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Thursday, May 24, 2012

ब्या-काज के वे दिन

हिन्दी का रचनात्मक साहित्य ज्यादातर आपसी संबंधों या एक हद तक राजनैतिक आर्थिक ताने बाने के इर्द गिर्द ही सामाजिक सवालों का लेखा जोखा संजाये है। विज्ञान, खेल-कूद, शाखा दर शाखा बढ़ती ज्ञान विज्ञान की स्थिति के साथ-साथ बदलती हुई तकनीकी स्थितियां, जैसे इतर विषय हिन्दी लेखन के दायरे से बहुधा बाहर ही दिखायी देते हैं। विषयगत शुद्ध लेखन की अनुपस्थिति तो पूरी तरह देखी जा सकती है। शुद्ध साहित्य के अलावा किसी भी अन्य विषय की मौलिक पुस्तक ही नहीं, छोटे-मोटे आलेख भी मुश्किल से दिखायी देते हैं। मामले के विश्लेषण पर औपनिवेशिक मानसिकता से जकड़े समाज को दर किनार नहीं किया जा सकता लेकिन साथ ही साथ लम्बे समय से अपने प्रभाव का विस्तार करती बाजारू संस्कृति के आरोपित प्रभाव को भी चिहि्नत किया ही जा सकता है। देश का मध्यवर्ग इस आरोपित प्रभाव की जद में पूरी तरह से है। बल्कि इसे यूं कहा जाये जीवन मूल्यों के आदर्श और गढ़ी जा रही नैतिकतायें भी इसी केे दायरे में तय कर रहा है। समझा जा सकता है कि इसी कारण उच्च शिक्षा का माध्यम सिर्फ अंग्रेजी ही दिखायी देता है। देवेंद्र मेवाड़ी हिन्दी के ऐसे लेखक हैं जिन्होंने विज्ञान विषय को गल्प में शामिल करते हुए अपनी सक्रिय भागीदारी की है। बल्कि कहें सकते हैं कि हिन्दी में विज्ञान लेखन पर सक्रिय चंद रचनाकारों में वे शुमार है। अभी प्रस्तुत है उनका एक बेहद आत्मीय संस्मरण।
-वि.गौ.

  देवेंद्र मेवाड़ी
dsmewari@rediffmail.com,
dmewari@yahoo.com
 
किन---कि---क्यान् क्यान् क्यान्
घि---घ्यान्---घ्यान् घ्यान्
कि---क्यान् क्यान् क्यान्---
घि---घ्यान्---घ्यान्---घ्यान्

