी ही गंभीर हरकतें शामिल रहती थी। शाम होते ही जिन्‍हें कुलबुलाने का रोग था और अपनी उस कुलबुलाहट में ही अक्‍सर वे गैरजिम्‍मेदार नजर आने लगते है। रहे होंगे कभी हरजीत और अवधेश बहुत करीब। रहा होगा कभी अरविन्‍द इस तिकड़ी का एकमात्र संयोजक। पर उस वक्‍त तो जो जोड़ी सबसे ज्‍यादा अराजक कहलायी जा रही थी वह अवधेश जी और नवीन भाई की थी। ऐसे ही तो नहीं पडा था दोनों का नाम घीसू-माधव।  पर कौन घीसू, और कौन माधव ? इस प्रश्‍न से कभी कोई नहीं उलझा। आप भी तो नहीं उलझे न भाई साहब (वाल्‍मीकि जी) ।

याद होगा आपको एक दिन पहले ही टिप-टॉप की बैठक में घीसू-माधव ने सूचना दे दी थी कि आने वाले कल की शाम सारे ‘टंटे’ टिप-टॉप में जमा हों। याद नहीं आ रहा कि किसी भी बात को पोस्‍टर बनाकर टांग देने वाले हरजीत ने ऐसी कोई सूचना सार्वजनिक कर दी थी या नहीं कि ‘हंस’ संपादक राजेन्‍द्र यादव, कथाकार गिररिराज किशोर और प्रियवंद को ऋषिकेश आना है। प्रियवंद जी शायद कोई मकान खरीदना चाहते थे ऋषिकेश में । वह मकान शायद लेखक गीतेश शर्मा जी का था, जो कलकत्‍ता में रहते थे। बहुत निश्चित होकर नहीं कह पा रहा कि मकान किसका था। पर सुना था कि वह ऐसा मकान है जिसका मुंह गंगा की ओर खुलता है और प्रियवंद जी को संगमन के काम के लिए उपयुक्‍त लगा है। मालूम नहीं उस मामले का क्‍या हुआ होगा। देहरादून में लिखने पढ़ने वालों की जमात तीनों ही लेखकों के लेखन और नाम से परिचित थी लेकिन व्‍यक्तिगत परिचय का दायरा घीसू और माधव का ही था। अवधेश एक स्‍थापित कवि थे। अज्ञेय जी के द्वारा संपादित चौथे सप्‍तक के कवि और आर्टिस्‍ट के नाते उनका एक नाम था। पुरानी पीढ़ी के सुभाष पंत जी के अलावा दून की नयी पीढ़ी में जितेन ठाकुर के बाद नवीन भाई की कहानियां उस समय की दो स्‍थापित पत्रिकाओं ‘हंस’ एवं ‘सारिका’ में  प्रकाशित होने लगी थी जिसके कारण नवीन जितेन जी की तरह ही, अब कवि की बजाय कहानीकार नवीन नैथानी की पहचान को प्राप्‍त होने लगे थे। ‘चढाई’ उनकी पहली कहानी थी जो संभवत: 1989 दिसम्‍बर के ‘हंस’ में छपी थी और ‘हंस’ के उस अंक की यादाश्‍त हम दूनवासियों के लिए ‘चढ़ाई’ की बजाय उसी अंक में प्रकाशित आलोकधन्‍वा जी की कविताओं ‘पतंग’ और ‘भागी हुई लड़कियां’ ही रही। पूरे शहर के एक-एक व्‍यक्ति को न जाने कितनी कितनी बार उन कविताओं को सुनना पड़ा। ‘हंस’ नवीन भाई के थैले में होता था और मोका मिलते ही वे कविताएं पढ़ने लगते थे। यदि कविताओं के पाठ लयात्‍मक आवाज में न किये गये होते तो स्‍पष्‍ट जानिये देहरादून का हर बाशिंदा उस कवि आलोकधन्‍वा का दुश्‍मन हो गया होता जिसकी कविताओं को उन्‍हें सजा की हद तक सुनना पड़ रहा था। यह कहना शायद अति‍शयोक्ति न हो कि उन कतिवाओं के बाद हिन्‍दी की दुनिया में, शुरूआत में कविताओं में और बाद में कहानियों में भी, जिस तेजी से भागती हुई लड़कियां प्रवेश करने लगी, उसका कारण नवीन भाई के पाठ ही रहे होंगे। आलोक धन्‍वा की उन कविताओं का स्‍वर- ‘आकाश का नरम और मुलायम बनाते हुए कि बांस की सबसे पतली कमानी उड़ सके, दुनिया का सबसे पतसे पतला और रंगीन कागज उड़ सके और शुरू हो सके रोटियों किलकारियों की एक नाजुक दुनिया’ उस समय तक ‘हंस’ में जारी ‘सेक्‍स और जनवाद’ की बहस के लफंगेपन को भी भगा देने में प्रभावी हो रही थी। हालांकि आप भी जानते हैं एक संस्‍थानिक प्रदूषण का मुकाबला कोई एक अकेली कविता कब तक कर सकती है। ‘हसं’ की लफंगई के प्रभाव तो इतने गहरे रहे कि चाचियों, मामियो, बहनों की छातियों पर चढ़कर साइकिल चलाने वाली कहानियों से ही हिंदी कहानी को युवा मानने की प्रवृत्ति ने जोर पकड़ा। यहां तक कि वैचारिक शालीनता का जामा पहनकर निकलने वाली ‘पहल’ भी उसके प्रभाव से मुक्‍त नहीं रह सकी और अपना ऐसा युवा खोजने लगी जो रक्‍त संबंधों से बचते हुए पड़ोस की आंटियों की बेटियों के भागने में स्‍त्री विमर्श का नया पाठ रचे। ‘पहल’ के युवा के लिए जरूरी था कि अन्‍य युवाओं से हर मायने में जुदा हो और उस जुदापन में ही ‘पहल’ अपने प्रभाव की वैचारिकता को विदेशी रचनाओं के अनुवाद वाली उदारता में छुपा सकता था।


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