अतियथार्थ की स्थितियों का प्रकटीकरण व्यवस्थागत
कमजोरियों का नतीजा होता है, कला, साहित्य के सृजन ही नहीं उसके पुर्नप्रकाशन की
स्थितियों में भी इसे आसानी से समझा जा सकता है। हिन्दी साहित्य में कविता
कहानियां ही भरमार में हैं। यह यथार्थ ही नहीं बल्कि अतियथार्थ है। देख सकते हैं कि
व्यवस्थागत सीमाओं के बावजूद, कविता और कहानी के दम पर साहित्य की
पत्रिकाएं निकालना आसान है। इतर लेखन पर केन्द्रीत होकर काम करने के लिए
पत्रिकाओं को अपनी व्यवस्थागत सीमाएं नजर आ सकती हैं, या आती ही हैं। इसलिए
कविता कहानी वाले अतियथार्थ के साथ समझोता करते हुए ही उनका चलन जारी रहता है,
बल्कि बढ़ता हुआ है। ऐसे में पुस्तक आलोचना पर केन्द्रीत होकर अंक निकालने के लिए जैसी वैचारिक
दृढ़ता चाहिए, वह अपने आपमें सांगठनिक कार्यपद्धति की ओर बढ़ने की मांग करती है।
हाल ही में प्रकाशित एवं वितरित होता हुआ अकार का 41वां अंक इसकी बानगी है। आपसी सहयोग की सांगठनिक पद्धति ही उसे महत्वपूर्ण स्वरूप देती हुई देखी जा सकती है। अकार-41 का यह अंक पुस्तक समीक्षाओं पर केन्द्रीत है और राकेश बिहारी के अतिथि सम्पादन में प्रकाशित हुआ है।
हाल ही में प्रकाशित एवं वितरित होता हुआ अकार का 41वां अंक इसकी बानगी है। आपसी सहयोग की सांगठनिक पद्धति ही उसे महत्वपूर्ण स्वरूप देती हुई देखी जा सकती है। अकार-41 का यह अंक पुस्तक समीक्षाओं पर केन्द्रीत है और राकेश बिहारी के अतिथि सम्पादन में प्रकाशित हुआ है।
अकार का यह अंक मेरे हाथ में उस वक्त
आया है, जब मैं अपनी प्रिय पत्रिका पहल के 100 अंक का इंतजार कर रहा था। हालांकि
पहल का 100 वां अंक तो आज भी रतजगे करवाता हुआ है। बल्कि अब तो लगने लगा है कि संभवत:
डाक की गड़बड़ी में हो न हो, मुझे इन्टरनेट के जरिये ही उसे उसी तरह पढ़ने को
मजबूर होना पड़े, जैसे पहल 99 के लिए हो चुका हूं। मेरी इस चिन्ता से डाक व्यवस्था
को क्या लेना देना कि कुछ पत्रिकाएं ऐसी होती है जिन्हें पढ़ने ही नहीं
बल्कि सहेजने का भी अपना सुख होता है। पहल के अभी तक के संग्रहित अंको में पहल-99
मेरे पास हमेशा हमेशा के लिए नदारद रह जाने की स्थितियों में है।
अकार-41 कर चर्चा के बीच में पहल का
जिक्र मैं क्यों करने लग गया ?
यह सवाल किसी ओर से नहीं, मैं खुद से पूछ
रहा हूं।
अपनी
दिनचर्या के हिसाब से सुबह दफ्तर जाने के पहले बचने वाले समय को मैंने, आमतौर अपने
छुट-पुट लेखन और कुछ ऐसी जरूरी चीजें पढ़े जाने के लिए सुरक्षित रखा हुआ है जो ज्यादा धैर्य की मांग करती हैं। सुबह के उस वक्त में पत्रिकाओं पर सरसरी निगाह डालने का भी कोई अवकाश नहीं। हां, पिछली शाम पलटी गयी पत्रिका में यदि
नजर आ गया कोई आलेख वैसे ही धैर्य की मांग करता दिखा तो उसे जरूर
शामिल कर लेना होता है। लेकिन मुझ तक पहुंचने वाली हिन्दी की पत्रिकाएं में ऐसे
पढ़े जाने की स्थितियां सीमित ही हैं। पहल और समयांतर ही दो ऐसी पत्रिकाएं
हैं, जो मेरे इस सुबह के वक्त पर डाका डालने में अभी तक अव्वल मानी जा सकती हैं।
समयांतर का इंतजार तो हर महीने का इंतजार है। अभी तक अनुभव के आधार पर वह किसी
भी महीने की 27 तिथि तक पहुंच ही जाती है। पहल के 100 वे
अंक से संबंधित कार्यक्रम के दिन वाली अनुगूंज खरों ओर है और मैं उसके अंक 99 से ही अभी वंचित हूं। अब मानने को
विवश हो जा रहा हूं कि शायद मुझे 100 वें अंक से भी वंचित हो जाना होगा। क्यों अब तक पहुंची नहीं है। मित्रों
की सूचनाओं में उसका पढ़ा जाना पूरा होता हुआ है। मित्रों से बातचीत के बहाने
