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Friday, July 10, 2015

वक्त बचा है कम, कुछ बोल लेना चाहिए

अतियथार्थ की स्थितियों का प्रकटीकरण व्‍यवस्‍थागत कमजोरियों का नतीजा होता है, कला, साहित्‍य के सृजन ही नहीं उसके पुर्नप्रकाशन की स्थितियों में भी इसे आसानी से समझा जा सकता है। हिन्‍दी साहित्‍य में कविता कहानियां ही भरमार में हैं। यह यथार्थ ही नहीं बल्कि अतियथार्थ है। देख सकते हैं कि व्‍यवस्‍थागत सीमाओं के बावजूद, कविता और कहानी के दम पर साहित्‍य की पत्रिकाएं निकालना आसान है। इतर लेखन पर केन्‍द्रीत होकर काम करने के लिए पत्रिकाओं को अपनी व्‍यवस्‍थागत सीमाएं नजर आ सकती हैं, या आती ही हैं। इसलिए कविता कहानी वाले अतियथार्थ के साथ समझोता करते हुए ही उनका चलन जारी रहता है, बल्कि बढ़ता हुआ है। ऐसे में पुस्‍तक आलोचना पर केन्‍द्रीत होकर अंक निकालने के लिए जैसी वैचारिक दृढ़ता चाहिए, वह अपने आपमें सांगठनिक कार्यपद्धति की ओर बढ़ने की मांग करत है। 

