
दशहरे के मैदान में दहन होते रावण के पुतले या मेले-ठेले में भीड़ के बीच दूर तक देखने की बच्चे की अभिलाषा को बहलाते पिता को देखा है कभी ? आतिशी बाण रावण की नाभी पर आकर टकराया या, अपने आप धूं धूं कर उठी लपटें- पिता के कंधें पर इठलाता बच्चा ऐसी मगजमारी करने की बजाय खूब-खूब होता है खुश। बहुत भीड़ भरी स्थिति में बमों के फटने के साथ चिथड़े-चिथड़े हो रहे रावण, मेघनाद और कुम्भकरण के पुतलों को देखने के लिए पिता के कंधें की जरूरत होती है। पिता की बांहों के सहारे कंधे पर पांव रख और बच्चा ऊँचे और ऊँचे ताकने लगता हैं। पिता की बांहें बिगड़ जा रहे संतुलन को सहारा दे रही होती। बाज दफा ऊँचाई के खौफ को दूर फेंक वह सिर के ऊपर ही खड़ा होना चाह रहा होता है। संतुलन को बरकरार रखने की कोशिश में उठी पिता की बांहें भी उस वक्त छोटी पड़ जाती हैं। बच्चे की उत्सुकता के आगे लाचार पिता अपनी हदों के पार भी कंधों के लम्बवत और शीष के सामानन्तर बांह को खींचते चले जाते हैं। शीष पर खड़े बच्चे का हैरान कर देने वाला संतुलन पिता की बांहों का मनोवैज्ञानिक आधार बना रहता है। बिना घबराये वह खिलखिलाता है, तालियां बजाता है। वश चले तो उड़ा चला जाये चिंदी-चिंदी उड़ रहे रावण के परखचों के साथ। पिता की लम्बवत बांहें ऐसे किसी भी खतरे से खेलने की ख्वाइश से पहले ही उसे सचेत किये होती हैं। डगमगाते हुए पांवों के बहुत हल्के अहसास पर ही खुली हथेलियों की पकड़ में होता है पूरा शरीर। पिता की बांहों के यागदान को कुछ ज्यादा बढ़ा चढ़ा देने की को मंशा नहीं। हकीकत को और ज्यादा करीब से जानने के लिए अभ्यास के बल पर किसी चोटी पर पहुँचे पर्वतारोही से पूछा जा सकता है कि पहाड़ के शीष पर खड़े होकर डर नहीं लगता क्या ? बहुत गुंजाइश है कि कोई जवाब मिले जिसमें बगल की किसी चोटी का सहारा पर्वतारोही को हिम्मत बंधाता हुआ हो। मेले के बीच पिता के शीष पर खड़े होकर दृश्य का लुल्फ उठाते बच्चे के पांवों की सी लड़खड़ाहट पर सचेत हो जाने की स्थितियां पर्वताराही को भी और उचकने की गुस्ताखी नहीं करने देती हैं। उचकने की कोशिश में उठी हुई बांहों की पकड़ छूट जाने का सा अहसास होता है और धम्म से बैठने को मजबूर हो जाने की स्थितियां होती हैं। चोटियों के पाद सरीखे दिखते दर्रे पिता के कंधें जैसे होते हैं जहां खड़े होकर कुछ लापरवाह हो जाना खड़ी हुई चोटियों के सहारे ही संभव होता है। करेरी झील से उतरते नाले के बांये छोर के सहारे हम मिन्कियानी दर्रे की ओर बढ़ रहे थे।


हम कोई इतिहासविद्ध नही तो भी यह तो कह ही सकते हैं कि सत्ता के लिए खूनी संघर्ष से भरे सामंतों के आपसी झगड़े और उनकी वंशावलियों की सांख्यिकी से भरी इतिहास की पाठ्य-पुस्तकें ऐतिहासिक दृष्टि से इस देश की भौगोलिक, सांस्कृतिक और सामाजिक स्थिति को समुचित रुप से रख पाने में अक्षम हैं। उत्तरोतर भारत के बारे में हमारे पास बहुत ही सीमित जानकारी है। वहां रहने वाले लोगों का इतिहास क्या नृशंस आक्रमणों से जान बचाकर भागे हुए लोगों का इतिहास है ? पश्चिम भारत को हड़प्पा और मोहनजोदड़ों के बाद हमने खंगाला है क्या ? दक्षिण भारत में क्या एक ही दिन में विजय नगर राज्य की स्थापना हो गयी ? सिंहली और तमिलों के विवाद की जड़ कहां है ? नागा, कुकी और मिजो जन-जाति की संस्कृति को हम कैसे जान पायेगें ? जंगलों के भीतर निवास करने वाले लोगों से हमारा रिश्ता कैसा होना चाहिए ? ऐसे ढेरों सवालों के हल ढूंढने के लिए दुनिया से साक्षत मुठभेड़ के सबसे अधिक अवसर यात्राओं के जरिये ही मिलते हैं। हिमाचल के कांगड़ा क्षेत्र के इस बहुत अंदरूनी इलाके को सबसे ज्यादा परिचित नाम वाली जगहों चिहि्नत करें तो धर्मशाला और मैकलाडगंज दिखायी देते हैं। नड्डी मोटर रोड़ का आखिरी क्षेत्र है जो मैकलोडगंज से कुछ पहले ही कैंट की ओर मुड़ने के बाद आता है। मैकलोडगंज शरणार्थी तिब्बतियों का मिनी ल्हासा है, जहां दलाई लामा रहते हैं। नाम्बग्याल मोनेस्ट्री में। अपनी कसांग के साथ। मैकलोडगंज की संस्कृति में तिब्बत की हवा है। नक्शे में गदरी ही नहीं, आगे के मार्ग में पड़ने वाले गजनाले के पार बसा भोंटू गांव भी नहीं। भोंटू से ऊपर रवां भी नहीं। भोंटू से आगे न नौर न करेरी गांव। मिन्कियानी दर्रा करेरी के बाद कितनी ही चढ़ाई और उतराई के बाद है।

