Tuesday, September 26, 2023

कथाकार विवेक मोहन की स्मृतियों के साथ कवि अतुल शर्मा

देहरादून के रचनात्मक माहौल पर यदि एक निगाह डाली जाए तो कविताओं की बनिस्पत कहानियों की एक विस्तृत दुनिया दिखायी देती है। यहां तक कि कवियों की तरह ही जिन रचनाकारों ने अपने लेखन की शुरुआत की और सतत कविताएं लिखते भी रहे, उन रचनाकारों को भी कहानीकार के रूप में ही पहचाना गया। अकेले ओम प्रकाश वाल्मिकि ही इसके उदाहरण नहीं, जितेन ठाकुर का नाम भी उल्लेखनीय है।

अब यदि विस्मृति की गुफा में झांके तो देशबंधु और विवेक मोहन दो ऐसे कथाकारों की छवि उभरती है जो अपनी शुरुआती कहानियों से ही देहरादून के साहित्य समाज में अपनी अलग छवि के रूप में चमक उठे थे। लेकिन काल की अबूझ गति को उनकी रोशनी भाई नहीं शायद और असमय ही वे इस दुनिया को छोड़ गये।

विवेक मोहन ने कई महत्वपूर्ण कहानियां लिखी जो 90 c आस पास निकलने वाली लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई है।

कथाकार विवेक मोहन की स्मृतियों को सांझा कर रहे हैं, लेखक और कवि अतुल शर्मा। 


अतुल शर्मा

वृंदा एनक्लेव फेज़ बंजारा वाला देहरादून




बात चालीस साल से भी पहले की होगी,,,,, पल्टन बाजार मे एक जूतों की दुकान थी । घंटाघर से जहाँ पल्टन बाजार शुरू ही होता है उसके सामने इलाहाबाद बैंक होता था और उसी की दीवार पर एक गोल और बडी़ घड़ी लगी रहती थी,,, पल्टन बाजार की तरफ । बस उसी घड़ी के ठीक सामने यह दुकान थी । हुआ यह कि एक दिन तेज़ बारिश से बचने के लिए मै इस जूतों की दुकान से चला गया । मैने पूछा कि क्या मै यहाँ बारिश रुकने तक रह सकता हूँ तो वहाँ उपस्थित व्यक्ति ने हामी भरी और मुस्कुराते हुए मुझे एक स्टूल भी दिया बैठने के लिए । बारिश लगभग ढाई घंटे तक नहीं रुकी । और इस ढ़ाई घंटे मे उस व्यक्ति से लम्बी बात चीत का जो सिलसिला शुरू हुआ वह इस संस्मरण लिखने तक जारी है,,, यही थे विवेक मोहन। वैसे नाम तो उनका बाबा दत्ता था पर कहानी लिखने के सिलसिले ने उन्होंने अपना नाम विवेक मोहन रख लिया । फिर तो जब भी उस तरफ जाते तो उस दुकान मे ज़रूर बैठना होता । वह ऐसी दुकान थी जहाँ खरीदार कम ही आते थे । लेडीज़ सैंडिल और चप्पल ज़यादा थीं । वही साहित्य चर्चा होती । मेरी एक कविता साप्ताहिक हिंदुस्तान मे छपी थी तो उनके अनुरोध पर आनन्द पुरी मे जलेबी खाई गयी । भगवानदास क्वाटर्स मे सीढ़ियां चढ़ कर उनका घर था । भाभी जी और बिटिया रम्पी से वहीं मुलाकात हुई थी । घर मे पुरानी पत्रिकाओं को विवेक ने सम्भाल कर रखा था । उनमे से एक थी,,,, देहरादून से छपने वाली पत्रिका ' छवि' यह शायद सन् 60 के आसपास भास्कर प्रेस से छपती थी । इस अंक मे शेर जंग गर्ग, कहानी कार शशिप्रभा शास्त्री, कहानी कार राजेन्द्र कुमार, आदि की रचनाये छपी थीं। 

वहीं पर पहली बार मैने विवेक मोहन की कहानियों का रजिस्टर और बैग देखा जिसमे पन्द्रह बीस कहानियाँ थी । उनकी एक लम्बी कहानी " तबेले" वहीं सुनी । बहुत अच्छी और सशक्त कहानी थी यह । ऐसा माहौल बनता था कहानी मे जो दृष्य पैदा कर देता था । पात्र और उनकी परिस्थितियों का बारीक वर्णन । चर्चा आगे बढ़ना तो मैने कहा कि भाई इसको संग्रह के रूप मे लाओ,,,, मुश्किल काम था पर प्रयास किया,,, और सफलता नही मिली । 

