Wednesday, March 1, 2023

रचने में ही रचा जाता हूँ

समानांतर कहानी आंदोलन से लेखन में लगातार सक्रिय कथाकार सुभाष पंत ने फरवरी 2023 में अपनी उम्र के 84वें वर्ष को पार कर 85वें वर्ष में प्रवेश करते हुए अपने पाठकों और शुभचितकों को इस सुखद अहसास की सूचना को सार्वजनिक किया कि उन्होनें अपने नये उपन्यास “एक रात का फैसला” पूरा कर लिया है. निश्चित ही पाठक उपन्यास का 2023 में बेसब्री से इंतजार करेंगे.

लम्बे समय से रचनारत अपने ऐसे महत्वपूर्ण रचनाकर के सम्पूर्ण रचना संसार से गुजरने की कोशिश करते हुए यह ब्लाग मार्च माह की सारी पोस्टो को उनसे सम्बंधित रखते हुए किसी पत्रिका के एक विशेषांक की सी स्थितियाँ बनाना चाह रहा है. कोशिश रहेगी कि उनके प्रिय पाठक और सहयोगी रचनाकारो तक पहुंचा जाये. उम्मीद है वे अपने अपने तरह से अपना सहयोग अवश्य देना चाहेंगे. सुभाष पंत जी के नये उपन्यास का एक अंश भी पाठक अवश्य पढ़ पाएंगे.


मार्च माह के इस आयोजन की घोषणा के साथ हम यह भी अवगत कराना चाहते हैं कि इस पूरे वर्ष और आगे भी हम 80 की उम्र को पार कर चुके अपने उन मह्त्वपूर्ण रचनाकारो पर केंद्रित करने का प्र्यास करेंगे जो रचनाकर्म में लगातार सक्रिय हैं. यह खुलासा करने में हमें संकोच नहीं कि प्राथमिकता के तौर हम देहरादून के रचनाकार गुरूदीप खुराना
, मदन शर्मा और जीतेंद्र शर्मा, डा. शोभाराम शर्मा आदि के रचनाकर्म पर केंद्रित रहना चाहेंगे.  पाठकों से हमारा अनुरोध है, वे हमें अन्य शहरो में रहने वाले ऐसे रचनाकारो तक पहुंचा जाए. उम्मीद हैके बारे में अवश्य अवगत कराएंगे ताकि हम उन तक पहुंच सके.

आइये भागीदार होते हैं कवि शमशेर की कविता पुस्तक के शीर्षक से शुरु हो रही इस यात्रा के.  

विगौ


सुबह का भूला सुभाष पंत

सुरेश उनियाल



बात 1972 के जुलाई महीने की थी। उन दिनों कुछ घटनाएं लगभग साथ-साथ घटीं। अवधेश की कहानी सारिका के नवलेखन अंक में छपी तो यह हम सभी के लिए गर्व का विषय था। मैंने डीएवी कालेज में हिंदी साहित्य में एम.ए. में एड्मिशन ले लिया था। इसके कई कारणों में से एक तो यह था कि अवधेश और मनमोहन दोनों ही कालेज में पढ़ रहे थे, वरना मैं तो चार साल पहले ही गणित से एम.एससी. कर चुका था और उसके बाद से एक लंबी बेरोजगारी झेल रहा था। बेरोजगारी की वक्तकटी भी एक कारण था और एक तीसरा कारण भी था कि डीएवी कालेज की लाइब्रेरी में कहानी संग्रहों, उपन्यासों और आलोचना की किताबों का अच्छा संग्रह था और उन तक पहुंच बनाने के लिए कालेज में एड्मिशन लेना जरूरी था। एक दिन अवधेश ने अपनी क्लास के एक सुभाष पंत से परिचय कराया जो कई साल पहले गणित में ही एम.एससी. कर चुका था, अब एफ.आर.आई. (वन अनुसंधान संस्थान) में वैज्ञानिक के रूप में काम कर रहा था और सबसे बड़ी बात यह कि उसकी एक कहानी सारिका में प्रकाशन के लिए स्वीकृत थी। हमारे लिए यह तीसरी बात सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण थी। मेरे और मनमोहन व अवधेश के अलावा नवीन नौटियाल भी डीएवी कालेज में पढ़ा रहा था। बहुत देर तक हम चारों साथ रहे। सुभाष को हम लोगों ने शाम को डिलाइट में आने के लिए आमंत्रित भी कर लिया। आग्रह था कि अपनी वह कहानी और संभव हो तो कुछ और कहानियां भी ले आए।

डिलाइट हमारे बैठने का अड्डा था। देहरादून के घंटाघर के बगलवाले न्यू मार्किट की इस चाय की इस दुकान में शहर के लगभग वे सभी लोग इकट्ठा होते थे जो खुद को बुद्धिजीवी मानते थे। इनमें लेखकों के अलावा कुछ पढ़ाकू किस्म के लोग भी होते थे, राजनीतिक लोग भी होते थे लेकिन वे हमारी मेज पर कम ही आते थे। कभी कोई दिलचस्प चर्चा छिड़ जाती तो अपनी जगह पर बैठे-बैठे उनकी और से भी टिप्पणी आ जाती। शाम को डिलाइट में हमारी मंडली जमी। मैं, मनमोहन, अवधेश, देशबंधु और नवीन आदि कुछ मित्र रोज शाम को वहां जमा हुआ ही करते थे। इस सूची में उस दिन सुभाष पंत का नाम और जुड़ गया। उस शाम हमने सुभाष से तीन कहानियां सुनीं। पहली तो वही थी, ‘गाय का दूध’ जो जल्द ही सारिका में छपने जा रही थी। सुभाष के पास इस कहानी की स्वीकृति के लिए कमलेश्वर का हाथ से लिखा पत्र भी था जिसे हमारे आग्रह पर उसने दिखाया भी था। वह हम सब को बहुत ज्यादा प्रभावित करने के लिए काफी था। यह आदिवासी इलाके की पृष्ठभूमि पर लिखी गई थी। उस इलाके में कोई गाय नहीं है और एक अफसर के नवजात बच्चे के लिए गाय के दूध की सख्त जरूरत है। उसका एक चपरासी उससे बच्चे के लिए रोज दूध का इंतजाम करने का वादा करता है और लाता रहता है। तबादला होकर जब वह जाने लगता है तो चपरासी को इनाम तो देता ही है लेकिन उससे कहता है कि वह उस गाय को देखना चाहता है। गाय होती तो वह दिखाता। अफसर के सामने वह अपनी बीवी को ले आता है और कहता है कि साहब यह रही मेरी जोरू और आपके बेटे की गाय। कमलेश्वर के समांतर कहानी के पैमाने पर यह पूरी तरह से खरी उतरती थी। ओ हेनरी की शैली में होनेवाला कहानी का अंत सबको चौंकाता था।

दो कहानियां और सुनाई सुभाष ने और वे दोनों ‘गाय का दूध’ से बेहतर लग रही थीं लेकिन पता चला कि उनमें से एक सारिका को भेजी गई थी, लेकिन वह कमलेश्वर के उसी हस्तलेख में लिखे पत्र के साथ वापस आ गई। वह सारिका के मिजाज की कहानी नहीं थी। वे कहानी सारिका के समांतर दौर के थीम की नहीं थी जिनमें आम आदमी किसी तरह अपने को बचाए रखने के लिए एक जगह खड़ा हाथ-पैर पटकता था, बल्कि वह तो हालात बदलने के लिए संघर्ष के लिए प्रवृत्त करने वाली कहानी थी। वे सीधी बात करने वाली कहानियां थीं। वे मजेदार नहीं, तकलीफदेह कहानियां थीं। इसके बाद हुआ यह कि सुभाष ने इस दूसरी तरह की कहानियों को लिखना छोड़ दिया और कमलेश्वर की समानांतर के किस्म की कहानियां लिखने लगा। आज सोचता हूं कि अगर सुभाष की वह कहानी सारिका में न छपी होती तो आज वह एक दूसरी तरह का लेखक होता।

