लूट और प्रलोभन का रिश्ता इतना गहरा होता है कि यदि उसे देखना चाहें तो किसी एक जरिये से दूसरे तक पहुंचा जा सकता है। लेकिन इस रिश्ते के बनने की प्रक्रिया इतनी जटिल होती है कि प्रलोभनों {ज्ञात व अज्ञात} का अदृश्य परदा सोचने समझने और तर्क करने की क्षमता को ही कुंद कर देता है और इसीलिए लुटने वाले को पता ही नहीं लग पाता है कि वह लूटा जा चुका है।
हर रचनाकार के भीतर यह सहज महत्वाकांक्षा होती है कि उसकी रचना जन जन तक पहुंचे, सराही जाए और इस तरह से उसका रचनाकर्म एक सार्थक मानवीय गतिविधि का हिस्सा हो सके। लेकिन स्थितियां विकट हैं और उस विकटता के कारण समाज का पिछड़ापन भी एक महत्वपूर्ण कारक है। यह एक प्रचारित सत्य है कि कला-साहित्य सीधे सीधे किसी व्यक्ति विशेष के जीवन को मनुष्य द्वारा सृजित दूसरे संसाधनों की तरह सहज और समर्थ नहीं बनाता है। यही वजह है कि सर्वप्रथम कोई भी व्यक्ति पहले निजी जीवन की दूसरी आवश्यकताओं को अपनी पहुंच तक लाने की कोशिश करता है और फिर जब एक हद तक आधारभूत जरूरतों को पूरा कर लेता है तो तब अन्य भावनात्मक चीजों के प्रति कदम बढाता है। किसी भी भाषा के साहित्य को कमोबेश इस स्थिति का सामना करना ही पडता है। यदि साहित्य की समाज में पहुंच के साथ भारतीय समाज की आर्थिक स्थितियों का अध्ययन और विश्लेषण किया जाए तो जरूर चौकाने वाले ऐसे खुलासे भी हो सकते हैं कि विभिन्न भाषा-भाषी समाज के अंतरसम्बंधों और विसंगतियों के कारण भी समझ आने लगेंगे।
प्रलोभनों की गिरफ्त में रहते हुए और लुट जाने की चिंताओं को दूर फटकते हुए ही चित्रकारी ने बाजारू होते जाने की सीमाएं लांघी है और संगीत की रवायतों ने पहले राजाश्रयी और बदलती दुनिया के साथ शासकीय ठियों और रुतबेदार ठिकानों को ही अंतिम मानने में कोई गुरेज नहीं की। इस प्रक्रिया को समझने के साथ साथ; कभी उसका प्रतिकार तो कभी उसे अंगीकार कर लेने का रास्ता एक हद तक अब भी साहित्य और रंगकर्म की दुनिया का ढब है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि लूट और प्रलोभन की यह सतत प्रक्रिया ही कला साहित्य की दुनिया को कठिन और आसान बनाती रहती है। सवाल है कि वे कौन से कारण होते हैं जो कला साहित्य की दुनिया को इस प्रक्रिया से मुक्त नहीं होने देते ? उसे ‘महापौरों’ के आगे नतमस्तक होने को मजबूर किये रहते हैं?
यदि इन सवालों के जवाब बिल्कुल हालिया स्थितियों से तलाशे जाये तो अपने करीब घटने जा रही एक घटना का जिक्र करना ही ज्यादा उचित होगा। वह घटना जो स्वयं मुझे भी कटघरे में खड़ा कर सके। सिर्फ इतने भर से नहीं कि मैं असहमत हूं और उस जगह से अनुपस्थित रहूंगा, बावजूद उसका भागीदार तो हूं ही। स्पष्ट तौर पर कहूं तो वह घटना सम्वेदना, देहरादून का वह कार्यक्रम है जो 18 मई 2024 को 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' के हॉल में सम्पन्न होने जा रहा है।
'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' में सम्वेदना का यह कार्यक्रम सम्वेदना की 'अपनी शर्तों' पर हो रहा है कि 1) 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' का हॉल तो मुफ्त मिले, 2) और आयोजक के रूप में भी सम्वेदना स्वतंत्र संगठन हो। देहरादून में साहित्य की 'महापौर' बनने की ओर बढती जा रही 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' की कोई भूमिका न हो। ज्ञात हो कि सम्वेदना के अंदर यह बहस वर्ष 2023 के शुरुआती माह की उस गोष्ठी से शुरु हुई थी जिसमें फिल्मों पर आयी मनमोहन चड्ढा जी की बेहतरीन पुस्तक को चर्चा के लिए चुना गया था। और उस दौरान ही 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' में सलाहकार समिति में मौजूद सदस्यों द्वारा जानकारी दी गई थी कि 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' को हॉल का किराया देना पडेगा। हालांकि सूचना देने वाले साथियों ने साथियों यह बात भी रखी ही थी कि रचनाकरों के कार्यक्रमों को हॉल मुहैया कराने के लिए 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' के क्या प्रावधान है वे पूरी तरह नहीं जानते। खैर, वे प्रावधान क्या रहे होंगे इसका खुलासा तो 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' को करना चाहिए था जो कि उसने आज तक किया नहीं पर यह स्पष्ट है वर्ष 2023 के अंतिम महीनों में मनमोहन चड्ढा जी की पुस्तक पर चर्चा आयोजित हुई पर जिसकी आयोजक सम्वेदना नहीं साहित्य की 'महापौर' स्वतंत्र रूप से 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' ही थी। यह भी कोई छुपा हुआ तथ्य नहीं वर्ष 2023 में ही नामचीन लेखक और मार्क्सवादी विचारक लाल बहादुर वर्मा जी की स्मृति में एक कार्यक्रम 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' के हॉल में ही आयोजित हुआ था जिसके लिए आयोजकों को हॉल का किराया रू 5000/- चुकाना पड़ा था क्योंकि साहित्य की 'महापौर' उस कार्यक्रम का सहभागीदार बनने से बचना चाहती थी। आनंद स्वरूप वर्मा मार्क्सवादी विचारक उस कार्यक्रम में मुख्य वक्ता थे। अज्ञात सूत्रों के हवाले से यह बात उस समय हवा में थी कि बोर्ड ऑफ़ डाइरेक्टर्स का नौकरशाही चश्मा कार्यक्रम को मार्क्सवादी फ्लेवर होने के कारण 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' को महापौर बनने से भी बचाना चाहता है। जबकि यह बात जग जाहिर है कि 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' तो किसी प्रकाशक की किताबों की बिक्री तक में सहयोग करने के लिए 'महापौर' बनने को उतावली रही है।
अब सवाल है कि सम्वेदना का 18 मई 2024 का कार्यक्रम 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' के कौन से प्रावधान से बिना किराया लिए और 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' को महापौर की भूमिका भी अदा न करने देते हुए आयोजित हो रहा है? क्या यह किसी तरह की लूट और प्रलोभन का प्रपंच तो नहीं ?
