अभी कुछ दिन पहले प्रिय मित्र योगेन्द्र आहूजा से बात हो रही थी, जो स्वंय कथाकार होते हुए कविताओं के अच्छे पाठक हैं, तो बातों ही बातों में उन्हें स्पेनि्श के कवि लोर्का की कविता याद आ गयी। कथाकार विद्यासागर नौटियाल की डायरी को पलटता हूं तो पाता हूं कि सुनी गयी वह कविता मुझे भी, खुद को दोहराने के लिए मजबूर कर रही है-अलविदाजब मैं मरूं/ खिड़की खुली छोड़ देना/ एक बच्चा संतरा खाता हैखिड़की से मैं उसे देख सकता हूं/ एक किसान महकाता है फसलअपनी खिड़की से मैं उसे सुन सकता हूंजब मैं मरूंखिड़की खुली छोड़ देनाप्रस्तुत है कथाकर विद्यासागर नौटियाल की डायरी के पृष्ठ-
चेखव के घर में
विद्यासागर नौटियालयाल्टा,29 जुलाई 1981 : 4 बजे शाम ।
रोसिया सेनिटोरियम से हमारी कारें कुछ ही देर में चेखव -स्मारक में पहुँच गईं । महान साहित्यकार चेखव के घर को एक बार देख लेने की मेरी लालसा आज पूरी हो गई । कारों से उतर कर हम पाँचों साथी आँध्रवासी नरसैय्या, पाकिरप्पा, उड़िया सेठी और आसामी कामिनी मोहन सर्माह दोनों दुभाषिया रूसी लड़कियों इरिना तथा आल्ला के साथ चेखव के बागीचे में आ गए । इरिना मॉस्को विश्वविद्यालय में हिंदी तथा मराठी की प्राध्यापिका ह। यों जानती पंजाबी भी है। लेकिन हमारे बीच कोई पंजाबी नहीं । आल्ला तमिल तथा अंग्रेजी जानती है। हमारे प्रतिनिधिमंडल में कोई तमिल-भाषी भी नहीं ।
वहाँ पहुँचते ही मेरा ध्यान देवदार के दो वृक्षों की ओर गया । एक की ओर इशारा करके मैने इरिना को बताया कि यह पेड़ रूसी नहीं लगता, इसे हमारे यहाँ से मँगवाया गया होगा ।
-इस तरह का देवदार सिर्फ हमारे यहाँ होता है। दूसरा पेड़ जो है वह है तो देवदार पर कहीं और से लाया गया होगा ।
अपनी खोजी नज़रों से किसी अंग्रेजी बोलने वाले गाइड के आने की राह देख रही इरिना ने सवाल किया ।
-आप किस पेड़ को अपना बता रहे हैं नौटियालजी ?
मैने एक देवदार के पेड़ की ओर इशारा करके उसे बता दिया ।
-रूस में इससे मिलती-जुलती प्रजाति शिश्नात की है । उसके यहाँ सोवियत संघ में बहुत खूबसूरत, घने जंगल हैं । लेकिन ये दोनों पेड़ उस प्रजाति से भिन्न हैं । इन्हें हम देवदार कहते हैं ।
कामरेड सेठी ने फिकरा कसा - आते ही पेड़ों की बात करने लगे हैं,कामरेड नौटियाल ।
अंग्रेजी भाषा के गाइड ने हमारे पास आते ही अपना काम शुरू कर दिया । उसने हम लोगों को अपने साथ घुमाना शुरू कर दिया है । और एक-एक चीज़ के बारे में तफसील से बताने लगा है ।
गाइड की बात पूरी होते न होते मैं उसका हिंदी अनुवाद करने का फर्ज निभाने लगा हूँ चूँके हमारे कुछ साथी अंग्रेजी भी नहीं जानते । मेरे सामने समस्या यह है कि मैं उन बातों को अपनी डायरी में दर्ज करूँ कि उसके आगामी वाक्यों को सुनते हुए उनका अनुवाद प्रस्तुत करूँ । वह भी चलते-चलते । और उसके द्वारा बताई जा रही चीज़ों को अपनी आँखों से देखते जाना तो इस मौके की सबसे बड़ी ज़रूरत है । मेरी आँखें उन चीज़ों को देखें कि अपनी डायरी पर ध्यान केंद्रित करें? बहरहाल! मैं अपने भरसक पूरी बातों को यथासंभव सही रूप में हिंदी में कहते जाने की कोशिश कर रहा हूँ ।