पर उससे पहले एक और कठिन काम था कि इन सारी कहानियों को पढा़ गया । एक कहानी लगभग पंद्रह या दस पेज की तो थी ही। कभी जूतों की दुकान मे, कभी हमारे सुभाष रोड स्थित मकान मे, कभी गांधी पार्क तो कभी रेंजर्स कालेज ग्राउण्ड मे कहानी पढ़ी गयीं । बहुत जबरदस्त कहानियाँ थीं । वास्तविकता के करीब । सरल शब्दों । बोलचाल की भाषा । और उनके प्रति गम्भीरता। 

विवेक भाई अब हमारे पारिवारिक सदस्य की तरह हो गये थे । सुबह ही घर आ जाते और दोपहर खाना खा कर ही जाते । 

उन्हे जगजीत सिंह की ग़ज़लें बहुत पसंद थीं । कहते कि इनमे गले बाजी बहुत कम है और सहज हैं। अखबार लेते थे पंजाब केसरी। उसमे उनकी कहानी भी छपी थी । 

एक बार उनके घर कहानीकार सैली बलजीत आये तो मैने अपने घर पर एक गोष्ठी रखी थी,,,, वहाँ बहुत से रचनाकारों को भी बुलाया था । बलजीत ने विवेक मोहन की कहानी पढ़ी थी और विवेक ने सैली बलजीत की । 

आज सुबह जब भाई विजय गौड़ ने विवेक मोहन पर लिखने को कहा तो बहुत सी यादें आ बैठीं मेरे पास । 

हमने एक सिलसिला शुरू किया था कि महीने मे एक बार किसी रचना कार के घर जाते और गोष्ठी होतीं । उस रचनाकार को एक मोमेंट भी दिया जाता । इसी सिलसिले मे विवेक मोहन के घर भी गोष्ठी हुई थी । 

बहुत सी स्मृतियाँ है । 

एक दिन विवेक आये तो उनकी सांस फूल रही थी । बात करते हुए खांसी भी आ रही थी । वह अपना बैग संभाल कर बैठ गये । और बताया कि आज गाधी पार्क मे एक कहानी की शुरुआत की है । उन्होंने बैग से एक पत्रिका निकाली और मेरी तरफ बढायी । यह सारिका थी । मैने पन्ने पलटे तो उसमे मेरी कहानी छपी थी,,,, " पार्क की बैंच पर चश्मा"। नैशनल न्यूज़ एजेन्सी से खरीद कर लाये थे वे । उनके चेहरे की मुस्कान नहीं भूल पाता । 

 

वे बाहर गये हुए थे । काफी दिन वहाँ रहे । और फिर कभी नही आये । 

वहीं उनका देहांत हो गया । मन शोक से भर गया । 

 

पर वे जीवित है यादों मे। बहुत सी यादे है,,,, 

दून स्कूल मे एक गोष्ठी आयोजित की तो वहाँ विवेक भाई ने कहानी सुनाई तो रचनाकार अवधेश कुमार ने कहा कि ये तो प्रसिद्ध कहानी द कार्पेट से मिलती जुलती है,,,, उसके बाद विवेक न दो महीने तक द कार्पेट कहानी ढूंढ निकाली और पढी़ ,,,, वह कहानी विवेक की कहानी से अलग थी पर उसमे भी कालीन का जिक्र था और इसमे भी,,, अवधेश बहुत गम्भीर रचनाकार थे तो उनकी बात को भी विवेक ने गम्भीर होकर समझा और अपनी कहानी मे बदलाव की सोचने लगे,,, फिर बदलाव नही कर पाये, वे बस कालीन हटा कर कुछ और करना चाहते थे । 

 

एक गम्भीर कहानीकार और सह्रदय इंसान के रूप मे वे आज भी मेरी यादों मे हैं  

 


Monday, September 11, 2023

उपेक्षित भेंट

उपभोक्तावादी मानसिकता ने जीवन की आधारभूत जरूरतों को ही ठिकाने नहीं लगाया, अपितु ज्ञान विज्ञान के प्रति भी सामाजिक उपेक्षा के भाव को स्थापित करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी है. पुस्तकों से दूरी बनाते भारतीय समाज की प्रवृति उसका एक उदाहरण है. यहां तक कि उपभोक्तावादी मूल्यबोध से प्रभावित भारतीय मानस दुनिया के किसी भी कौने मेंं निवास करते हुए भी उसकी गिरफ्त से बाहर नहींं है. 
अपने पारिवारिक सदस्यों के बीच आस्ट्रेलिया प्रवास मेंं रहते हुए, कथाकार मित्र दिनेश चंद्र जोशी ने एक ऐसी ही स्थिति को हमारे साथ शेयर करना जरूरी समझा है. तो पढ़ते हैं दिनेश चंद्र जोशी का ताजा संस्मरण -   उपेक्षित भेंट   
               