हाल ही में प्रकाशित एवं वितरित होता हुआ अकार का 41वां अंक इसकी बानगी है। आपसी सहयोग की सांगठनिक पद्धति ही उसे महत्‍वपूर्ण स्‍वरूप देती हुई देखी जा सकती है। अकार-41 का यह अंक पुस्‍तक समीक्षाओं पर केन्‍द्रीत है और राकेश बिहारी के अतिथि सम्‍पादन में प्रकाशित हुआ है। 
अकार का यह अंक मेरे हाथ में उस वक्‍त आया है, जब मैं अपनी प्रिय पत्रिका पहल के 100 अंक का इंतजार कर रहा था। हालांकि पहल का 100 वां अंक तो आज भी रतजगे करवाता हुआ है बल्कि अब तो लगने लगा है कि संभवत: डाक की गड़बड़ी में हो न हो, मुझे इन्‍टरनेट के जरिये ही उसे उसी तरह पढ़ने को मजबूर होना पड़े, जैसे पहल 99 के लिए हो चुका हूं। मेरी इस चिन्‍ता से डाक व्‍यवस्‍था को क्‍या लेना देना कि कुछ पत्रिकाएं ऐसी होती है जिन्‍हें पढ़ने ही नहीं बल्कि सहेजने का भी अपना सुख होता है। पहल के अभी तक के संग्रहित अंको में पहल-99 मेरे पास हमेशा हमेशा के लिए नदारद रह जाने की स्थितियों में है।
अकार-41 कर चर्चा के बीच में पहल का जिक्र मैं क्‍यों करने लग गया ?
यह सवाल किसी ओर से नहीं, मैं खुद से पूछ रहा हूं।
अपनी दिनचर्या के हिसाब से सुबह दफ्तर जाने के पहले बचने वाले समय को मैंने, आमतौर अपने छुट-पुट लेखन और कुछ ऐसी जरूरी चीजें पढ़े जाने के लिए सुरक्षित रखा हुआ है जो ज्‍यादा धैर्य की मांग करती हैं। सुबह के उस वक्‍त में पत्रिकाओं पर सरसरी निगाह डालने का भी कोई अवकाश नहीं। हां, पिछली शाम पलटी गयी पत्रिका में यदि नजर आ गया कोई आलेख वैसे ही धैर्य की मांग करता दिखा तो उसे जरूर शामिल कर लेना होता है। लेकिन मुझ तक पहुंचने वाली हिन्‍दी की पत्रिकाएं में ऐसे पढ़े जाने की स्थितियां सीमित ही हैं। पहल और समयांतर ही दो ऐसी पत्रिकाएं हैं, जो  मेरे इस सुबह के वक्‍त पर डाका डालने में अभी तक अव्‍वल मानी जा सकती हैं। समयांतर का इंतजार तो हर महीने का इंतजार है। अभी तक अनुभव के आधार पर वह किसी भी महीने की 27 तिथि तक पहुंच ही जाती हैपहल के 100 वे अंक से संबंधित कार्यक्रम के दिन वाली अनुगूंज खरों ओर है और मैं उसके अंक 99 से ही अभी वंचित हूं। अब मानने को विवश हो जा रहा हूं कि शायद मुझे 100 वें अंक से भी वंचित हो जाना होगा। क्‍यों अब तक पहुंची नहीं है। मित्रों की सूचनाओं में उसका पढ़ जाना पूरा होता हुआ है। मित्रों से बातचीत के बहाने ही मैं उसके कई सारे पृष्‍ठों के स्‍वाद और प्रभाव को महसूस कर चुका हूं। अकार-41 ने मेरे उस वक्‍त पर आजकल कब्‍जा किया हुआ है।
यहां एक अन्‍य बात, जो प्रासंगिक जान पड़ रही है, कह देना चाहता हूं-
पिछले दिनों अपने एक मित्र से इस प्रस्‍ताव पर बात की, ''भाई क्‍या संयुक्‍त प्रयासों वाली किसी पहलकदमी से कुछ-कुछ पहल और कुछ-कुछ समयांतर वाले स्‍वर के बीच से गुजरती किसी पत्रिका को हम शुरू कर सकते हैं ?'' यद्यपि यह भी कह देना मैं जरूरी जान रहा हूं, यहां स्‍मृतियों में पहली पारी वाली पहल मौजूद है। पहली पारी वाली पहल का प्रकाशन स्‍थगित हो जाने का वक्‍त मेरे लिए स्‍तब्‍धकारी था। क्‍योंकि मेरा मानना रहा कि कविता, कहानियों वाली हिन्‍दी पत्रिकाओं की प्रगतिशील दिशा को बांधे रखने में पहल एक हद तक महत्‍वपूर्ण भूमिका निभा रही थी। उसका प्रकाशन बंद नहीं होना चाहिए था। समयांतर का स्‍वरूप एवं मिजाज थोड़ा भिन्‍न है और जरूरी है।  कविता, कहानियों वाले दायरे की पत्रिकाएं उसके दबाव से मुक्‍त होकर कहीं भी छलांग लगाने को स्‍वतंत्र हैं। दूसरी पारी की पहल को भी अपनी उस भूमिका में अभी उतना नहीं पाता हूं। मित्र ने पत्रिका के प्रकाशन संबंधि अपनी सहमति जाहिर की है। फिर भी अभी बहुत सी दिक्‍कतें हैं कहा नहीं जा सकता कि क्‍या ऐसा संभव होगा भी या नहीं अड़चन के कारण हमारी कमजोर इच्‍छाशक्ति में भी छुपे हो सकते हैं और वास्‍तविक भी हो ही जायें तो वैसा भी हो सकता है।   
इसीलिए अकार-41 का जिक्र करते हुए पहल का जिक्र हो जाना स्‍वाभाविक सी बात है। लेकिन मेरे कहे से ये अनुमान न निकाले जाएं कि बेताबी भरे इंतजार की घडि़यों में अकार का 41वां अंक डाक में अचानक नजर आ जाना, किसी भी पत्रिका के मिल जाने की सी वजहों के कारण यहां जगह पा रहा है। ऐसे होने के अनुमान तो इस बात से भी निर्मूल हो जाते हैं कि पहल-99 के अलम्बित इंतजार में भी अकार के 40वें अंक ने दस्‍तक दी थी। हालांकि अकार के 40वें अंक ने भी उस वक्‍त ठिठकाया था। ज्ञात रहे कि अकार का वह पहला अंक था जो शुद्ध रूप से कविता, कहानी वाले अतियथार्थ का घेरा तोड़ रहा था लेकिन इतिहास संबंधित जानकारियों की अतिमार में बदले हुए स्‍वरूप के प्रभाव बहुत गहरे नहीं पड़ रहे थे। अकार-41 के बारे में अपनी राय व्‍यक्‍त कर देने की जो बेचैनी अभी महसूस हो रही, वैसा तब नहीं हुआ था। बल्कि उस वक्‍त यदि कुछ कह देने की जल्‍दबाजी कर देता तो आज अकार-41 की संभावनाओं पर टिप्‍पणी कर लेने में शायद अब हिचकिचाहट तो महसूस होती ही। 