इस बाग की उम्र 80 वर्ष की है । 1898 में चेखव ने यह बाग खरीदा । उस समय यह खाली था । यह बागीचा खरीदने के बाद चेखव ने अपने हाथों से यहाँ कई प्रकार के पौधे लगाए,जिनमें कुछ अभी भी जीवित हैं। यहाँ सदाबहार तथा सर्दियों के समय झड़ जाने वाले पेड़ लगे हैं। बर्च वृक्ष इसी जगह लगाया गया था। चेखव के इस बेंच को '
गोर्की का बेंच' कहते थे। इस पर आगन्तुक बैठते थे। चेखव 1904 में मरे । मैक्सिम गोर्की अंत तक यहाँ आते रहते थे। बागीचे से सागर तट तक के रास्तों पर पत्थर बिछे हैं। चेखव यही चाहते थे। चम्पा के पेड़,बाँस का झाड़ उनके अपने हाथ से लगाये है। यह खूबसूरत,कलात्मक पात्र एक मदिरा निर्माता ने चेखव को भेंट किया था। चेखव का घर इस बागीचे के पश्चिम में है। उन्होंने अपने मन के माफिक घर बनाया था। इसके निर्माण में दस महीने लगे। चेखव मूल रूप से याल्टा के निवासी नहीं थे। विभिन्न स्थानों में निवास करने के बाद वे यहाँ आए। टी0बी0 हो जाने पर अपना पिछला घर बेच कर स्थायी तौर पर यहाँ रहने चले आए थे। पहले घर की योजना कुछ और थी। पर वैसा भवन बनाने के लिए पहले वाला घर बेचने पर पैसे नहीं मिल पाए। इसलिए चेखवने पुस्तकें लिखने की सोची। चेखव के मित्र उनसे अधिक काम नकरने को कहते थे । चेखव मजबूरी में भवन निर्माण के खर्चे उठाने के लिए लिखने में जुटे रहते थे। वह सिलसिला अंत तक जारी रहा। ज़ार के युग में इस घर की कीमत 20 हजार रूबल थी। एक देवदार का विशाल वृक्ष इस घर के आँगन में खड़ा है।
हम लोग एक बालकनी में चले आए हैं। इस बालकनी में खड़ा होना चेखव को बहुत प्रिय था। यहीं से,दूरबीन लेकर,वे सागर की ओर देखते थे। चार कमरे पहली मंजिल पर,चार दूसरी मंजिल पर,एक कमरा तीसरी मंजिल पर। तीसरी मंजिल पर बहन रहती थी,जिसे चित्र खींचने का शौक था। बर्च पेड़ चेखव ने स्वयं लगाया था,सुराही का पेड़ बहन ने लगाया । दूसरा 1919 में लगाया,जबकि चेखव की माता की मृत्यु हो गई। तीसरा सुराही का पेड़ 1957 में लगाया था,जब बहन की मृत्यु हो गई। 21 से 57 तक पार्यान्तोनेला इस संग्रहालय की मालिक रही। इस भवन के अन्दर सब चीजें जस की तस मौजूद हैं । जैसी कि चेखव के जीवनकाल में रहती थीं । उनमें किसी भी तरह के परिवर्तन नहीं किए गए हैं।
डाइनिंग रूम में दीवार पर पुश्किन का एक चित्र टँगा है। डाइनिंग मेज,दो सोफे की कुर्सियाँ,चेखव का एक चित्र। बहन का चित्र। युवती थी। दो चित्र चेखव के बनाए हुए। ये बर्तन, चेखव की सम्पत्ति थे। ये क्रिस्टल ग्लासेज़ उनकी पैतृक सम्पत्ति हैं,जो चेखव के माता-पिता के समय प्रयुक्त होते थे। चेखव का चित्र उनकी बहन ने बनाया था, जो एक लेखिका भी थीं । उनके छोटे भाई मिखाइल ने भी चेखव के बारे में एक पुस्तक लिखी । यह सामने का कमरा