Friday, March 26, 2010

इब्नबतूता की यात्रायें

मोरक्कन यात्री इब्नबतूता का जन्म 24 फरवरी 1304 ई. को हुआ था। इनका पूरा नाम अबू अब्दुल्ला मुहम्मद था। इब्बनबतूता इनके कुल का नाम था पर आगे चलकर इनकी पहचान इसी नाम से बनी। यह 22 वर्ष की अवस्था में ही माता-पिता और जन्म भूमि को छोड़कर मक्का आदि सुदूर पवित्र स्थानों की यात्रा करने की ठान ली थी आक्र 14 जून 1325 को मक्का मदीना की पवित्र यात्रा पर निकल पड़े। यहां बतुता सिर्फ हज यात्रा के उद्देश्य से ही आया था पर एक संत की भविष्यवाणी की - तू बहुत लम्बी यात्रा करेगा, ने बतूता पर ऐसा जादू किया कि बतुता सीधे काहिरा की ओर चल दिया और वहां से मिश्र होता हुआ सीरिया और पैलेस्टाइन में गजा, हैब्रोन, जेरूशलम, त्रिपोली, एण्टिओक और तताकिया आदि नगरों से सैर की। उसके बाद 9 अगस्त 132 को दमिश्क जा पहुंचा। वहां से बतुता बसरा होता हुआ पहले मदीने पहुंचा और यहां से इराकी यात्रियों के साथ बगदाद चला गया। वहां से मक्का की ओर वापस लौटा। बिमारी की अवस्था में ही काबा की परिक्रमा की और मदीना चला गया। वहां स्वस्थ होकर मक्का वापस आया।

उसको बाद बतुता ने पूर्व अफ्रिका की यात्रा की और वहां से लौट कर भारत यात्रा पर निकलने की सोची। लगभग नौ वर्ष तक बतूता दिल्ली में ही रहा। इसके बाद चीन देश की यात्रा के लिये निकल गया। उसके बाद मालद्वीप चला गया। जहां से 43 दिन की यात्रा कर बंगाल पहुंचा और वहां से मुसलमानों के जहाज़ में बैठ कर अराकनन, सुमात्रा, जावा की यात्रा पर चला गया। समस्त मुस्लिम मेें से केवल दो ही देश शेष रह गये थे - अंदू लूसिया और नाइजर नदी के तट पर बसा नीग्रो -देश। अगले तीन वर्ष बतूता ने इन जगहों की यात्रा में व्यतीत किये। मध्यकालीन मुसलमानों और विधर्मियों के देश की इस प्रकार यात्रा करने वाला सबसे पहला और अंतिम यात्री बतूता ही था। एक अनुमान के अनुसार इसकी यात्रा का विस्तार कम से कम 75000 मील लगभग है।

750 हिजरी को यह मोरक्को वापस लौट गया। स्वदेश पहुंचने से पहले बतूता को यह पता चल गया था कि उसके पिता का देहांत 15 वर्ष पूर्व और कुछ दिन पूर्व माता का देहांत हो चुका है। 73 वर्ष की आयु में सन् 1377-78 ई. में बतूता ने अपने ही देश में अपने प्राण त्यागे।



मैं यहां पर इब्नबतूता के कुछ यात्रा संस्मरण दे रही हूं।


हन्नौल, वजीरपुरा, वजालस और मौरी

कन्नौज से चलकर हन्नौत, वजीपुरा, वजालसा होते हुए हम मौरी पहुंचे। नगर छोटा होने के पर भी यहां के बाजार सुन्दर बने हुए हैं। इसी स्थान पर मैंने शेख कुतुबुदीन हैदर गाजी के दर्शन किये। शैख महोदय ने रोग शय्या पर पड़े होने पर भी मुझे आशीर्वाद दिया, मेरी लिये ईश्वर से प्रार्थना की और एक जौ की रोटी मेरी लिये भेजने की कृपा की। ये महाशय अपनी अवस्था डेढ़ सौ वर्ष बताते थे। इनके मित्रों ने हमें बताया कि यह प्रायः व्रत और उपवास में ही रहते हैं और कई दिन बीत जाने पर कुछ भोजन स्वीकार करते हैं। यह चिल्ले में बैठने पर प्रत्येक दिन एक खजूर के हिसाब से केवल चालीस खजूर खाकर ही रह जाते हैं। दिल्ली में शैख रजब बरकई नामक एक ऐसे शैख को मैंन स्वयं देखा है जो चालीस खजूर लेकर चिल्ले में बैठते हैं और फिर भी अंत में उनके पास तेरह खजूर शेष रह जाते हैं।

