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Monday, December 11, 2023

कामकाजी महिला की दुविधा और उसके दर्द

देहरादून के रचनात्मक जगत पर और महिला रचनाकरों पर जब भी बात की जाएगी तो कथाकार कुसुम चतुर्वेदी और शशिप्रभा शास्त्री का जिक्र किये बगैर बात नहीं की जा सकती। यह संयोग ही कहा जा सकता है कि दोनों ही रचनाकार महादेवी कन्या (पी जी) कॉलेज में अध्यापनरत रहीं। उन्हीं कुसुम चतुर्वेदी को याद करते हुए आज हमारे सम्मुख हैं कथाकार विद्या सिंह। कुसुम जी की शोधा छात्रा रहते हुए विद्या सिंह जी को न सिर्फ उनके निजी जीवन से साक्षात्कार करने का मौका मिला, अपितु उनकी रचनाओं को भी करीब से देखने का सुयोग प्राप्त हुआ। उनका यह संस्मरण इस बात का गवाह है जिसे उन्होंने हमारे आग्रह पर कुसुम की रचनाओं से गुजरते हुए बहुत ही आत्मीय तरह से लिखा है।



स्मृतियों की परिधि में डॉ. कुसुम चतुर्वेदी

 विद्या सिंह 

सुप्रसिद्ध कहानी लेखिका डॅा. कुसुम चतुर्वेदी, जिन्हें मैं हर प्रकार की औपचारिकता को दर किनार करते हुए ‘दीदी‘ संज्ञा से संबोधित करती रही हूँ, से प्रथम परिचय प्राप्त करने के सुयोग की पृष्ठभूमि में डॉ. पंजाबी लाल शर्मा, तत्कालीन विभागाध्यक्ष हिन्दी, डी. ए. वी. पी. जी. कॉलेज का वह पत्र था, जो उन्होंने मुझे शोधछात्रा के रूप में, अपने निर्देशन में लेने का अनुरोध करते हुए डा.चतुर्वेदी को लिखा था। उस समय मेरी दूसरी बेटी कोख मे पल रही थी। ’’उनके साथ आप अधिक सहजता अनुभव करेंगी‘‘ डॉ. शर्मा के शब्द थे।

    आशंकित भाव से गेट के भीतर घुसते ही संभावित कुत्ते का भय, हरे भरे वृक्षों के बीच, सुन्दर लॉन से सुसज्जित बंगला, कुल मिला कर एक अभिजात्यपूर्ण वातावरण का असर तो था ही, डॉ. चतुर्वेदी ने पत्र पढ़कर मुझे हतोत्साहित करते हुए जो प्रतिक्रिया व्यक्त की, मेरे लिए वह अकल्पनीय थी। ज्ञात नहीं वह अपने वक्तव्य में कितनी गंभीर थीं, किंतु मैने उनके शब्दों को यथावत् ग्रहण किया। ’’अरे! दो-तीन बच्चे पैदा करो और पैर पसार कर सोओ। क्या रखा है पी-एच.डी. में?‘‘ आई. डी. पी. एल. ऋषिकिेश से मेरे बार-बार चक्कर लगाने पर संभवतः उन्हें मेरे निर्णय की गंभीरता का बोध हुआ और वह काम कराने को सहमत हुईं। मेरी सिफ़ारिश उनके पति श्री एस. सी. चतुर्वेदी ने भी की, जो मुझे डी. ए. वी. कॉलेज में एम. ए. अंग्रजी की कक्षा में पढ़ा चुके थे।