मेहमानों के लिए था । यहाँ आने पर गोर्की इसीमें रहते थे। शलातिन संगीतज्ञ भी यहीं रहते थे। कुप्रिन ने भी यहीं रह कर कहानियाँ लिखी थीं। गोर्की को यह स्थान बेहद प्रिय लगता था। पेन्टर लेवितान भी इसी कमरे में रहते थे। छोटी मेज पर लैम्प रखा है। यह कमरा उनकी पत्नी का कमरा था,जो छुट्टियों में आकर यहाँ रहती थीं। वह कमरा वैसा ही है(पूर्व की ओर)। वे एक्ट्रेस थीं। उनका मकबरा मॉस्को में चेखव के मकबरे के पास है। पत्नी मॉस्को में रहती थीं। चेखव ने एक पत्र में अपना असंतोष व्यक्त किया था कि मैं लेखक,तुम एक्ट्रेस इसलिए जुदा हैं। बीच के कमरे में सन्दूक है। ये सीढ़ियाँ अब प्रयुक्त नहीं की जातीं चूँके पुरानी पड़ गई हैं।
ऊपर की मंजिल के पश्चिम में सुराही का वृक्ष चेखव का लगाया है ।
पीछे छोटा भवन पहले से बना था। इस भवन के निर्माण की अवधि में चेखव यहीं रहे,बाद में वहाँ रसोई बनी। उसमें दो कमरे थे,एक में रसोइया रहती थी। दूसरे में माली। ऊपर के बाराम्दे के सामने एक छज्जा बाहर निकला है,जो चेखव के कमरे से जुड़ा है। अन्दर आल्मारी में चेखव के कपड़े रखे हैं। चमड़े का कोट प्रसिद्ध है। 1890 में सहालिन द्वीप पर इसे पहने कर रहे। अपनी डायरी में चेखव ने इस कोट का भी जिक्र किया है। सहालिन द्वीप पर वे तीन महीने रहे। वहाँ की जनसंख्या के बारे में जानकारी की। वहाँ शहर से कैदियों के रूप में रहने वाले लोग भी थे। वापिस आकर सहालिन द्वीप के बारे में पुस्तक लिखने लगे। फिर श्रीलंका देखने चले गए । देशों का तुलनात्मक विवाण प्रस्तुत किया। उन्होंने लिखा कि श्रीलंका अपेक्षाकृत स्वर्ग है। श्रीलंका से वे हाथिनों की दो मूर्तियाँ लाए, जो यहाँ रखी हैं। माँ के कमरे में नौ दिन की बनाई माँ की तस्वीर दीवार पर टँगी है । एक मीटर 83 से0मी0 का कद था, जूते भी बड़े थे। चद्गमा मॉस्को के संग्रहालय में है।
लिखने का काम भी ऊपर की मंजिल में । मेज पर कहानियाँ लिखते थे। मेडिकल औजार भी मेज पर रखे हैं। चेखव पहले डाक्टर थे। उन्होंने डाक्टरी का पेश छोड़ दिया था पर लोगों को देख लिया करते थे। एक पुराना फोन दीवार पर टँगा है। एक तख्ती पर 'सिगरेट पीना मना है'
लिखा है,जो एक मित्र ने लगाई थी। गुस्से में। खिड़की के ऊपर लाल और गहरे नीले काँच लगे हैं,जो पेड़ों के छोटा होने के कारण धूप से बचने के लिए लगाए गए थे। 20गुणा12 फिट का कमरा। पीछे एक सोफा भी लगा है। बीच में मिट्टी के तेल का लैम्प लटका है ।
इस कमरे में लोग आराम करने आते थे। यह आल्मारी और पियानो बहुत पुराने हैं। इनका उपयोग उनके संगीतज्ञ मेहमान करते थे । सामने का चित्र उनके दूसरे भाई का बनाया है । इसका शीर्षक गरीबी है। याल्टा में थियेटर बन जाने पर मास्को से कलाकारों ने यहाँ चेखव के दो नाटक प्रदर्शित किए। बाद में वे लोग इस कमरे में आए। उस ओर भी बाराम्दे हैं, उत्तर पूर्व में। चेखव इस घर में पाँच वर्ष रहे। चेखव यहाँ गंभीर रोगी होकर आए थे। उनकी मृत्यु हो गई । तब आयु 43 वर्ष थी । कुछ समय पहर्ले वे अपनी पत्नी से मिलने मॉस्को गए। सर्दी लग गई। वे जानते थे अंत निकट है ।( पूरा भवन पत्थरों का बना है।)
