अरुण कुमार "असफल" ऐसे रचनाकार है जिन्हें बहुत मुखर होकर बोलते हुए कम लोगों ने ही सुना होगा। लेकिन आस पास के वातावरण, सामाजिक, सांस्कृतिक स्थितियों पर उनकी दृष्टि हमेशा बेबाक रही। हां उस आवाज को सुनने के लिए अक्सर हो सकता है कि आपको अरुण के बहुत करीब जाना पड़े। लेकिन इस बार उनका बोलना आप सुन सकें- अरुण की वह टिप्पणी जिसका जिक्र फेसबुक के माध्यम से अरुण ने किया था, यहां आप सभी के लिए सादर प्रस्तुत है। बहुत चुपके चुपके घुमड़ने वाली असहमतियों को दर्ज करना हमारी कोशिश का एक ऐसा हिस्सा है जिसमें इस ब्लाग की सार्थकता भी साबित हो सकती है और पद, उम्र या श्रेष्ठता के दूसरे मानदण्डों के आगे असहमतियों को दर्ज न कर सकने की सामंति मानसिकता से मुक्ति का रास्ता भी बनता है। हमारा मानना है कि असमहति एक स्वस्थ बहस का आधार होती है। विश्वास है कि पाठकों तक हमारे मंतव्य सकारात्मक प्रभाव छोड़ेंगे। -वि. गौ. |
Friday, November 25, 2011
मुझे मालूम है
Monday, February 14, 2011
I am a painter, I want to become an artist
Sunday, January 30, 2011
मेले ठेले से अलग
यदि किसी से पूछा जाये कि बाईस जनवरी सन दो हजार ग्यारह को जयपुर में कला एवम संस्कृति की सबसे महत्वपूर्ण घटना क्या थी तो वह तपाक से बोलेगा - जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल! 23 जनवरी को प्रकाशित जयपुर के सारे अखबार भी यही कह रहे थे। शायद जयपुर के चित्रकारों को भी यह बात मालूम न हो ( यदि मालूम रहती तो वे वहॉ उपस्थित रहते ही?) कि लिटरेचर फेस्टिवल के हो हल्ले से दूर जयपुर के सांस्कृतिक स्थल जवाहर कला केन्द्र ( जेकेके) के रंगायन सभागार में विश्वविख्यात कलाकार जतिन दास का ' ट्रेडिशन एण्ड कंटम्परेरी इंडियन आर्टस" पर एक महत्वपूर्ण व्याख्यान है, वह भी हिन्दी में। खुद मुझे भी कहॉ मालूम थी यह बात। हॉ कुछ दिन पहले ( जब लिटरेचर फेस्टिवल का तामझाम शुरू न हुआ था) अखबारों में पढ़ा था कि जेकेके में 21 जनवरी से जतिनदास के चित्रों की प्रदर्शनी लगने वाली है और मैंने तय किया हुआ था कि रविवार दिनॉक 23 जनवरी को लिटरेचर फेस्टिवल में विनोद कुमार शुक्ल को सुनकर वहीं से जेकेके निकल जाऊंगा परन्तु अपर्णा को नीयत ताड़ते देर न लगी और कहा कि मैं निकल जाऊंगा तो वह अकेली रह जायेगी। लिहाजा आज ही (22 जनवरी ) जवाहर कला केन्द्र चलो। तब हम लोग उस दिन शाम को जवाहर कला केन्द्र पहुंचे। लिटरेचर फेस्टिवल की वजह से हमेशा खचाखच भरा रहने वाला जेकेके का कॉफी हाऊस उस दिन खाली खाली-सा था। हॉ जेकेके के रॅगायन सभागार के सामने कुछ लोग अवश्य खड़े थे। ऐसा तभी होता है जब वहॉ या तो नाटक होने वाला हो या कोई पुरानी क्लासिक फिल्म प्रदर्शित की जाने वाली हो। जिस बात की सूचना नोटिस बोर्ड पर चस्पॉ कर दी जाती है। मैंने उत्सुकतापूर्ण नोटिसबोर्ड को देखा तो उससे भी ज्यादा उत्तेजनापूर्ण सूचना चस्पॉ थी " जतिन दास का व्याख्यान , शाम 5:30 पर रंगायन सभागार में'। जतिन दास की कलाकृतियों को देखना तथा दोनों अलग अलग अनुभव है। जतिन दास ही क्या, किसी भी कलाकार को सुनना दुर्लभ ही होता है। हम जगह पर कब्जा करने के उद्देश्य से सभागर में भागे तो यह देख कर दंग रह गये कि सभागार मुश्किल से बीस लोग थे और जतिनदास जी उपस्थित लोगों से अनौपचारिक बातचीत कर रहे थे। हमें देखते बोले- आईये आईये बैठ जाईये। पता नहीं जतिन दास को क्या महसूस हो रहा हो पर इतने कम लोगों को देख कर मुझे बहुत कोफ़्त हो रही थी। जयपुर में आये दिन चित्रों की प्रदर्शनियॉ लगती है जिससे पता चलता है कि यह शहर छोटे बड़े चित्रकारों से अटा पड़ा होगा। तो क्या उन्हे इतने बड़े चित्रकार को सुनने का समय नहीं है? या जरूरत नहीं है? आयोजको ने सफाई भी दी कि उन्होने सारे अखबारों को सूचना दी थी पर किसी ने छापी नहीं थी ( क्योकि उस दिन सभी स्थानीय दैनिक, लिटरेचर फेस्टिवल में शिरकत कर रहे जावेद अख्तर और गुलजार आदि के खबरो से भरे पड़े थे) आयोजकों ने यह भी बताया कि उन्होने सारे स्कूल कालेजों कों सूचित कर दिया था क्योंकि यह व्याख्यान कला के विद्यार्थियों के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण थी। पर जो कुछ भी हो, यह हमारा सौभाग्य था कि इतने कम लोगों के बावजूद जतिन दास ने अपना व्याख्यान गर्मजोशी से दिया।
जतिन दास के व्याख्यान में उनकी मुख्य चिन्ता कला के एकेडिमिक प्रशिक्षण को लेकर थी। उन्होने कहा कि कला सर्वव्यापी है जबकि विद्यालयों में इसे दायरे में बॉधना सिखाया जाता है और कलाकृतियों के प्रदर्शन के लिये गैलरियों में जगह निर्धारित कर दिया गया है। प्रशिक्षुओं को लोक कलाओं की विस्तृत जानकारी नहीं दी जाती है। शुरूआत में ही एक्र्रेलिक थमा दिया जाता है जबकि प्रारॅभ में उसे पारंपरिक कलाओं को पारंपरिक तरीके से करने का अभ्यास करना चाहिये। कला के विकास के लिये साधना आवश्यक है जबकि लोग विद्यालय से निकलने के बाद बाजार में घूमने लगतें हैं और अपने काम का मूल्यॉकन उसके दाम से करने लगतें हैं।उन्होने दुख व्यक्त किया कि कला की अन्य विधाओं जैसे साहित्य संगीत का मूल्यॉकन उसके सौन्दर्य शास्त्र के हिसाब से होता है जबकि चित्रकला में उसी चित्र को श्रेष्ठ मानने का रिवाज़ हो गया है जिसकी बोली ज्यादा लगती है। यह स्थिति कला के लिये अत्यन्त घातक है। उन्होने कहा कि आजकल कला के क्षेत्र विलगाव की भी घातक प्रवृत्ति देखी जा रही है । साहित्य के लोग चित्रकला की बात नहीं करतें हैं चित्रकार साहित्य नहीं पढ़ता। संगीत वालो की अपनी अलग दुनिया होती है। जबकि पहले ऐसा नहीं होता था। कई चित्रकार अच्छे कवि भी थे और कई कवि अच्छे चित्रकार भी रहे हैं। राष्ट्रभ्पति भवन की जिसने आर्किटेक्टिंग की थी वह आर्किटेक्ट नहीं, बल्कि एक चित्रकार था। जतिन दास ने जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल पर कटाक्ष करते हुये कहा कि मेले के हो हल्ले के बीच कवि अपना कविता पाठ करता है वह किसी काम का? जबकि कविता पाठ के लिये एक अलग माहौल चाहिये होता है। जतिन दास ने कला सीखने वालों को एक मूलमन्त्र बताया ' लर्न- अनलर्न-क्रियेट"। अर्थात पहले सीखो, फिर जितना सीखा है वह भूल जाओ और अपना सृजन करो।जतिन दास का व्याख्यान लगभग आधा घन्टा चला। उसके बाद उन्होने अपने चित्रों का स्लाईड शो किया तथा सभागार में उपस्थित लोगो से विनोदपूर्ण शैली में अनौपचारिक बातचीत भी करते रहे। स्लाईड शो के बीच उनके मुंह से वाह वाह निकल जा रहा था तो एक ने विनोदपूर्ण तरीके से उन्हे टोका तो उन्होने जवाब दिया कि जब बनाई थी तब उतनी अच्छी नहीं लग रही थी, अब लग रही है तो तारीफ कर रहा हूं। उन्होने एक और मजेदार बताई कि वे एक बढ़िया कुक भी हैं। एक कलाकर कोई भी काम करेगा तो पूरे मनोयोग से करेगा। इसलिये ज्यादातर कलाकार खाना भी बढ़िया बनातें हैं।
दुर्भाग्य से इतनी महत्वपूर्ण कलात्मक गतिविधि की रिपोर्टिगं के लिये आयोजको द्वारा निमिंत्रत किये जाने के बावजूद एक भी पत्रकार सभागार में उपस्थित न था। मुझे सन्तोष इस बात का है कि हाल ही में खरीदे गये अपने सस्ते साधरण हैडींकैम से मैंने व्याख्यान की शतप्रतिशत रिकार्डिगं कर ली है। यह ऐसी अमूल्य निधि है जिसे सबको बॉट कर खुशी होगी। इस हैडींकैम का भविष्य में इससे बेहतर इस्तेमाल शायद ही हो। पर धन्यवाद की पात्र तो पत्नी अपर्णा ही रहेगी जिसने उस दिन जवाहर कला केन्द्र जाने का हठ किया था।
-------- अरूण कुमार 'असफल, जयपुर,
09461202365] arunasafal@rediffmail.com
Tuesday, December 8, 2009
सॉलिटरी रेसिसटेंस
अरुण कुमार असफल की यह टिप्पणी विष्णु खरे जी के आलेख पर प्रतिक्रया स्वरूप लिखी गई पोस्ट पर किसी अनाम भीम सिंह जी की टिप्पणी के विरोध में प्राप्त हुई है। अरूण को उसके लिखे से जानने वाले जानते हैं कि अरूण एक गम्भीर रचनाकार हैं और सनसनी की हद तक चर्चाओं में बने रहने की बजाय अपने लिखे पर यकीन करते हैं। इस आभासी दुनिया में अरूण का यह प्रवेश साहित्य की दुनिया के भीतर गुंडावाद के विरुद्ध और अपने लिखे पर यकीन करने वाले रचनाकार का ही प्रवेश है।
भीम सिंह जी,,
आपने पूरे ब्लॉग का एक एक पन्ना न पढ़ा हो पर मैं इस ब्लॉग का नियमित पाठक हूं । यदि इस ब्लॉग पर कुछ नॉन सेन्स जैसा है तो वह है आपकी टिप्पणी। आपका बस चले तो ब्लॉग क्या बोलने बतियाने पर भी रोक लग जाये। केवल आपके श्रद्धेय विष्णु खरे के 'सॉलिटरी रेसिसटेंस " को ज्यों का त्यों आत्मसात कर लें। आप एक तरफ तो विजय को कहतें हैं कि "पूरी जिन्दगी कुछ न किया"। तो इस "पूरी जिन्दगी कुछ न किये वाले" कि इतनी औकात कहॉ से आ गई कि हिन्दी साहित्य के चेग्वेरा से अपना पुराना हिसाब करने लगा ? पर हमने तो लेख में आपके श्रद्धेय को ही किन्ही से पुराना हिसाब करते पाया है। माफ कीजिये हमें भी पढना नही आता । क्या उस विश्वविद्यालय का नाम बतायेगे जहॉ से आपने लिखने पढ़ने की यह समझ हासिल की है।
अरुण कुमार असफल, जयपुर
Wednesday, November 12, 2008
युवा कथाकार अरुण कुमार 'असफल' की चर्चित कहानी
अरुण कुमार 'असफल' की यह कहानी इससे पूर्व अकार-२२ में प्रकाशित हो चुकी है। ग्वालियर में आयोजित संगमन में इस कहानी का पाठ अरुण ने किया। कहानी संगमन से ही साभार ली जा रही है।अरुण की यह कहानी हमारे दौर की एक महत्वपूर्ण रचना है। इधर युवा रचनाकारों की रचनाओं में भाषा अपने सौन्दर्य के साथ खिलती हुई दिख रही है। वह कुछ ज्यादा मारक और तीखी भी होती जा रही है। उसके निशाने, यदि तकनीक की भाषा में कहूं- बंदूक की नाल से निकलने वाली एक मात्र गोली की तरह नहीं बल्कि बौछार करती मशीनगन की गोलियों से हैं। इस कहानी पर विस्तार से लिखने का मन है पर अभी पढें-
पाँच का सिक्का
---अरुण कुमार 'असफल' 09461202365
पेट भी उसका कुछ अजीब है, आगे को निकला हुआ- मशक की तरह। वह आगे चलने को ज्यों ही कदम बढ़ाता है तो पेट आगे हो लेता है। कहीं से अचानक प्रकट होता है तो लोगों की नजर पहले उसके पेट पर ही पड़ती है। पेट के कारण ही उसे सबसे अधिक उलाहना मिलती है और पेट के कारण ही उसका सबसे अधिक मज़ाक उड़ता है।
'अरे रे ....परे हट! कहाँ सटाऐ जा रहा है अपना पेट ... शो केस से!'
'हमें एक सीसी तेल अउर बाकी सउदा दे दा तो हम चलें।'
निनकू बुदबुदाया। लेकिन उसकी बुदुदाहट अन्य ग्राहकों के चिल्लपों में दब गई। उसने चिढ़ कर अपना टिमकी जैसा पेट फिर से दुकान के शो केस पर सटा दिया। पंसारी पुन: भृकृटियां टेढ़ी कर उसे घूरने लगा। लेकिन उसके कुछ बोलने से पहले वह बोल पड़ा- 'हमें सउदा दे दा तो हम लें।'
'हम चलें..हम चलें !' पंसारी आँखे तरेर कर बोला ' एक शीशी तेल वाले को ढेर जल्दी है और एक बोतल तेल वालों के पास फालतू का टैम है।'
सारे बोतल वाले एक शीशी वाले को अपनी अपनी टेढ़ी निगाहो से देखने लगे। वह झंड हो गया। उसकी माई होती तो इस पंसारी को बताती और इन बोतल वालो की भी खूब आरती उतारती। माई ही ने तो बताया था कि यह पंसारी शीशी शीशी तेल बेच कर मालामाल हुआ है। यह मुआ पंसारी पाँच रुपिया में एक खांसी की दवाई की शीशी भर तेल देता है। इस हिसाब से पूरी बोतल अस्सी रुपये में भरती है। जबकि एक बोतल तेल नफे सहित पचास रुपये में उन्हे बेचता है जो अभी उसे अपनी अकड़ दिखा रहे थें। इनकी अकड़ को ठेंगा दिखाने की गरज से ही उसने कहीं से पानी की एक खाली बोतल का जुगाड़ कर माई बाऊ को सुपुर्द कर दिया था। पर उसकी क्या गत हुई? आज पूरा घर उस बोतल को लेकर दिशा मैदान को जाता है।
उसने पंसारी को बीस रुपये का लाल नोट थमाया । पन्द्रह रुपये काट कर उसने निनकू को पाँच का सिक्का थमाया। निनकू एक हाथ की मुठ्ठी में पाँच का सिक्का तथा दूसरे हाथ में सौदा लेकर वहाँ से चल पड़ा। वह आगे बढ़ा तो पेट फिर आगे को हो लिया । पेट की ऊभार का दबाव पड़ने से उसकी ढोंढी के सामने पड़ने वाली बटन की काज चौड़ी हो जाती थी। जिससे बटन बार बार खुल जाती थी और उसकी ढोंढी अक्सर उघड़ जाती थी। उसक लिये यह करेले पर नीम चढ़ने जैसी बात होती। नदी के उस पार के संगी साथियों से उसे कोई गिला शिकवा नहीं थी। लेकिन नदी इस पार के बच्चे अपने हाथ आए किसी मौके को गंवाना नहीं चाहते थे । वे उसे ढोंढी को कोंचते और कहते -
' हेडलाइट का बल्ब फ्यूज क्यो है बे ?'
