Monday, March 27, 2023

समांतर कहानी आंदोलन और सुभाष पंत



सुभाष पंत की कहानियां

नवीन कुमार नैथानी



सुभाष पंत हमारे समय के महत्वपूर्ण कथाकार हैं। सुभाष पंत का होना हमें आश्वस्त करता है कि एक सक्रिय लेखक अपने समय का सचेत दृष्टा होता है. वह सार्थक रचनात्मक  हस्तक्षेप करके जीवन को एक खुशहाल और जीने लायक बनाने की बात करता है। 

पांच दशक पूर्व लेखन की शुरुआत करने वाले सुभाष पंत समांतर कहानी आंदोलन के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर रहे.  उनके साथ लिखने वाले  बहुत सारे लेखक समांतर आंदोलन के खत्म होने के बाद नेपथ्य में चले गए लेकिन सुभाष पंत अपवाद स्वरूप उन लेखकों में हैं जो आन्दोलनों की वजह से नहीं जाने जाते, बल्कि आन्दोलन को आज हम याद करते हैं तो उनके होने के कारण याद करते है. 

सुभाष पंत आज जीवन के नवें दशक में  भी निरंतर रचनाशील हैं. उनकी शुरुआती कहानियां आम आदमी और वंचित जन, बल्कि यूं कहें कि समाज के समाज के तलछट  पर रहने वाले लोगों की कहानियां रही हैं. वे एक उम्मीद जगाने वाले और स्थितियों को बदलने की छटपटाहट से प्रेरित होकर लिखने वाले लेखक के रूप में अपनी पहचान बनाते दिखायी देते हैं।

मनोहर श्याम जोशी ‘ट-टा, प्रोफेसर षष्टी बल्लभ पंत’ की शुरुआत करते हुए कहते हैं कि कथाकार को चालिस  साल के बाद लिखना शुरू करना चाहिए. यह कहानी तो बहुत बाद में आई, लेकिन सुभाष पंत ने लेखन की दुनिया में उम्र के उस पड़ाव में कदम रखा जहां तक पहुंचते हुए अधिकांश लेखक स्थापित हो चुके होते हैं. उनकी कहानी ‘गाय का दूध’ छपते ही चर्चा में आ गयी और वे समांतर कहानी आंदोलन के प्रमुख लेखकों में गिने जाने लगे. जैसा कि आंदोलनों के साथ प्रायः होता आया है, समांतर आंदोलन की जिंदगी बहुत ज्यादा नहीं रही और उसके साथ उभरे अधिकांश  लेखक साहित्य की दुनिया में देर तक नहीं टिक पाये. लेकिन सुभाष पंत  उसी शिद्दत के साथ निरंतर सार्थक लेखन करते रहे हैं. उनके साथ कामतानाथ का नाम भी लिया जा सकता है.

यह देहरादून की मिट्टी की खासियत है कि यहां बहुत सारे लेखक उम्र के उत्तर सोपान में निरंतर और बेहतर लिखते चले आए हैं. हम इस बात को विद्यासागर नौटियाल के उदाहरण से बखूबी समझ सकते हैं. शुरुआती कहानियों के चर्चित हो जाने के बावजूद लगभग तीन दशकों के साहित्यिक अज्ञातवास में रहने वाले, विद्यासागर नौटियाल ने  लेखन में जब पुनः प्रवेश किया तो वे आजीवन निरंतर रचना कर्म में संलग्न रहे. एक नई ऊर्जा और नई चमक के साथ उनकी कहानियां, संस्मरण और  उपन्यास सामने आए. लेकिन सुभाष के लेखन में कोई व्यवधान नहीं आया नौटियाल जी की तरह वे अभी तक लेखन में सक्रिय हैं और उतरोत्तर बेहतर लिख रहे हैं.

वे अपनी कहानियों के विषय समाज की तलछट से उठाते है. रिक्शा-चालक, मजदूर, किसान उनकी कहानियों में अक्सर आते हैं .वे बदलती हुई वैश्विक आर्थिक राजनीति की परिस्थितियों के बीच अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष करते हुए उम्मीद की किरणों को जगाने का काम करते हुए दिखायी देते हैं.

इधर पिछले दशक में सुभाष पंत ने  हिंदी को एक से एक नायाब  कहानियां दी हैं. इनमें से  कुछ कहानियां तो हिंदी की बेहतरीन कहानियों में शुमार की जाएंगी.‘अ स्टिच इन टाइम’ और ‘सिंगिंग बेल’ जैसी कहानियां इसका बेहतरीन उदाहरण है।

सिंगिंग बेल बदलते हुए समय के साथ मानवीय संबंधों में आए परिवर्तनों की कहानी तो है ही, नई बाजार व्यवस्था के साथ सामाजिक रिश्तों और राजनीति तथा अपराध के अंतर-संबंधों के साथ विकास की अवधारणा से उपजी विडंबनाओं से भी हमारा साक्षात्कार कराती है. इन दोनों कहानियों को एक तरह से  सुभाष पंत की कहानी-कला के प्रोटोटाइप की तरह भी देखा जा सकता है. किसी भी कहानी की सफलता में उसकी सेटिंग का बहुत बड़ा योगदान होता है. अगर सही सेटिंग मिल जाये तो कहानी का आधा काम तो पूरा हो ही जाता है. शायद रंगमंच की पृष्ठभूमि ने पंत जी के अवचेतन में सेटिंग के महत्व को जरूरी जगह देने के लिए तैयार किया हो. उनकी कहानियों से गुजरते  हुए एक और बात बार-बार ध्यान खींचती है - कहानियों का वातावरण.

‘सिंगिंग बेल’ कहानी जाड़े के मौसम में किसी पहाड़ी कस्बे में घटित होती है, जहां मारिया डिसूजा  बहुत पुराना रेस्त्रां चला रही है. गिरती हुई बर्फ के बीच किसी ग्राहक का इंतजार कर रही है. कहानी के अंदर एक रहस्य भरा  सन्नाटा है और उसके बीच ग्राहक का इन्तज़ार पाठक की जिज्ञासा को उभार देता है. ग्राहक का इंतजार जब खत्म होता है तो मालूम पड़ता है कि वह ग्राहक नहीं, बल्कि उसकी संपत्ति को हड़पने के लिए आए प्रॉपर्टी डीलर का प्रतिनिधि है.

‘अ स्टिच इन टाइम’ कहानी बाजार पर बड़ी पूंजी के कब्जे के साथ छोटे – छोटे धन्धों पर आये संकटों के बीच एक कारीगर के भीतर बची हुई संवेदनाओं को यथार्थ और फ़ैंटेसी के मिले जुले फार्म के बीच प्रस्तुत करती है.यहाँ भी मंच बिना किसी भूमिका के सीधे घटनाओं के बीच ले जाने के लिए तैयार है.

“लड़ाई के कई मुहाने थे.इस मुहाने का ताल्लुक लिबास से था.”

नैरेटर के जन्मदिन पर बेटी एक बड़े ब्राण्ड की कमीज उपहार में देने का फैसला करती है, जबकि वह ताउम्र दर्जी के हाथ से सिली कमीज ही पहनता आया है. वे दर्जी अब बाज़ार से गायब हो चुके हैं. कारीगर हैं, लेकिन उनका श्रम और पहचान बाज़ार में बिकते और स्थापित किये जा रहे ब्राण्ड के नाम के साथ लोगों के दिमाग से गायब हो चुके हैं. यथार्थ से फेंटेसी के बीच औचक छलांग लगाती हुई यह कहानी उन सूक्ष्म मनावीय संवेदनाओं और सौंदर्य को उद्घाटित करती है जो श्रमशील हाथों की कारीगरी से उत्पन्न होती हैं.