डाक्टरों ने उन्हें दक्षिण जर्मनी में आराम करने की सलाह दी । 1904 मई में वे द0 जर्मनी गए। तब उनकी पत्नी भी साथ थीं। 2 जुलाई को उनकी हालत खराब हो गई । अपनी सेहत की गंभीरता के बारे में उनको खुद ही जानकारी हो गई थी । हड़बड़ी में डाक्टरको बुलाने की तैयारी कर रही अपनी पत्नी को चेखव ने कहा- डाक्टर को मत बुलाओ,उसे बुलाना फिजूल होगा। उसके आने से पहले मैं चला जाऊँगा । बहुत धैर्य के साथ उन्होंने अन्त में शैमपेन का एक गिलास लिया । उसके बाद जर्मन में बोले-
ICH STBR (मैं जा रहा हूँ)। उनका शव मॉस्को ले जाया गया। वहीं उनका मकबरा बना है।
उतना वर्णन सुन लेने के बाद मुझे लग रहा है कि चेखव के घर आकर मैने अपनी ज़िंदगी का एक महत्वपूर्ण फर्ज अदा किया है। उसे मैं अपने जीवन की एक महान उपलब्धि मानता रहूँगा। जिस रोग ने चेखव की ज़िन्दगी ले ली,इतने वर्षों के बाद मैं उससे निजात पाने के बाद यहाँ विश्राम करने आया हूँ। उनके जीवन के दौरान क्षयरोग को एक असाध्य रोग माना जाता था। बहुत बाद तक वैसी ही स्थिति कायम रही। डाक्टर अपने को निरूपाय मानने लगते थे। हमारे ज़माने के काफी करीब फ्रैंज काफ्का को भी उसने अपना शिकार बनाया। बीस साल बाद काफ्का की मौत 1924 में 41 वर्ष की उम्र में वियना के एक सेनिटोरियम में हुई। उसकी महत्वपूर्ण रचना '
द ट्रायल' 1925 में छपी ।
और अब डाक्टर उसे कोई ऐसा भयंकर रोग नहीं मानते। तबसे अब तक विज्ञान और आयुर्विज्ञान ने बहुत प्रगति कर ली है ।
गाइड ने मुझे इस विषय पर ज़्यादा सोचने का मौका नहीं दिया। अपनी बात जारी रखते हुए वह बताने लगा :-
याल्टावासी चेखव पर अभिमान करते हैं। यहाँ के पुस्तकालय को चेखव ने अनेक पुस्तकें दी थीं। चेखव के नाम से एक सेनिटोरियम और एक मार्ग भी है। 1901 में चेखव सेनिटोरियम का उद्दघाटन हुआ । उसके निर्माण के लिए,अन्य साहित्यकारों के साथ,चेखव ने भी चंदा दिया था। यहाँ का थियेटर भी चेखव के नाम का है। यहाँ हर रोज दर्शक आते हैं ।
1860 में अपने जन्म के बाद 1879 तक चेखव तगानरोफ में ही रहे। वहाँ भी चेखव परिवार का संग्रहालय है। पिता छोटे व्यापारी थे। 1879 में आर्थिक संकट के कारण पिता मॉस्को गए। चेखव अकेले कहीं गाँव में रहते थे । चेखव ट्यूशन करके अपना गुजारा करने लगे। फिर 92 तक चेखव परिवार सहित मॉस्को मे रहे। पिता को नौकरी नहीं मिलती थी । गरीबी में रहते थे। टी0बी0 ने उसी कारण दबोच लिया था । मॉस्को में चेखव विश्वविद्यालय में भर्ती ह। मॉस्को में किराए के मकानों में रहते थे। उन दिनों के बारे में उन्होंने अपनी डायरी में लिखा कि हमारे फ्लैट्स से आने-जाने वालों के सिर्फ पाँव दिखाई देते हैं। माँ चाहती थीं चेखव डाक्टर बनें। पढ़ते समय वे कहानियाँ लिखने लगे। उनके पारिश्रमिक की धनराशि से परिवार की कुछ सहायता करने लगे। लेखन जारी रहा । विनोदी कहानियाँ लिखीं । 