दूर किसी धार या मोड़ से आती हुई बाजे-गाजे की यह आवाज सुनते ही हम खाना छोड़ कर भागते हुए बाहर बट्या (सड़क)में आ जाते थे और सिर घुमा कर आवाज की दिशा में देखने लगते थे। हमारी आंख बर्यात देखने को बेचैन हो जाती थीं। कान बाजा की आवाज पर लगे रहते थे। 
तभी दूर से तूरी की आवाज आती---धूह्णह्ण तु  तु  तु तूह्णह्णह्ण हमारी उत्सुकता और बढ़ जाती। पंजा पर उचक-उचक कर उस तरफ देखते। बीच-बीच में हवा में शंख की लंबी आवाज गूंजती---पूह्णह्णह्णह्!
फिर अचानक धार के मोड़ से बारात निकल आती। ढोल-नंगारा की आवाज तेज हो जाती>---
किन---किन्---किन्---कि---किन्---किन्---किन्
घि---घ्यान्---घ्यान्---घ्यान!
घि---घ्यान्---घ्यान्---घ्यान!
ढोल-नगाड़े जैसे अपनी आवाज में बोल कर बताते थे-लो, हम ले आए हैं बरात। 
धीरे-धीरे बर्यात और नजदीक आ जाती। रंगीन छाता ओढ़े ब्यौला दिखाई देने लगता।
हमारी बाखली से भी कई बर्यात गईं। कई बर्यात बाखली में आईं। ददाओं की बर्यात जाती थी और वे ब्योली (दुल्हन) लेकर आते थे। जो बर्यात हमारे यहां आती थीं, वे किसी दीदी-बैनी को ब्योली बना कर ले जाते थे। दीदिया और बैनिया के जाने पर हम बहुत बुरा लगता था। लेकिन, ददाओं की बर्यात में सब खुश रहते थे।
बर्यात का दिन तय हो जाने पर ज्वेशिज्यू एक दिन पहले आकर हम बच्चों से गाय का गोबर, दूब और धूप देने के लिए "पाती" मंगाते। वैसे तो उसे "कुर्ज" कहते थे, लेकिन ब्या-काज और पूजा-पाठ में धूप देने के लिए पाती कहते थे। उसकी पत्तिया को घी में लटपटा कर जलते कोयलों पर रख देते। धूप का सुगंधित धुवां चारा ओर फैल जाता। कलश थापन करके, दिया जलाते, गणेश पूजा करते और वर के दांए हाथ की कलाई पर हल्दी रंग के पीले कपड़े में पिठियां, अक्षत और भेट (सिक्के) रख कर कंगन बांध देते।
घर में इष्ट-बिरादर आने लगते। दो-तीन लोग "पातों" (पत्तियों) के लिए भेज दिए जाते। वे सुबह ही गांव के पहाड़ के पार उतर कर जंगल से खूब मालू के पत्ते तोड़ते और पत्ता के गट्ठर लेकर शाम तक लौट आते। शाम को लोग बैठे-बिठाए बात करते-करते सिनके के टुकड़ा से जोड़-जोड़ कर पत्ता की दूनियां (दोने) और पत्तल बना देते। तिमिल के पत्ते मिल गए तो उनकी भी दूनियां बना लेते। दूनिया और पत्तला का ढेर जमा हो जाता। कमरे म हुक्का-चिलम और सुलपाई यानी हथेली में समा जाने वाली चिलम घूमती रहती। न्योतारे कश खींच कर, धुवां छोड़ते हुए उन्हें आगे बढ़ाते रहते। बीच-बीच में थाली में खूब मीठी गरमागरम चहा के गिलास घुमाए जाते। खाना तैयार हो जाने पर खाने का बुलावा आ जाता, "हं हौ, खान् हन उठा आब्।"
औरत, लड़कियां भीतर के कमरा में "त्यार सप्त दिदी" (तेरी कसम दीदी या "मैं खाली बैंनी" (मेरी प्यारी बहिन) कहते हुए अपने-अपने सुख-दुख लगी रहती। घर भीतर चूल्हे का गाढ़ा धुवां भरा रहता।
सुबह से ही झर-फर शुरू हो जाती। रश्यार (रसोइए) मकान की अगल-बगल में कहीं पर छप्पर के नीचे बड़े-बड़े पत्थर रख कर रसोई बना लेते। एक कमरे म सामल-पानी का भंडार बना दिया जाता। रश्यारा को वहीं से आटा, चावल, दाल, सब्जियां, घी, तेल, दूध, दही, चीनी, गुड़, मसाले छुहारे और किशमि्श वगैरह दिए जाते। बहू, बेटियां तांबे के फ्वांला (कलश), तौली और टीन के कंटरों में पानी भर देती। खा-पी कर बर्यात के जाने की तैयारी शुरू की जाती।
उधर ईजा, चाचियां, भाभियां और बहिन हल्दी-तेल का उबटन लगा कर ब्यौल (वर) को नहलाती। नहा-धोकर वह नए कपड़े पहनता। सफेद कुर्त्ता, पैजामा, टोपी। ऊपर से ब्यौले का झगुला पहनाया जाता। दोना कंधा और छाती पर से पीछे तक कस कर पट्टा बांधा जाता। कमर में कमरबंद और उसम खुकरी या तलवार। सिल पर चावल पीस कर सफेद और पिठियां घोल कर लाल घोल बनाया जाता था। फिर मुंह पर लिखाई की जाती। कपाल से गाला तक सफेद और लाल बिंदियां बनाई जाती थद्ध। माथे पर मुकुट बांधा जाता था। ब्यौल को रंगीन छाता ओढ़ाया जाता। इस सयानी फगारियां शकुन आंखर गा्तीं और हेलारियां उनके सुर में सुर मिला कर हेल देती रहती---
बट्यावाह्णह्णह्ण बट्यावाह्णह्णह्ण रामीचंदरह्णह्णह्ण
शकुना द्यालो, रामीचंदरह्णह्णह्ण
पैंलि शकुनो ध्यों-गूड़े को
फिरी दै-दूदै को---
पंचैनामा देबौ दैना ह्वै जायाह्णह्णह्ण
गोरखनाथ देबौ सुफल ह्वै जायाह्णह्णह्ण
तुमारा ऐ बेर ह्णह्ण हमरो काज
सुफल है जालो ह्णह्णह्ण
बट्यावाह्णह्णह्ण बट्यावाह्णह्णह्ण रामीचंदरह्णह्णह्ण
मां-बहिन आरती उतारती और अक्षत परखती। ईजा कहती, "द ज च्यला, भली-भलि सूनि (सुंदर) ब्यौलि लाए। भलि कै गए। द हिट ईजा---'' शकुन के लिए लोटे-गिलासा ्में पानी भर कर कलेश रखे जाते। कन्याएं पानी भरे कल्श लेकर खड़ी हो जा्ती। 
और, फिर बाजे गाजे के साथ बर्यात चल पड़ती।।।
क्यान्---कि---क्यान्---क्यान्---क्यान्,
घि---घ्यान्---घ्यान्---घ्यान्।
जाने से पहले तूरी अपनी तेज आवाज में दो-चार बार 'धूह्णह्णतू---तू---तू---तूह्णह्णह्ण---धुह्णह्णतूह्णह्णह्ण की धाद लगती और शंख लंबी 'पूह्णह्णह्णह!" कह कर चलने के लिए कहता। तब तक मशकबीन भी "आं---आंह्णह्णह्ण" करके चलने की तैयारी करती। 
हम बच्चों को मशकबीन बड़ी मजेदार लगती थी। बर्यात चलने से पहले मशकबीन बजाने वाला उसकी पिपिरियां साफ करता। धागे से बंधी पतली पत्ती जैसी पिपिरी को जीभ पर गीला करके उसम फूंक मारता था। फिर बाएं हाथ के नीचे मशकबीन का थैला दबा कर उसकी काले डंडे जैसी नलियां कंधे और बांह के सहारे पीछे की ओर टिका लेता। हम अंदाज लगा कर एक-दूसरे के कान में कहते थे, "पता है-मशकबीन का थैला बकरी की खाल से बनता है बल?'' हम तो वह बगल में दबाई हुई बकरी जैसा ही लगता था। मशकबीन वाला पतली नली मुंह में दबा कर, गाल फुला-फुला कर हवा भरता। खूब हवा भरने पर थैला तन कर मोटा हो जाता और डंडे जैसी नलियां भी आंह्णह्णह्ण आंह्णह्णह्ण करने लगती। तब वह बीन को हाथा म बंयी की तरह पकड़ता। उसके आगे बड़ा गोल सामा जैसा लगा रहता था। गाला से हवा फूंकता, बाएं बाजू से मयकबीन के थैले को दबाता और बीन को बंशी की तरह बजाने लगता---
आं ह्णह्णह्णआंह्णह्णह्ण आं ह्णह्णह्ण
पि पी पी पी ह्णह्णह्ण
पी ह्णह्णह्णपी ह्णह्णह्ण
बर्यात में आदमी आगे-पीछे निशान (झंडा) भी लेकर चलते थे। ऊंचे डंडे पर कपड़े का लंबा तिकोना निशान बंधा रहता था। आगे-आगे हवा में फहराता लाल और बर्यात के पीछे सफेद निशान। "क्यान् कि क्यान्---क्यान्---क्यान्, घि---घ्यान्---घ्यान्---घ्यान्" की आवाज पर छ्वलैतिए अपनी ढाल-तलवार हवा में लहरा कर फिरकी की तरह घूमते हुए चलते रहते। मकानों के आसपास आकर बर्यात रुकती। वहां बाजे की लय-ताल बदल जाती:
ट्यांक्ड़---टिक्ड़---ड्यांग्ड़---ड्यांग्ड
ट्यांक्ड़---टिक्ड़---ड्यांग्ड़---ड्यांग्ड
डिंग्डि---डिंग्ड़ि---टिक्ड़---टिक्ड़
टिक्ड़---टिक्ड़---डिंग्डि---डिंग्ड़ि---