पंत  जी की कहानियां स्थूल यथार्थ का अतिक्रमण करती हैं. वे ‘इक्कीसवीं सदी की एक दिलचस्प दौड़’ संग्रह की भूमिका में कहते भी हैं, “कहानियों में प्रामाणिकता की खोज नहीं की जानी चाहिए. किसी भी घटना का हूबहू चित्रण करना पत्रकार का काम है. उसकी निष्ठा और दायित्व है कि वह उसका यथार्थ चित्रण करें. वह उसमें अपनी ओर से कुछ जोड़ता है घटाता है तो वह अपने पेशे के प्रति ईमानदार नहीं माना जा सकता. लेकिन, अगर लेखक उस घटना को कहानी का लिबास पहनाता है तो उसके पास कल्पना और संवेदनशीलता के दो अतिरिक्त औजार  और भाषा तथा शिल्प का खुला वितान है. इसके माध्यम से उस घटना को सीमित परिधि से बाहर निकालकर यथार्थाभास और यथार्थ बोध के व्यापक आयाम तक ले जाए”

जाहिर है कि वे भाषा के प्रयोग के प्रति बहुत सजग हैं. यहां बहुत छोटे वाक्यों के बीच कुछ चमकदार शब्दों की मौजूदगी ध्यान खींचती है. यह भाषा का अलंकारिक प्रयोग नहीं है, बल्कि शब्दों को सही हथियार की तरह धार देने का उपक्रम है, जो ठीक निशाने पर वार करता है. ‘अ स्टिच इन टाइम’ कहानी से यह अंश देखें

मैं दर्जी से मैं कपड़े सिलवा कर पहनता था. अमन टेलर्स के मास्टर नजर अहमद से. मेरी नजरों में वे सिर्फ दर्जी ही नहीं फनकार थे .कपड़े सिलते वक्त ऐसा लगता जैसे वे शहनाई बजा रहे हैं, या कोई कविता रच रहे हैं ...हालांकि उनका शहनाई या कविता से कोई ताल्लुक नहीं था .यह श्रम का कविता और संगीत हो जाना होता.

ठीक उस जगह जहां से यह कहानी स्थूल यथार्थ का अतिक्रमण करते हुए फेंटेसी की ओर जाने की तैयारी करती है, लेखक जैसे नैरेटर की आत्मा में प्रवेश करने लगता है. देखें-

भीतर तक अपनेपन के एहसास से मेरी आत्मा भीग गई .कुछ ऐसे ही जैसे बादल सिर्फ मेरे लिए बरस रहे हैं .कमीज के कंधे वैसे ही थे जैसे मेरे कंधे थे .आस्तीन के कफ ठीक वही थे जहां उन्हें मेरी आस्तीन के हिसाब से होना चाहिए था. कॉलर का ऊपरी बटन बंद करने पर वह न गले को दबा रहा था और न जगह छोड़ रहा था. सबसे बड़ी बात कि कमीज का दिल ठीक उस जगह धड़क रहा था जहां मेरा दिल धड़कता है. 

उनकी कहानियों के जुमले और संवाद भी ध्यान आकृष्ट करते हैं. ‘सिंगिंग बेल’  कहानी में देखिये-

‘‘आदमी ही नहीं मौसम भी बेईमान हो गए ”, अनायास उसके मुंह से आह निकली और वह भाप बनकर हवा में थरथराती रही और घड़ी की टिकटिकाहट शुरू नहीं हुई लेकिन मारिया के भीतर कुछ टिकटिकाने लगा.

“तेरी काली आंखें मारिया जिनके पास जुबान है जो हर वक्त बोलती रहती है जो शोले भी है और शबनम भी .झुकती है तो आसमान नीचे झुक जाता है और उठती है तो धरती ऊपर जाती है”

‘ए स्टिच इन टाइम ’ में देखिये

विजय  के आनंद की सघन अनुभूति में मैंने उत्ताल तरंग की तरह कमरे के चक्कर लगाए और सिगरेट से लगा कर धुंए के छल्ले उड़ाने लगा .मेरी आत्मा झकाझक और प्रसन्न थी.

यह कसे हुए जुमले पंत जी की कहानियों की विशेषता है.

पंत जी के रचना कौशल पर अभी ठीक से बात नहीं हुई है.उम्मीद है उन पर आगे गंभीरता के साथ काम होगा.

Friday, March 24, 2023

लेखक, अनुवादक यादवेन्द्र के शब्दो में कथाकार सुभाष पंत का स्कैच

 लेखक का फिक्स्ड डिपॉज़िट



सुभाष पंत की कहानी "घोड़ा" पढ़ने के बाद बहुत देर तक हॉन्ट करती है भले ही उसमें कुछ अतिशयोक्तियाँ भी लगें .... मैं देर तक चेखव की मशहूर कहानी "डेथ ऑफ़ ए क्लर्क" के बारे में सोचता रहा। आदमी को आदमी न बना कर बोझ ढ़ोने वाला घोड़ा बना देने वाली व्यवस्था का अत्यंत क्रूर और दमनकारी चेहरा चमगादड़ों के झुण्ड की मानिंद पाठक के आसपास चेहरे पर ठोकर मारते महसूस होते हैं। संक्षेप में कहें तो ऑफिस में काम करने वाले  एक मामूली मुलाजिम की कहानी है यह जो अफ़सर के बच्चे के लिए और कुछ नहीं महज़ पीठ पर सवारी कराने वाला घोड़ा है - और कोई उसको मनोरंजन समझता है तो कोई उसकी ड्यूटी। सुभाष जी ने बात करते हुए इस कहानी को जन्म देने वाली घटना सुनायी - उनकी नौकरी के शुरूआती  दिनों की बात है जब वे रेल के फ़र्स्ट क्लास कूपे में धनबाद से देहरादून की यात्रा पर थे और उनकी नीचे वाली बर्थ थी ,ऊपर कोई राजनैतिक नेता धनबाद में सवार हुआ।नेता के साथ एक अटेंडेंट भी था। नेता ने पंत जी को बताया कि वह चुनाव के लिए टिकट लेने आया था और बहुत थका हुआ है। जब ऊपर चढ़ने की बारी आयी तो अटेंडेंट बाकायदा घोड़े जैसा झुका,नेता ने उसकी पीठ पर एक गमछा  बिछाया और जूता पहने उसपर चढ़ के ऊपर की बर्थ पर पहुँच गया। अटेंडेंट ने फिर खड़े होकर फीता  खोल कर उसके जूते उतारे ,सिर से लगाया और नीचे रखा। जैसे ही नेता के  खर्राटे सुनाई देने शुरू हुए वह वही गमछा बिछा कर फ़र्श पर लेट गया - भयंकर सर्दी के दिन थे और पंत जी ने उसको अपनी गर्म चद्दर देनी चाही  पर उसने विनम्रता से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि शरीर को गर्मी मिलते ही नींद आ जायेगी - मालिक रात में जब भी जागेगा उसको सोता देखेगा तो आग बबूला  हो जायेगा ,और उसकी जान भी ले सकता है।इस घटना ने उनके ऊपर गहरा असर डाला। 