इसके पश्चात हम ‘मरह’ नामक नगर में पहुँचे। यह नगर बड़ा है और यहाँ के निवासी हिंदु भी जिमी हैं (अर्थात धार्मिक कर देने वाले)। यहाँ यह गढ़ भी बना हुआ है। गेहूँ भी इतना उत्तम होता है कि मैंने चीन को छोड़ ऐसा उत्तम लम्बा तथा पीत दाना और कहीं नहीं देखा। इसी उत्तमता के कारण इस अनाज की दिल्ली की ओर सदा रफ्तनी होती रहती है।

इस नगर में मालव जाति निवास करती है। इस जाति के हिंदु सुंदर और बड़े डील डौल वाले होते हैं। इनकी स्त्रियां भी सुंदरतया तथा मृदुलता आदि में महाराष्ट्र तथा मालद्वीप की स्त्रियों की तरह प्रसिद्ध हैं।

अलापुर
इसके अंनतर हम अलापुर नामक एक छोटे से नगर में पहुँचे। नगर निवासियों में हिुुंदुओं की संख्या बहुत अधिक है और सब सम्राट के अधीन हैं। यहां के एक पड़ाव की दूरी पर कुशम नामक हिन्दू राजा का राज्य प्रारंभ हो जाता है। जंबील उसकी राजधानी है। ग्वालियर का घेरा डालने के पश्चात राजा का वध कर दिया था...

इसके पश्चात हम गालियोर की ओर चल दिये। इसको ग्वालियर भी कहते हैं। यह भी अत्यंत विस्तृत नगर है। पृथक चट्टान पर यहां एक अत्यंत दृढ़ दुर्ग बना हुआ है। दुर्गद्वार पर महावत सहित हाथी की मूर्ति खड़ी है। नगर के हाकिम का नाम अहमद बिन शेर खां था। इस यात्रा के पहले मैं इसके यहां एक बार और ठहरा था। उस समय भी इसने मेरा आदर सत्कार किया था। एक दिन मैं उससे मिलने गया तो क्या देखता हूँ कि वह एक काफिर (हिन्दू) के दो टूक करना चाहता है। शपथ दिलाकर मैंने उसको यह कार्य न करने दिया क्योंकि आज तक मैंने किसी का वध होते नहीं देखा था। मेरे प्रति आदर-भाव होने के कारण उसने उसको बंदी करने की आज्ञा दे दी और उसकी जान बच गयी।

बरौन
ग्वालियर से चलकर हम बरौन पहुंचे। हिन्दू जनता के मध्य बसा हुआ यह छोटा सा नगर मुसलमानों के आधिपत्य में आता है और मुहम्मद बिन बैरम नामक एक तुर्क यहां का हाकिम है। यहां हिंसक पशु बहुतायत में मिलते हैं...

चंदेरी
इसके पश्चात हम चंदेरी पहुंचे। यह नगर भी बहुत बड़ा है और बाजारों में सदा भीड़ लगी रहती है। यह समस्त प्रदेश अमील-उल-उमरा अज्जउदीन मुलतानी के अधीन है। ये महाशय अत्यंत दानशीन और विद्वान हैं और अपना समय विद्वानों के साथ ही व्यतीत करते हैं।

इब्नबतूता की भारत यात्रा या चौदहवीं शताब्दी का भारत’ पुस्तक से साभार

Saturday, March 20, 2010

अवचेतन कला कैनवास पर तो ज्यामितीय आकारों के भीतर ही होती है

लखनऊ फाइन आर्ट कॉलेज में आर्किटेक्चर डिपार्टमेण्ट के विभागाध्यक्ष रहे डी0 एल0 साह की चित्रकला में रूचि और दखल समान है। अपने लैण्डस्केप चित्रों में उदासी के रंगों को फिराते चित्रकार साह के पास चित्रकला एक विजन के रूप में भी मौजूद है। प्रस्तुत है चित्रकार डी0 एल0 साह से रोहित जोशी की बातचीत के अंश-

