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Sunday, June 10, 2012

बागी टिहरी गाये जा

ब्रिटिश शासन से कभी भी प्रत्यक्ष तौर पर शासित न होने वाला टिहरी, उस उत्तराखण्ड राज्य का एक जनपद है जो प्रत्यक्ष ब्रिटिश शासन के अधीन रहे (ब्रिटिश गढ़वाल और कुमाऊ कमिश्नरी) इतिहास का सच है। 1947 की आजादी के वक्त हैदराबाद और कश्मीर की तरह टिहरी भी गणतांत्रिक भारत का हिस्सा न था, यह इतिहास है। जबकि टिहरी की जनता गणतांत्रिक भारत का हिस्सा होने को बेचैन थी। टिहरी राजशाही के खिलाफ प्रजा मण्डल का आंदोलन इस बात का गवाह है। यह अलग बात है कि गणतांत्रिक भारत से अपने को स्वतंत्र मानने की जिद पर अड़ी रही राजशाही को आज अंधराष्ट्रवादी किस्म की राजनीति राष्ट्रवाद का तमगा देती हो और प्रजामण्डल जैसे राष्ट्रवादी आंदोलन में शिरकत करती जनता को बागी। 'बागी टिहरी गाये जा", कथाकार विद्यासागर नौटियाल का ललित निबंध है। प्रजा मण्डल के आंदोलन में ही शिरकत करते हुए युवा हुए विद्याासागर नौटियाल को हिन्दी का साहित्य जगत एक ऐसे कथाकार के रूप्ा में जानता है जिनका सम्पूर्ण रचनाकर्म अपने जनपद टिहरी की कथा को कहता रहता है। टिहरी का इतिहास, टिहरी का भूगोल और टिहरी के लोगों की मानसिक बुनावट के कितने ही चित्र उनकी रचनाओं में साक्षात हैं। वे 'टिहरी की कहानियां" कहते हैं। उनकी रचनाओं में सम्पूर्ण उत्तराखण्ड के पहाड़ों की पृष्ठ भूमि को देखना उस सच्चाई तक न पहुंचना है, जिसको लगातार-लगातार लिखने के लिए कथाकार विद्याासागर नौटियाल बेचैन रहे। उनका, शायद अन्तिम उपन्यास 'मेरा जामक" जिसे किताबघ्ार को भेजते हुए उन्होंने 6 अप्रैल 2011 को मुझे मेल किया था, मेरे कथन का साक्ष्य है। 29 सितम्बर 1933 को गांव मालीदेवल, टिहरी में पैदा हुए कथाकर विद्यासागर नौटियाल न सिर्फ हमें, बल्कि उस टिहरी को भी विदा कह चुके हैं, जो टिहरी गत वर्षों में झील में समा गयी। 12 फरवरी 2012 की सुबह उन्होंने अपनी अंतिम सांस बैंग्लोर के एक अस्पताल में छोड़ी।
विद्यासागर नौटियाल से मेरा सम्पर्क 1993 के आस पास हुआ था। उस वक्त वे 60 वर्ष की उम्र पार कर रहे थे।  60 वर्ष की उम्र प्राप्त कर चुके कथाकार विद्याासागर नौटियाल देहरादून में रहते हैं, यह जानना मेरे लिए एक अनुभव था। 'फट जा पंचधार" हंस में छप चुकी थी और मैं उस कहानी के गहरे प्रभाव में था। पहाड़ की मुख्यधार के जनजीवन से बाहर के समाज की कथापात्र, एक कोल्टा स्त्री की कथा में आक्रोश और विद्रोह की तीव्रता भरा आख्याान मैंने पहले किसी अन्य कहानी में न पढ़ा था। युगवाणी उस वक्त तक साप्ताहिक पत्र था। प्रजामण्डल के आंदोलन के दौर में जारी आंदोलन की खबरों को जनता तक पहुंचाने के वास्ते आचार्य गोपेश्वर कोठियाल ने युगावाणी की शुरूआत की थी। साठ वर्ष की उम्र पर पहुंच चुके कथाकार विद्याासागर नौटियाल के षष्ठी पूर्ति कार्यक्रम का आयोजन युगवाणी ने किया। शायद देहरादून की साहित्यिक बिरादरी के बीच नौटियाल जी की वह पहली ही-वैसी जीवन्त उपस्थिति थी। उससे पहले मेरी स्मृति में मैंने उन्हें किसी साहित्यिक कार्यक्रम में देखा न था। हां, कम्यूनिस्ट पार्टी से उत्तर प्रदेश विधान सभा में विधायक रहे विद्यासागर नौटियाल का नाम मैंने जरूर सुना हुआ था। लेकिन वह भी साहित्यिक मित्र मण्डली के बीच नहीं बल्कि टे्रड यूनियन के साथियों के मुंह से। साहित्य की दुनिया के साथियों का राजनीति से दूरी उसका कारण रहा हो शायद। क्योंकि बहुत से अन्य मित्र तब भी जानते थे कि 'फट जा पंचधार" का लेखक और देवप्रयाग सीट से विधायक रहा व्यक्ति एक ही हैं - यह मुझे बाद में यदा कदा की बातचीतों से मालूम हुआ। लेकिन मेरे लिए यह जानना उस वक्त हुआ जब उनकी षष्ठी पूर्ति पर कार्यक्रम आयेजित हुआ। उस कार्यक्रम के दौरान अपने प्रिय नेता के सम्मान समारोह में पहाड़ से पहुंचे सामान्य ग्रामीणों की उपस्थिति मेरे लिए जो सूचना लेकर आयी थी, कथाकार विद्यासागर नौटियाल के प्रति एक खास तरह की निकटता में ले गयी। यद्यपि उस वक्त नौटियाल जी विधायक नहीं थे। शायद कम्यूनिस्ट पार्टी में भी न थे उस वक्त। बांध के सवाल पर पार्टी से भिन्न बनी राय के कारण उन्हें निष्कासित होना पड़ा था। गहरी मानसिक उथल-पुथल के दौर में थे। ऐसा उन्होंने अपने किसी साक्षात्कार में भी स्वीकारा है और यह भी व्यक्त किया है कि 'फट जा पंचधार" उसी मानसिक उथल-पुथल की स्थितियों में लिखी रचना है जिसमें वे खुद को कथापात्र रक्खी की स्थितियों में महसूस कर रहे थे। उत्सुकता स्वभाविक थी कि आखिर साहित्य के कार्यक्रम में एक अच्छी खासी संख्या में उपस्थित ग्रामीणों की उपस्थिति का माजरा क्या है ? एक विधायक एवं एक कथाकार विद्यासागर को जानने का अवसर मुझे उपलब्ध हो रहा था। वहां उपस्थित ग्रामीणों की तादाद बता रही थी कि बहुत करीब से जुड़े रह कर राजनीति करने वाले व्यक्ति के प्रति उसके प्रशंसको और शुभ चिंतकों की भूमिका क्या होती है। शायद उन ग्रामीणों के लिए भी वह अवसर ही रहा होगा जब वे अपने प्रिय नेता को एक दूसरी भूमिका में देख रहे हों। कार्यक्रम में हिस्सेदारी करती उनकी चपलता ऐसा ही कुछ कह रही थी। उनमें से कुछ लोगों ने मंच से भी अपने प्रिय नेता के लिए शुभ कामनायें दी थी। ऐसा ही एक अन्य अवसर पहल के सम्मान समारोह के दौरान था। सिर्फ ये दो ही अनुभव थे जब मैं प्रत्यक्ष रूप्ा से जान सका था कि कथाकार विद्यासागर नौटियाल ही वह व्यक्ति है जो किसी समय उत्तर प्रदेश विधान सभा में कम्यूनिस्ट पार्टी के नुमाइंदे के तौर पर विधायक रह चुके हैं। अन्यथा कभी कोई ऐसी स्थिति जिसमें वे कथाकार की बजाय सिर्फ एक राजनैतिक कार्यकर्ता रहे हों, देखने का अवसर मुझे नहीं मिला जो कि इसलिए भी प्रभावित करने वाला था कि समाज के भीतर चीजें इतनी स्पष्ट दिख नहीं रही होती। एक नौकरशाह अपनी असली भूमिका की निकम्मई को कैसे साहित्यकार होकर ढकना चाहता है या साहित्यकारों के बीच वह कैसे अपनी नौकरशाही के कारण हासिल मैरिट को भूनाता है, यह छुपा हुआ नहीं है। या अन्य क्षेत्रों के बीच भी इसे देखा जा सकता है जब अचनाक से एक दिन मालूम होता कि देश का जो प्रधानमंत्री है, वह कवि है और उसके प्रधानमंत्री बनते ही उसकी कविताअें की पुस्तकों के ढेर के ढेर छपने लगते हैं। दिग्गज आलोचकों की एक पूरी फौज उनकी कविताओं को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने की मांग करने लगती है। कोई मुख्यमंत्री अपने राजनैतिक कार्यों के लिए नहीं बल्कि अचनाक एक साहित्यकार के रूप्ा में देश विदेश के भीतर सम्मानित होने लग जाता है। बहुत सी अन्य स्थितियों को देखें तो सत्ता पद की गरीमा के दम पर किसी भी क्षेत्र में हिस्सेदारी का मतलब उस क्षेत्र का भी अव्वल कहलाये जाने का चलन जमाने में दिखायी देता है। विद्यासागर नौटियाल जी के संबंध में पायेंगे कि साहित्यकार की भूमिका में वे अपनी रचनाओं के दम पर होते हैं और राजनीति के क्षेत्र में अपने समझदारी और कार्रवाइयों के साथ। दो अलग क्षेत्रों के बीच दखल रखते हुए भी वे किसी एक क्षेत्र में अपनी स्थिति के दम पर दूसरे में प्रवेश नहीं करते। बल्कि कहें कि एक तीसरा क्षेत्र वकालत, जो उनके रोजी रोजगार का हिस्सा था, उसमें उनकी दक्षता को जानने के लिए उनके बस्ते पर ही जा कर जाना सकता था।       
         देश दुनिया के भूगोल से परिचित नौटियाल जी की रचनाओं में जिस भूगोल को हम पाते है, वह दुर्गम हिमालय क्षेत्र है। उसका भी एक छोटा सा हिस्सा- टिहरी-उत्तरकाशी क्षेत्र का हिमालय। वरना नेपाल से कच्च्मीर तक विस्तृत हिमालय का भूगोल भी तो एक जैसा नहीं। प्रत्यक्ष औपनिवेशिक स्थितियों के इतिहास की अनुपस्थिति में सामंती सत्ता के अत्याचारों का क्षेत्र। ऐसे अत्याचार, जिनकी अवश्यम्भाविता का विचार मानसिक जड़ता के साथ मौजूद रहता है। जहां शासन-प्रशासन का हर कदम पाप-पुण्य के भय का निर्माण करते हुए सामाजिक जड़ता को स्थापित करना चाहता रहा है। लेकिन लाख षड़यंत्रों के बावजूद भी सामाजिक गतिकी के नियम को फलांगना जिसके लिए संभव न हुआ और उठ खड़े हुए विद्रोहों से निपटने का रास्ता जहां खुलमखुल्ला निहत्थों पर हथियारबंद आक्रमण रहा। रंवाई का तिलाड़ी कांड निहत्थे ग्रामीणों की हत्या का इतिहास है जिसका जिक्र करने की जुर्रत भी करना विद्रोही हो जाना था। सामंती शासन के भीतर घ्ाटित ऐसे ढंढक/विद्रोह, दबी कुचली जनता की सामूहिक कोशिशें रही हैं। दस्तावेजी करण से उनका बचाया जाना सत्ता कोे कायम रखने के लिए जरूरी था। ऐसे ही इतिहास को अनेकों कथाओं में पिरोकर कथाकार विद्यासागर नौटियाल दर्ज करते चले गये हैं। इतिहास की घ्ाटनाओं का गल्प होते हुए भी अपने समय से जीवन्त संवाद बनाना उनकी रचनाओं का विशेष गुण है। इतिहास की सतत पड़ताल करती उनकी रचनाओं के पाठ हिन्दी साहित्य की दुनिया के दायरे को अपने तरह से विस्तार देते है। उनके अन्तिम उपन्यास 'मेरा जामक" में भी उस अलिखित इतिहास को जानने के स्पष्ट संकेत हैं।    
1992 में उत्तरकाशी में भूकम्प आया था, उपन्यास का कथ्य भूकम्प की त्रासद कथा है। जिसका स्मरण ही बेचैन कर देने वाला है। किसको याद करें, किसके लिए रोएं, किसको दें कंधा, किसके कंधें पर धरें सिर, अनंत हाहाकार के बीच किसको कहें पराया ? उत्तरकाशी भूकंप के बहाने लिखी गयी जामक की कथा का सच देश के हर हिस्से में घ्ाटी त्रासदी का सच है। क्या लातूर, क्या गुजरात। प्राकृतिक आपदाओं में ही नहीं, विकास के नाम पर जारी किसी भी योजना का सच उत्तरकाशी भूकंप राहत योजना से अलग नहीं है। व्यवस्था का ताना बाना कितना उलझा हुआ है कि अपनी ही बोली-बानी और क्षेत्र विशेष के व्यक्ति के हाथों भी छले जाने का उपक्रम होते हुए भी आम जनमानस इस यकीन के साथ हो जाता है कि जो कुछ अगला घटित हो रहा है शायद वह उसके हक में ही हो। पूरे उत्तराखण्ड के भीतर शिशु मन्दिरों की खुलती शाखाएं इसका जीवन्त उदाहरण है। उपन्यास में उन चालाकियों को पकड़ा जा सकता है जिनके रास्ते ऐसा झूठ रचा गया है और लगातार रचा जा रहा है। पहाड़ों के सीने को चीर देने वाली थर-थराहट और गाड।-गधेरों को किसी भी तरफ मोड़ देने वाली विध्वंश की गाथा वाला उत्तरकाशी का यथार्थ कुछ ही समय पहले का इतिहास है। हमारे देखे देखे का। टिहरी को डूबो लोगों को उनके घर-बार ही नहीं उनके पारम्परिक रोजी-रोजगार से बेदखल करने की चालाकियां भी हमारी देखी देखी हैं। उपन्यास की खूबी है कि पूरे पहाड़ को भण्ड-मज्या बनने को मजबूर करते इतिहास के एक काले दौर तक पड़ताल करने की युक्ति वह देता है। प्राकृतिक विध्वंश और कृतिम विध्वंश के कारण, जो वाचाल भाषा में राहत भरे शब्दों के रूप्ा में सुना जाता है, त्रस्त और अपने जीवन यापन की स्थितियों से जूझने के अवसर भी खो जाते जामक वासियों को भण्ड-मज्या बनाने के लिए अवसरों के रूप में दिखायी देने वाले स्वामियों और उनके चेले चपाटों की कमी नहीं है। ब्रिटिश शासन काल में ही जंगलो पर किये गये कब्जों के बाद पारम्परिक उद्योग (खेती बाड़ी और जानवर पालन) से वंचित कर दिये गये पहाड। वासियों के पहाड़ से पलायन और भण्ड-मज्या बनने को मजबूर हो जाने की कथा एक साक्ष्य है। बूट, पेटी और टोपी, जुराब के लिए पूरी जवानी को खंदकों में बीता देने का इतिहास सिर्फ देश प्रेम नहीं बल्कि उन स्थितियों से निपटने के लिए शुरू हुई फौरी कार्रवाइयां रही हैं। ऐसी ही जरूरी कथाओं को दर्ज करता नौटियाल जी का लिखित उनकी प्रिय जनता की धरोहर है।  


