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Friday, March 12, 2010

शुभान तेरी कुदरत, रामचन्द्र दशरथ


जिस तेजी के साथ बदलाव की मुहिम जारी है उसको ठीक से कैसे समझा जाए ? कैसे जाना जाए कि उसकी दिशा क्या ? वह किस तरह से विकास की एक जरूरी कार्रवाई है ?  उसके मायने प्राकृतिक गरिमा को बनाये रखने के वास्ते हैं या उनकी आड़ में या मुनाफे की संस्कृति का बाजार समाज को जकड़ता जा रहा है ? ये ऐसे सवाल हैं जिनको किसी पृथ्वी सम्मेलन में शामिल होने वाले व्यक्ति की विज्ञापनी चिंताओं से नहीं समझा जा सकता है और न ही, मात्र ढांचागत कुशलता में माहिर, साहित्य के लिख्खाड़ों की रचनाओं से समझा जा सकता है। भरत प्रसाद, मेरा मित्र, जिसने पिछले दिनों एक नेपाली कहानी का अनुवाद किया था ( जिसे इस ब्लाग के पाठक यहां पढ़ सकते हैं), कोई स्थापित लेखक नहीं, लेकिन एक संवेदनशील इंसान है और साहित्य अनुरागी भी। यदा-कदा कुछ लिखता भी है। उसके लिखे को बेशक रचना के किसी खास विन्यास में बांधना मुश्किल हो पर वह शुद्ध रूप में ऐसी रचनाएं होती हैं जिनसे गुजरते हुए जमीनी सच्चाई की सरसराहट को महसूस किया जा सकता है। प्रस्तुत है भरत प्रसाद की एक ऐसी ही रचना।     

वि.गौ.

भरत प्रसाद

जंगल किनारे सीधा सा रास्ता, बीच-बीच में पानी के बहाव से बने गड्ढे, पगडंडी भर में दिखती मिट्टी, पीली चिकनी मिट्टी, कहीं-कहीं बलुवा मिट्टी, रास्ते के दोनों तरपफ दूब घास, जंगल में छोटे बड़े पेड़ साल, जामून, ढाक, मयालु (जंगली नाशपाती) रेंडी, तारचरबी, कहीं-कहीं तुन और शीशम करोदे बवेर की झाड़िया, कडी पत्ता और ऐसे ही अनेक प्रकार के पेड़ पौध्ो फूल झाड़ (लन्टेना) के इक्के दु्क्के पौधे ही दिखते थे। खेत की बाढ के लिए ज्यादातर नील कॉटा और बेशरम लगाया हुआ लकड़ी के खुटो में कंटीला तार खीचा हुआ । सूवर और हिरनों तथा गाय डंगरो से फसल को बचाने के लिए बाढ में झाडियां काट कर डाल दी जाती है। वैसे जंगलो में लोमडी, सियार, खरगोश भी जंगल में अक्सर दिखाई दे जाते। रात को एक सियार ने छुआ की तान क्या छेडी कि चारों तरपफ जगंल भर में छुआ-छुआ की गूँज उठने लगती।
कई तरह के पछी घुग्थी, फाख्ते, बुलबुल, मैना, तोता, छोटी-छोटी फिस्टी, तीतर, बटेर, जंगली मुर्गे कव्वे, गिद्ध आदि। शेही और गोह जैसे जानवर दिखाई तो कम देते थे लेकिन कंजर लोग अपने लम्बे थूथन वाले शिकारी कुत्तों के साथ उसका शिकार किया करते थे, एक बार तो बताते हैं उनके पांच कुत्तों ने एक गुलदार को ही घ्ोर कर भगा दिया था। कभी-कभी गुलदार गाँव के कुत्तों और बछड़ों को उठा कर ले जाते थे।
''शुभान तेरी कुदरत, राम चन्द्र दशरथ"" ऐसा ही सुनाई देता जब कहीं तीतर आवाज करता और बटेर के झुंड जब अचानक एक साथ उड़ते तो ''भर्रर्टटर"" की आवाज से डरा ही देते। बसंत के आते ही पंछियों का कलरव पूरे जंगल को संगीतमय कर देता, कुहू-कुहू ---काफल पाको, काफल पाको--- तो कहीं ''मेरी सीता देखी मे-री-सी-ता-दे-खी-तू-ने- की मीठी-मीठी तान और खेतों से पंछीयों को भगाने की हा---हा- की तेज तर्कश आवाजों के साथ चीची-चीची कर चिड़ियां तुन शीशम के फुंगल पर बैठ जाती। झुंड के झुंड गौरेया झाड़ीयों में ऐसे छिप जाते कि दिखाई न दे और फिर गुलेल के पत्थर झाड़ी में पड़ते ही अलग-अलग  दशाओं में उड़ जाते। तब बन्दर नहीं लगते थे खेतों में,  जंगल में ही इतना पफल होता था कि लोग जंगलों से  आंवला, बेहड़ा ले आते थे। आम लाकर अमचूर और आचार बनाकर रखते साल भर के लिए।