बताना चाहता हूं कि डाक में मिले अकार-41 को पहली शाम सरसरी निगाह से पूरी तरह पलट लेने में मैं मात खा गया था। फेसबुक से पहले ही मिल चुकी सूचना के आधार पर, मैं अपने मित्र सुभाष चंद्र कुशवाह की किताब चौरीचौरा पर हितेन्‍द्र पटेल के लिखे आलेख से गुजर कर अन्‍य सामाग्री तक गुजर जाना चाहता था। लेकिन उस शाम हितेन्‍द्र पटेल के आलेख ने मुझे छूट ही नहीं दी और पूरा पढ़े जाने से शेष रह गया। इस तरह आलेख ने अकार-41 को मेरी अगली सुबह के वक्‍त में धकेल दिया। मित्रों का लिखा, या उन पर लिखे को सबसे पहले पढ़ने की अपनी कमजोरी को मैं छुपाना नहीं चाहता। आलेख तो पूरा हो गया लेकिन उस सुबह अकार की दूसरी समाग्री से गुजरना तो अधूरा ही रह गया था। शाम को उसे फिर से पलट कर किनारे रख देना चाहता था। पर दिखाये दे गये एक ओर भरोसे के लेखक, बसंत त्रिपाठी ने भी उस शाम अटका दिया। दलित चिंतक तुलसीराम की आत्‍मकथाओं के बहाने लिखे गये उस आलेख को धैर्य से पढ़ लेने के लिए अकार फिर से अगली सुबह के वक्‍त पर हावी थी। ग्रंथ शिल्‍पी से प्रकाशित ई एम एस आत्‍मकथा और वाम राजनीति के कुछ जटिल प्रश्‍न पर लिखे उर्मिलेश के आलेख से ही अभी तक निपट पाया हूं और अकार का 41वां अंक मुझे अभी भी ठिठकाये हुए है। 

अभी तक के आखिरी आलेख से कुछ सहमत और कई जगहों पर असहमति के बावजूद अकार अभी भी मुझे सरसरी निगाह से गुजरने नहीं दे रहा है। हां, शुद्ध साहित्‍य की चयन वाली पुस्‍तकों पर लिखे आलेख तो मेरे सुबह के वक्‍त पर हमला नहीं ही कर रहे। उनके भरोसे अतियथार्थ वाली व्‍यवस्‍थागत कमजोरियां तो नजर आ ही रही है, अकार को सोचना है उससे कैसे निपटे। कविता, कहानियों में मिठू-मिठू अंदाज की आलोचना से ज्‍यादातर साहित्यिक पत्रिकाएं, जगमग दुनिया पहले ही बनाये है। हिन्‍दी साहित्‍य की हमारी दुनिया का यही वह मर्मस्‍थल है जहां मुझे अकार-41 का बदला हुआ स्‍वरूप 1994 के फुटबाफल वर्ल्‍ड कप प्रतियोगिता में अचानक से उभर आयी कैमरून की टीम की सी तात्‍कालिक चमक वाला लग रहा है। उम्‍मीद है भविष्‍य का अकार कैमरून की तात्‍कालिक चमक वाला नहीं बल्कि हिन्‍दी साहित्‍य से संबंधित पत्रिका की दुनिया में स्‍थायी रोशनी वाली आकृति हो।

पहल-100 का इंतजार अभी बाकी है। समयांतर के न पहुंचने की आशंका से ग्रसित नहीं हूं, पंकज जी को फोन करने पर डाक की गडबड़ी के बावजूद वह दुबारा पहुंच ही जायेगी।    

      विजय गौड़     

Tuesday, July 21, 2009

उम्मीदों की एक नई पहल

अभी अभी एक मेल प्राप्त हुई। एक ऎसी खबर जिसके सच होने की कामना ही की जा सकती है।

प्रिय मित्र,

कुछ समय पहले सुप्रतिष्ठित पत्रिका पहल कुछ समय के लिए स्थगित कर दी गई थी। संपादक ज्ञानरंजन की ओर से की गई इस घोषणा को लेकर साहित्य एवं बौद्धिक जगत में अच्छा-ख़ासा विवाद भी उठ खड़ा हुआ था। पहल के चाहने वालों को पत्रिका का इस तरह अचानक बंद होना बेहद अखरा था।