 -विजय गौड़

Sunday, February 12, 2012

विद्यासागर नौटियाल का जाना

विद्यासागर नौटियाल के निधन से हिन्दी ने एक समर्थ भाषा-शिल्पी और अप्रतिम गद्य लेखक को खो दिया है.29 सितंबर 1933 में जन्मे नौटियालजी का जीवन साहित्य और राजनीति का अनूठा संगम रहा. वे प्रगतिशील लेखकों की उस विरल पीढी से ताल्लुक रखते थे जिसने वैचारिक प्रतिबद्धता के लिये कला से कभी समझौता नहीं किया.हेमिंग्वे को अपना कथा गुरू मानने वाले नौटियाल जी 1950 के आस-पास कहानी के क्षेत्र में आये और शुरूआत में ही भैंस का कट्या जैसी कहानी लिखकर हिन्दी कहानी को एक नयी जमीन दी.शुरआती दौर की कहानियां लिखने के साथ ही वे भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी से जुड़ गये और फिर एक लम्बे समय तक साहित्य की दुनिया में अलक्षित रहे. उनकी शुरूआअती कहानियां लगभग तीस वर्षों बाद 1984 में टिहरी की कहानियां नाम से संकलित होकर पाठकों के सामने आयीं.नौटियालजी की साहित्यिक यात्रा इस मायने में भी विलक्षण है कि लगभग चार दशकों के लम्बे hibernation के बाद वे साहित्य में फिर से सक्रिय हुए! इस बीच वे तत्कालीन उत्तर-प्रदेश विधान-सभा में विधायक भी रहे. विधायक रह्ते हुए उन्होंने जिस तरह से अपने क्षेत्र को जाना उसका विवरण एक अद्भुत आख्यान भीम अकेला के रूप में दर्ज किया जिसे विधागत युक्तियों का अतिक्रमण करने वाली अनूठी रचना के रूप में याद किया जायेगा.लेखन की दूसरी पारी की शुरूआत में दिये गये एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था ,“ मुझे लिखने की हडबडी नहीं है".आश्चर्य होता है कि जीवन के आखिरी दो दशकों में उनकी दस से अधिक किताबें प्रकाशित हुईं जिसमें कहानी संग्रह ,उपन्यास,संस्मरण,निबन्ध और समीक्षाएं शामिल हैं.यह सब लिखते हुए वे निरन्तर सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय रहे.देहरादून के किसी भी साहित्यिक -सामाजिक कार्य-क्रम में उनकी मौजूदगी हमेशा सुख देती थी-वे वक्त पर पहुंचने वाले दुर्लभ व्यक्तियों में थे-प्राय: वे सबसे पहले पहुंचने वालों में होते.उनकी विनम्रता और वैचारिक असहमतियों को दर्ज करने की कठोरता का सामंजस्य चकित करता था.
वे एक प्रयोगशील कथाकार थे. सूरज सबका है जैसा उपन्यास अपने अद्भुत शिल्प -विन्यास और पारदर्शी भाषा के लिये हमेशा याद किया जायेगा.उनकी कहानियों में पहाड़ की औरत के दु:ख, तकलीफें,इच्छायें और एकाकीपन की जितनी तस्वीरें मिलती हैं वे अन्यत्र दुर्लभ हैं. उनके यहां फट जा पंचधार,नथ, समय की चोरी,जैसी मार्मिक कहानियों की लम्बी सूची है.उनके समग्र-साहित्य का मूल्यांकन करने में अभी समय लगेगा किन्तु एक बात बहुत बहुत स्पष्ट रूप से कही जा सकतीहै कि यदि पहाड़ के जीवन को समझने के लिये साहित्य में जाना हो तो विद्यासागर नैटियाल के साहित्य को पढ लेना पर्याप्त होगा.

नवीन कुमार नैथानी

Tuesday, May 31, 2011

उजड़ते गाँवों की व्यथा-कथा


कभी देहरादून तो कभी बंगलौर और कभी नोएडा, पिछले कुछ वर्षों से कथाकार विद्यासागर नौटियाल के तीन-तीन घर हुए हैं। घर परिवार के लोगों का संग साथ और स्वास्थय के लिहाज से उनकी देखभाल का यह सफर उनकी रचनात्मकता को किस तरह से प्रभावित कर रहा होगा, यह एक अध्ययन का विषय है। देश दुनिया के बीच यात्राओं की अनंत आवाजाही (बनारस से लेकर सोवियत संघ और अमेरिका की भूमि तक) के बावजूद रचनाओं में वे अपने बचपन, जवानी और संघर्ष की यादों की टिहरी को ही क्यों जिन्दा रखते हैं, क्या यह जानना अपने आप में दिलचस्प नहीं क्या ? उनकी कथा यात्रा में ऐसे सूत्रों का खोजना और उन कारणों तक पहुंचना जहां उनकी रचनात्मकता का कोई मुहाना दिखायी दे, दिलचस्प शोध हो सकता है। गत 19 मई को देहरादून से बंगलौर निकलते हुए भाई नवीन नैथानी को उन्होंने एक पत्र मेल किया। पत्र , नवीन नैथानी के कथा संग्रह सौरी की कहानियों पर प्रतिक्रियात्मक टिप्पणी है।  उनकी यह टिप्पणी न सिर्फ़ नवीन की कहानियों को समझने में मद्दगार हो सकती है अपितु स्वंय उनकी रचनात्मकता के मुहाने तक भी शायद इस रास्ते पहुँचा जा सकता  है।


   विद्यासागर नौटियाल
डी-8, नेहरू कॉलानी, देहरादून
   19-5-2011
प्रिय नवीन,
   मेरे कागजों में कहीं दर्ज है कि तुम्हारी पुस्तक ''सौरी की कहानियाँ " मेरे पास मार्च 2010 में भेजी गई थी । मुझे याद नहीं आ सकता कि मैने इसे कितनी बार पढ़ा । मेरा मानना है कि इन कहानियों के बारे में जल्दबाजी में कुछ  कहना ताती खीर खाना है, जो उतना स्वाद नहीं बताती जितना मुँह को जला बैठती है । इस पर तो अगली सदी में व्यवस्थित तौर पर विमर्श होना चाहिए । अपनी जड़ों को तलाशते, सदियों के फासलों को लाँघते आ रहे लोग, जो अपनी उम्र भी ठीक-ठीक नहीं बता सकते  । सदियों की चौकीदारी करने वाले पुरूष पुरातन रामप्रसाद ने छयानवे के बाद की गिनती करना छोड़ दिया है।  सालोंसाल अपने पास आने वालों को वह यही उम्र बताता रहता है । छयानवे से आगे वह कभी बढ़ता ही नहीं । यह बता पाना भी एक समस्या है कि यह उपन्यास है कि कहानियों का संग्रह । क्योंकि यह सौरी बे बाहर नहीं    निकलता । 'किस्से के शुरू में सौरी की सम्पन्नता का जिक्र होता था, जिसमें सौरी से बाहर निकलने के एक रास्ते का वर्णन होता था , जो एक तंग ढलान से होकर गुजरता था । ढलान के ऊपर खड़े होकर बाहर की दुनिया बड़ी लुभावनी, मोहक और मायावी लगा करती  । शुरू में जो लोग उस रास्ते से होकर गये, वे वापस नहीं लौटे । बादमें जो लोग वापस लौटे उनकी बाहर की स्मृति गायब हो गई, सौरी के लोगों को वे अजनबी लगा करते । वे सौरी के लोगों को पकड़कर अपनी पहचान बताते ।बाद में लोगां ने उस रास्ते से उतरना बन्द कर दिया । "  सौरी के बाद  और उससे अभिन्न रूप से नत्थी एक और महत्वपूर्ण नाम चोर घटड़ा । सौरी के लोग अपनी दुनिया में बन्द रहते थे ।  वे चाहते ही नहीं थे कि कोई  वहाँ से बाहर निकले । लोगों ने यह बात फैला रखी थी कि जो चोर धटडे से बाहर निकलेगा चोर घटड़ा उसमें  घुसते ही वहाँ  की उसकी याददाश्त चुरा लेगी ।  कलाधर वैद्य की तरह  जो अपने बड़े-से थैले में याददाश्त की जड़ी बूटियाँ भर कर बाहर गया, फिर लौटने  पर   उसे बड़  का पेड़ ही नहीं मिला । वह उसी पेड़ को ढ़ूढ़ने आसपास भटकता रहा । उसकी लाश की पहचान उसके हाथ में फंसे थैले से हुई।  यह किस्सा सुना लेने के बाद पिता  को बच्चा ही नहीं मिला । बदहवास पिता को कहीं दूर से उसकी आवाज़ सुनाई दी -मैं यहाँ हूं, चोर घटड़े में। बच्चे की आवाज़ अब और ज़्यादा दूर '' मैं यहाँ हूँ  चोर घटड़े में । " 
खोजराम के होने से पहले पूरना दाई पर यही अपयश लगाया जाता रहता था कि  उसके हाथ से सौरी में आजतक सिर्फ लड़के जन्म लेते रहे हैं ।  सौरी वासी  प्रसूति गृह से लड़की के जन्म लेने का शुभ समाचार कभी नहीं सुन पाए। बहुत बाद में एक खोजा ने जन्म लिया, जिसका एक पैर मुड़ा हआ था और एक कान बहरा। चार बरस की उम्र में वह सोना खोजने जंगल की ओर निकल पड़ा। फिर लोगों से सुनने के बाद पारस की ।
     सौरी में अपनी जड़ों को खोजते फिर रहे लोगों को  रात्रि निवास की शरण पाने की आस में मुंदरी बुढ़िया अपने घर की तीसरी मंजिल में भेज देती है । बहुत सारे लोग। उनके सामने वहाँ एक पीपल की जड़ उभरती दिखाई देती है । यह सौरी की मूल ज़ड़ है जो पूरी तरह उलटी हो चुकीहै । वही सौरी जो पहले तीस पैंतीस घरों का गाँव था और अब  पाँच छह घर बाकी रह गए हैं। सम्पन्नता प्रदान करने वाले उसके जंगल मर चुके हैं । अब ग्राम का इतिहास किसी गर्त में लुप्त होने लगा है । मुंदरी बुढिया के घर का निर्माण करने वाले गोकुल मिस्त्री को अब एक घर की टीन की छत के उड़ जाने के बाद उसकी फिर से छवाँईं करने लायक जिन्दा दीवारें नहीं मिल पा रही हैं । मुश्किल है बाबूजी, अब इनमें बल्लियाँ भी नहीं टिकेंगी राफ्टर कहाँ  लगेंगे ? उसने हाथ झाड़ लिए । मुंदरी बुढ़िया और रामप्रसाद चौकदार की पहचान मिट चुकी है , सौरी की तरह जिसके खोजा लाटा को जंगल में एक सुनयना मिल जाने और उसके सौरी में एक लडकी को जन्म देकर उस बारे में लोगों का अंधविश्वास मिटा देने के बावजूद । खुद सौरी वाले ही अपने अतीत और इतिहास को पूरी तरह बिसार चुके हैं ।
इस पुस्तक को मैं एक और मायने में भी ऐतिहासिक मानता हूँ। मैने दस साल पहले प्रकशित सुभाष पन्त के उपन्यास '' पहाड़ चोर " को  सदी का पहला धमाका की संज्ञा दी थी । वह एक मामले में ऐतिहासिक था । हिन्दी में पहली बार पहाड़ के साल वन को भी स्थान मिला था, जो सदियों से उपेक्षित रहते आए हैं । अब तुम्हारी पुस्तक में भी उन्हें स्थान मिला है । दोनों की एक ही भूमि है, और दोनों में  एक  ही जैसे लोगों की जीवन गाथाएँ उभरती हैं पूरी शिद्दत के साथ ।



Sunday, April 5, 2009

विद्यासागर नौटियाल के नाम

वरिष्ठ कथाकार विद्यासागर नौटियाल ने 29 सितम्बर 2008 को 76वें वर्ष में प्रवेश किया है।
शिरीष कुमार मौर्य युवा हैं। इस दौर के महत्वपूर्ण कवि हैं। एक युवा कवि का अपने समकालीन और वरिष्ठ रचनाकार को दर्ज करना कोई अनायास घटी हुई घटना नहीं हो सकता। बल्कि कहा जा सकता है कि उन आदर्शों, विश्वासों और उन जीवन-मूल्यों के प्रति यकीन ही होता है ।


शिरीष
कुमार मौर्य



काली फ्रेम के चश्मे के भीतर
हँसती
बूढ़ी आँखें

चेहरा
रक्तविहीन शुभ्रतावाला
पिचका हड़ियल
काठी कड़ियल

ढलती दोपहरी में कामरेड का लम्बा साया
उत्तर बाँया
जब खोज रही थी दुनिया सारी
तुम जाते थे
वनगूजर के दल में शामिल
ऊँचे बुग्यालों की
हरी घास तक

अपने जीवन के थोड़ा और
पास तक

मैं देखा करता हँू
लालरक्तकणिकाओं से विहीन
यह गोरा चिट्टा चेहरा
हड़ियल
लेकिन तब भी काठी कड़ियल

नौटियाल जी अब भी लोगों में ये आस है
कि विचार में ही उजास है !