ये सब हालांकि सुभाष की शुरुआती कहानियां थीं, लेकिन खासी मेच्योर थीं। सुभाष की कहानियां किस्सागोई का अंदाज लिए होती हैं लेकिन साथ ही चुस्त जुमले और भीतर गहरे में एक व्यंग्य भी इनमें होता था। सुभाष के पास एक गजब की कल्पना शक्ति थी और पूरी तरह दिमाग से निकले चरित्रों की छोटी से छोटी डिटेल सुभाष इस तरह बुनता हुआ चलता था कि काल्पनिक होते हुए भी वे यथार्थ की दुनिया से उठाए गए पात्र लगते थे। सुभाष ने कहानी कहने का अपना जो तरीका लेखन की शुरुआत में खोज लिया था, उस पर आज भी अमल कर रहा है। उन सारी मार्मिक स्थितियों में जहां आम तौर पर लेखक पाठक को भावनाओं में डुबाने की कोशिश करते हैं, वहां सुभाष बहुत ही तटस्थता के साथ छोटी से छोटी डिटेल के साथ कहानी को बुनते हुए कमाल का असर पैदा कर देता है। कहीं-कहीं आपको ये डिटेल्स कुछ ज्यादा उबाऊ लग सकती हैं लेकिन कहानी का प्रवाह आपको कहानी के साथ बनाए रखने के लिए बाध्य भी किए रहता है। उनके सहज से लगते वाक्यों में एक तीखा व्यंग्य तो होता ही है, जबरदस्त पठनीयता भी होती है। हम सब पर सुभाष पंत की रचनात्मकता का रौब पड़ चुका था।

इसके बाद से सुभाष देहरादून की साहित्यिक गतिविधियों का एक जरूरी हिस्सा बन गया था।

करीब एक साल बाद मैं देहरादून छोड़कर दिल्ली आ गया था लेकिन देहरादून की नागरिकता मैंने कभी छोड़ी नहीं। साल की गर्मियों में एक-डेढ़ महीना तो मेरा देहरादून में ही बीतता था। इसके अलावा जब भी कोई महत्वपूर्ण गतिविधि वहां होती, मैं पहुंच ही जाता था।

समानांतर कहानी का दौर था और कमलेश्वर की निकटता के कारण सुभाष को देहरादून में कमलेश्वर का ध्वज वाहक बनना ही था। लेकिन समानांतर को लेकर मेरे मन में कुछ सवाल थे। इन सवालों को लेकर सुभाष से काफी बहसें भी हुईं लेकिन इन मतभेदों का हमारे आपसी रिश्तों पर कभी कोई असर नहीं पड़ा। बल्कि सुभाष ने मुझे समानांतर के राजगीर सम्मेलन में आने का निमंत्रण भी दे दिया ताकि ज्यादा करीब से इस सब को देख सकूं। मैं गया भी। कमलेश्वर से वहां पहली मुलाकात हुई।

उन दिनों मैं दिल्ली में नेशनल बुक ट्रस्ट में काम कर रहा था। एक दिन सुभाष का पत्र मिला कि सारिका में सब-एडिटर की जगह निकली है और कमलेश्वर चाहते हैं कि मैं उसके लिए एप्लाई करूं। यह मुझे बाद में पता चला कि दरअसल कमलेश्वर सुभाष को सारिका में लेना चाहते थे लेकिन सुभाष देहरादून छोड़ने की स्थिति में नहीं था और उसने अपने बदले मेरी सिफारिश की थी। कमलेश्वर मुझसे मिलना चाहते थे और राजगीर का निमंत्रण मुझे उसी सिलसिले में दिया गया था। लेकिन राजगीर में न तो कमलेश्वर ने और न ही सुभाष ने इस बारे में मुझसे कोई बात की थी।

उन दिनों सुभाष ने एक उपन्यास लिखना शुरू किया था। कालेज जीवन पर आधारित था और नाम था: ‘महाविद्यालय, एक गांव’। उसके कुछ अंश देहरादून में सुने भी गए थे। माहौल हम लोगों का परिचित था। कुछ आइडिया मैंने भी दिए। मेरे सारिका में जाने तक सुभाष उस उपन्यास को लेकर खासा उत्साहित था। उसके कुछ अंश मैं सारिका के लिए ले भी गया था। वे छपे तो उनकी खासी तारीफ भी हुई। लेकिन जब मैं छुट्टियों में देहरादून गया तो पता चला कि उपन्यास जितना लिखा गया था, उसके बाद आगे बढ़ाया ही नहीं गया। सुभाष को उसमें कोई संभावना नजर नहीं आ रही थी। मेरे खयाल से यह एक बेहतर उपन्यास की भ्रूण-हत्या थी।

सारिका दिल्ली आई तो मैं भी मुंबई से दिल्ली आ गया और नियमित तौर पर देहरादून जाने का सिलसिला शुरू हो गया। छोटे शहर का एक फायदा यह होता है कि आदमी हर तरह की गतिविधियों से जुड़ सकता है। देहरादून में थिएटर का सिलसिला शुरू हुआ तो सुभाष उसका एक अहम हिस्सा था। बंसी कौल ने थिएटर वर्कशाप की और सबसे पहले मोहन राकेश का नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ खेला गया। सुभाष ने तो नहीं लेकिन उनकी पत्नी हेम ने उस नाटक में अभिनय भी किया था।

क्षमा चाहूंगा, हेमजी के बारे में लिखना तो मैं भूल ही गया था। मेरे खयाल से सुभाष जो कुछ भी हैं उसकी सबसे बड़ी वजह हेम का उनकी पत्नी होना है। सुभाष जैसे अपने प्रति लापरवाह आदमी को सही तरीके से मैनेज करना उन्हीं के बस की बात थी। हम लोग जब उनके घर जाते तो ऐसा लगता ही नहीं था कि हम अपने घर पर नहीं हैं। लंबी-लंबी साहित्यिक गप्प-गोष्ठियों के बीच सही अंतराल पर बिना मांगे चाय आ जाती थी। और ऐसा भी नहीं कि वह रसोई में ही लगी हों, हमारे बीच बैठकर बहसों में भी पूरी हिस्सेदारी होती थी। होता यह था कि कई बार सुभाष की किसी कहानी को हम संकोच वश ज्यादा उधेड़ते नहीं थे लेकिन वह बड़ी बेरहमी से उसकी खाल खींचकर रख देतीं। उनकी उस खुशमिजाजी को देखते हुए कोई बता नहीं सकता था कि वह हाइपरटेंशन की मरीज हैं। आज भी उनके इस मिजाज में कोई परिवर्तन नजर नहीं आता।

बात नाटकों की हो रही थी। सुभाष देहरादून के पहले थिएटर ग्रुप ‘वातायन’ के संरक्षकों में से थे। उसी दौर में उन्होंने एक नाटक भी लिखा था, ‘चिड़िया की आंख’। देहरादून में उसके काफी शो भी हुए। एक नाटक सुभाष पंत के निर्देशन में भी हुआ था। नाटकों की सफलता को देखते हुए जल्द ही शहर में कई थिएटर ग्रुप पैदा हो गए। यह देखकर सुभाष ने धीरे-धीरे थिएटर से किनारा कर लिया। इस दौरान सुभाष कहानियां भी लिखते रहे। उनके दो कहानी संग्रह ‘तपती हुई जमीन’ और ‘चीफ के बाप की मौत’ प्रकाशित हो चुके थे। और मजे की बात यह रही कि एक उपन्यास भी सुभाष ने शुरू किया। नाम था, ‘सुबह का भूला’। उपन्यास के मामले में सुभाष का इतिहास देखते हुए मुझे तो कम से कम उम्मीद नहीं थी कि वह उपन्यास भी पूरा हो सकेगा। लेकिन सुबह का भूला घर लौट आया था। सुभाष ने सचमुच यह उपन्यास पूरा कर लिया। यह मेरे लिए एक सुखद आश्चर्य था।

फिर सुभाष ने एक तीसरा उपन्यास शुरू किया, ‘पहाड़ चोर’। इस बात को करीब तीस साल हो गए होंगे। सुभाष ने करीब पचास पेज लिख लिए थे। तय हुआ था कि सुनने के लिए मसूरी चला जाए। मैं और नवीन नैथानी सुभाष के साथ एक सुबह मसूरी पहुंच गए। कैमल्सबैक रोड के सुनसान रास्ते के थोड़ा ऊपर बांज के एक पेड़ के नीचे बैठकर हमने वह उपन्यास सुनना शुरू किया। तय था कि आधा सुनने के बाद जीत रेस्तरां जाकर चाय पीएंगे और फिर आकर बाकी सुनेंगे। लेकिन जब पढ़ा जाना शुरू हुआ तो बीच में से उठने का मन ही नहीं हुआ।

