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Saturday, July 30, 2022

गैट अप, स्टेंड अप, ग्रो अप

पिछले दिनों अपनी निजी यात्रा से लौटे कथाकार और आलोचक दिनेश चंद जोशी के मुताबिक जुलाई 2022 के शुरुआती सप्ताह में आस्ट्रेलिया जोशो-खरोश से मनाये जाने वाले दृश्य व खबरों से रंगा रहा। 4 जुलाई से 11 जुलाई तक एबओरिजनल और टौरिस स्ट्रेट आइसलेंडर समुदाय की कमेटी ने सप्ताह भर के कार्यक्रमों से सराबोर एक उत्‍सव का आयोजन किया। बल्कि, उस पूरे सप्ताह आस्ट्रेलिया के समस्त आदिवासी समुदाय की संस्कृति,कला,सभ्यता एवं उनकी उपलब्धियों के प्रचार प्रसार और उनके संघर्षों के प्रति सम्मान जताने हेतु सरकारी,गैर-सरकारी तौर पर संचेतना कार्यक्रम आयोजित किए गये। कार्यक्रमों के श्रृंखला की वर्ष 2022 की थीम था," गैट अप, स्टेंड अप,और ग्रो अप"। साथ ही आस्ट्रेलियन ब्राडकास्टिंग कारप़ोरेसन (ए.बी.सी) का 90 वां बर्ष मनाये जाने की धूम टी वी पर थी। इस रेडियो स्टेशन की शुरुआत 1932 में हुई थी।


दिनेश जोशी कहते हैं कि दिसम्‍बर और जनवरी माह के आस-पास उत्‍तर भारत में रिमझिम बारिश का जो मौसम होता है और जैसी कड़क ठंड होती है, जुलाई माह का आस्ट्रेलिया लगभग उसी रिमझिम बारिश के गीले मौसम सा होता है। उसी दौरान, स्कूलों में तीन सप्ताह का अवकाश रहा। भ्रमण व सैर-सपाटे की गहमागहमी चारों ओर थी। मौसम की वजह से ही नहीं बल्कि जाड़ों की लगातार बारिश के कारण आसपास के निचले इलाकों में बाढ़ व घरों में पानी भर जाने के जो दृश्य वहां दिख रहे थे, उस वक्‍त आट्रेलिया उन्‍हें हूबहू अपने भारतीय शहरों की बरसात के मंजर जैसे लग रहा था। यह प्रश्‍न उनके भीतर उठ रहे थे, 'जल निकासी की व्यवस्था यहां भी विश्वसनीय नहीं है क्या?' इन उठते हुए प्रश्‍नों के साथ जिस आस्‍ट्रेलिया से वे हमें परिचित कराते हैं, मेरे अभी तक के अनुभव में वैसा आस्‍ट्रेलिय शाश्‍द ही कहीं दर्ज हो। आइये पढ़ते हैं जोशी जी का वह संस्‍मरण।

विगौ

दिनेश जोशी 


आस्ट्रेलिया हमारे इतिहासबोध में सुदूर स्थित पृथ्वी के नक्शे से अलग एक बेढंगे गोल शरीफे जैसे भूखंड के आकार का महाद्वीप है। रोचक तथ्य यह भी है कि आज यही महाद्वीप एकमात्र ऐसा भूखंड है जिसमें सिर्फ एक ही देश है। हमारी मिथकीय जानकारी और कल्पना के अनुसार दुनिया की सबसे पुरातन जनजातियों के लोग कभी यहां रहते थे। ब्रिटिश उपनिवेश के प्रारम्भिक दौर से पहले तक उन मूल जनजातियों की संख्या लाखों करोड़ों में बताई जाती है।
लेकिन अब इस महाद्वीप में समायी पचानबे प्रतिशत आवादी ब्रिटिश,आइरिस,ग्रीक,यूरोपीय,चीनी,
जापानी,कोरियाई,ईरानी लेबनानी, वियतनामी तथा अपने भारत,पाकिस्तान, बंग्लादेश,श्रीलंका, मलेशिया, इंडोनेशिया आदि दक्षिण एशियाई देशों के मूल नागरिकों से अटी पड़ी है।

यहां अब मिश्रित व मूल आदिवासी समुदाय की जनसंख्या लगभग आठ लाख है जो महाद्वीप की कुल,ढाई तीन करोड़ की आबादी का चार प्रतिशत बैठता है।
इस आवादी से थोड़ा कम लगभग तीन प्रतिशत तो यहां भारतीय मूल के लोग ही रहते हैं।
तो,तीन करोड़ की कुल आवादी में इतने कम मूल निवासियों का बचा होना क्या दर्शाता है! निश्चित रूप से यह आंकड़ा हैरतअंगेज​ करने वाला भले ही न हो पर विचारणीय व विमर्श के लायक तो है ही।
यहां के महानगर व उपनगरों में शक्ल सूरत से पहचान में आने वाले मूल निवासी तो बिल्कुल नजर नहीं आते,हां,बताया जाता है कि सुदूर दक्षिण व उत्तरी क्षेत्र के भीतरी इलाकों में वे पहचान में आ जाते हैं। इतने वर्षों बाहरी लोगो के सम्पर्क में आने से,यूं भी शुद्ध जनजातीय रक्त वाले वंशजों का मौजूद होना नामुमकिन है। अभी पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में जज नियुक्त हुए,पहले आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले सज्जन की फोटो टीवी पर देखी थी। वे रंग में गोरे,पर नाक नक्श से जरूर जनजातीय अन्वार लिए लग रहे थे।
मौसम के बरसाती तेवर के बीच बारिश के थोड़ा थमते ही बिल्कुल नीचे प्रतीत होते आसमान में बादलों के धुंए जैसे छल्ले हवा के वेग से चरवाहे की हांक से भागते भेड़ों के रेवड़ जैसे प्रतीत हो रहे हैं। प्रशान्त महासागर के इतने करीब के बादल ऐसे चलायमान नहीं होंगे तो कहां के होंगे,सोचता हुआ मैं यहां के औपनिवेशिक काल के शुरुआती इतिहास के प्रति जिज्ञासु हो उठा।


अफ्रीकी महाद्वीप से पुराआदि काल में हुए एकमात्र मानव प्रवास के प्रमाणिक सूत्र,आस्ट्रेलियाई​ जनजातीय समुहों के डी.एन.ए में पाये गये हैं,जोकि इसको विश्व की प्राचीनतम सभ्यता साबित करते हैं। आज से पचास साठ हजार वर्ष पुरानी जीवित संस्कृति के कस्टोडियन कहे जाने वाले लगभग तीन सौ विभिन्न भाषाई व रीति रिवाजों से भरे जन समूह वाले इस द्वीप के पूर्वी तट,यानी वर्तमान शिडनी में में जेम्स कुक नामक अंग्रेज नाविक ने सन् 1770 में कदम रख कर ब्रिटिश राज की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया था। सुदूर सागर के मध्य ऐसी खुली धरती पाकर ब्रिटिश उपनिवेशकों ने द्वीप पर कब्जे की योजना बना ली।शुरुआत में इंग्लैंड की जेलों में बढ़ी हुई कैदियों की संख्या को इस धरती पर बैरक बना कर,यहां भेज देने के साथ ही आगामी कब्जे का शिलान्यास कर दिया गया।इसीलिए आस्ट्रेलिया को ब्रितानी अभियुक्तों का ठिकाना कहा जाता है।
सन 1788 में कैप्टन आर्थर फिलिप अपने जहाज में अभियुक्तों, नाविकों व कुछ अन्य नागरिकों से भरे 1500 लोगों के साथ शिडनी कोस्ट में उतरा। उसके बाद,साल दर साल विधिवत अंग्रेजों की रिहाइशों का यहां के भिन्न-भिन्न तटों पर बसना प्रारंभ हो गया।मूल निवासियों के साथ हुए संघर्ष व हिंसा के अगले दस वर्षों में आदिवासियों की आवादी घट कर काफी कम हो गई। जिसके लिए जिम्मेदार, मुख्यतया बाहरी लोगों के आने से फैली नई बीमारियों,स्माल पाक्स,मिजिल्स, दिमागी बुखार व अन्य महामारियों के साथ उनकी जमीनों को हड़पने में हुए खूनी संघर्ष के दौरान हुई मौतें हैं।
जनजातीय लोग निर्ममता पूर्वक साफ कर दिये गये, उनको खाने हेतु आर्सेनिक जैसे जहरीले रसायनों से युक्त भोजन तक दिये जाने की बातें पढ़ने को मिलती हैं ।इन वर्षों में हुए संघर्षों में लगभग 20000 आदिवासियों तथा दो ढाई सौ यूरोपीय लोगों के मारे जाने के आंकड़े मिलते हैं।औपनिवेशिक काल के संघर्षों के बाद कुल सात आठ लाख मूल लोगों के बचे होने का अनुमान लगाया जाता है।
उत्तरोत्तर,औपनिवेशिक बसावट के बाद अगले सौ वर्षों में मूल निवासियों की जनसंख्या घट कर डेड़ लाख से भी कम आंकी जाती है। सन 1900 तक इनकी संख्या डेड़ लाख तक रह गई।
आखिरी शुद्ध रक्त वाले तस्मानियाई ,'एबओरिजनल' शख्स की मौत 1876 में हुई बताई जाती है।मतलब कि मिश्रित वर्णसंकरता पहले ही काबिज हो चुकी थी।
1850 के आसपास सोने की खानों के पता चलने तथा उसकी खुदाई के तरीके जान लेने के बाद तो इस द्वीप का आर्थिक रूप से कायाकल्प हो गया। यहां की अपार खनिज सम्पदा की भनक यूरोप,चीन,यू.एस.ए तक पंहुची। हजारों चीनी मजदूर गोल्ड माइंस में काम करने आये,जो प्रथम चायनीज सैटिलमैंट के कारक बने। उनके वंशज आज,यहां की आवादी में बहुतायत के रूप में मौजूद हैं।
इस गोल्ड रस परिघटना के कारण ही यहां बहुभाषी,बहुधर्मी,विविधतापूर्ण संस्कृति की शुरुआत होने लगी,जो आज परिपक्व हो कर एक आदर्श जनतांत्रिक देश के रुप में पल्लवित नजर आती है,इस देश का कोई सरकारी संवैधानिक धर्म नहीं है, पचासों भाषाओं व दर्जनों धार्मिक मान्यताओं के लोग यहां जितने अमन चैन सहकार व सहअस्तित्व के साथ रहते हैं, वैसे अन्य देश विरले ही होंगे। नागरिकता यानी 'सिटीजनशिप' ही यहां का परम नागरिक धर्म है।
बहरहाल,औपनिवेशिक शासकों ने बाद में मूल निवासियों के संरक्षण संवर्धन व उनकी सभ्यता संस्कृति कला को बचाये रखने हेतु सहानुभूति पूर्वक काम किये,क्योंकि इस महादेश में निर्विवाद रूप से उनका राज था।उन्हें हमारे देश,भारत जैसे किसी स्वतंत्रता संग्राम का सामना भी नहीं करना पड़ा। अगर इतनी पुरानी आस्ट्रेलियाई जनजाति की हमारे यहां जैसी,वैदिक,रामायण,महाभारतकालीन सभ्यतायें,राज्य साम्राज्य,सल्तनत,सूबे व शिक्षा,कला संस्कृति होती तो आजादी की मांग भी उठती तधा औपनिवेशिक शासकों को लौटना
पड़ता । दुर्भाग्य से यहां के समस्त आदिवासी समुदाय का बाहरी सम्पर्क से अभाव,व विशाल सागर के मध्य स्थित द्वीप में अलग थलग पड़े पड़े रहने के कारण ऐसा हुआ होगा।