बने रहें बस
बनें रहें बस आप
हमारे साथ
हम जैसे युवा लेखकों का दल तो विचार का
हामी दल है

आप सरीखा जो आगे है
उसमें बल है !

उसमें बल है !

Thursday, December 25, 2008

विद्यासागर नौटियाल का नया कथा-संग्रह " मेरी कथा यात्रा"




सुप्रसिद्ध आलोचक डा0 नामवरसिंह 25 दिसम्बर '08 को दूरदर्शन के ने्शनल प्रोग्राम के अंतर्गत
सुबह 8-20 बजे विद्यासागर नौटियाल के कथा-संग्रह
मेरी कथा यात्रा की समीक्षा करेंगे

Friday, November 21, 2008

चेखव के घर में

अभी कुछ दिन पहले प्रिय मित्र योगेन्द्र आहूजा से बात हो रही थी, जो स्वंय कथाकार होते हुए कविताओं के अच्छे पाठक हैं, तो बातों ही बातों में उन्हें स्पेनि्श के कवि लोर्का की कविता याद गयी। कथाकार विद्यासागर नौटियाल की डायरी को पलटता हूं तो पाता हूं कि सुनी गयी वह कविता मुझे भी, खुद को दोहराने के लिए मजबूर कर रही है-

अलविदा

जब मैं मरूं/ खिड़की खुली छोड़ देना/ एक बच्चा संतरा खाता है
खिड़की से मैं उसे देख सकता हूं/ एक किसान महकाता है फसल
अपनी खिड़की से मैं उसे सुन सकता हूं
जब मैं मरूं
खिड़की खुली छोड़ देना

प्रस्तुत है कथाकर विद्यासागर नौटियाल की डायरी के पृष्ठ-



चेखव के घर में
विद्यासागर नौटियाल

याल्टा,29 जुलाई 1981 : 4 बजे शाम ।

रोसिया सेनिटोरियम से हमारी कारें कुछ ही देर में चेखव -स्मारक में पहुँच गईं । महान साहित्यकार चेखव के घर को एक बार देख लेने की मेरी लालसा आज पूरी हो गई । कारों से उतर कर हम पाँचों साथी आँध्रवासी नरसैय्या, पाकिरप्पा, उड़िया सेठी और आसामी कामिनी मोहन सर्माह दोनों दुभाषिया रूसी लड़कियों इरिना तथा आल्ला के साथ चेखव के बागीचे में आ गए । इरिना मॉस्को विश्वविद्यालय में हिंदी तथा मराठी की प्राध्यापिका ह। यों जानती पंजाबी भी है। लेकिन हमारे बीच कोई पंजाबी नहीं । आल्ला तमिल तथा अंग्रेजी जानती है। हमारे प्रतिनिधिमंडल में कोई तमिल-भाषी भी नहीं ।
वहाँ पहुँचते ही मेरा ध्यान देवदार के दो वृक्षों की ओर गया । एक की ओर इशारा करके मैने इरिना को बताया कि यह पेड़ रूसी नहीं लगता, इसे हमारे यहाँ से मँगवाया गया होगा ।
-इस तरह का देवदार सिर्फ हमारे यहाँ होता है। दूसरा पेड़ जो है वह है तो देवदार पर कहीं और से लाया गया होगा ।
अपनी खोजी नज़रों से किसी अंग्रेजी बोलने वाले गाइड के आने की राह देख रही इरिना ने सवाल किया ।
-आप किस पेड़ को अपना बता रहे हैं नौटियालजी ?
मैने एक देवदार के पेड़ की ओर इशारा करके उसे बता दिया ।
-रूस में इससे मिलती-जुलती प्रजाति शिश्नात की है । उसके यहाँ सोवियत संघ में बहुत खूबसूरत, घने जंगल हैं । लेकिन ये दोनों पेड़ उस प्रजाति से भिन्न हैं । इन्हें हम देवदार कहते हैं ।
कामरेड सेठी ने फिकरा कसा - आते ही पेड़ों की बात करने लगे हैं,कामरेड नौटियाल ।
अंग्रेजी भाषा के गाइड ने हमारे पास आते ही अपना काम शुरू कर दिया । उसने हम लोगों को अपने साथ घुमाना शुरू कर दिया है । और एक-एक चीज़ के बारे में तफसील से बताने लगा है ।
गाइड की बात पूरी होते न होते मैं उसका हिंदी अनुवाद करने का फर्ज निभाने लगा हूँ चूँके हमारे कुछ साथी अंग्रेजी भी नहीं जानते । मेरे सामने समस्या यह है कि मैं उन बातों को अपनी डायरी में दर्ज करूँ कि उसके आगामी वाक्यों को सुनते हुए उनका अनुवाद प्रस्तुत करूँ । वह भी चलते-चलते । और उसके द्वारा बताई जा रही चीज़ों को अपनी आँखों से देखते जाना तो इस मौके की सबसे बड़ी ज़रूरत है । मेरी आँखें उन चीज़ों को देखें कि अपनी डायरी पर ध्यान केंद्रित करें? बहरहाल! मैं अपने भरसक पूरी बातों को यथासंभव सही रूप में हिंदी में कहते जाने की कोशिश कर रहा हूँ ।
इस बाग की उम्र 80 वर्ष की है । 1898 में चेखव ने यह बाग खरीदा । उस समय यह खाली था । यह बागीचा खरीदने के बाद चेखव ने अपने हाथों से यहाँ कई प्रकार के पौधे लगाए,जिनमें कुछ अभी भी जीवित हैं। यहाँ सदाबहार तथा सर्दियों के समय झड़ जाने वाले पेड़ लगे हैं। बर्च वृक्ष इसी जगह लगाया गया था। चेखव के इस बेंच को 'गोर्की का बेंच' कहते थे। इस पर आगन्तुक बैठते थे। चेखव 1904 में मरे । मैक्सिम गोर्की अंत तक यहाँ आते रहते थे। बागीचे से सागर तट तक के रास्तों पर पत्थर बिछे हैं। चेखव यही चाहते थे। चम्पा के पेड़,बाँस का झाड़ उनके अपने हाथ से लगाये है। यह खूबसूरत,कलात्मक पात्र एक मदिरा निर्माता ने चेखव को भेंट किया था। चेखव का घर इस बागीचे के पश्चिम में है। उन्होंने अपने मन के माफिक घर बनाया था। इसके निर्माण में दस महीने लगे। चेखव मूल रूप से याल्टा के निवासी नहीं थे। विभिन्न स्थानों में निवास करने के बाद वे यहाँ आए। टी0बी0 हो जाने पर अपना पिछला घर बेच कर स्थायी तौर पर यहाँ रहने चले आए थे। पहले घर की योजना कुछ और थी। पर वैसा भवन बनाने के लिए पहले वाला घर बेचने पर पैसे नहीं मिल पाए। इसलिए चेखवने पुस्तकें लिखने की सोची। चेखव के मित्र उनसे अधिक काम नकरने को कहते थे । चेखव मजबूरी में भवन निर्माण के खर्चे उठाने के लिए लिखने में जुटे रहते थे। वह सिलसिला अंत तक जारी रहा। ज़ार के युग में इस घर की कीमत 20 हजार रूबल थी। एक देवदार का विशाल वृक्ष इस घर के आँगन में खड़ा है।
हम लोग एक बालकनी में चले आए हैं। इस बालकनी में खड़ा होना चेखव को बहुत प्रिय था। यहीं से,दूरबीन लेकर,वे सागर की ओर देखते थे। चार कमरे पहली मंजिल पर,चार दूसरी मंजिल पर,एक कमरा तीसरी मंजिल पर। तीसरी मंजिल पर बहन रहती थी,जिसे चित्र खींचने का शौक था। बर्च पेड़ चेखव ने स्वयं लगाया था,सुराही का पेड़ बहन ने लगाया । दूसरा 1919 में लगाया,जबकि चेखव की माता की मृत्यु हो गई। तीसरा सुराही का पेड़ 1957 में लगाया था,जब बहन की मृत्यु हो गई। 21 से 57 तक पार्यान्तोनेला इस संग्रहालय की मालिक रही। इस भवन के अन्दर सब चीजें जस की तस मौजूद हैं । जैसी कि चेखव के जीवनकाल में रहती थीं । उनमें किसी भी तरह के परिवर्तन नहीं किए गए हैं।
डाइनिंग रूम में दीवार पर पुश्किन का एक चित्र टँगा है। डाइनिंग मेज,दो सोफे की कुर्सियाँ,चेखव का एक चित्र। बहन का चित्र। युवती थी। दो चित्र चेखव के बनाए हुए। ये बर्तन, चेखव की सम्पत्ति थे। ये क्रिस्टल ग्लासेज़ उनकी पैतृक सम्पत्ति हैं,जो चेखव के माता-पिता के समय प्रयुक्त होते थे। चेखव का चित्र उनकी बहन ने बनाया था, जो एक लेखिका भी थीं । उनके छोटे भाई मिखाइल ने भी चेखव के बारे में एक पुस्तक लिखी । यह सामने का कमरा मेहमानों के लिए था । यहाँ आने पर गोर्की इसीमें रहते थे। शलातिन संगीतज्ञ भी यहीं रहते थे। कुप्रिन ने भी यहीं रह कर कहानियाँ लिखी थीं। गोर्की को यह स्थान बेहद प्रिय लगता था। पेन्टर लेवितान भी इसी कमरे में रहते थे। छोटी मेज पर लैम्प रखा है। यह कमरा उनकी पत्नी का कमरा था,जो छुट्टियों में आकर यहाँ रहती थीं। वह कमरा वैसा ही है(पूर्व की ओर)। वे एक्ट्रेस थीं। उनका मकबरा मॉस्को में चेखव के मकबरे के पास है। पत्नी मॉस्को में रहती थीं। चेखव ने एक पत्र में अपना असंतोष व्यक्त किया था कि मैं लेखक,तुम एक्ट्रेस इसलिए जुदा हैं। बीच के कमरे में सन्दूक है। ये सीढ़ियाँ अब प्रयुक्त नहीं की जातीं चूँके पुरानी पड़ गई हैं।
ऊपर की मंजिल के पश्चिम में सुराही का वृक्ष चेखव का लगाया है ।
पीछे छोटा भवन पहले से बना था। इस भवन के निर्माण की अवधि में चेखव यहीं रहे,बाद में वहाँ रसोई बनी। उसमें दो कमरे थे,एक में रसोइया रहती थी। दूसरे में माली। ऊपर के बाराम्दे के सामने एक छज्जा बाहर निकला है,जो चेखव के कमरे से जुड़ा है। अन्दर आल्मारी में चेखव के कपड़े रखे हैं। चमड़े का कोट प्रसिद्ध है। 1890 में सहालिन द्वीप पर इसे पहने कर रहे। अपनी डायरी में चेखव ने इस कोट का भी जिक्र किया है। सहालिन द्वीप पर वे तीन महीने रहे। वहाँ की जनसंख्या के बारे में जानकारी की। वहाँ शहर से कैदियों के रूप में रहने वाले लोग भी थे। वापिस आकर सहालिन द्वीप के बारे में पुस्तक लिखने लगे। फिर श्रीलंका देखने चले गए । देशों का तुलनात्मक विवाण प्रस्तुत किया। उन्होंने लिखा कि श्रीलंका अपेक्षाकृत स्वर्ग है। श्रीलंका से वे हाथिनों की दो मूर्तियाँ लाए, जो यहाँ रखी हैं। माँ के कमरे में नौ दिन की बनाई माँ की तस्वीर दीवार पर टँगी है । एक मीटर 83 से0मी0 का कद था, जूते भी बड़े थे। चद्गमा मॉस्को के संग्रहालय में है।
लिखने का काम भी ऊपर की मंजिल में । मेज पर कहानियाँ लिखते थे। मेडिकल औजार भी मेज पर रखे हैं। चेखव पहले डाक्टर थे। उन्होंने डाक्टरी का पेश छोड़ दिया था पर लोगों को देख लिया करते थे। एक पुराना फोन दीवार पर टँगा है। एक तख्ती पर 'सिगरेट पीना मना है'
लिखा है,जो एक मित्र ने लगाई थी। गुस्से में। खिड़की के ऊपर लाल और गहरे नीले काँच लगे हैं,जो पेड़ों के छोटा होने के कारण धूप से बचने के लिए लगाए गए थे। 20गुणा12 फिट का कमरा। पीछे एक सोफा भी लगा है। बीच में मिट्टी के तेल का लैम्प लटका है ।
इस कमरे में लोग आराम करने आते थे। यह आल्मारी और पियानो बहुत पुराने हैं। इनका उपयोग उनके संगीतज्ञ मेहमान करते थे । सामने का चित्र उनके दूसरे भाई का बनाया है । इसका शीर्षक गरीबी है। याल्टा में थियेटर बन जाने पर मास्को से कलाकारों ने यहाँ चेखव के दो नाटक प्रदर्शित किए। बाद में वे लोग इस कमरे में आए। उस ओर भी बाराम्दे हैं, उत्तर पूर्व में। चेखव इस घर में पाँच वर्ष रहे। चेखव यहाँ गंभीर रोगी होकर आए थे। उनकी मृत्यु हो गई । तब आयु 43 वर्ष थी । कुछ समय पहर्ले वे अपनी पत्नी से मिलने मॉस्को गए। सर्दी लग गई। वे जानते थे अंत निकट है ।( पूरा भवन पत्थरों का बना है।)
डाक्टरों ने उन्हें दक्षिण जर्मनी में आराम करने की सलाह दी । 1904 मई में वे द0 जर्मनी गए। तब उनकी पत्नी भी साथ थीं। 2 जुलाई को उनकी हालत खराब हो गई । अपनी सेहत की गंभीरता के बारे में उनको खुद ही जानकारी हो गई थी । हड़बड़ी में डाक्टरको बुलाने की तैयारी कर रही अपनी पत्नी को चेखव ने कहा- डाक्टर को मत बुलाओ,उसे बुलाना फिजूल होगा। उसके आने से पहले मैं चला जाऊँगा । बहुत धैर्य के साथ उन्होंने अन्त में शैमपेन का एक गिलास लिया । उसके बाद जर्मन में बोले- ICH STBR (मैं जा रहा हूँ)। उनका शव मॉस्को ले जाया गया। वहीं उनका मकबरा बना है।
उतना वर्णन सुन लेने के बाद मुझे लग रहा है कि चेखव के घर आकर मैने अपनी ज़िंदगी का एक महत्वपूर्ण फर्ज अदा किया है। उसे मैं अपने जीवन की एक महान उपलब्धि मानता रहूँगा। जिस रोग ने चेखव की ज़िन्दगी ले ली,इतने वर्षों के बाद मैं उससे निजात पाने के बाद यहाँ विश्राम करने आया हूँ। उनके जीवन के दौरान क्षयरोग को एक असाध्य रोग माना जाता था। बहुत बाद तक वैसी ही स्थिति कायम रही। डाक्टर अपने को निरूपाय मानने लगते थे। हमारे ज़माने के काफी करीब फ्रैंज काफ्का को भी उसने अपना शिकार बनाया। बीस साल बाद काफ्का की मौत 1924 में 41 वर्ष की उम्र में वियना के एक सेनिटोरियम में हुई। उसकी महत्वपूर्ण रचना ' ट्रायल' 1925 में छपी ।
और अब डाक्टर उसे कोई ऐसा भयंकर रोग नहीं मानते। तबसे अब तक विज्ञान और आयुर्विज्ञान ने बहुत प्रगति कर ली है ।
गाइड ने मुझे इस विषय पर ज़्यादा सोचने का मौका नहीं दिया। अपनी बात जारी रखते हुए वह बताने लगा :-
याल्टावासी चेखव पर अभिमान करते हैं। यहाँ के पुस्तकालय को चेखव ने अनेक पुस्तकें दी थीं। चेखव के नाम से एक सेनिटोरियम और एक मार्ग भी है। 1901 में चेखव सेनिटोरियम का उद्दघाटन हुआ । उसके निर्माण के लिए,अन्य साहित्यकारों के साथ,चेखव ने भी चंदा दिया था। यहाँ का थियेटर भी चेखव के नाम का है। यहाँ हर रोज दर्शक आते हैं ।
1860 में अपने जन्म के बाद 1879 तक चेखव तगानरोफ में ही रहे। वहाँ भी चेखव परिवार का संग्रहालय है। पिता छोटे व्यापारी थे। 1879 में आर्थिक संकट के कारण पिता मॉस्को गए। चेखव अकेले कहीं गाँव में रहते थे । चेखव ट्यूशन करके अपना गुजारा करने लगे। फिर 92 तक चेखव परिवार सहित मॉस्को मे रहे। पिता को नौकरी नहीं मिलती थी । गरीबी में रहते थे। टी0बी0 ने उसी कारण दबोच लिया था । मॉस्को में चेखव विश्वविद्यालय में भर्ती ह। मॉस्को में किराए के मकानों में रहते थे। उन दिनों के बारे में उन्होंने अपनी डायरी में लिखा कि हमारे फ्लैट्स से आने-जाने वालों के सिर्फ पाँव दिखाई देते हैं। माँ चाहती थीं चेखव डाक्टर बनें। पढ़ते समय वे कहानियाँ लिखने लगे। उनके पारिश्रमिक की धनराशि से परिवार की कुछ सहायता करने लगे। लेखन जारी रहा । विनोदी कहानियाँ लिखीं । 1892 में पेलेखेवा गाँव में भवन खरीदा। 92 से 99 तक पेलेखेवा गाँव में रहे। यह मॉस्को के पास एक गाँव था,जिसका नाम अब चेखव है। और यह अब मॉस्को का अंग बन गया है। 7 साल तक वहाँ रहे। वहाँ कई साहित्यिक कृतियों की रचना की। डाक्टरी की डिग्री भी ली। हैजा फैला,उसकी रोकथाम की। चेखव के चार भाई एक बहन और थे। इन सात वर्षों में गरीबी का चित्र बनाने वाले भाई तथा पिता की मृत्यु हो गई । पहली बार याल्टा आने पर चेखव को यहाँ अच्छा नहीं लगा था । लिखा मुझे अच्छा नहीं लगा । यह यूरोपियन और रूसी का घालमेल है । पर सागर से परिचय हुआ तो याल्टा भी आया । फिर लिखा याल्टा का सागर एक युवती की तरह है । इसके तट पर हजार साल तक रहने
पर भी बुरा नहीं लगेगा । प्रथम बार यहाँ तीन सप्ताह व्यतीत किए थे। फिर 1894 में आए । इसके पूर्व सखालीन द्वीप के प्रवास पर रहे,जहाँ टी0बी0 बढ़ गई। रोसियन होटल में एक महीना याल्टा में बिताया। यहाँ आए तो खाँसी दूर हो गई। फिर लेखन का काम करने लगे। इलाज बन्द कर दिया। उसके बाद दो-तीन सप्ताह के लिए अक्सर यहाँ आकर मित्रों के घर पर रह लेते थे। 1899 में भावी पत्नी से परिचय हुआ। तब दोनों यहाँ आए । यहाँ आने के बाद चेखव होटल में और ओल्गा अपने मित्रों के घर पर रहने लगे। फिर योरोप, फ्राँस का प्रवास किया। डाक्टरों ने फ्राँस में रहने की सलाह दी । चेखव ने मातृभूमि में रहना अधिक पसन्द किया। पिता की मृत्यु व अपने रोग की गंभीरता के कारण यहाँ रहने लगे । उसके बाद उनका याल्टा का जीवन शुरू हुआ ।
दूसरे महायुद्ध के समय याल्टा पर फासिस्टों ने कब्जा कर लिया था। एक फासिस्ट अधिकारी ने आकर कहा -''यहाँ मैं रहूँगा ।'' उस दौरान यहाँ बहन रहती थी । बहन को सूझा कि वे कहीं उस घर को नष्ट न कर दें। उसने भवन की एक दीवार पर एक जर्मन नाटककार को फोटो लगा दिया । उस फोटो को देखकर हाकिम ने घर को नष्ट नहीं किया। जर्मन हाकिम यहाँ आठ दिन रहा। फिर सेवोस्तोपोल चला गया। जाते समय पीछे के दरवाजे पर उसने 'मेरबाकी'(जर्मन अधिकारी की संपत्ति है ) प्लेट लगा दी । सेवोस्तोपोल से वह वापस नहीं लौटा । वह तख्ती युद्ध के अंत तक यहाँ लगी रही और उसके कारण जर्मन सैनिकों ने इसे ध्वस्त नहीं किया। गोलियाँ भवन को लगी थीं । उसकी मरम्मत हो गई । यह पेड़ केदरगियाल्यस्की(देवदार) हिमालय से आया है । दूसरा देवदार अफ्रीका से आया है ।
मैने इरिना को बताया ।
-यह गंगोत्री के पास हर्षिल से लाया गया देवदार है ।
मैं एक टकनौरी देवदार के नीच आकर खड़ा हो गया तो लगा कि चेखव के बागीचे में आकर मैं हर्षिल ही पहुँच गया हूँ । मेरा ननिहाल । और मैं अकेला नहीं,चेखव भी मेरे साथ हैं ।
उस वक्त मैने देखा मेरे सभी साथी हमारी ओर पीठ फेर कर तेजी से बाहर की ओर लपकते जा रहे थे । उस ओर जहाँ अपनी कारें खड़ी थीं ।