     दीदी से निरन्तर मुलाकातों के क्रम में उनकी कहानियों पर भी बातें होतीं। मैं अब समझ सकती हूॅ कि वह मेरी मौखिक समीक्षा से बहुत आश्वस्त नहीं होती थीं। उनकी रचना के बहुत से पक्ष मेरी समझ की परिधि में समाने से रह जाते, जिन पर वह प्रतिक्रिया जानना चाहतीं। यह बात सन् 1980 की है जब साहित्य को समझने की तमीज भी मेरे भीतर पैदा नहीं हुई थी। शोधछात्रा के रूप में दीदी से जो मेरा जुड़ाव हुआ, मेरे प्रति बरती गई उनकी उदारता वश, वह उत्तरोत्तर अधिक आत्मीय होता गया और आगे चल कर विभागीय,पारिवारिक एवं अध्ययन-अध्यापन के स्तरों पर निरंतर बना रहा। एम.के.पी. पी.जी. कॉलेज में प्राध्यापिका के रूप में मेरे चयन में उनकी अविस्मरणीय भूमिका थी। विभाग की वरिष्ठ प्राध्यापिका डॉ. उषा माथुर यूजीसी के किसी प्रोजेक्ट के तहत दीर्घ अवकाश लेकर दिल्ली चली गई थीं। दीदी का पोस्टकार्ड मुझे प्राप्त हुआ कि 'यदि तुम पढ़ाने आ सकती हो, तो आ जाओ। यहां अवकाश कालीन रिक्ति है।  बाद में हो सकता है यह पूर्णकालिक भी हो जाए।'

 ऋषिकेश से नौकरी छूटने के बाद मैंने पी-एच.डी. की और अब मैं  इंटर के बच्चों को अंग्रेजी की ट्यूशन देती थी। पत्र पाकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। मैं देहरादून आई, मुश्किल से दो कक्षाएं लेनी होती थीं। मैं खा- पीकर 10:30 बजे आई.डी.पी.एल. से निकलती थी और 12:30 तक देहरादून पहुंच जाती थी। 3:30 बजे फ्री हो जाती थी और फिर वापस 5:15 से 5:30 तक आईपीएल पहुंच जाती थी। एक डेढ़ साल मैंने इस व्यवस्था में पढ़ाया कि पूर्णकालिक शिक्षक की रिक्ति निकली मुझे पूर्णकालिक नौकरी प्राप्त हो गई। इन सबके पीछे मेरे सिर पर दीदी का वरदहस्त था।

     उनके साथ महाविद्यालय में काम करते हुए, उन्हें बहुत निकट से देखने का अवसर मिला। भाषा पर उनकी अद्भुत पकड़ थी और शब्दों के हेर-फेर से चमत्कार पैदा कर देना उनका हुनर । अपनी वैदुष्यपूर्ण टिप्पणियों से वह मेरे शोधकार्य को स्तरीयता प्रदान करतीं, अनावश्यक मीन-मेख कभी नहीं निकालतीं।  वह भीतर-बाहर एक जैसी थीं। मैं उनके जीवन के अन्यान्य मोड़ों की प्रत्यक्षदर्शी रही हूॅ और इन सभी सन्दर्भों में उनके व्यक्तित्व ने मुझे प्रभावित किया। कहते हैं मन और आत्मा की स्वच्छता व विशदता तन को स्वास्थ्य देती है,सुघड़ता देती है। दीदी के लिए यह कथन सर्वांश रूप में सत्य है।

          प्रसाद जी की पंक्तियों का सहारा लूं तो ‘हृदय की अनुकृति वाह्य उदार, एक लंबी काया उन्मुक्त‘ द्वारा उनके आकार- प्रकार का चित्रण किया जा सकता है। किन्तु अपने पति के सुदर्शन व्यक्तित्व के सम्मुख वह हमेशा स्वयं को दूसरे पायदान पर रखती थीं। यह उनकी निरभिमानता का प्रमाण है। प्रायः उनकी कहानियां पढ़ते हुए,  उनसे बातें करने और बातें करते हुए, कहानियां पढ़ने का भ्रम होता था। साहित्य व्यक्तित्व का प्रतिफलन होता है, यह कथन उनके लेखन के संदर्भ में एकदम सटीक बैठता है। परम्परा और आधुनिकता की संक्रान्ति के मध्य उभरती मूल्यचेतना से संपन्न जिस स्त्री को उन्होंने अपने लेखन के केन्द्र में स्थापित किया है, उससे उनकी वैचारिक समानता प्रकट होती है।

         अपने निर्णय के मामले में वह किसी का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं करती थीं। दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.ए. करने के उपरांत शोध के लिए उनकी इकलौती बेटी नीरजा अमेरिका जाने वाली थी। टिकट और वीसा, सब कुछ हो चुका था। इसी बीच चतुर्वेदी सर का देहांत हो गया। बहुत से‌ निकट के लोगों ने उन्हें समझाया कि बेटी को बाहर न जाने दें किंतु उन्होंने अपने विवेक से काम किया और बेटी के मार्ग में कोई बाधा नहीं डाली। बाद में बेटी ने वहीं अमेरिका में नौकरी ज्वाइन कर ली और उसने विवाह भी नहीं किया। उसके विवाह की लालसा उनके दिल में ही रह गई।