नगाड़ा के बाजे पर छ्वलैतिए जोरदार नाच दिखाते। दो रुपए, पांच रुपए का नोट डाल देने पर तो उसे उठाने के लिए ऐसा नाच नाचते कि लोग देखते ही रह जाते। एक-दूसरे के हाठों में दबे नोट को छीनने के लिए भी जोरदार करतब दिखाते। छ्वलैतिए सफेद चोला, काला पट्टा और कमरबंद, काली भोटी, सफेद पगड़ी और चूड़ीदार पहने रहते थे।
घर के सभी लोग बर्यात को दूर किसी मोड़ पर ओझल होने तक टकटकी लगा कर देखते रहते। उसके बाद भी उस ओर कान लगाए रहते। ढोल, नंगारे, तूरी और यंख की आवाज काफी देर तक सुनाई देती रहती थी।
आदमिया के बर्यात में चले जाने के कारण घर में औरत और बच्चे ही रह जाते। बस, घर के दो-एक आदमी खाना पकाने और पहरा देने के लिए रोक दिए जाते थे। वह रत्याली की रात होती थी। औरता और छोटे बच्चा की रात। उस दिन वे खूब गातीं, भ्वैनी लगातीं। हंसी-ठिठोली करतीं। कोई औरत आदमी का भेष बना कर उनकी नकल उतारती। इसी तरह आंखों में रात बिता देतीं। अगले दिन सुबह से ही वे बर्यात की बाट जोहने लगतीं।
उधर, बर्यात बाजे-गाजे के साथ ब्योली के घर पहुंचती। घर के बाहर धूलिअर्ग की पूजा पूरा करके ब्योला और बर्याती घर म जाते। चाय-पानी के बाद गांव के रश्यारे खाने में पूरी, लगड़, हलुवा, साग, खटाई, रायता परोसते। खट्टी और मीठी दोना तरह की खटाई बनाने का रिवाज था। मीठी खटाई में छुहारे और किशमि्श भी होते थे। रात को लगन के समय विवाह कर दिया जाता। ब्योला-ब्योली को जीवन भर साथ निभाने का संकल्प कराया जाता था। उन्ह बाहर लाकर ज्वेशिज्यू सप्तऋव् की पूंछ में वसिष्ठ और अरुंधती तारे देखने को कहते थे। फिर बोलते, ""कहो, हम भी ऋषि वसिष्ठ और अरुंधती की तरह सदा साथ रहगे।''
बर्यात विदा करने से पहले सुबह या दिन में बर्यातियों को फिर जम कर खाना खिलाया जाता था-वही पूरी, लगड़, दाल, चावल, खटाई, छुहारे और गुड़ की मीठी खटाई, खूब राई पड़ा हुआ चरपिरा रायता और तली हुई लाल मिर्च! खा-पी कर, ब्योली को लेकर बर्यात वापस लौटती। ब्योली के जाते समय फगारियां फिर यकुनांखर गातीं:
---"बट्यावा---बट्यावा---शकुना द्यालो"---
और, मां-बहिन शक-शक् डाड़ मारते हुए बेटी को विदा करते बखत अपना आशीर्वाद दे रही होती थीं---द ईजा ज, भली कै जाए---(शक-शक्-शक्)। मेरि पोथी---सैनिक (औरत) जनम पायाक भै। जाना ही हुआ चेली। (शक्-शक्)
मैंने तुझे नौ महीने पेट में रखा, कारवी (गोद) में पाला पोथी---आज तू मुझे छोड़ कर जा रही है---(ओ ईजा! शक्-्शक्)---मैं कैसे रहूंगी? तुझे कोई कष्ट नहीं होने दिया मैंने---
(दूसरी औरत) क्या रुलाती है उसे? सभी को जाना हुआ एक दिन। हम नहीं आईं क्या मतिं (मायका) से? मन को समझा। अपने सौरास ही तो जा रही है बेटी---चल ईजू, चल। जल्दी फिर आएगी यहां मिलने। ठीक है?
(कोई और औरत) होई, किलै न? अपनी मयाड़ी (मां), अपने बाज्यू, ददा-भाई-बहना को जो क्या भूल जाएगी?---द, हिट चेली---आपन सौरास हन हिट--- शक्-्शक्
(तभी डाड़ मार कर बहिन) म क जन (मत) भुल्ये दिदी। आपनि बनि क जन भुल्यै!
पीछे से फगारियों के शकुनांखर---
बट्यावा---बट्यावा---
शकुना सुफल है जाओ, पंचनाम देबो
सुफल है जाओ, इष्टे भगबानो 
उस समय तो देख कर कठोर से कठोर कलेजे वाला के भी आंसू निकल आते थे।
बर्यात लौट आने पर ब्योली-ब्योला की आरती उतार कर, अक्षत परख करके उन्ह घर के भीतर ले जाते थे। ब्योली नई जगह और नए घर में अनजान लोगों के बीच सिकुड़ी-सिमटी बैठी रहती। नाक की टूकी से ऊपर पूरे कपाल तक पिठियां और अक्षत लगे रहते। औरत ओढ़नी उठा-उठा कर मुंह देखतीं और कहतीं, "ईजा, कतुक सूनि छ ब्योलि। अस्यानी छ। ईजु, नक जन मानेयां। हमरि ले चेली भई तू। तेरि सासु छों मैं।''
ब्योली को घर दिखाते। पानी की सीर (स्रोत) दिखाते। हम भी अपनी नई भौजी-ब्योलिया को धारे और डिग्गी पर ले जाते थे। वे देख लेती थीं कि पानी कितनी दूर से और किस धारे, नौले या डिग्गी से लाना है। ब्योल-ब्योली के चमकीले मुकुट हम पानी के शिराण में  रख देते थे। धीरे-धीरे भौजी अपनी नई घर-कुड़ि और गड़ि-भिड़ि देख कर पहचानने लगती थी। घर के लोगों और अपने गोरु-भैसा को भी पहचान लेती थी। गाय-भसिं भी उसे पहचानने लगतीं।