Thursday, November 20, 2008

फायर लाइन का पहरेदार

कथाकार विद्यासागर नौटियाल की स्म्रतियों में दर्ज टिहरी के ढेरों चित्र उनके रचना संसार में उपस्थित हो कर पाठक के भीतर कौतुहल जगाने लगते हैं। इतिहास की ढेरों पर्ते खुद ब खुन खुलने लगती है।
प्रस्तुत है उनकी डायरी के प्रष्ठ
विद्यासागर नौटियाल

उन दिनों मेरे पिता टिहरी -गढ़वाल रियासत की राजधानी नरेन्द्रनगर के पास फकोट नामक स्थान पर तैनात थे । वहां एक राजकीय उद्यान था, पिता उसके अधीक्षक थे । उस उद्यान में सिर्फ सब्जियां उगाई जाती थीं । इतनी सब्जियां कि नरेन्द्रनगर राजमहल में रोजाना दो खच्चर सब्जी भेजी जी सके ।
बाद में पिता को फिर वन विभाग में रेंज ऑफीसर बना दिया गया । सन् 1939 ई0 उस वक्त मेरी उम्र सात बरस की थी जब शिमला की राह पर जुब्बल रियासत के पड़ोस में रियासत के अंतिम क्षेत्र में हमारा परिवार बंगाण पट्टी के कसेडी नामक रेंज दफ्तर में जा पहुंचा ।