रोहित जोशी
9837263452
सबसे पहले तो अपने बारे में बताइए कि आप में कला अभिरूचियां कहां से पैदा हुई? और आपके कला कर्म की शुरूआत कहां से रही है?
डी0 एल0 साह: जब मैं आठवीं या नवीं कक्षा में पढ़ा करता था तो मेरा आर्ट अच्छा समझा जाता था, फिर जब मैं दसवीं के बाद लखनऊ फाइन आर्टस् कालेज में गया तो मेरी दिली ख्वाहिश फाइन आर्टस को ही विषय के रूप में लेने की थी लेकिन हमारे प्रोफेसर श्री विशाल लाल साह ने कहा कि तुम फाइन आर्ट नहीं करोगे। तुम्हैं वास्तुकला में एडमिशन लेना है। इस तरह मैंने वास्तुकला में एडमिशन ले लिया। कुछ समय बाद जब में दशहरे की छुट्टियों में पिथौरागढ़ आया तो यहां मैं वहां प्रकृति को देखकर विचलित हो उठा। क्योंकि इससे पहले मैं चित्रकला की गम्भीरता को समझता नहीं था और स्कूल में फूल पत्ती आदि के चित्रण को ही कला मानता था। लेकिन आर्टस् कालेज में फाइन आर्टस् के स्टूडैण्ट्स को कार्य करते हुए देखा था खास कर कि लैण्डस्कैप में। तो पिथौरागढ़ की बेहद खूबसूरत वादियों में मेरा विचलित हो उठना लाज़मी ही था। मेरे भीतर का चित्रकार इन छुट्टियों भर हिलोरे मारता रहा और उसने मुझे चित्रकला की ओर खींचा। नतीजा ये हुआ कि आर्टस् कालेज के, अपने चित्रकला की तकनीकों के ऑब्जर्वेशन्स के चलते मैंने लैण्डस्कैप्स बनाने शुरू कर दिए। मुझे कॉलेज में चित्रकला के अनुरूप माहौल मिला। हम एक दूसरे के काम से सीखा करते थे। जो भी लैण्डस्कैप मैं करके लाता अपने सीनियर्स को दिखाता। वहां एक टीचर थे फ्रैंक रैसली। वे लैण्डस्कैप के बड़े चित्रकार थे उन्हें मैं अपना वर्क जरूर दिखाता था। उनके सुझावों से मेरा काम काफी परिष्कृत हुआ। वहां तमाम कलाकारों के संपर्क मंे आने से मुझे कई चीजंे सीखने को मिली और मेरा एक अपना स्टाइल भी बनने लगा था। एक तरह से ये हो रहा था कि वास्तुकला मे रहते हुए चित्रकला की ओर ज्यादा आकृष्ट था।
आपने किन किन माध्यमों पर काम किया है?
डी0 एल0 साह:- मैंने शुरूवात तो वॉटर कलर्स से ही की और लैण्डस्कैप ही ज्यादा किया था। उसके बाद धीरे धीरे जब वॉटर कलर मेरी पकड़ बनने लगी तो फिर स्टूडियो वर्क मैंने आयल कलर्स से करने शुरू किए। आउटडोर वर्क तो मैं तब भी वॉटर कलर या फिर स्कैचिंग से ही किया करता था।
तो रचनाकर्म के लिए आपने लैण्डस्कैप के अतिरिक्त कौन सी विधाएं चुनी हैं ?
डी0 एल0 साह:- प्रतिनिधि रूप से लैण्डस्कैप में ही मैंने काम किया है इसके अतिरिक्त कम्पोजिषन भी तैयार किए हैं। कम्पोजिषन्स में जो फिगर आए हैं वो भी निभाऐ हैं। लेकिन पोट्रेट मैंने कभी एक्सपर्टाइज के साथ नहीं बनाऐ।
मुख्य रूप से लैण्डस्कैप की विधा चुनने के क्या कारण रहे?
डी0 एल0 साह:- कारण ये रहे कि प्रकृति के आयाम बहुत वास्ट हैं। उसकी कोई लिमिट्स नहीं हैं। इसलिए मैने लैण्डस्कैप को विधा के रूप में चुना। लोग कहते हैं कि प्रकृति को चुन कर आप क्या कर लेंगे? लेकिन मेरा स्पष्ठ मानना रहा है कि नेचर में सब कुछ है। आपने अल्मोड़ा के एक चित्रकार बुस्टर का नाम सुना होगा उनका काम देखिए उन्होंने अल्मोड़ा की आत्मा को पकड़ डाला है। उनके फ्रेम लीजिए उनके रंग लीजिए। वो कार्य की पराकाष्ठा है। मैंने बांकी कलाकारों को भी देखा है वो कार्य की उस गहराई तक नहीं जा पाऐ हैं। लेकिन 'बुस्टर" के चित्रों में लगता है जैसे अल्मोड़ा की मिट्टी उधर है।