 
ऐसी ही एक और घटना उन्होंने देहरादून की सुनायी जब उनके घर में नई फ़र्श बनाने का काम चल रहा था - वैसे ही सर्दियों के दिन थे और दफ़्तर से लौटने के बाद उन्होंने देखा एक बिहारी मज़दूर  सिर्फ़ बनियान पहने हुए ओवरटाइम में फ़र्श की घिसाई का काम कर रहा है। पंत जी ने पत्नी को कहा कि इसको चाय दे दो,बेचारे के  बदन में थोड़ी गर्मी आ जायेगी। जब बार आग्रह करने पर उसने चाय नहीं ली तो पत्नी ने बताया दिन में कई बार मैंने उससे चाय के लिए कहा पर हर बार उसने मना कर दिया। जब उस मज़दूर से पंतजी ने कारण पूछा तो उसने बताया कि चाय पीने की तलब उसको थी पर यह सोच कर बार बार वह इनकार कर रहा था कि कहीं चाय की आदत न पड़ जाए - वह इस तरह की दिहाड़ी मज़दूरी में चाय पीने के बारे में सोच भी नहीं सकता था।
 
मैंने जब पंतजी से इन दोनों घटनाओं पर कहानियाँ लिखने के बारे में पूछा तो उन्होंने बड़ी सहजता और दृढ़ता से जवाब दिया कि ये मेरे जीवन का "फिक्स्ड डिपॉज़िट" है जिसको मैंने सोच रखा है काम चलाने के लिए कभी तुड़ाऊँगा नहीं ..... और हमेशा ये घटनाएँ मुझे दिये की तरह रोशनी दिखाती रहेंगी और यह बताती रहेंगी कि मुझे किनके बारे में और किनके लिए लिखना है।

यादवेन्द्र

लेखक अनुवादक
पूर्व निदेशक,के.भ.अ. संस्थान,रुड़की

Thursday, March 23, 2023

कंधे पर पहचान का झोला लटकाये

हिंदी की रचनात्मक दुनिया में अपने समकालीनों पर कविता लिखने की एक अच्छी और सम्रिद्ध परम्परा है. कुछ समय पूर्व कवि श्याम प्रकाश जी ने भी अपने समकालीन और प्रिय कथाकार सुभाष पंत के केंद्र में रखते हुए एक कविता लिखी और अपनी मित्र मंडली के बीच में उसे शेयर भी किया. उस कविता की खूबी इस बात में देखी जा सकती है कि न सिर्फ सुभाष पंत का व्यक्तित्व बल्कि उनका रचना संसार भी कविता में नजर आने लगता है. रचनाओं के शीर्षको को कविता में पिरोकर इस तरह से रखा गया है कि उनसे केंद्रिय रचनाकार की आकृति भी साफ दिखने लगती है. उस कविता को भाई शशि भूषण बडोनी जी के बनाये चित्रों के साथ पढे तो कथाकार सुभाष पंत और भी खूबसूरत नजर आ रहे हैं. बडोनी जी का विशेष आभार कि उन्होंने इस अनुरोध का मान रखा कि भिन्न भिन्न भाव मुद्राओ में पंत जी के स्केच बनाये. 

विगौ 

जेब में पहाड़ 

  श्याम प्रकाश

दरअसल चीफ़ के बाप की मौत हो गई थी

न चाहते हुए भी मेरा वहां जाना जरूरी था

मरने वाला कोई और नहीं मेरे चीफ़ का बाप था

 

चिलचिलाती दुपहर की तपती हुई ज़मीन पर

नंगें पांव श्मशान में खड़ा मैं

कभी दांया तो कभी बांया पैर ऊपर उठाता

पैरों को ज़मीन पर रखते-उठाते

मुझे कंटीली-पथरीली,

चढ़ती-उतरती पगडंडियों पर पांव बचा

चलना याद आ गया


मैं पहाड़ की सुबह में था

पीले से सफेद होता हुआ सूरज,

गुनगुनी धूप,

पहाड़ पर  छोटे-बड़े पेड़ों का पहाड़ बनाते पेड़ ,

चिड़ियों की बोलियां

और इन सब के बीच गुजरती ठंडी-ठंडी हवा....

 

मैं सहसा चौंक पड़ा

मैं तो श्मशान में खड़ा हूं

इस मौके अपनी सोच के‌ भटकाव का  यह रोमांटिसिज्म मुझे कतई नहीं भाया

आखिर मैं  मौत में आया हूं

 

चिता से उठती लपटों से छूटते चिंगारों को देखते

मै फिर पहाड़ चढ़ गया

और वो आदमी, जिस का नाम फिलहाल मुझे ध्यान नहीं आ रहा,

जो अक्सर मुझे वहां दिखाई  पड़ता था,

मेरे साथ था

हर बार ही वो आदमी मुझे हर पिछली बार से लम्बाई में छोटा होता हुआ आदमी लगता

असल में वह चौड़ाई में फ़ैल रहा था

अपने लिबास और स्वभाव दोनों से निहायत आम आदमी लगता

कंधे पर पहचान का झोला लटकाये

सुबह का भूला सा,

अक्सर वह बरसाती नदी के पास के पत्थर पर

बैठा दिखता

कुछ सोचता,  टहलता,

कभी ‌नदी में से पत्थर उठा दूर नदी में फेंकता ,

अचानक ही जोर-जोर से

एक से दस  तक गिनती ऐसे बोलता

जैसे एक का पहाड़ा...

एक ईकम एक,एक दूनी दो,एक तिया ‌तीन.... पढ़ रहा हो

बेतरतीब-सी उसकी बातों में कोई ताल मेल नहीं होता

अजीब-अजीब बातें किया करता वो

कभी जिन्नों के डरावने किस्से

तो कभी अलादीन के चिराग से निकले

जिन्न और अन्य कहानियां सुनाता ,

पास के पेड़ की टहनी पर बैठी चिड़िया को

टकटकी लगा देखता,

कहता इस चिड़िया की आंख गिरगिट की तरह

रंग बदलती है

जब लोग देखते चिड़िया को उड़़ते नहीं 

आदमी को टहनी पर से कूदते देखते,

अक्सर वो कुछ गुनगुनाया करता कहता

ये मुन्नी बाई की प्रार्थना है

बड़ी लय में गाया करती थी मुन्नी बाई

पता नहीं कब उसे बीच में ही छोड़ और किस्सों में उलझ जाता,

कहानियों का उसे बहुत शौक था

गिनती कर वह बताता

इक्कीस कहानियां उसे अच्छी तरह याद हैं,

जिन्हे सुनाते वह हर बार गड्ड-मड्ड कर देता

उसने बताया उस के पास कुछ किताबें भी हैं

कहते -कहते जैसे कुछ भूल रहा था,

कुछ रुक कर उंगलियों से माथा ठोकता बोला... क्या कहते हैं.... क्या कहते हैं उन्हें

जो अच्छी और अलग सी होती हैं

वह सोच में पड़ गया

हां याद आया, फिर बोला- प्रतिनिधि

उसके पास इस नाम की एक किताब है जिस में किसी एक ही लिखने वाले की 

दस प्रतिनिधि कहानियां हैं

वे सुरक्षित हैं किसी खास जगह

एक फाइल में

लेकिन वह फाइल बंद है अभी

बिलकुल खोई चाबी वाला ताला लगे बक्से की तरह

 

और वो दिन

वो तो न भूलने वाला बन गया था

मैंने उसे कभी इस तरह नहीं देखा था

मुंह से  सिंगिंग बेल की बजती घंटियों जैसी

आवाज़ निकालता , कुछ-कुछ बोलता

वह दौड़ा जा रहा था

मेरे साथ और लोगों ने भी

उसे रोकने की कोशिश की

वो रुका नहीं

बल्कि उस की दौड़ और तेज़ हो गई

इक्कीसवीं सदी की एक दिलचस्प दौड़ की तरह

जिसका हिस्सा वह दूर-दूर तक नहीं था

 

कुछ दूर दौड़ ,पस्त हो वह रुक गया

गिरते-गिरते बचते ‌धम्म‌ से ज़मीन पर बैठ गया

वो हांफ रहा था,

उसका चेहरा पसीने-पसीने हो रहा था,

गुस्से में लाल उबलती आंखें

आधी बाहर लटक गई थीं

अब तक एक छोटी-मोटी भीड़

उसके चारों ओर थी

सांसें संभल जाने पर वह उठा

और फिर दौड़ने लगा

छोड़ूंगा नहीं उसे....