वह झेंपता हुआ कमीज से पेट को ढकने का उसी तरह यत्न करता जिस प्रकार कोई जवान लड़की दुपट्टे से अपनी छाती को ढकने का यत्न करती है।
मसाले की तीखी गन्ध से उसकी चेतना कौंध गई। लालडिग्गी पार्क के चहरदीवारी से सटकर ठेला लगाने वाले शामलाल ने चाऊमीन की पहली छौंक लगाई थी। क्या चीज है भई ? हर बार जब वह इस ठेले के पास से गुजरता है तो उसकी ज़ुबान गीली हो जाती है। आज सेठ का लड़का भी कैसे चटखारे लेकर खा रहा था। हरबर्ट बन्धा (बान्ध) के पास उसका कदम लड़खडाया तो वह इस नशीली गन्ध से उबरा। तेल की शीशी बायें हाथ में थी। उसने सावधानीवश उसे और भी जकड़ लिया जिससे दाहिने हाथ की पकड़ अपने आप ही ढीली हो गई और पाँच का सिक्का यूँ लुढ़का जैसे पिंजरा खुला पाकर चिड़िया फुर्र उड़ जाती है। निनकू को गुदगुदी हुई। अच्छा सगुन है।पाँच रुपये में ही तो आता है- एक प्लेट चाऊमीन ! पर इस हिसाब से भी परे जो अहम् बात थी वह यह कि बन्धा के ढलान पर नाला था जो बन्धा के किनारे किनारे चलता हुआ राप्ती नदी में मिल जाता था और पाँच का सिक्का नाले की ओर यूँ लुढ़का जा रहा था गोया कि राप्ती नदी में जाने को इससे बेहतर रास्ता और कोई न हो । निनकू को जब लगा कि अब खेल बिगड़ने वाला है तो उसने सारा सामान एक किनारे रख कर दौड़ लगा दी। निनकू के इस करतब का कोई चश्मदीद गवाह न था अन्यथा उसने जिस फुर्ती से उछलते हुए सिक्के को वापस अपनी मुठ्ठी में लिया था, उस पर वह ताली पीटे बगैर नहीं रहता। और कोई नहीं तो कम से कम उसकी माई उसे गोद में भर लेती चाहे भले ही और दिन ताने मारती रहती रहे।
वह सोच रहा था कि खुदा न खास्ता अगर यह सिक्का नाले में गिर जाता, तो ? तो उसको लेकर माई के सामने दो ही रास्ते बचते, या तो उसकी करती जमकर कुटाई या डोमिनगढ़ के साइकिल पुल से ऐसा धक्का देती कि वह सीधे गिरता राप्ती नदी में। यह ख्याल आते ही उसने पाँच के सिक्के को भी उतनी मजबूती से पकड़ा जितनी मजबूती से तेल की शीशी । दूर से ही उसे वह जगह दिखी, जहाँ उसका घर था। जिस जगह पर वह खड़ा था वहाँ से अपना घर क्या दिखता जबकि नकछेदी और बनारसी के घर ही गुत्थमगुत्था हुये जा रहे थे । कुछ दूर और चला तब जाकर दोनो घर अलग अलग से दिखे और उन दोनो घरों के बीच एक डब्बा सी चौकोर चीज अड़ी दिखी । यही डब्बा उसका घर था। कुछ देर आगे चलने पर यही डब्बा उसके एक कोठरी के घर में तब्दील होगा। अभी कुछ ही समय पहले की बात है पहले न तो यह डब्बा था और न ही उसका घर । यहाँ तो पहले बनारसी के गदहे रहा करते थे। निनकू को सिर्फ एक गदहे की याद है जो एक टाँग से लंगड़ाता हुआ इधर उधर भटकता फिरता था। वह मर गया या बनारसी ने बेच दिया या कहाँ गया निनकू को नहीं मालूम। काफी दिन से टीन के इस छानी को देख कर उसके बाऊ ने बनारसी से इसे किराये पर ले लिया था।
उसका घर साफ साफ दिखने लगा तो उसे घर के पास पहुँचने का सुकून मिला।घर के मूकों से धुआं निकल कर बाहर फैल रहा था। उसे राहत मिली कि चलो बड़े मौके से पहुँच रहा है। चाय को ज्यादा जोहना नहीं पड़ेगा टीन का किवाड़ ठेल कर वह अन्दर घुसा तो धुयें से नाक भर गई।
'काहे दरवाजा बन्द की हो माई ?'
उसकी माई का चेहरा फुकनी से चूल्हा फूंकते फूंकते बुझ गया था। धुयें से उसकी आँख से पानी बह रहा था तो वह जवाब क्या देती । इसलिये उसने खुद फैसला लेते हुये किवाड़ को पूरा खोलकर उसकी कुडीं में फंसी सुतली को दीवार में लगी कील से बाँध दिया। उसने साथ लाये सौदे को ईंट के पायों पर रखी लकड़ी के फट्टे पर रख दिया। उसकी माई उस पर एक झलक मारी और फिर लकड़ी चीरने बैठ गई। उसने अपने आप से ही फुंकनी उठा ली और चूल्हे में फूंक मारने लगा।
' लकड़िया झुराईल नइखे। ' उसने अपनी आँखे पोंछते हुये कहा।
' ओ उठ रे!' माई के अचानक चिल्लाने से वह सहम गया।
'उहाँ तुलसी का पत्ता बा रे! बइठ गइले का ?'
उधर चूल्हे में आग चटकी इधर वह बुझ गया। माई की कितनी भी सेवा करो कोई फर्क पहीं पड़ने वाला। फुंकनी लुढका कर वह खिसक कर बैठ गया।
' इ पइसा रख ला।' उसने पाँच के सिक्के को माई के सामने सरका दिया। उसकी माई आँखे फाड़े उस जगह को देखने लगी जहाँ पर निनकू ने इशारा किया था।
'अउर कहँ बा रे!' माई की निगाहें धुयें की परतों से ढकी सिक्के को टटोल रही थी।
' इ अठन्नी नाहीं है'
'अरे चुप कर!' उसने झिड़का ' आन्हर (अन्धी) हइ हम का!' हमें मालूम है कि इ पाँच का सिक्का है। अउर कहाँ गया ? '
' सउदा नहीं लाया का! ' उसने झुँझलाते हुये फट्टे पर ला कर रखे सामान की ओर इशारा किया। माई ने एक एक कर के सामान को अपने पास उतार लिया।
'तेल कित्ते का है ?'
पाँच रुपये का।'
' चीनी ?'
' पाँच रुपये का, अउर मसाला भी पाँच रुपये का।' लगे हाथ उसने मसाले का भी रेट बता दिया।
उसकी माई सोच में पड़ गई।
' कुल बीसे तो हुआ! पाँच रुपया अउर कहाँ बा रे ? गिरा देहले का कहीं नहरी वहरी में ?'
लो! गिरा दिया ! उल्टे, गिर रहा था तो उसने बला की फुर्ती दिखाते हुए इसे लपक लिया था। यही तो निनकू बताना चाह रहा था। पर माई को तो उसकी सुनने की जरा भी वक्त नहीं है। उल्टे सवाल पर सवाल दाग जा रही है।
' सेठ कितना पइसा दिया था ? '
' बीस रुपिया।'
' बीस रुपिया! माई की आँखे धुंये के बावजूद फैल गई ' मरवड़िया ने बीसे रुपिया दिया! पाँच रुपिया गवा! साला हरामिया, सेठ सूठ की जात! जहाँ देखस मौका वहीं दिहस धोका।'
माई के साथ पानी भी खदबदाने लगा। वह खदबदाते हुए पानी में तुलसी की पत्तियां, अदरक काली मिर्च और न जाने क्या क्या डाल कर हिलाने लगी। वह पहले ही निचुड़ा हुआ था। काढ़ा बनते देख और भी निचुड़ गया। पहले उसे लगा था कि झाड़ खाते खाते गरम गरम चाय भी नसीब हो जाएगी। चाय तो अब काढ़ा बन गई लेकिन झाड़ खाना बदस्तूर जारी था।
'कितना गेहूं बीना रे?'
'दु कनस्तर ......भर के।'
'मतलब तीस किलो । धोया भी?'
' हाँ ।' निनकू ने गर्दन हिलाई ' धोया भी अउर धोकर पसारा भी '
'भला देखो तो गुण्डई! बिना धोया बीना गेहूं का आटा बारह रुपिया किलो जबकि धो बीन कर सोलह रुपिया के हिसाब से! अउर मेहनताना एक रुपिया किलो देने में भी करेजा फटता है। हमसे बोला था कि दु कनस्तर का पच्चीस रुपिया देगा, लेकिन दिया बीसे।'
उसे दम साधा देख कर घुड़की.
कुल कितने जने थे?'
'तीन गो लड़के अउर थे। सब दु कनस्तर गेहूं धोये बीने।'
'उन्हे कितना मिला?'
'हमें न मालूम। सबको अलग अलग बुला कर मजूरी दिया।'
'सयाना है न। इसीलिए।' वह दाँत किचकिचाते हुये बोली ' जा जा के पाँच रुपिया अउर ले आ। बोलिहे कि माई से पच्चीस में बात हुआ था बीस काहे दिया। सेठ से बोलिहे सेठाइन से नाही। उ तो अउरो कट्टाइन है।'
उस पर तो जैसे घड़ो पानी उड़ेल दिया हो। अभी तो थकाहारा आया है। पसीना भी नहीं सूखा और फिर उसी ठौर जाने का फरमान! बीस रुपिया हो या पच्चीस रुपिया। उसके पल्ले एक ढेला नहीं पड़ने वाला। सारी कमाई माई के ही हाथ रखना है, जो इस वक्त काढ़ा सुड़ुक रही है। ऐन चाय के वक्त काढ़ा लेकर बैठ गई।
' तू जइबू न, उनके घर बरतन माँजे। तब माँग लिहे।'
' देख नहीं रहा है काढ़ा पियत हइ हम। हमारा कपार पिरा रहा है अउर तू हमे बरतन माँजे भेज रहा है कपूत।'
वह अपना सिर ठोंकने लगी । जैसे कि अगर नहीं ठोकेगी तो निनकू को विश्वास नहीं होगा।
' लग रहा है कि ज्वार भी है। जा, जा के इ भी बोल दिहे कि माई नइखे आई।'
' तो सुबह चल जइहे ।' वह न तो तन से और न ही मन से जाने को तैयार था ' हमें दे कि न दे।'
' सुबह ? बाऊ आज रात भर नहीं आएगा। पता है न, जब लिनटर पड़ता है तब रात भर का काम होता है। अब कल साँझ ले मजूरी ले कर आयेगा। पता है न। '
उसकी माई हाथ चमका चमका कर उलाहने दे रही थी तब ही उसने समझ लिया था कि जाये बिना काम नहीं चलने वाला।
' चार पइसा घर में रहेगा तो हारी बीमारी में काम ही आयेगा। भूल गया छोटकू की बीमारी।'
' अच्छा हम जा रहे हैं' उठते उठते फिर बैठ गया। उठने जैसा होकर उसने अपनी रजामन्दी जाहिर कर दी थी बस अब उसकी दिली ख्वाहिश भी तो पूरी हो जाये -
' हे माई तनिक चाह तो पिला दे।'
उसकी मासूमियत भरी चिरौरी से माई का दिल पसीज गया। लेकिन लकड़ी के ढेर को देख कर चेहरा बिगड़ गया।
' जा, जा के पइसवा ले आ न बेटा। फिर हम दुनों चाह पीयेगें अदरक वाला।'
निनकू बूझ गया कि अलग अलग चाय बनाने का मतलब है अलग अलग लकड़ी खर्च करना। इसलिये उसने इसी बात पर सन्तोष कर लिया कि चाय न सही प्यार के दो शब्द तो मिल ही गये। वह मन मार कर बाहर निकल आया। सौ कदम का खड़जें का टुकड़ा पार कर वह बन्धा पर बने पक्की सड़क पर चढ़ आया। बन्धा पर खड़े होकर उसने बाई ओर देखा। बाई ओर चलते चलते पहले साइकिल पुल आयेगा। उसे पार करके वह सीधे डोमिनगढ़ पहुँच जायेगां जिसे उसके माई बाऊ ने छ: माह पहले ही छोड़ दिया था और अब न जाने की कंठी बान्ध ली है। जबकि दाई ओर को था मारवाड़ी सेठ का घर। एक कोस भी नहीं। जहाँ वह जाना नहीं चाहता था और अब झक मार कर जा रहा था। वह जान रहा था कि जाने से कोई लाभ नहीं है। मजूरी तो उसके बाऊ को पूरी नहीं मिलती । रोज शाम को भुनभुन करता रहता है कि कुछ ठेकेदार ने मार ली कुछ मिस्त्री ने अध्दे पउवे के नाम पर ऐंठ ली। तब माई उस पर तो नहीं बिगड़ती। उल्टे बोलती है कि मिस्त्री बाऊ को मिस्त्री की बिद्या दे रहा है । अब उसका बाऊ बेलदार नहीं रहेगा। और खुद माई! उसको क्या सब जगह ठीक पैसे मिलतें है ? बनारसी के इस डब्बे में रहने के एवज में उसके घर मुफ्त में बर्तन माँजने नहीं जाती है क्या ? वरना, औकात है क्या बनारस की महरी रखने की ? तो फिर माई ने उसी की मजूरी के लिये हाय तौबा क्यो मचा दिया ? खुद जाना नहीं पड़ रहा है न! अब एक चक्कर लगवा दिया न फालतू में! वह नहीं जान रही है क्या कि सेठ की दाँत में फँसा होगा रुपया।
हो हल्ले से उसका ध्यान टूटा। उसने सामने निगाह डाली। लो! अब एक और मुसीबत से निबटो! व्ह विचला गया। उसे इस बात का होश ही नही रहा कि अग्रेंजी स्कूल छूटने का समय हो गया है। अन्यथा कुछ ठहर कर जाता। अब झेलो उनका ताना। अगर जो एक ने चिढ़ाना शुरु कर दिया तो होड़ लग जायेगी -
मोटू सेठ सड़क पर लेट
गाड़ी आई फुट गई पेट
गाड़ी का नम्बर टोंटीं एट
गाड़ी गई इंडिया गेट
एक दो तो अंग्रेजी में बड़बड़ायेगें फैट वैट और न जाने क्या क्या। कोई मतलब निकले या न निकले लेकिन जतलाना है न कि अंग्रेजी में पढ़ते हैं। सबसे पहले तो उसने बुश्शर्ट को देखा। ढोंढी के सामने वाला बटन खुल गया था। उसे माई पर खींस आ गई। माई का तो वह एक एक कहना मानता है। जब थक जाता है तो भले थोड़ा न नुकूर करता है। लेकिन माई उसका जरा भी ख्याल नहीं रखती। कितने दिन से कह रहा था कि कॉज छोटा कर दो या छोटकू के निकर का ही कोई बटन लगा दो। निकर का बटन बुश्शर्ट के बटन से तो थोड़ा बड़ा होगा ही। लेकिन माई न जाने किस दुनिया में रहती है। कपड़े लत्ते मरम्मत करने की सुध नहीं और नया खरीदने का तो कोई मतलब नहीं। छोटकू उससे बड़ा होता तो उसके कपड़े कम से कम आज उसक काम आ रहे होते। या अगर छोटकू के बजाए वही मर गया होता तो उसक कपड़े छोटकू के काम आ रहे होते। उसने जैसे तैसे बटन कॉज में फँसा कर दो तीन बार ऐंठ दिया। कम से कम कुछ देर तो अटका रहेगा। बच्चो के झुण्ड का फासला कम होता जा रहा था। हँलाकि बच्चे इधर उधर बिखरते भी जा रहे थे और झुण्ड पास आते आते छोटा होता जा रहा था फिर भी वह बिला वजह साँसत में नहीं पड़ना चाहता था। इसलिये वह चुपचाप सड़क के बाईं तरफ बन्धा से नीचे उतर गया। आगे चलकर श्रीधर की चाय की गुमटी थी। यूँ तो बन्धा से नीचे उतर कर ही वह सड़क पर चलने वालों से काफी हद तक छुप गया था लेकिन फिर भी उसे यक़ीन नहीं था कि पेट भी पूरी तरह छुप गया होगा। इसलिए वह श्री की गुमटी के आड़ में हो गया। जब बच्चो का झुण्ड गुजर गया तो वह फिर सड़क पर आ गया। पीठ पर बस्ता लटका कर जाते हुए बच्चों को उसने मुड़ कर देखा। बच्चे उछलते कूदते जा रहे थे। उनके उछलने से उनके बस्ते में रखे पेंसिल बाक्स की खड़कने इक्ठ्ठी होकर उसक कानों तक पहुँच रही थी। वे कान के पर्दों के बजाए दिमाग के तारों को ज्यादा झनझना रहे थे। नाम तो उसका भी लिखा है बच्चुओं! वह हुँकारी भर कर अपनी राह बढ़ने लगा। यह कुछ ही लोग ही जानते थे कि उसका नाम दो साल पहले नदी उस पार के सरकारी स्कूल में लिख गया है। पर महीने में एक ही बार माई या बाऊ के साथ जाता है और वहाँ से सर पर राशन ढोकर लाता है।
वह जब सेठ के घर के पास पहुँचा तो गेट की जाली से ही सेठ की हिलती डुलती टाँग नजर आ गई। उसे तसल्ली हुई कि चलो दुकान पर नहीं जाना पड़ेगा जो कि साहबगंज सब्जी मण्डी में है। और क्या पता दुकान में भी मिलता या न मिलता। गेट का साँकल ऊँचाई पर था। उसे खोलने के लिये उसे हर बार उचकना पड़ता था। उस समय सेठ का नौकर भोला, धोकर के पसारे गये गेहूं को बोरे में भर रहा था। सेठ हाथ में गेहूं के दाने को लेकर हाथ से मसला और मुँह सिकोड़ कर बोला कि अभी कल फिर सुखाना पड़ेगा।उसने निनकू को गेट खोल कर आते हुये देखा। निनकू तो लगभग रोज ही इस घर में अपने माई के साथ आता था। कभी कभी तो दिन में दो बार आ जाता था। इसलिए सेठ ने उस पर एक सरसरी निगाह भर डाली और जब भोला बोरी को कन्धे पर लाद कर ले जाने लगा तो वह बरामदे में रखे आरामकुर्सी की ओर बढ़ने लगा। तब निनकू दबी जुबान में बुदबुदाया-
'सेठ जी, पाँच रुपिया अउर चाहिये ।'
मारवाड़ी सेठ ठिठक गया। फिर मुड़कर उसे देखते हुये आरामकुर्सी पर बैठ गया।
'पाँच रुपिया और क्यों?'