ब्याह के बाद भौजिया का घर में आना जितना अच्छा लगता था, उतना ही बुरा लगता था दीदिया और बहिना का जाना। बहुत नियाय लगता था। दीदी आती तो हम सब बहुत खुश हो जाते थे। लेकिन, जिस दिन मेरी सीता दीदी जाने वाली होती थी, उससे पहली रात को ईजा और दीदी तो सोती ही नहीं थीं। रात भर सुख-दुख लगी रहतीं। बीच-बीच में शक्-्शक् करके रो पड़्ते। मुंह अंधेरे ही ईजा, पूरी, हलुवा, कोश्योल (मीठा भुना चावल) और बड़े बना कर छापरी (टोकरी) में संभाल कर रख देती। धोती या ओढ़नी लपेट कर उसे चारा ओर से कस देती। रास्ते में खाने के लिए अलग से बांध देती। हमारा गला गगलसा उठता। दीदी के आंसू बहते रहते।
"द हिट ईजा, तू चेलि भई। सौरास जान्वे भै। मैं खाली इजू, हिट---'' दीदी की आंखा के भुमके (सोते) फूट पड़ते। चड़ी डाड़ मार देती। बाज्यू, ददा, को ढोक देकर पैंलाग कहती। मेरे गालों पर, माथे पर भुकी (चुंबन) ले-लेकर छाती से चिपटाती। और, फिर हम दीदी को दूर धार तक छोड़ने चल पड़ते। कभी भिना (जीजा) आए होते तो उनके साथ जाती या फिर किसी और चेलि-बेटी की संगीत (साथ) होती। दूर तक साथ जाकर ईजा छापरी उसे सौंपती। वह गले से लिपट-लिपट कर रोती। हमारे मुंह से भी बोल नहीं फूटते थे। कुछ कहने की कोशिश ्में गगलसाए हुए गले से रुलाई फूट पड़ती।
आखिर, जाना ही पड़ता था। दीदी सौरास को चल पड़ती। पांच-दस कदम चलती। फिर पलट कर हमारी ओर देखती। हर मोड़ से मुड़ कर देखती। फिर किसी धार से ओझल हो जाती। ईजा अब रो रही होती थी, ""चेलिकि जुहुनि में पैद भैछ, ईजा, जान्वे भै।'' फिर भारी कदमा से मुझे लेकर घर लौट आती। उदास होकर कहती थी, ""चेलि-बेटि चाड़ां जसि ह्व छ च्यला। आज हमारि कुड़ि में भैरी, भ्वल उड़ि बेरि दुसरि कुड़ि में न्हें जानीं।'' यानी, बेटियां तो चिड़िया की तरह होती हैं  बेटा। आज हमारे मकान में बैठी हैं, कल उड़ कर दूसरे के मकान में चली जाती हैं।  
"तू ले चड़ींकि परि उड़ि बेर ऐछी ईजा?''
"होई। यां आछा, ये कुड़ि में। फिरि तू भछै, तेरि दिदि-दाद् भईं।''
चेलि-बेटियां दूर-दूर के गांवा में ब्याही जाती थीं। वे त्यों-त्यारों या सुख-दुख में ही मायके आ पाती थीं। मेरी दीदी घने जंगलों, पहाड़ों के पार, हमारे गांव से करीब तीस-बत्तीस किलोमीटर दूर डांड़ा गांव में ब्याही गई थी। इसलिए दो-चार साल बाद ही आ पाती थी। हमारे और उसके गांव के पहाड़ा के बीच जंगला म श्यूं-बाघ् भी रहते थे। मैंत आने का इतना उत्साह होता था कि जंगल, जानवर, गाड़-गधेरे कुछ नहीं दिखाई देते थे। एक बार दीदी अपनी बेटी भगवती को लेकर उसी रास्ते से बिना संगीत के अकेली चली आई। रास्ते की उसकी बात सुन कर हम कांप गए---
दीदी ने बताया, "यहां घर के बारे में सोचते-सोचते लमालम चली आ रही थी। आगे से यही भगवती चल रही थी। दोना ओर कुरी की घनी झाड़ियां। उनके भीतर तो कुछ भी हो सकता था। ईजा, जमीन ्में जो देखूं तो श्यूं क तात् गोबर! भाप उठ रही थी। उसी समय निकला होगा। मैंने सोचा, आज हम मां-बेटी को खा जाता है। लेकिन, क्या करती? चलती रही---कुंडल गांव के आसपास पहुंची तो घनी झाड़िया के बीच खम्म से एक जोगी मिल गया। गेरुवा चोला, हाथ में कमंडल और लाठी। बोला-बेटी अकेले जा रहे हो। साथ में कोई नहीं है? मैंने हाथ जोड़ कर सिर हिलाया। कहा, मैत जा रही हूं बाबा। उन्हाने आर्शीवाद दिया। कहा-बेटी तू बड़ी हिम्मती है। ईश्वर तेरी मदद करेगा। तुझे कुछ नहीं होगा। डरना मत---आर्शीवाद देकर जोगी बाबा चले गए। हम मां-बेटी र की ओर चलते ही रहे।''
चेलि-बेटियां इसी तरह लंबे-लंबे रास्ते पार करके दूर अपने मैत या सौरास जाती ्थईं। दीदी कहती थी, उसे सदा अपना घर, ईजा-बाज्यू, ददा-भाई, मकान, पेड़-पौधे, गोरु-भैंसें सब याद आते रहते ह। घुघुती और कफुवा बोलते हैं तो मन घर पहुंच जाता है। कौवा बोलता है तो लगता है, मेरे मैत से कोई आने वाला है।
ब्याह से बहुत पहले या फिर ब्याह के एक दिन पहले जनेऊ या बर्तबंध (यज्ञोपवीत) किया जाता था। जिन लड़कों का बर्त हो जाता था, वे जनेऊ पहनते थे। सुबह-शाम कसौंड़ीं (लोटा) या गिलास में पानी लेकर आचमन करते। मंतर बुदबुदा कर संध्या-पूजा करते थे। वे तो शौच के लिए जाते समय कान में जनेऊ भी लपेट लेते थे। वे ब्या-काज के मौका पर, धोती पहनते और बड़ा के साथ पंगत म बैठ कर दाल-भात खा सकते थे। घर में भी वे सयाने लोगा के साथ रसोई में धोती पहन कर दाल-भात खाते। हम लगता था, अचानक वे हमसे सयाने हो गए हैं। हम पंगत में नहीं बैठने दिया जाता था। अलग बैठ कर खाना पड़ता था। उन दिना तो हम से उम्र में बहुत छोटे बच्चा का भी बर्त कर दिया जाता था।
एक बार जैंतुवा के साथ गजुवा के बर्त म गांव से 19-20 किलोेमीटर दूर गौन्यारो गया था। वहां खाना तैयार होने पर म "उठा, खान् तैयार छ" की आवाज आई। घर के सामने खेत में गए तो देखा धोती-जनेऊ पहने छोटे-छोटे बच्चा की लंबी लाइन लगी है। हम शरमाते-सकुचाते खड़े हो गए। हम देख कर कुछ लोग हंसने लगे, "है, तन क्व छ? कौन है ये? अभी तक बर्त नहीं हुआ है?'' औरत और लड़कियां भी मुंह दबा कर हंसने लगीं। हम चुपचाप फिर भीतर कमरे में चले गए। हम थाली में दाल-चावल डाल कर वहीं दे दिया गया।
जिस बच्चे का बर्त होता था, उसे देखने में बहुत आनंद आता था। उसके बालों में सिर पर चार तरफ जुटिका बांधी जाती थी। फगारियां मंगल गीत गातीं और धीरे-धीरे उस्तरे से बाल उतारे जाते। बीच में मोटी-सी चुली (चुटिया) छोड़ दी जाती। बर्त्यिया बच्चे के आंग में हल्दी-तेल का उबटन लगा कर मां-बहिन नहलाती थीं। फिर उसे धोती पहनाई जाती। कंधे पर जनेऊ पहनाया जाता। हाथ की अंगुलिया पर लपेट कर आचमन करने, संध्या पूजा करने और जल चढ़ाने की विधि बताई जाती। उसके कंधे पर धोती का फेट बनाया जाता। हाथ में लाठी दे दी जाती। ज्वैशिज्यू कहते, "बटुक, अब तुम काशी पढ़ने जा रहे हो। माताओं से भिक्षा मांग लाओ।'' सामने माताएं चावल लेकर खड़ी रहतीं। ज्वैशिज्यू बटुक से कहते, ""मेरे साथ कहो-भो गुरो, इदम भिक्षाम, मया लब्ध---माई भिक्षा दे। मैं हनले दे, म्यार गुरु हन ले दे---'' मेरे लिए भी दो, मेरे गुरु के लिए भी दो! मां-बहिन धोती के फेट में भिक्षा डाल कर आशीष दे्तीं, "खूब पढ़ि बेर आए।'' 
फिर वह काशी पढ़ने के लिए निकल जाता। हम उसके पीछे-पीछे दौड़ते। दरवाजे से बाहर जरा-सा चर लगा कर वह फिर भीतर लौट आता। सब लोग खुश हो जाते। मां कहती, ""ऐ गौ म्यर पोथि, का्शि पढ़ि बेर ऐगो।'' फिर बाकी काम संपन्न होता। उतरे हुए बाल दाड़िम के बोट की जड़ में डाल दिए जाते। बच्चा कई दिन तक जनेऊ हाथ पर लपेटने और संध्या-पूजा करने का अभ्यास करता रहता। फिर धीरे-धीरे घर भीतर या खेतों के काम में उलझे रहने के कारण कभी ध्यान रहता, कभी नहीं भी रहता था। हां, गांव के बड़े बुजुर्गों को हम जब भी रात्ते-ब्यान (सुबह) कान में जनेऊ लपेटे देखते तो जरूर समझ जाते, वे झाड़-पिशाब जा रहे हैं। उसके बाद वे हल-बैल या आंसी-कुटला लेकर खेति-पाति के काम के लिए निकल जाते। खेति-पाति भी कोई आज की जैसी जो क्या हुई?
सुन रहे हैं?
"अँ'' 
     