बिलकुल नहीं छोडूंगा....

उस्स ......

वह उबल रहा था

 

चिता से उठती लपटें शांत हो चुकी थीं

लोग क्रिकेट, मंहगाई, बेरोजगारी

और सरकार को कोसते

अपने - अपने घरों को लौटने लगे थे

लगा श्मशान से नहीं लंच के बाद दफ्तर में अपनी-अपनी सीट पर जा रहे हों

मुझे लगा मैं उनके साथ नहीं चल रहा हूं

कहीं और दौड़ रहा हूं

पहाड़ के उस आदमी के साथ

जो हौसले से लबरेज़,

अपने थके-हारे पांवो के बावजूद

दौड़ रहा है,

पीछा कर रहा है

उसका

जो पहाड़ चोर है

जिसकी जेब में पहाड़ है ।

                     _____

                               

Tuesday, March 21, 2023

कथाकार सुभाष पंत की रचनाएं एवम उनके पाठक

सौरभ शाण्डिल्य एवम कथाकार विद्या सिन्ह से जानकारी मिली है कि प्रगतिशील एवम जनवादी सरोकरो के स्वतंत्र संगठन 'धागा: विमर्श का मंच' ने आभासीय दुनिया के अपने पटल पर मार्च 2023 में ही कथाकार सुभाष पंत की कहानी ‘ए स्टिच इन टाइम’ सदस्यो के पढने के लिए एवम उस पर खुल कर बात करने के लिए लगाई गई थी. वहा प्राप्त हुई प्रतिक्रियाएं यहाँ पुनः सांझा की जा रही हैं. इसके साथ ही आभासीय दुनिया में इसी माह अन्य जगहो पर भी कथाकार सुभाष पंत के पाठक उनकी कहानियो को सांझा करते हुए दिखे.

कहानी ए स्टिच इन टाइम ने सोचने पर मजबूर कर दिया कि इन मल्टिनैशनल कंपनियों की बढ़ती लोकप्रियता में हम भी कहीं शामिल हैं, शामिल हैं हुनर के उन काट दिए हाथों के गुनाह में,भूख और मजबूरी के चक्रव्यूह में जो हमारी रजामंदी से रचाया गया। केवल एक दर्जी नहीं जाने कितने हुनरमंदों को मालिक से नौकर बनना पड़ा है। वैश्वीकरण की नीतियों ने पूँजीपतियों की मंशा को किस कदर फलीभूत किया है, हम अपने आसपास आसानी से देख रहे हैं लेकिन महसूस नहीं कर पा रहे। इस कहानी में मुख्य पात्र ने महसूस किया और पाठक को महसूस करवाया कि एक बड़ी मछली किस तरह छोटी मछलियों का शिकार कर पूरे तालाब में अपना वर्चस्व बढ़ाती है। कहानी में दो पीढ़ियों के बीच परिवर्तन के अंतराल और मानसिकता को बाखूबी दर्शाया गया है। यह आर्थिक रूप से सक्षम लोगों का ही शगल है, जिन्हें दाम से नहीं ब्रांडेड नाम से मतलब है, अपनी शान बनाने के लिए इन कंपनियों का समर्थन करते हुए कितने लोगों को मालिक से मजदूर बनने को विवश कर दिया। हमारे बुजुर्ग और हमारी पीढ़ी के लोग भले ही आज भी दर्जी से सिलवाए कपड़े शौक से पहन भी लेते हैं किंतु हमारे बच्चों पर ब्रांडेड कंपनियों का भूत सवार है। मोबाइल पर आनलाइन शापिंग का खूब खेल चल रहा है। माॅल संस्कृति ने आमजन की जेबों पर कब्जा कर रखा है। यही तो वह आर्थिक खाई है जो बढ़ती जा रही है क्योंकि यह सर्वोन्मुखी विकास नहीं है। कहावत है कि पैसा पैसे को खींचता है लेकिन किनके पैसे को खींचता है शायद यह हम सोच नहीं पाते या सोचना नहीं चाहते। कहानीकार कहानी को अपनी स्वाभाविक गति से आगे बढ़ाते हुए पाठक को अपनी मानसिक दशा से अवगत कराते हुए कहीं न कहीं पाठक का समर्थन भी हासिल करता जाता है। किंतु मुख्य पात्र का खुल कर विरोध न कर पाना पाठक को निराश भी करता है। यहां तक कि नशे में भी वह अपना आपा नहीं खोता, एक ओर बीवी का स्टेटस तो दूसरी ओर बेटी के मनचाहे भविष्य की चिंता में वह अपने मन की करना तो दूर खुल कर कह भी नहीं पाता। कहानी का आखिरी हिस्सा बेहद मार्मिक बुना गया। जब दर्जी नज़र अहमद की बेटी अपनी आपबीती कहती है, अपने लिए दयायाचना नहीं बल्कि एक हुनरमंद पिता की बेटी से हुई ग़लती की माफ़ी माँगती है, और अपनी कुंठा से बाहर आते ही मुख्य पात्र अपनी ब्रांडेड कमीज़ में लगे अतिरिक्त बटन की जगह लगा हुआ उल्टा बटन देखता है तो दिल धक्क से रह जाता है। कहानी पूरी तरह से मस्तिष्क को मथ कर रख देती है इसकी शैली और शिल्प बेजोड़ है। एक बेहतरीन कहानी पढ़वाने के लिए धागा : विमर्श का मंच का धन्यवाद 💐🙏 रूपेंद्र राज तिवारी रायपुर/छत्तीसगढ़
मल्टी नेशनल ब्रांडेड कम्पनियों ने किस तरह ,दर्ज़ी , कुटीर उद्योगों को अपनी विकरालता में लील कर इन्हें असहाय और दरिद्रता के कगार पर ला दिया है। कहानी ' अ स्टिच इन टाइम' लेखक -सुभाष पंत जी ने बहुत ही मार्मिक पड़ताल करते हुए इसे लिखा है। अमन टेलर्स जैसे कई नज़र अहमदों की दुकान का बंद होना,मालिक से नौकर की स्थिति में आ जाना। लेखक इसे नफ़ीस हत्याएं कहता है जहां दोषी को कोई सज़ा नहीं होती। कहानी के कुछ वाक्यांश कविता की तरह हैं। - श्रम का कविता और संगीत हो जाना। आयशा अंसारी का एकालाप व्यथित करने वाला है। आभार: धागा विमर्श का मंच🙏🏻 ख़ुदेजा जगदलपुर/ छत्तीसगढ़
आधुनिकता कितने मुंह का निवाला छीन रही है उनके दर्द को दिखलाती संवेदन शील कहानी। एक कहानी बहुत सारे विषयों को समेटे है। परंपरा,रिश्ते,अवसरवादी, पीढ़ियों की कश्मकश में गुंथी कहानी पटल पर रखने के लिए साधुवाद सुनीता पाठक
एक जरुरी और विचारवान कहानी है यह। इसे पढ़ते हुए प्रज्ञा रोहिणी की कहानी 'मन्नत टेलर्स' या आती रही। ग़ज़ब संयोग यह कि वहां टेलर है रशीद भाई और यहां नजर अहमद। दोनों की दुकानों को रेडीमेड वस्त्रों का कारोबार निगल गया। इस कहानी में अपनी पीड़ा चरित्र खुद कहते हैं जबकि मन्नत टेलर्स में परिस्थितियों के मार्फ़त स्थिति व पीड़ा खुलती है। हालांकि दोनों कहानियों के क्लाइमेक्स और अंत अलग हैं। लेकिन पीड़ा एक ही है जोकि होना भी चाहिए। हुनरमंद और छोटे पेशे में लगे लोगों के बेरोजगार हो जाने की कथाओं में मनीष वैद्य की 'घड़ीसाज' को भी शामिल किया जाना चाहिए। ग्रामीण शिल्पकार को परेशानी में डालती कहानी हवाई जहाज सन 85 में सारिका में छपी थी। इस कहानी में उसके बृहद आकार के अनुरूप तमाम दृश्य और सम्वाद भी हैं। दर्जी की बेटी का आत्मालाप एक नए शिल्पगत प्रयोग के रूप में सामने आता है। रितु वेरी नाम का प्रयोग भी नया शिल्पगत प्रयोग है। बाजार के बहुलतावादी युग मे छोटे छोटे प्रचार प्रयोग भी कहानी को नया विस्तार देते हैं। हुनरमंद पीढ़ी को छोटा दुकानदार खा रहा है और बड़ा उसको; तो इसको भी मल्टीनेशनल कंपनी खाए जा रही है। शीर्ष पर एकाधिकार यूँ ही होता जा रहा है तभी तो दर्जी से सिलाई जाने वाली सादा शर्ट की कीमत 500₹ (कपड़ा300+सिलाई 200) की तुलना में अच्छी शर्ट ऑफ सीजन और स्टॉक क्लियरेंस में आउटलेट व शो रूम में 100/ 200 मात्र में शर्ट मिल जाती हैं, भोपाल का न्यू मार्केट बरामदाहो या दिल्ली का कनॉट प्लेस /पालिका बाजार का कैम्पस; सब जगह यही हाल। कहानी खत्म हो के भी खत्म नहीँ होती, पाठक के मन मे जारी रहती है, यह लेखक की बड़ी रचनात्मकता है। धागा: विमर्श का मंच राज बोहरे
मल्टी नेशनल ब्रांडेड कम्पनियों ने किस तरह ,दर्ज़ी , कुटीर उद्योगों को अपनी विकरालता में लील कर इन्हें असहाय और दरिद्रता के कगार पर ला दिया है। कहानी ' अ स्टिच इन टाइम' लेखक -सुभाष पंत जी ने बहुत ही मार्मिक पड़ताल करते हुए इसे लिखा है। अमन टेलर्स जैसे कई नज़र अहमदों की दुकान का बंद होना,मालिक से नौकर की स्थिति में आ जाना। लेखक इसे नफ़ीस हत्याएं कहता है जहां दोषी को कोई सज़ा नहीं होती। कहानी के कुछ वाक्यांश कविता की तरह हैं। - श्रम का कविता और संगीत हो जाना। आयशा अंसारी का एकालाप व्यथित करने वाला है। आभार: धागा विमर्श का मंच🙏🏻 ख़ुदेजा जगदलपुर/ छत्तीसगढ़