    दिनेश चंद्र जोशी





बच्चों के जन्मदिन के बहाने,कभी कभी ऐसा भी होता है,कि हमें विश्व के क्लासिक बाल कथा साहित्य से साक्षात्कार का मौका मिल जाता है। ऐसा ही अनुभव प्रवास के दौरान हुआ,जब घर में बच्चे का जन्मदिन मनाने के बाद प्राप्त हुए उपहारों में एक बड़े से मोटे और भारी  आयताकार उपहार का रंगीन आवरण हटाने के बाद प्राप्त पुस्तक को देख कर हुआ। 
हार्डबाउन्ड,ग्यारह गुणा नौ इंच आकार की इस किताब का नाम है,'द कम्पलीट एडवैंचर आफ स्नगलपाट एंड कडलपाई'।
इस किताब की लेखिका व चित्रकार का नाम है 'मे गिब्स'।
अन्य खिलोनेनुमा आकर्षक उपहारों के बीच इस किताब की स्थिति उपेक्षित सी हो गई थी,तथा इसकी प्राप्ति पर घर में कोई हर्ष,उल्लास, उत्तेजना या चर्चा भी नहीं हुई, हां, इतना जरूर पता चला कि जन्मदिन के दौरान भिन्न भिन्न संस्कृति के बच्चों व उपस्थित अभिभावकों में से एक,चायनीज बच्चे के मां,पिता द्वारा यह पुस्तक भेंट की गयी है।


यह पुस्तक,बच्चों को तो छोड़ दें,बड़ों के लिए भी कोई उत्साह व जिज्ञासा का सबब न बन कर अल्मारी में अन्य पुस्तकों के साथ अटा सटा दी गयी थी।
तीसरे चौथे दिन बाद मेरी नज़र उस किताब पर पड़ी और जिज्ञासावश गौर से उसके पृष्ठ पलटे तो भान हुआ,यह तो विश्व स्तरीय बाल साहित्य की प्रसिद्ध कृति है। 
किताब की लेखिका 'मे गिब्स' का परिचय पढ़ा तो और गहरी जानकारियां पता चली। 
लगभग एक शताब्दी पूर्व उन्नीस सौ अठारह में इस पुस्तक का पहला प्रकाशन आस्ट्रेलिया में हुआ था।
'मे गिब्स' का जन्म 1877 में इंग्लेंड में चित्रकार माता पिता के घर में हुआ। कुछ समय पश्चात ही यह परिवार आस्ट्रेलिया में बस गया। अपने पोनी (खच्चर) पर सवार हो कर खेत खलिहानों, झाड़ियों की सैर करती आठ दस वर्ष की उम्र की बच्ची 'मे गिब्स' ने उन भू दृश्यों व झाड़ियों के चित्र बनाने और उनके बारे में लिखना प्रारम्भ कर दिया था।
उनके बाद के चित्रों व लेखन में बचपन की इन प्राकृतिक सैरों की स्मृति व कल्पनाशीलता से रचे पगे अनुभवों के आधार पर नाना प्रकार के जीव जन्तुओं के अवतारवादी रुपांकन की तकनीक का विस्तार पाया जाता है‌। इस तरह के उनके रचनात्मक काम को 'एन्थ्रोमार्फिक बुश सैटिंग' के विशेषण व विधा के तौर पर ख्याति प्राप्त हुई। 