गांव के लोग घास चारे के लिए लकड़ी के लिए जंगल पर निर्भर थे, गाय बकरीयों का चुगान भी जंगलों में ही होता। घास के लिए नालों के किनारों की घास या पिफर चारे वाले पेड़ों को झांग कर छोटी-छोटी  टहनियां-पत्तों को बोझा बनाकर लाते। पेड़ की फुंगल  को न काटने की हिदायत थी। सर्दियों में आशा रोड़ी से आगे डांट की पहाड़ियों में घास लेने जाते तो एक दो पूली फूंस की भी जरूर लाते ताकि गोठ (गोशाला) का छप्पर छाया जा सके। तब छत लिंटर के तो नहीं हाँ, टिन की चद्दर के होते या फूस के या तारकोल के ड्रम और घी के टिन काट कर छत बनाते तब टिन की चादर उपलब्ध भी कम थी और महँगी भी पड़ती थी।
एक बार गरमी के दिनों में मधुमक्खी के छत्ते से शहद निकालने के लिए जलाई गयी मशाल से जंगल में आग लग गयी और हवा भी तेज हो गयी। हवा का रूख गॉव की तरफ हो गया और देखते ही देखते आग गॉव की तरफ बढ़ने लगी तो आग-आग चिल्लाते हुए लोग जंगल की आग बुझाने चले गये। लंबी-लंबी टहनियों से लोग आग बुझाने लगे, कहीं से उड़ती हुई एक चिंगारी तेज हवा के साथ एक फूंस की छत में गिर गयी और थोड़ी ही देर में छत धूँ-धूँ कर जलने लगी। सभी का ध्यान जंगल की आग की तरपफ था। किसी का ध्यान गोशाला में लगी आग की तरफ गया ही नहीं। जैसे ही जंगल की आग बुझाई, डंगरों के चिल्लाने, चीखने की आवाज ने सबका ध्यान गॉव की तरफ मोड़ दिया। ''ओ बहादुरे की गोठ में आग लग गयी"", कोई जोर से चिल्लाया। सब जितनी तेज दौड़ सकते थे, दौड़ कर आने लगे। तब तक एक दो छप्पर और जलने लगी। ''पानी लाओ बाल्टी लाओ पानी लाओ कुछ आदमी उध्र जाओ कुछ उध्र एक जगह इकट्ठे मत रहो"" और स्वस्फूर्त प्रबंधन से एक साथ आग बुझा ली गयी। कुछ लोगों ने घ्ारों से जरूरी सामान बाहर निकाला तो कुछ लोगों ने गोठ में बंधे गाय डंगरों को खूंटों से खोल दिया। गाय बछड़े चिल्लाते हुए इधर-उधर भाग गये। एक ताजी व्याई भैंस, उसका कटड़ा और दो बछड़े बुरी तरह से जल गये थे। छटपटा रहे थे, चिल्लाते जा रहे थे। आलू कूटा गया और उसका रस जले पर लगाया गया। नीली स्याही की पूरी बोतल डाल दी गयी, मेहंदी लगायी गयी घाव में, हल्दी-तेल लगाया गया, लेकिन इन उपचारों के बाद भी भैंस और उसके बच्चे को बचाया न जा सका। एक बछड़ा कई दिनों बाद मरा, बछड़ी बच गयी लेकिन उसका दाँया भाग जलने से सफेद हो गया। बहुत दर्दनाक दृश्य था वह। चलचित्र की तरह एक-एक करके बातें याद आ रहीं थीं बाबू को।