1901में 6 विभिन्न ब्रिटिश उपनिवेशों,न्यू साउथ वेल्स,क्वींसलैंड, विक्टोरिया, तस्मानिया,साउथ कोस्ट व पश्चिमीआस्ट्रेलिया को मिला कर 'कामनवेल्थ आफ आस्ट्रेलिया' नाम से इस देश का संवैधानिक जन्म हुआ।उसके पश्चात आधुनिक राष्ट्र के सभी गुण यहां की सरकारों ने अंगीकार करने प्रारम्भ किये।
जनजातियों की घटी हुई जनसंख्या में भी संरक्षण संवर्धन नीतियों से वृद्धि होना प्रारम्भ हुई।उनके सम्मान व अधिकारों हेतु बने सुधारवादी ग्रुपों​ ने समय समय पर अपने पूर्वजों के साथ हुए अत्याचारों व वर्ताव पर नाराजी जाहिर की,आवाज उठाई तथा प्रतिकर व पश्चाताप की मांग के साथ भूमि अधिकारों सहित तमाम रियायतों व सुविधाओं के हक प्राप्त किये।
'आस्ट्रेलिया दिवस',जो कि 26 जनवरी 1788 को प्रथम औपनिवेशिक जहाज के इस धरती पर उतरने की स्मृति में मनाया जाता है,उस के विरोध में जनजातीय ग्रुपों ने 1938 से 1955 तक लगातार विरोध,बहिष्कार किये इस दिन को 'शोक दिवस' के रूप में मनाया। जनजातीय संगठनों के संघर्षों व मानव अधिकार समितियों के प्रयास के साथ ही
इशाई मिशनरियों के हस्तक्षेप के कारण सरकार के साथ सुलह समझौते के प्रयास फलीभूत हुए।रिकन्सीलियेसन कमेटी व विभाग बने।
1972 में सरकार ने अलग से 'डिपार्टमेंट आफ एबओरिजनल अफेयर्स' का गठन किया।
आज वे लोग शिक्षित,सम्पन्न व सरकारी नौकरियों में हैं। सरकारी व रिजर्व जमीनें,पार्क,फार्मलैंड आदि उनके निजी नाम पर भले ही न हों पर प्रतीकात्मक रुप से उनके पूर्वजों की मानी जाती हैं।
उनसे कोई हाऊसटैक्स,लगान,आदि नहीं ली जाती।
हां,कामनवैल्थ देश होने के कारण ब्रिटिश महारानी के क्राउन का सम्मान व परंपरा का पालन अवश्य किया जाता है।
सार्वजनिक स्थानों पर आस्ट्रेलियाई झंडे के साथ एबओरिजनल,व टौरिस स्ट्रेट द्वीप के प्रतीक दो और झंडे और फहराये जाते हैं। टौरिस स्ट्रेट,क्वींसलैंड और पापुआ न्यू गुइना के मध्य स्थित द्वीप है। जहां के मूल निवासी आस्ट्रेलियाई एबओरिजनल आदिवासियों से भिन्न माने जाते हैं।जगह जगह पार्कों ,भवनों आदि में "देश का आभार" शीर्षक से स्मृति पटों पर लिखा मिलता है,
'हम एबओरिजनल तथा टौरिर स्ट्रेट आइसलैंडर जातियों के अतीत,वर्तमान व भविष्य का सम्मान करते हैं,हम इस धरती पर उनकी जीवित संस्कृति,गाथाओं व परंपराओं को आत्मसात करते हुए साथ साथ मिल कर इस देश के उज्जवल भविष्य के निर्माण हेतु प्रतिबद्ध हैं।'
इशाई धर्म की मिशनरियों के प्रभाव व वैचारिक सोच वाले राष्ट्रों की यह खूबी है कि वे पश्चाताप व कन्फैशन वाली उदारता दर्शाने में पीछे नहीं हटते तथा समझौता,सुलह या 'रीकन्सलियेसन'जैसी नीति के माध्यम से पीड़ित,प्रताड़ित जनों के घावों पर मरहम फेर कर द्वंद से बचते हुए भविष्य को उज्जवल बनाने में यकीन रखते हैं।इसी कारण उनकी सरकारों में अलग से रीकन्सीलियेसन विभाग' बनाये जाते हैं।
यह नीति भले ही कूटनीति हो,अगर राष्ट्रों में अमन चैन और समुदायों के बीच भाईचारा बढ़ता हो तो क्या नुकसान है!
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Sunday, November 27, 2011

डगमगाते हुए पांवों के एहसास पर


 


दशहरे के मैदान में दहन होते रावण के पुतले या मेले-ठेले में भीड़ के बीच दूर तक देखने की बच्चे की अभिलाषा को बहलाते पिता को देखा है कभी ? आतिशी बाण रावण की नाभी पर आकर टकराया या, अपने आप धूं धूं कर उठी लपटें- पिता के कंधें पर इठलाता बच्चा ऐसी मगजमारी करने की बजाय खूब-खूब होता है खुश। बहुत भीड़ भरी स्थिति में बमों के फटने के साथ चिथड़े-चिथड़े हो रहे रावण, मेघनाद और कुम्भकरण के पुतलों को देखने के लिए पिता के कंधें की जरूरत होती है। पिता की बांहों के सहारे कंधे पर पांव रख और बच्चा ऊँचे और ऊँचे ताकने लगता हैं। पिता की बांहें बिगड़ जा रहे संतुलन को सहारा दे रही होती। बाज दफा ऊँचाई के खौफ को दूर फेंक वह सिर के ऊपर ही खड़ा होना चाह रहा होता है। संतुलन को बरकरार रखने की कोशिश में उठी पिता की बांहें भी उस वक्त छोटी पड़ जाती हैं। बच्चे की उत्सुकता के आगे लाचार पिता अपनी हदों के पार भी कंधों के लम्बवत और शीष के सामानन्तर बांह को खींचते चले जाते हैं। शीष पर खड़े बच्चे का हैरान कर देने वाला संतुलन पिता की बांहों का मनोवैज्ञानिक आधार बना रहता है। बिना घबराये वह खिलखिलाता है, तालियां बजाता है। वश चले तो उड़ा चला जाये चिंदी-चिंदी उड़ रहे रावण के परखचों के साथ। पिता की लम्बवत बांहें ऐसे किसी भी खतरे से खेलने की ख्वाइश से पहले ही उसे सचेत किये होती हैं। डगमगाते हुए पांवों के बहुत हल्के अहसास पर ही खुली हथेलियों की पकड़ में होता है पूरा शरीर। पिता की बांहों के यागदान को कुछ ज्यादा बढ़ा चढ़ा देने की को मंशा नहीं। हकीकत को और ज्यादा करीब से जानने के लिए अभ्यास के बल पर किसी चोटी पर पहुँचे पर्वतारोही से पूछा जा सकता है कि पहाड़ के शीष पर खड़े होकर डर नहीं लगता क्या ? बहुत गुंजाइश है कि कोई जवाब मिले जिसमें बगल की किसी चोटी का सहारा पर्वतारोही को हिम्मत बंधाता हुआ हो। मेले के बीच पिता के शीष पर खड़े होकर दृश्य का लुल्फ उठाते बच्चे के पांवों की सी लड़खड़ाहट पर सचेत हो जाने की स्थितियां पर्वताराही को भी और उचकने की गुस्ताखी नहीं करने देती हैं। उचकने की कोशिश में उठी हुई बांहों की पकड़ छूट जाने का सा अहसास होता है और धम्म से बैठने को मजबूर हो जाने की स्थितियां होती हैं। चोटियों के पाद सरीखे दिखते दर्रे पिता के कंधें जैसे होते हैं जहां खड़े होकर कुछ लापरवाह हो जाना खड़ी हुई चोटियों के सहारे ही संभव होता है। करेरी झील से उतरते नाले के बांये छोर के सहारे हम मिन्कियानी दर्रे की ओर बढ़ रहे थे।
मिन्कियानी दर्रा पिता का कंधा है। मिन्कियानी ही क्यों, कोई भी दर्रा पिता का कंधा ही होता है। दोनों ओर को उठी चोटियों कंधों से ऊपर उठ गये पिता के हाथ हैं, जो कंधे पर उचक रहे बच्चे को संभालने की कोशिश में उठे होते हैं। पिता चाहें तो अपनें हाथों को किसी भी दिशा में ऊपर-नीचे, कहीं भी घुमा सकते हैं। शीश के साथ उठी हुई पिता की बांहें वे चोटियां हैं जो पर्वतारोहियों को उकसाने लगती हैं। कई दफा हाथों को बहुत ऊपर खींचते हुए किसी एक खड़ी उंगली सी तीखी हो गई चोटियों पर चढ़ना कितने भी जोखिम के बाद संभव नहीं। ऐसी तीखे उभार वाली चाटियों के मध्य दिख रहे किसी दर्रे की कल्पना करो, निश्चित ही वह बेहद संकरा हो जाएगा। लमखागा पास कुछ ऐसा ही तीखा दर्रा है, जो हर्षिल के रास्ते जलंधरी के विपरीत दूसरी ओर किन्नौर में उतरने का रास्ता देता है। मिन्कियानी दर्रा वैसा तीखा नहीं। चौड़े कंधे वाले पिता की तरह उसका विस्तार है। मध्य जून में बर्फ के पिघल जाने पाने पर हरी घास से भर जाता है। नडडी तक पहुंचने के बाद जीप मार्ग को एक ओर छोड़ सीधे एक ढाल उतरता है भतेर खडढ तक। भतेर खडढ के किनारे है गदरी गांव। पर्यटन विभाग के नक्शों में ऐसे छोटे-छोटे गांवों का जिक्र बहुत मुश्किलों से होता है। इतिहास को दर्ज करने वाले नक्शों की तथ्यात्मकता के आधार पर सत्यता को जांचते हुए आगे बढ़ जाते हैं।
हम कोई इतिहासविद्ध नही तो भी यह तो कह ही सकते हैं कि सत्ता के लिए खूनी संघर्ष से भरे सामंतों के आपसी झगड़े और उनकी वंशावलियों की सांख्यिकी से भरी इतिहास की पाठ्य-पुस्तकें ऐतिहासिक दृष्टि से इस देश की भौगोलिक, सांस्कृतिक और सामाजिक स्थिति को समुचित रुप से रख पाने में अक्षम हैं। उत्तरोतर भारत के बारे में हमारे पास बहुत ही सीमित जानकारी है। वहां रहने वाले लोगों का इतिहास क्या नृशंस आक्रमणों से जान बचाकर भागे हुए लोगों का इतिहास है ? पश्चिम भारत को हड़प्पा और मोहनजोदड़ों के बाद हमने खंगाला है क्या ? दक्षिण भारत में क्या एक ही दिन में विजय नगर राज्य की स्थापना हो गयी ? सिंहली और तमिलों के विवाद की जड़ कहां है ? नागा, कुकी और मिजो जन-जाति की संस्कृति को हम कैसे जान पायेगें ? जंगलों के भीतर निवास करने वाले लोगों से हमारा रिश्ता कैसा होना चाहिए ? ऐसे ढेरों सवालों के हल ढूंढने के लिए दुनिया से साक्षत मुठभेड़ के सबसे अधिक अवसर यात्राओं के जरिये ही मिलते हैं। हिमाचल के कांगड़ा क्षेत्र के इस बहुत अंदरूनी इलाके को सबसे ज्यादा परिचित नाम वाली जगहों चिहि्नत करें तो धर्मशाला और मैकलाडगंज दिखायी देते हैं। नड्डी मोटर रोड़ का आखिरी क्षेत्र है जो मैकलोडगंज से कुछ पहले ही कैंट की ओर मुड़ने के बाद आता है। मैकलोडगंज शरणार्थी तिब्बतियों का मिनी ल्हासा है, जहां दलाई लामा रहते हैं। नाम्बग्याल मोनेस्ट्री में। अपनी कसांग के साथ। मैकलोडगंज की संस्कृति में तिब्बत की हवा है। नक्शे में गदरी ही नहीं, आगे के मार्ग में पड़ने वाले गजनाले के पार बसा भोंटू गांव भी नहीं। भोंटू से ऊपर रवां भी नहीं। भोंटू से आगे न नौर न करेरी गांव। मिन्कियानी दर्रा करेरी के बाद कितनी ही चढ़ाई और उतराई के बाद है।
देवदार, बन, चीड़, अखरोट, बुरांस, कैंथ, बुधु और खरैड़ी यानी हिंसर की झाड़ियों चारों ओर से करेरी गांव का घ्ोरा डाले हुए होती हैं। वन विभाग के विश्राम गृह से उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर रिंगाल की झाड़ियां, एलड़, तिरंड के घने जंगलों के बीच से जो रास्ता जाता है, उसे आगे गजेऊ नाला काटता है, जिस पर लकड़ी का पुल है। पुल के इस पार से ही गजेऊ नाले के बांये छोर से सर्पीले रास्ते पर बढ़ लिये। पुल पार नहीं निकले। पुल पार कर लेते तो नौली, मल्ली, कनोल, बो, दरींडी आदि गांवों में पहुंच जाते।
यूं इस तरह से गांवों की यात्रा जन के बीच घमासान तो नहीं होती पर उखड़ते मेले से घर लौटती भीड़ की तरह लौटना तो कहलाता ही। मेला देखे बगैर घर लौटने का तो सोचा भी नहीं जा सकता। बेशक उछाल ले-लेकर नीचे को तेजी से दौड़ रहा नाला चाहे जितना ललचाये और अपने साथ दौड़ लगाने को उकसाता रहे। उसके मोह में पड़े बगैर उसकी धार के विपरीत बढ़ कर ही मिन्कियानी की ऊंचाई तक पहुंचा जा सकता था। पहाड़ की पीठ पर उतरता नाला ऐसे दौड़ रहा था मानो पिता की पीठ पर नीचे को रिपटने का खेल, खेल रहा हो। पिता हैं कि पीठ लम्बी से लम्बी किये जा रहे हैं। छोटा करने की कोशिशों में होते तो तीव्र घुमावों के साथ नाला भी घूम के रिपटता। बल्कि घुमावों पर तो उसकी गति आश्चर्यमय तीव्रता की हो जाती। पैदल मार्ग के लिए बनी पगडंडी भी ऐसे तीव्र घुमावों पर सीढ़ी दार। हम पिता की पीठ पर चढ़कर कंधें की ऊंचाई तक पहुंच जाना चाहते थे। कंधे पर खड़े होकर दुनिया को निहारने के बाद मिन्कियानी की दूसरी ओर की ढलान पर उतर जाना हमारा उद्देश्य था। दूसरी ओर नाले के साथ-साथ, पिता की दूसरी पीठ पर उतर जाना चाहते थे। दोंनों ओर की ढलान पिता की पीठ थी। पिता का हमसे कोई सामना नहीं जो हमें अपनी छाती दिखाते। वे दोनों ओर अपनी पीठ पर हमारे बोझ को झेलने लेने की विनम्रता भरी हरियाली से बंधे हैं। अपने कंधें को दर्रे में बदल देने वाले पिता की धौलादार पीठ पर मिन्कियानी दर्रा हमारा गंतव्य था। करेरी, नौली, छतरिमू, कोठराना, शेड, चमियारा, गांवों के लोग अपने जानवरों के साथ करेरी लेक के गोल घ्ोरे से बाहर दिखायी देती पत्थरीली जमीन पर छितराये हुए थे। गाय भैंसों को उससे आगे की चढ़ाई पर ले जाना बेहद कठिन है। लेक के उस गोल धेरे में अपने अपने कोठे में वे टिक गये। जवान छोकरे बकरियों को लेकर लमडल की ओर निकल गए। बकरियां दूसरे दूधारू-पालतू जानवरों से भिन्न हैं। कद-काठी की भिन्नता और देह में दूसरों से अधिक चपलता के कारण वे पहाड़ के बहुत तीखे पाखों पर पहुंच जाती हैं। हरी घास का बहुत छोटा सा तृण भी उन्हें तीखी ढलानों तक पहुंच जाने के लिए उकसा सकता है। वे चाहें तो किसी भी ऊंचाई तक जा सकती हैं। लेकिन उनके रखवाले जानते हैं कि एक सीमित ऊंचाई के बाद भेड़-बकरियों के खाने के लिए घ्ाास तो क्या वनस्पति का भी नामोनिशान नहीं। ऊंचाई की दृष्टि से कहें तो लगभग 14000-15000 फुट की ऊंचाई के बाद जमीन बंजर ढंगार है। बर्फ से जली हुई चट्टानों के बाद बर्फ के लिहाफ को ओढ़ती चटटानों की उदासी अपने बंजर को ढकने की कोशिश में बहुत कोमल और कटी फटी हो जाती है। ऊंचाईयों तक उठते उनके शीष, उदासी का उत्सव मनाते हुए, गले मिलने की चाह में दो चोटियों के बीच दर्रे का निर्माण कर देते हैं। बहुत फासले की चोटियों के मिलन पर होने वाले दर्रे का निर्माण इसी लिए बाज दफा एक सुन्दर मैदान नजर आने लगता है। मिन्कियानी वैसा चोड़ा मैंदान तो नहीं, लेकिन सीमित समतलता में वह हरियाला नजर आता है। तीखी ढलान वाला दर्रा।
करेरी लेक से मिन्कियानी के रास्ते बोल्डरों पर चलना आसान नहीं। वह भी तीखी चढ़ाई में। कुछ जगहों पर चट्टान इतनी तीखी हो जाती है कि बिना किसी दूसरे साथी का सहारा लिये चढ़ा नहीं जा सकता। एक संकरी सी गली जिसके दूसरी ओर भी वैसा ही तीखा ढाल और पत्थरों का सम्राज्य है, मिन्कियानी कहलाता हुआ है। करेरी के बाद मिन्कियानी पार करने से पहले एक ओर झील है। मिन्कियानी के दूसरी ओर भी एक बड़ी झील- गजेल का डेरा है। गजेल का डेरा खूबसूरत कैम्पिंग ग्राऊंड है। गदि्दयों का घ्ार कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं। पीने के लिए पानी हो, भेड़ बकरियों के चारे के लिए घ्ाास हो और सहारे के लिए ओट- बस इतना ही तो एक गद्दी का ठिकाना। कितनी खोह और कितने उडयार पनाहगाह हैं लेकिन घ्ार नहीं कह सकते उन्हें।  कितने ही अमावास और चांद की भरी पूरी रात गुजारते हुए भेड़ो के बदन पर चिपकती झुर-झुरी और कच्ची बर्फ ऊन में बदलने का खेल ऐसे ही जोखिमों में खेला जा सकता है। कितनी गुद-गुदी और कितनी चिपचिपाहट है बर्फ में, ठिठुरन कितनी, कितने ही रतजगे हैं गद्दी के जीवन में घुलती चिन्ताओं के कि अबकि बर्फ देर से पड़े और देर तक बची रहे घ्ाास। भेड़-बेरियों के लिए बची रहे घास, उनके सपनों में ऐसे ही उतरती है रात।   
बहते पानी के साथ आगे बढ़ें तो एक झील पर पहुंचेगें। जिसके रास्ते हमें दरकुंड पहुंचना है। यदि पानी के विपरीत दिशा में बढ़ें तो सीधे लमडल पहुंच जायेगें। गजेल के डेरे से लगभग चार गुना बड़ी झील। लमडल तक का रास्ता झीलों का रास्ता है। लमडल से निकल कर भागता जल झील के रूप में कैद हो जाता है। लमडल भी एक झील है। बल्कि लमडल तक पूरी सात झीलें हैं। लमडल से निकल कर तेज ढाल पर भागते पानी की खैर नहीं। नदी होने से पहले उसे जगह जगह मौजूद झीलों के साथ कुछ समय गुजारना है। रूप बदलकर हर क्षण भागती बर्फ को अपने आगोश में समेट लेने को आतुर धौलादार की यह श्रृंखला इस मायने में अदभुत है। लमडल से उत्तर-पूर्व की ओर बढें तो चन्द्रगुफा तक पहुंच सकते हैं। चंद्रगुफा भी एक झील है। वहां से आगे नगामण्डल निकल सकते हैं। एक झील का अपना सौन्दर्य है। लमडल एक बड़ी झील है। नीचे की ओर उतरते हुए झीलों के आकार अनुपात में छोटे होते चले गए हैं। नागमण्डल को इन्द्राहार पास के रास्ते का ही पड़ाव कह सकते हैं। यूं नागमडल से नीचे उतरने लगे तो होली गांव पहुंचा जा सकता है। धौलादार की इस श्रृंखला में भुहार, बल्यानी, मिन्कियानी, भीम की सूत्री, इन्द्राहार, जालसू, थमसर और न जाने कितने ही दर्रे हैं जो कांगड़ा और चम्बा घाटी के द्वार भी कहे जा सकते हैं। वैसे इन्हें पिता का कंधा कहें तो पिता के कंधे पर चढ़कर मेला देखने का उत्साह अपनी तरह से उकसाता है।  
 