किये जा रहे सवाल इसलिए बेबुनियाद नहीं है क्योंकि हॉल के किराये के मामले को प्रशांकित करते हुए यह बातें हमेशा दोहराई गई हैं कि सिर्फ सम्वेदना के कार्यक्रम ही नहीं बल्कि कोई भी साहित्यिक संस्था यदि उस हॉल में उपल्बध तिथि के दिन आयोजन करे तो 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' को वह जगह बिना किराये के मुहैया करानी चाहिए। किराये मुक्ति के पीछे यह स्पष्ट तर्क है कि 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' का निर्माण जनता के पैसों से हुआ है। यह तथ्य है कि स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट का हिस्सा होकर सामने आई 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' का निर्माण का टैंडर TOT reference No. 36993223 एवं Document reference No. 3081/Nivida (Garhwal)/125, dated 01/10/2025 को Pey Jal Nigam, Govt of Uttarakhand, के द्वारा कुल Tender Value: Rs. 111000000 के रूप में जारी किया गया था। उसके बाद ही 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' का निर्माण कार्य उस जगह शुरु हुआ था जहां देहरादून का आवाम नागरिकता संशोधन कानून के रूप में लगातार धरने प्रदर्शनों के साथ मौजूद होता था।
चोरी-चोरी, चुपके चुपके जिस तरह से सम्वेदना ने अपने कार्यक्रम के लिए इस बार बिना किराये के भी 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' के हॉल को हासिल किया है क्या उसे देहरादून की उस समस्त साहित्यिक बिरादरी के साथ गद्दारी नहीं मानना चाहिए ?, जो अभी भी निश्चिंत नहीं हो सकती कि भविष्य में यह हॉल उन्हें स्वतंत्र आयोजक रहते हुए फ्री मिलेगा या नहीं?
सम्वेदना से अपने जुड़ाव के नाते यह तो कह ही सकता हूं सम्वेदना की कार्यशैली हमेशा पारदर्शी रही है। आयोजन पहले भी हुए हैं और हर सक्रिय सदस्य को कार्यक्रम से सम्बंधी हर छोटी से छोटी बात तक मालूम रही है। जबकि खुले व्यवहार की सम्वेदना में आयोजन के नाम पर कमेटी बनाने तक की कभी कोई औपचारिकता नहीं की गई। उसके पीछे की सौद्धांतिकी रही है कि औपचारिक कमेटियां साथियों की भागीदारी को सीमित करती है। कोई कम सक्रिय साथी कार्यक्रम को मूर्त रूप देने के लिए अपने सुझाव को सबके सामने रखने से पहले खुद ही सीमित कर लेता है और कमेटी सद्स्योंं को ही महत्वपूर्ण मानता रहता है। लेकिन यह पहला मौका है जब मैं कह सकता हूं कि कार्यक्रम को लेकर औपचारिक कमेटी तक स्थापित हुई। सम्वेदना की कार्यशैली में आ रहे बदलाव क्या किसी तरह के प्रलोभनों की आहट तो नहीं? यह आशंका नहीं उस बाइनरी में चीजों को देखना है जो बताती है प्रलोभनों के झूठ ही लूट तक जाते हैं। यदि इसमें रत्तिभर भी सत्यता हो तो तय है कि भविष्य में देहरादून का साहित्यिक, सांस्कृतिक परिदृश्य अघोषित आपातकाल के भीतर छटपटाने को मजबूर होगा। और तब उसके विरुद्ध संघर्ष करने का वैधानिक अधिकार भी खो चुका होगा। क्योंकि हॉल को किराया मुक्त किये जाने सम्बंधी कोई पारदर्शी नियमावली बनाने की बात को मजबूती से रखने की बजाय सम्वेदना सिर्फ अपने लिए चोर रास्ता बना रही है।
दिलचस्प है साहित्यकारों के बीच राजनैतिक और राजनीति वालों के बीच साहित्यकार दिखने वालों तक को सम्वेदना की यह चोर गतिविधि जायज दिख रही है।
उम्मीद है सम्वेदना के साथी आयोजित कार्यक्रम के विषय "सम्वेदना का साहित्यिक योगदान और आज की चुनौतियां" में ऐसे विषय पर भी खुली चर्चा करने के साथ रहेगे। इस नयी बनती हुई दुनिया में लूट और प्रलोभन ज्यादा बड़ी चुनौतियां है।