लेकिन अब खुशी की बात ये है कि पहल को फिर से शुरू करने की योजना बन रही है। इस ख़बर को लेकर आप क्या सोचते हैं ये संपादक ज्ञानरंजन और पत्रिका को फिर से शुरू करने वाले लोग जानना चाहते हैं। अत: आपसे निवेदन है कि अपनी विचार हमें फौरन info@deshkaal.com पर भेजें।

हम आपकी प्रतिक्रिया का व्यग्रता से इंतज़ार कर रहे हैं, इसलिए भूलें नहीं।

धन्यवाद एवं शुभकामनाएं।
संपादक
www.deshkaal.com

Friday, November 14, 2008

जारी रहे पहल (सम्मान)

पहल बंद होने के कगार पर है- यह खबर है। कई ब्लागों में छपी सूचनाएं, जनसत्ता में कवि अशोक वाजपेयी का कॉलम और गाहे बगाहे सुनी जा रही खबरें चिन्तित करने वाली हैं। इसीलिए उन पर यकीन भी नहीं होता। यकीन करना भी नहीं चाहते। पहल आज हिन्दी की एक ऐसी केन्द्रीय पत्रिका है जिसे जनपक्षधर साहित्य का स्कूल भी कहा जा सकता है। उसमें छपे की विश्वसनीयता है। पहल से धुर असहमति रखने वाले भी इससे अलग राय नहींरख पाते हैं। आज पत्रिकाएं तो बहुत निकल रही हैं पर पहल की जो भूमिका है उसको स्थानापन करने की सार्म्थय अभी तो किसी में नहीं है। पहल ने जन पक्षधरता के सवाल को जिस तरह से प्राथमिकता पर रखा है उससे इस हल्लातारु दौर में भी अन्य पत्र-पत्रिकाओं पर एक लगाम लगती रही है। प्रतिबद्धता की इस मुहिम के जारी रहने की खबर फिर कैसे हिन्दी के पाठकों की चिन्ता का विषय होगी। पहल-90 जो ताजा-ताजा छपा है, में प्रकाशित यतीन्द्र मिश्र के आलेख "ठुमरी के नैहर में बनारस की मैना " के अंत में छपी टिप्पणी "--- धारावाहिक आगे भी जारी रहेगा ।" हमारे इस यकीन को पक्का करता है कि पहल का प्रकाशन सतत जारी रहेगा और उसे रहना भी चाहिए।

इस उम्मीद को कायम रखते हुए ही पहल सम्मान 2000 के सम्मानित कथाकार
विद्यासागर नौटियाल जी द्वारा सम्मान के वक्त प्रस्तुत उनका आत्मकथ्य, प्रकाशित किया जा रहा है। वरिष्ठ कथाकार विद्यासागर नौटियाल ने 29 सितम्बर 2008 को 76वें वर्ष में प्रवेश किया है। वारणसी से निकलने वाली पत्रिका आर्यकल्प ने उन पर विशेषांक निकाला है। हम भी अपने प्रिय ऊर्जावान और बुजुर्ग-युवा कथाकार को शुभकानाएं देते हैं। इस अवसर पर उनकी अन्य रचनाएं भी सिल-सिलेवार प्रकाशित कर रहे हैं। यह उसकी पहली कड़ी है।

दसवें ' पहल " सम्मान के अवसर पर 4 जून, 2000 को देहरादून के टाउन हॉल में विद्यासागर नौटियाल द्वारा दिया गया वक्तव्य