एक सवाल मेरा है, कला के दर्शन से। कला जन्म कहां लेती है?
डी0 एल0 साह:- कला की उत्पत्ति के बारे में मेरा अनुभव है कला ईश्वर की कृपा से जन्म लेती है। इसके लिए कोई जरूरत नहीं कि आप कितना पढ़े लिखे हैं अगर आप पर कृपा है तो आप कलाकार हो जाऐंगे। कबीर का उदाहरण ले लीजिए कबीर अनपढ़ थे लेकिन उनके भीतर रचना कर्म कर सकने की अद्भुत् क्षमताऐं थीं। यदि कोई ये समझे कि मैं बहुत ज्यादा पढ़ लिख कर कलाकार बन जाऊंगा तो आर्ट्स कालेज से आज तक न जाने कितने ही लोग प्रशिक्षित हुए लेकिन कलाकार कितने बने ये देखने वाली बात है।
कला कला के लिए और कला समाज के लिए की दो बहसें हैं इनमें आप अपनी पक्षधरता कहां पाते हैं?
डी0 एल0 साह:- देखिए मैं समाज को कोई मैसेज नहीं देना चाहता। वस्तुत: मैं कबीर से बहुत प्रभावित रहा हूं। क्योंकि जो उसके स्टेटमैंट्स रहे हैं उसमें समाज की कोई परवाह नहीं है। जो कुछ उसने कहना था कह डाला। और उसी तरह का मैं पेण्टर हूं। मैं स्पोन्टिनियस पेण्टर हूं किसी भी चीज से मैं प्रभावित होता हूं तो उसको मैं अपनी तरह से अभिव्यक्तित करता हूं। दूसरी ओर मैं गौतम बुद्ध को लेता हूं। गौतम बुद्ध अभिजात्य परिवार से संबद्ध रहे हैं वे ऐकेडमिक भी रहे हैं। उन्होंने हर एक बात नपी तुली बोली है। लेकिन कबीर ने ये नहीं देखा। कबीर ने अपने कला बोध से पानी में आग लगते हुए भी देखी गौतम बुद्ध ने तर्क तलाशे। ऐसे ही मछलियों को पेड़ में चड़ते हुए कबीर देख सकते हैं गौतम बुद्ध नहीं। ऐसे ही पेंटिंग की दुनिया में आप चित्रकार एम0 सलीम को ले लीजिए वह एक डिसिप्लिंड पेंटर हैं। ऐकेडमिक किस्म के। गौतम बुद्ध की तरह। और मेरे चित्रण में अराजकता है जैसी आप कबीर के भीतर पाएंेगे। अगर समाज मुझसे मैसेज लेना चाहे तो ठीक है लेकिन में कोई मैसेज देना नहीं चाहता।
तो एक प्रश्न यह उठता है कि ऐसी स्थिति में एक कलाकार को समाज स्वीकारे क्यों? क्योंकि अन्तत: स्वीकार्यता तो समाज की ही है?
डी0 एल0 साह:- हां समाज की स्वीकार्यता तो है। लेकिन जिसको समाज ने कभी अस्वीकार किया है तो बाद में स्वीकार भी किया है। जैसे आप 18वीं षताब्दी में विन्सेन्ट वान गॉग को देखिए उन्हें कलाजगत में स्वीकार ही नहीं किया जाता था। लेकिन आज वो कला जगत का बड़ा नाम हैं।
कला की जो मुख्यधारा है उसमें अभी अवचेतन कला को बड़ी मान्यता है। इसे आप कैसे देखते हैं?
डी0 एल0 साह:- देखिए मैं एब्स्ट्रैक्ट आर्ट को लगभग 1956 से देख रहा हूं। लेकिन अवचेतन कला जिसे कहा जाता है कि विचार से जन्मीं कला। कैनवास पर तो वह ज्यामितीय आकारों के भीतर ही है। अवचेतन तो कुछ नहीं है। उसके लिए जो आकार हमने लिए हैं वो भी प्रकृति से इतर नहीं हैं। हां लेकिन एक ट्र्रैण्ड चल पड़ा है।
एक सवाल अब कुमाऊं की लोकचित्रकला के इतिहास पर है कि इसका विकासक्रम क्या रहा है?
डी0 एल0 साह:- कुमाऊं में चित्रकला की जो परम्परा मुख्यधारा की रही वो तो अंग्रेजों के आने के बाद ही की है। लेकिन इससे पहले ऐपण की और ऐसे ही लोकचित्रण की परम्परा और उससे भी पहले गुहाकालीन मानव की चित्रण अभिव्यक्ति रही है। पिछले 100 सालों और 150 सालों के भीतर जो यथार्थवादी अभिव्यक्ति कला की हुई है वो छिटपुट ही रही है और जितनी भी रही है या तो वो अंग्रेजों ने ही की या फिर अंग्रेजों की प्रेरणा ने ही उसके पीछे काम किया।