'माई बोलती है कि पच्चिस रुपिया में बात हुआ था, बीसे काहे मिला?'
' कौन दिया तुम्हे बीस रुपिया?' सेठ चौंक कर बोला
' मालकिन ने।'
सेठ कुछ देर सोच में पड़ गया। वह जैसे ही अपनी बीवी को आवाज देने को हुआ कि भोला हाथ में चाय लेकर आ गया और आरामकुर्सी के चौड़े हत्थे पर, जो कि ऐसे ही इस्तेमाल होने के लिए बना था, गिलास रख दिया।
' अपनी मालकिन को भेजकर तब दुकान जाना '
भोला अन्दर जाकर वापस आ गया और ' बोल दिया, बाबू जी ' कह कर चला गया। थोड़ी देर में सेठानी बाहर आई। वह आम सेठानियों जैसी मोटी एवम् थुलथुली थी। उसके पैर की जोडो में अभी अभी गठिया दर्द की शिकायत शुरु हुई थी। जिससे वह भचक भचक कर चलती थी। वह भचकते हुये आई और खम्भे से सट कर खड़ी हो गई।
' तुमने इसे बीस रुपये दिये थे? '
सेठानी ने उस पर एक हिकारत भरी निगाह डाली। उसे ऐसा लगा कि सरेआम उसकी चुगली हुई है इसलिए तैश में आकर कहा- 'हाँ '
' तुमने सारे लड़कों को बीस ही दिया था ? '
' नहीं , औरों को तो पच्चीस ही दिये थे। '
' तो इसे क्यो बीस दिया ? '
' इसे दिया तो बीस ही लेकिन हमें पड़ा पच्चीस से भी ऊपर।'
सेठ उसे चकित भाव से देखने लगा।
' और सब लड़के इससे बड़े नही थे ? सो उन्होने काम भी ढंग से किया होगा। और सबसे बड़ी बात यह कि इसने खाना नहीं खाया था क्या? ' वह सेठ के पास धीमे से मारवाड़ी में फुसफसाई -
' इसके पेट का साइज देखा है आपने? अगर नहीं देखा है तो अब देख लीजिए '
निनकू उनकी भाषा अगर सौ फीसदी नहीं समझता था तो ऐसा भी नही था कि अपने मतलब की बात न बूझ सके और अगर चर्चा उसके पेट की छिड़ा हो तो वह इशारों को भी ताड़ सकता था। यह बात अलग है कि सब कुछ जानना और कुछ भी नहीं जानना उसके लिए बराबर था।
'क्यो रे, खाना नहीं खाया था? '
सेठानी कड़क कर पूछी तो वह सिहर गया। लेकिन जो खाया था उसके बारे में सोचा तो अन्दर से और भी हिला। उसने माई से नहीं बताई थी यह बात और न ही सेठ से। लेकिन जब मुकदमा चल रहा हो तो वह अपने सारे दलील रखेगा ही-
' उ तो सना भात था!'
सेठानी का टेम्पो बिगड़ गया। यूँ तो वह आसपास के इलाके में धर्मपरायण एवम् सात्विक स्त्री के रूप में प्रसिध्द थी लेकिन जब कोई लड़ने पर उतारू हो जाये तो उससे वह दो दो हाथ भी करना जानती थी।
' अच्छा सना भात था! थाली में भात दाल एक साथ रख देने से भात दाल मिल गया था कि सना भात था,?'
तो उसमें जो प्याज की लुगदी थी और दाँत से कुचला हुआ अमड़े का अचार जो था, वह कहाँ से आया? निनकू यह सब बातें अपने दिमाग में ही रख सकता था। वह तभी बोलेगा जब पैसा मिलने की उम्मीद बिल्कुल ही न हो। जबकि सेठानी अभी भी अपनी खानदानी चर्बी में सिमटी गर्मी को निकाल रही थी-
' क्या इसका पेट केवल सने भात से भर सकता है?'
' ओफ् ओ! क्यों उलझती हो इन लोगों से? ' सेठ ने आरामकुर्सी के हत्थे पर इतनी जोर से मुक्का मारते हुये कहा कि चाय का गिलास गिरते गिरते बचा।
' जानती नहीं हो इसकी माई को! अगर आकर तमाशा खड़ा कर देगी तो निबट सकोगी?'पति के एकाएक बरस पड़ने से वह खिसिया गई। फिर उखड़ कर बोली-
' ठीक है, ठीक है, दे देती हूँ। मेरा क्या है! लुटाइये पैसा! लेकिन जान लीजिये, यह जो आपका गारण्टी वाला शुध्द आटा का बिजनेस है न, वह एक दिन जरूर बन्द करना पड़ेगा। '
' बही तुम देखती हो! ' अपने फलते फूलते धन्धे पर असगुनी बातों से सेठ का पारा चढ़ गया। फिर मारवाड़ी में चिल्लाया ' अभी कोई हट्टा कट्टाआदमी करता तो उसे मजदूरी देने के बाद लगाती अपने लाभ हानि का हिसाब! भलाई इसी में है कि तुम सिर्फ घर देखो और बिजनेस मुझे चलाने दो।'
उसकी बात पूरी सुनने के बगैर ही सेठानी अन्दर अन्दर चली गई थी। थोड़ी देर बाद जब वह लौटी तो उसका हाथ मुठ्ठियों के शक्ल में बँधा था। निनकू उस बन्द मुठ्ठी का राज जान गया था। पर सेठानी के बन्द दिमाग में क्या है, इस बारे में वह अनजान था। वह मुटल्ली भचकते भचकते उधर गई जहाँ हाते की चहरदीवारी से सटी क्यारी में तुलसी की झाड़ियां लगी थी। वह चहरदीवारी को टेक लेकर निहुर गई और आस पास मुआयना करनी लगी। उसी वक्त निनकू को लग गया कि अभी कुछ बाधा है। सेठानी को वहाँ काफी देर तक निहुरा देख कर सेठ बरामदे से चिल्लाया
' अब क्या हुआ? पैसा वहाँ गिर गया क्या?'
' अरे पैसे की छोड़ो!' वह परेशान होकर बोली ' यहाँ पर सुबह मैंने बिल्ली की टट्टी देखी थी। कहाँ गई? '
' कहाँ गई क्या ? अब तक पड़ी होगी ? मैंने साफ कर दी....... सुबह नहाने से पहले।'
' साफ कर दी! ' वह अचानक सीधा हो गई और चहरदीवारी का सहारा छोड़ दिया ' अपने आप ही साफ कर दिया! अगर मैं कहती तो भला आप करते साफ ? इतनी जल्दी क्या थी ? इससे न साफ करा लेते!
'अरे भाई!' सेठ बदहवासी में चिल्लाया 'तुलसी माई के पास गन्दगी अच्छी लगती है क्या?'
सेठानी पता नहीं क्या बुदबुदाती हुई भचकते हुये वापस लौटने लगीं। निनकू को कुछ राहत मिली और वह ललचाई नज़रों से उस बन्द मुठ्ठी को देखने लगा जो उसके भचक भचक कर चलने से ऊपर नीचे तो हुई जा रही थी पर खुलने की हद को जरा भी नहीं छू पा रही थी। सेठानी आते हुये यूँ लगी कि उसके पास ही आ रही है, पर पास से गुजरते हुये वह अन्दर चली गई। निनकू को लगा कि हो न हो मुठ्ठी ऐसे ही बन्द हो और अब वह पैसे लेने जा रही है। कुछ भी हो देर सबेर तो मिलना ही है।रुपए की आस लिए हुये निनकू अपने घुटने में चेहरा फँसा कर वहीं चबूतरे पर बैठ गया। अबकी सेठानी को बाहर आने में कोई दस मिनट लगे होगें। वह थकी और हताश लग रही थी। फिर बालो को खपर खपर खजुलाते हुये इधर उधर देखने लगी। अचानक उसकी आँखों में चमक आई और उधर गई जहाँ कार खड़ी थी। वहीं से उसने आवाज दी-
' इधर आना रे! '
वह हड़बड़ाया हुआ उधर गया जहाँ सेठानी हाथ में पुराना कपड़ा लिए खड़ी थी।
' ले कार साफ कर दे।'
कपड़े थमा कर वह बरामदे की ओर बढ़ गई।
तो इसलिये परेशान थी यह औरत! निनकू दाँत पीसते हुये कार पोंछने लग गया। यह काम वह फटाफट कर सकता था।लेकिन फटाफट कर देने से इस चुड़ैल को तसल्ली नहीं मिलेगी इसलिये उसने जानबूझ कर देर लगाया। काम निबटा कर वह बरामदे की ओर आया। वहाँ वह अभी तक मोढ़े पर बैठी हुई हाँफ रही थी। उसे बड़ी कोफ्त हुई। काम वह कर के आ रहा है और हाँफ यह मुटल्ली रही है! कहीं उसके हिस्से का भी तो नहीं
हाँफ लिया!
' ले! ' उसने बन्द मुठ्ठी खोल कर सिक्का उसकी ओर फेंका। उसने कलाबाजी खाते हुये सिक्के को जमीन से छूने से पहले ही लपक लिया। उसके चेहरे पर विजयी होने का भाव देख कर वह सेठ के सामने अपनी भड़ास निकालने लगी-
' इनके माँ बाप खेतों में अनाज ओसते वक्त जानबूझ कर कंकड़ पत्थर मिला देतें हैं ताकि इनके बच्चों को शहर में काम मिल जाये और हमें दुतरफा नुकसान उठाना पड़े, इन्हे मजूरी भी दो और अनाज की तौल भी कम निकले। '
वह न जाने और क्या क्या भुनभुनाई जा रही थी। निनकू ने समझने के लिए दिमाग पर जोर नहीं दिया। वह अभी तक पाँच के सिक्के को निहार रहा था। पाँच का सिक्का सेठानी की मुठ्ठी में काफी देर तक रहने के बाद गर्म हो गया था। वह अब अपने हथेली में सिक्के की गर्मी महसूस रहा था। जब सिक्के की सारी गर्मी उसकी हथेली में समा गई तब उसे कुछ ध्यान आया और सेठानी से दबी जुबान में बोला-
' माई आज काम पर नाही आई!'
'क्या क्या ....!' सेठानी ने अपने सिर को तिरछा कर के अपने कान को निनकू के और पास ले आई और वह धोखा खा गया कि उसने सचमुच ही ढगं से नहीं सुना। इसलिए वह सेठानी के और पास चला गया-
' माई आज नइखे.......'
उसने अभी अपना वाक्य पूरा भी नहीं किया था कि सेठानी ने उस पर यूँ झपट्टा मारा जैसे कि एक बार उसके हाथ में रोटी देख कर बन्दर ने झपट्टा मारा था। निनकू के होश फ़ाख्ता हो गये। सो उसे यह भी न मालूम चला कि उसका पाँच का सिक्का उसके हाथ से कब सेठानी की मुठ्ठी में वापस चला गया था।
' माई नहीं आयेगी तो चल तू माज!'
सेठानी ने दहाड़ कर चिल्लाया और जब उसने उसका हाथ पकड कर अपने नाखून चुभोने लगी तो आखिरकर निनकू को रोना ही पड़ा-
' हमारा हाथ गोड़ सब पिरा रहा है......।'
सेठ सेठानी दोनो अकबका गये।
' जाने दो यार! सुबह से खट रहा है '
सेठ ने जरा दया भाव दिखाया तो सेठानी एक झटके से उसकी ओर मुखातिब हो गई। वैसे भी, निनकू के सुबकने से वह अपने गुस्से को लेकर धर्मसंकट में पड़ी थी। अब उसे अपना गुस्सा उतारने को माकूल जगह मिल गई थी -
' जाने दूँ! आप साफ कर लेगें ? '
पति को बगले झाँकते देख वह फिर चिल्लाई -
' तो फिर जाने दूँ न इसे? आप उठ रहे हैं न?'
' अरे भाई तुम भी हद कर देती हो! '
सेठ के स्वर में दबी हुई झल्लाहट थी जो आक्रामक कम सुरक्षात्मक ज्यादा थी-
' काम चलाने भर के दो चार बर्तन बच्चो के साथ मिल बांट कर माज लो।'
' वाह जी वाह! अगर बीवी बच्च्चों से बर्तन ही मंजवाने हैं तो अपने को सेठ जी क्यो कहलवाते फिरते है!'
फिर उसने साड़ी का फेंटा कमर में खोस कर मानो इस बात का प्रदर्शन किया कि मैदान उसने सँभाल लिया है। उसने कहा भी -' अब सँभालिये न अपना बही और मुझे देखने दीजिये घर! '
फिर उसने निनकू की ओर देखा। उसके आँसू गाल से ठुड्डी तक का सफर किये बिना सूख गये थे। उसने मुलामियत से उसका हाथ पकड़ा और खींचते हुये अन्दर जाने लगी।
' बस बेटा एक कुकर और एक कढ़ाही तू साफ कर दे! ' फिर सेठ से बोली -
' बेवकूफ है न यह! अगर पहले बताया होता कि माई नही आयेगी तो मैं फालतू का काम थोड़ी न कराती! '
वह निनकू को खींचते हुये बढ़ने लगी। वह जब भचकते भचकते उसे खींच रही थी तो निनकू के चाल में भी थोड़ी थोड़ी भचकन आने लगी। भचकते भचकते हुये निनकू को कम से कम यह तो पता चल ही गया था कि उसकी माई सेठाइन को कंट्टाइन क्यों बोलती है। सच्ची बात तो यह थी कि कंट्टाइन का सही मायने क्या है, यह उसे आज ही पता चला।
जब वह आँगन में जूठे बर्तनों के बीच बैठा तो उसके सामने एक कुकर एवम कढ़ाही का लक्ष्य था। लेकिन जब उसने कुकर को हाथ लगाया तो कंट्टाइन ने भगौना सरका दिया और जब वह कढ़ाही पर राख मल रहा था तो परात सरका दी। हर बार मनुहार करते भी जा रही थी-
' बस बेटा इसे कर दो।'
' आटा किसमें सनेगा बेटा?'
अन्त में जब कुछ थालियां और कटोरियां मय चममच छूट गईं तब सेठानी ने प्यार से कहा-' चाय पियेगा न! मैं बनाती हूँ!'