नोट: यह यात्रा संस्मरण २० नव्म्बर २०११ के जनसत्ता में प्रकाशित हुआ है।

Tuesday, October 5, 2010

भरोसे के सूत्र आंकड़ों में नहीं पनपते




5 -6 अगस्त की रात जिस अबूझ विभीषिका ने लदाख के लेह नगर के लोगों को अपने खूनी बाहुपाश में जकड़ लिया था   उसकी  जितनी भी तस्वीरें देख ली जाएँ ,वास्तविक नुक्सान का अंदाजा लगाना मुश्किल होगा.लेह भारत का क्षेत्रफल के हिसाब से सबसे बड़ा जिला है पर इसमें आबादी का घनत्व मात्र 3  व्यक्ति प्रति वर्ग किलो मीटर है,इसलिए ढाई सौ के आस पास बताई जाने वाली मौतें  देश के प्रचलित मानदण्डों के अनुसार बहुत भयानक नहीं मानी जायेंगी...हांलाकि 300 लोग दुर्घटना के महीने भर  बीतने के बाद भी लापता बताये जा रहे हैं.पैंतीस के लगभग गाँव इसकी चपेट में आ के नक्शे से लगभग लुप्त ही हो गए....मीलों लम्बी सड़कें,दर्जनों पुल और सैकड़ों खेत बगीचे इसकी विकराल धारा के हवाले हो गए,वो भी देश के उस हिस्से में जहाँ सड़कें और पुल सुरक्षा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील माने जाते हैं.अपनी पहचान उजागर न करने की शर्त पर सीमा सड़क संगठन के एक अधिकारी ने बताया कि अकेले लद्दाख के इलाके में ढाई से तीन सौ करोड़ तक की सड़के ध्वस्त हो गयी हैं। अब भी सड़कों के दोनों किनारे मलबे की ऊँची लाइनें देखी जा सकती हैं--उनके अन्दर से झांकते कपडे लत्ते और घर के साजो सामान साफ़ साफ़ दिखाई देते हैं.कभी कभार इनके अन्दर से लाशें अब भी निकल आती हैं. लोगों से बात करने पर मालूम हुआ कि मरने वाले अधिकतर लोग या तो सोते हुए मारे गए, या फिर बदहवासी में घर से निकलकर भागते हुए। बाजार में अनेक दुकानें  ऐसी हैं जो हादसे के बाद से अब तक खुली ही नहीं हैं...जाने इन्हें हर रोज झाड पोंछ कर खोलने वाले हाथ जीवित बचे भी हैं या नहीं?
 -यादवेन्द्र

 

विज्ञान की भाषा में जब हम बादल फटने की बात करते हैं तो इसका साफ़ साफ़ ये अर्थ होता है कि  बहुत छोटी अवधि में एक क्षेत्र  विशेष में (20 से 30 वर्ग किलोमीटर से ज्यादा नहीं)अ  साधारण  तीव्रता के साथ -- एक घंटे में 100 मिलीमीटर या उससे भी ज्यादा-- बरसात हुई.भारत सरकार ने हांलाकि बादल फटने के लिए आधिकारिक तौर पर कोई मानक तय नहीं किया है पर मौसम विभाग अपनी वेबसाईट पर ऊपर बताई परिभाषा का ही हवाला देता है.अब पूरे मामले के कारणों की बात करते समय यदि हम 5-6 अगस्त की रात को लेह में हुई बरसात के आधिकारिक आंकड़ों की बात करेंगे तो मौसम विभाग ( लेह नगर में उनकी वेधशाला मौजूद  है) चुप्पी साध लेता है.नगर के दूसरे हिस्से में स्थित भारतीय वायु सेना के वर्षामापी यन्त्र का हवाला देते हुए मौसम विभाग जो आंकड़ा प्रस्तुत करता है वो इतना काम है कि बादल फटने की घटना पर संदेह होने लगता है-- पूरे 24  घंटे में 12.8  मिली मीटर बरसात,बस.वाल स्ट्रीट जर्नल  ने इस पर विस्तार से लिखा है कि तमाम जद्दोजहद के बाद भी उस काली रात में हुई बरसात का कोई आंकड़ा कहीं से नहीं मिल सका.यहाँ ये ध्यान देने की  बात है कि पिछले कई सालों से अगस्त माह का  बरसात का औसत मात्र ... है.दबी जुबान से अनेक लोगों ने ये कहने की कोशिश की कि यह विभीषिका कोई प्राकृतिक घटना नहीं थी,बल्कि चीन के मौसम बदलने वाले प्रयोग का एक नमूना
 थी.कोई भरोसेमंद सूत्र भले ही ऐसा कहने के लिए सामने न हो,पर इसको यूँ ही खारिज  नहीं किया जा सकता  क्योंकि हाल में ही ब्रिटिश वायु सेना के कृत्रिम बारिश कर के दुश्मन को तबाह कर देने के एक प्रयोग से  सैकड़ों लोगों की जान जाने की एक घटना का खुलासा हुआ है-- विनाश के स्थान  से 40 -50 किलो मीटर दूर ये प्रयोग कोई पचास साल पहले किया गया था और देश की रक्षा का हवाला दे कर इसमें गोपनीयता बरती गयी थी.कुछ साल पहने द गार्डियन ने इसका खुलासा किया है.   
 