पन्द्रह-बीस साल पहले की बाते थीं। दो महीने की छुट्टी में आया था वह। तब और अब के जंगलों में फर्क देखते ही बनता था। साल के पेड़ तो वही थे लेकिन इस दौरान कोई नया पेड़ नहीं पनपा इस जंगल में। बल्कि मयालु, राजू और करौंदा, तारचरबी के पेड़ तो दिख ही नहीं रहे थे। अब तो चारों तरफ बोक्सी फूल(लन्टेना) ही दिखता था। नाला मिट्टी के कटाव  से और चौड़ा और गहरा हो गया था। ढाल की पगडंडी नाली का रूप ले चुकी थी। पोखर और गड्डे मिट्टी और गाद से भर चुके थे। पहले इनमें भैंस और जंगली जानवर नहाते थे तो इसकी मिट्टी बाहर निकलती रहती थी। लगातार नहाने से गड्डे की सतह चिकनी रहती तो गड्डों में पानी भी मार्च-अप्रैल तक रहता था और नमी तो पूरे साल रहती थी और इस नमी के साथ बेशरम की झाड़ियां भी। जंगल में जानवर खत्म होने लगे तो ये पोखर भी मरने लगे। जानवर पानी के लिए आबादी की तरपफ आते और शिकारियों का भोजन बनते।
पुरानी बातों को याद करता बाबू जंगल के किनारे चलता जा रहा था कि उसे बंदरों की घबराहट भरी चिल्लाने की आवाज सुनाई दी। पंछी ऐसे चिल्ला रहे थे जैसे कोई बाज आस पास हो। कोई शिकारी सॉप किसी घोंसले की तरपफ बढ़ रहा हो। दूर धुआं दिखा तो समझने में देर न लगी कि आग लगी है। जानवरों के नाम पर बंदर ही रह गये तो चिल्लायेंगे भी बंदर ही। दूर जंगल में आग लगी थी, आग हल्की थी लेकिन दूर तक फैली थी उसने सोचा और ठान लिया कि आग बुझाना है और जंगल की तरफ बढ़ गया। चार-पाँच टहनी रैडी और कड़ी पत्ता की तोड़ी और एक तरफ से आग बुझाने लगा। जहां आग हल्की थी वहां झाड़ू से मार कर जहां थोड़ा तेज थी वहां थोड़ी दूर पर पत्तों को साफ करके आग को आगे बढ़ने से रोका। एक जगह आग बुझाते हुए वह पत्तों में फिसल गया और आग के ऊपर गिरते-गिरते बचा लेकिन लपटों से उसका हाथ झुलस गया। आग बुझाना छोड़कर वह अपने हाथ में फूंकने लगा। फूंकते समय थोड़ा राहत सी मिली तो उसका ध्यान चिल्लाते बंदर की तरफ गया और दृश्य देखकर रोंगटे खड़े हो गये। एक अधजला बंदर तड़प रहा था और उसके आस-पास बंदरों का झुंड अजीब-अजीब आवाज में चिल्ला रहे थे। कुछ न कर पाने की बेबसी और तड़पते बंदर की बैचेनी, बाबू के हाथ की जलन खत्म हो गयी। वह दुगुने जोश से आग बुझाने लगा। एक जगह कुछ अध्ाजले अंडे पड़े थे वह पहचानने की कोशिश करने लगा। शायद वह कुछ को इस हालत से पहले बचा पाये। किसी तरह आग पर काबू पा लिया। आग बुझ चुकी थी। अभी धुयें की धूं--धूं  पूरी तरह साफ नहीं हुई।
उसका हाथ काफी झुलस गया था। ऐसा भी नहीं कि घाव हो जाय मगर बगैर दवाई के जल्दी ठीक भी नहीं होता। हाथों में जलन तेज होने लगी थी। जंगल की आग भले बड़ी न हो, हल्की तो कतई नहीं होती। आग बुझाने के बाद वह वापस पगडंडी में आ गया, वह वापस घर जाने लगा। रास्ते में एक राहगीर ने उसके झुलसे हाथ को देख कर पूछा तो बाबू ने सारी बात बता दी तो संभ्रांत सा दिखने वाला राहगीर बोला 'आ बैल मुझे मार, खामखा जला बैठे अपना हाथ। क्या पड़ी थी फटी में टाँग डालने की? क्या जरूरत पड़ी थी? जिसका काम है वह तो बैठा होगा ए।सी। में, बेचे हुए पेड़ों के पैसे गिन रहा होगा"।
और बड़बड़ाते हुए चला गया, जैसे 'कह रहा हो अब पंगा लिया है तो भुगतो"।
वह सोचने लगा ''खामखा तो नहीं है यह काम, जंगल बचाओ, पर्यावरण बचाओ का नारा तो आज पूरी दुनियां में गूँज रहा हैं, मैंने तो एक छोटी सी कोशिश की है बस""!