चित्रों के रेखांकन की विशेषता के साथ इस किताब के पाठ व चरित्रों का संसार इतना अद्भुत व अनोखा है कि काफी दिनों तक उनकी छवि मनोमस्तिष्क में घुमड़ती रहती है। किताब में दो छोटे गमनट भाईयों और उनके दोस्तों की ऐसी चित्ताकर्षक कथा है जिसने कई पीढ़ियों तक बच्चों के दिल,दिमाग व कल्पना पर राज किया है। इसके चरित्र अन्यथा उपेक्षित से,पेड़ पौधों खासकर युक्लिपटस पेड़ के नट,फल,फूल,डंठल, कलियां,फलियां हैं जिनको नवजात व बच्चों के प्रतीकों में दर्शाती व मानवीय रूप व्यवहार में तब्दील करती हुई चित्रकथायें हैं।
कीड़े,मकोड़े,चींटियां,मकड़ी,टिड्डी, मिस्टर लिज़ार्ड,छिपकली, मेंढक,मिसेज फिनटेल (चिड़ियां),पौसम (बिज्जूनुमा आस्ट्रेलियाई जीव) बंदर,मिस्टर बियर,कुकूबरा जैसे असंख्य अन्य सहायक पात्र हैं। बंकाशिया,जो भूरे काले रंग के कोननुमा बहुमुखी विभत्स मानव हैं, इन निर्दोष जीवों को नुक़सान पहुंचाने वाले खलनायक पात्रों के रूप में वर्णित व चित्रित हैं। इस पुस्तक के अध्यायों को पढ़ने पर कथारस के साथ साथ  कीट पतिंगों की दुनिया व वनस्पतियों के संसार के प्रति प्रेम व सहानुभूति का ऐसा रिश्ता कायम होता है जो विकास के नाम पर जैवविविधता के नष्ट होने के सूक्ष्म षडयंत्रों का प्रतिकार करने की भावना व चेतना प्रदान करता है।  
अपने पहले प्रकाशन पर ही इस किताब की 17000 प्रतियों की बिक्री का जिक्र इसकी अपार लोकप्रियता को दर्शाता है। लेखिका की चार अन्य किताबें ऐसी ही विषय वस्तुओं को लेकर 1920 से 1924 के दौरान प्रकाशित हुई। प्रकाशन के शताब्दी वर्ष 2021 में उनके समग्र लेखन व चित्रांकन को समेटे हुए इस डीलक्स संस्करण की मांग व चर्चा पुनः हो रही है।
बाल साहित्य को लेकर ऐसा सृजन, प्रकाशन, मांग व उत्साह हमारे यहां कम देखने को मिलता है,जब कि पंचतंत्र से लेकर वेद पुराण, महाभारत की उप कथाओं का भंडार बाल साहित्य से सम्बद्ध है। ऐसे वृहत बालकथा ग्रंथ के प्रकाशन की कल्पना तो अपने हिंदी भाषा क्षेत्र में हम बमुश्किल ही कर सकते हैं। 

'स्कालास्टिक प्राइवेट लिमिटेड ग्रुप की इस वैश्विक प्रकाशन संस्था का कार्यालय दिल्ली में भी है,जिसके आस्ट्रेलिया कार्यालय ने यह किताब प्रकाशित की है। हो सकता है वे,अन्य भारतीय भाषाओं या अंग्रेजी में ऐसा प्रकाशन करते हों, मुझे जानकारी नहीं है।
बाल साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए इस चित्रकार लेखिका को आस्ट्रेलिया सरकार द्वारा,सन 1955 में सम्मान स्वरूप ब्रिटिश राजशाही की सदस्यता हेतु मनोनीत किया गया था।
1969 में उनकी मृत्यु हुई। मृत्यु के पश्चात भी उनके नाम का डाक टिकट जारी करने के अलावा जन्मशताब्दी वर्ष  में उनके नाम पर स्थलों, मुहल्लों यहां तक की टूरिस्ट नौकाओं व जहाजों के नाम तक रखने के उदाहरण बताते हैं कि अपने दिवंगत साहित्यकार,कलाकारों का कैसा सम्मान इन देशों में होता है।
जैसा कि हर लोकप्रिय कृति के साथ कोई न कोई विवाद या वितंडा पैदा हो जाता है,इस किताब के साथ भी हुआ। एक आरोप तो लेखिका पर अति शुचितावादियों ने यह लगाया कि बाल पात्रों के चित्रांकन में नग्नता है जो पीडोफोलिक मनोवृत्ति को उकसाने हेतु प्रेरक हो सकती है। तथा दूसरा, 'किताब के खलनायक चरित्र बंकाशिया मानवों के चित्रण व वर्णन से आस्ट्रेलियाई आदिवासी समुदाय की समानता झलकने के कारण उनके प्रति रंगभेदी नश्लीय भेदभाव प्रकट होता है।'
इन असंगत आरोपों के प्रभाव ने यहां तक जीत हासिल की कि बाद के नये संस्करणों में एकाधिक अध्यायों में परिष्कार भी किया गया है। रंगभेद अध्येताओं व विमर्शकारों द्वारा तात्कालिक समाज व परिस्थितियों में लेखिका के अवचेतन में मौजूद इन ग्रन्थियों को जांचने परखने में पूर्वाग्रहग्रस्त होने के कारण उनके निर्दोष सृजन को कठघरे में खड़ा करने के ये विवाद कितने वजनदार हैं,कह नहीं सकते।
पर इतना तय है कि आधुनिक और उन्नत होने के बावजूद नैतिकतावादी शुचिता की पहरेदारी में ये देश भी कम नहीं हैं। यदा कदा पुस्तकालयों व बुकस्टालों से आपत्तिजनक संदिग्ध किताबों की जब्ती और आर्ट गैलरियों में वास्तु व कलाकृतियों पर,अशिष्टता के शक में छापे मारे जाने की ख़बरें सुनकर जहां ताज्जुब होता है वहीं राहत भी मिलती है कि ऐसा जुल्म तो अभिव्यक्ति की आजादी पर कम से कम अपने यहां तो नहीं होता है।
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Alokuthi