     पहले शोधछात्रा और बाद में उन्हीं के विभाग में एक शिक्षिका के रूप में  उनके साथ रहने का सौभाग्य मिला। एक प्रसंग मैं कभी नहीं भूल पाती और याद आने पर अधरों पर मुस्कान अपने आप फैल जाती है। डिपार्टमेंट में मधु शर्मा मैडम की बेटी का विवाह था; मैं ऋषिकेश से आई थी। वैवाहिक आयोजन से लौटने में रात हो गई और वापस ऋषिकेश जाने की कोई सूरत नहीं रह गई थी। अतः मैं दीदी के घर पर रुक गई। उन्होंने ओढ़ने के लिए मुझे एक रजाई, जो मेरे हिसाब से बहुत पतली थी,दी। रात में बहुत ठंड लगी किंतु संकोच वश मैंने उन्हें नहीं जगाया। सुबह उठने पर उन्होंने पूछा रात में तुम्हें गर्मी तो नहीं लगी? मैंने कहा, "नहीं दीदी, गर्मी बिल्कुल नहीं लगी।" जब मैं आई.डी.पी.एल. पहुंची तो हीटर ऑन करके तलवों में तेल लगा ,कर मैंने अपने को खूब सेंका।

                        उन दिनों उनकी कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में। खूब प्रकाशित हो रही थीं। उनकी कहानियां परिवार में घटने वाली उन छोटी- छोटी बातों को पूरे विवरण के साथ प्रस्तुत करती हैं,जो महत्त्वपूर्ण तो हैं, किन्तु उनकी ओर हमारा ध्यान कम ही जाता है। उत्तरकालीन जीवन के तीसरे पड़ाव पर नितान्त अकेली रह गई स्त्री की पीड़ा को उन्होंने अत्यन्त संवेदना पूर्वक उकेरा है। आर्थिक रूप से सुदृढ़ होना ही सुखी जीवन की अनिवार्यता नहीं है। अच्छा वेतन पाने वाली अनेक ऐसी स्त्रियों के चित्र उनकी कहानियों में मिलते हैं जो घरेलू औरतों के प्रति इर्ष्यालु हो उठती हैं किंतु उनकी‌अधिकांश कहानियों की स्त्री अत्यन्त संवेदनशील और अस्तित्व के प्रति सजग है। पति- पत्नी के बीच उभरते द्वन्द्व, अपने-अपने व्यक्तित्व के स्वतंत्र विकास के लिए संघर्ष  करते हुए पति- पत्नी के जीवन में व्याप्त तनाव, पति के साथ एकरस और ऊब भरी जिन्दगी बिताने की नियति को नकार कर स्वच्छन्द जीवन-यापन करने का साहस आदि भावों को व्यक्त करती हुई उनकी अनेक कहानियां देखी जा सकती हैं। जीवन की विविध स्थितियों में घुटन भरी जिन्दगी जीती स्त्री उस अपरिचित व्यक्ति के प्रति सहानुभूति से भर उठती है, जो उसके व्यक्तित्व को सम्मान देता है। सम्बंधहीन कहानी की नायिका सुनन्दा का पति उसके लेखन को बिल्कुल महत्त्व नहीं देता, ऐसे में वह उस पराए व्यक्ति को बहुत अपना समझती है, जो उसके लेखन की कद्र करता है।उसकी मृत्यु उसे व्यक्तिगत हानि महसूस होती है।         

संवेदनशील रचनाकार की दृष्टि समाज में उपेक्षित उन समस्त वंचितों की ओर जाती है, जिनकी सहायता में कोई आगे नहीं आता।दीदी की कहानियां इस सच्चाई का साक्ष्य हैं। इसके अतिरिक्त आपकी कहानियां समाज में व्याप्त उन तमाम विडंबनाओं की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करती हैं, जो घुन की तरह समाज को खोखला कर रही हैं। पब्लिक स्कूलों में चल रहे शिक्षा के व्यवसाय को प्रदर्शित करती कहानी ‘उपनिवेश' शिक्षक शिक्षिकाओं के शोषण का अत्यन्त बारीकी से विवरण प्रस्तुत करती है।