इस शगूफे को छोड़ने के बाद उसने पाँच के सिक्के को नल के चबूतरे पर पर रख दिया और शेष बर्तनों के लिये अलग से चिरौरी करने से बच जाने का तुष्ट भाव लेकर वह रसोई की ओर बढ़ गई।
सारे बर्तनों को निपटा कर और सेठानी की कड़वी बासी चाय से मुँह का स्वाद बिगाड़ कर निनकू जब बाहर आया तो उसके अन्दर मुक्ति की तनिक खुशी न थी। यदि वह बगैर बर्तन माँजे निकल पाने में कामयाब हो पाता तो चैन की लम्बी साँस लेता और सिक्के को तमगा समझ कर चूमता भी। पर अब यह उसके लिये पाँच का सिक्का भर था - न एक पैसा कम न एक पैसा ज्यादा। पाँव में पंख लगने के बजाये गेहूं के बोरे बँधे होने का अहसास ज्यादा था। वह जान रहा था कि हर एक कदम बढ़ाने पर वह सेठ के घर से थोड़ा दूर और अपने घर के थोड़ा पास हो जायेगा, फिर भी हर एक पग के बाद उसका दम निकला जा रहा था। बेजान से ज्यादा गमगीन इतना था कि पेट के सामने वाला बटन कितनी देर से खुला रह गया था उसे पता ही न चला। हो सकता हो एक दो ने फिकरे कसे हों या किसी ने निगाहों से उसकी खिल्ली उड़ाई हो। जब उसने साहबगंज चौक पार किया तो भला हो होश हवास दुरस्त कर देने वाली उस मसालेदार गन्ध का जिसने निनकू को उसकी नगीं होती हुई पेट की सुध लेने के काबिल बनाया उसने फिर कामचलाऊँ उपाय करते हुये कॉज में बटन डाल कर दो तीन बार ऐंठ दिया। उसने एक चोर निगाह इस चैतन्य गन्ध के उद्गम स्थल पर डाली। चाऊमीन का ठेला पूरी तरह आबाद हो गया था और ठेले वाले का छनौटा कढ़ाही से रगड़ रगड़ कर एक अलग किस्म का सुस्वादु सगींत बिखेर रहा था। निनकू को सगींत एवम् स्वाद की खुमारी चढ़ गई। उसका बाऊ तो इसे एक बार खा भी चुका था। यह तब की बात थी जब वे सब नदी उस पार रहते थे। तब उसका बाऊ शहर में एक बार खाकर आया था पर उसने बताया था कि उसे जरा भी अच्छा नहीं लगा था। उसकी शक्ल ही ऐसी होती है जैसे कि केंचुओं को साबुत निगल घोंट रहें हों। उसकी माई भी बोलती है कि उसे देख कर पखाने वाले वाले कीड़ी केचुओं की याद आ जाती है। निनकू ने वहाँ खड़े लोगों को चाऊमीन के लच्छे के लच्छे घोंटते देखा। उसे जरा भी कीड़ी केंचुये का धोखा न हुआ। न कभी हुआ था। धोखा तो उसके माई बाऊ ने दिया था। पैसा बचाने के लिए फुसला दिया उसे! नहीं तो खिला नहीं दिया होता उसे! जैसे बसियाडीह के मेले में जिद करने पर फुलकी खिला दिया था। एक रुपये में चार आया था। माई, बाऊ, उसके एवम छोटकू सबके हिस्से में एक एक आया था। पेट तो नहीं भरा लकिन सबका गला तर हो गया था और वह और छोटकू घन्टे भर तक सीसी करते रहे थे। फुलकी तो एक गपको तो मुँह भर जाता है। लेकिन पाँच रुपये के चाऊमीन में मुश्किल से दो बार ही मुँह गपकेगा और जब तक ठीक से गपको नहीं तब तक किसी चीज का मजा कहाँ आता है? आज सेठ का लड़का कैसे मुहँ भर भर कर खा रहा था। एक बड़ा कटोरा लेकर बैठा था कि उसमें बाजार का पाँच दस क्या बीस रुपया का चाऊमीन आ जाए। पूरे बीस रुप्ये का माल डकार गया उस सेठ के पूत ने! तभी तो दाल भात खाया न गया होगा और सान कर छोड़ दिया होगा। वही सना भात तो मिला होगा। दाल भात तो छोड़ दिया और कटोरा भर चाऊमीन गपक गया। ऐसा गपका कि एक एक लच्छा सुड़ुक कर मसाला भी चाट गया। ऐसा चाटा कि गन्ध तक न छोड़ा। तभी तो उसका कटोरा बिना हाथ लगाए साफ हो गया। और माई बोलती है इसे पाखाने का कीड़ी केंचुआ! अगर छोटकू खाने को जिद करता तो माई बोलती ऐसा। तब तो अगर दस रुपये का भी आता तो बाऊ खरीद कर लाता और उसके बाद भी माई पूछती-
' अउर खइबे बेटा?'
पर उससे क्या बोलती !
' का रे, तुम्हारा धोंदा नहीं भरा!'
पेट की खिल्ली उड़ाने को लेकर वह दुनिया वालों को क्या कोसे जब उसकी माई ही उसे खरी खोटी सुना देती है और जब उसकी सुनाने की बारी आती है तो कान में ठेंपी लगा लेती है। अगर सुनती तो वह सुनाता नहीं क्योंकि वह तो सना भात भी खा ले रहा था और अगर आँख के सामने दाँत से कुचला हुआ अमड़े का अचार और प्याज का टुकड़ा नहीं आ जाता तो वह खा भी लेता। लेकिन एक बार जो घिन्न बैठ गई तो एक एक कौर मुँह में ठूसते वक्त जी मितलाने लगा। इसीलिए चुपके से फेंक दिया। जब सेठानी के सामने खाली थाली रख कर बोला ' अउर' तो सेठानी का जो चेहरा हुआ उसे बयान करने के लिए उसके पास भाखा ही नहीं। माई तो खुद ही उसे कंट्टाइन बोलती है। उस वक्त कंट्टाइन ने उसकी खाली थाली देखने के बाद उसके पेट को हिकारत भरी निगाह से देखा और यूँ पैर पटकते रसोई में गई जैसे कि उसका पूरा जोड़ घटाव गड़बड़ा गया हो। तभी तो पाँच रुपिया काट लिया जालिम ने और गाती फिर रही है कि दो आदमी का खाना खा लिया। अगर माई भी सेठ की तरह बहकावे में आ जाती है तो आ जाये! उसे अब परवाह नहीं। सौ बातों की एक बात यह है कि यह पाँच रुपया उसके खाने का मोल है और उसका पेट अभी भरा नहीं था।
पेट के इस उलझेड़े में डूबा रहने से उसे हरबर्ट बन्धा की चढ़ाई का गुमान भले ही न रहा हो लेकिन उसकी बन्द मुठ्ठी, पाँच के सिक्के के वजूद को सदैव ही महसूसती रही। चढांई जहाँ से शुरु होती थी वहीं से गन्दा नाला बन्धे से सड़क से लग कर चलता था। उसने इधर उधर देख कर सिक्का नाले की ओर लुढ़का दिया। फिर कलाबाजी खाते हुये, नाले में गिरने से ऐन पहले सिक्के को लपक लिया और उल्टे पाँव उस रास्ते दौड़ चला जिस रास्ते चल कर आया था। कुछ उसकी बेकली ने और कुछ रास्ते के ढलुवेपन ने, उसे उस जगह झटपट पहुँचाने में कोई कसर न छोड़ा जहाँ पहुँचने की तमन्ना वह महीनों से पाले हुआ था। उसने ठेले वाली की हिकारत भरी नजर को अपने से परे हटाया और अपनी मुठ्ठी खोलकर सिक्का उसे दिखलाया।उसे यह भी कहने की जरुरत न पड़ी कि क्या चाहिये कितनी चाहिये और अगले क्षण ही वह खाने वालों की पात में शामिल था।
पत्ता गोभी का कचर कचर तो उसे रास नहीं आया। लेकिन तीन चार शीशी से जो चटनी मसाला छिड़का था उसी से चटपटा बना होगा, उसने अनुमान लगाया। पाँच रुपया में पेट नहीं भरेगा यह तो तय था लेकिन स्वाद तो मिल ही गया। अब जब भी इधर से गुजरेगा, चखन पिपसिया तो नहीं रहेगा। आज सारा दिन खराब खराब गुजरा बस यही एक बात है जिसे याद कर मन में गुदगुदी होगी। भले ही पाँच रुपये खर्च हो गये और इसके लिए माई से दो बातें सुननी पड़ेगी। पर माई का क्या वह तो पाँच रुपया पाने के बाद भी बक बक करती
' काहे देर हो गया रे ? '
' का? बरतन मंजले ?'
' अरे बौड़मवा! काहे बरतन के हाथ लगाया?'
यह थोड़ी न देखती कि थका हारा आया था फिर उल्टे पाँव सेठ के पास भागा था। उसे क्या मालूम नहीं होता कि शेर के मुँह से निवाला खींच कर लाया है। चाय की प्यास लेकर गया था। उसे याद भी होगा! अगर याद दिलाएगा भी तो उसी के मत्थे मारेगी-
' अच्छा चाय पीबे! चल चइला सुलगा!'
अच्छा किया कि पाँच रुपया का चाऊमीन खा गया। अब वह यह तो जान गया कि सेठ का लड़का खाते वक्त जो सुड़ुक सुड़ुक करता है वह उसकी बदमासी है। चटपटा तो है यह, लेकिन इतना हल्ला करके खाने वाली चीज नहीं है। वह तो उसे खुलेआम चिढ़ाता है। और जब वह उसे ललचाई नजरों से देखता है तो और लम्बी लम्बी सुड़ुक मारता है। आज कम से कम उसकी सुड़ुक का राज खुल गया। पाँच रुपये गये तो गये! माई पूछेगी तो बोल देगा-
' नहरी में गिर गईल।'
माई कहेगी-' खा किरिया!'
तो वह किरिया खा के बक देगा-' हाथ से छूट कर नहरी की ओर लुढ़ुक गया।'
बस्स! माई क्या कर लेगी ? ज्यादा से ज्यादा एक दो थप्पड़ लगा देगी। वह तो वैसे भी आये दिन लगा देती है। अभी उस दिन ही लगाया था जब उसने गांव जाने की जिद पकड़ ली थी। उसे क्या मालूम था कि गांव जाने के नाम उसे दो तीन चांटे फोकट में मिल जायेगें।
' जब देखो तब गांव का माला काहे जपता है रे! का रखा हैे गांव में ?, खेत ? घर ? दुआर? , ढोर ? डंगर ? ......'
फिर एक चांटा!
' बार बार भूल जाता है कि, छोटकुवा जब बीमार पड़ा था तो कउन आया था बचाने? कउन दिया था पइसा ? अरे मतलबी तू चाहे कि तोर माई बाऊ ताउम्र भुंइहरवा के बेगारी करे!
फिर एक चांटा
यदि चांटा मारने पर उतारू न होती तो माई से कहता भी-
' ए माई, उहाँ स्कूल भी तो बा! बीमारी से बचे खुचे दोस्त भी .....'
लेकिन कुछ तो डर के मारे, और कुछ इस यकीन से कि क्या माई को न मालूम होगी यह बात, वह चुप्पी मार लेता था। अगर न मालूम होती तो चिढ़ के चांटा क्यों मारती ? स्कूल का नाम सुनते ही माई फनफना जाती है। निनकूवा स्कूल चला जायेगा तो उसके साथ काम पर कौन जायेगा। आठ घर पकड़ रखा है उसकी माई ने! अकेले है उसके बस का? वह तो बर्तन माँजते माँजते हाँफने लगती है। झाड़ू पोंछे का काम तो हा घर में निनकू को ही निबटाना पड़ता है। तब जाकर माई को पूरी मजूरी मिल पाती है। नहीं तो बाऊ की तरह वह भी किलसती रहती कि फलाने ने मजूरी मार ली, फलाने ने बेगारी करवा ली या फलाने ने मजूरी के बदले घुन्न लगा अन्न थमा दिया। निनकू को तो सारा झोल बाऊ के साईड ही दिखता है। अगर बाऊ ठेकेदार से पूरी मजूरी ले आता तो भला माई को इतने घरों में बर्तन माँजने पड़ते ? उसने माई को तो एक दो बार बाऊ से कहते सुना भी था कि जब पूरी मजूरी नहीं मिलती तो ठेकेदार एवम् मिस्त्रा का पुछण्डी पकड़ कर काहे घूमता है। लेकिन जब बाऊ झल्ला कर उस पर बरस पड़ा तो माई ने अपना मुँह सिल लिया। निनकू को क्या याद नहीं है, जब उसका बाऊ सुबह मुँह अँधेरे गांव से निकल जाता था धर्मशाला बाजार में! तब महीने में बीस दिन शाम को ऐसे ही घर लौटता था जैसे डंगरों के मेले से कोई डंगर बिना बिके लौट आता है। जब उसे याद है तो माई को न याद होगी यह बात? ठेकेदार के चेलाचाली में आकर रोज शाम को दो पैसा तो आ जाता है। नहीं तो माई को चार घर और पकड़ने पड़ते और उसे उतने ही घर और झाड़ू पोंछा लगाना पड़ता । इसीलिए ने तो माई बाऊ ने नदी इस पार डेरा जमाया था कि पूरे कुनबे को काम मिल सके । रही बात इन्सेफिलेटिस से डर कर गांव छोड़ने की बात, तो बाकी लोगो ने गांव क्यों नहीं छोड़ा ? सन्तबली के तो दो बच्चे इन्सेफिलेटिस से मर गये थे , उसने तो नहीं छोड़ा गांव! सन्तबली ही क्या! जब वह बाऊ के साथ छोटकू के किरिया करम के लिए मुर्दघाट गया था तो वहाँ सिर्फ वह और बाऊ ही थे क्या ? वहाँ तो अपने अपने बच्चों को गाड़ने वालों की भीड़ लगी थी। तो क्या सभी ने गांव छोड़ दिया? और क्या नदी इस पार बीमारी नहीं आयेगी?
उसकी माई को नदी के दोनों ओर मुसीबतों के पहाड़ एक जैसे न लगतें हो पर उसे तो दोनो तरफ की दुनिया एक जैसी लगती है। बल्कि कभी कभी तो इस पार का नरक ज्यादे ही भयावह लगता है। गांव में तो उसके जिम्मे इतने तकलीफ वाला काम न था। कभी गाय गोरूं के नाद को चारे से भरना होता या कभी उनके गोबर के गुइंठे बनाने होते या ऐसे ही काम जिन्हे वह सगीं साथियों के साथ खेल खेल में कर देता था। लेकिन यहाँ पर तो दो पैसा देने के बदले हरामी सब खून निकाल लेते हैं। तिस पर उसके पल्ले ढेला नहीं पड़ता। माई बाऊ पहले से ही हिसाब लगा कर बाट जोहतें हैं। अभी उसकी माई बाट नहीं जोह रही होगी क्या? अगर उसके हाथ में पाँच रुपया होता तो वह भी उस तरह झपट्टा नहीं मारेगी जिस तरह सेठानी ने मारा था? सेठानी ने भले ही तेल निकाल लिया था पर आखिर में दिया न रुपिया ! पर माई ? उसके सामने तो अँधेरा ही छा जायेगा जब उसे पता चलेगा कि उसकी मुठ्ठी खाली है। ऐसे में अगर उसे पता चलेगा कि पाँच का रुपया उसके पेट में गया तो उसका पेट ही न फाड़ डाले। तब नदी इस पार के लौण्डे और भी चहकते फिरेगें कि देखो उनकी बात सही निकल गई , और मोटू सेठ की पेट आखिरकार फूट ही गई।इसके बजाये अगर सिक्का नाली में गिर जाता तो यह उसके लिए कम कुपित वाली बात होगी। अब और अधिक सोचना ही क्या है ? वह तो यही बोलेगा-' नहरी में बुड़ गया ।'
माई अगर शुबहा करेगी तो किरिया खा लेगा
' तुहार किरिया माई! हाथ से गिर कर नहरी की ओर लुढ़ुक गया।'
बस्स! आगे कुछ नहीं सोचना विचारना है। अब वक्त ही कहाँ था। सामने चटक रगों के दो घरों के बीच, गेरू एवम चूने से पुती उसकी कोठरी जो दिखनी लगी थी। दो कदम आगे और बढ़ा तो घर के मूके भी दिखने लगे थे। अरे, दरवाजे के सामने माई बैठी है क्या? हाँ , माई ही तो है! उसको जो रही है। उसको नहीं, पाँच रुप्ये को जोह रही है। वह सिहर गया।
' अबहिन आ रहा है रे!'
' बरतन कउन माँजता ?' उसने तपाक से जवाब देकर माई का मिजाज ठण्डा करना चाहा
' तू पइसा लेकर भाग आता न!'
' कइसे भाग आता ? झपट्टा मार कर रुपइवा छोर लिया न सेठानिया ने! कुल्ही बर्तन पर राख रगड़वा के ही दिया पईसा।'
वह अपने दोनों हथेलियों को सहला कर अपनी थकान का इजहार करने लगा।?
' अरे मोर बबुआ!' माई लाड़ जताते हुए उसे अपने सीने से चिपटाये जा रही थी और वह हिसाब लगा रहा था कि माई की नौटकीं कितने देर की है।
' भगौना में चाय बा जा जाके पी ला। अबहिन गरमे होगा।'
माई जितना लाड़ जताये जा रही थी भीतर ही भीतर वह उतना घुटता जा रहा था। अब माई बन्द भी करे यह नौटकीं और सीधे सीधे मतलब की बात पर आये।
' कहाँ बा रे!' और माई आ ही गई मतलब की बात पर और उसकी हथेली को गौर से देखने लगी ' कहाँ छुपाया है रे?'