टिहरी शहर से सौ मील की दूरी पर कसेडी रेंज दफ्तर बंगाण पट्टी में एक बेहद सुनसान जगह पर स्थित था । वहां से गांव बहुत दूरी पर थे । घाटी में सामने की ओर दूसरे पहाड़ पर जौनसार -बाबर का इलाका दिखायी देता था । वहां राजा का नहीं,अंग्रेज का राज था।
वन विभाग के कर्मचारियों के लिए एक ज़रूरी काम जंगलों को आग से संभावित नुकसान से बचाना होता था । घने जंगल में मामूली आग दावानल का रूप धारण कर सकती है। रियासत में वनों की आग से रक्षा करने के नियम बहुत कठोर थे। राह चलते आदमी के लिए अनिवार्य होता था कि वह आग दिखायी देने पर उसे बुझाने के काम में लग जाय । गांव के निवासियों को भी अपने आस-पास के किसी वन में धुंआ दिखायी देने पर अपने काम-धंधे छोड़ कर जंगल की ओर दौड़ जाना कानूनी तौर पर लाजमी होता था । गर्मियों का मौसम जंगलातियों के लिए विपदा का मौसम माना जाता था । जब तक बरसात शुरू नहीं हो जाती थी जंगलात के किसी भी अधिकारी-कर्मचारी को छुट्टी मंजूर नहीं हो सकती थी । आग से वनों की रक्षा करने के लिहाज से गर्मियों के शुरू होने से पेश्तर एतिहायत के तौर पर हर साल फ़ायर लाइन काटी जाती थी । रक्षित वनों के चारों ओर उसकी चौहद्दी में फैली हुई घास को एक निश्चित चौड़ाई में काट कर इस बात की व्यवस्था कर ली जाती थी कि उससे बाहर के क्षेत्र में फैलने वाली आग की लपटें उस जंगल के अन्दर प्रवेश न कर सकें । फ़ायर लाइन काटने का एक दूसरा उपाय यह भी होता था कि रक्षित वन की चौहद्दी में उगी हुई घास पर खुद ही आग लगा कर उसे वन की दिशा में बुझाते चलें । इस काम में कई लोगों को एक साथ मिल कर जुटना पड़ता है । आग को वन के अन्दर और वन के बाहर दोनों दिशाओं में बुझाते हुए आगे बढ़ते रहते हैं । उस लाइन के उस तरह काट दिए जाने से भी बाहर की आग के वन के भीतर प्रवेश कर सकने की संभावना खत्म हो जाती थी । हमारे रेंज दफ्तर से नीचे के इलाके में आम रास्ते के बराबरी पर पिछले कुछ दिनों से आग लगा कर लाइन काटी जा रही थी । उस काम को वन विभाग के कर्मचारियों के अलावा कुछ दिहाड़ी मजूर भी शामिल रहते थे। आग लाइन के काम के शुरू होते ही मैं भी उस जगह पहुंच जाता था । उनके साथ आग जलाते-बुझाते हुए आगे बढ़ते रहने में मुझे बहुत मज़ा आता था । मेरे मन में यह भाव भरने लगता था कि इस वक्त मैं भी एक बेहद जुम्मेदारी का काम निभा रहा हूं। उस काम में शरीक होने के लिए मुझे कोई बुलाने भी नहीं आता था,वहाँ से हट जाने को भी नहीं कहता था । रेंजर साहब के बेटे को कोई कुछ कह भी कैसे सकता था ?
उस काम की योजना के बारे में पिता को जब भी फुरसत में पाता मैं विस्तार से जानकारी लेता रहता था । रेंज क्वार्टर से नीचे के क्षेत्र में चल रहे काम के पूरा हो जाने के फौरन बाद उससे ऊपर की ओर के ढलानों पर काम किया जाना था । पहाड़ की चोटी तक । बड़े पाजूधार की तरफ घने जंगल थे । उन जंगलों के नक्शे मेरे दिमाग में दर्ज रहते थे । पाजूधार बंगले तक रोज जाते आते मुझे अच्छी तरह याद हो गया था कहां क्या है ्र क्या नहीं है ।
उस दिन जन्माष्ठमी के व्रत के कारण रेंज दफ्तर में छुट्टी थी । उस छुट्टी के कारण पिता दौरे पर नहीं थे, घर पर मौजूद थे । परिवार में हंसी-खुशी का माहौल था । बच्चों में भाईजी तो काफी लंबे समय से घर पर रहते नहीं थे । वे पढ़ाई करने के लिए देहरादून में रहने लगे थे। सिर्फ गर्मियों की छुट्टियों में हमारे पास आ पाते थे । दूसरे नम्बर पर दीदी थीं । उनके जीवन को पिछले काफी समय से नानीजी के निर्र्देशों के मुताबिक ढाला जाने लगा था, जिसमें उम्रदार लड़कियों का व्रत लेना एक मुख्य ज़रूरत होती थी । दीदी ने पिछले साल भी व्रत लिया था । साल में दो बड़े व्रत आते थे-शिवरात्रि और जन्माष्ठमी । उन दोनों व्रतों के दिन घर पर होने वाली कुल घटनाओं के विवरण मुझे यों भी पूरी तरह याद रहते थे । उस दिन सुबह की चाय पी लेने के फौरन बाद मेरा मांजी से झगड़ा होने लगा था । मुझे व्रत लेने के लिए मना किया जा रहा था । मेरा कहना था कि मेरी बहनें कमला और उर्मिला अभी छोटी हैं, इसलिए वे व्रत न रखें तो कोई बात नहीं। पर मैं तो अब खूब बड़ा हो गया हूं और मैं तो व्रत लूंगा ही लूंगा ।
-तू अभी छोटा है बेटा ।
-हां मांजी, मैं अभी छोटा हूं । पर यह बात तुम तब तो नहीं कहते जब मैं फायर लाइन बुझाने जाता हूं । तब नहीं होता मैं छोटा ।
-अच्छा विद्यासागर,जो तू बड़ा हो गया है तो पहले मेरे दूध के पैसे दे दे ।
दूध के पैसे । रोज़-रोज ताने देती रहती हैं -तुझे मैने दूध पिलाया है। उस दिन मैं पूरा हिसाब चुकता करने पर उतारू हो गया। मेरे पैसे भी मांजी के ही पास रहते थे। लकड़ी के संदूक के अन्दर, एक कोने पर । मेरे पास पैसे कहां से आते हैं ? जब कभी कोई मेहमान या रिश्तेदार हमारे घर आते हैं तो उनमें से कुछ लोग जाते वक्त मुझे कुछ पैसा दे देते हैं - ले विद्यासागर, तू अपने लिए किताब ले लेना । उस तरह की मेरी कुल जमा पूंजी कुल कितनी है, कितना पैसा किसने दिया था इस बात की मुझे बखूबी जानकारी रहती थी । और उनकी याद भी रहती थी । उस वक्त मांजी के संदूक में मेरे कुल पांच रूपए जमा थे ।
-ज्यादा से ज्यादा पांच रूपए का तो पिया होगा मैने तुम्हारा दूध। तुम ही रख लेना मेरे वे सब रूपए, जो तुम्हारे पास हैं ।
कमला और उर्मिला बहुत उत्सुक होकर देखने लगी थीं कि आज व्रत के दिन दूध के उस हिसाब के चुकता हो जाने के बाद अब मेरे व्रत लेने न लेने के बारे में मांजी क्या निर्णय देती हैं । इस मौके पर वे दोनों कामना करने लगी थीं कि मांजी की जुबान से किसी तरह फिसल कर, एक बार 'नहीं मानता तो रहले भूखा " निकल आए । मुझे इजाजत मिल जाने पर उनके लिए भी व्रत लेने की राहें खुल सकती थीं । तब उनकी भी व्रत रखने का अपना दावा पेश कर देने की बारी आ सकती थी । उसके लिए चाहे जितनी भी आरजू मिन्नत करनी पड़े । थोड़ा रोना, थोड़ा रूठना, थोड़ा हल्ला मचाना। पर पहले रास्ता रोक रही यह मुख्य बाधा तो दूर हो ।
मैं अपने को बाकायदा एक जुम्मेदार व्यक्ति मानने लगा था और मैने करीब करीब तय कर लिया था कि दिन के मौके पर, रात हो जाने से पहले, दीदी की तरह मैं भी खाना नहीं खाऊंगा और व्रत रखूंगा। पिछले साल की तरह अब मैं किसी के झांसे में नहीं आने वाला, जब मुझे दोपहर के वक्त, आकाश में सूरज के मौजूद रहते यह झूठ-झूठ कह कर खाना खिला दिया गया था कि बच्चों के आधा दिन के बाद खाना खा लेने पर भगवानजी नाराज नहीं होते और ऐसे बच्चों का खा लेने के बाद चर्त नहीं होता । (चर्त गढ़वाली में व्रत के उल्टे को कहा जाता है।)
बादल-विहीन आकाश में जब सूरज कुछ ऊपर चढ़ आया तो मैं अपने नि्श्चय को मन ही मन अटल मानता हुआ अपनी जेब में एक माचिस लेकर चुपचाप घर से निकल पड़ा । छुट्टी के फौरन बाद रेंज दफ्तर से ऊपर की ओर की फायर लाइन काटी ( लगाई-बुझाई)जानी थी । यह बात मुझे पहले से मालूम थी । अपने पिता के विभाग के कल के काम को कुछ हलका करने के लिहाज से मैं थोड़ा बहुत काम आज ही निपटा लेना चाहता था। रेंज दफ्तर की सीमा से बाहर जंगल में पहुंचते ही मैने पेड़ों की दो-तीन छोटी शाखाओं को उठा कर उनको जमीन पर एक साथ रखा । उनका इस्तेमाल आग बुझाने के लिए किया जाना था । तब धीरे से माचिस की एक तीली झाड़ी और बेतहाशा उगी हुई घास पर एक जगह पर आग छुआ दी । उस आग को इस हिसाब से बुझाते रहना था कि वह जंगल की ओर न बढ़ सके,रेंज दफ्तर की ओर ही आती रहे, जिधर उसके ज़्यादा फैलने की कोई संभावना नहीं हो सकती थी। उधर पहले ही फायर लाइन काटी जा चुकी थी। आग जो लगी तो लग ही गई । वह बेतहाशा फैलने लगी । मैने काफी को्शिश की कि आग को ऊपर की ओर बढ़ने से रोक लिया जाय । लेकिन वह सूखी घास की खूराक पाकर ऊपर की ओर ही लपकती जा रही थी । मेरे देखते-देखते उसका घेरा इतना बढ़ गया कि नीचे रेंज दफ्तर से आकाश की ओर उठता हुआ धुआं साफ-साफ नज़र आने लगा ।
जन्माष्ठमी का त्यौहार। कृष्ण के जन्म के मौके पर यमुना में बाढ़ आ गई थी। यहां यमुना हमसे काफी दूर है। और आकाश में,लगता है, धुंए के अलावा और कुछ है ही नहीं। त्यौहार मनाने में व्यस्त जंगलाती अचानक लग गई उस आग को देख भयभीत हो गए थे। किसका व्रत ? किसका त्यौहार ? अपने घर पर जो जैसी हालत में था वैसा ही वन की ओर दौड़ता चला आ रहा था ।
पता नहीं उस सुनसान जगह पर, जहां दो या तीन परिवारों के अलावा मीलों तक कोई इन्सानी आबादी नहीं थी, उतने सारे लोग उस वक्त कहां से आ लगे । लेकिन आग थी कि वह किसी के वश में नहीं आ रही थी।
ऐसे संकट के समय मुझे मौके पर पिता के हाथों कितनी मार पड रही है, उसका मैं कोई हिसाब कैसे रख सकता था । मुझे दिखायी दे रहा था कि आग की लपटें सुरक्षित वन के एकदम पास पहुंचने लगीं हैं। अचानक एक आश्चर्य घटित हुआ । आकाश में जाने कहां से बादल घिर आए और पानी बरसने लगा । ऐसी तेज बरखा कि कुछ ही देर बाद सुरक्षित जंगल की ओर बढ़ती आग की लपटों का कहीं पता ही नहीं चला । व्रतधारी विद्यासागर की भी जान में जान आ गई । मुझे याद नहीं कि उस मशक्कत के बाद घर लौट आने पर मेरे व्रत का चर्त करवा दिया गया था या नहीं ।

Monday, November 17, 2008

पीठ का सौदा

टिहरी डूब गयी है। टिहरी का भूगोल, टिहरी का जन-जीवन, बेदखल कर दिया गया टिहरी का समाज और टिहरी के इतिहास को जानना हो तो कौन बताएगा ?
एक मात्र स्रोत अगर कोई है तो कथाकार विद्यासागर नौटियाल का रचना संसार।
टिहरी से लेकर बनारस और बनारस से लेकर यूरोप और अमेरिका तक की यात्राओं को करने और जन-जीवन को जानने समझने वाले विद्यासागर नौटियाल की आखिर ऐसी क्या मजबूरी है कि साहित्य में उन्होंने अपने कदम टिहरी के भूगोल से बाहर नहीं निकलने दिये।
कथाकार
विद्यासागर नौटियाल के मार्फत ही कहूं, जो उन्होंने एक दिन ऐसी जिज्ञासावश पूछे गए सवाल के जवाब में कहा तो यही कि मैं वही लिखूंगा जिसे मैं लिख सकता हूं जिसको लिखने वाला कोई दूसरा नहीं है और शायद हो भी न। यह मुझ पर ऋण है और लिखकर ही मैं उस उससे उऋण होना चाहता हूं।


कथाकार विद्यासागर नौटियाल के रचना संसार पर वरिष्ठ कहानीकार शेखर जोशी की टिप्पणी ज्यादा माकूल है -" टिहरी गढ़वाल के विभिन्न क्षेत्रों की छवियां उनके साहित्य में अपनी सम्पूर्ण अंतरंगता के साथ उपस्थित हैं। आकश छूती ऊंचाइयों पर हरे-भरे बुग्यालों में अपने पशुओं के साथ एकाकी जीवन बिताने वाले गूजर हों अथवा घाटी में संघर्षशील जीवन व्यतीत करने वाले ग्रामीण, सभी अपनी विशिष्ट मुद्राओं में हमें अपनी जिजीविषा से चमत्कृत कर देते हैं। उनके जीन प्रसगों में काठिन्य, करुणा, दैन्य के अतिरिक्त प्रेम, माधुर्य और विनोद भी है। ऐसी विडंबनापूर्ण स्थितियां भी हैं जिन्हें पढ़कर किसी संवेदनशील पाठक के होंठों पर मुस्कान उतर आए, आंखें छलछला जाएं"

प्रस्तुत है ७६वे वर्ष में प्रवेश कर चुके कथाकार विद्यासागर नौटियाल की एक महत्वपूर्ण कहानी।


पीठ का सौदा
- विद्यासागर नौटियाल
(अर्नेस्ट हेमिंग्वे को समर्पित : जिनकी धरती पर बैठ कर यह कहानी लिखी गई है।)