            कितने ही लोग भविष्य की चिन्ता मे वर्तमान को नारकीय बना लेते हैं। ‘यक्ष’ एक ऐसेे दंपति की कहानी है, जिसका पुरुष पात्र प्रकाश अत्यन्त कंजूस है। वह पूरा जीवन पैसे जोड़ने के फेर में अभावग्रस्त होकर बिता देता है और अन्त में सब कुछ छोड़ स्वर्ग सिधार जाता है। पत्नी को पति द्वारा बरती गई कंजूसी के स्मरण से क्षोभ होता है और वह उन पैसों को अपने ऊपर भी व्यय नहीं कर पाती। मानव मनोविज्ञान की गहरी सूझबूझ के साथ रची गई ये कहानियां पाठक पर सीधा प्रभाव डालती हैं।

            स्त्री किसी भी उम्र की हो अपने सौन्दर्य के प्रति की गई उपेक्षा उसे सहन नहीं होती।’अनदेखे बंधन‘ की इन्द्रा को, पति द्वारा बरती गई लापरवाही, अपने प्रति सजग बना देती है। वह अपने सौन्दर्य को लेकर पर्याप्त चिन्तित हो जाती  है। वह अपना सौन्दर्य पारिवारिक मित्र अजीत के उपर आजमाना चाहती है। चाय लेकर अजीत के कमरे में जाते हुए यह निश्चय करती है कि वह अजीत के मन में अपने प्रति आकर्षण पैदा करेगी, किन्तु उसका विवेक उसे ऐसा करने से रोक देता है। नारी मनोविज्ञान  की समझ से युक्त कहानियों में स्त्री के अनेक रूपों का चित्रण हुआ है। कामकाजी महिला की दुविधा उसके दर्द और विवशता उनकी कहानियों में व्याप्त हैं। कहीं अपने बच्चे को बहन को गोद देने की विवशता का चित्र है तो कहीं अपने गरीब भाई- भाभी के लिए भरेपूरे ससुराल में कष्ट पाती स्त्री का चित्र है। उनकी कहानियां जीवन की अनेक स्थितियों में घिरी हुई स्त्री के मन में चल रहे द्वन्द्व को वाणी देती हैं।

दीदी की कहानियों के शीर्षक पर बात न की जाए तो चर्चा अधूरी रह जाएगी। अपनी कहानियों के शीर्षर्कों का चुनाव उन्होंने काफ़ी सोच समझ कर किया है।प्रायः शीर्षक प्रतीकात्मक हैं, कहानी के भीतर छिपे मर्म की ओर संकेत करते हुए। ‘तीसरा यात्री’, ‘एकलव्य’, ‘कुबेर के प्रतिद्वन्द्वी’,‘उपनिवेश’ आदि अनेक शीर्षक उदाहरण स्वरूप देखे जा सकते हैं।

आज वह पार्थिव रूप में भले हमारे बीच नहीं हैं पर अपनी रचनाओं के माध्यम से वह सदैव हमारे मध्य बनी रहेंगी।


Friday, November 28, 2008

यादों के झरोखों से

हिन्दी की वरिष्ठ कथाकार डॉ कुसुम चतुर्वेदी का लम्बी बीमारी के बाद 26 अक्टूबर 2008 को अखिल भारतीयआयुर्विज्ञान संस्थान में निधन हो गया था। रविवार 2 नवम्बर 2008 को संवेदना की बैठक में देहरादून केरचनाकारों ने अपनी प्रिय लेखिका को याद करते हुए उन्हें विनम्र श्रद्धांजली दी।
आगामी रविवार 30 नवम्बर 2008 को डॉ कुसुम चतुर्वेदी की पुत्री नीरजा चतुर्वेदी ने अपने निवास पर एक गोष्ठीआयोजित की है जिसमें जुलाई 2008 में प्रकाशित डॉ कुसुम चतुर्वेदी की कहानियों की पुस्तक मेला उठने से पहले पर चर्चा होनी है।
कथाकार जितेन ठाकुर डॉ कुसुम चतुर्वेदी के प्रिय शिष्यों में रहे हैं। डॉ कुसुम चतुर्वेदी पर लिखा गया उनका संस्मरण प्रस्तुत है।