सभागार में उपस्थित सम्बन्धियों मित्रों, परिचितों, साहित्यप्रेमियों , रचनाधर्मियों और साथियों से घिरा होने पर मेरी नज़रें एक मेहतरानी की सूरत तलाशने लगी हैं । यह सुनि्श्चित हो चुका है कि इस वक्त वह हमारे बीच नहीं । भारत की आज़ादी के कुछ समय बाद केन्द्र और प्रान्त की सरकारों से सीधी टर लेते हुए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को भूमिगत हो जाना पड़ा था । हमारा शिकार करने को घूम रहे मुस्तैद पुलिसकर्मियों की सतर्क निगाहों से बचते हुए इस शहर की एक छोटी-सी झोंपड़ी के अन्दर बारी-बारी से कभी दूसरे, कभी तीसरे दिन पहुँचकर हम एक या दो साथी बहुत बेताबी से उस मेहतरानी का उस घर के अन्दर लौटने का इन्तज़ार करने लगते थे । अपने आँचल के नीचे एक थाली को छुपाती हुई वह घर के अंदर पाँव धरती तो हमारे चेहरे खिल उठते । उसकी थाली में विभिन्न घरों से, जहाँ-जहाँ वह काम करती होगी,माँग-माँग कर लाई गई इस शहर की जूठन होती । अपने भूखे बच्चों को खिलाने से पहले वह उस थाली के मिश्रित पदार्थ हमें परोस देती थी । गुरदयालसिंह बताते हैं कि गुरूद्वारे में अमृत छकने के बाद सिख कोई अन्य पदार्थ ग्रहण नहीं करता । भूमिगत ज़िन्दगी में उस अमृत का पान करने के बाद मैने आजीवन अपने को उस वर्ग के साथ एकाकार करके रखने की चेष्ठा की । दुनिया का कोई प्रलोभन मुझे विचलित नहीं कर पाया । पूँजीवादी समाज के कुल पदार्थ बेस्वाद लगते रहे । सोच रहा हूँ कि इस मौके पर कहीं से वह मेहतरानी माँ, हमारी वह कामरेड भी इस सभागार में आ लगती तो उसके आल्हाद के तापमान को माप करने लायक कोई यंत्र क्या वैज्ञानिक ईजाद कर पाते ?
राजगुरू कुल में जन्मे पिता नारायणदा नौटियाल वन विभाग के अधिकारी थे । मेरा बचपन रियासत टिहरी-गढ़वाल के उन भयानक,घनघोर जंगलों में बीता जहाँ शायद अब अकेले जाने का मैं साहस न कर सकूँ । यद्यपि उन वनों का अधिकांश माफिया की हव्श के शिकार हो चुके है। । उस ज़माने में उस वन-प्रदे्श में रहते हुए मुझे इस बात की जानकारी नहीं रहती थी कि रोग-बीमारियों का उपचार करने के लिए रीछ के कलेजे के अलावा किसी अन्य चीज़ का भी औषधि के रूप में प्रयोग किया जा सकता है । उसे हम रिखतिता कहते थे । ज्वर-बुखार से लेकर चोट वगैरह लगने या छाती-पेट-बदन आदि में दर्द उठने,कैसा भी दर्द उठने,की दवा मेरी जानकारी में रिखतिता होती थी । हमारे ज्ञान में दवा का अर्थ रिखतिता होता था । अपने बचपन में मैने कितनी मात्रा रिखतिता की हज़म की इसका कोई हिसाब नहीं दिया जा सकता । रीछ की एक विशेषता यह होती है कि गोली लगने पर,घायल होने पर वह रूकता नहीं,आगे बढ़ता जाता है । रास्ते में मिलने वाले वृक्षों और झाड़ी-गाछ से पो दंदोड़ कर वह अपने घावों को भरता जाता है और बढ़ता जाता है। रिखतिते की अचूक शक्ति की सहायता से अपने बचपन के कुल रोगों से लड़ते रहने के कारण मेरे अन्दर रीछ का वही स्वभाव भर गया । जीवन और साहित्य में हमलों से विचलित हुए बगैर मैं अपने लक्ष्य की ओर लगातार अग्रसर रहा ।