  भूगोल की किताबों में लदाख को सहारा जैसा रेगिस्तान बताया जाता है,फर्क बस इतना है कि यहाँ का मौसम साल के ज्यादातर दिनों में  भयंकर सर्द बना रहता है.मनाली या श्रीनगर चाहे जिस रास्ते से भी आप लेह तक आयें,रास्ते में नंगे पहाड़ और मीलों दूर तक फैले सपाट रेगिस्तान  दिखेंगे... हरियाली को जैसे सचमुच कोई हर ले गया हो.दशकों पहले रेगिस्तान को हरा भरा बनाने को जो नुस्खा पूरी दुनिया में अपनाया जाता रहा है-- पेड़ पौधे रोपने का -- वो नुस्खा लदाख में भी आजमाया गया और लदाखी जनता को वृक्ष रोपने के लिए प्रोत्साहित करने के वास्ते नगद इनाम देने की योजना राज्य सरकार ने शुरू की.साथ साथ लेह में स्थापित रक्षा प्रयोगशाला ने भी बड़े पैमाने पर इस बंजर इलाके को हरियाली से पाट  देने का अभियान शुरू किया.आज वहां दूर दूर तक हरियाली के द्वीप दिखाई देने लगे है.रक्षा प्रयोगशाला दावा करती है की लेह में उनके प्रयासों से हवा में आक्सिजन की उपलब्धता 50 %  तक बढ़ गयी है और इस क्षेत्र की सब्जी की करीब साठ फीसदी आपूर्ति   उनके प्रयासों से स्थानीय स्तर पर पूरी की जा रही है.सब्जी की करीब 80 नयी और सेब की लगभग 15  नयी  प्रजातियाँ इस समय वहां उगाई जा रही हैं.पिछले सालों में जहाँ इस क्षेत्र में हरियाली  की चादर बढ़ी है वहीँ वर्षा की मात्रा भी निरंतर बढती गयी है.हांलाकि  सरकार के दस्तावेज अब भी लदाख क्षेत्र में हरियाली से ढका हुआ क्षेत्र महज 0 .1 % ही  दर्शाते हैं और वैज्ञानिकों का बड़ा वर्ग मानता है कि हरियाली को  मौसम प्रभावित  करने के लिए कम से कम अपना दायरा 30 %  तक बढ़ाना पड़ेगा-- पर इस बार की अ प्रत्याशित त्रासदी ने ऐसे लोगों का एक वर्ग तो खड़ा कर ही दिया है जो लदाख के सर्द रेगिस्तान को हरा भरा करने के अभियान को शंका की दृष्टि से देखता  है और अत्यधिक बरसात से बाढ़  जैसी स्थिति पैदा करने के लिए हरियाली को ही दोषी मानता  है.दबी जुबान से लेह  के एक सम्मानित धर्मंगुरु  जो राज्य सभा के सदस्य भी रहे हैं,ने  भी विभीषिका के लिए इसको ही दोष देने की कोशिश की.लेह में लोगों से बात करने पर कई लोगों ने ये भी कहा कि दलाई लामा भी पिछले कई सालों से अपने उद्बोधनों में लदाख में हरियाली की संस्कृति को रोकने की अपील करते आ  रहे हैं.त्रासदी के दिनों के उपग्रह चित्रों को देखने से मालूम होता है कि कैसे देश के सुदूर दक्षिण पश्चिम सागर तट से काले मेघ पूरा देश पार करके उत्तरी सीमाओं तक पहुँच गए.यह एक अजूबी घटना है और अब मौसम वैज्ञानिकों ने इसका विस्तृत अध्ययन करने की घोषणा की है.
 
  अचानक आई इस बाढ़ से हुए नुकसानों के बचे हुए अवशेष ये बताते हैं कि ध्वस्त होने वाले घरों कि बनावट में कोई कमी रही हो ऐसा नहीं है -- लेह बाजार के पास अच्छी सामग्री और डिज़ाइन से बने  टेलीफोन  एक्सचेंज और बस अड्डे में जिस तरह का नुक्सान अब भी दिखाई देता है,ये इस बात का सबूत  है कि मलबे की विकराल गति ने नए और पुराने या मिट्टी या कंक्रीट से बने घरों के बीच कोई भेदभाव नहीं किया.यूँ साल में तीन सौ से ज्यादा धूप वाले दिनों के अभ्यस्त लोग  लदाख क्षेत्र में पारंपरिक ढंग से मकान मिट्टी की बिन पकाई इंटों से बनाते हैं, नींव भले ही पत्थरों को जोड़ कर बना दिया जाए.इलाके की सर्दी को देखते हुए दीवारें मोटी बनायीं जाती हैं और मिट्टी बाहर की सर्दी को इसमें आसानी से प्रवेश नहीं करने देता.छत सपाट और स्थानीय लकड़ियों, घास और मिट्टी की परतों से बनायीं जाती हैं.अब कई भवन टिन की झुकी हुई छतों से लैस दिखाई  देते हैं पर स्थानीय लोग इनको सरकार के दुराग्रह और दिल्ली और चंडीगढ़ में बैठे वास्तुकारों की ढिठाई का प्रतीक मानते हैं.हाँ, चुन चुन कर पत्थर की ऊँची पहाड़ियों के ऊपर किले की तरह बनाये गए किसी बौद्ध मठ को कोई क्षति नहीं हुई.जब साल दर साल बढ़ रही  बरसात के सन्दर्भ में लोगों से बात की गयी तो छतों के ऊपर किसी ऐसी परत(जैसे तिरपाल) को मिट्टी की परत के अन्दर बिछाने की जरुरत महसूस की गयी जिस से बरसात का पानी अन्दर न प्रवेश कर पाए.हमें लेह में ढूंढने  पर भी स्थानीय स्तर पर कम करने वाले वास्तुकार नहीं मिले,जिनसे और गहन विचार विमर्श किया जा सकता.
 
अब भी मलबे हटाने का कम चल रहा है पर सबसे अचरज वाली बात ये लगी कि इनमें स्थानीय जनता की कोई भागीदारी नहीं है...विभीषिका की काली रात में तो सेना के जवान अपनी बैरकों  से निकल कर आ गए,बाद में सीमा सड़क संगठन के लोग खूब मुस्तैदी से ये काम कर रहे हैं-- बिछुड़े हुए परिजनों और खोये हुए सामान को दूर से निहायत निरपेक्ष भाव से लोग खड़े खड़े निहारते दिखते हैं,पर पास आकर न तो कोई हाथ लगाता दिखता है और न ही बिछुड़ी हुई   वस्तुओं को प्राप्त कर लेने का कुतूहल किसी के चेहरे पर दिखाई देता है.लोगों से बार बार इसका कारण पूछने पर लोगों ने बौद्ध जीवन शैली में जीवन और मृत्यु की अवधारणा के गहरे रूप में दैनिक क्रिया कलाप और व्यवहार में  लोगों के अन्दर तक समा जाने की ओर इशारा किया.                           



-यादवेन्द्र
                            

Friday, January 29, 2010

और बुक हो गये उसके घोडे़- 6

पिछले से जारी-

तांग्जे में गेंहू, मूली, शलजम और गोभी की खेती हो रही है। गांव लगभग खाली खाली से हैं। ज्यादातर गांव वाले डोक्सा में हैं। जवान लड़के पार्टी को तला्शते या तो दारचा, मनाली में भटक रहे हैं या फिर पदुम और लामायुरू में। कोई घोड़ों पर रारू से डिपो का माल गांव गांव तक पहुचाने में जुटा है। जांसकर में पैदा होने वाला ज्यादातर अनाज छंग बनाने में इस्तेमाल हो जाता है। अर्क यानी देशी शराब भी बनायी जाती है। तांग्जे में एक प्राइमरी स्कूल भी है जिसमें तीन कमरे हैं। स्कूल की आज छुट्टी है। सुनते हैं मास्टर अपने इलाज के लिए दिल्ली गया हुआ है। स्कूल के नजदीक ही कारगियाक नदी पर लकड़ी का एक नया पुल बना है। नदी के दूसरे पार से कुरू और त्रेस्ता जाने का यह नया रास्ता है। हमें तांग्जे में छोड़ नाम्बगिल अपने घर कारगियाक गांव जाएगा जो यहां से घोड़े पर चढ़ कर जाने में सिर्फ दो घन्टे का रास्ता है। घर में किस किस चीज की जरूस्त है वह सब लकर लौटना है उसे।
हमें पुरनै जाना है। कुरू, त्रेस्ता होते हुए याल के नीचे से ही मलिंग वाली धार पर होते हुए। परनै पर चढ़ाई और उतराई ज्यादा है। इससे अच्छा तो कारगियाक नदी को नीचे ही बने कच्चे पुल से पार कर निकलने में ठीक रहेगा। सर्प छू के किनारे बसा पुरनै गांव जांसकर घाटी का महत्वपूर्ण गांव है। यूं मात्र तीन घर ही हैं इस गांव में पुख्ताल गोम्पा जाने के लिए पुरनै पहुचंना होगा। यहीं से सर्प छू के किनारे किनारे लगभग 7 किमी आगे नदी के दूसरे ओर है पुख्ताल गोम्पा। पुरनै से पुख्ताल जाते हुए लगभग 1 किमी दूर खनकसर गांव है जिसमें एक ही घर है। जांसकर घाटी में पुरनै पदुम से इधर के सभी गांवों में महत्वपूर्ण स्थान रखता ह। खेती बाड़ी उन्नत अवस्था में है। दुकानें हैं। दुकनों में बजता संगीत है। सैलानियों के रूकने के लिए कमरा और बिस्तर भी है। नहीं तो टैन्ट लगाने के लिए गांव वालों ने खेत खाली छोड़े हुए हैं। जिस पर 35 रू कैम्पिंग चार्ज की दर से पर टैन्ट का किराया लेते हैं पुरनै वाले।
पुख्ताल से आती सर्प छू यहां कारगियाक नदी से मिल रही । यहां से फिर पहली वाली दिशा में ही कारगियाक नदी के किनारे किनारे चलते हूए हम पदूम पहुंचेंगे। पदुम में कारगियाक नदी जांसकर नदी में मिल जाएगी। जांसकर बढ़ेगी आगे और लेह के नजदीक कैलाश मानसरोवर से आती सिन्धु नदी में मिल जाएगी। पुरनै से रारू तक लगभग पांच सात किमी तक कई गांव हैं नदी के दोनों ओर। रारू तक बस रोड़ कट चुकी हैं कभी कभार जीप या ट्रक पदुम से रारू आते है।
रारू से पदुम लगभग 20 किमी होगा। पदुम में बौद्ध, मुस्लिम - दोनों धर्मों के लोग रहते हैं। जांसकर के प्रति विदेशियों का आकर्षण सहज रूप् से देखा जा सकता है। जुलाई, अगस्त, सितम्बर में विदेशी यात्रियों का मानो सैलाब सा उमड़ता है। अपनी इस यात्रा के दौरान लगभग 35-40 टीमें हमें विदेशियों की जगह जगह मिली। यूं व्यक्तियों की संख्या लगभग दो सौ के आस पास होगी। इससे कहीं अधिक विदेशी अभी और आने हैं। या आ चुके होंगे।
कुछ हैं जो बस रूट तक ही आते हैं। विदेशियों का यह आकर्षण लेह लद्दाख को देखने का है या ---?
दरअसल जब हम रारू में पहुंचे तो वहां एक स्कूल का वार्षिक कार्यक्रम चल रहा था। विदेशी मेहमानों के साथ साथ वहीं जम्मू कश्मीर के प्रतिनिधि भी मौजूद थे। पूछने पर मालूम चला कि अमुक स्कूल जर्मनी की शाम्बला कम्पनी द्वारा खोला गया है। जिसका देख रेख का जिम्मा भी कम्पनी के ही पास है। ऐसा ही एक स्कूल पदुम में फ्रांस की कम्पनी ने खोला है। पदुम में जम्मू कश्मीर के गेस्ट हाउस में रूकना हुआ। यहीं पर दो लामाओं से भेंट हुई जो किसी विदेशी महिला को खोज रहे थे। उन्हीं से मालूम हुआ वह महिला गोम्पाओं के लिए कुछ आर्थिक मदद देने वाली है। यहां विदेशियों के साथ स्थानीय लोगों या लामाओं को यूही घूमते देखा जा सकता है। वे लोग विदेशियों के साथ अक्सर विदेशि भाषा में ही बातें करते भी सुने जा सकते हैं। यहां पदुम में ही नहीं बल्कि जांसकर घाटी में जो देखने में आया वह यह कि जांसकरी व्यक्ति जितनी आसानी से Hurry up, Come here, Get up या ऐसे ही छोटे वाक्य आसानी से समझ लेते हैं वैसे तसे किसी और भारतीय भाषा के बारे में जानते तक नहीं। उत्तराखण्ड के तमाम पहाड़ों में और देश भर के भीतर जिस तरह से NGO के मार्फत विदेशी मुद्रा इस देश में पहुंच रही है, यहां तो उससे भी आगे का रूप् देखने में आया । जर्मन, फ्रांस, इंग्लैण्ड से सीधा सैलानी के रूप में विदेशी यहां अपने रूपये के साथ पहुंच रहा है और उस पर नियंत्रण भी रख रहा है।
बस से कारगिल और लेह आते लददाख के सुखे पहाड़ मुझे फिर आकर्षित कर रहे हैं। नाम्बगिल दोरजे की वो आंखें जिनमें भीतर ही भीतर हमसे बिछुड़ने पर छलक रहा था पानी याद आ रहा है। आखिर ऐसा क्या था जो इन 10-11 दिनों में नाम्बगिल को हमारे इतना करीब ले आया। नाम्बगिल ने जब हमें पदुम में छोड़ा तो उसकी आंखों में बेचैनी साफ दिखायी दे रही थी। हमें गेस्ट हाउस में छोड़ वह पदुम बाजार की ओर निकल गया था। बाद में लौटकर उसने बताया कि कल वह रारू चला जायेगा, वहां से डिपो का माल कारगियाक तक छोड़ने के लिए बुक हो गये हैं उसके घोड़े।