जितेन ठाकुर

श्रीमती कुसुम चतुर्वेदी नहीं रहीं। सुनकर सहसा ही विश्वास नहीं हुआ। बार-बार नियति से जूझने वाली, पराजय स्वीकार न करने वाली। एक अनुशासित शिक्षिका, एक ममतामयी माँ, एक अकेली आशंकित महिला और एक गम्भीर लेखिका। मैडम अब कभी दिखलाई नहीं देंगी- यह सोच पाना मेरे लिए सरल नहीं है। स्व0 श्रीमती चतुर्वेदी देहरादून की उस संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती थीं जब आदमी को आदमी के पास बैठने की फुर्सत होती थी, मिल बैठ कर दुख-दर्द बांटे जाते थे, लिखने-लिखाने पर लम्बी बातचीत और बहस होती थी, सम्बंधों में अपनत्व की सुगंध होती थी और इस द्राहर के लोग एक दूसरे को आहट से पहचान लेते थे।
1981 में मैंने पहली बार मैडम चतुर्वेदी के द्वारा पर दस्तक दी थी। डरा सहमा हुआ मैं दरवाजा खुलने की प्रतीक्षा में खड़ा था, किवाड़ श्री चतुर्वेदी ने खोले थे। लम्बा कद, गोरा रंग। भव्य व्यक्तिव के स्वामी थे, श्री चतुर्वेदी
"जी! मुझे श्रीमती नारंग ने भेजा है।" मैंने जैस-तैसे थूक निगल कर अपनी बात कही थी। घर का हरियाला परिसर, विशाल भवन और चमचमाते हुए फर्श मेरे भीतर हीन भावना भर रहे थे। प्रयत्न के बाद ही शब्द मेरे कंठ से बाहर आ पाए थे। उन दिनों ऐसे परिसर और भवन, भवनस्वामी की सुरूची और सम्पन्नता के प्रतीक हुआ करते थे।
"ओह! अच्छा तुम पी0एच0डी0 करना चाहते हो।" श्री चतुर्वेदी को शायद मेरे आने की जानकारी थी। मैं सहमा हुआ उनके साथ ड्राईंगरूम में प्रवेश कर गया और झिझकता हुआ सोफों से दूर पड़ी एक सैटी पर बैठ गया। कुछ समय बाद मैडम चतुर्वेदी ने ड्राईंगरूप में प्रवेश किया। उन्होंने एक बेहद सादी धोती पहनी हुई थी। लम्बे-लम्बे डग भरती हुई वे आकर सोफे पर बैठ गई थीं। उनकी बातचीत इतनी सरल और सहज थी कि मेरी कल्पना में भरा हुआ उनकी विद्वता का आतंक जाता रहा।
कुछ ही समय बाद चतुर्वेदी साहब का निधन हो गया था। चतुर्वेदी साहब का निधन उस परिवार को रीत देने के लिए पर्याप्त था। उनके साथ मेरा सानिध्य बहुत ही कम रहा पर मैंने जितना भी उन्हें जाना, वे केवल व्यक्तिव से ही भव्य और विशाल नहीं थे- विचारों से भी अत्यंत उदात और आधुनिक थे। उनका व्यक्तिव भी ऐसा था कि सहसा ही श्रद्धा उत्पन्न होती थी।
विवाह के बाद जब मैं पहली बार पत्नी सहित उस घ्ार में गया था और पत्नी ने चतुर्वेदी जी के चरण स्पर्श किए थे तो उन्होंने जो कहा था वो मुझे आज भी याद है। वे थोड़ा पीछे हटते हुए बोले थे
"बेटी झुको मत! अपने को ऊँचा उठाओ और सिर उठा कर जियो"
पर पास खड़ी हुई मैडम ने हंसते हुए अधिकार भरे स्वर में कहा था "आप पैर छुवाएं या न छुवाएं मैं तो पैर छुवाऊंगी। जितेन की पत्नी है मेरा तो पैर छुवाने का अधिकार बनता है।" ऐसा था वो घर- ऊर्जा और अपनत्व से भरा हुआ।