Friday, March 12, 2010

शुभान तेरी कुदरत, रामचन्द्र दशरथ


जिस तेजी के साथ बदलाव की मुहिम जारी है उसको ठीक से कैसे समझा जाए ? कैसे जाना जाए कि उसकी दिशा क्या ? वह किस तरह से विकास की एक जरूरी कार्रवाई है ?  उसके मायने प्राकृतिक गरिमा को बनाये रखने के वास्ते हैं या उनकी आड़ में या मुनाफे की संस्कृति का बाजार समाज को जकड़ता जा रहा है ? ये ऐसे सवाल हैं जिनको किसी पृथ्वी सम्मेलन में शामिल होने वाले व्यक्ति की विज्ञापनी चिंताओं से नहीं समझा जा सकता है और न ही, मात्र ढांचागत कुशलता में माहिर, साहित्य के लिख्खाड़ों की रचनाओं से समझा जा सकता है। भरत प्रसाद, मेरा मित्र, जिसने पिछले दिनों एक नेपाली कहानी का अनुवाद किया था ( जिसे इस ब्लाग के पाठक यहां पढ़ सकते हैं), कोई स्थापित लेखक नहीं, लेकिन एक संवेदनशील इंसान है और साहित्य अनुरागी भी। यदा-कदा कुछ लिखता भी है। उसके लिखे को बेशक रचना के किसी खास विन्यास में बांधना मुश्किल हो पर वह शुद्ध रूप में ऐसी रचनाएं होती हैं जिनसे गुजरते हुए जमीनी सच्चाई की सरसराहट को महसूस किया जा सकता है। प्रस्तुत है भरत प्रसाद की एक ऐसी ही रचना।     

वि.गौ.