समाप्त

Monday, January 18, 2010

और बुक हो गये उसके घोड़े-5

पिछले से जारी

यह फिरचेन ला का बेस है। हम संभवत: तेरह साढ़े- तेरह हजार फुट की उंचाई पर होंगे इस वक्त। सेरिचेन ला का बेस भी यही है। यही से दक्षिण पश्चिम दिशा की ओर फिरचेन ला और दक्षिण पूर्व दिशा की ओर दरिया के पार डोक्सा के नजदीक से जा सकते हैं सेरिचेन ला। सेरिचेन को पार कर कारगियाक नाम्बगिल के गांव पहुंच सकते हैं ओर फिरचे को पार कर गोम्पेल के गांव तांग्जे जा सकते हैं। धूप चारों ओर बिखरी हुई है चौरू ओर याक घास चरने में मस्त हैं। हवा का बहाव इतना ज्यादा है कि टैन्ट खड़ा करना मुश्किल हो रहा है। छोटी छोटी घास के साथ साथ पीले, बैंगनी और कहीं कहीं लाल सफेद फूल भी दिखायी पड़ रहे हैं। हरे पत्तों के झुण्ड वाले चौलाई की तरह के दानों वाले पौधे हैं। जिनके दानों वाले हिस्से का रंग लाल है। यह औषधीय पौधा है, नाम्बगिल बताता है, जोड़ों के दर्द में इसका अर्क पीने से आराम मिलता है। स्थानीय नाम आसी है। तीन महीने अपने जानवरों के साथ यहां रहने के बाद घास काटने में लग जाएंगे जांसकर वाले--- जो बाकी के छह महीने जानवरों को खिलायी जा सकेगी।
फिरचे के बेस में शाम सात बजे के आस पास मौसम अचानक खराब होना शुरू हो गया। उससे पहले तक चमकती धूप को देखकर मौसम के इस तरह खराब हो जाने की कल्पना नहीं की जा सकती थी। बादल घिर गये। बिजली चमकने लगी। आश्चर्य जनक घटना देखने मे आयी, बिजली लगभग 15 से 20 सेकेण्ड तक चमकती थी लेकिन बिजली के चमकने के बाद जो सड़क सुनायी देती है, सुनायी नहीं दी। लगभग दो घन्टे तक मौसम ऐसे ही रहा थोड़ी थोड़ी देर बाद बिजली चमक जाती थी। इसी दौरान एक मजेदार दृश्य और लगा। यू तो हम जानते ही हैं कि सिंथेटिक कपड़ों में विद्युत आवे्श होता है। पर यहां जो विद्युत आवे्श पैदा हो रहा था उसकी बात ही और थी। हमारी उंगलियों के पोर जिस भी कपड़े पर या कैरिमेट पर जो कि सिंथेटिक ही थे हल्की सी रगड़ खाते वहां तेज रोच्चनी दिखायी देती। थोड़ी देर तक हम रो्शनी की नदी बहाते रहे।
अगले रोज जब फिरचे की ओर चलना शूरू हुए मौसम यू तो साफ ही लग रहा था पर धूप नहीं थी। विदेशी टीम के कुछ साथियों की तबियत खराब हो गयी थी इसलिए वे बेस में ही रूक गये ।हम कुछ ही दूर चले होंगे कि बूंदा-बांदी शुरू हो गयी। मौसम खराब होने लगा। फिरचे पर बर्फ नहीं--- पुरनै से डोक्सा तक आया एक व्यक्ति कह रहा था। पुरनै से यह व्यक्ति किसी विदेशी टीम से मिलने आया है यहां। विदेशी टीम डोक्सा पार की पहाडियों पर चोटियों में चढ़ने के अभियान में मशगूल है। इंग्लैण्ड से आयी यह टीम पुरनै में "विकास कार्य" करना चाहती है। इसी संबंध में पुरनै वाले इस व्यक्ति को यहां बुलाया गया था--- उसी ने बताया।
फिरचेन लम्बा पास है। यदि इस पर बर्फ हो तो शायद इसे पार न किया जा सके। यही वजह है फिरचेन ला ट्रैक का समय जुलाई के आखरी सप्ताह के आस पास रखा जाता है ताकि बर्फ कम हो जाए। भूल भुलैया वाले, तीखे धरों वाले इस पर बेस से टाप तक जाने में हमें पांच घंटे लगे। यह स्थिति तब है जबकि बर्फ किनारों पर ही है। बीच रास्ते में नहीं। यदि सारे मार्ग में बर्फ ही बर्फ हो तो अनुमान लगा सकते हैं कि कितना समय लगता। इसी लिए बर्फ के रहते इसे पार करने का जोखिम कोई नहीं उठाना चाहता। नीचे से ही जो मौसम खराब होना शुरू हुआ उपर आते आते तक बुरी तरह से बिगड़ चुका था। उपर बर्फ पड़ने लगी थी। कोहरा छा गया था । अपने से लगभग 20 मीटर की दूरी पर चल रहे साथी को भी हम देख नहीं पा रहे थे। यही कारण है कि टॉप पर पहुंचने से पहले उबड़ खाबड़ चढ़ाई भरे रास्ते पर मैं और मेरा साथी सतीश पीछे रह गए। हम लगभग 17500 फुट की ऊंचाई पर थे। सांस लेने में भी दित हो रही थी। हम दोनों से लगभग 20-30 मीटर आगे अनिल काला था जो अचानक ही दृश्य से गायब हो गया। कोहरा इतना घना हो गया कि कुछ भी दिखाई न दे रहा था। हमने उसे पुकारा तो कोई प्रत्युत्तर सुनाई न पड़ा। अनजानी आशांका न हमें घेर लिया। जोर-जोर से आवाज लगाकर हम अपने अदृश्य साथियों को पुकारने लगे। पुकारते रहे और आगे बढ़ते रहे। जमीन में हल्का गीलापन बिखरने लगा था। हम साथियों के पद चिह्न खोजने लगे। तभी हमें काला के जूतों के निशान और अन्य साथियों के जूते के निशान भी दिखाई दिये। किसी निर्जन में जूतों की छाप कैसी राहत देती है, इसे उस वक्त ज्यादा नजदीकी से महसूस कर सकते थे। जूतों की छाप से हम अपने साथी की तस्वीर गढ़ सकते थे। हमारे जूतों के तल्ले एक दूसरे साथी की निगाहों में हमारी तस्वीरें गढ़ते हैं। उन तल्लों की छाप पर ही हम आगे बढ़ने लगे। कुछ ही दूर चले होंगे कि छोरतेन में टंगे कपड़ों की झण्डियों की झलक दिखाई दी, फिर गायब। हमें विश्वास हो गया कि हम सही रास्ते पर हैं और टॉप के नजदीक पहुंच चुके हैं। टॉप के बारे में मेरी धारणा थी कि बौद्ध लोग टॉप में मौने और छोरतेन बनाते हैं, कपड़ों की झण्डियां लटकती रहती हैं। इसी धारणा के आधार पर हम टॉप की पहचान कर पाते हैं। नही तो फिरचे हर एक धार के बाद टॉप होने का भ्रम पैदा करता पास है। मौने के एकदम नजदीक पहुंचने पर हमने देखा कि हमारे बाकी साथी वहां पहले से पहुंचे हमारा इंतजार कर रहे हैं। बरसातियां हमने ओढ़ी हुई थी लेकिन पिट्ठु ही भीगने से बच पा रहे थे। पास पर तेज ठंडी हवा चल रही थी। पहने हुए कपड़े पूरी तरह से भीग चुके थे। बहती हुई ठंडी हवा में थोड़ी देर भी रूकने का मतलब था कि अपने भीतर की उर्जा को खत्म करना। लगभग 10 मिनट सांस लेने के बाद बरसाती ओढ़े हुए ही नीचे उतरना शुरू किया। नीचे काफी तेज ढलान थी। तेज धार वाली ढलान पर उतरते हुए घुटनों पर भारी बोझ पड़ रहा था। यदि इस पूरी ढलान पर बर्फ होती तो ज्यादा सचेत होकर उतरना पड़ता क्यों कि इसके साथ साथ ही गहरी खायी दिखायी दे रही थी। वैसे कोहरा घिरा होने की वजह से इस वक्त चलना बर्फ में चलने से ज्यादा कठिन था। फिरचे पर मौसम इतना खराब था कि फोटो नहीं खींचे जा सकते थे। सिर्फ दो चार मीटर के फासले पर ही हमारी आंख देख पाने में सक्षम थी फिर कैमरे की आंख से क्या देखा जा सकता था?
जिंकचेन से थोड़ा नजदीक ही रूके हम। फिरचे आकर्षित कर रहा है। खराब मौसम चुनौती है हमारे लिए जो भविष्य तक बनी रहेगी जब तक दूर तक फैले इस पास को जी भर कर न देख लें। फिर भी बर्फ से भरे फिरचे को पार करना तो हमारे लिए चुनौती बना ही रहेगा। बर्फ से भरे फिरचे की कल्पना मुझे और ज्यादा आकर्षित कर रही है। बर्फ से भरे इस पास पर भटकने और खाईयों में फंस जाने का भय मेरे अंदर सिहरन पैदा कर रहा है। जिंकचेन से आगे का मार्ग यूं हल्की चढ़ाई उतराई का ही है पर पहाड़ की वो धार जहां से जांसकर दिखायी देने लगता है वहां से एक दम नीचे सीधी उतराई उतरनी होगी। यूं कह सकते हैं हम इस वक्त तांग्जे की छत पर हैं जो लगभग 14000 फुट की उचांई पर होगी। जांसकर वैली के ज्यादातर गांव यहां से दिखायी दे रहे हैं। जैसे पीछे की ओर खीं, थांसो और सामने की ओर तांग्जे, कुरू, त्रेस्ता। लगभग 11500 से 12000 फुट की उचांई पर ही यह सारे गांव हैं। यहां से नीचे उतरने के लिए पथरीली चट्टान है। वासुकी ताल से केदार नाथ उतरते हुए तीखी ढलान है जैसी- उससे कहीं ज्यादा सीधी है यह चट्टान। यदि जांसकर घाटी की चट्टान से इसका ज्यामितिय कोण नापा जाए तो लगभग 80 डिग्री से कम नहीं होगा। वासुकी से केदार नाथ इतना सीधा नहीं। फिर वासुकी से नीचे उतरते हुए घास ही घास है। जिस पर उतरते हुए घुटनों में दर्द तो हो सकता है पर जान का उतना जोखिम नहीं जितना चहां दिखायी दे रहा है। यहां वनस्पति नाम की कोई चीज मौजूद नहीं है। पत्थर ही पत्थर हैं जो आपके पैर से फिसल कर नीचे उतरने वाले साथी के लिए भी खतरनाक हो सकते हैं। दृष्टि एकाग्रचित रहे, शरीर पर नियंत्रण रहे और कन्धों पर झूलते पिट्ठू को यदि पत्थरों पर टकराने से रोका जा सके तो ही उतरा जा सकता है। इतनी सावधानी के बाद भी कहीं कहीं चट्टानें इतनी लम्बी हैं कि पांव को नीचे लटका कर बड़ी ही सावधानी से कूदना पड़ रहा है। ऐसी ही अलग अलग जगह पर हम में से कोई न कोई फंसा ही है लेकिन जैसे तैसे एक दूसरे को दिच्चा और सहारा देते उतरते रहे। बांस की सीढ़ी में उतरते हैं जिस तरह कहीं कहीं तैसे ही चट्टान की ओर मुंह कर उतरना पड़ा। अभी तक के रास्तों में यह सबसे ज्यादा कठिन रास्ता है। अब जबकि तांग्जे एक दम नजदीक है। लगभग 2000 फुट नीचे इसी तरह उतरना पड़ा। इस रास्ते के अलावा हाल ही में तांग्जे वालों ने दूसरा रास्ता बनाया है जो कहीं और से जाता होगा, जिसके बारे में न तो हमें मालूम था और न ही नाम्बगिल को। नीचे उतरने के बाद एक बार निगाह ऊपर डाली तो आंखें फटी रह गयी। सीधी चट्टान जिससे उतरे हैं हम। ऊपर से ही जन जीवन का एहसास होने लगा था ऊपर के गांवों के आस पास जो हरियाली दिख रही थी, जिनमें एक लहर सी चलती हम देख रहे थे, वे गेंहू के खेत हैं।