अंजु शर्मा ने आपनी फेसबुक टाइमलाइन पर एक कहानी क जिक्र कुछ इस तरह किया, कल रात सुभाष पंत सर की एक बहुत शानदार कहानी पढ़ी - रतिनाथ का पलंग। बहुत ही उम्दा और मार्मिक कहानी है। मानवीय संवेदनाओं और व्यवहार की कितनी सूक्ष्म पड़ताल है इस कहानी में। ये विश्वास पुख़्ता हुआ कि वे ऐसे ही नहीं मेरे प्रिय कथाकार हैं। उनकी टाइमलाइन पर ही अन्य टिप्पणिया देखी जा सकती हैं.


राजेश सकलानी ने आपनी फेसबुक टाइमलाइन पर एक कहानी क जिक्र कुछ इस तरह किया, " मक्का के पौधे " हिन्दी के वरिष्ठ और संभवतः सबसे ज्यादा सक्रिय कथाकार सुभाष पंत की यह कहानी अपने सुघढ स्थापत्य और भाषा के अतिरिक्त सामाजिक जीवन की जटिलता और सौंदर्यबोध के कारण ध्यान आकर्षित करती है। निम्नवर्गीय परिवार का लालता और उसकी पत्नी मुश्किल स्थितियों में पड़ जाते हैं जब उनका जवान लड़का जो ट्रक ड्राइवर है, एक शादी शुदा औरत को अपने घर ले कर आ जाता है। यह उन्हें अनुचित जान पड़ता है। अंत के एक दृश्य में औरत खेत में रौंदे गए मक्की के पौधों को फिर से रोप कर सीधा खड़ा कर देती है।औरत का सलीका और व्यवहार लालता को अच्छा लगने लगता है। यहां प्रश्न खड़ा होता है कि औरत का पूर्व पति यहां ज्यादती का शिकार हो रहा है। सुगनी इस पुरुष की रक्षा में अपनी बात रखती है और औरत को अपने घर लौटने को कहती है। औरत मानती है कि उसके पति में कोई दोष नहीं है।वह उसके विरुद्ध नहीं है। लेकिन वह अपने प्रेम के लिए यहीं रहना चाहती है। कथाकार शायद समाज में ऐसी ही पारदर्शिता और ईमानदारी को स्थापित करना चाहते हैं। यद्यपि ऐसी स्थितियों में लोक किसी न किसी पात्र को शत्रु बनाने पर उतारू हो जाएगा। लालता को भाग कर आई औरत स्वीकार्य नहीं है।सुगनी को सहानुभूति है पर सामाजिक मर्यादाएं उसे कटु बना रहीं हैं।उसका कहना है कि " हाथ जोड़ती हूं , तू अपने घर चली जा" वह पूछती है " उससे छूट हो गई ? " जबाव मिलता है " नहीं ।छूट तो मन की है।जब मन ही नहीं मिला । " उनकी टाइमलाइन पर ही अन्य टिप्पणिया देखी जा सकती हैं.

Sunday, March 19, 2023

कथाकार सुभाष पंत का नया उपन्यास - एक रात का फासला


पिछ्ले लगभग 70 वर्षो से के लेखकीय जीवन में सतत सक्रिय कथाकार सुभाष पंत ने हाल ही में अपने नये उपन्यास “एक रात का फासला” के अंतिम ड्राफ्ट को पूरा कर लेने की घोषणा फरवरी माह में की थी. वह दिन कथाकार के जीवन एक मह्त्वपूर्ण दिन था. जीवन के 84वें वसंत से 85वें वसंत प्रवेश करने का दिन.

ब्लाग का मार्च महीना अपने प्रिय कथाकार के लेखकीय जीवन में सतत सक्रिय रहने की शुभकामनाओ के साथ ही उंनकी अभी तक की लेखकीय यात्रा को उत्खनन करने और उससे गुजरने की कोशिश है. आज पढते हैं अभी लिखे गए नये उपन्यास “एक रात का फासला” का एक छोटा सा अंश. 