यूं इस तरह से गांवों की यात्रा जन के बीच घमासान तो नहीं होती पर उखड़ते मेले से घर लौटती भीड़ की तरह लौटना तो कहलाता ही। मेला देखे बगैर घर लौटने का तो सोचा भी नहीं जा सकता। बेशक उछाल ले-लेकर नीचे को तेजी से दौड़ रहा नाला चाहे जितना ललचाये और अपने साथ दौड़ लगाने को उकसाता रहे। उसके मोह में पड़े बगैर उसकी धार के विपरीत बढ़ कर ही मिन्कियानी की ऊंचाई तक पहुंचा जा सकता था। पहाड़ की पीठ पर उतरता नाला ऐसे दौड़ रहा था मानो पिता की पीठ पर नीचे को रिपटने का खेल, खेल रहा हो। पिता हैं कि पीठ लम्बी से लम्बी किये जा रहे हैं। छोटा करने की कोशिशों में होते तो तीव्र घुमावों के साथ नाला भी घूम के रिपटता। बल्कि घुमावों पर तो उसकी गति आश्चर्यमय तीव्रता की हो जाती। पैदल मार्ग के लिए बनी पगडंडी भी ऐसे तीव्र घुमावों पर सीढ़ी दार। हम पिता की पीठ पर चढ़कर कंधें की ऊंचाई तक पहुंच जाना चाहते थे। कंधे पर खड़े होकर दुनिया को निहारने के बाद मिन्कियानी की दूसरी ओर की ढलान पर उतर जाना हमारा उद्देश्य था। दूसरी ओर नाले के साथ-साथ, पिता की दूसरी पीठ पर उतर जाना चाहते थे। दोंनों ओर की ढलान पिता की पीठ थी। पिता का हमसे कोई सामना नहीं जो हमें अपनी छाती दिखाते। वे दोनों ओर अपनी पीठ पर हमारे बोझ को झेलने लेने की विनम्रता भरी हरियाली से बंधे हैं। अपने कंधें को दर्रे में बदल देने वाले पिता की धौलादार पीठ पर मिन्कियानी दर्रा हमारा गंतव्य था। करेरी, नौली, छतरिमू, कोठराना, शेड, चमियारा, गांवों के लोग अपने जानवरों के साथ करेरी लेक के गोल घ्ोरे से बाहर दिखायी देती पत्थरीली जमीन पर छितराये हुए थे। गाय भैंसों को उससे आगे की चढ़ाई पर ले जाना बेहद कठिन है। लेक के उस गोल धेरे में अपने अपने कोठे में वे टिक गये। जवान छोकरे बकरियों को लेकर लमडल की ओर निकल गए। बकरियां दूसरे दूधारू-पालतू जानवरों से भिन्न हैं। कद-काठी की भिन्नता और देह में दूसरों से अधिक चपलता के कारण वे पहाड़ के बहुत तीखे पाखों पर पहुंच जाती हैं। हरी घास का बहुत छोटा सा तृण भी उन्हें तीखी ढलानों तक पहुंच जाने के लिए उकसा सकता है। वे चाहें तो किसी भी ऊंचाई तक जा सकती हैं। लेकिन उनके रखवाले जानते हैं कि एक सीमित ऊंचाई के बाद भेड़-बकरियों के खाने के लिए घ्ाास तो क्या वनस्पति का भी नामोनिशान नहीं। ऊंचाई की दृष्टि से कहें तो लगभग 14000-15000 फुट की ऊंचाई के बाद जमीन बंजर ढंगार है। बर्फ से जली हुई चट्टानों के बाद बर्फ के लिहाफ को ओढ़ती चटटानों की उदासी अपने बंजर को ढकने की कोशिश में बहुत कोमल और कटी फटी हो जाती है। ऊंचाईयों तक उठते उनके शीष, उदासी का उत्सव मनाते हुए, गले मिलने की चाह में दो चोटियों के बीच दर्रे का निर्माण कर देते हैं। बहुत फासले की चोटियों के मिलन पर होने वाले दर्रे का निर्माण इसी लिए बाज दफा एक सुन्दर मैदान नजर आने लगता है। मिन्कियानी वैसा चोड़ा मैंदान तो नहीं, लेकिन सीमित समतलता में वह हरियाला नजर आता है। तीखी ढलान वाला दर्रा।


नोट: यह यात्रा संस्मरण २० नव्म्बर २०११ के जनसत्ता में प्रकाशित हुआ है।