मामा बिशु भट्ट साबली गाँव के बेहद गरीब आदमी थे। एक बार हमसे भेंट करने शिमला पहाड़ियों के मिलान पर टिहरी-गढ़वाल रियासत के सीमावर्ती क्षेत्र बंगाण पट्टी के कसेडी रेंज मुख्यालय पर आए । उनको कुछ रोज़गार की ज़रूरत थी । पिता ने बड़े पाजूधार में जमा लकड़ी के स्लीपरों को छोटे पाजूधार तक ढुलान करने का काम सौंप दिया । पिता के लम्बे दौरे पर जाते ही मेरी माँ ने मुझे भी उस काम में जोत दिया इस सख्त व गोपनीय हिदायत के साथ कि इस बारे में किसी भी तरह पिता को पता नहीं लगना चाहिए । मामा के अलावा स्लीपरों के उन चट्टों के ढुलान की जुम्मेदारी मेरे कमज़ोर कंधों पर भी आ पड़ी । किसी अन्य बालक के साथ मैं भी बारह फुट्टे स्लीपरों के ढुलान में जुट गया । लम्बे दौरे के बाद पिता के घर लौटने से पहले ही ढुलान का काम पूरा कर लिया गया था । मजूरी के भगतान के वक्त मामा को लगा कि शायद हिसाब में कुछ गड़बड़ी हो गई है । पहाड़ी लोग दिन के वक्त सिर्फ भात खाते हैं । भात चौके के अन्दर खाया जाता था । बच्चों का वहाँ प्रवेश वर्जित होता । मामा पिता के एकदम पास,चौके के अन्दर बैठे थे । माँ ने धीमे स्वर में मामा की मजूरी का प्रसंग छेड़ दिया । पिता ने अदा की गई मजूरी को सही बताया । बेहद दबी जुबान में मामा ने भी कुछ निवेदन किया । पिता ने खाते-खाते वहीं चौके के अंदर क्रोधावेश में उलटे हाथ से उन्हें एक धौल मार दी । उस घटनाक को मैं आजीवन बिसार नहीं पाया । उसके स्मरण से मुझे अपनी जड़ों का खय़ाल आ जाता है और मैं अपनी औकात पर पहुँच जाता हूँ । जीवन में अनेक ऐसे मुकाम आए जब अंतिम निर्णय लेने से पूर्व मैने नौ बरस के उस विद्यासागर की याद की जो पाजूधार के वन में ऊँची-नीची राहों पर बारह फुट्टे स्लीपरों का ढुलान कर रहा था कि उसके दरिद्र मामा को दो पैसे ज़्यादा मिल सकें ।