भरत प्रसाद

जंगल किनारे सीधा सा रास्ता, बीच-बीच में पानी के बहाव से बने गड्ढे, पगडंडी भर में दिखती मिट्टी, पीली चिकनी मिट्टी, कहीं-कहीं बलुवा मिट्टी, रास्ते के दोनों तरपफ दूब घास, जंगल में छोटे बड़े पेड़ साल, जामून, ढाक, मयालु (जंगली नाशपाती) रेंडी, तारचरबी, कहीं-कहीं तुन और शीशम करोदे बवेर की झाड़िया, कडी पत्ता और ऐसे ही अनेक प्रकार के पेड़ पौध्ो फूल झाड़ (लन्टेना) के इक्के दु्क्के पौधे ही दिखते थे। खेत की बाढ के लिए ज्यादातर नील कॉटा और बेशरम लगाया हुआ लकड़ी के खुटो में कंटीला तार खीचा हुआ । सूवर और हिरनों तथा गाय डंगरो से फसल को बचाने के लिए बाढ में झाडियां काट कर डाल दी जाती है। वैसे जंगलो में लोमडी, सियार, खरगोश भी जंगल में अक्सर दिखाई दे जाते। रात को एक सियार ने छुआ की तान क्या छेडी कि चारों तरपफ जगंल भर में छुआ-छुआ की गूँज उठने लगती।
कई तरह के पछी घुग्थी, फाख्ते, बुलबुल, मैना, तोता, छोटी-छोटी फिस्टी, तीतर, बटेर, जंगली मुर्गे कव्वे, गिद्ध आदि। शेही और गोह जैसे जानवर दिखाई तो कम देते थे लेकिन कंजर लोग अपने लम्बे थूथन वाले शिकारी कुत्तों के साथ उसका शिकार किया करते थे, एक बार तो बताते हैं उनके पांच कुत्तों ने एक गुलदार को ही घ्ोर कर भगा दिया था। कभी-कभी गुलदार गाँव के कुत्तों और बछड़ों को उठा कर ले जाते थे।
''शुभान तेरी कुदरत, राम चन्द्र दशरथ"" ऐसा ही सुनाई देता जब कहीं तीतर आवाज करता और बटेर के झुंड जब अचानक एक साथ उड़ते तो ''भर्रर्टटर"" की आवाज से डरा ही देते। बसंत के आते ही पंछियों का कलरव पूरे जंगल को संगीतमय कर देता, कुहू-कुहू ---काफल पाको, काफल पाको--- तो कहीं ''मेरी सीता देखी मे-री-सी-ता-दे-खी-तू-ने- की मीठी-मीठी तान और खेतों से पंछीयों को भगाने की हा---हा- की तेज तर्कश आवाजों के साथ चीची-चीची कर चिड़ियां तुन शीशम के फुंगल पर बैठ जाती। झुंड के झुंड गौरेया झाड़ीयों में ऐसे छिप जाते कि दिखाई न दे और फिर गुलेल के पत्थर झाड़ी में पड़ते ही अलग-अलग  दशाओं में उड़ जाते। तब बन्दर नहीं लगते थे खेतों में,  जंगल में ही इतना पफल होता था कि लोग जंगलों से  आंवला, बेहड़ा ले आते थे। आम लाकर अमचूर और आचार बनाकर रखते साल भर के लिए।
गांव के लोग घास चारे के लिए लकड़ी के लिए जंगल पर निर्भर थे, गाय बकरीयों का चुगान भी जंगलों में ही होता। घास के लिए नालों के किनारों की घास या पिफर चारे वाले पेड़ों को झांग कर छोटी-छोटी  टहनियां-पत्तों को बोझा बनाकर लाते। पेड़ की फुंगल  को न काटने की हिदायत थी। सर्दियों में आशा रोड़ी से आगे डांट की पहाड़ियों में घास लेने जाते तो एक दो पूली फूंस की भी जरूर लाते ताकि गोठ (गोशाला) का छप्पर छाया जा सके। तब छत लिंटर के तो नहीं हाँ, टिन की चद्दर के होते या फूस के या तारकोल के ड्रम और घी के टिन काट कर छत बनाते तब टिन की चादर उपलब्ध भी कम थी और महँगी भी पड़ती थी।
एक बार गरमी के दिनों में मधुमक्खी के छत्ते से शहद निकालने के लिए जलाई गयी मशाल से जंगल में आग लग गयी और हवा भी तेज हो गयी। हवा का रूख गॉव की तरफ हो गया और देखते ही देखते आग गॉव की तरफ बढ़ने लगी तो आग-आग चिल्लाते हुए लोग जंगल की आग बुझाने चले गये। लंबी-लंबी टहनियों से लोग आग बुझाने लगे, कहीं से उड़ती हुई एक चिंगारी तेज हवा के साथ एक फूंस की छत में गिर गयी और थोड़ी ही देर में छत धूँ-धूँ कर जलने लगी। सभी का ध्यान जंगल की आग की तरपफ था। किसी का ध्यान गोशाला में लगी आग की तरफ गया ही नहीं। जैसे ही जंगल की आग बुझाई, डंगरों के चिल्लाने, चीखने की आवाज ने सबका ध्यान गॉव की तरफ मोड़ दिया। ''ओ बहादुरे की गोठ में आग लग गयी"", कोई जोर से चिल्लाया। सब जितनी तेज दौड़ सकते थे, दौड़ कर आने लगे। तब तक एक दो छप्पर और जलने लगी। ''पानी लाओ बाल्टी लाओ पानी लाओ कुछ आदमी उध्र जाओ कुछ उध्र एक जगह इकट्ठे मत रहो"" और स्वस्फूर्त प्रबंधन से एक साथ आग बुझा ली गयी। कुछ लोगों ने घ्ारों से जरूरी सामान बाहर निकाला तो कुछ लोगों ने गोठ में बंधे गाय डंगरों को खूंटों से खोल दिया। गाय बछड़े चिल्लाते हुए इधर-उधर भाग गये। एक ताजी व्याई भैंस, उसका कटड़ा और दो बछड़े बुरी तरह से जल गये थे। छटपटा रहे थे, चिल्लाते जा रहे थे। आलू कूटा गया और उसका रस जले पर लगाया गया। नीली स्याही की पूरी बोतल डाल दी गयी, मेहंदी लगायी गयी घाव में, हल्दी-तेल लगाया गया, लेकिन इन उपचारों के बाद भी भैंस और उसके बच्चे को बचाया न जा सका। एक बछड़ा कई दिनों बाद मरा, बछड़ी बच गयी लेकिन उसका दाँया भाग जलने से सफेद हो गया। बहुत दर्दनाक दृश्य था वह। चलचित्र की तरह एक-एक करके बातें याद आ रहीं थीं बाबू को।