Saturday, September 2, 2023

पहुँच से बाहर- पकड़ से बची हुई.किसी गह्वर में अटकी हुई है कहानी

19.08.2023 को प्रोफ़ेसर ओ.पी. मालवीय एवं भारती मालवीय स्मृति सम्मान 2023 से सम्मानित कथाकार नवीन कुमार नैैैैैैैथानी द्वारा सम्मान समारोह के अवसर पर दिया गया वक्तव्य



आदरणीय मंच तथा इस सभागार में उपस्थित विद्वानों एवम मित्रों को मेरा विनम्र अभिवादन. 

सबसे पहले तो मैं ‘प्रोफ़ेसर ओ.पी. मालवीय एवं भारती मालवीय स्मृति सम्मान 2023 ’ की आयोजन समिति के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ जिन्होंने मुझे आयोजन में सम्मिलित होने का अवसर प्रदान किया.` मैं निर्णायक मण्डल का आभारी हूँ जिन्होंने मुझ जैसे अल्प-ज्ञात रचनाकार को खोज कर आपके सामने प्रस्तुत किया है.इस सम्मान को पाकर मुझे जो खुशी हुई है उसका वर्णन करना संभव नहीं.फिर भी मैं कुछ कहने की कोशिश करूँगा. 

मित्रों , 

यहाँ खड़े होकर मैं अपने आपको थोड़ा गर्वित महसूस कर रहा हूँ और यह भी सच है कि मुझे किंचित संकोच का भी अनुभव हो रहा है.गर्व होने का कारण है कि यह सम्मान इलाहाबाद की धरती पर मिल रहा है जहाँ साहित्य तथा संस्कृति की गंगा-यमुना एकाकार होकर सदियों से इस महादेश को एकता का सन्देश देती आयी हैं.साहित्य के विराट व्यक्तित्वों की इस कर्म-भूमि में खड़े होते हुए स्वाभाविक ही है कि आप उनके सामने नतमस्तक होकर संकोच का अनुभव करें कि आप इस योग्य हैं भी या नहीं. 

लेकिन जब अपने ही बीच के लेखक आप पर भरोसा जताते हैं तो अपने लिखने की सार्थकता का अनुभव होता है.मेरे लिये यह भी गर्व करने का क्षण है कि निर्णायक मण्डल में मेरे अत्यन्त प्रिय कथाकार सम्मिलित हैं. मैं इस सम्मान को इस तरह से भी देख रहा हूँ कि यह अपनों के द्वारा दिया जा रहा है और यह मेरे लिये बड़ी बात है क्योंकि अपनों के बीच सम्मान पाना आपको बाहर और भीतर दोनों तरह से देर तक भिगोता है.
मार्खेज़ के जादू की गिरफ्त में होते हुए भी आप कभी नहीं भूल सकते कि किसी भी कथाकार की अन्तिम कसौटी तो बोर्हेस ही है.शब्दों से खेलने और विषयों के अनूठेपन के लिये मनोहरश्याम जोशी की गिरफ्त में बहुत दिनों तक रहा. किनका नाम लूं और किनको छोड़ूं ? यह इस यात्रा के दौरान कहना संभव नहीं.हाँ, मगर एक बात को लेकर मुझे कतई संशय नहीं है कि मैंने मोहन राकेश को पढ़कर कहानियाँ लिखना सीखा है.वे अपने समय से बहुत आगे के कहानीकार थे. उनकी ‘मिस पाल’ जैसी कहानी इस बात की तस्दीक करती है.