पहाड़ दरअसल वैसा नहीं है जैसा वह दो घड़ियों के अपने जीवन को पहाड़ पर बिताने वाले सैलानियों को दिखाई देता है । पूर्णमासी का, शरद का चाँद घने जंगल में अपनी रोशनी डालता है तो उसकी झलक मात्र से जीवन धन्य लगता है । सूरज,नदियाँ, घाटियाँ और इन पहाड़ों में बसने वाले लोग । ये सब शक्ति देते हैं । उच्च शिखरों पर बुग्यालों की रंगीन कालीन के ऊपर बैठ कर एक क्षण के लिए सूर्य की किरणों के दर्शन जीवन को सार्थक करते लगते हैं । लेकिन इन पहाड़ों में मानव जीवन विकट है । याद रखा जाना चाहिए कि इस हिमालय में पांडव भी गलने आए थे । कुछ लोग, मात्र कुछ लोग, इसे सुगम बनाने के लिए अपने को कुर्बान कर रहे हैं । मैं इस विकट पहाड़ में रम-बस गया । इसे छोड़ कर कहीं भाग जाने की बात नहीं सोची । अपनी रचनाओं में मैं इस पहाड़ की सीमाओं के अन्दर घिरा रहा । टिहरी से बाहर नहीं निकला । निकलूँगा भी नहीं ।
वन अधिकारी के घर जन्म लिया । जब तक छोटा रहा पिता व परिवार के साथ दूरियाँ तय करनेके लिए मुझे बोझा ढोनेवाले बेगारियों की पीठ पर ढोए जा रहे माल-असबाब के ऊपर धर दिया जाता । तब बेगार के ऊपर, उनकी पीठ पर बैठकर मैं यात्राएँ करता रहा । अब वे भारवाहक मुझे अपने सर के ऊपर बैठे मालूम होते हैं । पीठ पर ढोने के बजाय सर पर ढोना बहुत कठिन होता है । उनके उस भार को अपने सर से उतार नहीं पाता । जिन्होंने एक-दो दिन कभी मुझे अपनी पीठ पर ढोया वे आजीवन मेरे सर पर सवार मालूम हो गए लगते हैं । उनके उस जीवन की व्यथा का बयान करने की कोशिश करता रहता हूँ ।
अपने को अपने समाज का ऋणी मानते हुए उससे उऋण होने की छटपटाहट में लिखता हूँ । साहित्य मेरे लिए मौज-मस्ती का साधन नहीं, कहीं ऊपर पहुँचने-चढ़ने की कोई अस्थायी सीढ़ी नहीं, ज़िन्दगी की एक ज़रूरत है । लेखन के काम को मैं एक फ़र्ज के तौर पर अंजाम देता हूँ । किसी भी प्रकार की हड़बड़ी के बगैर लिखता हूँ और किसी की सिफारिश पर नहीं लिखता । जो मन में आए वह लिखता हूँ । सिर्फ वही लिखता हूँ ।
कोई भी मनुष्य नितान्त अकेला नहीं जी सकता । किसी एक व्यक्ति की उपलब्धियाँ पूरे समाज की उपलब्धियाँ होती हैं । बचपन से उसके निर्माण में असंख्य लोगों का
योगदान रहता है । इस दुनिया का हर कार्य अनगिनत लोगों के सामूहिक श्रम का प्रतिफल होता है । 'सूरज सबका है" में मैने इस तथ्य को, समाज की सामूहिकता के प्रश्न को भी, रेखांकित करने का प्रयास किया है । 'भीम अकेला " में भी यह बात और खुल कर सामने आती है जहाँ एक पीढ़ी के बजाय, हमारे इतिहास में विचरण करते हुए अनेक लोग समान रूप से कार्यरत दिखाई देते हैं ।
अपनी कहानियों में मैं मामूली लोगों पर होनेवाले सामंती अत्याचार के विरोध में अपने को खड़ा पाता हूँ । जहाँ मेरे पात्र कोई प्रतिरोध नहीं कर पाते, मेरी मंशा रहती है कि उस स्थिति को देखकर पाठक के मन में प्रतिरोध की भावना जागृत हो । अक्सर वे अत्याचार हमारी सामाजिक व्यवस्था की उपज के रूप में दिखाई देते हैं । तब मात्र सत्तासीन कुछ व्यक्तियों को बदलने के बजाय पूरी व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करना पाठक को एकमात्र विकल्प प्रतीत होने लगे ऐसी मेरी कोशिश रहती है । ' खच्चर फगणू नहीं होते " तथा ' उमर कैद " जैसी अनेक कहानियों में मैने यही प्रयास किया है । सामाजिक व्यवस्था का बदलाव अकेले व्यक्तियों के द्वारा, चाहे वे कितने ही महाबली हों, किया जाना संभव नहीं । ' फट जा पंचधार " में अपनी सदिच्छा और कोशिशों के बावजूद सवर्णों के कसे हुए जाल में फँसा हुआ वीरसिंह पराजित हो जाता है और रक्खी सड़क पर आ जाती है । यह अकेले वीरसिंह की नहीं, उस समाज में जी रहे कुल नौजवानों की पराजय है । ' भैंस का कट्या " में गबलू व उसके माता-पिता की मज़बूरियाँ पाठक के दिमाग में स्पष्ट हो उठती हैं, जब एक जानवर गज्जू के प्रति उनके दृष्टिकोणों के अन्तर गायब हो जाते हैं और वे सब उसकी मौत पर एक समान पीड़ा का अनुभव करने लगते हैं ।
अपना लेखन कार्य करते वक्त मुझे लगता है इस कार्य को मैं अकेले नहीं कर रहा हूँ, मेरे कुल पात्र मेरे साथ हैं जो अपनी कहानी मुझसे लिखवा रहे हैं और यह एक मिली-जुली प्रक्रिया है। अनेक पात्रों को मैं वर्षों तक अपने अन्दर जीता आया हूँ । अपनी अब तक की रचनाओं के लेखन से मेरे अन्दर एक आत्मविश्वास पैदा हुआ । भविष्य में मैं नए विषयों पर लिखना चाहता हूँ । सन् 1930 में टिहरी रियासत के बागी किसानों की ऐतिहासिक तिलाड़ी कांड में अमर भूमिका पर अब लिखना शुरू किया है जिसका एक अंश ' वसुधा " ने ' यमुना के बागी बेटे " शीर्षक से प्रकाशित किया ।
सभागार में उपस्थित मित्रों तथा भारत के कोन-कोने से देहरादून तक पहुँचने वाले साहित्यकारों के अहसान से मुझे शेष जीवन में शक्ति मिलती रहेगी