Wednesday, January 6, 2010

और बुक हो गये उसके घोड़े- 4

 पिछले से जारी

चूंकि पानी नहीं है, इसलिए एक मात्र साधन है आगे बढ़ो। जहां पानी मिले वहीं पर लगायेंगे टैन्ट। धूप तेज पड़ रही है। नीचे से गर्म होती कंकरीट और मिट्टी हंटर शू के भीतर हमारे पावों को जला रही है। उपर से ठंड़ी हवा बह रही है जो हमारे चेहरे को फाड़ चुकी है। होठों पर और नाक पर कटाव के लाल लाल निशान है---कभी कभी पतला खून भी बह रहा है। धूल पूरे चेहरे और पिट्ठु पर जमा होती जा रही है। लगभग दस घन्टे चलने के बाद एक लम्बी दूरी तय कर पानी का पहला नाला मिला लेकिन जगह उबड़ खाबड़ थी। सो वहां से आगे बढ़ गये। गद्दी थांच है इसका नाम, जहां हम रूक गये। यह भेड़ वालों का दिया नाम है । शरीर बुरी तरह से थक चुका है। पानी न मिलने से थकान और भी ज्यादा बढ़ गयी। शाम के सात बज रहे हैं। सूरज अब भी चमक रहा है। यहां के पहाड़ों पर सूरज की पहली किरण सुबह 5.20 के आस पास ही दिखायी देती है और शाम के लगभग 7.20 तक चमकती रहती है। उसके बाद इतनी तेजी से डूब जाता है सूरज कि पन्द्रह मिनट पहले चमकती धूप को देखकर यह अन्दाजा लगाना मुश्किल होता है कि मात्र आधे घंटे बाद ही अंधेरा घिरने लगेगा।
गद्दी थांच से आगे तो पहाड़ी मरूस्थल बर्फीली हवाओं को फैलाता रहता है। खम्बराब नदी का तट हमारा पड़ाव होगा। यूं गद्दी थांच से आगे खम्बराब दरिया तक कई सारे नाले हैं। मगर दो तीन नालों में ही पिघलती बर्फ बह रही थी। खम्बराब को देखकर डर लगता था, कैसे कर पाएंगे पार। फिरचे से आती एक नदी यहां खम्बराब से मिल रही है। इन दोंनों नदियों के मिलन स्थल से पानी का बहाव तो उछाल मारता दिख रहा है।
नाम्बगिल से अपने घोड़ों को खम्बराब में डाल दिया। पानी में लहर खाते घोड़े आगे बढ़ रहे हैं। आगे की ओर बढ़ते हुए घोड़े लगातार छोटे होते जा रहे हैं। दूसरे किनारे तक पहुंचते हुए गर्दन और पीठ पर लदा सामान भर ही दिखायी दे रहा था। घोड़ों की पीठ पर लदे सामान के किट भी आधा पानी से भीग गये। दरिया में बहते पानी को छुआ, वही चाकू की धार। बदन में सिहरन सी उटी। कैसे कर पायेंगें पार। क्या हाल होगा पांवों का इस ठंडे पानी में। मित्रों का कहना है हमें जूते नहीं उतारने चाहिए। पानी के ठंडे पन को पांवों के तलवे झेल नहीं पायेंगें ओर थोड़ी सी असावधानी भी किसी बड़ी दुर्घटना में बदल सकती है। घोड़ों को खम्बराब में डाल नाम्बगिल ने वाकई जोखिम उठाया था, अब नाम्बगिल पानी में उतर गया। बदन को संभालते हुए वह आगे बढ़ने लगा। दूसरा किनारा पकड़ते वक्त मात्र धड़ से उपर का हिस्सा ही दिख रहा था। इसका मतलब है उस किनारे पर गहराई और भी ज्यादा है । जूते पहने हुए ही हम पांचों साथी एक दूसरे के सहारे खम्बराब में उतर गये। थोड़ा आगे बढ़ने पर पांव मानो सुन्न हो रहे थे। पानी का बहाव इतना तेज था कि संभलने नहीं दे रहा था। संतुलन को बनाये रखते हुए एक दूसरे को हिम्मत बंधाते हम आगे बढ़े। दूसरी ओर खड़ा नाम्बगिल अपने हाथों को आगे बढ़ाये , किनारे पहुंचते हम लागों को सहारा देता रहा। दरिया पार करने पर सारे कपड़े भीग गये थे। पांव एक दम सुन्न हो गये थे। जूते उतारने में बेहद कठिनाई हुई। खैर, जैसे तैसे जूते उतार कर पांवों के तलवों को मसल कर गरमी देते रहे। ट्रैक सूट का लाअर भीग चुका था। धूप तेज थी और हवा भी चल रही थी । लगभग आधे घंटे के बाद लोअर के सूखने का आभास होने लगा। नदी पार कैम्प गाड़ दिया गया। दो नदियों के बीच यह छोटा सा कैम्पिंग ग्राउंड बर्फिली चोटियों के एकदम नजदीक है। कैम्पिंग ग्राउंड से पश्चिम दिशा की ओर दिखायी देती बर्फिली चोटी शायद खम्बराब पीक हो। फिरचेन ला की ओर जाने वाला रास्ता उस नदी के किनारे किनारे है जो यहां खम्बराब दरिया से मिल रही है । कैम्पिंग ग्राउंड के आस पास साफ पानी का कोई भी स्रोत नहीं। खम्बराब में रेत ही रेत बह कर आ रहा है। जिसे खाना बनाने के लिए छानकर इस्तेमाल करना है। तब भी रेत तो पेट में पहुंचेगा ही। साफ पीये जाने वाले पानी के लिए नाम्बगिल और अमर सिंह तलाश में निकले। लगभग दो घन्टे के बाद एक एक लीटर की दो बोतलें भरकर लौटे। साफ पानी का स्रोत आस पास कहीं नहीं था। दूसरी नदी के किनारे काफी दूर जाकर साफ पानी मिला।
खम्बराब दरिया में जो दूसरा दरिया मिल रहा है, छुमिग मारपो से होता हुआ हमें फिरचेन ला के बेस तक ले जाएगा। दरिया के दांये किनारे से हम आगे बढ़ते रहे। लगभग दो घंटे की यात्रा करने के बाद जाना, दरिया के इस पार के पहाड़ पर चलते हुए आगे नहीं बढ़ा जा सकता । दरिया पार करना ही होगा। पानी यहां भी कम नहीं लेकिन खम्बराब से कम ही है। यूं अभी सुबह के दस बज रहे हैं। खम्बराब को जब पार किया उस वक्त दिन के बारह बज रहे थे। हो सकता है उस समय तक इसमें भी पानी का बहाव पार किये गये दरिया के बराबर हो जाये। पहाड़ों नदी नालों की एक खास विशेषता है कि इन्हें सुबह जितना जल्दी पार करना आसान होगा उतना दिन बढ़ते बढ़ते मुश्किल होता जायेगा। शाम को किसी नाले को पार करना भी आसान नहीं होता। यही वजह है कि गद्दी थांच से खम्बराब पहुंचने के लिए हमें सुबह जल्दी चलना पड़ा था। ताकि जितना जल्दी हो खम्बराब को पार कर लें। दो बजे के बाद तो खम्बराब में बहता पानी दहश्त पैदा करने वाला था। फिरचेन ला के बेस की तरफ तक आते इस दरिया का हमने पार किया। पार होने के बाद पांवों के तलवों को गरम कर आगे बढ़ने लगे। अब दरिया हमारे दांये हाथ पर, रास्ता चढ़ाई भरा है। बहुत कम जगह है पहाड़ में। जगह जगह पिट्ठु के पहाड़ के टकराने का खतरा मौजूद है। हल्की संगीत लहरियों सी कदम ताल भर ही है हमारे आगे बढ़ने की। लगभग एक घन्टे का सफर तय कर वही लम्बा मैदान नजर आ रहा है जैसा कैलांग सराय से आगे बढ़ते हुए दिखायी देता रहा। यहां स आगे दूर तक देखने पर ऐसा लगता है जैसे आगे कोई रास्ता नहीं । दूर जा पहाड़ की दीवार दिख रही है बस वहीं तक हो मानो रास्ता, पीछे जहां से आ रहे हैं उधर देख कर भी ऐसा लग रहा है मानो वहां भी कोई रास्ता न हो। यूं पहाड़ में ऐसे दृ्श्य बनते ही है पर इधर लद्दाख के पहाड़ों में यह दृश्य आम बात है। हर एक धार के बाद ऐसा लगता है जैसे किसी डिबिया में बन्द हो गये हैं। इन पहाड़ों पर आगे बढ़ने वाला ही जान सकता है आगे का रास्ता जो कहीं खत्म नहीं होता। यदि यूंही आगे बढ़ा जाए तो नापा जा सकता है दुनिया को जो आज सीमाओं में बंटी है। राहुल सांकृतयायन तो पहाड़ों को पार कर तिब्बत तक गये ही थे।       
फिरचे के बेस की तरफ बढ़ते हुए इन लम्बे मैदानों में भी पानी नहीं है। ''फिरचे के बेस में तांग्जे वालों का डोक्सा होगा।" बताता है नाम्बगिल। वहां पानी का स्रोत भी होगा ही। कारगियाक वालों का डोक्सा है शिंगकुन ला के बेस पर। तीन महीने तक अपने जानवरों के साथ डोक्सा में ही रहते है जांसकर वाले। बच्चे भी होते ही है उनके साथ।