इस बार सुभाष ने विषय उठाया था चूना पत्थर खदानों के उस जंजाल का जो न सिर्फ पहाड़ों का पर्यावरण खराब कर रहा था बल्कि उस क्षेत्र में रहनेवाले लोगों की जिंदगी के लिए खतरा भी बन गया था। देहरादून के सहस्रधारा क्षेत्र के जिस गांव झंडू खाल को सुभाष ने इस उपन्यास के केंद्र में लिया था वह एक वास्तविक गांव था जो इन खदानों की भेंट चढ़ गया था। कई बरस पहले उस गांव का अस्तित्व खत्म हो गया था। चमड़े का काम करने वाले उस गांव के चरित्रों के लिए सुभाष ने जरूर कल्पना का सहारा लिया, लेकिन देहरादून के आसपास के किसी भी पहाड़ी गांव का समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र इससे भिन्न नहीं होता।

विषय अच्छा था। अच्छे से ज्यादा महत्वपूर्ण था। पर्यावरण की दृष्टि से ही नहीं, इनसानी आबादी के साथ किए जाने वाले छल को लेकर भी सुभाष अपने इस उपन्यास में सवाल उठाता नजर आ रहा था। इसलिए मैं नहीं चाहता था कि ऐसा विषय किसी भी स्थिति में एक बार फिर सुभाष की लापरवाही का शिकार बने। शायद कोई नहीं चाहेगा।

अगली बार देहरादून पहुंचा तो जाहिर है कि सुभाष से मुलाकात में पहला सवाल उस उपन्यास को लेकर ही था और उम्मीद के मुताबिक वह वहीं का वहीं था। वही करीब पचास पेज। काफी लानत-मलामत के बाद इस शर्त पर सुभाष को बख्शा गया कि अगली मुलाकात तक उस पर जरूर कुछ न कुछ काम हो चुका होगा। एक सकारात्मक बात यह थी कि हर बार सुभाष ने उस उपन्यास को आगे बढ़ाने की उम्मीद जरूर जताई। यह सिलसिला करीब दस साल चला। उपन्यास एक बार अटका तो अटका ही रहा। बल्कि इन सालों में वह पचास पेज भी सिलसिलेवार नहीं रह गए थे। बीच के कुछ पेज कहीं खो गए थे।

फिर सुभाष रिटायर हो गया। खाली समय में सुभाष का लेखक एक बार फिर पूरे जोश के साथ सक्रिय हो उठा। इस दौरान सुभाष ने खबर दी कि उपन्यास के खोए हुए पेज मिल गए हैं और सुभाष ने उस पर आगे काम शुरू कर दिया है। उन्हीं दिनों एक अच्छी बात यह भी हुई कि सुभाष ने कंप्यूटर ले लिया और अब वह उपन्यास उसमें था। हर बार उसमें कुछ पेज जुड़े देखकर अच्छा लगता था। एक अच्छी बात यह थी कि बीच में एक लंबा अरसा गुजर जाने के बाद भी उपन्यास की रवानी में कोई फर्क नहीं आया।

पहाड़ चोर’ में सुभाष कहानी कहते हैं एक गांव झंडू खाल की। हरिजनों के इस गांव को चूना पत्थर माफिया के कारण एक दिन नक्शे पर ही से गायब हो जाना पड़ा था। कागजों पर से ही नहीं, वास्तव में भी। यह आज़ादी के फौरन बाद के उस दौर की कहानी है जब गांवों के भोले लोग राम राज्य के सपने देख रहे थे, जब वह समझ रहे थे कि सुराज के रूप में उनके लिए किसी स्वर्ग के द्वार खुल जाएंगे। और ऐसे में उनके लिए द्वार खुलते हैं उस नरक के जो उनके जीने के हर साधन को एक-एक करके उनसे छीनता चला जाता है।

यहां हर पात्र की अपनी कहानी है, उनके सपनों की कहानी है। उनके छोटे-छोटे सुखों और उसके पीछे छिपे पहाड़ से दुखों की कहानी है। कहानी उस दिन शुरू होती है जिस दिन जीपों का एक काफिला इस गांव में आकर रुकता है। सामने वह पहाड़ था जो उनके लिए सोने की खान साबित होने जा रहा था। वहां तक अपनी मशीनों को ले जाने और वहां से पत्थर को लाने वाले गट्टुओं के लिए रास्ते की जरूरत थी और वह रास्ता इसी गांव वालों के खेतों में से बनाया जाना था। पत्थर निकालने के लिए मजदूरों की फौज भी तो इसी गांव से मिलनी थी। गांव में दो दल बन जाते हैं। कुछ को कंपनी उनकी समृद्धि का रास्ता लगती है तो कुछ उसे अपने खेतों को हड़पने वाली राक्षसी क¢ रूप में देख रहे हैं।

कंपनी के पास पैसे की ताकत है और गांव वालों को देने के लिए सपनों का खजाना। और गांव के ऊपर का पहाड़ ट्रकों में भरकर जाने लगता है। इसके साथ ही उनकी एक-एक चीज छिनकर जाने लगती है। पहले उनके हाथ से जंगल जाता है जहां से वे अपने पशुओं के लिए चारा, चूल्हे में जलाने के लिए लकड़ी, सब कुछ लाते थे। फिर पानी छिनता है। जो धारा बारहों महीने चौबीस घंटे मीठे पानी का स्रोत बना होता था, अचानक सूख जाता है। गांव में त्राहि मच जाती है। वे कंपनी के साथ असहयोग करते हैं। अपने गाड़ियों को रोकने लगते हैं। और देखते हैं कि कुछ दिन काम रुकने पर फिर से धारे में पानी वापस आ गया है। लेकिन जब कंपनी के कुछ अफसर गांव में पानी की लाइन लाने के वादा करके गांववालों से अपना आंदोलन वापस लेने के लिए तैयार करने की कोशिश करते हैं तो एक बार फिर गांव दो गुटों में बंट जाता है और अंततः काम फिर से शुरू हो जाता है।

बरसात गांव के लिए एक और आपदा बनकर आती है। जो जंगल बारिश के पानी को अपने में समेटकर धारों के रूप में पूरे साल में धीरे-धीरे वापस करते थे, वे तो रहे नहीं। पत्थर और मिट्टी के ढूह पानी को रोकना तो दूर, उसके साथ पूरे जोर के साथ गांव पर टूट पड़ते हैं। पहले गांव के कुछ घर की इस संकट से दो-चार होते हैं, लेकिन साल दर साल संकट बढ़ता जाता है और एक दिन गांव को ही लील जाता है।

पहाड़ चोर’ सुभाष की बाकी रचनाओं से हर लिहाज से अलग था। विषय के लिहाज से भी और ट्रीटमेंट के लिहाज से भी। पहाड़ के जंगलों के विवरण हालांकि सुभाष ने कल्पना से ही तैयार किए थे विभिन्न मौसमों में होनेवाले वानस्पतिक परिवर्तनों को जिस बारीकी के साथ चित्रित किया गया था, वह अद्भुत है। इसके लिए सुभाष को अपने एफ.आर.आई. के अनुभवों का आभारी होना चाहिए।

मैं उपन्यास को पैनड्राइव पर अपने साथ ले आया। एक एक्सपर्टाइज तो मेरा था, सबिंग का। उसे प्रेस में भेजने लायक बनाया। राजपाल एंड संस ने इसे छापा। समीक्षाओं के लिए प्रकाशक के पास कोई कापी नहीं थी। इससे पहले कि समीक्षाओं का कोई सिलसिला शुरू किया जाता, उपन्यास का पहला संस्करण बिक गया। दूसरा संस्करण छापने के लिए अब प्रकाशक तैयार नहीं हैं। एक बेहतरीन उपन्यास इस तरह से एक स्वार्थी प्रकाशक की निर्ममता का शिकार होकर अचर्चित ही रह गया। वैसे मैं यह दावे से कह सकता हूं कि अगर प्रकाशक ने उसकी सही ढंग से मार्किटिंग की होती और समीक्षा के लिए किताबें देने में उदारता दिखाता तो उसके एक-दो नहीं बल्कि कई संस्करण अब तक छप और बिक चुके होते।