' का ?' थोड़ी नौटकीं उसने भी करनी चाही।
' पइसवा, अउर का!'
' नहरी में गिर गईल।'
' का.......!'
माई का गला भी उसी तरह अटका जैसे कि सेठानी का उस वक्त अटका था जब उसने सेठानी का उस वक्त अटका था जब उसने माई के न आने वाली बात बताई। जैसे दोनों के गले में पाँच का सिक्का अटक गया हो।
' अरे कहाँ गिर गईल रे ? उठाइले काहे नाही रे?'
' खोजली तो खूब! मगर नाहीं मिला!'
' अरे मोर माई रे! ' माई माथा पीट कर स्यापा करने लगी ' अरे उहाँ छोड कर यहाँ काहे आ गया, बकलोलवा? 'केहू देखा तो नहीं ?'
' नाही। '
' चल मोरे साथ! ' माई ने उसे जोर से खींचा। वह तैयार न था, इसलिए गिरते गिरते बचा।
' ऊपर से खोईया उठा अउर चल मोरे संग '
माई ने टिनहे छत पर काफी देर से सूखते हुये गन्ने की खोईयों की ओर इशारा किया । वह चुपचाप अन्दर गया और अन्दर से बाल्टी लाकर औंधा रख दिया।
' दुआरे पर पइसा के पेड़ लगा है न! धन्ना सेठ बनकर येहर वेहर लुटावत चलत है।'
वह माई की लानतें सुनता हुआ बाल्टी पर चढ़ कर खोईयों के ढेर तक अपना हाथ पहुँचाने की कोशिश कर रहा था। जैसे ही एक खोई उसक हाथ के पहुँच में आया उसने उचक कर उसे खींच लिया। बाल्टी अन्दर रख आकर वह खोई को पटक पटक कर उसकी गर्द निकालने लगा।
' अब साफ का करत है! नहरी में त घुसेड़क बा!'
अब जाकर पता चला कि माई ने खोई को क्यों उतरवाया है। अब वह इस खोई से बेमतलब कीच को मथेगा।
'पाँच रुपया उहाँ गिरा दिया अउर लाट साहब की तरह हाथ झुलावत चल आया। नहरी में हाथ थोड़ी न डाला होगा।'
' खूब खोजली माई, खूब। येहीलिए तो देर हो गया।'
कराहते हुए सा बोलकर उसने माई की सहानुभूति बटोरनी चाही।
' आसपास केहू था तो नहीं? ' माई ने दरवाजे पर चुटपुटिया ताला लगाते हुए एक बार फिर पूछा।
' नाहीं।'
' तो चल ।'
माई आगे आगे चलने लगी और वह पीछे पीछे।
' तू आगे चल।' उसने ठहर कर निनकू को आगे निकल जाने दिया।
निनकू आगे आगे चलते हुए सोचने लगा कि झूठ बोल कर वह अच्दी मुसीबत में फँस गया । वह कब तक नाले को खंगालता रहेगा। माई तो पाँच रुपया लेकर ही मानेगी। इससे अच्छा तो दो तीन चांटे ही खा लिया होता। उसने एंठी हुई गन्ने की खोई को सीधा करक लम्बा कर लिया फिर सड़क पर सरसराते हुए इसे खींचते हुए आगे आगे पाँव फेकते हुए चलने लगा। उसके पीछे पीछे माई न जाने क्या क्या भुनभुनाते हुए चली आ रही थी । वह सुनने की कोशिश नहीं कर रहा था , इसलिए ठीक ठीक उसे सुनाई भी नहीं दे रहा था । पर जोर जोर से बोले जाने पर ' हाय माई' , 'मोर माई' यदा कदा उसके कानों में पड़ रहे थे। निनकू इस उलझन में पडा था कि वह तो सुबह से ही खट्टू बना है, पर वह किसे याद करे।
' काहे ठहर गया ?'
उसे जरा देर के लिए खड़ा देखना भी माई को बर्दाश्त न हुआ। हलॉकि वह वहीं खड़ा था जहाँ से उसे एक असम्भव कार्य को अन्जाम देना था।
' यहीं तो गिरा था! '
उसने अपनी ऊंगली नाले की ओर तान दी। उसकी माई झुक कर देखने लगी ।
' लेकिन अब होगा थोड़े न, बह गया होगा ।'
' चुप बकलोल ! कउनो कागज पत्ता है कि बह गया होगा ! कहाँ गिराया था, ठीक से बता!'
निनकू ने फिर ऊंगली तान दी।
' एक जगह बता न! कब्बो एहर कब्बो ओहर! माथा पर जोर देकर याद कर।'
याद कहाँ से करता। फिर भी इस बार अड़ा रहा।
' यहीं....यहीं...पक्का! इहाँ से लुढ़का अउर उहाँ जाकर गिरा। हाँ ....हाँ बिल्कुल... ये ही जगह!
अब सिक्के को नाली में गिरने में कोई शुबहा न रहा। लेकिन निनकू को डर इस बात का था कि कहीं माई इस बात की की किरिया न खिला दे कि सिक्का ' यहीं' ' गिरा है। इसलिए यह नौबत आने से पहले ही निनकू खोई से नाल की कीच को हिलाने डुलाने लगा। माई के चेहरे पर तसल्ली का भाव देखने की गरज से उसने अपनी गर्दन हल्की से तिरछी की। उसकी माई चौकन्नी होकर इध्र उधर अपनी गर्दन घुमाये जा रही थी। फिर ढाल की दिषा में एकटक देखने लगी। उसने माई के चेहरे पर तसलली के बजाए आषा का दुर्लभ भाव देखा। उसने भी खंगालना छोड़ कर उधर की ओर ही निगाह कर ली। ढाल पर म्यूनिसिपिलटी का जमादार नूरे अपनी कूड़ागाड़ी को गड़र गड़र ढकेलता हुआ ऊपर चला आ रहा था।
' अच्छे बखत नूरे आ रहा हैं।' उसकी माई बुदबुदाई और नूरे मय ठेले पास आ गया
' का हो भौजी ?' उसकी माई को अपनी ओर घूरता देख कर नूरे ने अपनी चाल धीमी कर दी।
' तनिक बेलचवा देबा।'
' बेलचा ? का होई ?'
' अरे, इ लंठवा, सिक्का नहरी में गिरा दिया! ' माई को अपनी ओर इशारा करते देख निनकू फिर अपने काम पर लग गया।
' अच्छा ! सोना कि चांदी के ? '
नूरे ने मसखरी की तो उसकी माई झेंप गई।
' अरे बोड़मवा! सहबगंज मण्डी में दुकान है मोरा ? नदी ओ पार दस एकड़ खेत है मोरा ? दुआरे दर्जन भर ढोर ढंगर बन्धे है ? बेलचा दा, मसखरी मत कर।'
' हम बेलचा अब नाही देब भौजी। हम धो दिये है इसे।'
' तू फिकर मत कर! हम धो देब.....'
उसकी माई ने नूरे के कुछ और बोलने के पहले ही लपक कर कूड़ेगाड़ी से बेलचा उठा लिया और नूरे को आँखे दिखा कर डपट लगाया-
' अब चल फूट इहाँ से! सवाल जवाब बाद में करिये।'
' कमीसन देबू न! अच्छा चल, तू एक कप चाय पिला दिहे।'
' अच्छा, पाँच रुपल्ली में तू दु रुपिया के चाय पीबे!'
' अव्छा चल, रामसमुझ से एक खुराक तमाखू खिला दिहे।'
' ओफ्ओ! परे हट! गोखरू की नाई चिपक गया है, घूसखोर, सरकारी मुलाजिम!'
उसकी माई उसे बेलचा मारने को दौड़ी तो वह दाँत दिखाते हुए, कूड़ेगाड़ी को ठेलता हुआ भाग खड़ा हुआ। वह भागते हुए भी वह उसे छेड़ने से बाज नहीं आ रहा था। लेकिन माई अब नूरे की ओर से घ्यान हटाकर उसकी ओर लगा दी थी।
' ले बेलचा! '
निनकू अभी गन्ने की खोई से कीच हिलाने डुलाने को ही मुसीबत माना हुआ था। बेलचा देखकर और भी पस्त हो गया। माई ने किसी भी हालत में नाले से सिक्का निकालने को ठान ली है। वह बेलचा लेकर नाले में कीचड़ हिलाने डुलाने लगा।
' कीच हिला कर मक्खन बना रहा है का ? बाहर निकाल कीच ! '
जितना बड़ा निनकू नहीं उतना बड़ा बेलचा! उससे भी बड़ा उसका जिम्मा! उसने पहले प्रयास में जितना कीचड़ निकाला उसे देख कर माई भड़क उठी -
'काहे कउआ हगन कर रहा है ? आधी रात लगइबे ? हल जा, नहरी में नूरे की नाई।'
निनकू नूरे का कीचड़ निकालना याद करने लगा। नूरे जब नाले से कीच निकालता था तो आसपास के बच्चों की भीड़ लग जाती थी। कुछ बच्चे ऐसे भी होते जो किनारे ढेर लगते कीचड़ पर आँख गड़ाये रहते और कोई काम की चीज दिखते ही झपट्टा मार कर अपने बोरे में रख लेते। कभी कभी इन बच्चों में लड़ाई भी होने लगती थी। जब वह इस तमाशे मजा ले रहा होता था तो एसे में उसके माई या बाऊ उसे खोजते खोजते आ जाते। माई होती थी तो डॉट लगाती थी -
' का रे, इहाँ काहे खड़ा है ? चल दूर हट छींटा पड़ जायेगा!'
और अब इसी माई की हुक्म तामील करते हुए वह नालें में पैर बुड़ाये खड़ा था। वह अक्सर नंगे पाँव ही डोलता रहता था , फिर भी उसे महसूस हो गया कि नूरे के तलवे जरुर पत्थर जैसे सख्त होंगें तभी वह आराम से , नाले में नंगे पैर डाल कर कीचड़ निकालता था। उसे तो पैर डालते ही तलवे में चुभन होने लगी। ऐसा लग रहा था मानो वह लालडिग्गी पार्क की चहरदीवारी पर खड़ा हो जिस पर कॉच के नुकीले टुकड़े जड़ें हों। उसनी पूरी ताकत लगा कर बेलचा अन्दर धॅसाया। बेलचे का फल तो पूरा का पूरा अन्दर धॅस गया था। लेकिन उसे मय कीचड़ उठाने को जितनी ताकत की जरुरत थी वह दरअसल उसके पास थी ही नहीं। उसने हिला डुला कर बेलचा से उतना ही कीचड़ निकाला जितना आसानी से निकल सकता था। जब उसने तीन चार बेलचे कीचड़ निकाल कर किनारे ढेर लगा दिया, तब उसकी माई गन्ने की खोई से कीचड़ कुरेदने लगी।
इस समय उसकी माई हुबहू कूड़ा बीनने वाली औरत लग रही थी। छि: माई, छि:! अब तेरे पीछे भी कुत्ते भौंकेगें!
लो, अब तमाशा भी लगना शुरु हो गया। रामकिशोर खुद तो आ ही रहा है, कम्बखत, दो तीन चिंल्लरो को भी खींचता चला आ रहा है। उसकी माई की चढ़ी हुई त्योंरियां देख कर तो उससे कुछ पूछने की हिम्मत न हुई होगी। उसकी माई वैसे भी, अपने गुस्सैल स्वाभाव के कारण बदनाम थी। इसलिए वह अपनी आँखे एवम् भवें हिला कर, निनकू से ही माजरा जानने की कोशिश करने लगा।
' का है रे!' उसकी माई ने निनकू को रुका देखा तो रामकिशोर को झिड़क दिया। रामकिशोर सकपका गया फिर चापलुसियाना स्वर में पूछा-
' का हेराइल बा, चाची ?'
' तुहार माई के करधन, बेटा!' माई ने उसको उसी के लहजे में जवाब दिया तो रामकिशोर का मुँह उतर गया। वह चुप्पी मार कर वहीं पर दोजानू बैठ गया।
उसकी माई ने रामकिशोर को तो चुप्प करा दिया। लेकिन सड़क उस पार से, बन्धा की चढ़ाई चढ़ती अब जो रामसमुझ बो ( रामसमुझ की बीवी) चली आ रही थी, क्या उसे भी इस तरह झिड़क देगी ? रामसमुझ कोइरी है, और लालडिग्गी चौराहे पर, पीपल के चबूतरे से सट कर, सुर्ती, चूना वगैरह बेचता है। वह बाऊ के लिए तमाखू लेने कई बार उसके ठिए पर जा चुका है। रामसमुझ-बो को भी तमाखू की लत पड़ चुकी थी और उसके मुँह चलाने के तरीके से ही पता लग रहा था कि तमाखू की एक खुराक अभी भी उसकी दॉतो एवम ओंठ के बीच अटका है।
' का गिरा है, निनकू की माई ? '
निनकू के कान खड़े हो गए कि देखें अब उसकी माई इसे क्या जवाब देती है ।
' का बतायें रामसमुझ बो। इ है पूरा बउक। पाँच का सिक्का नहरी में गिरा दिया।
निनकू ने ठीक ठीक सुना। बता ही दिया इसे! इसे नहीं झिड़का। आखिर, नाले में झक मारने की वजह नहीं बतायेगी तो झेंप कैसे मिटेगी।
' हे राम!' रामसमुझ-बो ने दया क्या दिखलाई उसकी माई के जख्म हरे हो गए। वह तड़प कर निनकू से बोली -
' खोज रे खोज, पाँच के सिक्कवा ! '
' पाँच के सिक्का है चाची! '
सारे चिल्लरो को एकाएक सुराग मिल गया और वे फटाफट नाले के किनारे किनारे फैल गए। नाले में आँखे गड़ाये वे इस तरह से चहलकदमी का रहे थे जैसे निनकू की उन्हे बहुत फिक्र हो। जबकि असल बात निनकू जान रहा था कि उन्हे उसकी को फिक्र विक्र न थी। वे तो उसे नीचा दिखा कर उसकी माई से शाबाशी चाहते थे।
' चाची, मिल गया! उहाँ है! '
अचानक रामकिशोर चिल्लाया तो निनकू को छोड़ कर सारे बच्चे उधर बढ़ गये। रामकिशोर की ऊँगली अभी उधर तनी थी।
' तू ठूठ बन कर उहाँ काहे खड़ा है ? बेलचा लेकर इहाँ आ!'
माई अब इसी बात से चिढ़ गई थी कि जब सब उधर चले गये थे और सिक्का भी उधर है तो वह अपनी जगह पर क्यों खड़ा है। जबकि निनकू के लिए, बेमतलब वहाँ जाना, वह भी बेलचे को लिए दिए, एक अतिरिक्त परेषानी वाली बात थी। पर माई की धौंस क्या न करवा दे। वह मन मसोस कर , नाले नाले चलता हुआ उधर की ओर बढ़ा। वहाँ पहुूच कर उसकी आँख फेल गई। यह तो चमत्कार है! शाम तो हो गई थी, लेकिन अँधेरा नहीं था कि निनकू की आँखे धोखा खा जाए। बिल्कुल पाँच के सिक्के जैसा गोल! अगर ऊपर से कीच की परत हट जाये तो पाँच का सिक्का चमक उठेगा। निनकू के मन में सवाल उठा कि कौन होगा बौड़म, लंठ, बकलोल और न जाने क्या क्या जो पाँच के सिक्के को नाले में टपका कर भूल गया होगा।
उसने उत्तेजित होकर बेलचे से उस सिक्के तैसे गोल चीज को बाहर निकाला तो सभी 'धत् धत्' करने लगे।
' इ तो सीसी के ढक्कन है! '
यह तो होना ही था! किसी और को तो नहीं , पर उसे पूरा यक़ीन था। जिसने यह सिक्का टपकाया होता तो भला उसकी माई ने छोड़ दिया होता। अगर उसके हाथ से सिक्का छूटकर, लुढ़कते लुढ़कते नाले में गिर जाता तो वह उसी वक्त नाले में न कूद जाता! नदी इस पार के लौण्डों ने उसकी मदद करने के बहाने उसे पधा ही डाला। वह चोट खाये साँप की तरह फुफकारी मारता हुआ, उन लौण्डों पर नजर डालता है। जरा उनकी ढीठपना तो देखो, वे अभी खुसर फुसुर कर रहे थे।
एक बोला- ' उ का है रे!'