1892 में पेलेखेवा गाँव में भवन खरीदा। 92 से 99 तक पेलेखेवा गाँव में रहे। यह मॉस्को के पास एक गाँव था,जिसका नाम अब चेखव है। और यह अब मॉस्को का अंग बन गया है। 7 साल तक वहाँ रहे। वहाँ कई साहित्यिक कृतियों की रचना की। डाक्टरी की डिग्री भी ली। हैजा फैला,उसकी रोकथाम की। चेखव के चार भाई एक बहन और थे। इन सात वर्षों में गरीबी का चित्र बनाने वाले भाई तथा पिता की मृत्यु हो गई । पहली बार याल्टा आने पर चेखव को यहाँ अच्छा नहीं लगा था । लिखा मुझे अच्छा नहीं लगा । यह यूरोपियन और रूसी का घालमेल है । पर सागर से परिचय हुआ तो याल्टा भी आया । फिर लिखा याल्टा का सागर एक युवती की तरह है । इसके तट पर हजार साल तक रहने
पर भी बुरा नहीं लगेगा । प्रथम बार यहाँ तीन सप्ताह व्यतीत किए थे। फिर 1894 में आए । इसके पूर्व सखालीन द्वीप के प्रवास पर रहे,जहाँ टी0बी0 बढ़ गई। रोसियन होटल में एक महीना याल्टा में बिताया। यहाँ आए तो खाँसी दूर हो गई। फिर लेखन का काम करने लगे। इलाज बन्द कर दिया। उसके बाद दो-तीन सप्ताह के लिए अक्सर यहाँ आकर मित्रों के घर पर रह लेते थे। 1899 में भावी पत्नी से परिचय हुआ। तब दोनों यहाँ आए । यहाँ आने के बाद चेखव होटल में और ओल्गा अपने मित्रों के घर पर रहने लगे। फिर योरोप, फ्राँस का प्रवास किया। डाक्टरों ने फ्राँस में रहने की सलाह दी । चेखव ने मातृभूमि में रहना अधिक पसन्द किया। पिता की मृत्यु व अपने रोग की गंभीरता के कारण यहाँ रहने लगे । उसके बाद उनका याल्टा का जीवन शुरू हुआ ।
दूसरे महायुद्ध के समय याल्टा पर फासिस्टों ने कब्जा कर लिया था। एक फासिस्ट अधिकारी ने आकर कहा -''यहाँ मैं रहूँगा ।'' उस दौरान यहाँ बहन रहती थी । बहन को सूझा कि वे कहीं उस घर को नष्ट न कर दें। उसने भवन की एक दीवार पर एक जर्मन नाटककार को फोटो लगा दिया । उस फोटो को देखकर हाकिम ने घर को नष्ट नहीं किया। जर्मन हाकिम यहाँ आठ दिन रहा। फिर सेवोस्तोपोल चला गया। जाते समय पीछे के दरवाजे पर उसने 'मेरबाकी'(जर्मन अधिकारी की संपत्ति है ) प्लेट लगा दी । सेवोस्तोपोल से वह वापस नहीं लौटा । वह तख्ती युद्ध के अंत तक यहाँ लगी रही और उसके कारण जर्मन सैनिकों ने इसे ध्वस्त नहीं किया। गोलियाँ भवन को लगी थीं । उसकी मरम्मत हो गई । यह पेड़ केदरगियाल्यस्की(देवदार) हिमालय से आया है । दूसरा देवदार अफ्रीका से आया है ।
मैने इरिना को बताया ।
-यह गंगोत्री के पास हर्षिल से लाया गया देवदार है ।
मैं एक टकनौरी देवदार के नीच आकर खड़ा हो गया तो लगा कि चेखव के बागीचे में आकर मैं हर्षिल ही पहुँच गया हूँ । मेरा ननिहाल । और मैं अकेला नहीं,चेखव भी मेरे साथ हैं ।
उस वक्त मैने देखा मेरे सभी साथी हमारी ओर पीठ फेर कर तेजी से बाहर की ओर लपकते जा रहे थे । उस ओर जहाँ अपनी कारें खड़ी थीं ।