पन्द्रह-बीस साल पहले की बाते थीं। दो महीने की छुट्टी में आया था वह। तब और अब के जंगलों में फर्क देखते ही बनता था। साल के पेड़ तो वही थे लेकिन इस दौरान कोई नया पेड़ नहीं पनपा इस जंगल में। बल्कि मयालु, राजू और करौंदा, तारचरबी के पेड़ तो दिख ही नहीं रहे थे। अब तो चारों तरफ बोक्सी फूल(लन्टेना) ही दिखता था। नाला मिट्टी के कटाव  से और चौड़ा और गहरा हो गया था। ढाल की पगडंडी नाली का रूप ले चुकी थी। पोखर और गड्डे मिट्टी और गाद से भर चुके थे। पहले इनमें भैंस और जंगली जानवर नहाते थे तो इसकी मिट्टी बाहर निकलती रहती थी। लगातार नहाने से गड्डे की सतह चिकनी रहती तो गड्डों में पानी भी मार्च-अप्रैल तक रहता था और नमी तो पूरे साल रहती थी और इस नमी के साथ बेशरम की झाड़ियां भी। जंगल में जानवर खत्म होने लगे तो ये पोखर भी मरने लगे। जानवर पानी के लिए आबादी की तरपफ आते और शिकारियों का भोजन बनते।
पुरानी बातों को याद करता बाबू जंगल के किनारे चलता जा रहा था कि उसे बंदरों की घबराहट भरी चिल्लाने की आवाज सुनाई दी। पंछी ऐसे चिल्ला रहे थे जैसे कोई बाज आस पास हो। कोई शिकारी सॉप किसी घोंसले की तरपफ बढ़ रहा हो। दूर धुआं दिखा तो समझने में देर न लगी कि आग लगी है। जानवरों के नाम पर बंदर ही रह गये तो चिल्लायेंगे भी बंदर ही। दूर जंगल में आग लगी थी, आग हल्की थी लेकिन दूर तक फैली थी उसने सोचा और ठान लिया कि आग बुझाना है और जंगल की तरफ बढ़ गया। चार-पाँच टहनी रैडी और कड़ी पत्ता की तोड़ी और एक तरफ से आग बुझाने लगा। जहां आग हल्की थी वहां झाड़ू से मार कर जहां थोड़ा तेज थी वहां थोड़ी दूर पर पत्तों को साफ करके आग को आगे बढ़ने से रोका। एक जगह आग बुझाते हुए वह पत्तों में फिसल गया और आग के ऊपर गिरते-गिरते बचा लेकिन लपटों से उसका हाथ झुलस गया। आग बुझाना छोड़कर वह अपने हाथ में फूंकने लगा। फूंकते समय थोड़ा राहत सी मिली तो उसका ध्यान चिल्लाते बंदर की तरफ गया और दृश्य देखकर रोंगटे खड़े हो गये। एक अधजला बंदर तड़प रहा था और उसके आस-पास बंदरों का झुंड अजीब-अजीब आवाज में चिल्ला रहे थे। कुछ न कर पाने की बेबसी और तड़पते बंदर की बैचेनी, बाबू के हाथ की जलन खत्म हो गयी। वह दुगुने जोश से आग बुझाने लगा। एक जगह कुछ अध्ाजले अंडे पड़े थे वह पहचानने की कोशिश करने लगा। शायद वह कुछ को इस हालत से पहले बचा पाये। किसी तरह आग पर काबू पा लिया। आग बुझ चुकी थी। अभी धुयें की धूं--धूं  पूरी तरह साफ नहीं हुई।
उसका हाथ काफी झुलस गया था। ऐसा भी नहीं कि घाव हो जाय मगर बगैर दवाई के जल्दी ठीक भी नहीं होता। हाथों में जलन तेज होने लगी थी। जंगल की आग भले बड़ी न हो, हल्की तो कतई नहीं होती। आग बुझाने के बाद वह वापस पगडंडी में आ गया, वह वापस घर जाने लगा। रास्ते में एक राहगीर ने उसके झुलसे हाथ को देख कर पूछा तो बाबू ने सारी बात बता दी तो संभ्रांत सा दिखने वाला राहगीर बोला 'आ बैल मुझे मार, खामखा जला बैठे अपना हाथ। क्या पड़ी थी फटी में टाँग डालने की? क्या जरूरत पड़ी थी? जिसका काम है वह तो बैठा होगा ए।सी। में, बेचे हुए पेड़ों के पैसे गिन रहा होगा"।
और बड़बड़ाते हुए चला गया, जैसे 'कह रहा हो अब पंगा लिया है तो भुगतो"।
वह सोचने लगा ''खामखा तो नहीं है यह काम, जंगल बचाओ, पर्यावरण बचाओ का नारा तो आज पूरी दुनियां में गूँज रहा हैं, मैंने तो एक छोटी सी कोशिश की है बस""!
एक दोस्त मिल गया रास्ते में उसे भी सारा हाल बता दिया तो दोस्त कहने लगा, ''जब हाथ जल गया था तो तुरंत उसे दो मिनट पानी में रखना था इससे जलन चमड़ी की पहली परत तक रूक जाती।""
बाबू बोला '' जंगल में पानी ही होता तो जंगल जलता क्यों?
 अगर जंगल में पानी नहीं है तो ये जानवर पीते क्या हैं? इतनी हरियाली कैसे रहती है?
बाबू बोला '' कभी देखा भी है जंगल? बाहर से यह जितना घना दिख रहा है यह उतना है नहीं। रही जानवरों की बात तो वे रह कितने गये और जो हैं वह आते हैं आबादी की तरपफ पानी के लिए और शिकार बनते हैं और छोटे-मोटे पंछी जानवर तो ऐसी हर साल की आग में मर खप जाते हैं""।