यह मेरी दूसरी इलाहाबाद यात्रा है. पहली बार सन 2003 में इलाहाबाद आया था , अभिविन्यास कार्य-क्रम था- इलाहाबाद विश्व-विद्यालय में.लेकिन इलाहाबाद बहुत पहले से मेरे भीतर बसा हुआ था. दरअसल, लेखन के शुरुआती दौर में मुझे गिरिराज किशोर जी के संपर्क में आने का अवसर मिला.वे पिछली सदी में नौवे दशक के ढलते हुए साल थे. कुछ दिनों के लिये मैं आई आई टी कानपुर की रमन रिसर्च लैब में काम के सिलसिले में गया हुआ था. उस वक्त गिरिराज जी वहाँ रचनात्मक लेखन केन्द्र स्थापित कर उसकी गतिविधियां चला रहे थे. वहीं मेरा उनसे परिचय हुआ परिचय हुआ. वे इलाहाबाद का जिक्र करते हुए कहते थे कि लेखक को उपेक्षा सहने का अभ्यास होना चाहिए. और इस बात का उदाहरण देते हुए वे अपने इलाहाबाद के दिनों को याद करते हुए कहते थे , “ वहाँ लोगों ने मुझे तब तक लेखक नहीं माना जब तक कि मेरा उपन्यास ‘ लोग ’ नहीं छप गया” 

मैं आज गिरिराज जी को याद कर रहा हूं तो उसका एक दूसरा कारण भी है.जैसा कि मैंने अभी कहा है वे मेरे लिखने के शुरुआती दिन थे.गिरिराज जी से संपर्क लेकिन निरन्तर बना रहा.वे मेरी कहानियां पढ़ते और अपनी राय देते. उसी वक्त एक बार मुझे लगा कि मेरे लिये अब लिखना संभव नहीं रह जायेगा.हुआ यूँ था कि मैं काफ़्का की कहानी मेटामार्फोसिस पढ़कर उसके सम्मोहन में जकड़ा हुआ था.मुझे लगने लगा था कि मेरे लिये लिखना अब संभव नहीं होगा. अपना लिखा हर शब्द व्यर्थ लगने लगा था. तब मैंने इस बारे में गिरिराज जी को पत्र लिखा था.उनका जवाब मिला था- साहित्य तो एक समुद्र है,जो भी पत्थर उठाओगे, उसके नीचे एक अनमोल रत्न मिल जायेगा. उस पत्र ने मुझे न लिख पाने की स्थिति से उबार लिया था और आज मैं आपके बीच एक लेखक की हैसियत से मौजूद हूँ.यह बहुत सही अवसर है कि मैं गिरिराज जी के इस ॠण को विनम्रतापूर्वक याद करूं. 

किसी भी लेखक के होने के पीछे उसके पूर्ववर्ती और समकालीन लेखकों का योगदान होता है. लेखकों की इस बिरादरी में भाषा, राष्ट्र, भूगोल और संस्कृतियों की तमाम सरहदें मिट जाती हैं. यहाँ यह कहना भी बहुत मुश्किल होता है कि ठीक- ठीक कौन सी चीज किस लेखक के यहाँ से हमने सीखी. और कभी कभी तो यह सीखना एक छलावे की तरह होता है- जैसे बहुत सारी छायाएं एक दूसरे में घुली मिली हमारे सपनों के भीतर दाखिल हो गयी हों. शायद यह हर लेखक के साथ होता है. मेरे साथ भी हुआ है.लेखकों की इस बिरादरी में कुछ लेखकों को पढ़कर ऐसा लगा जैसे वे मेरे दिल के बहुत नज़दीक कहीं बसे हुए हैं. इस बसाहट में प्रिय लेखकों का आना जाना निरन्तर बना रहा है. जैसे कोई लेखक बहुत दिनों तक वहां बने रहे, फिर कोई दूसरे लेखक न जाने कौन सी सरहद लाँघ कर चले आये. कुछ ऐसे भी लेखक रहे जो बार- बार यहां लौट आये. लेकिन फिर भी चेखव के असर से कोई भी कहानीकार कहाँ बच सका है. मार्खेज़ के जादू की गिरफ्त में होते हुए भी आप कभी नहीं भूल सकते कि किसी भी कथाकार की अन्तिम कसौटी तो बोर्हेस ही है.शब्दों से खेलने और विषयों के अनूठेपन के लिये मनोहरश्याम जोशी की गिरफ्त में बहुत दिनों तक रहा. किनका नाम लूं और किनको छोड़ूं ? यह इस यात्रा के दौरान कहना संभव नहीं.हाँ, मगर एक बात को लेकर मुझे कतई संशय नहीं है कि मैंने मोहन राकेश को पढ़कर कहानियाँ लिखना सीखा है.वे अपने समय से बहुत आगे के कहानीकार थे. उनकी ‘मिस पाल’ जैसी कहानी इस बात की तस्दीक करती है. 