जबरू जमीन पर बैठ गया। उसके सामने नदी के दोनों तटों को जोड़ता, रस्सों का बना झूला-पुल था । जमीन पर बैठ कर उसने अपनी पीठ इंजन की पीठ पर टिका दी । इंजन के तल को घेर कर रस्ससों के बाहर से बांधी गई कपड़े की नरम गद्दी को सहेज कर अपने हाथ से माथे पर ले लिया । अपने सर को थोड़ा-सा आगे की ओर खींच कर उस गद्दी को अपने अंदाज से खिसकाते हुए माथे पर संतुलित किया । तब अपने घुटनों को जरा-सा मोड़ा और कपाल और माथे के बीच के हिस्से पर अटकी गद्दी को एक बार फिर से, आखिरी बार, संतुलित किया। उस प्रक्रिया के पूरा हो जाने के बाद उसका दाहिना हाथ जमीन पर टिक गया । उस तामझाम के साथ अपने मुंड को आगे की ओर खींचते हुए, कुछ ज़ोर लगाकर, वह अपने तईं उठ कर खड़ा होने की कोशिश करने लगा। उसकी पीठ के पीछे से तीन मजदूर, अडिग-से लग रहे उस भारी इंजन को, जमीन से उठाने में जुट गए । एक मजदूर उसके एकदम सामने आकर खड़ा हो गया ।
-ला, अपना हाथ दे।
जबरू ने अपना दाहिना हाथ जमीन से उठा कर आगे बढ़ा दिया और मजदूर ने उसके बदन पर शेष रह गया वह अकेला हाथ कस कर पकड़ लिया । वह आगे की तरफ से सहारा देकर उसे उठने में मदद करने लगा। इस वक्त जमीन से उठने के प्रयास में जबरू अपने शरीर की पूरी ताकत, सर से पांव तलक, चौतरफा झोंकने लगा था । उसे सिर्फ अपना बदन नहीं उठाना था,अपने साथ नत्थी कर दिए गए इंजन को भी उठाना था। उसे इंजन को अपने साथ लेकर ऊपर उठना था । जमीन से ऊपर । अपनी ताकत और साथी मजदूरों की सहायता के बल पर आखीर में वह अपने पांवों पर खड़ा हो गया । अब वह अकेला था । उसे सहारा और सहायता देने वाले कुल लोग उसका रास्ता छोड़, उससे छिटक कर अलग हट गए थे। नदी के ऊपर, हिलते-डोलते हुए झूले पर, उसकी यात्रा की सफलता के लिए वे सब, और वहां पर मौजूद बाकी तमाम लोग, अपने-अपने मन में मंगलकामनाएं करने लगे थे। उसकी आगे की राह बिलकुल साफ थी । झूला-पुल की शुरूआत तक । वहां जमीन पर, उसके रास्ते में कोई छोटा-सा कंकर-पत्थर तक नहीं दिखायी दे रहा था । जमीन से ऊपर उठ गए अति-भार को मजबूत रस्सों के बल पीठ पर लिए हुए उसने झूला-पुल की दिशा में अपना कदम आगे बढ़ा दिया । पहला कदम ।
शांत घाटी के निवासियों की ज़िन्दगी के ढब में कई तरह के नए परिवर्तनों का सूचक । एक ऐतिहासिक कदम ।
उसे अपने पास खड़े साथी मजूरों की हमदर्द आवाजें सुनाई दीं ।
-आराम से, आराम से।
संभल कर चलने के लिए दो बार उच्चारित उन गंभीर आवाज़ों के बाद वहां सब कुछ शान्त हो गया । ऐसा लगने लगा कि जैसे जबरू के चलने के अलावा दुनिया के बाकी सभी काम थम गए हों ।
हैरत में डूब गए तमाम लोग अपनी सांसें रोक कर उसे देखने लगे थे । सबकी नज़रें पुल की तरफ बढ़ते जा रहे जबरू पर केंद्रित हो गई थीं । उसका एक-एक कदम गिना जाने लगा था । झूले पर बीच-बीच में कामचलाऊ पांवदान के तौर पर बंधी लकड़ियों पर टिकाए गए पांव को ऊपर उठाना और उसे अपने सामने बिछे अगले पांवदान पर टिका देना । हिलते हुए झूला-पुल पर दाहिने हाथ से अपने पास दिखायी दे रहे जंगले के रस्सों को धैर्यपूर्वक पकड़ता और छोड़ता हुआ,कदम-कदम आगे की ओर सरकता जा रहा जबरू । नदी के दोनों तटों पर फैले, खड़े, खतरनाक ढलानों पर घास काट रही घसियारिनें और उस वन में अपने गोरू के साथ मौजूद ग्वैर छोरे भी काफी पहले अपने-अपने काम-धाम छोड़ कर उस झूले के पास आकर जमा हो गए थे । उन सबकी नज़रें भी जबरू पर केंद्रित हो गई थीं।
एक सवारी गाड़ी के इंजन के भार के नीचे दबे हुए जबरू ने अपना काम शुरू करने से पहले अपने पुरखों का सुमिरन किया था। वे पुरखे जिन में से किसी को उस ने कभी देखा नहीं । उन के बारे में उस ने सिर्फ सुना भर है। पुरखों की गिनती में, उस से सब से नजदीक उस का बाप था। वह भी जबरू के जन्म लेने के साल भर बाद दुनिया से चल बसा था। अपने बाप की जबरू के मन में कोई स्मृति नहीं थी। कई बार उसे इस बात का बहुत अफसोस भी होता था। वह कल्पना करने लगता कि उस का बाप जीवित होता तो कैसा होता । उसका बचपन कैसे बीता होता, जवानी में क्या-क्या करता, उसकी ज़िन्दगी कैसी हो गई होती। बाप जिन्दा रहा होता तो कुछ बरसों तक, मात्र कुछ बरस तक, उसे उसका सहारा मिल गया होता । बस इतना ही होना था । यह बात तो वह अच्छी तरह जानता है कि उसका बाप जिन्दा भी रहा होता तो वह उसे कोई सेठ या ठेकेदार, व्यापारी या पढ़ा-लिखा आदमी नहीं बना सकता था। रहना तो उसे मजदूर बन कर ही होता। करनी मजदूरी ही होती। रोज कमाओ, रोज खाओ। उसे रोटी का सहारा देने वाले सैकड़ों माई-बाप इस दुनिया में चारों तरफ बिखरे पड़े हैं। उसे कोई काम सौंपने से पहले मालिकों के स्वर में ऐसा दयाभाव भरा रहता है जैसे उसे उस काम पर लगा कर वे उस पर कोई भारी-भारी अहसान कर रहे हों । हर बार काम मिल जाने के बाद उस काम के बोझ से कहीं ज़्यादा वह अपने को उस अहसान के नीचे दबा हुआ महसूस करता आया है ।

उस दिन सुबह के वक्त किशनसिंह के स्वर में भी वैसा ही दयाभाव भरा था, जब उसने जबरू को अपने घर पर बुलवाया था। गाड़ी मालिक किशनसिंह, ठेकेदार किशनसिंह, नेताजी किशनसिंह । इलाके की जानी-मानी हस्ती, एक बहुत बड़ा आदमी किशनसिंह ।
बे्शक उस दिन कि्शनसिंह ने और दिनों की तरह ऊपर की मंजिल में बनी, आंगन की तरफ खुली हुई अपनी तिवारी में खंभ को पकड़ कर और लकड़ी के डेड़ फुट ऊंचे मजबूत, गहरे हरे रंग में चमक रहे जंगले के ऊपर एक पांव टिका कर, खड़े-खड़े वहीं से अपना फरमान नहीं सुनाया था । आजकी बात कुछ अलग बात थी । जबरू को अपने घर की ओर आता देख, उसके आंगन में पहुंचने और गर्दन झुका कर, जमीन की ओर ताकते हुए नमस्कार करने से भी पेशतर, किशनसिंह खुद ही ऊपर की मंजिल से नीचे आंगन में उतर आया था । आंगन में एक-बराबरी पर खड़े होकर बात करते हुए वह जैसे जबरू को इज्जत बख्श रहा हो । उस वक्त आंगन में सुबह के सूरज की किरणें चमकने लगी थीं । जबरू से बात ्शुरू करने से पहले किशनसिंह ने ऊपर की मंजिल में रसोई के भीतरी कमरे में मौजूद अपनी घरवाली को बाहर से ही आवाज़ दे दी थी।
-यह जबरू आया है, जरा चाय बना दो इसके लिए। अपने गांव से, उतनी दूर से चल कर सुबह-सुबह यहां पहुंच गया है बेचारा। वहां तो उस वक्त रात भी नहीं खुली होगी ।
किशनसिंह के अपनी घरवाली को कहे गए वे बोल जबरू को भारी अहसान के नीचे दबाने लगे थे ।
-जबरू ! मैने तुझे एक खास मतलब से बुलाया है ।
-मालिक ।
किशना यह तय नहीं कर पा रहा था कि अपने मन में बहुत लंबे अरसे से वह जिन सुनहरे सपनों के जाल बुनता आ रहा है, उसे जबरू के कानों के अंदर किस हिसाब से, किस तरतीब से डाला जाय । पिछले कई दिनों से वह सिर्फ सपने देखता आया है। असंभव सपने ।
-मैं तुझे ठेकेदार बनाने की सोच रहा हूं ।
-इतनी बड़ी बात क्यों बोल रहे हैं मालिक, जो न कभी हुई है न हो सकती है ?
-नहीं जबरू ! मैने तय कर लिया है कि तुझे एक ऐसा काम सौंप दूं जिसे पूरा कर लेने पर तेरी किस्मत चमक उठेगी ।
जबरू चुप हो गया । उसने कोई जवाब नहीं दिया ।
-ऐसा करते हैं, पहले चाय पी लेते हैं ।
चाय पीते हुए किशनसिंह मन ही मन फिर से अपने सुहावने सपनों में खो गया । पिछले दस वर्षों से वह नैना-सेंतुलीखाल मोटर मार्ग के निर्माण में अपनी भूमिका निभाता आ रहा था । दस साल पहले इलाके के आठ मान्यवर, खास-खास लोगों का प्रतिनिधिमंडल लेकर वह मुख्य मंत्रीजी और निर्माण मंत्रीजी के पास लखनऊ गया था। स्थानीय विधायक के अलावा पर्वतीय क्षेत्र के दस अन्य विधायकों को भी उसने अपने प्रतिनिधिमंडल में साथ कर लिया था । उसने ऐसा जोर लगवा दिया कि नैना-सेंतुलीखाल मोटर मार्ग विधान सभा में पेद्गा किए गए उसी साल के बजट में शामिल कर लिया गया था। रोड पर कि्श्तों में एक तरफ से काम शुरू हो गया। उस पर दस बरसों में काम के सबसे ज़्यादा ठेके किशनसिंह को ही मिलते रहे। अब खुदाई, कटान के बाद रोड पूरी तरह तैयार हो गई थी । सिर्फ संपर्क पुल का बनना बाकी रह गया था । इस साल के बजट में शासन ने उस पुल की भी स्वीकृति दे दी । और अब किशनसिंह उस पूरी तरह तैयार हो गई रोड पर, पुल के बनने से पहले, किसी तरह अपनी गाड़ी चलाने के सपने देखने लगा था । जबरू से मुंह खोल कर, मतलब की बात करने से पहले, उसने बहुत जल्दी में एक बार पूरी योजना पर सरसरी तौर पर पुनर्विचार किया । अपने मन के अंदर आखिरी बार वह अपना सबक दुहराने लगा था ।