Monday, March 19, 2012

स्या-स्या

कहानी   
डा शोभाराम शर्मा                 



यह कहानी उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जनपद की व्यांस, चौदांस और दारमां पट्टी में रहने वाली भोटांतिक 'रं़ड" जनजाति की वैवाहिक प्रथा पर आधारित है। इस जनजाति में विवाह अधिकांशत: अपहरण द्वारा सम्पन्न होते थे। विवाह के लिए जिस लड़की का अपहरण किया जाता था उसके साथ उसकी सहेलियाँ भी पकड़ ली जाती थी। विवाह हो जाने की स्थिति में सहेलियाँ मुक्त कर दी जाती थी। इस सहेलियों को ही स्या-स्या कहा जाता था।         - लेखक

सूरज ढल चुका था। पूर्वोत्तर की बर्फीली चोटियों पर संध्या की सलज मुस्कान स्वर्ण विखेर रही थी। तिथलाधार की मनोरम उपत्यका से एक छोटा सा काफिला गुजर रहा था, उन दो पहाड़ियों के बीच जहाँ न जाने कब से मानव की श्रान्त ठोकरों ने चट्टानी भूमि को तोड़कर एक गहरी पतली रेखा का मार्ग बना डाला था। काफिले के लोग काली की घाटी में धारचुला की ओर अपने जाड़ों के आवास की ओर जा रहे थे। घरेलू सामान से लदे झप्पुओं, गाय-बैलों और भेड़-बकरियों के गलों में बंधी घण्टियों का टनन-टन्, टनन-टन् अजीब समाँ बांध रहा था। भेड़-बकरियाँ यदा-कदा में-में करती हुई रास्ते से भटकती तो साथ में चलते रक्षक कुत्ते भौंकते हुए उन्हें पुन: रास्ते पर ले आते। कफिले को आज सौसा गाँव के नीचे ज्यूंती गाड के किनारे डेरा जमाना था और काफिले का बड़ा हिस्सा वहाँ पहुंच भी चुका था।
तिथलाधार की दूसरी ओर से एक नवयौवना अपनी पीठ पर अपने नन्हें शिशु को लादे ऊपर चढ़ी। थकान के मारे माथे का पसीना पौंछते हुए वह मुलायम घास पर बैठ गई। एकान्त और कुछ-कुछ अंधेरे से त्रस्त उसने चारों ओर देखा। एक ओर रागा (देवदार के समान एक सुन्दर वृक्ष) नीले चीड़ों और बाँज-बुराँस के पेड़ों तथा देव रिंगाल की झाड़ियों से ढकी श्रेणी संध्या के स्याह परदे में काले दैंत्य का आकार ग्रहण कर रही थी और दूसरी ओर पीले बुग्याल से ढकी पहले सी्धी खड़ी, फिर कुछ-कुछ ढालू और सिर पर त्रिशूल के आकार के बौने पेड़ों को सजाए पर्वत श्रेणी उतर की ओर हिम की रजत-धवल टोपी पहने नीचे ज्यूंती गाड की छोटी सी उपत्यका की ओर झांक रही थी। पूरब की ओर नीचे  और बहुत नीचे काली नदी की गहरी घाटी के पार नेपाल के जंगलों के ऊपर खड़े श्वेत शिखरों के बीच पूर्णिमा का चांद अपनी सम्पूर्ण गरिमा के साथ बढ़ने लगा था। चांदनी के प्रकाश में ऊंचाई पर पितरों  की स्मृति में रखे बड़े-बड़े पाषाण नजर आए। लगता था कि वे जैसे अपने वंशजों के काफिलों को आशीर्वाद देने हेतु सामूहिक रूप से वहाँ पर जमा हों। नवयौवना ने भय और श्रद्धा के वशीभूत रागा के पेड़ों पर बंधे घण्टे-घण्टियों को हिलाया, जिनका गम्भीर स्वर हेमन्त की तीखी बर्फीली बयार का स्पर्श पाकर चारों ओर फैल गया और मानव के भोले विश्वासों के रंग-बिरंगे चीर भी बुरी तरह फड़फड़ाने लगे।
नवयौवना ने पहले घबराहट में इधर-उधर देखा और फिर किसी तरह आश्वस्त होकर पुकारा- 'दीदी, ओ! डमसा दीदी!" उसकी वह पतली आवाज हवा में फैलकर विलीन हो गई। उसने कई बार पुकारा लेकिन उत्तर नहीं पाया। काफी देर बाद डमसा दीदी ने एक अन्य कमसिन बाला के साथ प्रवेश किया और सुस्ताने के लिए पूर्वागत यौवना के पास बैइ गई।
'दीदी, तुमने सुना नहीं, मेरा तो गला ही बैठ गया था।" पहली ने उलाहने के स्वर में कहा, 'यहाँ तो दम ही निकलने को था। मन भर से कम क्या होगा।" डमसा ने पसीना पोंछते हुए कहा।
'वाह! बच्चे का बोझ तो और भी भारी होता है, पर तुम क्या जानो?" पहली ने शिशु को गोद में लेते हुए कहा। इस पर कमसिन अबोध बाला ठहाका मारकर हंस पड़ी। उसकी निर्दोष हंसी उस बर्फीली हवा की सांय-सांय में गूँज उठी।
डमसा की छाती में जैसे तीर चुभ गया। तुम क्या जानो? हवा का हर झोका उसके कानों में कह उठा। तुम क्या जानो? हंसी की हर गूँज में वही ध्वनि झंकृत हो उठी। और उस नन्हें से जीव की इकहरी आवाज में वही-तुम क्या जानो? तुम क्या जानो? डमसा का जैसे मर्म दहल उठा। काले कम्बल की गांठों से घिरा, काले बादलों के बीच पूर्णिमा का चांद सा चेहरा मुझांकर रह गया। वह रोनी-रोनी हो गई। उच्छवास लेकर उठ खड़ी हुई और बोझ सम्भालकर शीघ्रता से नीचे की ओर चल पड़ी।
वे दोनों अवाक। डमसा दीदी का यह व्यवहार उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था। चकित मृगी सी वे भी उठी और उसी ओर चल पड़ी। डमसा चल रही थी, किन्तु उसके कानों में हवा का हर झोंका वहीं स्वर घोल रहा था- तुम क्या जानो? उसका मानस तिक्त हो उठा। उसकी हर लहर में वहीं तिक्त भावना छा गई थी- तुम क्या जानो?