इस बीच सुभाष के दो कहानी संग्रह ‘मुन्नीबाई की प्रार्थना’ और ‘जिन्न और अन्य कहानियां’ प्रकाशित हो गए थे। इन्हें नए संग्रह तो नहीं कह सकते क्योंकि कुछ नई कहानियों के साथ-साथ कुछ पुरानी कहानियां भी इसमें डाल दी गई थीं।

उन्होंने अपनी कहानियों के लिए एक ऐसा केंद्रीय थीम चुना जो कभी पुराना नहीं पड़ सकता। जो आज भी उतना ही मोजूं है जितना बीस, तीस या चालीस साल पहले था। यह विषय था आज़ादी से मोहभंग का; उनके पात्र उस उम्र के हैं जिसमें उन्होंने आज़ादी से पहले के वक्त को भी देखा है और आज़ादी के बाद के वक्त को भी। देखा ही नहीं जिया भी है। कुछ सपने उन्होंने पाले थे आज़ादी को लेकर और आज वे इन सपनों को टूटता महसूस कर रहे है। सपनों को हम टूटते हुए देखते हैं। ‘मुन्नीबाई की प्रार्थना’ की बात करें तो चाहे ये सपने शीर्षक कहानी की मुन्नीबाई के हों या ‘म्यान से निकली तलवार’ के ‘मैं’ के, ‘दूसरी आज़ादी’ के कोल्टे की हो या ‘खिलौना’ के नेकराम उर्फ निक्का बादशाह के। इन सब कहानियों में वह आज़ादी के बाद के उसी मोहभंग की बात करते हैं जो एक जमाने पहले हिंदी कहानियों का विषय हुआ करता था। और आज के लेखक इसे लगभग भूल ही चुके हैं। लेकिन उस दौर में और आज के दौर में एक बड़ा फर्क यह आ गया है कि इन पचास सालों में हमारे मूल्य बहुत बदल गए हैं। जिन बातों को लेकर पचास साल पहले हम चौंकते थे वे आज हमें सामान्य लगती हैं। ‘खिलौना’ कहानी के नेकराम के निक्का बादशाह बनने की प्रक्रिया में हम इस परिवर्तन की क्रमिकता को देख सकते हैं।

जिन्न और अन्य कहानियां की शीर्षक कहानी अलादीन के चिराग के जिन्न की कहानी को एक नए परिप्रेक्ष्य में पेश करती है। गरीब मछुआरे सदाशिव के जाल में एक बोतल फंस जाती है जिसे खोलते ही उसका जिन्न बाहर आ जाता है। जिन्न उसका हर काम करने के लिए तैयार है लेकिन उसकी एक शर्त है, जब उसकी सारी इच्छाएं पूरी हो जाएं तो उसे तीन दिन के भीतर इस बोतल को बेचना होगा। अगर न बेचा तो उसकी सारी संपत्ति नष्ट हो जाएगी और वह घोर विपत्ति में फंस जाएगा। इस बोतल को बेचने के लिए भी एक शर्त है कि वह बोतल की खूबियों को ग्राहक के सामने नहीं दिखाएगा। एक शर्त यह भी थी कि जितने दाम पर ग्राहक उससे यह बोतल खरीदेगा, अपनी इच्छा पूरी होने के बाद तीन दिन के भीतर उससे कम दाम पर दूसरे ग्राहक को बेच देगा। यह शर्त उसके लिए एक ऐसी दौड़ की शुरुआत कर देती है जिसके लिए उसकी अपनी ज़िंदगी नरक के समान हो जाती है उसे बाकी ज़िंदगी भर भागते रहना पड़ता है। पाने और पाते रहने की इच्छा उसका वह छोटा सा सुख भी छीन लेती है जो अभाव में उसे गरीब को मिल रहा था, छोटी-छोटी खुशियों से खुश होने का सुख।

सुभाष पंत ने शुरुआत तो समांतर कहानी आंदोलन के साथ की थी। समांतर कहानी उस दौर की जरूरत थी या नहीं, इस पर बहस हो सकती है लेकिन आज स्थितियां उस दौर से ज्यादा भयावह हैं और आज का आम आदमी सत्तर के दशक के उस आम आदमी के मुकाबले कहीं ज्यादा तकलीफों से गुजर रहा है। सत्ता के अपराधीकरण, धर्म के रानीतिकीकरण और बाज़ार के वैश्वीकरण के बाद ये तीनों ताकतें आज कहीं अधिक विकराल रूप में सामने हैं। इन्होंने मिलकर उसके बहुत से हक एक-एक करके उससे छीन लिए हैं। काम की जगहों पर आज काम की शर्तें उसके लिए मुश्किल बनती जा रही हैं। बाज़ार में उसे जिस तरह मुनाफाखोरी की ताकत के आगे पिसने के लिए छोड़ दिया गया है, उसने उसका जीना और भी मुहाल कर दिया है। धर्म के नाम पर, आतंकवाद के नाम पर मारे जाने के लिए सबसे आसान शिकार उसे ही बना दिया गया है।

देखा जाए तो सुभाष पंत की कहानियां किसी आंदोलन की मोहताज नहीं थीं। उन्होंने अपनी कहानियों के लिए एक ऐसा केंद्रीय थीम चुना जो कभी पुराना नहीं पड़ सकता। जो आज भी उतना ही मोजूं है जितना बीस, तीस या चालीस साल पहले था। यह विषय था नेहरूवाद से मोहभंग का; उनके पात्र उस उम्र के हैं जिसमें उन्होंने आज़ादी से पहले के वक्त को भी देखा है और आज़ादी के बाद के वक्त को भी। देखा ही नहीं जिया भी है। कुछ सपने उन्होंने पाले थे आज़ादी को लेकर और आज वे इन सपनों को टूटता महसूस कर रहे है।

पहाड़ चोर’ के पूरा हो जाने से उत्साहित सुभाष ने एक उपन्यास और शुरू किया। आडवाणी की रथयात्रा और बाबरी मस्जिद के गिराए जाने की खबरों से आम आदमी के मनोविज्ञान और व्यवहार में जिस तरह के बदलाव आए हैं, लोगों के बीच के आपसी रिश्ते जिस तरह से बदले हैं, उसी की एक पड़ताल इस उपन्यास में आए थे। यह शुरुआत से आगे नहीं बढ़ सका। 

इसके बाद सुभाष ने एक और उपन्यास शुरू किया, महानगरों की मॉल संस्कृति पर। एक आदमी एक मॉल में जाता है और वहां कहीं खो जाता है। विषय हालांकि लंबी कहानी का था लेकिन सुभाष का मन इस पर उपन्यास लिखते का बन गया। यह भी कहीं दस-बीस पन्नों में अटका पड़ा है।

उपन्यासों का इस तरह से गर्भपात लगता है सुभाष का अंदाज ही बन गया है। लेकिन 84 साल की उम्र पूरी कर लेने के बाद भी उनकी कहानियां लगातार आ रही हैं। संवेदना की गोष्ठियां भी देहरादून में निरंतर हो रही हैं और सुभाष की उपस्थिति उनमें नियमित रूप से बनी रहती है। वहां वह कुछ न कुछ सुनाते हैं और सुनाने में वही उत्साह होता है जो जवानी के दिनों में होता था। कहानियां पर साथियों की आलोचनाओं को आज भी वह गंभीरता से लेते हैं और उनकी शंकाओं का दूर करने की पूरी कोशिश करते हैं।

एक अच्छी बात यह है कि उम्र के 84 पड़ाव पार कर लेने के बाद भी उनकी कलम अभी निरंतर चल रही है। उनकी हाल की कुछ कहानियों में मुझे उस तरह के तेवर लौटते नजर आए हैं जो सारिका में कहानी छपने से पहले की कहानियों के थे। मैं तो इसे एक सकारात्मक बदलाव मानता हूं।