कहानी की बात करते हुए आप मुझे इजाजत दें कि मैं अपने बचपन की कुछ बातें आपके साथ साझा करूं क्योंकि इन बातों के भीतर जो शहर है वह बाहर से शायद काफी बदल चुका है लेकिन मेरे भीतर वह अभी भी वैसा ही है जैसा सन 1969 से 1971 के दरम्यान था.वह शहर है नैनीताल ! मेरे बचपन के लगभग ढाई साल नैनीताल में गुजरे हैं ! उन दिनों हम जिस इमारत में रहा करते थे उसका नाम ईटन हाउस था. वह इमारत शायद अब भी वहीं है. उसका वह नाम बचा रह गया है या बदल गया है यह मैं नहीं जानता. उम्मीद करता हूं कि शहरों के नाम बदलने की रवायतें अभी इमारतों तक नहीं पहुँची होंगी. और अगर बदल भी गया हो तो भी मेरी स्मृतियों में उस जगह की जो खुश्बुएं बसी हुई हैं वे ईटन हाउस नाम के साथ ही जागती हैं. और बरसात के दिनों की वे बारिश में नहायी गीली गन्ध- बिच्छू घास की झाड़ियों के पास उठती हुईं. वहाँ बच्चे एक खेल खेला करते थे- वह छुपम-छुपाई का खेल होता था. बादल जब भी इजाजत देते ,बच्चे घरों से बाहर निकल जाते और खेल शुरू हो जाता.इस खेल के लिए किसी गेंद की भी जरूरत न पड़ती. सड़क में पड़े किसी खाली डिब्बे से काम चल जाता. उस खाली डिब्बे को बीच में रख देते थे. कोई बलिष्ठ लड़का उस डब्बे को जितनी दूर तक संभव होता , लात मारकर पहुंचा देता .अब जिस लड़के की बारी होती , उसका काम होता कि वह उस डब्बे को ढूंढ कर लाये और तय स्थान पर रख दे.जितना समय उसे डिब्बे को खोज कर लाने में लगता उतनी देर में दूसरे सब बच्चे इधर-उधर छिप जाते.छिपने के इस खेल में सबसे अधिक मेरी नज़रों के बीच वह लड़का होता जो उस डिब्बे को खोज कर बाकी लोगों को ढूंढ रहा है. आज भी वह दृश्य मेरी आँखों के सामने है. ज्यादातर यह होता कि वह डिब्बा आसानी से हाथ नहीं आता. दिखायी तो देता , लेकिन थोड़ा छुपा- छुपा सा. कई बार तो वह बिच्छू घास के बीच दुबक जाता ! कई बार तो यह भी होता कि जब डब्बा हाथ में आता तो हाथ लहू-लुहान हो चुके होते. बिच्छू घास ही नहीं , वह डब्बा कई बार कंटीली झाड़ियों के बीच पाया जाता.बाद के वर्षों में जब भी मैं उस दृश्य को याद करता हूँ तो मुझे लगता है कि अभी तक वह लड़का मेरे भीतर है . बल्कि वह लड़का मैं ही हूं . मुझे लगता है कि मेरे लिये कहानी भी उस डिब्बे की तरह है . दिखती हुई लेकिन छुपी हुई पहुँच से बाहर- पकड़ से बची हुई.किसी गह्वर में अटकी हुई. 

उस कहानी को पकड़ने के लिए कई बार – बल्कि ज्यादातर –आप अपने भीतर भी उतर जाते हैं .अक्सर लगता है कि जिसे आप बाहर ढूँढ रहे थे वह कहीं भीतर तो नहीं है ?बाहर से भीतर की यह यात्रा कई बार कष्टप्रद हो उठती है. कई बार तो यह भी नहीं मालूम होता कि आप किसकी तलाश में निकले थे!मेरे लिये कहानी लिखना उस यात्रा में निकलने की तरह है जहाँ मौसम साफ नहीं है, रास्ते बने हुए नहीं हैं और गन्तव्य अनिश्चित है.. 

यह सवाल अक्सर लेखकों से पूछा जाता है कि वे क्यों लिखते हैं या उनके लिखने के क्या मायने हैं? मेरे लिये इस तरह के सवालों का जवाब देना मुश्किल है. एक बात यह समझ में आती है कि लिखना एक तरह से चीजों और स्मृतियों को दर्ज करना है.बल्गारियन लेखक जिओर्गी गोस्पोदिनोव ने बूढ़े होने के साथ विस्मृतियों को केन्द्र में रखकर एक उपन्यास लिखा है जिसका अंग्रेजी अनुवाद ‘टाइम शेल्टर’ नाम से छपा है. इसमें एक जगह वे कहते हैं, ‘अगर आप किसी की स्मृतियों में नहीं हैं तो आपका अस्तित्व नहीं है.’ 