बैसाखी उससे दो वर्ष छोटी थी। पिछले साल ही उसके हाथ पीले हुए थे और आज उसकी गोद में नन्हा सा शिशु खेल रहा था। अपना-अपना भाग्य है। डमसा के दिल में कभी ईर्ष्या नहीं जगी। वह बैसाखी को कितना चाहती थी, किन्तु आज उसके एक छोटे से वाक्य ने डाह का बवण्डर खड़ा कर दिया। वह जितना ही मन को समझाती मन उतना ही संतप्त होता गया। जीवन की कठोर वास्तविकता अपनी समस्त व्यंग्य की पैनी धार से जैसे उसके मर्म को कचोट रही थी- तुम क्या जोना? हाँ, क्या जाने? समाज  की वेदी पर माँ के अपराध का दण्ड उसी को तो भोगना था। वह मन-मन भर के पाँवों से चल रही थी और अचानक ठोकर लगने से गिर पड़ी। चार कदम पीछे घनारी ने दखा और उसने दौड़कर बोझ संभाला। इतने में बैसाखी भी पहुँच गई।
'दीदी, चोट तो नहीं लगी?" बैसाखी ने पूछा।
'अरे! तुम तो रो रही हो!" घनारी ने डमसा की पतली-पैनी आँखों में आँसू की बूँदें देख कर कहा।
'दीदी, बुरा मान गई क्या?" बैसाखी ने फिर से पूछा।
डमसा बोले तो क्या? वह कैसे कहे कि चोट पाँव पर नहीं उसके दिल पर लगी है। उठी और बोझ को पीठ पर ठीक से जमाते हुए बोली- 'नहीं-नहीं, बहिन, बुरा किस बात का लगेगा? पाँव के अंगूठे पर चोट लग गई है न।"
किन्तु आँसुओं ने कपोलों को चूमते हुए सब कुछ कह दिय। तीनों पिफर चल पड़ी। किसी को कुछ कहने का साहस न हुआ। घनारी भी अपनी चुहुल भूल गई। वे सोसा गाँव की धार पर पहुँच चुकी थी। दूसरी ओर अभी चांदनी का प्रकाश नहीं था। कुछ पेड़ों और झाड़ियों के कारण अंधेरा और भी घना था। नीचे ज्यूंती गाड के किनारे तम्बू-तन चुके थे। कभी-कभी प्रकाश की  क्षीण रेखा चमक उठती थी। उन्हें वहीं पहुँचना था।
बैसाखी सबसे आगे थी। बीच में घनारी और पीछे डमसा अपने मन को समझाने की चेष्टा करती हुई चल रही थी। इतने में नीचे से आवाज आई- 'बैसाखी हो!" यह बैसाखी के पिता, डमसा के चाचा की आवाज थी। बैसाखी उत्तर देने को था कि इतने में डमसा की चीख उसके कानों में पड़ी। मुड़कर देखा तो वह स्तब्ध रह गई । झाड़ी से निकलकर तीन-चार आदमियों ने डमसा को घेर लिया था। बैसाखी के लिए तो यह नई बात नहीं थी उसके साथ भी पिछले साल यही तो हुआ था। शादी की परम्परा यही चली आई है तो किसी का क्या दोष? घनारी का भय से बुरा हाल था। वह चीखने को थी कि दो युवकों ने उसे भी घेर लिया। अंधेरे में बीड़ी सुलगाते हुए वे किसी प्रेत की छाया से लग रहे थे।
'मैं तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ, हमें छोड़ दो।" डमसा ने अनुनय की।
'वाह! छोड़ दो, छोड़ने के लिए ही क्या हम यहाँ बैठे थे?" उनमें से एक ने कहा 'अजी, ऐसे नहीं चलती तो उठाकर ले चलो।" दूसरे ने प्रस्ताव रखा।
और एक बलिष्ठ युवक आगे बढ़ा। डमसा घबरा गई। घबराहट में उसके मुख से निकल पड़ा- 'मैं अपने-आप चलूँगी। हाथ न लगाओ।" और उपस्थिति पुरुष ठहाका मारकर हँस पड़े। मछली पफँस गई थी। वे चल पड़े। घनारी और बैसाखी ने भी डमसा का रुख देखकर अधिक विरोध नहीं किया। फिर ऐसे विरोध का मूल्य भी क्या था? वह तो परम्परा थी। उन्हें डमसा दीदी के विवाह में स्या-स्या तो बनना ही था।
मार्ग अंधेरे में था। वे चल रहे थे। घनारी और बैसाखी में मीठी चुटकियां चल रही थी। डमसा अपने ही में खोई, यह सब क्या हो रहा है? उसे विश्वास नहीं हो पा रहा था। क्या सचमुच उसके भाग्य ने रास्ता सुझा दिया है? क्या विधाता ने अपनी आँखें खोल दी हैं? कई प्रश्न उसके अन्तर को झकझोर रहे थे। और वह उसी झोंक में युवकों से घिरी आगे बढ़ रही थी। गाँव आ गया। एक बड़े से घर के आगन में कई लोग आ जा रहे थे। मंगल-वाद्य बजने लगे। रास्ते में एक सफेद कोरा कपड़ा बिछाया जाने लगा। अन्तिम सिरे पर चकती (स्थानीय सुरा) की भरी बोतल रख दी गई। वह कोरा कपड़ा, वह चकती की बोतल दुल्हन के पक्ष वालों के लिए चुनौती थी। आते हो तो आओ, चकती को स्वीकार करो और मित्राता के धागे में बंध जाओ। अन्यथा यह लक्ष्मण-रेखा है। तुम उस सीमा से आगे नहीं बढ़ सकते।