'नदी के ऊपर मोटर-पुल के बनते-बनाते साल, दो साल का समय तो बहुत आसानी से लग जाएगा । पुल के दोनों तरफ के अबटमेंट(दीवार) की चिनाई का काम पूरा होने में ही सात-आठ महीने से कम वक्त नहीं लग सकता । पुल का काम है । कोई दिल्लगी नहीं । ऐसा नहीं हो सकता कि जैसी चाहो कच्ची-पक्की, हल्की-ढीली चिनाई कर बाहर से पलस्तर लगा दो,और जैसा चाहो मटीरियल लगा दो : ओवरसियर अपने खिलाफ नहीं होना चाहिए,जिसने काम का मेजरमेंट (पैमाइश) करना है। वह खुद ही सब कुछ निपटा लेगा। जी नहीं ! पुल का अबटमेंट बनाया जा रहा है तो ओवरसियर को मौके पर लगातार मौजूद रहना है । वह कहीं हिल नहीं सकता । और चिनाई की पुख्तई के किसी भी मामले में ओवरसियर कोई खास मदद नहीं कर सकता । उसके ऊपर एक से एक अफसर बैठे हैं । सिविल में पुल के अबटमेंट का काम सबसे मुश्किल काम होता है। काम पर मामूली डिफेक्ट नज़र आया तो सीधे नौकरी पर आंच आ सकती है । छोटे साहब(ए 0 ई0, असिस्टेंट इंजीनियर ) के भी लगातार चर लगते रहते हैं और बड़े साहब( ई 0 ई0,इक्जीक्यूटिव इंजीनियर) भी जब देखो तब पुल पर हाजिर । काम पूरे जोर पर चालू है लेकिन बाजार के दुकानदारों के उधार, लेबर की रोजाना की खलाई, बीड़ी-सिगरेट, किसी-किसी लेबर के आकस्मिक बहुत जरूरी खर्चों के भुगतान और रोजाना के दीगर मुतफरकात खर्चों के बोझ तले दबे हुए ठेकेदार के रनिंग पेमेंट के मामले ओवरसियर से लेकर बड़े साहब के आफिस तक कभी-कभी इस तरह घपले में पड़ जाते हैं कि ठेकेदार साइट से रातों-रात काम छोड़ कर भाग खड़ा होने को मजबूर हो जाता है। फिर ठेकेदार के खिलाफ नीचे से ऊपर तक,बड़े साहब से भी आगे सुपरिंटेंडेंट इंजीनियर तक, कागजी कार्यवाही। तब एक दिन डिपार्टमेंट की ओर से ठेकेदार के बौंड में दिए गए स्थायी पते पर रजिस्टर्ड नोटिस भेजा जा रहा है । नोटिस भेजे जाने के बाद फिर कागजों की नीचे से ऊपर तक के दफ्तरों में दौड़। तब आखीर में बाकी बचे काम के दुबारा टेंडर करने, उसके स्वीकार होने और नया वर्क आर्डर जारी होने तक में पता नहीं कितना लंबा समय लग जाता है। अबटमेंट के तैयार हो जाने के बाद पुल के लोहे के रस्सों और दूसरे मटीरियल के साइट तक पहुंचने और उसे जोड़ कर पुल खड़ा करने का काम भी कोई महीने दो महीने में पूरा नहीं हो सकता । कितनी ही तेज रफ्तार से काम चले, दो साल तो आसानी से बीत जाएंगे । वह भी तब अगर सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा। और कोई ठेकेदार अध-बीच में काम छोड़ कर भाग गया या उसकी अर्जी पर किसी सिविल कोर्ट का समन या स्टे या वसूली का वारंट आ गया तो फिर पुल के निर्माण की योजना को हवा में लटका समझो । उतने लंबे समय तक बीस मील लंबी पूरी लाइन पर सिर्फ एक गाड़ी। वही सवारी बस, वही माल गाड़ी। अपनी किस्मत कि इस साल अपने क्षेत्र के चहेते विधायक को शासन ने आर0 टी0 ए0(क्षेत्रीय परिवहन अथॉरिटी) का सदस्य नामजद कर लिया । अपने घर के मेम्बर, अपनी राजनीतिक पहुंच और आर 0टी0 ओ0 दफ्तर में अपने खुले, मधुर और रोबीले संबंधों के चालू रहते कोई दूसरा गाड़ी मालिक उस लाइन पर अपनी गाड़ी के लिए परमिट की अर्जी तक पेश करने की बात सोच भी नहीं सोच सकता । आर 0 टी 0 ओ0 जानता है मैं कौन हूं । जरा सा इधर-उधर करे तो उसकी झंडी करवा सकता हूं । लखनऊ के लिए एक फोन भर करने की जरूरत है । आर 0 टी 0 ओ 0 रातोंरात देहरादून से झांसी । या फिर बलिया । बीच से्शन में मेरा ट्रांसफर किया जा रहा है, मेरे बच्चों की पढ़ाई का क्या होगा साब ? मंत्रीजी ने अपने पद की कसम लेने के साथ तुम्हारे बच्चों की पढ़ाई का ठेका भी ले लिया था भाई? लेकिन आर 0 टी 0 ओ 0 मेरे मामलों में क्यों उलझने लगा? देहरादून जैसा शहर उसे और कहां मिल सकता है ? उसके चपरासी तक को पता है मैं कौन हूं । मेरे पहुंचते ही साहब के दर्शन को इच्छुक दूसरे गाड़ी मालिकान की तरह मेरे नाम की चिट नहीं मांगता, फर्शी सलाम ठोंकता है और चिक को इतना ऊपर उठा देता है कि मैं बगैर सिर झुकाए कमरे के अंदर प्रवेश कर सकूं । उसके चार बेटे हैं । चारों देहरादून के टॉप अंगे्रजी स्कूलों में पढाई कर रहे हैं। कोई प्रिंसिपल उसके बच्चों को दाखिला देने से इन्कार कर उससे क्यों उलझने लगेगा? अपना और अपनी गाड़ियों का रास्ता सब साफ रखना चाहते हैं । बीस मील लंबी सड़क पर अपनी गाड़ी का एकछत्र राज । साल । दो साल । तीन साल । कोई दूसरा प्रतिद्वंदी नहीं। मैदान एकदम खाली। पुलिस आफिस में वाजिब दस्तूरी पहुंचाते रहो । सवारी गाड़ी पर माल कैसे ढोया जा रहा है साहब ? किस नियम, किस कानून के तहत ? इस पहाड़ी जिले के अंदर इस तरह का बेहूदा सवाल पूछने की किस बेटे की हिम्मत है? इस नवनिर्मित रोड पर गाड़ी चलाने के लिए टेम्परेरी परमिट तो मिल ही गया है । अब बात सिर्फ इतनी-सी रह गई है कि एक बार किसी तरह गाड़ी का इंजन खोल कर उसे इस ओर पहुंचाया जा सके।"
जबरू ने पीतल के गिलास में चाय खत्म करने के बाद गिलास को धोने के लिए थोड़ा ऊंची आवाज़ में घर के एक बच्चे से पानी की मांग की । धुले हुए गिलास को सूखने के लिए उसने बहुत कायदे से एक सीढी के एक पत्थर पर उल्टा करके रख दिया । फिर किशनसिंह के पास आ गया ।

कि्शनसिंह ने अपने सपनों को अपने मन की गहराइयों में दबाते हुए असली, मतलब की बात बहुत संक्षिप्त तरीके से जबरू को समझाई । -गाड़ी के इंजन को झूला-पुल के रास्ते नदी के इस ओर ले आना है । जबरू ! मैने इस मामले में बहुत दिमाग दौड़ाया । इलाके के तमाम मजबूत से मजबूत बीर-बहादुरों की ताकत का अंदाज लगाता रहा। लेकिन मुझे तेरे अलावा कोई दूसरा द्यद्गाख्स नजर नहीं आता, जो इस काम को निभा सके । तू ऐसा समझ ले कि मेरे दफ्तर में तेरा सिंगल टेंडर जमा हुआ है। वह पास हो गया है और मैं तुझे इंजन को इस ओर ले आने का ठेका दे रहा हूं । तेरी किस्मत चमकने वाली है ।
-मेरी किस्मत अब नहीं चमक सकती साब । मैने बहुतों की किस्मतें चमका दी हैं । रही ठेका लेने की बात । ठेका मैं कैसे ले सकता हूं ? मैं तो सिर्फ मजूरी लेना जानता हूं ।
-जबरू, तू ऐसा समझ ले मैं कुछ देर के लिए तेरी पीठ भाड़े पर ले रहा हूं । बोल, थोड़ी देर के लिए अपनी पीठ का क्या भाड़ा मांगता है ?
-मालिक खुश होकर जो इनाम देंगे उसे जेब के अंदर रख लूंगा ।

अब किराए की पीठ पर एक सवारी गाड़ी का इंजन लादे वह भागीरथी नदी के आर-पार बने रस्सों के हवा में डोलते हुए झूले पर बहुत संभल-संभल कर पाँव रखते हुए आगे बढ़ता जा रहा था । उसके पाँवों के नीचे नदी बहती दिखायी दे रही थी । पेशे के हिसाब से दिहाड़ी मजदूर, जाति के हिसाब से हरिजन । नाटे कद का, एक अकेले हाथ का आदमी जबरू। उसका बायां हाथ बहुत पहले डाक्टर ने काट कर फेंक दिया था । डाक्टर ने नहीं,हाथ को तो विस्फोट के कारण पहाड़ से छिटक गई किसी धारदार शिला ने एक झटके में काट फेंका था । डाक्टर ने उसका इलाज कर उसे मरने नहीं दिया । उसकी जान बचा दी थी । किसी पहाड़ को काट कर उसके सीने पर मोटर सड़क बनाने के लिए खुदाई का काम चल रहा था । उस खुदाई के दौरान एक ऐसा मुकाम आया जब कठोर शिलाओं ने काम के आगे बढ़ने में बाधा पैदा कर दी । ठेकेदार को गैंतियों, सब्बलों के बल पर खोदा जा रहा काम रोक देना पड़ा । कठोर शिलाओं को तोड़ने, चकनाचूर करने के लिए उस जगह पर डाइनामाइट लगाकर विस्फोट करने की जरूरत पैदा हो गई । तब सब्बलों और घन और छेणी के बल पर पहाड़ के सीने पर तीन गहरे सूराख बनाए गए । उन सूराखों के अन्दर विस्फोटक रख कर एक काफी लंबा, डोरीनुमा तार लेकर जबरू और उसके साथी मजदूर उस स्थान से कुछ दूरी पर चले आए । बाकी मजदूर वहां से पहले ही निकल चुके थे । घाटी में मजूरों की बेहद ऊँची आवाजें गूंजने लगी थीं - कोई आगे मत बढ़ना, सुरंग लगाई है, सुरंग लगाई है, सुरंग लगाई है । उस तार के आखिरी सिरे पर माचिस झाड़ कर जबरू ने आग छुआई और उस जगह से दूर निकल जाने की कोशिश में वहां से भागने लगा। झरझराती आग डाइनामाइट की तरफ लपकने लगी और जबरू उससे विपरीत दि्शा की ओर लपकता चला गया ।
उस खतरे का उसे भली भांति अहसास था, जैसा कि हमेशा रहता आता है । मोटर सड़क बनाने के लिए जो पहाड़ को काटते हैं उन्हें हरदम अपने शरीर के हिस्सों को कटवाने को,अपनी जान तक न्यौछावर करने को भी तैयार रहना पड़ता है। पहाड़ कोई मुर्दा चीज नहीं, एक ज़िन्दा जीव होता है । जब पहाड़ टूटता है तो उसके साथ और भी बहुत कुछ टूटने लगता है । कुछ पहाड़ टूटेगा, कुछ पशु-पक्षियों के नीड़ टूटेंगे, कुछ आदमी का बदन टूटेगा। बहुत सारे जीवों का, बहुत सारे लोगों का खून-पसीना बहता है, तब बन पाती है उस पर चलने लायक एक मोटर सड़क । उस वक्त जबरू पूरी तेजी से दौड़ रहा था फिर भी उस मोड़ को पार नहीं कर पाया । उसके मोड़ पार करने से पहले उसकी भेजी हुई आग छेदों की गहराई में दबाए गए डाइनामाइटों की गुल्लियों तक की दूरी को लपकती हुई पार गई । घंटे भर से जिस कठोर शिला पर सब्बलों और छेणियों से प्रहार करते जा रहे थे उस जगह पर भयानक विस्फोट हो गया । अपनी मूल शिला से छिटक कर तीव्र गति से हवा में उड़ते जा रहे एक पतले, धारदार पत्थर ने जमीन पर गिरने से पेद्गतर जबरू के बदन पर तलवार का जैसा वार किया और उसके एक हाथ को काट कर जमीन पर गिरा दिया था। टिहरी के सरकारी अस्पताल में एक डाक्टर मिश्रा थे । डा0 मिश्रा ने उसे मरने से बचा लिया । अस्पताल से घर लौट आने के बाद जबरू फिर मजदूरी के काम करने लगा । तबसे वह अपना पेट पालने के लिए बाकी बचे एक हाथ से ही सबके, सभी तरह के काम निभाता आया है ।
- जबरू, यह और किसी के बस का नहीं लगता । यह काम तो तुझे ही करना पड़ेगा ।
नदी के दोनों तटों पर जमा हो गए तमाम लोग अकेले हाथ से रस्से को पकड़ते-छोड़ते, अपने सामने बिछी लकड़ियों के पांवदानों पर आहिस्ता-आहिस्ता, झूले को पार करते हुए जबरू के एक-एक कदम की ओर देखते जा रहे थे । उस वक्त टकटकी लगा कर उस पर देखते रहने के अलावा वे और कोई बात, उसके दूसरी ओर पहुंच जाने के बाद की किसी अन्य बात के बारे में सोच ही नहीं सकते थे । सच्चे दिल से सिर्फ उसकी सलामती की ख्वाहिद्गा करते हुए वे सबके सब मूक दर्द्गाक बने खड़े थे ।
सिर्फ ठेकेदार किशनसिंह था, जो उस भारी भीड़ के बीच जबरू के हर धीमे, सधे कदम के साथ बहुत-बहुत आगे की, विभिन्न प्रकार की,योजनाओं-समस्याओं पर बेहद तेज रफ्तार से विचार करते रहने में उलझने लगा था ।
अतीव प्रसन्नता के उन क्षणों में वह चाहते हुए भी अपने चल-विचल हो रहे दिमाग को किसी एक बिंदु पर स्थिर नहीं रख पा रहा था ।
जबरू के हर सधे हुए, बढ़ते कदम के साथ किद्गाना के दिल की धड़कनें बढ़ती जा रही थीं ।

Friday, November 14, 2008

जारी रहे पहल (सम्मान)

पहल बंद होने के कगार पर है- यह खबर है। कई ब्लागों में छपी सूचनाएं, जनसत्ता में कवि अशोक वाजपेयी का कॉलम और गाहे बगाहे सुनी जा रही खबरें चिन्तित करने वाली हैं। इसीलिए उन पर यकीन भी नहीं होता। यकीन करना भी नहीं चाहते। पहल आज हिन्दी की एक ऐसी केन्द्रीय पत्रिका है जिसे जनपक्षधर साहित्य का स्कूल भी कहा जा सकता है। उसमें छपे की विश्वसनीयता है। पहल से धुर असहमति रखने वाले भी इससे अलग राय नहींरख पाते हैं। आज पत्रिकाएं तो बहुत निकल रही हैं पर पहल की जो भूमिका है उसको स्थानापन करने की सार्म्थय अभी तो किसी में नहीं है। पहल ने जन पक्षधरता के सवाल को जिस तरह से प्राथमिकता पर रखा है उससे इस हल्लातारु दौर में भी अन्य पत्र-पत्रिकाओं पर एक लगाम लगती रही है। प्रतिबद्धता की इस मुहिम के जारी रहने की खबर फिर कैसे हिन्दी के पाठकों की चिन्ता का विषय होगी। पहल-90 जो ताजा-ताजा छपा है, में प्रकाशित यतीन्द्र मिश्र के आलेख "ठुमरी के नैहर में बनारस की मैना " के अंत में छपी टिप्पणी "--- धारावाहिक आगे भी जारी रहेगा ।" हमारे इस यकीन को पक्का करता है कि पहल का प्रकाशन सतत जारी रहेगा और उसे रहना भी चाहिए।

इस उम्मीद को कायम रखते हुए ही पहल सम्मान 2000 के सम्मानित कथाकार
विद्यासागर नौटियाल जी द्वारा सम्मान के वक्त प्रस्तुत उनका आत्मकथ्य, प्रकाशित किया जा रहा है। वरिष्ठ कथाकार विद्यासागर नौटियाल ने 29 सितम्बर 2008 को 76वें वर्ष में प्रवेश किया है। वारणसी से निकलने वाली पत्रिका आर्यकल्प ने उन पर विशेषांक निकाला है। हम भी अपने प्रिय ऊर्जावान और बुजुर्ग-युवा कथाकार को शुभकानाएं देते हैं। इस अवसर पर उनकी अन्य रचनाएं भी सिल-सिलेवार प्रकाशित कर रहे हैं। यह उसकी पहली कड़ी है।