विद्यासागर नौटियाल
nautiyalvs@yahoo.com

Tuesday, August 5, 2008

कुत्ते का काटना

पहल-89 । गीत चतुर्वेदी मेरे पसंदीदा लेखकों में से हैं। इधर तेजी से उभरे ऊर्जावान युवा रचनाकारों के बीच गीत की रचनाओं तक पहुंचना मेरी प्राथमिकता में रहता है। मुझे उनकी भाषा में समकालीन दुनिया के तनाव और उन तनाव भरी स्थितियों के कारकों के खिलाफ एक गुस्सा हमेशा प्रभावित करता है। गीत को मैं सिर्फ उनकी रचनाओं से जानता हूं, कोई व्यक्तिगत परिचय नहीं। होता तो कह सकता कि कभी-कभी कुछ असहमतियों के साथ भी रहता हूं मित्र। सतत रचनारत गीत दुनियाभर की साहित्यिक हलचलों के साथ भी जुड़े रहते हैं और हिन्दी पाठक जगत को उससे अवगत कराने के लिए भी उत्सुक रहते हैं, ऐसा उन्हें पढ़ने के कारण कह पा रहा हूं। अभी पहल का नया अंक प्रकाशित हुआ है। पहल-89 । हाल ही में कनाडा के छोटे से शहर रॉटरडम में सम्पन्न हुए कविता समारोह की एक अच्छी रिपोर्ट गीत ने तैयार की है जो पहल के इस अंक में प्रकाशित हुई है। साथ ही गीत द्वारा अनुदित अरबी मूल की कवि ईमान मर्सल की डाायरी का अनुवाद भी पहल के इसी अंक में है। युवा कवि ईमान मर्सल वर्ष 2003 में रॉटरडम कविता समारोह में आमंत्रित थी। उसी समारोह के उनकी डायरी में दर्ज अनुभवों का अनुवाद पहल ने प्रकाशित किया है। यहां प्रस्तुत है उसका एक छोटा सा हिस्सा।


ईमान मर्सल

जब मैं कॉलेज में पढ़ती थी, तब एक बार गली में कुत्ते ने मुझे काट लिया। इक्कीस दिनों तक लगातार हर सुबह मैं अल-मंसूरा अस्पताल के नर्स कार्यालय के सामने लगने वाली कतार में खड़ी रहती थी, ताकि एंटी-रैबीज इंजेक्शन ले सकूं। इंतजार करते हुए मैं अक्सर सबको एक-दूसरे से यह पूछते सुनते थी - किसने काटा ? कुत्ते, बिल्ली या घोडे ने ? यह मुझे बहुत बाद में पता लगा कि इनमें से किसी ने भी काटा हो, इंजेक्शन तो एक ही लगेगा। लेकिन यह पूछताछ इसलिए होती थी ताकि इंतजार करते हुए लोग एक-दूसरे से बात कर सकें। हर किसी की कहानी में एक अलग किस्म की नाटकीयता और अलगाव होता था। जबकि कतार से खड़े पुराने मरीज बताते थे कि जिस समय पेट में सुई लग रही हो, उस समय कैसे दर्द को संभालना चाहिए।

यहां आमंत्रित इन सारे कवियों को सुनते हुए मुझे वह दृश्य बरबस याद आता रहा। ये सारे कवि एक-दूसरे को अपना परिचय देते हुए बताते रहे थे कि उन्होंने इतने साल जेल में काटे हैं या इस-तरह की यातनाओं से गुजर चुके हैं। ऐसा नहीं कि जेल या यातना के अनुभवों को न सुना जाए या हमदर्दी न जताई जाए, बल्कि एक कवि या लेखक के तौर पर ये बातें एक किस्म की भूमिका के रूप में होती हैं, कि यह उनक लेखन के अलावा एक सकारात्मक गुण है। पच्च्चिमी संस्थाएं जब लेखकों को उनके जेल या यातना के अनुभवों के आधार पर चुनती हैं, तो उनका उद्देश्य यह बताना होता है कि फलां देश में अभिव्यक्ति स्वातंत्रय न होने की वजह से लेखक कितना असहाय है। हो सकता है कि यह उस भूमिका के प्रति एक किस्म का नकार हो, जो कि पश्चिम कुछ खास क्षेत्रों जैसे मिडिल-ईस्ट, में स्वतंत्रता को न उभरने देने में निभाता है।

अनुवाद - गीत चतुर्वेदी