फिरचे के बेस पर जो तांग्जे वालों का डोक्सा है, वहां तांग्जे वाले अपनी चौरू और याक के साथ मौजूद हैं। जांसकरी बच्चे घोड़ों पर सवारी कर रहे हैं। पहुंची हुई टीम के नजदीक टाफी रूपी मिठाई की उम्मीद लगाए जांसकरी बच्चे पहुंच रहे हैं। आठ-आठ, दस-दस साल के ये बच्चे, जिनमें लड़कियां ज्यादा हैं, चिल्लाते हुए, घोड़ों की पीठ पर उछल रहे हैं। ''जूले !! आच्चे बों-बोम्बे।" पिट्ठु के बहार निकाली टाफियां बच्चों को बांट दी गयी हैं। बड़ी ही उत्सुकता से बच्चे एक-एक चीज का निरक्षण कर रहे हैं। उन्हीं के बीच नाम्बगिल दोरजे का भांजा दस वर्षीय जांसकरी बालक गोम्पेल भी है। नाम्बगिल उनका अपना है। जांसकरी भाषा में वे नाम्बगिल से बातें कर रहे हैं। नाम्बगिल हमारे साथ हैं, इसलिए हमारे साथ भी उनकी नजदीकी दिखायी दे रही है। विदेशी टीम जो हमारे साथ केलांग सराय से चल रही है। उनके नजदीक जाने में बच्चे हिचक रहे हैं। नाम्बगिल के कहने पर गोम्पेल डोक्सा से दूध और दही पहुंचा गया है हमारे पास। दही का स्वाद अच्छा है। चौरू गाय की दूध की चाय पहली बार पी हमने।

जारी  ---

Monday, December 28, 2009

और बुक हो गये उसके घोड़े-3

पिछले से जारी

दारचा पुलिस चैकपोस्ट के ठीक सामने, उत्तर-पूर्व दिशा की ओर मुलकिला (पहाड़ की चोटी) झांक रही है। दारचा-केलांग रोड़ के किनारे काले-भूरे बड़े-बड़े पत्थरों का बिखरा होना गवाह है कि कभी सड़क के दक्षिण दिशा की ओर वाले पहाड़ के खिसकने से ही उनका जमावड़ा हुआ है। दारचा वाले बताते हैं कभी इस जगह पर गांव था जो पत्थरों के इस ढेर के नीचे दफ़न हो गया। यह बात कितने वर्ष पुरानी है, ठीक से मालूम नहीं। बस कहानी भर है पहाड़ के खिसकने की। वैसे नदी के किनारे बिखरे पड़े पत्थरों के ढेर को देख कर माना जा सकता है कि कहानी या दंत कथा नहीं सचमुच कोई इतिहास इसके नीचे दबा है। लेह से लद्दाख आते वक्त दारचा पहुंचने पर आनन्द जी के नाम लिखे गए अपने 2/10/1933 के एक पत्र में राहुल सांकृत्यायन भी जिक्र करते हैं इन पत्थरों के ढेर का,
''दारचा के पास बिखरी छोटी बड़ी चट्टानों का ढेर, जिस पर कहीं कहीं एक-आध देवदार के वृक्ष भी खड़े थे---बहुत समय पहले इसी स्थान पर एक बड़ा सा गांव था। जिसमें सैकड़ों घर थे। एक दिन गांव के सारे लोग एकत्रित हो भोज कर रहे थे, उसी समस बड़ेलाचा की ओर से कोई वृद्ध आया, साधारण भोटिया समान। सभी लोगों ने उसका तिरस्कार कर पॉति के नीचे की ओर कर दिया। सबसे अंत में एक लड़का बैठा था, उसने बूढ़े को अपना आसन दे, अपने से पहले स्थान पर बैठाया। भोज और छंड; के बाद वृद्ध अर्न्तध्यान हो गया। लोगों ने नाच रंग शुरु किया। इसी इसी समय एक भारी तूफान आया, जिसके साथ लाखों भारी-भारी चट्टानें पहाड़ से गिरने लगीं, सारा गांव उनके अन्दर दब गया। तूफान ने उस लड़के को दरिया के पार कर दिया, जिसकी संतान अब भी वहां मौजूद है और शायद "ऐतिहासिक घटना" भी उसी की परम्परा से सुनी गयी।"

यूं पहाड़ के गिरने का कारण क्या रहा होगा, यह शोध का विषय हो सकता है पर इस कहानी से इस बात की पुष्टी तो होती ही है कि जरूर ही यहां कोई गांव रहा होगा जो मलबे के नीचे दबा है। देवदार के वृक्ष तो हमने नहीं देखे। पत्थरों पर अन्य किसी वनस्पति का चिह्न भी हमें दिखाई न दिया।
कारगियाक गांव का 25 वर्षीय युवा नाम्बगिल दोरजे हमारे साथ अपने घोड़ों को लेकर चलने के लिए तैयार हो गया। फिरचेन लॉ के रास्ते जांसकर जाने के लिए ज्यादातर घोड़े वालों ने मना कर दिया था। वे रास्ते में पड़ने वाले उस दरिया, जिसको भीतर उतर कर ही पार करना होता है, से भयभीत थे। दरिया का बहाव घोड़ों से हाथ धोने के लिए काफी है वहां, वे कहते रहे। नाम्बगिल दिलेर मालूम हुआ। बिना किसी हिचकिचाहट के उसने जाना स्वीकार कर लिया। अब हम पांच और नाम्बगिल को मिलाकर कुल छै के छै रास्ते की दुरुहता से अनजान दारचा से आगे निकल लिए- बारालाचा की ओर। केलांग सराय से शुरु होगा फिरचे जाने का रास्ता।

बारालाचा से नीचे भरतपुर, जहां टैन्ट होटल है, वहां से आगे बढ़ते हुए युनम नदी पर जहां लकड़ी का पुल है, वही केलांग सराय है। लेह मार्ग को दांहे किनारे छोड़ युनम नदी के साथ-साथ कुछ ही दूर बढ़े थे कि कैम्पिंग ग्राउंड दिखाई दे गया। यूं कैम्पिंग ग्राउंड तो केलांग सराय पर भी है। पर बस रोड़ के एकदम किनारे रुकना ठीक न लगा। ग्राउंड में इंग्लैण्ड से आए स्कूली बच्चों की एक टीम भी रुकी थी। पहुंचने पर मालूम हुआ कि हमसे एक दिन पहले ही वे यहां पहुंच गए थे। टीम में कुल 13 बच्चे हैं, सभी लड़कियां, उम्र 16 से 20 वर्ष के आस-पास। एक अध्यापिका और एक ब्रिटिश फौजी अफसर के साथ वे सभी बच्चे जांसकर की यात्रा पर हैं। केलांग सराय पहुंचने तक उनका स्वास्थय बिगड़ने लगा। तीन लड़कियों की तबीयत कुछ ज्यादा ही बिगड़ गई। इसीलिए वे अपनी अध्यापिका के साथ मनाली वापिस लौट जाएंगी। बचे रह गए बच्चे फौजी अफसर के साथ-साथ हमारे ही साथ अगले दिन फिरचेन लॉ को निकलेंगे और फिरचेन लॉ पार करने के बाद वे सिंगोला की ओर मुड़ जाएंगे जांसकर पहुंचने के लिए और हम तांग्जे से होते हुए उनके विपरीत दिशा में पदुम की ओर निकल जाएंगे। 15 सदस्य इस दल के साथ 20 घोड़े, मानली के आस-पास के गांव के चार घोड़े वाले, एक गाईड और एक कुक भी है।
कैम्पिंग ग्राउंड खूबसूरत है। सामने बहती हुई युनम नदी है। नदी पार लेह मार्ग और ऊंची- ऊंची चोटियां। भूरे काले रंग के पहाड़। इधर कैम्पिंग ग्राउंड के से ही उठना हो गई है चोटियां, जिन पर बर्फ जमी है। दोनों बाहों की ओर भी है चोटियां। उन पर भी बर्फ ही बर्फ। कुल मिलाकर बर्फ, पत्थर और रेतीली मिट्टी का साम्राज्य ही बिखरा पड़ा है चारों ओर। बीच में नदी है। टैन्ट के आस-पास कुछ छोटी-छोटी घास है, जिसे घोड़े चर रहे हैं। घोड़ा भी अजीब जानवर है। इसे कभी आराम करते नहीं देखा। या तो घास  चरता होगा या फिर पीठ पर बोझा लादे हमारे साथ चलता हुआ। हां, बोझे के उतरते ही एक बार ज़मीन दो तीन करवट लौटेगा और फिर बदन को झाड़कर आस पास के हरे तिर्ण पर मुंह चलाने लगेगा। मालूम नहीं यह जगह घोड़ों को भी उनकी थकान मिटाने वाली लग रही है या नहीं ?
केलांग सराय जिसे हम पीछे छोड़ आए, वहां से सर्चू 19 किमी दूर है। इधर हमें लगभग सर्चू के पास तक आगे बढ़ना है। पश्चिम दिशा की ओर मुड़ जाना है फिरचेन ला के लिए। बर्फीली हवाएं तेज बह रही हैं। हमारे गाल और होंठ जो दारचा में ही फटना शुरु हो गए थे, काफी फट चुके हैं। अब पानी में हाथ लगाना भी आसान नहीं है। युनम नदी में हाथ पांव धोने से पहले जेब में रखे रुमाल को धोने की गलती कर बैठा, ऐसा लगा किसी तेज चाकू की धार के नीचे हो हाथ। ठंडापन ऐसा कि तेज धार चाकू को भी मात कर रहा था। हाथ को तेजी से बाहर निकाल झटकता और मसलता ही रहा कि किसी कटे हुए घाव की सी चिरचिराहट खत्म होने का नाम ही न ले रही थी। ठंड में सिहरन होती है, यह कहना तो कतई सही नहीं लग रहा, कहूंगा की तेज चाकू की धार होती है। आगे ऐसी गलती न करुं शायद कभी भी।
केलांग सराय से आगे जाते हुए जाना कि पहाड़ी मरुस्थल क्या होता है। एकदम लाल-काली चट्टानें, जिनके नीचे तक लुढ़क कर आए हुए हैं पत्थर। उसके बाद रेतनुमा मिट्टी और उसी मिट्टी पर छितरातई हुई हल्की घास। केलांग सराय से आगे का पहाड़ी मरूस्थल तो पहाड़ के प्रति हमारी कल्पनाओं को पूरी तरह से ध्वस्त कर रहा है। एकदम सूखे पहाड़। लम्बे-लम्बे धूल भरे घास के मैदान। पानी का कहीं नामों निशान नहीं। प्यास के कारण गले सूखने लगे हैं। दारचा से सिंगोला पास वाले रास्ते पर भी यूं तो पहाड़ों पर सूखापन इसी तरह बिखरा रहता है पर उस रास्ते में पानी के लिए ऐसे तड़पना नहीं पड़ता। बड़े-बड़े बोल्डरों भरे उस रास्ते पर ऊपर से उतरते दरिया भी स्वच्छ पानी के साथ होते हैं। इस रास्ते पर उस तरह बोल्डरों भरा नजारा तो नहीं, सममतल ही है पर पानी कहीं दिखाई नहीं दे रहा है। गदि्दयों के बसेरों के आस-पास पानी के स्रोत होने चाहिए, इस उम्मीद में कितने ही उजाड़ पड़े बसेरों के आस-पास को छानते हुए बढ़ रहे हैं। पर अंजुली के गीलेपन के लिए भी पानी कहीं नहीं। घास के लम्बे मैदानों में टैन्ट तो कहीं भी लगाया जा सकता है पर पानी का स्रोत कहीं मौजूद नहीं तो फिर कैसे तय करें रुकने का। ऊपर पहाड़ों पर भी बर्फ कम ही दिखाई दे रही है। नाले सूखे पड़ें हैं। जगह-जगह सूखे नालों को देखकर लगता है कि जब पहाड़ों के सिर बर्फ से ढके रहते होंगे तो इस रास्ते से गुजरना आसान न होता होगा। जगह-जगह विभिन्न समय अंतरालों मे लगे कैम्पों के अवशेष दिखाई पड़ रहे हैं। ये गदि्दयों के बसेरे हैं। नाम्बगिल का कहना है इस बार बर्फ कम पड़ी बल्कि पिछले तीन-चार वर्षों से कम ही पड़ रही है। 1992 में जब हमारे कुछ साथी रोहतांग से बारालाचा की यात्रा पर थे, जून के दूसरे सप्ताह में यात्रा शुरु की थी, बर्फ इतनी ज्यादा थी कि तब तक रोहतंग खुला नहीं था। वह तो खुशकिश्मती समझो कि ऊपर से नीचे की ओर देखते हुए दूर सूरज ताल से निकलती नदी के किनारे-किनारे सड़क की झलक दिखाई दे गई थी, वरना उस वक्त तो वे बारालाचा के उस बर्फिले विस्तार में रास्ता भटक ही गए थे। अनाज भी, जो तय दिनों के हिसाब से रखा गया था, खत्म हो चुका था। बल्कि एक दिन पहले ही रास्ता खोजने में निबटा चुके थे। इस वर्ष तो मई में ही खुल गया था रोहतांग। 1997 में भी जब सिंगोला पास को पार कर रहे थे तब भी जांसकर सुमदो पार कर छुमिग मारपो की ओर बढ़ते हुए सिंगोला से काफी पहले ही मिल गई थी बर्फ। लेकिन इस साल तो बर्फ का वो नजारा दिख ही नहीं रहा। बारालाचा भी पत्थरों पर टकराती धूप को ही बिखेर रहा था।