एक दोस्त मिल गया रास्ते में उसे भी सारा हाल बता दिया तो दोस्त कहने लगा, ''जब हाथ जल गया था तो तुरंत उसे दो मिनट पानी में रखना था इससे जलन चमड़ी की पहली परत तक रूक जाती।""
बाबू बोला '' जंगल में पानी ही होता तो जंगल जलता क्यों?
 अगर जंगल में पानी नहीं है तो ये जानवर पीते क्या हैं? इतनी हरियाली कैसे रहती है?
बाबू बोला '' कभी देखा भी है जंगल? बाहर से यह जितना घना दिख रहा है यह उतना है नहीं। रही जानवरों की बात तो वे रह कितने गये और जो हैं वह आते हैं आबादी की तरपफ पानी के लिए और शिकार बनते हैं और छोटे-मोटे पंछी जानवर तो ऐसी हर साल की आग में मर खप जाते हैं""।
''अगर ऐसा है तो हमें जंगलों की इतनी मोहक और डरावनी तस्वीर क्यों दिखाते हैं, हकीकत से रूबरू क्यों नहीं कराते बचपन से ही?""
'दोस्त तू बड़ा भोला है, क्या कोई अपनी कार गुजारी का बखान करना चाहेगा, शिकार और हवेली रईसों का शौक है, जहां शेरों और हिरन के सिर बैठकों में दिखेंगे, शानदार इमारती लकड़ी भी उन्हें ही चाहिए। और हवेली के आस-पास सीमेंट का पफर्श का सीमेंट ग्राउँड ताकि साफ सफाई रह सके, जंगल ही बचायेंगे तो सात पीढ़ियों के लिए पैसा कैसे जमा करेगें""।
''लेकिन पानी तो उन्हें भी चाहिये न""।
दोस्त इतनी बात कह कर चल दिया लेकिन उसके हाथ की जलन को और बढ़ा गया, वह सोचने लगा क्या वह सब झूठ था जो उसने बचपन में पढ़ा था। सार्वजनिक सम्पत्ति की सुरक्षा और गुरूजी की बात कि बेटा चोरी, डकैती के बाद सामान वापस मिल भी सकता है, टूटी चीजें जोड़ी जा सकती है, लेकिन एक बार कुछ जल गया तो सब खत्म, बेटा इसे कहते हैं रासायनिक क्रिया, भौतिक सुख के लिए हम कितनी बड़ी हानि कर रहे हैं।
ऐसे और कई लोग मिले, सब पूछते क्या हुआ! वह बताता भी, सब मौखिक हमदर्दी जताते, अपने रास्ते चलते, सबके पास कोई न कोई उपदेश, कोई न कोई शिकायत जरूर रहती, दूसरों के लिए सलाह और कार्यक्रम तक होते, मजेदार बात कि सब को पानी की किल्लत का एहसास था। अधिकतर पर्यावरण असंतुलन की बात भी करते लेकिन किसी को भी जंगल की आग से चिन्तित नहीं महसूस किया। ''गमला और बौनसाई संस्कृति के लोगों को तो बस नल के पानी से मतलब है, बरसात का पानी तो कीचड़ लगता है। बड़े पेड़ पतझड़ में गंदगी करते हैं, कौन रोज-रोज झाड़ू लगाये। उनका पर्यावरण भी गमला, बौनसाई तक सिमट गया है""। उनकी बेचारगी देख उसके हाथ में जलन और तेज होने लगी, लेकिन क्या एक अच्छी शुरूआत के लिए इस दर्द को सहा नहीं जा सकता। लोगों की बातें सुनकर उसे भी लगने लगा कि क्यों किया उसने ये सब! और किसके लिए? अगर ये सब जंगल किसी का भी नहीं है तो मेरा भी तो नहीं है। तो मैं ही क्यों पेरशान हुआ? और सबका है तो सभी चिंतित होते।