दूसरा बोला- ' उहाँ देख '
वह हर बार माई की ओर देखता, उसके इसारे पर ही वह बेलचा लेकर उधर ही भागता। कोई बड़ा बूढ़ा कहता कि 'येहर भी बेलचा घुमाओ।' तो वह माई के इशारे की प्रतीक्षा किये बगैर, वहाँ भी बेलचा घुमाता। एक जगह कलुवा और बासिल उलझो हुए थे। कलुवा ने एक जगह इशारा किया था लेकिन पास खडा वासिल उसकी बात काट रहा था।
' उ पाँच का सिक्का नहीं है बे! हम पाँच का सिक्का देखें हैं। दु अठन्नी साट दो तो पाँच का सिक्का तैयार हो जायेगा। नया नहीं पुराना अठन्नी! हमरे घर तीन चार गो पुरनका अठन्नी है........'
तेरे घर खूब अठन्नियां होगी। निनकू ने मन ही मन कहा। उसे पता था कि वासिल का अब्बू कम्पनी वालों की ओर से बीड़ी बनाता हैं ं उसका अब्बू ही क्या, उसने तो पूरे परिवार को बीड़ी बँटते देखा था। वासिल का अब्बू पचास पैसे के चार बीड़ी आसपास के लोगों को इस चालाकी से बेचता था कि उसका हिसाब नहीं बिगड़ता था। वासिल जब भी बाजार जाता था तो उसकी मुठ्ठियां अठन्नियों से भरी रहती थी। उसने कई बार दुकानदारों को वासिल से उलझते देखा था।
' कौन लेगा अठन्नी रे! चल भाग! '
एक बार तो निनकू के सामने ही एक दुकानदार ने वासिल को झिड़का था-
' क्यों बे! इस जुम्मे को कौन सी मसजिद के पास तुम्हारा अब्बू कटोरा लेकर बेठा था! '
एक वाकया तो उसने देखा नहीं पर सुना था कि किसी दुकानदार ने गुस्से में वासिल की मुठ्ठी झटक दी जिससे सारी अठ्ठन्नियां नाली में गिर गईं थी।फिर तो ढिबरी लेकर रात भर वासिल, उसके अब्बू अम्मी, एवम् छोटा भाई तब तक लगे रहे जब तक एक एक अठन्नी निकाल न ली। वासिल की आँखों में, अठन्नी और इस लिहाज से पाँच के सिक्के की साईज सध गई होगी, यही सोचकर कलुवा शात हो गया होगा और इसीलिए माई ने उस ओर से ध्यान हटा लिया होगा। इसका फायदा निनकू को यह मिला कि उसके हिस्से एक काम कम हो गया। लेकिन कोढ़ फूटे इस राम किशोर को , जिसे पाँच के सिक्के की माई से ज्यादा फिक्र थी।
' ऐ निनकू तनिक देख रे! उ का लउक (दिखना) रहा है..... गोल गोल!......'
राम किशोर केवल बुदबुदाया भर था। जैसे वह खुद ही बता देना चाह रहा हो कि उसका दावा पुख्ता नहीं है। लेकिन निनकू ' हाँ हाँ करते हुए रामकिशोर की ओर आ गया। उसने दूर से ही तय कर लिया था कि इस चौकड़ी को कैसे सबक सिखानी है। उनका आपस में देर तक उलझे रहना उसके लिए फायदेमन्द ही रहगा। उसने बेलचे को कीचड़ से लबालब भर लिया। फिर काफी ऊपर तक उठा कर छपाक से किनारे उलीच दिया। अब वह देखेगा तमाशा और लेगा मजा! वह कीचड़ निकालने के बहाने फिर झुका और अपनी दोनों टाँगों के बीच से उन पर निगाह डाली। कोई हाथ पोंछ रहा था तो कोई पैर। एक चुपके से अपने ओंठ को घुटने से रगड़ा रहा था। अगर उसका मुँह खुला होगा तो मुँह में कीच जरुर घुसा होगा। उसके कलेजे को तरावट मिली। ये लौण्डे अक्सर उस पर उस पर कीचड़ उछाला करते थे। आज चखा दिया उसने उन्हे खालिस कीचड़ का स्वाद!
' अब उहाँ बगुला काहे बन गया है ? '
उसे काफी देर तक निहुर कर मजा लेना भी माई को रास न आया। वह बेलचे को नाले में ऐसे ढकेलता हुआ बढ़ा जैसे नूरे अपने कूड़ागाड़ी को ढकेलता है। जब उसे खींस चढ़ती है तो ऐसी ही ऊल ज़लूल हरकतें करता है।
' थक गया बेचारा।'
पहली बार किसी ने उस पर तरस खाया। हँलाकि यह उसी रामसमुझ की बीवी थी, जिससे उसने एक बार अपनी बन्द नाक को छींक लाकर खोलने के लिए तमाखू सुॅघाने के लिए चिरौरी की थी और जिसने केवल इसी बिना पर मना कर दिया था कि उसके पास उस वक्त पैसे नही थे।
' कब तक नाले में हला (घुसा) रहेगा ? '
उसकी माई ने मुँह नहीं खोला। जबकि उसके कान कुछ मन माफिक जवाब की आषा में उधर ही तने थे।
' इसका बाऊ कहाँ है ? उ काहे नहीं आया ? ' पीछे से न जाने किसने उस पर तरस खाई थी निनकू न तो उसे देख ही सका और न ही उसकी आवाज पहचान पाया।
' तू हमें जग के सामने जुल्मी साबित करने चली है? इसका बाऊ होता घर में तो आता नहीं इहाँ ! निनकू की जगह वही हला होता नहरी में कि घर में बैठ कर आराम कर रहा होता। आ, तेरी साड़ी घुटने तक मोड़ द अउर तू हल जा नहरी में.....'
हँसी की एक धारा फूट पड़ी, जो नाले के किनारे किनारे बहने लगी।
' बाऊ घर में बैठ कर खटिया तोड़ रहा है? या दारू पीकर तेरे मरद की तरह उल्टी कर रहा होगा ? जानती नहीं है क्या कि जब लिण्टर पड़ रहा होता है तो मिस्त्री लोग का रात भर का काम रहता है! '
अब निनकू का जी हँसने को चाहा। मिस्त्री! अगर उसका बाऊ मिस्त्री होता तो वह इस गन्दे नाले में गोता लगाता? लेकिन नदी इस पार के लोगो के लिए उसका बाऊ मिस्त्री ही है। अब कोई माई से यह पूछे कि अगर बाऊ मिस्त्री है तो बरसात में टीन के किनारे किनारे से पानी रिस कर नीचे क्यों आता है? लोंगो को दिखाने के लिए कहीं से जंग खाई करनी और छिला कटा गरमाला का जुगाड़ कर घर में रख लिया है । बारिष के समय मसाला लेकर ऊपर चढ़ जाता है और करनी और गरमाला से छप् छप् करता रहता है। ताकि राह चलते लोग उससे पूछे
' ऐ मिस्त्री! का हो रहा है ?'
और कान में 'मिस्त्री' शब्द पड़ते ही माई बाऊ गदगद्!
' कब तक ढूढ़बू हो निनकू की माई ? ' किरपाल की पतोहू ने आखिर हिम्मत करके पूछ ही लिया
' अरे जब तक उजास है तब तक आस है।'
माई की जिद सबके मशवरे पर भारी पड़ेगी यह बात सारे लोग जाने या न जाने, निनकू को अच्छी तरह मालूम था। लेकिन इस जवाब से उसे अच्छी तरह मालूम चल गया कि उसे कब तक झींख मारना होगा। अँधेरा होने में भले ही अभी कुछ देर हो , लेकिन माई के इस जवाब से क्षण भर के लिए उसके आँख के सामने अँधेरा छा गया।
' अरे निनकुवा ढोला रे!'
एक लड़का चिल्लाया तो सबका ध्यान उसकी टाँग की ओर चला गया। एक दुमदार ढोला रेंगते रेंगते उसके घुटने के ऊपर तक चला आया और उसे पता ही न चला। अगर इस लड़के ने बताया न होता तो न जाने कहाँ घुस जाता। उसे टाँगों में खुजली तो हो रही थी लेकिन ऐसी खुजली तो उसे जब तब देह भर में होती रहती थी। पहले वह एकटक ढोले को रेंग कर ऊपर चढते हुए देखता है। मुआ खुद तो मस्ती में झूमता हुआ ऊपर चला जा रहा था और अपने साथ लाये कीचड़ को लकीर के रूप में पीछे छोड़ता जा रहा था। जैसे पीछे लौटने का रास्ता न भूल जाये। उसने दूसरी टाँग उठा कर जॉघ तक पंहुच चुके ढोले को हटाया। इस कोशिश में उसका सन्तुलन थोड़ा बिगड़ा और नाले में गिरते गिरते बचा।
' का भौजी! लैण्डा के जान लेबू का? '
उसने कीचड़ फेंकते हुए निगाह डाली। उसका अनुमान सही निकला । ऐसी कड़कदार आवाज हरिया की ही हो सकती थी। हरिया की उसके बाऊ से बीड़ी खैनी की यारी थी। उसक माई को वह ही ऐसे डपट सकता था।
' शहर के कचरा से पूरा नाला पटाया है उ में तुम्हारा पाँच का सिक्का मिलेगा ? देख मार कोका कोला अउर पानी के बोतल, चीप अउर मैगी के खोखा......'
हरिया ने किनारे ढेर लगे कीचड़ पर बिखरे कचरे की ओर इशारा किया तो उसने भी एक काक दृष्टि डाली। उसे विश्वास ही न हुआ कि उसने इतना कीच निकाल दिया है और कीच के साथ इतना कचरा निकाल दिया है कि हरिया की सामान की लिस्ट लॅगूर की पूॅछ की तरह लम्बी होती जायेगी । लेकिन इतनी लम्बी लिस्ट में हरिया ने एक दो के नाम भी छोड़ दिये थे। जैसे शुरू में नाले से उसने दो तीन दारू की बोतलें भी निकालीं थी। जो या तो टूटी फूटीं थीं या कीचड़ की तह से ढक गए थे इसलिए हरिया ने उसका नाम नहीं लिया होगा। सबसे ज्यादा तो उसने अस्पताल से मुफ्त बँटने वाला गुब्बारों को निकाला था जिसे जब नदी पार के बच्चे फुला कर खेलते थे तो बड़े बूढ़े सभी मुँह दबा कर हँसने लगते थे। हरिया ने उसका भी नाम नहीं लिया था जबकि एक तो वहीं चमक रहा था जहाँ हरिया खड़ा था। हरिया के इस भूल चूक के बावजूद उसकी धौंस में आकर माई ने जिस कदर मुँह सिल लिया था उससे और लोगों को बहुत बल मिला। दो तीन औरतें आगे खड़े तमाशाबीनों को धकिया कर आगे आईं। इनमें भी सबसे आगे रामसमुझ बो थी जो बिल्कुल नाले के किनारे पंहुच कर निनकू को पकड़ने के लिए अपना हाथ बढ़ा दिया-' आ निनकू बेटा! पकड़ ले हाथ अउर बाहर आ जा!'
उसके बढ़े हुए हाथ को देख कर निनकू को उसे लपक कर बाहर निकलने की इच्छा हुई। लेकिन वह लाचार होकर माई को देखता रहा। जैसे माई की आदेष की उसे प्रतीक्षा हो। तब वह नाले से दूर हट कर उसकी माई के पास आई हरिया की देखा देखी उसे डॉट पिलाई-
' अभी भी तुहार भेजे में बात नहीं घुसा ? सोने के अशरफी है?चल छोड़!'
' छोड़ देई! ' उसकी माई का मुँह लपट उगलने लगा ' तू देबू पाँच रुपिया? '
उसकी माई ने यह बात रामसमुझ बो से ही कही थी लेकिन सन्नाटा सबके चेहरे पर छा गया था।
' तुहार मरद तो एक रुपल्ली का उधारी नहीं लगाता! '
पैसे देने का जिक्र छिड़ते ही सभी इधर उधर झाँकने लगे थे । लेकिन सरेआम अपने मर्द की फजीहत पर रामसमुझ बो के चेहरे पर माड़ की पपड़ी सी जमती लगी। निनकू जानता था कि रामसमुझ बो कम लड़ाकन न थी लेकिन इस वक्त चूॅकि उसकी माई पर खब्त सवार थी इसलिए खम ठोकने के बजाए वहाँ से खिसक जाना मुनासिब समझा।
' पैसा देने के नाम पर फूट गई! समझ रही थी जैसे उ दे देगी तो हम ले लेगे! हमें मंगन समझ लिया था।छोड़ दें! हुँह! काहे छोंड़ दें। पाँच रुपया में एक सीसी तेल आ जाई! '
उफ् माई! अब जाने भी दो न! उसकी माई मैदान छोड़ कर भागते हुए रामसमुझ बो को भी नहीं बक्ष रही थी। जबकि वही जानता है कि पाँच रुपये में कितना तेल आता है और वह तेल कितने दिन चलता है। यह सही है कि पाँच रुपये में एक शीशी तेल आता है लेकिन उस तेल से कितने वक्त तरकारी बन पाती है! हद से हद तीन वक्त! और अगर गोष्त पकानी हो तो एक ही वक्त पूरा पड़ता है। एक बार तो झिनक कसाई ने उसके बाऊ से थोड़ा काम कराया और बदले में मूड़ा (बकरे का सिर) थमा दिया। वह मुआ मूड़ा पूरी एक शीशी तेल पी गया और फिर भी उसके बाऊ को शीशी लेकर रात में तेली के दुकान भागना पड़ा था। उसकी माई रात भर झिनक पर भुनभुनाती रही कि कॅगाली में आटा गीला करने के लिए मूड़ा थमा दिया ।ं उसने बाऊ से साफ साफ कह दिया कि आगे से झिनक से गोष्त, गोड़ी (बकरे का खुर) या चुस्ता (बकरे की ऍतड़ी) के अलावा कुछ भी नहीं लेना है।
रामसमुझ बो आँखों से ओझल हो चुकी थी। रामसमुझ बो के जाने में उसे अपना नुकसान होता दिखा। रुपये पैसे के मामले में भले ही वह दरियादिल न हो लेकिन उसकी तरफदारी में दो शब्द बोल कर उसके बेलचे का बोझ तो हल्का कर ही दे रही थी। माई तो एक एक करके हर उस को हटा देगी जो उसके बेटे पर जरा भी रहम दिखाएगा। माई को उनके सामने कीच कुरेदने में ष्षर्म जो आ रही थी। अरे माई, इन शहराती लौण्डो को भी तो हटा! फिर दोनो मिल कर सुबह तक नाले की खाक छानते छानते राप्ती नदी पंहुच जाएगें।
' जरा देखो तो ऐसे बोलकर चली गई रामसमुझ बो कि पाँच रुपये का कोई मोल नही! '
अब उसकी माई किरपाल की पतोहू पर नजर गड़ाई थी।
' पाँच रुपया में इत्ता आटा आयेगा!'
अरे बाप रे! उसकी माई ने दोनों हाथ फैला कर कितना आटा बता दिया ? जबकि पाँच रुपये का तो घुन लगा भी उतना आटा नही मिलता। दूसरी बात, यह कि अगर उतना आटा मिल भी गया तो भी क्या वह दो दिन से ज्यादा चल पायेगा। यह उससे बेहतर कौन जानता है कि जब जब वह पाँच रुप्ये का आटा लाया है फिर फिर वह अगले दिन आटा लाया है। यह तो तब है जब माई रोटी बनाती है। अगर बाऊ का हाथ लगे तब तो राम भजो! माई क्या तू भूल गई? जब बाऊ तेरे खाने से चिढ़ गया था और तू ताव खाकर बोली थी कि जा तू ही खाना बना। तब बाऊ ने कितनी मोटी रोटियां बनाई थी! तवे पर उसने थोड़ी न बनाई थी। वह भी तैष में आ कर बोला था कि वह वैसे ही रोटियां बनायेगा जैसे काम पर दोस्तों के साथ बनाता है। फिर क्या था सीमेन्ट का मसाला ढोने वाली कढ़ाई को चूल्हे पर उल्टा लिटाया और उस पर ऐसे रोटी पाथने लगा जैसे वह नदी उस पार गांव में गोबर पाथ कर गुइठे बनाया करता था। साथ ही साथ उसी आँच पर आलू, टमाटर और लाल मिर्च भी भुनता रहा। आलू टमाटर और मिर्च के चोखे के साथ जब वह, बाऊ और माई रोटियां तोड़ने बैठे तो कब रोटी खत्म हो गई पता ही न चला। तीनों को रोटी कम पड़ गई और वे देर तक उॅगलियां चाटते रहे। यही तो चक्कर है! या तो स्वाद ले लो, या पेट ही भर लो! और माई ऐसा दिखावा कर रही है जैसे पाँच रुपये का आटा पाँच दिन चलेगा।
' पाँच रुपया कम पड़ गया था तो...'
यह अचानक माई के गले को क्या हो गया ? आवाज इतना बैठा बैठा सा हो गया! इतना चिल्लायेगी तो गला बैठेगा ही!