ससुराल की महापंचायत


शरीरिक और मानसिक रूप से अस्वस्थ और तीन घंटे बैलगाड़ी की यात्रा से थकी चम्पा अपने ससुराल की पंचायत में हाज़िर हुई। वह अपने बड़े भाई के साथ आई थी, जिसकी जिम्मेदारी उसे यात्रा में संरक्षण देना था। वह गवाह नहीं था लेकिन चम्पा को नैतिक बल प्रदान करना और पंच फैसले को कार्यरूप में परिणित करना उसकी जिम्मेदारी थी।

   वह सूती कमीज, लट्ठे का पैजामा और सिर पर गुलाबी पगड़ी पहने था। उसकी मूँछों की ऐंठ और आँखों की चमक वैसी नहीं थी जैसी अमूमन रहा करती थी। उसका आत्मविश्वास डिगा हुआ था क्योंकि सारी स्थिति का विश्लेषण करने के बाद वह इस नतीजे पर पहुँचा था कि दोष चम्पा का ही है। अपना ही सिक्का खोटा हो तो चाहने के बाद भी सिर उठा नहीं रह सकता।

   चम्पा ने देखा। कई बुजुर्ग आसन पर बैठे थे। वे वक़्त से पिछड़े, लेकिन सम्मानित और ताक़तवर लोग थे जिनके हाथों उसके भाग्य का फ़ैसला होना था। तप्पड़ में चार गाँवों के उत्सवप्रिय लोग एक ऐसे दिलचस्प मामले को सुनने आए थे जैसा मामला उनके सुने और देखे इतिहास में अनोखा था। वे पतन की पराकाष्ठा पर खड़ी उस स्त्री को देखने आए थे जिसने डोली से उतरते ही अपने पति को पति मानने से इनकार कर दिया। उन्हें उम्मीद थी कि पंचायत सजा के तौर पर उसे नंगा करके घुमाएगी। एक लड़की को, जिसके बारे मे चर्चा थी कि वह बहुत खूबसूरत है, सरेआम नंगा देखने का उन्माद उनकी नसों में दौड़ रहा था।

   वादी पक्ष दर्शकदीर्घा के दायीं ओर खड़ा था। भूरे, राजेसुरी और किसन। उनके पीछे कुछ और लोग भी थे जिन्हें चम्पा नहीं जानती थी। भूरे ने वे ही बाटा के पीटी शू पहन रखे थे जिन्हे विवाह के समय पहनने से उसे लगा था कि उसकी नाक कट गई है। अब वे उसे रास आ गए थे क्योंकि उनमें उछलना और भागना आसान था। राजेसुरी के सिर पर आधा पल्ला था। उसका चेहरा इतना सपाट था कि उस पर कुछ भी लिखा जा सकता था। किसन उसी पोशाक में था जो पोशाक उसने शादी में पहनी थी और उसकी कमर में वह तलवार लटक रही थी, जिस तलवार को लटकाकर वह उसे ब्याहकर लाया था। उसकी पसली की टूटी हड्डियों की मरम्मत की जा चुकी थी और अब वह चाकचौबन्द था।

   जनसमूह को देख कर चम्पा दहल गई, जो उसे सज़ा देने के लिए उत्सवभाव से वहाँ एकत्रित था। वक़्त के हर दौर में ऐसा ही हुआ है। अपराधियों ने सज़ाएँ तय की हैं और उन्होंने उसे भुगता है जिन्होंने कोई अपराध नहीं किया।

   सारी आँँखें उसी पर टिकी हुई थी और सिर के ऊपर निष्ठुर आसमान तना हुआ था। हवा बेचैन थी और पेड़ों के पत्ते हताशा में लड़खड़ा रहे थे। राहत की बात बस यही थी कि उसका चेहरा घूँघट में था जिसने उसकी सारी दुर्बलताओं को सार्वजनीन होने से बचा रखा था।

   मुकदमा शुरु भी नहीं हुआ था कि दर्शकदीर्घा से एक प्रबुद्ध किस्म के आदमी ने, जो नारी समर्थ्ाक व्यक्ति था और विरल था, चिल्लाकर व्यवस्था का प्रश्न खड़ा कर दिया, ‘वर की कमर में तलवार बंधी है....पंच परमेश्वर बताएँ कि क्या पंचायत में हथियार लाने की इजाजत है?’

   दर्शकदीर्घा में हल्ला मच गया। मुकदमा शुरु होने से पहले किसन को अपनी कमर में बंधी तलवार खोलकर पंचों के पास जमा कर देनी चाहिए ताकि कल कोई यह न कहे कि फ़ैसला हथियार से डरकर लिया गया।

   इससे पहले कि पंच कमर से तलवार खोलने का हुक्म देते भूरे ने कहा, ‘यह हमारा रिवाज है कि कमर में तलवार बांधकर लड़का शादी करता है और वह तब तक कमर से नहीं खोली जाती जब तक दूल्हा मंढे की बत्ती खोल कर दुल्हन को सकुशल घर के भीतर नहीं पहुँँचा देता। मामला यही है, जिसके लिए हमने पंचायत में गुहार लगाई कि मंढे की बत्ती नहीं खुली और बहू ने घर में परवेस नहीं किया, इसलिए तलवार कमर से नहीं खोली गई। तब भी, जब किसन की पसली की हड्डियाँ टूट गई और, यहाँ तक कि दिशा-मैदान के समय भी इसे नहीं खोला गया। पंचपरमेसुर से गुजारिश है कि जब तक कोई फैसला नहीं हो जाता इसे किसन की कमर में बंधे रहने की इजाजत दी जाए।’

   पंचायत उलझन में फँस गई। दोनों ही तर्क सही थे। न्याय की आचार संहिता के लिए तलवार कमर में  बंधी नहीं रहनी चाहिए और रिवाज के हिसाब से उसे कमर में बंधे रहना चाहिए।

   एक पंच ने कहा, ‘पंचायत में हथियार लाने की इजाजत नहीं है, लेकिन यह रिवाज का मामला है और, रिवाज कैसा भी हो, उससे छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए। फिर भी हम इसे स्त्री पक्ष पर छोड़ते हैं। अगर उसे ऐतराज न हो तो इस बार पंचायत वादी को कमर में तलवार बंधी रहने की इजाजत दे सकती है।’

  चम्पा घबराई हुई थी लेकिन जब उससे पूछा गया तो उसमें हौसला आ गया। उसने महसूस किया कि उसकी यातनाएँ अबूझ शक्ति में बदल गई हैं। एक ऐसी तलवार को, जो जंग खाई हो, म्यान से बाहर निकलती ही न और जो दूसरे पर नहीं खुद पर हमला करती हो, कमर में बंधे रहने देने में उसे क्या आपत्ति होती। उसने सिर हिला कर स्वीकृति प्रदान कर दी।

   स्वीकृति के बाद वादी पक्ष से पंचायत से सामने अपनी बात रखने को कहा गया।

   किसन को सभ्य समाज में बात करने का सलीका नहीं आता था। वह हड़बड़ा गया और दयनीय दृष्टि से अपने पिता की ओर देखने लगा जिसे उसने अपनी शादी के वक़्त बाटा का पेटेंट शू पहनने के काबिल भी नहीं समझा था।

   बेटे की करुणा से विगलित भूरे ने गला खँखार कर कहा, ‘पंचपरमेसुरों को मेरी राम राम। मामला है कि सामने खड़ी यह लड़की, जिसने अपना मूँ घूँघट में छिपा रखा है, बिरौड़ गाँव की चम्पा है। विधि-विधान के साथ मेरे बेटे किसन से इसका ब्याह हुआ। फेरे हुए। कन्यादान और पाणिग्रहण हुआ। गवाह वे साठ सज्जन हैं जो इस ब्याह में बाराती की तरह बिरौड़ गाँव गए, जिनमें से कुछ इस बखत यहाँ भी मौजूद हैं। इसके अलावा कन्या पक्ष का शाहपट्टा मेरे पास है जो इस ब्याह का दस्तावेज है। याने लड़की के साथ कोई जोरजबडदस्ती नहीं की गई। उसे बहकाया, फुसलाया या उठाया नहीं गया। विधिवत ब्याह किया गया। पंचपरमेसुर लड़की से मालूम कर सकते हैं, मैने जो कहा वह सच है कि गलत है।’

   भूरे ने जो कहा क्या वह सच है?’ पंचों ने पूछा।

   चम्पा ने जवाब दिया कि भूरे ने जो कहा वह सच है।

   तुझे इस विवाह से कोई आपत्ति थी और तूने यह ब्याह अपने पिता के दबाव में किया?’