दसवें ' पहल " सम्मान के अवसर पर 4 जून, 2000 को देहरादून के टाउन हॉल में विद्यासागर नौटियाल द्वारा दिया गया वक्तव्य

सभागार में उपस्थित सम्बन्धियों मित्रों, परिचितों, साहित्यप्रेमियों , रचनाधर्मियों और साथियों से घिरा होने पर मेरी नज़रें एक मेहतरानी की सूरत तलाशने लगी हैं । यह सुनि्श्चित हो चुका है कि इस वक्त वह हमारे बीच नहीं । भारत की आज़ादी के कुछ समय बाद केन्द्र और प्रान्त की सरकारों से सीधी टर लेते हुए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को भूमिगत हो जाना पड़ा था । हमारा शिकार करने को घूम रहे मुस्तैद पुलिसकर्मियों की सतर्क निगाहों से बचते हुए इस शहर की एक छोटी-सी झोंपड़ी के अन्दर बारी-बारी से कभी दूसरे, कभी तीसरे दिन पहुँचकर हम एक या दो साथी बहुत बेताबी से उस मेहतरानी का उस घर के अन्दर लौटने का इन्तज़ार करने लगते थे । अपने आँचल के नीचे एक थाली को छुपाती हुई वह घर के अंदर पाँव धरती तो हमारे चेहरे खिल उठते । उसकी थाली में विभिन्न घरों से, जहाँ-जहाँ वह काम करती होगी,माँग-माँग कर लाई गई इस शहर की जूठन होती । अपने भूखे बच्चों को खिलाने से पहले वह उस थाली के मिश्रित पदार्थ हमें परोस देती थी । गुरदयालसिंह बताते हैं कि गुरूद्वारे में अमृत छकने के बाद सिख कोई अन्य पदार्थ ग्रहण नहीं करता । भूमिगत ज़िन्दगी में उस अमृत का पान करने के बाद मैने आजीवन अपने को उस वर्ग के साथ एकाकार करके रखने की चेष्ठा की । दुनिया का कोई प्रलोभन मुझे विचलित नहीं कर पाया । पूँजीवादी समाज के कुल पदार्थ बेस्वाद लगते रहे । सोच रहा हूँ कि इस मौके पर कहीं से वह मेहतरानी माँ, हमारी वह कामरेड भी इस सभागार में आ लगती तो उसके आल्हाद के तापमान को माप करने लायक कोई यंत्र क्या वैज्ञानिक ईजाद कर पाते ?
राजगुरू कुल में जन्मे पिता नारायणदा नौटियाल वन विभाग के अधिकारी थे । मेरा बचपन रियासत टिहरी-गढ़वाल के उन भयानक,घनघोर जंगलों में बीता जहाँ शायद अब अकेले जाने का मैं साहस न कर सकूँ । यद्यपि उन वनों का अधिकांश माफिया की हव्श के शिकार हो चुके है। । उस ज़माने में उस वन-प्रदे्श में रहते हुए मुझे इस बात की जानकारी नहीं रहती थी कि रोग-बीमारियों का उपचार करने के लिए रीछ के कलेजे के अलावा किसी अन्य चीज़ का भी औषधि के रूप में प्रयोग किया जा सकता है । उसे हम रिखतिता कहते थे । ज्वर-बुखार से लेकर चोट वगैरह लगने या छाती-पेट-बदन आदि में दर्द उठने,कैसा भी दर्द उठने,की दवा मेरी जानकारी में रिखतिता होती थी । हमारे ज्ञान में दवा का अर्थ रिखतिता होता था । अपने बचपन में मैने कितनी मात्रा रिखतिता की हज़म की इसका कोई हिसाब नहीं दिया जा सकता । रीछ की एक विशेषता यह होती है कि गोली लगने पर,घायल होने पर वह रूकता नहीं,आगे बढ़ता जाता है । रास्ते में मिलने वाले वृक्षों और झाड़ी-गाछ से पो दंदोड़ कर वह अपने घावों को भरता जाता है और बढ़ता जाता है। रिखतिते की अचूक शक्ति की सहायता से अपने बचपन के कुल रोगों से लड़ते रहने के कारण मेरे अन्दर रीछ का वही स्वभाव भर गया । जीवन और साहित्य में हमलों से विचलित हुए बगैर मैं अपने लक्ष्य की ओर लगातार अग्रसर रहा ।

मामा बिशु भट्ट साबली गाँव के बेहद गरीब आदमी थे। एक बार हमसे भेंट करने शिमला पहाड़ियों के मिलान पर टिहरी-गढ़वाल रियासत के सीमावर्ती क्षेत्र बंगाण पट्टी के कसेडी रेंज मुख्यालय पर आए । उनको कुछ रोज़गार की ज़रूरत थी । पिता ने बड़े पाजूधार में जमा लकड़ी के स्लीपरों को छोटे पाजूधार तक ढुलान करने का काम सौंप दिया । पिता के लम्बे दौरे पर जाते ही मेरी माँ ने मुझे भी उस काम में जोत दिया इस सख्त व गोपनीय हिदायत के साथ कि इस बारे में किसी भी तरह पिता को पता नहीं लगना चाहिए । मामा के अलावा स्लीपरों के उन चट्टों के ढुलान की जुम्मेदारी मेरे कमज़ोर कंधों पर भी आ पड़ी । किसी अन्य बालक के साथ मैं भी बारह फुट्टे स्लीपरों के ढुलान में जुट गया । लम्बे दौरे के बाद पिता के घर लौटने से पहले ही ढुलान का काम पूरा कर लिया गया था । मजूरी के भगतान के वक्त मामा को लगा कि शायद हिसाब में कुछ गड़बड़ी हो गई है । पहाड़ी लोग दिन के वक्त सिर्फ भात खाते हैं । भात चौके के अन्दर खाया जाता था । बच्चों का वहाँ प्रवेश वर्जित होता । मामा पिता के एकदम पास,चौके के अन्दर बैठे थे । माँ ने धीमे स्वर में मामा की मजूरी का प्रसंग छेड़ दिया । पिता ने अदा की गई मजूरी को सही बताया । बेहद दबी जुबान में मामा ने भी कुछ निवेदन किया । पिता ने खाते-खाते वहीं चौके के अंदर क्रोधावेश में उलटे हाथ से उन्हें एक धौल मार दी । उस घटनाक को मैं आजीवन बिसार नहीं पाया । उसके स्मरण से मुझे अपनी जड़ों का खय़ाल आ जाता है और मैं अपनी औकात पर पहुँच जाता हूँ । जीवन में अनेक ऐसे मुकाम आए जब अंतिम निर्णय लेने से पूर्व मैने नौ बरस के उस विद्यासागर की याद की जो पाजूधार के वन में ऊँची-नीची राहों पर बारह फुट्टे स्लीपरों का ढुलान कर रहा था कि उसके दरिद्र मामा को दो पैसे ज़्यादा मिल सकें ।

पहाड़ दरअसल वैसा नहीं है जैसा वह दो घड़ियों के अपने जीवन को पहाड़ पर बिताने वाले सैलानियों को दिखाई देता है । पूर्णमासी का, शरद का चाँद घने जंगल में अपनी रोशनी डालता है तो उसकी झलक मात्र से जीवन धन्य लगता है । सूरज,नदियाँ, घाटियाँ और इन पहाड़ों में बसने वाले लोग । ये सब शक्ति देते हैं । उच्च शिखरों पर बुग्यालों की रंगीन कालीन के ऊपर बैठ कर एक क्षण के लिए सूर्य की किरणों के दर्शन जीवन को सार्थक करते लगते हैं । लेकिन इन पहाड़ों में मानव जीवन विकट है । याद रखा जाना चाहिए कि इस हिमालय में पांडव भी गलने आए थे । कुछ लोग, मात्र कुछ लोग, इसे सुगम बनाने के लिए अपने को कुर्बान कर रहे हैं । मैं इस विकट पहाड़ में रम-बस गया । इसे छोड़ कर कहीं भाग जाने की बात नहीं सोची । अपनी रचनाओं में मैं इस पहाड़ की सीमाओं के अन्दर घिरा रहा । टिहरी से बाहर नहीं निकला । निकलूँगा भी नहीं ।
वन अधिकारी के घर जन्म लिया । जब तक छोटा रहा पिता व परिवार के साथ दूरियाँ तय करनेके लिए मुझे बोझा ढोनेवाले बेगारियों की पीठ पर ढोए जा रहे माल-असबाब के ऊपर धर दिया जाता । तब बेगार के ऊपर, उनकी पीठ पर बैठकर मैं यात्राएँ करता रहा । अब वे भारवाहक मुझे अपने सर के ऊपर बैठे मालूम होते हैं । पीठ पर ढोने के बजाय सर पर ढोना बहुत कठिन होता है । उनके उस भार को अपने सर से उतार नहीं पाता । जिन्होंने एक-दो दिन कभी मुझे अपनी पीठ पर ढोया वे आजीवन मेरे सर पर सवार मालूम हो गए लगते हैं । उनके उस जीवन की व्यथा का बयान करने की कोशिश करता रहता हूँ ।
अपने को अपने समाज का ऋणी मानते हुए उससे उऋण होने की छटपटाहट में लिखता हूँ । साहित्य मेरे लिए मौज-मस्ती का साधन नहीं, कहीं ऊपर पहुँचने-चढ़ने की कोई अस्थायी सीढ़ी नहीं, ज़िन्दगी की एक ज़रूरत है । लेखन के काम को मैं एक फ़र्ज के तौर पर अंजाम देता हूँ । किसी भी प्रकार की हड़बड़ी के बगैर लिखता हूँ और किसी की सिफारिश पर नहीं लिखता । जो मन में आए वह लिखता हूँ । सिर्फ वही लिखता हूँ ।
कोई भी मनुष्य नितान्त अकेला नहीं जी सकता । किसी एक व्यक्ति की उपलब्धियाँ पूरे समाज की उपलब्धियाँ होती हैं । बचपन से उसके निर्माण में असंख्य लोगों का
योगदान रहता है । इस दुनिया का हर कार्य अनगिनत लोगों के सामूहिक श्रम का प्रतिफल होता है । 'सूरज सबका है" में मैने इस तथ्य को, समाज की सामूहिकता के प्रश्न को भी, रेखांकित करने का प्रयास किया है । 'भीम अकेला " में भी यह बात और खुल कर सामने आती है जहाँ एक पीढ़ी के बजाय, हमारे इतिहास में विचरण करते हुए अनेक लोग समान रूप से कार्यरत दिखाई देते हैं ।
अपनी कहानियों में मैं मामूली लोगों पर होनेवाले सामंती अत्याचार के विरोध में अपने को खड़ा पाता हूँ । जहाँ मेरे पात्र कोई प्रतिरोध नहीं कर पाते, मेरी मंशा रहती है कि उस स्थिति को देखकर पाठक के मन में प्रतिरोध की भावना जागृत हो । अक्सर वे अत्याचार हमारी सामाजिक व्यवस्था की उपज के रूप में दिखाई देते हैं । तब मात्र सत्तासीन कुछ व्यक्तियों को बदलने के बजाय पूरी व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करना पाठक को एकमात्र विकल्प प्रतीत होने लगे ऐसी मेरी कोशिश रहती है । ' खच्चर फगणू नहीं होते " तथा ' उमर कैद " जैसी अनेक कहानियों में मैने यही प्रयास किया है । सामाजिक व्यवस्था का बदलाव अकेले व्यक्तियों के द्वारा, चाहे वे कितने ही महाबली हों, किया जाना संभव नहीं । ' फट जा पंचधार " में अपनी सदिच्छा और कोशिशों के बावजूद सवर्णों के कसे हुए जाल में फँसा हुआ वीरसिंह पराजित हो जाता है और रक्खी सड़क पर आ जाती है । यह अकेले वीरसिंह की नहीं, उस समाज में जी रहे कुल नौजवानों की पराजय है । ' भैंस का कट्या " में गबलू व उसके माता-पिता की मज़बूरियाँ पाठक के दिमाग में स्पष्ट हो उठती हैं, जब एक जानवर गज्जू के प्रति उनके दृष्टिकोणों के अन्तर गायब हो जाते हैं और वे सब उसकी मौत पर एक समान पीड़ा का अनुभव करने लगते हैं ।
अपना लेखन कार्य करते वक्त मुझे लगता है इस कार्य को मैं अकेले नहीं कर रहा हूँ, मेरे कुल पात्र मेरे साथ हैं जो अपनी कहानी मुझसे लिखवा रहे हैं और यह एक मिली-जुली प्रक्रिया है। अनेक पात्रों को मैं वर्षों तक अपने अन्दर जीता आया हूँ । अपनी अब तक की रचनाओं के लेखन से मेरे अन्दर एक आत्मविश्वास पैदा हुआ । भविष्य में मैं नए विषयों पर लिखना चाहता हूँ । सन् 1930 में टिहरी रियासत के बागी किसानों की ऐतिहासिक तिलाड़ी कांड में अमर भूमिका पर अब लिखना शुरू किया है जिसका एक अंश ' वसुधा " ने ' यमुना के बागी बेटे " शीर्षक से प्रकाशित किया ।
सभागार में उपस्थित मित्रों तथा भारत के कोन-कोने से देहरादून तक पहुँचने वाले साहित्यकारों के अहसान से मुझे शेष जीवन में शक्ति मिलती रहेगी

विद्यासागर नौटियाल
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