' डोमिनगढ़ से छोटकू को सदर अस्पताल ले गए थे......'
छोटकू का नाम कान में पड़ते ही निनकू के चेहरे पर झांई पड़ गई। अब समझ में आया कि माई का गला अचानक क्यों बैठ गया था। वह तो आठो पहर भाषण सुनाने वाली औरत है। सुनने वाला थक जाएगा पर वह नहीं। दरअसल अब माई पर छोटकू सवार हो गया है। उसने गांव में कई औरतों को देखा था। जो अपना आपा खोकर ऊलजलूल हरकतें करतीं थीं । गांव वाले बोलते थे कि उस पर देवी आ गई है। ठीक ऐसी हालत उसकी माई की हो जाती है जब उस पर छोटकू सवार हो जाता है। अभी तो माई को पाँच रुप्या खोने का ही गम था। अब छोटकू का भी गम ताजा हो गया तो इससे निनकू का कुछ नही होने वाला है सिवाए उसके लिए मुसीबतों का चट्टा और बढ़ने के। वह तो माई ओर लोंगो के बीच नोंकझोंक का फायदा उठा कर नाले में पैर लटका कर किनारे पर बैठ गया था। माई का रूप बदलते देख उसने समझ लिया कि आराम की घड़ी अब समाप्त हो चुकी है। अब उठना भी मुसीबत बन पड़ा था। ऐसे लग रहा था जैसे चावल की बोरी लादे उठ रहा हो। यूँ चावल की बोरियां भी उसने साहबगंज मण्डी में खूब उठाई है। लेकिन तब उसे उतनी तकलीफ न हुई थी।
' कुल पैसा सदर अस्पताल में ही खत्म हो गवा! रात में नौ बजे डागदर बोला कि ले जाओ मेडिकल -इसी बखत! हम उसे गोद में उठाये उठाये रिकसा से धरमसाला के पुल पर पहुँचे। उहाँ कउनो टेम्पो वाला कसाईया नाहीं बैठाया कि पाँच रुपया कम पड़ रहा है। हम घन्टा भर जोह कर, बस में धक्का मुक्की खाते मेडिकल गए। पर कहाँ बचा छोटकू......!'
माई का गला गला न रह कर फटा बॉस बन गया था। माई के साथ यह अक्सर ही होता था जब छोटकू उस पर सवार होता था। अब फटे बॉस से सिर्फ घर्र घर्र की आवाज आ रही थी।
' अरे हमार छोटकू रे, अरे हमार सोन चिरइया रे!......'
आगे क्या होना था यह सब निनकू को मालूम था। अब माई बुक्का फाड़ कर रोयेगी। बच्चों की तरह! इस तरह तो वह भी नहीं रोता। फिर सारे लोग अपना काम धन्धा छोड़ कर उसकी ओर दौड़गें। यहाँ पर किरपाल की पतोहू और फुलारे की माई उसकी ओर लपकी। दो बूॅद आँसू किरपाल की पतोहू ने और एकाध बूॅद इससे कम या ज्यादा फुलारे की माई ने चुआये होगें। उनकी गालों पर चमकती लकीर से ऐसा उसे आभास हो रहा था।
' अरे हमार छोटकू रे!...... कहाँ बाटे रे!.......'
' अरे चुप कर निनकू की माई!'
' रोने पीटने से भला कोई वापस आया है '
' देखो दाँत न लगे बेचारी के...'
लोग नाले के किनारे से हट कर उसकी माई के इर्द गिर्द इकठ्ठे होने लगे। एक तमाशा समाप्त भी न हुआ था कि दूसरा तमाशा शुरू हो गया। लोगों के लिए यह अच्छी साँझ हो रही थी। शायद रात भी अच्छी हो जाए। निनकू इस फेर में पड़ा था कि किसका तमाशा पहले खत्म होगा। माई को अपने आप में न देख कर वह जरा देर के लिए किनारे बैठ गया। उसने एक लम्बी साँस ली जो न तो चैन की थी न बेचैन की। साँड दुहने की कवायद से उसे पाँच मिनट का भी आराम न मिला था कि हरिया अब दूसरी तरह का मुँह बनाये हुए उसकी ओर चला आ रहा था।
' बेटा टैम मत खराब कर! देख अन्धेरा हो रहा है। थोड़ा मन लगा के देख ले बेटा।'
लो अब देखो! माई की रुलाई ने कैसे सबका मन बदल डाला। यही हरिया कुछ देर पहले उसकी तरफदारी कर रहा था। अब वह माई के खेमे में जा बैठा था। और अब देखो किरपाल की पतोहू को, क्या कहने आ रही है-
' निनकू बेटा तू एक जगह अंगद के नाई गोड़ जमा कर काहे खड़ा हो गया है? तनिक इधर देख, तनिक उधर देख।...'
निनकू को गुस्से में यह ख्याल आया कि वह भरे बेलचे को लबालब कीचड़ से और छोंपना शुरु कर दे इन दोंगलों के चेहरे पर! इनसे क्या क्या आस लगा कर बैठा था। अब वे उल्टे, उसके काम में ही मीन मेख निकाल रहे थे। माई की रुलाई हमेषा उस पर कहर ढाती है। इसीलिए जब जब माई पर छोटकू सवार होता है, उसकी घिग्घी बँध जाती है। अभी तक तो यह पाँच का सिक्का था, अब सोने की अषरफी बन गई थी।
जब वह पुन: ढाक के तीन पतिया वाले काम पर लगा तो लोगों ने उसे उसके हाल पर छोड़ दिया था। वह हचक हचक कर बेलचा चला रहा था। थोड़ी ही देर में ही उसने नाले का एक टुकड़ा साफ कर किनारे पर कीचड़ का ढेर लगा दिया था। र्मा अभी शोक से उबरी न थी। लेकिन उसका काम सारे तमाशाबीनो ने सँभाल लिया था। कोई गन्ने की खोई से , कोइ्र लकड़ी से तो किसी के हाथ जो लगा उसी से कीचड़ के ढेर खोदने लगा। लौण्डों के लिए एक नया खेल हो गया था
' ले सेन्ट छिड़क ले! ' एक की नजर सेन्ट की शीशी पड़ी तो उसे ठेल कर दूसरे के सामने डाल दिया - ' जब से पैदा हुआ है तब से बदबू कर रहा है।.... लगाइये और हमें भरमाइये।...टिरिंग टिरिंग ......'
' थेंकू थेकूं।' दूसरा भी कम न था , वह चाकलेट का चमकता कागज लकड़ी में फँसा कर पहले वाले के सामने लहराने लगा - ' बदले में आप खाइये मेवा मलाईदार टिक्कीवाला चाकलेट! आपकी सात पुष्तों ने नही खाया होगा।.....आह!.. यम यम यम। '
वे चहक रहे थे और निनकू कुढ़ा जा रह था। माई की मक्खन पाँलिष करने को होड़ लगी है इन लौण्डो में। करते रहो, करते रहो! न तो तुम्हे माई की ओर से कुछ इनाम मिलना हे और न ही पाँच का सिक्का! तभी लौण्डो का शोरगुल अचानक बढ़ा। निनकू को लगा कि क्या सही में किसी को सिक्का मिल गया? लेकिन शोर पास के लड़को से नहीं हो रहा था। निनकू सर उठा कर उधर देखने लगा जिधर सब देख रहे थे। रामकिशोर किसी लड़के का हाथ पकड़े आ रहा था। रामकिशोर थोड़ी के लिए गुम हो गया था तो उसे सुकून मिला था। निनकू के माथे पर बल पड़ गए। अब यह कौन सी बला लेकर आ रहा है। निनकू का बेलचा चलाना, लड़कों का कीच कुरेदना, और उसकी माई का शोक मनाना सब कुछ जरा देर के लिए थम गया।
' चाची यही लड़का है.....' रामकिशोर इतना हाँ फ रहा था कि वह पूरा बोल ही न पाया। बन्धे की चढ़ाई इतनी न थी कि कोई हाँ फने लगे और नही रामकिशोर दौड़ कर आया था। यह तो ऐसी हँफौड़ थी जो किसी अनसुलझी गुत्थी को सुलझा लेने की खुशी के रूप में लगती थी ।
' इहे देखा है इसे।'
उसने निनकू की ओर ऊँगली दिखाते हुए कहा तो निनकू को लगा कि जैसे उसने बन्दूक तान दी हो।
' निनकूवा सामलाल के ठेला पर चाऊमीन खइलस है! पाँच रुपया का ही तो आता है छोटा प्लेट!्'
अब उस बन्दूक से गोली भी निकल पड़ी और ठीक निशाने पर ही लगी। निनकू का इतना खून बह गया कि अब काटो तो एक बूंद भी न मिले।
' हें ऽऽ..!'
लो, अब कौन सँभाले उसकी माई को! जिसका गुस्सा फिर उफन आया है जैसे गर्मी में सहमती सिकुड़ती जाती राप्ती नदी, नेपाल से अचानक बाढ़ का पानी पाकर उफन जाती है।
' पेटहा! दलिद्दर! हम सबको चूतिया बना रहा है!
सारे लड़के हो हो करके हँसने लगे। माई की बोली उस पर जहर बुझे तीर जैसे घाव कर रहे थे और इन लौण्डों को गुदगुदी हो रही थी। इसीलिए तो इन लौण्डों को देख कर उसके अन्दर ऐसी कड़ुवाहट भर जाती है जैसे कि सेठाइन के हाथ की बनी चाय पीने से। वह जितना इनसे पीछा छुड़ाने की कोशिश करता था ये उतना ही इससे चिपटते जाते हैं। अब जरा इस लड़के को तो देखो ! जान न पहचान, आग लगाने आ पंहुचा। निनकू तो आज उसे पहली बार देख रहा था तब वह उसे कैसे जानता है ? जरूर सब उसे उसके पेट की वजह से जानते है और इसमें कोई शुबहा न रहा कि आज इसी पेट की वजह से उसकी चोरी पकड़ी गई। वरन्, वह तो ठेले की आड़ में था और ठेला, सहजन के पेड़ और ट्रॉसफार्मर के चौखम्भें के आड़ में था। उसने तो पूरी तरह अपने को छुपाने की कोशिश की थी। कम्बखत यह आगे को निकला पेट ही होगा जिसने उसके सारे किये कराये पर पानी फेर दिया। इसी पेट की वजह से वह लुका छिपी के खेल में पकड़ा जाता है और चोर बन कर हमेषा वही पधता है।इसी पेट की वजह से वह आज भी पकड़ा गया। अपने पेट पर उसे इतना गुस्सा आया कि अगर उसके हाथ में बेलचे की जगह छुरा रहता तो जरूर इस पेट को फाड़ लेता। इसी बहाने सिक्का तो बाहर आ जाता।
लेकिन माई इस कदर बौराई सी चली आ रही थी जैसे पेट फाड़ने का काम वही करेगी आखिर रुपये की जरूरत भी तो उसे ही है ।
' चल निकल बे!'
माई की हड़कॉन पर पहले तो बेलचा को नाली के किनारे लाठी की भॉति खड़ा किया फिर उस पर अपना बोझ डालते हुए वह बाहर आ गया। अगर बेलचा न होता तो वह नाले के किनारे का सहारा लेकर घुटनों के बल बाहर निकलता। सबसे अच्छा तब होता जब उसकी नाले से बाहर निकलने की नौबत ही न आती। लेकिन नाले में जब वह घुसा था उसी वक्त कीचड़ घुटने से काफी नीचे था। अब तो कीचड़ निकाल निकाल कर इसे और भी छिछला बना दिया था। सो उसमें डूबने से रहा। उसे नाले की सख्त सतह का आभास तलवे में हो रही चुभन से ही हो गया था। इसलिए वह धॅस भी नहीं सकता था। आखिरकार उसे उसी प्रकार बाहर आना पड़ा जिस तरह से नदी पार गांव में तारा साहू के घर भूसे में छुपे चोर को लोगों से घिर जाने के कारण बाहर आना पड़ा था। फर्क यह था कि उस वक्त उस चोर पर सारे गांव वाले एक साथ पिल पड़े थे । कोई लात, कोई घूॅसा तो कोई दोनों ही तरीकों से उसकी धुनाई कर रहा था और यहाँ पर केवल माई का ही हाथ उस पर लगा था। सो भी एक झटके में ही वह ढिमला कर गिर गया था। इसलिए झड़ी लगने की नौबत नहीं आई। यह अच्छा ही हुआ था कि उसका पोर पोर पहले से ही दुख रहा था। इसलिए अगर झड़ी लगती भी तो उसको कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था। हाँ शहराती लौण्डों जरूर चुप हो गए थे। हँसने की अब क्या जरूरत थी। हँस हँस कर तो उन्होने माई का गुस्सा मन मुताबिक बढ़ा ही दिया था। इनसे वह इसी तरह की उम्मीद करता था। वे हमेषा उसकी उम्मीद पर खरे उतरते थे।
' खोज रहा था उ नाले में अउर डाले बैठा है इ नाले में ! '
माई उस पर पेट फाडू निगाह डाल कर चिल्लाई तो दो एक लौण्डों से हँसी दबाए न दबी। माई ने फनफना कर अब जो झटका दिया तो वह दो कदम छिटक कर गिरा। यह भी संजोग था कि वह घर की दिषा में ही जा गिरा था। इसका लाभ उसे यह मिलेगा कि उसे घर की दिषा में दो कदम कम चलना पड़ेगा। निनकू ने हिसाब लगाया तो पाया कि इसमें तो कुछ घाटा ही नहीं था। अगर माई ऐसे ही झटके देते रहेगी तो वह मुफ्त में ही ढोले की तरह कीच छोड़ता हुआ घर पंहुच जाएगा। अपने बल से तो वह पंहुचने से रहा। लेकिन नदी इस पार के लोगों ने उसके लिए कोईभला काम किया हो तब न! उन्होने तो अब माई को इस कदर जकड़ रखा था कि वह उनके कब्जे में कसमसाई जा रही थी। बोलने को भी उनके पास वही घिसी पिटी बातें थीं -
' का रे निनकूवा कि माई आज तै की हो का कि येकर जान लेवेक है! पाँच रुपया गईल तो गईल!'
जबकि माई ने अब दूसरा राग अलापना शुरू कर था-
' बात रूपिया का नहीं है । पाँच रुपिया के खातिर इ झूठ काहे बोला ? चटोरा त इ हवे ही । इ तो सारी दुनिया जाने है, लेकिन इ चोर भी है येह बात आज पता चला!.....'
माई का साड़ी बिलाऊज इधर उधर हुआ जा रहा था। उसे तो सिर्फ बकने का होश था। उसकी बकबकाहट के साथ थूक के छींटे यहाँ वहाँ लोगों पर पड़ रहे थे सो अलग।तभी तो जब लोगों को लगा कि उसकी माई को सँभालना मुश्किल है तो सोचा कि क्यों न निनकू को ही यहाँ से हटा कर बोझ से हल्के हो लिया जाए। इसी कारण से तो हरिया चिल्लाया था
' जा रे निनकू, बेलचा दे आ!' साथ में आँख से इशारा भी किया । तब तो उसे पूरा ही विश्वास हो गया कि यह उसे वहाँ से दूर हटाने का बहाना भर है।
वह बेलचा को खींचते हुए बन्धा की दाईं ओर उतर गया। श्री की गुमटी के पास खड़ा नूरे का ठेला दूर से ही दिख रहा था। नूरे अपना ठेला जमीन पर टिका कर कहीं चला गया था। ठेले पर बेलचा रखने के पहले वह उसे म्यूनिसिपिलटी के हैण्डपम्प से आराम से धोने लगा। हैण्डपम्प चलाते चलाते, उसने अपनी माई तथा लोगों के हुजूम को वापस लौटते देखा। लोग भी कहाँ तक माई के साथ जायेगें। वे एक एक करके भीड़ से छॅटते जायेगें। इक्के दुक्के लोग ही माई के साथ घर तक जायेगें। वे भला क्यों रात तक रहेगें। फिर तो वह और माई अकेले एक कोठरी में बन्द रहेगें। लेकिन माई कोई रात भर गुस्सा थोड़ी न करेगी!
बेलचे को धो कर उसने नूरे के ठेले पर पटक दिया। फिर आराम से अपने हाथ पैर धोने लगा। घर जानक की उसे कोई जल्दी न थी। वहाँ पलकें बिछाये कोई उसका इन्तजार नहीं कर रहा होगा। घर जाने से पहले उसने श्री चाय वाले का ध्यान बेलचे की ओर खींचना आवश्यक समझा।
' सिरी चाचा, नूरे को बता दिहा।'
श्री ने बजाए कुछ बोलने के, भौंहें टेढ़ी कर उसकी ओर देखा। फिर चिल्लाया -
' का रे, मिल गवा पाँच का सिक्का?'