Sureshuniyal4@gmail.com


Sunday, January 1, 2023

महेश कटारे की कहानी- पार

हमारे लिये यह खुशी की बात है कि कथाकार राज बोहरे ने अपनी पसंद की कहानियो का चयन हमारे साथ शेयर करने का दायित्व लिया है. उसी शृंखला की आज पहली कहानी उनकी टीप के साथ प्र्स्तुत है.
महेश कटारे हिंदी कहानी का वह चेहरा हैं जिसे ग्रामीण कथाओं का उस्ताद कथाकार कहा जाता है। अपनी कहन में किस्सागोई को अनायास शामिल कर लेने वाले महेश कटारे जितना हिंदी बेल्ट में पढ़े जाते हैं उतना ही वे अहिंदी भाषी क्षेत्र में पढ़े जाते हैं । उनकी कहानियों की एक सीरीज जब इंटरनेट की एक वेब पोर्टल पर डाली गई तो उसके 10,000 डाउनलोड हिंदी बेल्ट में थे तो 9800 डाउनलोड अहिंदी भाषी क्षेत्र में थे। केवल गांव ही नहीं अपने परिवेश से जुड़े डाकू, पकड़, अपहरण और पुलिस से जुड़े तमाम वे तथ्य जो इस इलाके का एक गहरा भुक्तभोगी ही जान सकता है और जो हिंदी के पाठकों के लिए एकदम नया विषय व परिवेश लेकर आता है, वह सब महेश कटारे की कहानियों में होता है। यह कहानी 'पार' अपने शीर्षक में ही कई अर्थ देती है। प्रकट में तो केवल चंबल नदी के पार जाने की कथा है। एक महिला डकैत (जो पिछड़े वर्ग से आती है )अपने साथियों के साथ यह तय करती है कि जब तक पुलिस की सख्ती है मध्य प्रदेश से निकलकर उत्तर प्रदेश में चले जाओ । मध्य प्रदेश से उत्तर प्रदेश जाने का रास्ता चंबल नदी पार करने पर ही सुगम होता है, सड़कों पर पुलिस नाके हैं तो चंबल पार करने की यह कहानी अपने अर्थ विस्तार में बहुत सारी हदों को पार करा देती है। चंबल घाटी में भी पिछड़े वर्ग से डकैत आने लगे हैं तो स्त्रियों की डकैत बनने लगी हैं। इन नए जमाने के डकैतों का बर्ताव भी ठीक वैसा ही है जैसा अगड़े वर्ष के डकैतों का होता था। हां इतना फर्क है कि यह सब वह सारे काम और शोषण अगड़े वर्ग के साथ करते हैं उसी तेवर के साथ। उसी तरह की सख्ती करने में उन्हें कोई गुरेज नहीं है। इस कहानी के अंत में नायिका कमला केवल नदी नहीं एक और हद, एक और सीमा, एक और टैबू को पार करती है । नर नारी जून का फर्क मिटाती इस कहानी को जरूर पढ़ना चहिए प्रस्तुति -राज बोहरे

पार

        जान-पहचानी गैल पर पैर अपने-आप इच्छित दिशा को मुड़ जाते थे। हरिविलास आगे था-पीछे कमला उसके पीछे अपहरण किया गया लड़का तथा गैंग के तीन सदस्य और थे यानी कुल छह जने। जिस समय वे ठिकाने से चले थे तब सामने पूरब में शाम का इन्द्रधनुष खिंचा था अतः अनुमान था कि सबेरे पानी बरसेगा-संझा धनुष सबरे पानी। ठिकाने पर एक दिन भी सुस्ताते हुए न काट पाए थे कि मुखबिर की खबर आ गई थी-ठिकाने पर कभी भी घेरा पड़ सकता है। ऊपर का दबाव है इसलिए डी0आई0जी0 भन्ना रहा है। दो जिलों की पुलिस का खास दस्ता एक नये डिप्टी को सौंप दिया है। नाक में दम कर रखा है हरामजादे ने।

                ऊँ.... कुछ कहा हरिविलास पथरीली पगडण्डी पर बढ़ता हुआ            बोला।

                नहीं तो ! कमला जाने किस सोच से बाहर आई-कभी-कभी पहाड़ दूभर हो जाता है।

                बूँदा-बाँदी से रपटन बढ़ गई है। पहाड़ की ऊँचाई तो पहले ही जितनी है। बात को मजाकिया मोड़ देने की आदत है हरिविलास को।

                तीन घण्टे में इस कीच-खच्चड़ के मौसम में छह कोस बढ़ आना कम नहीं है। ऊपर से कंधे पर पाँच-सात सेर वजन बंदूक का रहता है पीठ के सफरी बैग में जरूरत की चीजें और कपड़े-लत्ते ठुँसे होते हैं। पुलिसवालों के खाने-पीने गोली-बारूद के इंतजाम में तो पूरी सरकार पीछे होती है। यहाँ तो एक-एक चीज़ खुद जुटानी पड़ती है। सुई से लेकर माचिस तक के लिए दहेज-सा देना पड़ता है।

                इस बार की पुलिसिया सरगर्मी में कमला के गिरोह ने तय किया है कि पूरब में पचनदा पार कर यू0पी0 में दस-पन्द्रह दिन गुजार लिये जाएँ। खबरे हैं कि उधर की पुलिस और सरकार दूसरी उठा-धराई में उलझी है इसलिए माहौल अनुकूल है। वैसे डाँग ही डाँग (जंगल) शिवपुरी की ओर भी निकला जा सकता था या धौलपुर को बगल देते हुए राजस्थान में भी कूदने से सुरक्षित हुआ जा सकता था।

                पहाड़ की आधी चढ़ाई तक पहुँचते-पहुँचते कमला की पिण्डलियाँ और पंजे पिराने लगे। धाराधार धावे में केवल दो जगह पानी पिया है। चलते-चलते बैठने पर थकान चढ़ दौड़ती है और बागी जीवन में आलस नींद और खाँसी तीनों खतरनाक हैं। माता की मढ़ी बस एक सपाटे-भर दूर है-बीस बाइस मिनिट का रास्ता पर कमला ने हाथ की टार्च जमीन की ओर झुकाकर दो बार जलाई-बुझाई। इसका मतलब वहाँ कुछ सुस्ताना है।

                वह पगडण्डी के पत्थर पर बैठ गई तो गिरोह आसपास सिमट आया। अपहत यानी पकड़ छीतर बनिया का पन्द्रह सोलह साल का लड़का है। पखवारे पहले गाँव के बाहर से गिरोह ने धर लिया था। हँगने आया था-पूँजी के नाम पर वही लोटा उसके पास है। दो लाख की फिरौती माँगी गई है। बिचौलिया एक पर लाना चाहता है। कहता है कि बनिया जरूर है जाति से पर दम नही है उसमें। गाँव-गाँव फेरी लगाकर परिवार पालता है। गाँठ की कुल जमा चार बीघा जमीन बेच-बाचकर ही एक लाख की रकम जुटा पाएगा। खरीदार भी तो ऐसे बखत औनी-पौनी कीमत लगाते हैं।

                कमला डेढ़ लाख पर उतरकर अड़ी है। गरीब सही, पर है तो बनिया ! हाथी लटा (दुबला) होने पर भी बिटौरा सा होता है।

                इधर आ रे मोंड़ा !

                कमला की कड़क से सहमता लड़का उकरूँ आ बैठा। थकान से वह भी टूटा हुआ था। कमला उसे लद्दू बनाए थी। लद्दू यानी लादनेवाला। छह कोस से वह कमला का बैग और बंदूक ढो रहा है। अपनी ग्रीनर दोनाली कमला को बेहद प्रिय है, पर लंबे कूच में वह केवल पिस्तौल लटकाती है।

                तेरी फट क्यों रही है  पास आ.....के !

                मर्दो की तरह गंदी-गंदी गालियाँ कमला के मुँह से शुरू-शुरू में लड़के को बहुत भद्दी लगती थीं पर अब जान चुका है कि यह सब काम मर्दो की नकल पर करती है। वैसे ही कपड़े जूते व्यौहार ठसक और डॉंट-डपट बदहवासी से बलात्कार तक...।

                कमला ने लड़के की ओर पाँव पसार दिए। लड़का कुछ और सरककर पिंडिलियाँ दबाने लगा। पैरों पर सिपाहियों जैसे किरमिच के बूट चढ़े थे।

                बाबा के पास चून धरा हो तो आज रात माता के मंदिर में काट लें  आसपास गीधों की तरह बैठे साथियों से कमला ने सलाह ली।

                रात-रात में ही पार होना ठीक रहेगा। डर के मारे वह खुद भी रात को सटक लेता है। दूसरे ने मत प्रकट किया।

                नदी का पता नहीं कि चढ़ी है या पाट है। चढ़ी मिली तो औघट पार कौन करेगा ये पिल्ला अलग से संग बँधा है-भो....का !