ही मैं उसके कई सारे पृष्ठों के स्वाद और प्रभाव को महसूस कर चुका हूं। अकार-41
ने मेरे उस वक्त पर आजकल कब्जा किया हुआ है।
यहां एक अन्य बात, जो प्रासंगिक जान पड़
रही है, कह देना चाहता हूं-
पिछले दिनों अपने एक मित्र से इस प्रस्ताव
पर बात की, ''भाई क्या संयुक्त प्रयासों वाली किसी पहलकदमी से कुछ-कुछ पहल
और कुछ-कुछ समयांतर वाले स्वर के बीच से गुजरती किसी पत्रिका को हम शुरू कर सकते
हैं ?'' यद्यपि यह भी कह देना मैं जरूरी जान रहा हूं, यहां स्मृतियों में पहली पारी
वाली पहल मौजूद है। पहली पारी वाली पहल का प्रकाशन स्थगित हो जाने का वक्त
मेरे लिए स्तब्धकारी था। क्योंकि मेरा मानना रहा कि कविता, कहानियों वाली हिन्दी
पत्रिकाओं की प्रगतिशील दिशा को बांधे रखने में पहल एक हद तक महत्वपूर्ण भूमिका
निभा रही थी। उसका प्रकाशन बंद नहीं होना चाहिए था। समयांतर का स्वरूप एवं मिजाज
थोड़ा भिन्न है और जरूरी है। कविता, कहानियों वाले दायरे की पत्रिकाएं उसके
दबाव से मुक्त होकर कहीं भी छलांग लगाने को स्वतंत्र हैं। दूसरी पारी की पहल को
भी अपनी उस भूमिका में अभी उतना नहीं पाता हूं। मित्र ने पत्रिका के प्रकाशन संबंधि अपनी
सहमति जाहिर की है। फिर भी अभी बहुत सी दिक्कतें हैं। कहा नहीं जा सकता कि क्या
ऐसा संभव होगा भी या नहीं। अड़चन के कारण हमारी कमजोर इच्छाशक्ति में भी छुपे हो
सकते हैं और ‘वास्तविक’ भी हो ही जायें तो वैसा भी हो सकता है।
इसीलिए अकार-41 का जिक्र करते हुए पहल का
जिक्र हो जाना स्वाभाविक सी बात है। लेकिन मेरे कहे से ये अनुमान न निकाले जाएं
कि बेताबी भरे इंतजार की घडि़यों में अकार का 41वां अंक डाक में अचानक नजर आ जाना,
किसी भी पत्रिका के मिल जाने की सी वजहों के कारण यहां जगह पा रहा है। ऐसे होने के
अनुमान तो इस बात से भी निर्मूल हो जाते हैं कि पहल-99 के अलम्बित इंतजार में भी
अकार के 40वें अंक ने दस्तक दी थी। हालांकि अकार के 40वें अंक ने भी उस वक्त
ठिठकाया था। ज्ञात रहे कि अकार का वह पहला अंक था जो शुद्ध रूप से कविता, कहानी
वाले अतियथार्थ का घेरा तोड़ रहा था लेकिन इतिहास संबंधित जानकारियों की अतिमार
में बदले हुए स्वरूप के प्रभाव बहुत गहरे नहीं पड़ रहे थे। अकार-41 के बारे में
अपनी राय व्यक्त कर देने की जो बेचैनी अभी महसूस हो रही, वैसा तब नहीं हुआ था।
बल्कि उस वक्त यदि कुछ कह देने की जल्दबाजी कर देता तो आज अकार-41 की
संभावनाओं पर टिप्पणी कर लेने में शायद अब हिचकिचाहट तो महसूस होती ही।
बताना चाहता हूं कि डाक में मिले अकार-41 को पहली शाम सरसरी निगाह से पूरी तरह पलट लेने में मैं मात खा गया था। फेसबुक से पहले ही मिल चुकी सूचना के आधार पर, मैं अपने मित्र सुभाष चंद्र कुशवाह की किताब चौरीचौरा पर हितेन्द्र पटेल के लिखे आलेख से गुजर कर अन्य सामाग्री तक गुजर जाना चाहता था। लेकिन उस शाम हितेन्द्र पटेल के आलेख ने मुझे छूट ही नहीं दी और पूरा पढ़े जाने से शेष रह गया। इस तरह आलेख ने अकार-41 को मेरी अगली सुबह के वक्त में धकेल दिया। मित्रों का लिखा, या उन पर लिखे को सबसे पहले पढ़ने की अपनी कमजोरी को मैं छुपाना नहीं चाहता। आलेख तो पूरा हो गया लेकिन उस सुबह अकार की दूसरी समाग्री से गुजरना तो अधूरा ही रह गया था। शाम को उसे फिर से पलट कर किनारे रख देना चाहता था। पर दिखाये दे गये एक ओर भरोसे के लेखक, बसंत त्रिपाठी ने भी उस शाम अटका दिया। दलित चिंतक तुलसीराम की आत्मकथाओं के बहाने लिखे गये उस आलेख को धैर्य से पढ़ लेने के लिए अकार फिर से अगली सुबह के वक्त पर हावी थी। ग्रंथ शिल्पी से प्रकाशित ई एम एस आत्मकथा और वाम राजनीति के कुछ जटिल प्रश्न पर लिखे उर्मिलेश के आलेख से ही अभी तक निपट पाया हूं और अकार का 41वां अंक मुझे अभी भी ठिठकाये हुए है।