''अगर ऐसा है तो हमें जंगलों की इतनी मोहक और डरावनी तस्वीर क्यों दिखाते हैं, हकीकत से रूबरू क्यों नहीं कराते बचपन से ही?""
'दोस्त तू बड़ा भोला है, क्या कोई अपनी कार गुजारी का बखान करना चाहेगा, शिकार और हवेली रईसों का शौक है, जहां शेरों और हिरन के सिर बैठकों में दिखेंगे, शानदार इमारती लकड़ी भी उन्हें ही चाहिए। और हवेली के आस-पास सीमेंट का पफर्श का सीमेंट ग्राउँड ताकि साफ सफाई रह सके, जंगल ही बचायेंगे तो सात पीढ़ियों के लिए पैसा कैसे जमा करेगें""।
''लेकिन पानी तो उन्हें भी चाहिये न""।
दोस्त इतनी बात कह कर चल दिया लेकिन उसके हाथ की जलन को और बढ़ा गया, वह सोचने लगा क्या वह सब झूठ था जो उसने बचपन में पढ़ा था। सार्वजनिक सम्पत्ति की सुरक्षा और गुरूजी की बात कि बेटा चोरी, डकैती के बाद सामान वापस मिल भी सकता है, टूटी चीजें जोड़ी जा सकती है, लेकिन एक बार कुछ जल गया तो सब खत्म, बेटा इसे कहते हैं रासायनिक क्रिया, भौतिक सुख के लिए हम कितनी बड़ी हानि कर रहे हैं।
ऐसे और कई लोग मिले, सब पूछते क्या हुआ! वह बताता भी, सब मौखिक हमदर्दी जताते, अपने रास्ते चलते, सबके पास कोई न कोई उपदेश, कोई न कोई शिकायत जरूर रहती, दूसरों के लिए सलाह और कार्यक्रम तक होते, मजेदार बात कि सब को पानी की किल्लत का एहसास था। अधिकतर पर्यावरण असंतुलन की बात भी करते लेकिन किसी को भी जंगल की आग से चिन्तित नहीं महसूस किया। ''गमला और बौनसाई संस्कृति के लोगों को तो बस नल के पानी से मतलब है, बरसात का पानी तो कीचड़ लगता है। बड़े पेड़ पतझड़ में गंदगी करते हैं, कौन रोज-रोज झाड़ू लगाये। उनका पर्यावरण भी गमला, बौनसाई तक सिमट गया है""। उनकी बेचारगी देख उसके हाथ में जलन और तेज होने लगी, लेकिन क्या एक अच्छी शुरूआत के लिए इस दर्द को सहा नहीं जा सकता। लोगों की बातें सुनकर उसे भी लगने लगा कि क्यों किया उसने ये सब! और किसके लिए? अगर ये सब जंगल किसी का भी नहीं है तो मेरा भी तो नहीं है। तो मैं ही क्यों पेरशान हुआ? और सबका है तो सभी चिंतित होते।
ऐसे ही सवालों के द्वंद्वों में वह चला जा रहा था। वह देखता है कि वहाँ झुरमुरों में भी आग लगी थी। एक मजदूर सा दिखने वाला आदमी उसे बुझा रहा था। बाबू ने उससे पूछा तो वह कहने लगा 'बाबू जी इसे हम नहीं बुझाएंगे तो यह सारा का सारा जल जायेगा, चिड़ियाओं के घ्ाोसलों से लेकर, चारे से लेकर खेत खलिहान तक, पिफर ये खायेंगे क्या, ये रहेंगे कहाँ?"
फिर बाबू के हाथ को देख कर पूछने लगा, कैसे जला? उसके हाथ की जलन न जाने कहाँ गायब हो गयी, बाबू भी हरी टहनियां तोड़ कर आग बुझाने लगा तो उसने रोकते हुए कहा 'बाबू जी आप रहने दें इतनी आग तो मैं ही बुझा लुँगा" और एक पत्ता तोड़ कर उसका रस बाबू के जले हुए हाथ में मल दिया।
जलन खत्म हो गयी थी, बाबू ने उस आदमी से कहा 'एक तुम्हीं दिखे जिसे पर्यावरण की चिंता है"। वह बोला -'भैया जी, ये पर्यावरण क्या होता है हमें पता नहीं, हम तो बस इतना जानते हैं कि इस आग से चिड़िया, उसके अंडे-बच्चे, कीड़े मकोड़े, चींटी सब खत्म हो जाते हैं"। आज देखो बाबू जी, जमीन पर चलने वाले तीतर, बटेर कहीं दिखाई नहीं देते, छोटे पेड़ जैसे बेर, करौंदा जैसे न जाने कितने पेड़ गायब हो गये हैं। इसी आग की वजह से पानी तक रूक नहीं पाता। आज जंगलों में या तो तीस साल पुराने पेड़ हैं या बरसात में उगे हुए पौधे, पूरे तीस साल का अन्तर है नये पुराने पेड़ों में। सभी को जंगल से कुछ न कुछ चाहिए। किसी को लकड़ी, किसी को घास, किसी को जड़ी-बूटी तो किसी को हिरन का शिकार या शेर की खाल शान बघारने को और जब ये बड़े लोग पकड़े जाते हैं तो सारे नेता, अफसर इन्हें बचाने के लिए आ जाते हैं, जैसे गलती पेड़ की या हिरन की हो, क्यों वह कुल्हाड़ी और बन्दूक की गोली के सामने आ गये""।
थोड़ा रूक कर वह हताश सा कहने लगा -'जिसके पास साधन है, पैसा है उसके लिए तो जंगल पार्क है, पिकनिक स्पॉट है, लेकिन हमारे लिए तो यह रोजी-रोटी की बात है, पैसे वालों की बात हम क्या करें। जंगल बचाना तो हमारी मजबूरी है, देखते हैं कब तक इसे बचा पाते हैं हम।"
दूर कहीं तीतर बोलने लगा 'शुभान तेरी कुदरत, रामचन्द्र दशरथ" पेड़ में बैठी कोयल बोली 'काफल पाको काफल पाको"।