तीनों को एक कोठरी में ढकेल दिया गया। बैसाखी का नन्हा शिशु रोने लगा और वह उसे चुप कराने में लग गई। डमसा और घनारी सहमी सी कोने में दुबक गई। डमसा का हृदय डूब-उतराने लगा। तुम क्या जानो? शिशु का रुदन अभी भी वह व्यंग्य उसके कानों में प्रतिध्वनित हो रहा था। शायद अब वह जान सके। एक आशा की किरण कहीं से उसके हृदय में चमक उठी। वर्षों से वह इसी कामना के पीछे दौड़ी थी, किन्तु स्या-स्या बनने के अतिरिक्त उसके भाग्य में दुल्हन बनना तो लिखा ही न था। उसे लगा कि जैसे आज उसकी मनोकामना पूर्ण होने को थी। उसके संचित, किन्तु अधूरे अरमान फिर उसके मानस में अपनी समस्त चपलताओं का खेल खेलने लगे। वह अब किसी की बन सकेगी, अपने समस्त संचित प्यार का प्रतिदान लेगी ओर पिफर उनका प्यार एक नन्हा सा शिशु बनकर उसकी गोद में खेलने लगेगा। कल्पना का वह शिशु उसकी गोद में खेलने भी लगा, रोने भी लगा। उसने देखा- आनन्द तिरोहित हो गया- वह उसका नहीं, बैसाखी का था जो हाथ-पाँव चलाकर जोर-जोर से रो रहा था।
इतने में कुछ उ(त युवक-युवतियां कमरे में आए। लालटेन भी थी एक के हाथ में। एक अधेड़ सी नारी ने भी प्रवेश किया। उसने डमसा के पास जाकर उसके चेहरे को अपनी ओर किया और उछल पड़ी। सभी सकपका गए। आश्चर्य भरी आँखें जैसे डमसा को निगलने लगीं।
'अरे! ये तो किसी और को उठा लाए हैं। यह तो डमसा है, जो दूसरे घ्ार में पैदा हुई। अभी तो इसकी माँ का हिसाब तक नहीं हुआ।" वह अधेड़ नारी एक सांस में कह उठी और बाहर चल पड़ी। सनसनी  सी पफैल गई। डमसा को काटो तो खून नहीं। वह लाज में गड़ी जा रही थी। लोगों में कानापूफसी चलने लगी। कई आए, गए। उन्होंने डमसा को देखा तक नहीं। तर्क-वितर्क चलने लगे। अन्त मंे बड़े बूढों ने पफैसला दिया कि यह नहीं हो सकता है और डमसा की रही-सही आशा भी जाती रही। वह सुबकने लगी। आँसुओं से उसके कपोल भीग गए। किन्तु उन आँसुओं का मूल्य ही क्या था? फिर निर्णय हुआ- क्यों न घनारी को दुल्हन बना दिया जाए? कोई छोटी भी नहीं। दूल्हा देखने भी आया। डमसा ने उधर देखा भी नहीं। उसका मन मर गया था। बेचारी दुल्हन बनते-बनते स्या-स्या बन गई। देखते-देखते घनारी दूसरे कमरे में पहुँचा दी गई और डमसा उपस्थित युवकों की कृपा-दृष्टि का लक्ष्य। उसका सौन्दर्य-दीप पतिंगो को आकृष्ट करने के लिए यथेष्ट था। सभी चकती में मस्त। कुछ गा रहे थे, कुछ ही-ही, हू-हू कर रहे थे। फिर समां बध गया। आनन्द का दिन था। शादी जो थी। ऐसे ही दिन तो होते हैं जब उद्दाम (उद्दाम) इच्छाएँ अपनी सीमा तोड़ बाहर फूटना चाहती हैं। गाँव की कुछ और अल्हड़ युवतियाँ आ गई। गीत चलने लगे। नृत्य चलने लगा। चकती के दौर पर दौर चलने लगे। सारा कमरा विचित्रा मदाहोशी में रम गया। युवक थक गए। युवतियाँ थक गई। लेकिन वे डमसा को न मना सके। वह न हिली न डुली। सोचती रही और सोचती रही- पिछले साल वह बैसाखी की शादी में रात-रात भर नाचती रही। युवक थक गए। कोई जोड़ का नहीं मिला। हर साल वह ऐसी शादियों में स्या-स्या बनती रही, पीती रही, अपने हाथों पिलाती रही और मस्त होकर नाचती रही। शायद यही उसका भाग्य है। दूसरों की खुशी में खुशी माने, नाचे, गाए और वासना की आँखों से अपने सौन्दर्य की कीमत आंकने वालों को अपनी कृपा-दृष्टि से निहाल करे। युवक उसे घूर रहे थे। जबरन उठाना चाहते थे। उनके लिए वह खिलवाड़ थी। वह खिलवाड़ थी समाज की। कोई उसे अपनी नहीं बना सकता। किसी में इतना साहस नहीं। समाज के बन्धनों से कौन टकराए? ठकराने की जरूरत ही क्या है, जबकि वे उसके यौवन से खिलवाड़ कर सकते हैं, उसके जीवन से खेल सकते हैं तो पिफर बैठे-बिठाए कौन हत्या मोल ले? वह सचमुच हत्या है- समाज की हत्या। फिर हत्या को कौन स्वीकार करें? उसकी माँ के रुपए अदा नहीं हुए तो भला कौन उसे अंगीकार करें?
इतने में बैसाखी ने आकर बताया- 'दीदी, घनारी ने चकती और चावल ले लिए हैं।" डमसा का ध्यान भग्न हो गया। घनारी ने अपनी स्वीकृति दे दी थी। वह दुल्हन बन गई थी। अभागी डमसा के बदले घनारी ही सही। उसी का जीवन संवरे। उसे तो स्या-स्या बनकर ही जवानी की अनमोल घड़िया काट देनी हैं। वह किसी से डाह क्यों करे? और वह उठ खड़ी हो गई। एक लालायित युवक की उसने बांह पकड़ ली और उसके हाथ से दो लिन्च (चांदा का प्याला विशेष) चकती के वह एक सांस में पी गई। उसकी पतली-पैनी आंखों और उभरे रक्तिम गालों पर मादकता थिरकने लगी। वह नाचने लगी। गीत निर्झरणी की तरह उसके कण्ठ से झरने लगा। नृत्य में अद्भुत प्रवाह आ गया। सबके सब थिरकने लगे। सब की आवाज से अलग स्वर्गीय गिरा सी उसकी स्वर लहरी जैसे हवा में थिरकने लगी-
'न्यौल्या, न्यौल्या, लाल मेरो सांवरी, दिन को दिन जोवन जान लाग्यों।"
(प्रियतम! तुम नहीं आए, नहीं आए, दिन-वॐ-दिन मेरा यौवन ढलने लगा है।)
कौन जाने, उसका वह सांवरी इस जीवन में कभी आएगा भी या नहीं?
 