   चम्पा ने जवाब दिया कि उसे इस विवाह से कोई आपत्ति नहीं थी और उसके पिता ने इस विवाह के लिए उस पर कोई दबाव नहीं डाला।

   तो फिर जब चम्पा को विवाह से कोई ऐतराज नहीं?’

   यहाँ तक गणेशजी की किरपा से सब ठीकठाक निबट गया,’ भूरे ने कहा,

          । श्री गणेशाय नमः ।

     वक्रतुण्ड महाकाय सूर्य कोटि सम्प्रभः।

     निर्विघ्न कुरु में देव सर्व कार्येषु सर्वदा।

   लेकिन जब बहू की डोली हमारे आँगन में उतरी पंचपरमेसुरों तो सारा खेल बिगड़ गया। उसने डोली से उतरते ही ऐलान कर दिया कि किसन की माँ उसकी सास नहीं, किसन का घर उसका घर नहीं, और किसन उसका पति नहीं। उसे उसके घर वापिस भेज दो, नहीं तो वह खाई में कूदकर जान दे देगी। और बेहोश हो कर गिर पड़ी।’

   हमारे पास इसे उस बखत इसके घर वापस भेजने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया था।’

   क्या यह सच है?’ पंचों ने चम्पा से पूछा।

   उसने सिर हिलाकर हामी जताई कि वह जो कह रहा है वह सच है।

   पंच परेशान हो गए और दर्शकदीर्घा हैरान रह गई।

   तूने किसन को अपना पति मानने से क्यों इनकार किया जब कि इस ब्याह से तुझे कोई ऐतराज नहीं था?’

   इसका जवाब इसके पास है।’ उसने अपनी थरथराती उंगली किसन की ओर उठाई।

   किसन बौखला गया, ‘मैं इसके मन की बात कैसे जान सकता हूँ पंचपरमेसुरों। कोई यार रहा होगा इसका। आसनाई होगी किसी के साथ....तिरिया चरित को तो बरमा, बिसनू, महेस भी नहीं जान सके। मैं तो सीधे-सच्चे इनसानों में भी सीधा-सच्चा हूँ। मुझे तो सिरफ हल जोतना, बीज डालना और फसल उगाना आता है....’

   दर्शकदीर्घा फुसफुसाहट में बदल गई किसन ठीक कहता है। यह लड़की कोई खेल खेल रही है।

   भला किसन कैसे जान सकता है कि तूने उसे अपना पति मानने से क्यों इनकार किया?’

   क्योंकि इसे कमर में तलवार बांधना आता है लेकिन तलवार को म्यान से बाहर निकालना नहीं आता....’

   यह लड़की सबको भरमा रही है पंचपरमेसुरों।’ भूरे ने कहा, ‘ये भी कोई बात हुई....क्या कोई औरत अपने पति को इसलिए पति मानने से इनकार कर देगी कि उसे म्यान से तलवार निकालना नहीं आता? और जहाँ तक मैं समझता हूँ, किसन अगर कोशिश करे तो वह तलवार म्यान से बाहर निकाल सकता है। उसकी पीठ इतनी मजबूत है कि वह उस पर मणभर बोझ को एक फर्लांग तक ढो सके।’

   अब इसका कोई मतलब नहीं,’ चम्पा ने स्थिर स्वर में कहा, ‘इसने उस बखत तलवार म्यान से बाहर नहीं निकाली, जब इसकी जरूरत थी....ये नामर्द है।’

   अपने को नामर्द कहे जाने से किसन बौखलाकर उछला और चिल्लाया, ‘मेरे साथ सोई नहीं हरामजादी और मुझे नामर्द कह रही। अभी गला रेत दूँँगा, इसी बखत। सबके सामने फिर चाहे मुझे फन्दे पर लटकना पड़े। फन्दे की परवाह नहीं मुझे।’ और चम्पा की ओर दौड़ा।

   उधर चम्पा का भाई भी आस्तीने गुलटकर तैयार हो गया कि किसन चम्पा पर झपटे तो वह उसके हाथ-पैर तोड़ दे।

   पंचपरमेसुर घबराकर अपने आसनों से उठ कर खड़े हो गए।

   दर्शकदीर्घा के शान्तिप्रिय लोगों ने किसन और चम्पा के भाई को थाम लिया।

   आक्रामक क्षण टल गया तो पंचपरमेसुर यह कहते हुए अपने आसनों पर बैठ गए कि आगाह किया जाता है किसी ने कोई गड़बड़ की तो इसका नतीजा बुरा होगा। यह न्याय का मंदिर है, दंगल का अखाड़ा नहीं।

   इस चेतावनी के बाद लोग शान्त हो गए और आगे की कार्यवाई फिर शुरु हो गई।

   चूंकि अब जमाना बदल रहा है। स्त्रियों का आचरण और लोकलाज भी बदल गया है। वे औरतें अब नहीं रही जो सबकुछ सहकर कभी मुँह नहीं खोलती थीं। ऐसी महान औरते भी रहीं हैं इस देश में, जो अपने कोढ़ी पति को कंधें पर उठाकर वेश्यालय ले गई, क्योकि वह ऐसा चाहता था। उन्हें देवियों के आसन पर बैठाया जाता था। बदली हवा में पंचायत उस औरत पर दबाव नहीं डाल सकती कि वह उस आदमी को अपना पति मानें जो नामर्द हो। चम्पा को भी यह छूट है बशर्ते कि वह साबितकर सके कि किसन नामर्द है। हालांकि वह अपने पति के साथ सोई नहीं तो वह कैसे कह सकती है कि उसका पति नामर्द है। चम्पा को बताया जाता है कि अगर वो ये बात साबित नहीं कर सकी तो इसका नतीजा बहुत बुरा होगा।’

   ब्याह के बाद मेरी डोली जिस दिन पहुँचनी थी, उससे एक दिन बाद पहुँची, और यह आदमी चुपचाप देखता रहा। इससे साबित होता है....’