ऐसे ही सवालों के द्वंद्वों में वह चला जा रहा था। वह देखता है कि वहाँ झुरमुरों में भी आग लगी थी। एक मजदूर सा दिखने वाला आदमी उसे बुझा रहा था। बाबू ने उससे पूछा तो वह कहने लगा 'बाबू जी इसे हम नहीं बुझाएंगे तो यह सारा का सारा जल जायेगा, चिड़ियाओं के घ्ाोसलों से लेकर, चारे से लेकर खेत खलिहान तक, पिफर ये खायेंगे क्या, ये रहेंगे कहाँ?"
फिर बाबू के हाथ को देख कर पूछने लगा, कैसे जला? उसके हाथ की जलन न जाने कहाँ गायब हो गयी, बाबू भी हरी टहनियां तोड़ कर आग बुझाने लगा तो उसने रोकते हुए कहा 'बाबू जी आप रहने दें इतनी आग तो मैं ही बुझा लुँगा" और एक पत्ता तोड़ कर उसका रस बाबू के जले हुए हाथ में मल दिया।
जलन खत्म हो गयी थी, बाबू ने उस आदमी से कहा 'एक तुम्हीं दिखे जिसे पर्यावरण की चिंता है"। वह बोला -'भैया जी, ये पर्यावरण क्या होता है हमें पता नहीं, हम तो बस इतना जानते हैं कि इस आग से चिड़िया, उसके अंडे-बच्चे, कीड़े मकोड़े, चींटी सब खत्म हो जाते हैं"। आज देखो बाबू जी, जमीन पर चलने वाले तीतर, बटेर कहीं दिखाई नहीं देते, छोटे पेड़ जैसे बेर, करौंदा जैसे न जाने कितने पेड़ गायब हो गये हैं। इसी आग की वजह से पानी तक रूक नहीं पाता। आज जंगलों में या तो तीस साल पुराने पेड़ हैं या बरसात में उगे हुए पौधे, पूरे तीस साल का अन्तर है नये पुराने पेड़ों में। सभी को जंगल से कुछ न कुछ चाहिए। किसी को लकड़ी, किसी को घास, किसी को जड़ी-बूटी तो किसी को हिरन का शिकार या शेर की खाल शान बघारने को और जब ये बड़े लोग पकड़े जाते हैं तो सारे नेता, अफसर इन्हें बचाने के लिए आ जाते हैं, जैसे गलती पेड़ की या हिरन की हो, क्यों वह कुल्हाड़ी और बन्दूक की गोली के सामने आ गये""।
थोड़ा रूक कर वह हताश सा कहने लगा -'जिसके पास साधन है, पैसा है उसके लिए तो जंगल पार्क है, पिकनिक स्पॉट है, लेकिन हमारे लिए तो यह रोजी-रोटी की बात है, पैसे वालों की बात हम क्या करें। जंगल बचाना तो हमारी मजबूरी है, देखते हैं कब तक इसे बचा पाते हैं हम।"
दूर कहीं तीतर बोलने लगा 'शुभान तेरी कुदरत, रामचन्द्र दशरथ" पेड़ में बैठी कोयल बोली 'काफल पाको काफल पाको"।