फिर ही ही कर हँसने लगा। वह जब कुढ़ते हुए अपने घर की ओर मुड़ा तब उसके दुकान पर खड़े ग्राहको की हँसी उसके कानो पर पड़ी। उसने अफसोस जनक ढंग से मुँह बिगाड़ लिया। उसके पेट पर एक और कसीदा खुद गया!
घर की ओर बढ़ते बढ़ते अँधेरा हो गया था। अगर सिक्के का भेद न खुला होता तो उसकी माई अपने आप ही काम बन्द करवा देती। सिक्का न मिलने की वजह से थोड़ी हाय तौबा जरूर करती पर निनकू की इतनी छीछालेदर न होती। अब घर जाते वक्त न तो सर उठाया जा रहा था न पैर। इस वक्त न तो उसे अपने बुषषट्र की बटन की चिन्ता थी न बाहर निकले हुए पेट की। उसे लग रहा था कि अभी वह नाले से निकला ही नहीं और उसक कदम सड़क के बजाये नाले में बढ़ रहें हैं। पैरो की चुभन में भी रत्ती भर फर्क न था। जब राप्ती नदी उफान पर होती है और बाढ़ का पानी बन्धे के इस तरफ भी भर जाता है तब मषीन लगा कर इधर का पानी सोख कर उधर फेंक दिया जाता था। उसे लगा कि मषीन का सोख्ता इतना जबर होगा कि पूरे नाले का पानी तो सोख कर इसे सड़क बनाया ही साथ ही साथ उसके बदन का पानी भी निचोड़ लिया। उसने केवल एक ही बार गर्दन उठाई थी वह भी उस वक्त जब उसे आभास हुआ कि आसपास उसे कोई देख न रहा होगा। उसने घर की ओर एक सरसरी निगाह डाल कर अपनी गर्दन फिर नीची कर ली। घर पर उसने जब निगाह डाली थी तो घर का दरवाजा खुला तो दिखा था लेकिन वहाँ ढिबरी का पीला उजाले का आभास नहीं हो रहा था। उसका बाऊ हर दीवाली में कोठरी के अन्दर चूने की पुताई करता था लेकिन कोठरी चूल्हे के धुंये से इतनी धुंअठ जाती थी कि दिन में ही पीले रंग की मनहूसियत छाई रहती है।रात में उसके साथ ढिबरी की पीली जोत मिलती है तो घर के मूके ऐसे दिखते हैं जैसे डोमिनगढ़ रेलवे स्टेषन पर गाड़ी छूटने से पहले के पीले सिग्नल। उसके अन्दर अब यह सवाल घर करने लगा कि उसकी माई ने अब तक ढिबरी क्यों नहीं जलाया? दरवाजा खुला था तो यह पक्का था कि माई घर में ही होगी और घर में अँधेरा था तो यह भी तय था कि माई अकेली ही होगी। यानि अब उसे माई से अकेले ही सामना करना पड़ेगा।
घर में घुसते हुए उसे ऐसा लगा जैसे कि वह घर में नहीं किसी बनैले जानवर की माँद में घुस रहा है। नदी उस पार गांव में उसका एक दोस्त है अर्जुन। उसके बाऊ मोती मुसहर को किसी औरत से भद्दगी कर फिर कत्ल करने के जुर्म में फॉसी की सजा हुई है। अभी वह बड़े जेल में बन्द है। अर्जुन तो कहता है कि उसके बाऊ ने नरमदा पाण्डे का जुर्म अपने सिर पर लिया है। बदले में नरमदा पाण्डे ने उसके बाऊ का कर्ज माफ कर दिया है और वादा किया है कि जब तक उसका बाऊ जेल में बन्द है तब तक पूरे घर का खर्चा पानी देगा । उसने यह भी कहा है कि वह हाकिम से मिल के उसके बाऊ की फॉसी की सजा भी खत्म करवा देगा। लेकिन अगर सजा माफ नहीं हुई तो अर्जुन का बाऊ उसी तरह फॉसी घर में कदम रखेगा जिस तरह वह इस वक्त अपने घर में रख रहा था।
कोठरी में कदम रखते ही उसने यह जान लिया कि माई घर में ही है और दाहिने ओर जहाँ कथरी बिछी रहती है, वहीं पर पसरी है। घर में घुसते ही मच्छरों का झुण्ड आया और उसके मुँह पर हवा सा थपेड़ा मारा। वह अचकचा गया। जब से छोटकू इन्सेफिलेटिस से मरा है उसकी माई मच्छरों से बहुत भय खाती है। उसे भी मच्छरो की भिनभिनाहट ऐसी लगती है जैसे नदी इस पार के लौण्डे तालियां पीट कर उसके पेट पर हँस रहे हों। इसलिए कोठरी का दरवाजा हमेषा बन्द रहता है और इन मच्छरो की क्या मजाल कि वे धुंओं को ठेल कर माई बाऊ और पूत तक पहुँच सके। अगर कोई कसर रह भी गई तो घर में जो लुबान का टुकड़ें रखे हैं वे किस काम आयेगें? कोठरी के सामने जो नीम का पेड़ है उसकी पत्तियां किस काम आयेगीं।
उसने टटोल टटोल कर ढिबरी जलाई और अपने कलेजे को सख्त बनाते हुए उसकी मटियाली रोशनी में माई की ओर नजर डाला। माई आँखे फाड़े उसे देख रही थी..... न जाने कब से! उसका दिल धड़क कर रह गया। उसने झट वहाँ से नजर हटा ली। उसके बाद उसने कितना भी बेपरवाह होने की कोशिश की लेकिन उसकी माई की वह कलेजा भेदक निगाह सामने यत्र तत्र आ जाती। कोठरी का दरवाजा बन्द करने से लेकर से लेकर चूल्हा जलाने का यत्न करते समय भी माई की निगाह कहर ढा रही थी। उसने आशा की कि धुयें से मच्छर तो भागेगें ही साथ ही साथ माई एवम् उसके बीच एक परदा सा भी टॅग जाएगा। माई पीटे तब मुसीबत, न पीटे तब मुसीबत। माई देखे तब मुसीबत न देखे तब मुसीबत। उन आँखों में माई ने उसे थोड़ी न बैठाया होगा। वहाँ तो खून उतरा होगा।
उसने भगौना देखा। उसमें शाम की थोड़ी चाय बची हुई थी। उसमे तुलसी एवम चाय की उबली हुई पत्तियां भी थीं। लकड़ियों ने ठीक से आग भी न पकड़ा था कि उसने भगौने में एक गिलास पानी डाल कर उबलने को रख दिया। जब खूब धुआँ निकलता है तो इससे चाय धुंअठ जाती है और इसको पीने में जो मजा मिलता है वह दूध वाली चाय में कहाँ । इसलिए घर में दूध रहे या न रहे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हाँ एक गिलास चाय को एक मुठ्ठी चीनी की दरकार अवष्य रहती है। इसलिए उसने बड़े जतन से चीनी की शीशी उठाई। वह भूला नहीं था, जब पिछली बार चाय बनाते वक्त शीशी हाथ से ऐसे छूटी कि सारी चीनी नीचे बिखर गई थी। तब माई ने दो चांटे में ही नुकसान की भरपाई कर ली थी। लेकिन अभी तो माई उसे ऐसे ताक रही थी जैसे उसे सस्ते में छोड़ देने का मलाल हो रहा हो।
अब मलाल हो तो हो! वह क्षुब्ध हो गया। अब वह क्या कर सकता है। बस यह माई की मनपसन्द गरमागरम कड़क चाय का गिलास ही है जो माई की तबियत हरी कर सकती है। धुंये के आड़ में माई की निगाह से बचता हुआ वह माई तक सरक आया और कथरी के पास गिलास रख कर बुदबुदाया -
' माई चाह पी ला......'
वह पूरा बोल पाया न ढंग से गिलास ही रख पाया कि माई ने ऐसा हाथ चलाया कि गिलास लुढ़का सिलबिट्टे की ओर और चाय ढुरकी कोठरी के मोरी की ओर!
' चल हट! हम तोर हाथ के चाय पीयब! झूठ बोल के सारी दुनिया में जगहँसाई कराइले हमार! पेटहा कही का!..'
फिर उसे लगा कि लेटे लेटे कितना भी गुस्सा करले लेकिन गला फाड़ कर चिल्लाने के लिए बैठना ही ठीक होगा। इसलिए वह उठ कर बैठ गई और तब चिल्लाया-
' अरे छोटकू की जगह तू काहे नहीं मर गया दरिद्दर! तू मर गया रहता तबे ठीक था।.... अरे हमार छोटकू रे....!'
उधर उसकी माई ने बिलखना शुरू किया और इधर उसके दिल का यह हाल हुआ जैसे अमचक से चिरने के बाद अमिया का एक टुकड़ा यहाँ गया एक वहाँ । जरा माई की चालाकी तो देखो। उसके हलक पर छुरी फेर कर खुद रोने बैठ गई। अब अगर रोना था तो रोने की बारी निनकू की थी! दिन भर में कई बार रोने रोने को हुई लेकिन माई ने हर बार मौका हथिया लिया। हर चीज़ की हद होती है। वह कब तक अपने को ज़ब्त रखे? वह ऐसे तन गया जैसे गेंहुअन तनता है और उसी की तरह फुंफकारा भी -
' सुन माई!.......'
माई की धारोधार रूलाई पर उसकी फुंफकारी का असर न पड़ा तो तैष में आकर उसने माई की ठुड्डी पकड़ी और अपनी ओर मोड़ा। माई के चेहरे पर उसकी पकड़ इतनी मजबूत न थी कि बावलों की तरह सिर हिलाती वह एकबेग रुक जाती। यह तो उसका बदला हुआ तेवर था जिसने माई को स्थिर बनाया था।
' तू पहिले बता माई कि फिन बारिस आई कि नाही?...' माई जवाब तो तब दे न, जब सवाल का मतलब बूझे।
तू पहिले बता!......फिनो बारिस आई कि नाही?...... आई न!'
लग रहा था कि माई की अक्ल की बत्ती अभी भी गुल हैं। लेकिन वह इस कदर हावी था कि माई को गर्दन हिला कर हामी भरनी पड़ी।
' तब तो बाढ़ भी अइहे! .... अइहे न?'
माई का गर्दन पहले की भॉति 'हाँ ' में हिलता रहा।
' तो इनसेफिलटिस फिनो नाही फैली का? बोल फैली न!.....'
निनकू इतना खदबदा रहा था कि माई की पल भर की चुप्पी भी बर्दाष्त न हुई। उसे हिला कर पूछा-'बोल तू कि फिनो बीमारी फैली कि नाही?......'
'फैली रे फैली! ' माई झल्ला कर बोली। रोना धोना तो वह कब का भूल चुकी थी ' तूहे मालूम नइखे कि इनसेफिलेटिस हर सलिहे कत्ले आम मचावत है!'
तब येह दफा बच गये तो काहे आँसू बहावत हउ?.... हम उमर के पट्टा लिखवा के आये हैं का माई?'
' निनकू अपनी फ़लसफ़ी झाड़ने के बाद माई की ठुड्डी छोड़ दी। लेकिन माई इस कदर बुत बनी हुई थी कि उसे लगा कि ठुड्डी छोड़ी न हो बल्कि ठुड्डी पर से अपना हाथ हटाया हो। माई की परछाईं दीवाल पर पड़ रही थी। ढिबरी की हिलती जोत में माई की परछाई हिल रही थी। माई इस तरह जड़ थी कि उसकी तुलना में निनकू को माई की परछाई में ही ज्यादा प्राण नजर आ रहा था। अचानक माई ने जैसे देह धारण किया और वह अकुलाई बकुलाई सी निनकू को अपनी ओर खींच लिया। निनकू इसके लिये न तो तैयार था और न अनिच्छुक। वह खुद बा खुद माई की ओर ख्ािंचता चला गया। माई ने उसे अपने छाती से चिपटाया तो उसने ऐसा भी हो जाने दिया - जैसे कोई बेल थोड़ा सा ही सहारा मिलते ही अपने आप चढ़ती लिपटती जाती है।
' अरे नाही रे नाही! ' माई बौरी बावली सी होती हुई उसे अपने छाती से और जकड़ा तो उसे यह पता लगाने का मौका मिल गया कि यह आवाज निकली कहाँ से है!
' तू मत जइहे रे निनकूआ ऽ ऽ !'
निनकू ने माई की जकड़ से केवल अपना चेहरा छुड़ाया और अपने कानों को चौकस किया। जब ई दुबारा कलपी - ' अरे मोर निनकूवा रे!....' तब जाकर उसे विश्वास हुआ कि माई इस बार छोटकू बजाये उसके नाम की रट लगा रही है। हाँ , चिपटाया उसे उसी तरह था जिस तरह से उसने मरे छोटकू को चिपटाया था। उसे अपनी ओर घूरता देख माई के ज़र्द चेहरे पर हरियाली की झीनी परत फैल गईं। क्या देख कर उसकी माई खुष हुई? कि मरा छोटकू जिन्दा हो गया! पर माई तो उसे और भी अधिक चिपटाये जा रही थी। जैसे कि मरा निनकू जिन्दा हो गया हो!
' अरे मोर बबुआ! अरे मोर चुन्नवा! अरे मोर सुग्गवा! तू झूठ बोल के हमारा माथा काहे खराब किया। तू टिक्की खाये के पइसा माँगा तो बाऊ देहलस नाही का! तू गोलगप्पा खाये के जिद किया तो हम खियाये नाही का! ते इ चाऊमीन कउन सा छलावा है कि तू अपना ईमान धरम सब भूल गया? काहे नाही बोला कि पाँच रुपया के चाऊमीन खा लेले? '
इस सवाल के जवाब के लिए निनकू को उधेड़ बुन में पड़ने की जरुरत न थी। यह तो उसके ज़ुबान पर रखा हुआ था -
' तू चिल्लाती नाहीं का, कि... का रे! तोर कुइया कब्बो पटाई कि नाही?'
माई की जुबान में बोल कर उसने माई को लाजवाब कर दिया।
' तू का जनिबे? सेठानी सना भात देहलस त हम छुपा के फेंक दिया। दुबारा माँगे पे इत्ता सा भात दिया। उ से कहीं पेट भरता है! बरतन माँज के पाँच रुपया कमाया तो चाऊमीन खा लिया। रे माई, तू पाँच रुपया के चाट खइबू तो तुहार पेट भर जाई। तू पाँच रुपया के गोलगप्पा खइबू तो डकार मारे लगबू। लेकिन बाजार में तो नउका नउका चीज है न, उ से तो पाँच रुपया में खाली मुँह चटावन होई।..... देख, देख माई हमार पेट अबहू खाली है......'
उसने माई का हाथ खींच कर अपने पेट पर रख लिया। उसकी माई मुस्की मारने लगी-
' अरे अरे अरे.. मोर बाबू के धोंदा तो सच्चुल के खाली है!'
वह वहीं बैठे हुये इतना उचकती है कि उसका हाथ दीवाल से सटा कर रखे हुये टीन के सन्दूक तक पंहुच जाये। सहूलियत के हिसाब से हाथ पंहुचा कर उसने सन्दूक को थोड़ा उठा कर नीचे से पाँच का सिक्का निकाला। निनकू साष्चर्य देखने लगा। यह तो वही सिक्का है जिसे उसने सौदे के साथ माई को लौटाया था।
' ले तू पाँच रुपिया के अउर खा आ......।'
निनकू देख तो रहा था आँखे फाड़ कर। पर आँख के देखे हुए पर विश्वास थोड़ी न हो रहा था। पर माई ने जब घुड़की दी-' नाही लेबे पइसा! करें तोर कुटाई!'
तब उसका भरम टूटा और यक़ीन हो गया कि माई नौटकीं नहीं कर रही है। उसने गोद में लेटे लेटे ही माई के हाथ से सिक्का लपकने की कोशिश की। इस कवायद में जरा सी चूक से सिक्का न तो उसके हाथ में रहा न माई के। वह छूट कर नीचे गिर गया और ढाल पा कर कोठरी की मोरी की ओर लुढ़का।
' अरे भाग रे, पकड़! कहीं इ मरतबा सच्चुल में (सही में) न नहरी में बुड़ जाये।'
उसकी माई ने 'सच्चुल' पर ज्यादा जोर देकर मसखरी की तो गुदगुदी ही नहीं हुई बल्कि हँसी छूट गई। जो माई की हँसी के दम पर बढ़ने लगीं। उसने माई की छाती में अपना मुँह घुसेड़ दिया। इस तरह से उसे अपने दो हित साधने थे। एक तो, माई की हँसी का सोता ढूॅढ़ना था, दूसरे दि भर की थकान मिटानी थी। उसे मोरी की ओर लुढ़कते सिक्के की फिक्र न थी। इसे लपक कर मुठ्ठी में कर लेने में तो वह उस्ताद हो गया था।