मैं कहानी लिखता हूँ तो जाहिर है कि मुझे जो भी कुछ कहना होगा वह मैं कहानी लिखकर ही कहूँगा.मुझसे कई बार पूछा गया है कि तुम इस कहानी में क्या कहना चाहते हो? मेरा जवाब होता है- मैं नहीं जानता . अगर मैं जानता होता तो कोई लेख लिखता, कहानी नहीं लिखता. लेकिन फिर भी मैं अपने को सौभाग्यशाली समझता हूँ कि मुझे ऐसे संपादक मिले जिन्होंने जोखिम लेते हुए मेरी कहानियों पर भरोसा जताया.राजेन्द्र यादव तो नये लेखकों को उत्साहित करते ही थे .नये लेखकों पर भरोसा जताते हुए अप्रतिम कथाकार सत्येन कुमार ने ‘ कहानियाँ-मासिक चयन’ का प्रकाशन शुरू किया था. यहाँ मैं हरिनारायण जी की कथादेश का जिक्र विशेष सन्दर्भ में करना चाहूँगा. यह देखना आपके लिये भी दिलचस्प होगा कि एक संपादक और आलोचक किस तरह किसी लेखक की रचनात्मकता में सहायक हो सकते हैं.कथादेश में मेरी पहली कहानी छपी थी, ‘चोर-घटड़ा’. इसे छापते हुए पत्रिका ने एक स्तंभ शुरु किया था – गहरे पैठ. इसके साथ संपादकीय टिप्पणी इस तरह जाती थी कि कुछ कहानियाँ होती हैं जो सर के ऊपर से निकल जाती हैं. किसी कहानी लेखक के लिये यह कोई बहुत उत्साह- वर्धक स्थिति नहीं है कि उसकी कहानियाँ पाठक की समझ में नहीं आतीं. उस वक्त मैं मानता था – और आज भी मानता हूँ कि अगर कोई चीज मेरे भीतर है तो वह किसी दूसरे मनुष्य के भीतर भी होगी. खैर, उस स्तंभ की विशेषता थी कि अगले अंक में उस कहानी पर दो जिम्मेदार लेखकों की टिप्पणियां छपा करती थी. तो, ‘चोर-घटड़ा ’ कहानी पर सुरेश उनियाल और अर्चना वर्मा की टिप्पणियाँ छपीं. तब तक मैं सौरी को केन्द्र बनाकर चार-पाँच कहानियाँ लिख चुका था. अर्चना जी ने अपनी टिप्पणी में ध्यान दिलाया कि सौरी का एक अर्थ प्रसूति-गृह भी होता है.तब तक सौरी की परिकल्पना पूरी तरह से आकार नहीं ले सकी थी. अर्चना जी की टिप्पणी के बाद ‘पारस’ कहानी में सौरी अपने सही अर्थ को पा सकी. कई बार इस तरह से आलोचना भी रचना को मांझती है. लेकिन इसके लिये अर्चना वर्मा जैसे संवेदनशील आलोचक की जरूरत पड़ती है. अर्चना जी अब हमारे बीच नहीं हैं. मैं इस अवसर पर उनके योगदान को कृतज्ञतापूर्वक याद करता हूँ. 

यह मेरे लिये एक तरह का अपराध ही होगा अगर मैं अपने शहर देहरादून का जिक्र न करूँ जिसने मेरे भीतर के लेखक को गढ़ा.इस शहर में कही हरजीत और अवधेश भी रहते थे जिनके साथ अनगिन शामें साहित्य और कलाओं की चर्चा करते हुए अगली सुबह में बदल जाती थीं. देहरादून की एक विशेषता है- व्यक्तिगत स्तर पर पारस्परिक स्नेह और प्रेम का व्यवहार किया जाता है लेकिन मित्रों की रचनाओं की प्रशंसा से भरसक बचने की कोशिश की जाती है.विशेष रूप से सम्मुख – प्रशंसा. इसे हम चिरायता प्रेम कहा करते हैं. यह खाने में कड़वा होता है लेकिन स्वास्थ्य के लिये लाभदायक ही सिद्ध होता है. इस शहर के अनौपचारिक महौल में मैंने अपनी बहुत सी कहानियों का पहला पाठ किया और मित्रों की प्रतिक्रिया के बाद उनको फिर फिर लिखा. मैं देहरादून के अपने मित्रों को याद करते हुए यह सम्मान विनम्रतापूर्वक स्वीकार करता हूँ. 

एक बार पुनः आप सबका आभार.