                अपने आदमी कुछ न कुछ इंतजाम करेंगे ही.....।

                वो बम्हना भी तो होगा वहाँ। महीने-भर में ही तबादला थोड़े हो गया होगा उसका। इधर आने को कोई तैयार नहीं होता सो तीन साल से मजा मार रहा है हरामी। लैनेमेन की तनखा झटकता है। काम क्या है .... बिजली का तार इधर से उधर उधर से      इधर। सो भी बिजली चली गई तो अट्ठे पखवारे-भर पड़ा-पड़ा पादता रहेगा। इन साले बाम्हनों को तो लैन में खड़ा करके गोली मार देनी चाहिए। सब सीटों पर जमे बैठे हैं।

                कमला ने चिड़चिड़ाकर लड़के पर लात फटकार दी-भैंचो....! हाथों में जान नहीं है क्या  अभी छूट दे दो तो भैंस को गाभिन कर देगा।

                आकस्मिक प्रहार से लड़का गुलांट खाता हुआ लुढ़क गया। दर्द से कराहता हुआ वह आँसूस बहाने लगा। पकड़ को इसी तरह रखा जाता है। भूख, मार और दहशत से इतना तोड़ दिया जाता है कि अवसर मिलने पर भी निकल भागने का साहस न कर सके।

                लड़के की दुर्दशा पर कोई न पसीजा। यह तो होता ही है- उठ बे ! साले ठुसुर-ठुसुर की तो गोली मार के घाटी में फेंक दूँगी। कहते हुए कमला की निगाह घाटी की ओर घूम गई।

                कमला मोहिनी में बँध उठी। घाटी और उसके सिर पर तिरछी दीवार की तरह उठे पहाड़ पर जगर-मगर छाई थी। जुगनुओं के हजारो-लाखों गुच्छें दिप्-दिप् हो रहे थे। लगता था जैसे भादों का आकाश तारों के साथ घाटी में बिखर गया है। चमकते-बुड़ाते जुगनू कमला को हमेशा से भाते हैं। सांझी में क्वार के पहले पाख में लड़कियाँ कच्ची-पक्की दीवार पर गोबर की साँझी बनाती थीं। दूसरी लड़कियाँ तो अपनी-अपनी पंक्ति तोरई के पीले लौकी के सफेद, या तिल्ली के दुरंगे फूलों से सजाती थीं, कमला अपनी पंक्ति में जुगनू चिपका देती फिर कुछ दूर खड़ी हो मुग्ध आँखों से अपना करतब निहारती थी। तब यह उसका खेल था- कहाँ समझती थी कि उसके खेल में जुगनू जान से जाते हैं।

                इलाके में आतंक है कमला का अपनी पर आती है तो किसी को नहीं छोड़ती। वह उसका खास था, जाति का था सप्लाई करता था, सुना जाता है कि कमला उससे जरूरत का काम भी लेती थी। गिरोह तक के लोग दबते थे उससे। अचानक जाने कैसे बिगड़ी कि कमला ने पचीसों के सामने उसके मुँह में मुतवाया और कोहिनी के ऊपर से दोनों हाथ गँडासेस से कतर दिए। जातिवाला था नहीं तो जैसा कि उसका तकिया कलाम है-अंगविशेष मे गोली घुसेड़ देती। वह आदमी इलाके में कमला का विज्ञापन बना घूमता है।

                चलो...माता की मढ़ी पै बिसराम करेंगे। कह कमला खड़ी हो गई।

                लड़के ने ग्रीनर बाँस की तरह कंधे पर रखी, ढीले बैग के फीते कसे और नाक सुड़कता हुआ बढ़नेवाले कदमों की प्रतीक्षा करने लगा। जानता है उसे न घाव सहलाने का     अधिकार है न दिखाने का। नाक में छल्ला-छिदे बछड़े की तरह उसी ओर मुड़ता है जिधर रस्सी का संकेत मिले।

                मंदिर पर पहुँच सबने चबूतरा छू, माथे से लगा, पा-लागन किया और जूते उतार फेरी लगाते हुए मढ़ी में घुस गए। मूर्ति के पैरों में एक चीकट दिया जल रहा था जिसकी आभा में मूर्ति प्राणवान् और रहस्यमय दिख रही थी। बाबा अँधेरा होते ही संझा-बत्ती कर शायद नीचे उतर गया होगा।

                पहाड़ के छोर पर बना यह छोटा-सा मंदिर रतनगढ़ की माता के नाम से प्रसिद्ध है। किंवदंती है कि दूज-दीवाली के दिन यहाँ आल्हा पूजा करने आते हैं। आल्हा अमर है-युधिष्ठिर का औतार। बड़े-बूढ़ों ने रात-बिरात किसी पचगजे (पाँच गज लम्बे) आदमी की पहाड़ी चढ़ती उतरती झलक देखी है। देखने वालों में ज्यादातर मर-जुड़ा गए। एकाध बचा है जिससे ब्यौरेवार कुछ पता नहीं चलता, बस धुंधा में कोई तस्वीर तनकर रह जाती है।

                मंदिर तक पहुँचने के केवल दो रास्ते हैं-एक तो पहाड़ी की कोर-कोर चलती ऊँची-नीची घुमावदार पगडण्डी और दूसरा खण्डहर हुए लौहागढ़ के किले होकर दीवार की तरह सीधी खड़ी पहाड़ियों के सिर पर माँग-सी-भरती तीन कोसी कच्ची सड़क। मढ़ी की छत पर बैठा आदमी पल्टन भी आगे बढ़ने से रोक सकता है। दो चार को तो गोफनी में गिट्टी भरकर निपटाया जा सकताा है।

                चौमासे में यह स्थान गिरोहों के लिए मैया का वरदान है। ऋषि-मुनियों की तरह दस्युदल चातुमार्स ऐसे ही ठिकानों पर बिताते हैं। कमला के गिरोह का नाई सदस्य हरविलास जनम का हँसोड़ है। कहता है- हम लोग जोगी-जाती हैं। करपात्री हैं। जब जहाँ जो मिल जाए खा लो और मौका मिल जाए तो सो लो। बाकी चलते रहो। जोगी-जती कहीं किसी से नहीं बँधते। हमारी भी वही गति है। न जिंदगी का मोह न घर-द्वार की मया (माया)।

                एक वही है जो कभी-कभी मौज में आकर कमला को बीबीजान कह देता है। पहली बार तो सुनकर कमला हत्थे से उखड़ गई थी, पर जब उसने बताया था कि फिल्मों में सबसे सुन्दर और घर की मालकिन को बीबीजान कहा जाता है तब से कमला यह सुनकर खिल जाती है। कमला ने हरिविलास की हैसियत बढ़ाई है, कैंची-उस्तरा की जगह बारह बोर सौंपी है।

                हरिविलास ने ही बताया था कि-बीबीजान को हम रण्डी समझते हैं.....कुछ जानते थोड़े हैं। जाननेवाले तो दिल्ली-बंबई में रहते हैं। तड़ातड़ मारनेवाले को वहाँ लाखों-करोड़ों, कोठी-कार मिलते हैं। हमें क्या मिलता है सेंतमेंत की दुःख-तकलीफ देते-लेते हैं।

                ऐसे में कमला हँसकर कहती है-साला नउआ घरवाली का टेंटुआ चीरकर     इधर क्या आ मरा  निकल जाता बंबई या दिल्ली।

                दिल्ली तो हम तुम्हें पहुँचाएँगे कमला बीबी ! वहाँ अपनी फूलन अकेली है- बस, एक बड़ा स्वयंवर रच दो। दिल्ली-बंबई वाले लार टपकाते तुम्हारे पीछे न घूमें तो मैं मूँछ मुड़ा के नाम बदल लूँगा। फूलन तो शकल-सूरत से मात खा गई। तू पहुँचते ही मिनिस्टर हो जाएगी।

                कमला सोचती है- नउआ ससुरा बड़ा ऐबी है। छत्तीसा साला ! सपनों के हिंडोले पे झुला देता है। प्रकट में कहती है- चुनाव तेरा बाप जितवाएगा

                मेरा बाप तो जाने सरग में है कि नरक में ....पर कोई न कोई बाप मिल ही जाएगा। और चुनाव तो आजकल जाति जितवाती है। तेरी जाति, मेरी जाति और बाप की जाति-बस हो गए पार। हरिविलास खी-खी कर देता है।