मैडम ने अपना ये अधिकार कभी छोड़ा भी नहीं। अपनी व्यस्तता अथवा अन्य कारणों से यदि मैं कुछ समय मैडम के यहाँ नहीं जाता तो मैडम, फौरन उलाहना देतीं "अच्छा! अब तुमने भी आना बंद कर दिया है।" और मैं चोरी करते हुए पकड़े गए बच्चे की तरह सफाई पेश करने लगता।
स्व0 चतुर्वेदी के निधन के बाद घर में बहुत उदासी और अकेलापन हो गया था। परंतु मैडम ने ऐसे में भी अपनी बेटी को अमेरिका जाने की स्वीकृति केवल इसलिए दे दी थी क्योंकि यह उनके स्वर्गीय पति की इच्छा थी। बेटी नीरजा के चले जाने के बाद जीवन में आए अकेलेपन और उदासी का उन्होंने अदम्य इच्छा शक्ति के साथ सामना किया था। घर की साफ-सफाई, मरम्मत-पुताई और जीवन की दैनिक आवश्यकताओं के लिए भी वो किसी पर ज्यादा आश्रित नहीं हुई थीं।
महिला लेखिकाओं में वो समय स्व0 शाशि प्रभा शास्त्री का था। दिल्ली में अपने सम्पर्क और बाद में दिल्ली प्रवास के कारण श्रीमती शास्त्री का वर्चस्व लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं पर था। लगभग उसी समय धर्मयुग में छपी अपनी कहानी 'उपनिवेश' से मैडम चतुर्वेदी ने चौंकाया था। देहरादून के ही एक नामी स्कूल पर लिखी गई यह कहानी अपने पीछे बहुत से प्रश्न छोड़ गई थी।
लेखन का वो दौर जीवन की सूक्ष्म अनुभूतियों को कलात्मक तरीके से पिरोने का दौर था। मैडम की कहानियों में उस दौर की विशेषताओं के साथ ही स्त्रीमन की अतृप्त इच्छाओं ओर आकांक्षाओं की एक सबल अन्तर्धारा भी मिलती है। सारिका में छपी एक लम्बी कहानी और 'तीसरा यात्री' नामक कहानियाँ स्त्रीमन की साहसपूर्ण अभिव्यक्ति है। मैडम ने जितना भी लिखा, स्तरीय लिखा। जीवन की छोटी-छोटी अनुभूतियों को आपने सफलतापूर्वक उकेरा। पर अपने अकेलेपन को आपने कभी किसी दूसरे पर नहीं थोपा, न जीवन में- ना साहित्य में।
बढ़ती आयु के साथ गिरते हुए स्वास्थ्य ने उन्हें चिंतित कर दिया था। इस चिंता के पीछे अकेलेपन का एहसास भी प्रभावी था। पर सात समुंदर पार बैठी बेटी को वो अपनी समस्याओं से अछूता रखने का प्रयत्न करतीं। एक बार उन्होंने ही मुझे बताया था कि बेटी के पूछने पर उन्होंन बहुत से नाम गिनवा कर कहा था- 'यह सभी लोग तो मिलने आते रहते हैं, मैं अकेली कहाँ हूँ। यद्यपि वास्तविकता ये थी लोग बहुत-बहुत दिनों के बाद ही मिल पाते थे।
पहली बार उनकी बीमारी की सूचना मिलने पर जब मैं हस्पताल में उन्हें मिलने गया था तो बातचीत में यूं तो वो सामान्य दिख रही थीं पर उनकी स्मृतियों से जैसे कुछ मिट गया था। काफी देर तक बातचीत करती रही थीं फिर बोली थीं
"मुझे तो याद ही नहीं आता कि मैं कैसे इतनी बिमार हो गई"
एक बार जब आँख के किसी डाक्टर ने उन्हें कहा था कि "देखती आँख है- चश्मा नहीं।" तब भी वो चिंतित हुई थीं। एक रात किसी लक्ष्ण से आच्चंकित होकर जब वो कारोनेशन हस्पताल चली गई थीं- तब भी वो चिंतित थी। जब एक डाक्टर ने अपना फोन नम्बर देकर उन्हें कहा था कि आपको सिर्फ फोन करना है बाकी हम देख लेंगे- हमारी एम्बुलेंस फौरन पहुँच जाएगी" तब भी वो चिंतित थीं पर इस अंतिम बिमारी में वो चिंतित नहीं थी क्यों कि उनकी बेटी उनके पास थी।