जारी---

Thursday, December 24, 2009

और बुक हो गये उसके घोड़े-2

पिछले से जारी


मनाली में सैलानी गायब हैं इस समय। इसलिए ज्यादातर होटल और दुकानदार खाली हैं। कुछ दुकानें तो बेवजह खोले जाने से बचते हुए बन्द ही हैं। बस स्टैंड पर ही ट्रैकिंग टीमों की तलाश करते जांसकरी घोड़े वाले और फ्रीलांसर गाईड घूमते देखे जा सकते हैं। कुल्लू से कोठी तक की लम्बी पट्टी पर सेबों से पेड़ लदे पड़े हैं। हमारे लौटने तक शायद तुड़ान शुरू हो जाये। फिर सेब के व्यापारी ही मनाली वालों के लिए यात्री होगें। उसके बाद 15 अगस्त के आस पास शुरू होगा सैलानियों का आना जाना। जुलाई को छोड़ मई, जून और सितम्बर, अक्टूबर तक ही सैलानी पहुंचते हैं मनाली। जुलाई के महीने में तिब्बती बाजारों में कैरम बोर्ड या फिर ताश के पत्तों में उलझे रहते हैं दुकानदार। 15 जुलाई को शुरू हुई भारत पाकिस्तान वार्ता के प्रति किसी तरह की कोई उत्सुकता यहां मौजूद नहीं। ऐसे किसी भी विषय पर कोई लम्बी बातचीत करने वाला व्यक्ति मुझे नहीं मिला। हां ट्रैक के वि्षय में बात करनी हो तो ढ़ेरों ट्रैव्लिंग एजेन्ट हैं, एजेन्सियां हैं। तेन्जिंग नेगी जो कि एक ट्रैव्लिंग एजेन्ट है, लामायुरु का रहने वाला है, का मानना है कि '' लेह लद्दाख के लोगों को हिमाचल से मिलने में फायदा है। ट्यूरिज्म के विकास को ध्यान में रखते हुए ऐसा किया जा सकता है। ''तांख'' से ''हमिश'' तक एक बेहतरीन ट्रैक रूट है। जो बरांडी नाला से शुरू किया जा सकता है। मार्का/मार्खा वैली में पड़ने वाले इस ट्रैक में हरापन भी देखने को मिल सकता है। उधर के पहाड़ जांसकर की तरह सूखे पहाड़ नहीं हैं।'' तेन्जिंग का कहना है। रोहतांग के बाद बारिश नहीं है। लाहुल वाले बोयी गयी मटर की फसल के लिए पानी का इंतजार कर रहे हैं। अगले रोज यहां से निकलेगें तो जान पाएंगे रोहतांग पार की असली स्थिति।

  रोहतांग पर नहीं है बर्फ। रोहतांग और मनाली के बीच मड़ी से ही शुरू हो गयी थी जगह-जगह बिखरे कचरे की गली। भारतीय सैलानी ज्यादा से ज्यादा मनाली, शिमला, नैनीताल, मसूरी तक ही पहुंचते हैं। कुछ हैं जो लेह तक भी हो आते हैं। यानि कुल मिलाकर ज्यादातर उन स्थानों पर देखे जा सकते हैं जहां बस से लेकर होटल तक की सुविधा आसानी से उपलब्ध हो। बाकी दूर- दराज के जन-जीवन तक पहुंचने वाले कम ही हैं जो थोड़ा जोखिम उठाकर पहुंचते हैं। रोहतांग: लेह रोड़ पर पड़ने वाला पहला पास। पहला दर्रा। मनाली तक आने वालों की ऐशगाह भी है। जून के पहले सप्ताह के आस पास ही अक्सर रोहतांग खुल जाता है और लेह तक की यात्रायें शुरू हो पाती हैं। मनाली में आने वाले यात्री अक्सर रोहतांग तक पहुंचते ही हैं। कुछ देर बर्फ में लोटने के बाद लौट जाते मनाली। पेप्सी और कोकाकोला की बोतलों से लेकर टीन, रैफल के पैकट, नमकीन आदि के रेपर ही चमक रहे हैं इस वक्त। बर्फ नहीं है। व्यास गुफा भी साफ दिखायी दे रही है। सुनते हैं पांडवों के स्वर्गारोहण के समय द्रोपदी ने यही देह त्यागी थी। रोहतांग को मुर्दों का किला भी कहा जाता है। जब राहुल गुजरे थे यहां से, सड़क नहीं थी। कैसा कठिन रहा होगा यह मार्ग राहुल से ही जाना जा सकता है। रोहतांग के पार नहीं है बारिश। कोकसर से ही शुरू हो गये थे मटर के खेत जो पिघलते बर्फिले नालों के दम पर लह-लहा रहे हैं। रोहतांग से नीचे ग्राम्फू है जहां से बातल होकर चन्द्रताल को रास्ता जाता है। सुनते हैं चन्द्रताल तक जीप जाने लगी है। ग्राम्फू से बातल तक का बस मार्ग बन्द है। कोई नाला था जिसने तोड़ दिया है रास्ता। बातल जाने वाले यात्री कोकसर आकर रूक रहे हैं। चन्द्रताल खूबसूरत झील है, बताता है मेरा मित्र विमल। चन्द्रताल के दो विपरीत दिशाओं से निकलती है दो नदियां। एक ओर से चन्द्रा और दूसरी ओर से भागा। भागा दारचा से होती हुई केलांग से इधर तांबी में चन्द्रा से मिल रही है। यहां से चन्द्रभागा बढ़ती है पटन घाटी में --- यही चिनाब है।
    यहां लाहुल में नकदी फसल ही उगाते हैं लोग--- मटर और आलू से होने वाली आय से ही खरीदा जाता है अनाज। रोहतांग के बन्द होने पर कटे रहते हैं लाहुल वाले मनाली से। रोहतांग के नीचे यहां कोकसर से जिस्पा तक देखी जा सकती है हरियाली पहाड़ों की तलहटी पर। ऊपर के पहाड़ पत्थरीली भूरी मिट्टी के हैं और ऊपर है बर्फ। जिस्पा से लगभग सात किमी आगे दारचा है। जिस्पा और दारचा के बीच सूखे पहाड़ों का बहुत नजदीक खिसक आने का क्रम जैसे शुरू हो चुका है। यूं दारचा के आसपास हरियाली देखी जा सकती है। जांसकर घाटी में जाने वाले विदेशी यात्रियों की एक न एक टीम दारचा में हर दिन देखने को मिल सकती है, इन तीन महीनों में। छोटे-छोटे ढ़ाबे, शराब का ठेका, पुलिस चैक पोस्ट और घोड़े वालों को मिलाकर एक हलचल भरी दुनिया है दारचा में। दारचा बाजार के साथ होकर बहने वाली नदी पर दो पुल हैं। यूं पहला पुल आज की तारीख में अप्रासंगिक हो गया है नदी के बदले बहाव के कारण। 1997 में जब शिंगकुन ला को पार करते हुए जा रहे थे जांसकर में, दारचा में ही रूकना हुआ था। नदी का बहाव उस वक्त आज जहां है वहां से थोड़ा दक्षिण दिच्चा की ओर था। नदी के उत्तर दिच्चा पर हमने टैन्ट लगाया था। तब हम आठ लोग थे। अभी पांच हैं। अनिल काला और अमर सिंह इस बार पहली बार जा रहे हैं। मैं, विमल और सतीश पहले दूसरे साथियों के साथ भी जा चुके हैं जांसकर। यही वजह है कि हम तीन और हमारे बाकी के दोनों साथियों की कल्पना जांसकर के बारे में मेल नहीं खा रही है। पहाड़ हो और जंगल न हो, वनस्पति न हो, सिर्फ पत्थर और मिट्टी बिखरी पड़ी हो, हमारे द्वारा दिखायी जा रही जांसकर से लेकर लेह लद्दाख तक की इस तस्वीर से सहमत नहीं हो पा रहे हैं हमारे साथी। फिर भी रोहतांग के बाद से यहां तक के पहाड़ों ने उनकी कल्पनाओं के पहाड़ो को तोड़ना शुरू किया है। उस वक्त दारचा में इतनी दुकानें नहीं थी। शराब का ठेका तो था ही नहीं। ''अपना ढाबा"" जिसमें रुके हुए हैं, तब भी था पर तब उसका नामकरण न हुआ था। वही एक मात्र था तब। आज तो दो एक और भी खुल गए हैं। अब टैन्ट लगाने के लिए जगह बची नहीं है। नदी के उत्तर में जो थोड़ी सी जगह है वहां पर एक विदेशी सैलानियों की टीम टैन्ट गाड़े बैठी है। दुकानों के पीछे, नदी के किनारे किनारे की जगह टैन्ट कालोनी से घिरी हुई है। थोड़ी सी खाली जगह पर जांसकरी घोड़े वालों के टैन्ट लगे हैं- सैलानियों की इंतजार में है वे।  97 में इस तरह सैलानियों का इंतजार करते नहीं मिले थे जांसकरी।

कुल्लू-रारिक पहुंचने वाली बस जैसे ही दारचा पहुंचने को होती है तो रास्ते के पड़ाव जिस्पा से ही बस में चढ़ जाते हैं जांसकरी घोड़े वाले कि आने वाली टीम शायद उनके घोड़े बुक कर ले। बस के दारचा पहुंचते ही तो जैसे रौनक सी आ जाती है दारचा में। यह तुरन्त नहीं बल्कि वहां कम से कम एक दिन रुकने के बाद ही जाना जा सकता है। सुबह के वक्त न जाने कहां गायब हो जाते हैं जांसकर घोड़े वाले भी। शायद घोड़ो के साथ ही चले जाते होंगे ऊपर, बहुत दूर। शाम होते-होते दुकानों के आस-पास भीड़ दिखाई देने लगती है। दारचा पहुंचती बस के ऊपर यदि यात्रियों के पिट्ठू चमक रहे हों तो जैसे जीवन्त हो उठता है दारचा। दुकान वाले, घोड़े वाले और यूंही दारचा के उस छोटे से बाजार में घूम रहे दारचा वासियों की निगाहों में उत्सुकता की बहुत मासूम सी हंसी जुबान से जूले-जूले की भाषा में फूटने लगती है। जांसकरी घोड़े वाले खुद ही बस की छत पर चढ़कर सामान उतरवाने लग जाते हैं- इस लालच में कि शायद बुकिंग उन्हें ही मिल जाए। लेकिन ये जानकर कि पार्टी तो पीछे से ही बुक है, मायूस हो जाते हैं जांसकरी। उनके जांसकर में जाने वाले यात्रियों को जांसकर तक पहुंचाने वाले न जाने कहां-कहां बैठे हैं, हैरान हैं जांसकरी। हमारी तरह के कुछ अनिश्चित यात्री पहुंचते हैं दारचा। वरना दिल्ली, कलकत्ता, बम्बई और बड़े-बड़े महानगरों में नक्शा बिछाए बैठे हैं ऐजेन्ट। फिर भी जांसकरी उम्मीद में है कि उनके घोड़े भी बुक होंगे ही। घोड़ा यूनियन वालों की पैनी निगाहें हैं जांसकरियों पर---कहीं कोई जांसकरी बिना पर्ची कटाये ही न निकल जाए पार्टी को लेकर। एक घोड़े पर 10 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से कटेगी पर्ची।


जारी---