                टैम कितना हो गया ? कमला की पूछती निगाह हरिविलास पर घूमी। हरिविलास की घड़ी पानी भर जाने से बंद है। कमला की घड़ी पट्टा टूट जाने से सामान के साथ लद्दू की पीठ पर लदी है। बाकी बे-घड़ी हैं। बादलों की टुकड़ियों से सप्तऋषि और सूका (शुक्र) भी दुबके-ढके हैं।

                दस के लगभग होंगे। बन्दूक पर हाथ फेरते हरिविलास बोला।

                अब तो चार घड़ी यहीं बिसराम ठीक रहेगा। भोर में नदी पार कर लेंगे। छत की छॉव और चोटी का पवन पाकर गिरोह में आलस पसरने लगा था।

                थोडा-बहुत पेट में भी डालना है। भागमभाग में दोपहर आधा-अधूरा खाया, तब से एक घूँट चाय भी नहीं मिली।

                मौन स्वीकृति के साथ सबके झोले खुलने लगे। लड़के ने पीठ का थैला खोलकर कमला के सामने रख दिया। बोतल निकाल कमला ने तीन-चार बड़े बडे घूँट भरे। सबके पास इसी किस्म की बोतले हैं। इनका खास लाभ यह रहता है कि वजन में हल्की होती हैं। लड़का इस उसकी ओर टुकुर-टुकुर ताक रहा था कि कोई उसे दो घूँट पानी के लिए पूछ ले । मुँह से माँगने पर कमला के कोप का शिकार हो सकता है। संग-साथ रहते जान चुका है कि भूख-प्यास के बखत कमला खूँखार हो जाती है। पहाड़ी चढ़ते समय भी उसका गला चटका जा रहा था।

        प्यास के साथ उसे घर की याद भी आ रही थी। वहाँ पर वह भरपेट खाकर मजे से सो रहा होता। माँ याद आई- क्या वह सो चुकी होगी जग रही होगी। चारों भाई-बहनों पर हाथ फेरकर ही सोने लेटने है। मेरे बदले का हाथ किस पर फेरती होगी ?

        भूख-प्यास भूलकर लड़का झर-झर आँसू टपकाने लगा। हिलकियों से देह हिल उठी। कमला बिस्कुट कुतरने में लगी थी। भौंहे चढ़ाकर फुफकारती-क्या हुआ बे  बीछू लग गया क्या

        हिलकियाँ रोकने की कोशिश में लड़का और भी हिलने लगा।

        बोलते क्यों नहीं मादर....! कुछ खाने बैठो तभी खोटा करने लगता है। जी में आता है कि ....मैं गोली उतारकर ठूँठ पै टाँग दूँ हरामी को। चप....।

        कमला ने दो बिस्कुट उसकी ओर फर्श पर फेंक दिये। लड़का आँसू सँभालता हुआ बिस्कुट चबाने लगा। बिस्कुट का गूदा वह बार-बार जीभ से भीतरर की ओर ठेलता पर प्यासे मुँह लार न होने से पेट में न सरक पाता। लड़का घूँट से भरता बिस्कुट निगलने की कोशिश कर रहा था।

        दिए की पीली रोशनी में हरिविलास को लगा कि लड़के की आँखे बिल्कुल वैसी ही हो रही हैं जैसी उस्तरा गर्दन पर रखे जाते समय उसकी पत्नी की हो गई थीं। अनमने हरिविलास ने अपनी बोतल लड़के की ओर सरका दी- पानी पी ले पहले।

        लड़के ने बिस्कुट चबाती कमला की ओर देखा।

        पी ले ना ! हरिविलास ने नरमी से कहा।

        लड़का फिर भी हाथ न बढ़ा पाया।

        पी ना....के। हरिविलास की चीख मढ़िया में गूँज गई।

        लड़के ने सकपकाकर बोतल झपट ली। कमला मुस्करा उठी। दूसरे हँस पड़े- दीवारों के बीच कहकहे भर गए। माता की मूर्ति उसी तरह अविचल थी- सिंह पर सवार, सिर की ओर त्रिशूल ताने।

                सहमते लड़के ने गिनती के चार बड़े-बड़े घूँट भरे और ढक्कन कसकर बोतल हरिविलास की ओर बढ़ा दी।

                अब चल देना चाहिए। हरिविलास की गंभीरता से गिरोह के लोग चौंक गए।  

        क्यों ? यहाँ बिसराम .... दीवार के सहारे अधपसरी होती कमला ने पूछा।

                कान खोलो ! दखिनी तरी में मोर कोंक रहे हैं....सियार भी रोए हैं। दबस (दबिस) हो सकती है।’’

                अलसाता गिरोह चौकन्ना हो गया। कमला ने दीवार से टिकी ग्रीनर दुनाली झटके के साथ पकड़ ली। और कमर में बँधी बेल्ट से दो कारतूस निकाल तेजी के साथ बेरल में ठोंक दिए।

                अगले क्षण गिरोह खुले चबूतरे पर था। सबकेक आँख-कान टोह पर थे। अँधेरे में दुश्मन को गच्चा दिया जा सकता है तो दुश्मन भी अँधेरे का लाभ उठाकर घेर सकता है। मोर रह-रहकर कोंक उठते थे। संकेत, किसी के मंदिर की ओर बढ़ते जैसे थे।

                देखो-देखो। वो बाटरी चमकी !’’ तरी के घने बबूल वन में कुछ चमककर बुझा था।

        दूसरा गिरोह भी हो सकता है।

        कौन होगा ? चरन बाबा शहर में है। इधर है ही नहीं।

        देवा घूम सकता है। उसकी बिरादरी के काफी घर हैं इधर।’’

        पुलिस भी तो हो सकती है-गैल काटकर आ रही हो।’’

        डाबर में पुलिस वाले क्यों मरेगे ?

        नौकरी के लिए सब करना पड़ता है, मन-बेमन से।’’

        अब जल्दी से पार निकल जाना चाहिए।’’

        उधर यू.पी. की पुलिस डटी हो तो ? उधर की सूँघ-साँघ तो लेनी पड़ेगी।’’

                तो जा ! लुगाई के घाँघरे में दुबक जा। अबे साले, तू क्या पुलिस की जगह जिंदाबाद-जिंदाबाद गानेवाली भीड़ की उम्मीद रखता है ? बागी क्यों बना ? लुल्लू-लुल्लू करता घर रहता और टाँग पसारकर सोता।’’ हरिविलास की इस झल्लाहट पर चुप्पी हो गई। इसे अचानक हो क्या गया है ?

                जल्दी के लिए खड़ा उतार पकड़ा गया। टॉर्च जलाना खतरनाक था। पैरों को तौल-तौलकर रखना पड़ रहा था। लड़के को अब हरिविलास ने अपनी बगल में ले लिया- इन रास्तों के लिए कच्चा और निज़ोरा है लड़का। नेंक चूकते ही हजारों हाथ नीचे पहुँचेगा। हड्डियाँ भी नहीं बचेंगी- सबरे तक। लड़के की पीठ पर अब केवल सफरी बैग था। बंदूक कमला ने सँभाल ली थी।

                नीचे पहुँचते ही बेसाली के भरके (बीहड़) शुरू हो जाते हैं। यहाँ की मिट्टी पानी में बूँद के साथ घुलकर बहने लगती है। हर बरसात में बीहड़ा का नक्शा बदलता है। बड़े ढूह टूट और भहराकर निशान खो देते हैं तो छोटे ढूह नीचे की मिट्टी बहने से ऊँचे हो जाते हैं। हर साल पुराने के आसपास नए रास्ते बनते व चुने जाते हैं। गैर-जानकार के लिए पूरी भूल भुलैया हैं भरके। फँसने वाले का राम ही मालिक है। भेड़िए, बघेरे, साँप-सियार सभी का तो आसरा है इनमें। जंगली जानवरों से बचने के लिए गिरोह ने टॉर्च जला ली। रोशनी से चमकमकाए जानवर पास नहीं आते। पुलिस के यहाँ भय नहीं- कदम-कदम पर ओट व सुरंगो जैसे रास्ते हैं।

        आधी रात छूते-छूते गिरोह ने बेसली की रेत पकड़ ली। नदी में बाढ़ नहीं थी, पर बिना तैरे पार न हुआ जा सकता था।