मैं अक्सर देखता था कि वो एक बहुत बड़े कप में पिया करती थीं। ड्राईंगरूम में रखी हुई स्व0 चतुर्वेदी साहब की तस्वीर पर धूल का एक भी कण बैठने नहीं देती थीं। किसी ने किसी कारण से हमेशा उनके फ्रिज में मिठाई रहती। ये बेसन के लड्डू और लौकी की लाज भी हो सकती थी और नारीयल की बर्फी और मोतीचूर के लड्डू भी। यह सब वो बहुत स्नेह और आग्रह से खिलाती थीं। बहुत सी घटनाएँ जो पिछली बार मिलने के बाद से आज तक हुई थीं- सिलसिलेवार सुनातीं। पर इन सब बातों के बीच वो लिखने और लिखते रहने की बात को अक्सर टाल जातीं।
अमेरिका से लौटने के बाद उन्होंने वहाँ के बहुत से संस्मरण सुनाए थे। मिशिगन के मोहक फोटोग्राफ भी दिखलाए थे। तब मैंने उनसे बार-बार संस्मरण लिखने के लिए कहा था। उन्होंने उत्साह भी दिखलाया पर शायद ही वो पूरे संस्मरण लिख पाई हों।
मैं बेहिचक कह सकता हूँ कि उनके पास औसत महिलाओं से कहीं अधिक तीक्ष्ण अर्न्तदृष्टि थी, विषयके मर्म को समझने की अद्भुत सामर्थ्य थी और बेहतर लेखकीय समझ थी। पर वो कभी भी इसे प्रकट नहीं करती थीं। उनके जीने की द्रौली बेहद सरल, सहज और एक घरेलू महिला जैसी थी। शिक्षिका होने का न दम्भ न लेखिका होने की दिखावट। सब कुछ स्वभाविक और प्राकृतिक परंतु सजग। उन्होंने मकान की नेम प्लेट हटवाकर वहाँ नया पत्थर केवल इसीलिए लगवाया था क्योंकि उसमें बेटी नीरजा का नाम खुदा हुआ नहीं था।
अपनी दिनचर्या में उन्हें जितनी चिंता मकान के फीके होते रंग-रोगन की सताती थी उतनी ही लान में खिलते और मुरझाते हुए फूलों की भी। उन्हें फर्श पर उभर आया दाग भी चिंतित करता था और बढ़ते हुए घास की कटाई भी। उन्हें अपने घर के रख-रखाव से उतना ही मोह था जितना किसी भी घ्ारेलु महिला को हो सकता है। सात समुंदर पार बैठी अपनी बेटी के एक-एक पल की उतनी ही चिंता थी- जितनी किसी ममतामीय मां को हो सकती है। वो अपने अकेलेपन से उतना ही आतंकित रहतीं- जितना इस आयु में कोई भी अकेली महिला रह सकती हैं। पर उनकी बातचीत में सदा एक संकल्प होता था। परिस्थितियों से जूझने की अद्भुत सामर्थ्य थी उनमें।
मैडम सदा चाहती थीं कि उनके यहाँ साहित्यकारों का जमावड़ा हो। संगोष्ठी हो पर हमेशा संकोच कर जातीं। पता नहीं क्यों आमंत्रित साहित्याकारों की आवभगत को लेकर वो सदा चिंतित रहा करती थीं। यही एक कारण था कि उनके चाहने पर भी उनके यहाँ बैठकें टलतीं रहीं।
आज जब मैडम स्व0 श्रीमती चतुर्वेदी हमारे बीच नहीं है- उन्हें याद करते हुए अंत में मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ कि हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता और हमारे संस्कारों में एक महिल का जो बिम्ब बनता है- वो ठीक वैसी ही थीं। देहरादून के साहित्य जगत में वो सदा याद की जाएंगी।