   भूरे ने हवा में हाथ उछालकर कहा, ‘यह हमारे गाँव की रीत है, बहू की डोली एक दिन बाद आती है।’

   पंचों के चेहरे बेचैन हो गए। उन्हें कतई उम्मीद नहीं थी कि कोई बहू भरी पंचायत में यह सवाल उठा सकती है। यह डोली के एक दिन बाद पहुँचने का मामला नहीं था। यह एक रवायत के खि़लाफ़ खुला विद्रोह था।

   अपनी ससुराल के सब रिवाजों को निभाना हर बहू का फरज है। इस बात से क्या फरक पड़ता है कि डोली एक दिन पहले आई की एक दिन बाद आई।’

   बहू की डोली एक दिन पहले आएगी तो उसे कोई बहू नहीं मानेगा और एक दिन बाद आएगी तो वह पति को पति कबूल नहीं करेगी।’ चम्पा ने मजबूती से कहा।

   जब से यह गाँव बसा डोली एक दिन रुक कर आसीरवाद लेती है। इसी आसीरवाद से घर फलता फूलता है।’ भूरे ने कहा। इसी के साथ उसे बीड़ी पीने की हुड़क हुई लेकिन पंचायत के सम्मान में उसने बीड़ी नहीं सुलगाई और पंच परमेसुरों की ओर ऐसे भाव से देखा कि उन्हें पता चल जाए कि बीड़ी की तलब के बाद उसने बीड़ी नहीं पी।

   लेकिन एक दिन की डोली की देर में औरत की जिंदगी में क्या हो जाता है....यह ठाकुर बताएगा। पंचों से हाथ जोड़कर बिनती है कि ठाकुर को पंचैत में बुलाया जाए।’

   दर्शकदीर्घा में सन्नाटा फैल गया। यह ठाकुर की प्रजा थी। उसके बंधुआ मजदूर, हलिए, गुलाम, मातहत, कृपापात्र, कर्जदार, आतंकित, डरे, सहमें, कुचले, खरीदे हुए और वफादार....

   तप्पड़ जिसमें वे बैठे थे, पंचायतघर, पंच, बावड़ी, कुएं, स्कूल सब ठाकुर के थे। ठाकुर के पास सिपाही थे, कारिन्दे थे। ठाकुर के हाथ में जिन्दगियाँ थीं, ठाकुर के हाथ में हत्याएँ थीं। देश आज़ाद हो चुका था लेकिन गाँव गु़लाम थे।

   ठाकुर को पंचायत में तलब नहीं किया जा सकता था।

   भूरे को ठाकुरों की ओर से पाँच बीघे की माफी मिली थी और अब वह हलिया नहीं किसान था।

   ठाकुर मालिक हैं। वे फैसले करते हैं उन्हें पंचैत में गवाह की हैसियत से नहीं बुलाया जा सकता।’ उसने कहा।  

   दर्शकदीर्घा से ठाकुर का मुख्यकारिन्दा और उसके सिपाही चिल्लाए, ‘किसी ने भी ऐसी जुर्रत की तो उसे गोली से उड़ा दिया जाएगा। लड़की तू अपनी औकात में रह। और पंचैत भी पहले ही सँभल जाए।’

   विरोध में खड़े जनसमूह ने चम्पा को चेता दिया कि उसे न्याय मिलने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। पंचायत नौटंकी है और उसकी सजा तय है। औरतों की सजाएँ तभी तय हो जाती हैं जब वे जन्म लेती हैं। जो चुपचाप उन्हें सह लेती हैं, वे देवियाँ हैं। जो नहीं सहती वे कुल्टाएँ हैं। देवी और कुल्ट के बीच औरत की कोई जगह नहीं है। उसका उठा हुआ सिर किसी को बर्दाश्त नहीं होता।

   ठाकुर पंचायत में नहीं बुलाया जाता तो वह फैसला सुना दिया जाए जो मेरे लिए तय है।’ चम्पा ने कहा।

   तेरी बात सुने बिना कोई फैसला नहीं किया जाएगा। यह छूट का मामला है। ऐसी छूट जिसकी कोई वाजिब वजह भी नहीं है। किसन के साथ सोए बगैर उस पर नामर्दी का आरोप लगाया जाना सरासर गलत है।’

   छूट के अलावा यह मामला हत्या का भी है। मुझे मारने की कोशिश की गई।’ चम्पा ने कहा।

   यह झूठी और बदजात औरत है,’ भीड़ में से कोई चिल्लाया, ‘मैं वाकए पर मौजूद था। वहाँ ऐेसा कुछ भी नहीं हुआ जैसा यह कह रही.....औरत की बात पर कभी यकीन मत करो। मरते हुए भी वह सच नहीं बोलेगी।’

   हल्लागुल्ला नहीं,’ पंचायत ने कहा, ‘चम्पा को अपनी बात कहने दो।’

   मैं डोली से उतरते ही गिर पड़ी और बेहोश हो गई,’ चम्पा ने कहा, ‘लेकिन मैं बीमार नहीं थी, टूटी हुई थी और वहाँ तक टूटी हुई थी जहाँ तक कोई लड़की टूट सकती है। बस एक जिन्दा लाश। इस गाँव की बहू बनने से मैंने इनकार किया और अब भी मैं इनकार करती हूँ। एक लाश क्या किसी घर की बहू बन सकती है?’

   उसकी बात किसी की समझ में नहीं आई। वह खड़ी थी, साँस ले रही थी, बोल रही थी और अकेले पंचायत का सामना कर रही थी। वह लाश कैसे हो सकती है।

   एक औरत कैसे लाश हो जाती है? कोई औरत ही यह समझ सकती थी।

   वहाँ औरतें नहीं थी, राजेसुरी के सिवा और वह दूसरी ओर खड़ी औरत थी।

   और फिर उस लाश की भी हत्या करने की कोशिश की गई....’

   चम्पा तू पंचैत को गुमराह कर रही है। हमने किसी ऐसी लाश को नहीं देखा जो बोलती हो और फिर उसकी हत्या करने की कोशिश कैसे की जा सकती हो जो खुद एक लाश हो।’

   ठाकुर लाश बनाता है और, लाश कुछ बोलती है तो ठाकुर का सिखाया ओझा उसकी हत्या करता है। ओझा ने कहा मेरे भीतर परेत है। परेत भगाने के लिए मिर्चो की धूनी दी। कमची से मेरी पीठ की खाल उधेड़ी। मुझे गरम सलाख से दगने से बचा न लिया जाता तो मैं मार दी जाती। इसकी गवाह सामने खड़ी ये औरत है जिसने कहा कि वह मेरी सास है। और जिसे मैंने सास मानने से इनकार किया....’

   चम्पा के दूसरी ओर खड़ी औरत को अपने गवाह के रूप में चुनने से लोगों को आश्चर्य हुआ और पंचायत को भी। उसकी गवाही एक निर्णायक मोड़ दे सकती थी। इधर या उधर।

   पंचों ने राजेसुरी से पूछा, चम्पा जो कह रही वह सही है। और राजेसुरी ने कहा, जिसे सबने दिल थामकर सुना, ‘चम्पा ने जो कहा, वह सही है। अगर मैं उसे बचा न लेती तो वह सुर्ख चिमटे से दाग दी जाती। और उस समय वह इतनी दुर्बल थी कि मर भी सकती थी।’

   औरत के भीतर परेत बैठा हो तो उससे मुकति के लिए क्या औरत को दागा नहीं जाएगा।’ भूरे ने उछल कर कहा, ‘अब सुनलो इसकी बात....कितनी औरतें दागी गईं, सुना कि कभी कोई औरत दागने से मरी हो। इसे उस टैम दागने से बचाया न गया होता तो ये पंचैत में खड़े होने की जगह किसन की बगल में खाट पर सोई होती।’  

   परेत मेरे भीतर नहीं, ठाकुर के भीतर है। ओझा से पूछो क्या वह ठाकुर को गरम सलाख से दाग सकता है। और क्या पंचैत में ठाकुर और ओझा को सजा देने की हिम्मत है। अगर वह उन्हें सजा नहीं दे सकती तो उसे कोई हक नहीं कि मुझे सजा दे।’ चम्पा ने ललकारती आवाज़ में कहा।

   इसी के साथ दर्शकदीर्घा में खलबलाहट मच गई और उस खलबलाहट से पत्थर फेंके जाने लगे। एक पत्थर चम्पा के सिर पर लगा और खून के फव्वारे के साथ वह ज़मीन पर गिर पड़ी। उसके गिरते ही भगदड़ मच गई।