        कमला ने नथुआ को बुलाकर समझाया-‘‘नत्थू ! तुम इस सुअरा को जलेकर खैरपुरा पहुँचो। मेहमानी करो दो-चार दिन। इसे भुसहरा में डाल देना- आराम कर लेगा। इधर की जानकारी लेते रहना ! ऐसी-वैसी बात न हुई तो छठे दिन मंदिर पै मिलेंगे। और सुन, चरन बाबा या भरोसा गूजरा की गैंग टकरा जाय तो बरक जाना। ये मादर....अपने को धरती से दो हाथ ऊँचा समझते हैं।’’

        नत्थू ने लड़के की पीठ से कमला का बैग निकलवाया और अपना कस दिया, फिर ‘‘जय भीमबोलकर दो छायाओं के साथ अँधेरे में समा गया।

        अब गिरोह तीन जगह बँट गया था। अपनी-अपनी जाति में सुरक्षा पाना आम चलन है। भरकों के बीच चौरस जगहों पर खेत हैं। जगह-जगह नलकूप व उसके साथ मंजिला-दोमंजिला कोठरियाँ हैं। आराम से खाते हुए पड़े रहो और खतरे की भनक मिलने पर बीहड़ में सरक लो।

        हरिविलास को कमला ने बिजली वाले रमा पंडित को लाने भेज दिया था। बाम्हन होकर भी तैरने में मल्लाहों के कान काटता है। यहाँ नौकरी करते, डाकुओं से साबका रोजमर्रा की चीज़ है, पर वह कमला से बेतरह डरता है। तरह-तरह के किस्से हैं, उसके बारे में-बड़ी जाति से घृणा करती है। आदमी छाँटकर महीने-दो महीने सेवा करवाती है, फिर गोली मार देती है। बुलावे पर पहुँचने की मजबूरी ठहरी-रोज यहीं रहकर बिजली के खंभों पर चढ़ना  उतरना है।

        रेत पर चित्त पड़ी कमला के पास पहुँच रामा ने हरिविलास के बताए अनुसार अभिवादन किया।

        तू ही रामा पण्डित है ? ’’ कमला ने पूछा।

        हाँ, बहन जी !’’

        भैंचो ....! तुझे मैं बहन दिखती हूँ ?’’

        रामा घबरा गया-मैंने तो .....मैं....माफ कर दें।’’ वह घिघियाने लगा। समझ नहीं पा रहा था कि कैसे संबोधित करें।

        ठीक है, जल्दी कर !’’ कमल बैठ गई- ‘‘और सुन, दगा-धोखा किया तो लाश चील-कौवे खाते दिखेंगे ! सामान ले जा पहले, तब तक मैं कपड़े उतारती हूँ।’’

        जी-ी-ी ?’’

        ठीक है।’’ रामा ने कंधे पर रखा मथना रेत पर रख दिया। बैग का सामान मथना के भीतर जमाया गया। दो बंदूकें खड़ी करके फँसाई गई।

        तुम दोनों इसके साथ तैरकर पार पहुँचो। मैं इसे निशाने पर रखती हूँ, तुम उस पार से से रखना।’’ कमला ने सुरक्षा-व्यवस्था समझाई।

        बादल छँट जाने से सप्तमी का चन्द्रमा उग आया था। पार के किनारे धुँधले-से दिखाई देने लगे थे। तीनों उघाड़े होकर पानी में ऊपर गए। कमर तक पानी में पहुँच रामा ने गंगा जी का स्मरण कर एक चुल्लू पानी मुँह में डाला, उसके बाद दूसरा सिर से घुमाते हुए धार की ओर उछाल दिया। दो कदम और आगे बढ़ रामा ने बाई हथेली तली से चिपकाई व दाहिनी मुट्ठी मथना के किनारे पर कस दी-जै गंगा मैया !

        जै गंगा मैया !

        तीनों पैर-उछाल लेकर पानी की सतह पर औंधे हो गए। गुमका मारता हुआ रामा आगे और बहमा छाँटते दोनों पीछे। पानी का फैलाव अनुमान से अधिक निकला। दोनों बागी पार पहुँचते-पहुँचते पस्त हो गए थे।

        पंडित थक गए क्या  लम्बी साँसे भरते हरिविलास ने पूछा।

        थकान तो आती ही है। मथना से सामान निकालते रामा ने उत्तर दिया।

        तुम आराम से आना-जाना। जल्दबाजी की जरूरत नहीं है। उधर सुस्ता लेना कुछ। औरत वाली बात है। मथना थामने की क्रिया बता देना उसे। हरिविलास ने समझाया।

        बैफिकर रहो कहा रामा पंडित मथना के साथ फिर पानी में आ गया। धार काटते हुए सोच रहा था कि बस आज की रात खेम-कुशल से गुजर जाए। कल इंजीनियर के सामने जाकर खड़ा हो जाऊँगा कि साब तीन साल हो गए सूली की सेज पर सोते, अब तबादला कर दो। जान सदा जोखिम में ऊपर से अपमान।

        सोच में उतराता रामा किनारे आ गया। कंधे पर मथना रख चुचुआती देह लिये वह कमला की दिशा में चलने लगा। हल्की-हल्की हवा से देह ठण्ड पकड़ने लगी थी। चाँद कभी खुलता कभी ढँक जाता। उस पार के आदमी धब्बे की झाँई मार रहे थे। नदी का फैलाव अस्सी-नब्बे हाथ तो रहा ही होगा।

        आ गया  कमला की आवाज आई।

        रामा के मुँह से केवल हूँ निकल सका। आने-जाने में हुई देर पर खींझकर कहीं भड़क न बैठे, इसके डर से रामा सहमा-सा खड़ा हो गया-सामान दे दो, रख दूँ।

        ले ! कमला ने अपने जूते बढ़ा दिए। रामा को लेने पड़े। वह ग्लानि से भर गया-साली नीच जाति की औरत। बड़उआ जाति का कोई ऐसा कभी न करता। उसेन जूते मथना की तरी में जमा दिए।

        और...

        इस बार कमला की पेंट थी। रामा सनाका खा गया। पेंट के साथ चड्डी थी। सिर नीचा किये उसने ये भी भर दिए।

        तेरे घर कौन-कौन है घरवाली है

        बस एक बिटिया है पाँच बरस की। घरवाली तीन साल पहले रही नहीं।

        अच्छा मैं अगर तुझे रख लूँ तो.... जैसे मर्द औरत को रखता है।

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        कुछ कहा नहीं तूने  कमला की आव़ाज कठोर हुई।

        मैं ...क्या कहूँ  तुम ठहरी जंगल की रानी और मैं नौकरपेशा। आज यहाँ, कल वहाँ।

        यहाँ है तब तक रहेगा मेरा रखैला

        अब मैं क्या बोलूँ

        गूँगा है  डर मत ! मैंने जिनकी कुगत की है वे दगाबाज थे। संग सोकर बदनामी करने वाले को मैं नहीं छोड़ती। तुझसे भी साफ कह रही हूँ-ले ये भी रख दें।

        लेने के लिए हाथ बढ़ाते रामा ने देखा कि कमला कमीज़ उतारकर बढ़ा रही है।

        हल्के-से उजाले में कमला की देह किरणें छोड़ रही थी। रामा की आँखें भिंच गई। उसे मथना का मुँह नहीं मिल रहा था। हाथ कभी इधर पड़ता कभी उधर। पसीना छलछलाकर रोएँ खड़े हो गए। नथुनों में कोई विकल गंध भर रही थी। पैर झनझना आए। कसमसाती देह फट पड़ने को हो गई।

        और ये भी....। कमला की काँसे की खनकती हँसी के साथ रामा ने पाया कि वह रेत पर पटक लिया गया है।

                ना....ना ! छोड़ो.....! करता रामा रेत रौंदने में शामिल हो गया।

                थोड़ी देर बाद उस पार से कूक आई। कमला ने कूक से उत्तर दिया कि- सब ठीक है।...ला पेंट निकाल।

                रामा ने अपराधी की तरह पेंट निकाली।

                कमीज...।

                पेंट कमीज कसकर सिर से साफी बाँध कमला ने बंदूक उठा ली-चल पार पहुँचा।

                मथना में दुनाली रखते हुए लोहे के ठण्डे स्पर्श से रामा में कँपकँपी भर आई। वह कमर तक पानी में खड़ा हो कमला के कदम गिनने लगा।