अभी तक के आखिरी आलेख से कुछ सहमत और कई जगहों पर असहमति के बावजूद अकार अभी भी मुझे सरसरी निगाह से गुजरने नहीं दे रहा है। हां, शुद्ध साहित्य की चयन वाली पुस्तकों पर लिखे आलेख तो मेरे सुबह के वक्त पर हमला नहीं ही कर रहे। उनके भरोसे अतियथार्थ वाली व्यवस्थागत कमजोरियां तो नजर आ ही रही है, अकार को सोचना है उससे कैसे निपटे। कविता, कहानियों में मिठू-मिठू अंदाज की आलोचना से ज्यादातर साहित्यिक पत्रिकाएं, जगमग दुनिया पहले ही बनाये है। हिन्दी साहित्य की हमारी दुनिया का यही वह मर्मस्थल है जहां मुझे अकार-41 का बदला हुआ स्वरूप 1994 के फुटबाफल वर्ल्ड कप प्रतियोगिता में अचानक से उभर आयी कैमरून की टीम की सी तात्कालिक चमक वाला लग रहा है। उम्मीद है भविष्य का अकार कैमरून की तात्कालिक चमक वाला नहीं बल्कि हिन्दी साहित्य से संबंधित पत्रिका की दुनिया में स्थायी रोशनी वाली आकृति हो।
बताना चाहता हूं कि डाक में मिले अकार-41 को पहली शाम सरसरी निगाह से पूरी तरह पलट लेने में मैं मात खा गया था। फेसबुक से पहले ही मिल चुकी सूचना के आधार पर, मैं अपने मित्र सुभाष चंद्र कुशवाह की किताब चौरीचौरा पर हितेन्द्र पटेल के लिखे आलेख से गुजर कर अन्य सामाग्री तक गुजर जाना चाहता था। लेकिन उस शाम हितेन्द्र पटेल के आलेख ने मुझे छूट ही नहीं दी और पूरा पढ़े जाने से शेष रह गया। इस तरह आलेख ने अकार-41 को मेरी अगली सुबह के वक्त में धकेल दिया। मित्रों का लिखा, या उन पर लिखे को सबसे पहले पढ़ने की अपनी कमजोरी को मैं छुपाना नहीं चाहता। आलेख तो पूरा हो गया लेकिन उस सुबह अकार की दूसरी समाग्री से गुजरना तो अधूरा ही रह गया था। शाम को उसे फिर से पलट कर किनारे रख देना चाहता था। पर दिखाये दे गये एक ओर भरोसे के लेखक, बसंत त्रिपाठी ने भी उस शाम अटका दिया। दलित चिंतक तुलसीराम की आत्मकथाओं के बहाने लिखे गये उस आलेख को धैर्य से पढ़ लेने के लिए अकार फिर से अगली सुबह के वक्त पर हावी थी। ग्रंथ शिल्पी से प्रकाशित ई एम एस आत्मकथा और वाम राजनीति के कुछ जटिल प्रश्न पर लिखे उर्मिलेश के आलेख से ही अभी तक निपट पाया हूं और अकार का 41वां अंक मुझे अभी भी ठिठकाये हुए है।
अभी तक के आखिरी आलेख से कुछ सहमत और कई जगहों पर असहमति के बावजूद अकार अभी भी मुझे सरसरी निगाह से गुजरने नहीं दे रहा है। हां, शुद्ध साहित्य की चयन वाली पुस्तकों पर लिखे आलेख तो मेरे सुबह के वक्त पर हमला नहीं ही कर रहे। उनके भरोसे अतियथार्थ वाली व्यवस्थागत कमजोरियां तो नजर आ ही रही है, अकार को सोचना है उससे कैसे निपटे। कविता, कहानियों में मिठू-मिठू अंदाज की आलोचना से ज्यादातर साहित्यिक पत्रिकाएं, जगमग दुनिया पहले ही बनाये है। हिन्दी साहित्य की हमारी दुनिया का यही वह मर्मस्थल है जहां मुझे अकार-41 का बदला हुआ स्वरूप 1994 के फुटबाफल वर्ल्ड कप प्रतियोगिता में अचानक से उभर आयी कैमरून की टीम की सी तात्कालिक चमक वाला लग रहा है। उम्मीद है भविष्य का अकार कैमरून की तात्कालिक चमक वाला नहीं बल्कि हिन्दी साहित्य से संबंधित पत्रिका की दुनिया में स्थायी रोशनी वाली आकृति हो।
पहल-100 का इंतजार अभी बाकी है। समयांतर के न
पहुंचने की आशंका से ग्रसित नहीं हूं, पंकज जी को फोन करने पर डाक की गडबड़ी के बावजूद
वह दुबारा पहुंच ही जायेगी।
विजय गौड़