Sunday, February 19, 2012

स्थानिकता की तस्वीर भू-भाग की विविधता में संभव होती है



                     
सीमित ज्यामीतिय आरेखन की निर्मिति से खड़ी होती बहुमंजिला इमारतें और भव्यता एवं ध्यान आकर्षण के लिए उन पर पुते प्रभावकारी रंगों के संयोजन, बेतरतीब ढंग से यातायात व्यवस्था को बिगाड़ती स्थितियों को जारी रखते हुए, उचित संचालन के नाम पर, निर्मित पथों के चौड़ीकरण के अभियानों का फूहड़पन, एक ओर आम मेहनतकश आवाम के सर्वथा सुलभ फुटपाथिया बाजार को उजाड़ने की गतिविधियां और दूसरी ओर रोजगार के नाम पर चंद सेवा क्षेत्रों के अवसरों वाली गतिविधियों का नाम देश, राज्य या राजधानी नहीं होना चाहिए था। लेकिन विकास की सांख्यिकी के पैमाने को सीमित कर देने वाली समझदारी ने देश भर के भीतर व्यवस्था के नाम पर ऐसी अव्यवस्था को जन्म दिया है कि विकसित और अविकसित क्षेत्रों का अन्तर कम होने की बजाय लगातार बढ़ता गया है। गरीबी, भुखमरी और हत्या, आत्महत्याओं की बहुत आम हुई खबरों ने सामाजिक असंवेदनशीलता को बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।   
दस वर्ष पूरे कर चुके उत्तराखण्ड राज्य की अस्थाई राजधानी देहरादून के संदर्भ से ही बात की जाये तो बदलते स्वरूप को इससे बाहर नहीं देखा जा सकता। बल्कि विकास के नाम पर उत्तराखण्ड राज्य के ही दूसरे शहरों के साथ साथ, प्राकृतिक खूबसूरती से भरे, पर्वतीय भूभागों के भीतर जारी अराजक गतिविधियों में भी राज्य नाम की इकाई संदेह पैदा कर देने वाली साबित हुई है। वैसे भी कला शून्य लेकिन दक्ष कुशल होते जाते इस दौर में स्वभाविक विविधिता को ध्वस्त करते हुए संस्कृतिक समरूपता की जिद्दी धुन की गूंज वैश्विक स्तर पर पूंजीगत विस्तार का स्वर हुआ है। अलहदा भाषा, अलहदा विचार, अलहदा खान-पान के खिलाफ वैश्विक पूंजी का मुनाफे की संस्कृति से भरे आदर्शों वाला अभियान हर स्तर पर चालू है। बर्बर हमलों तक के रूप में भी। उसके प्रभाव की व्यापकता को बहुत पिछड़ी सामाजिक आर्थिक स्थितियों में भी देखा जा सकता है। बल्कि कुशल व्यवाहरिकता के अभाव में ऐसी स्थितियों में तो उसकी स्वभाविक फूहड़ता ज्यादा स्पष्ट दिखने लगती है। बहुधा उसकी गिरफ्त ऐसी गिरह डालने वाली होती है कि जन आकांक्षओं के सवाल पर शुरू हुई गतिविधियां भी सवालों के घेरे में आने को मजबूर हो जाती हैं। जन आंदोलनों के अंदर घुसपैठ करने और फिर उसे अपनी तरह से हांकते हुए जन आंदोलनों पर ही प्रश्न चिह्न खड़ा करवा देने में इस मुनाफा संस्कृति ने हारते हारते हुए भी जीत के लाभ तक पहुंच जाने की कला में कुशलता हांसिल की हुई है। उत्तराखण्ड में ही नहीं बल्कि उसी के साथ-साथ गठित हुए झारखण्ड और छतीसगढ़ में भी राज्य निर्माण के बाद विस्तार लेती गयी व्यवस्था ने एक समय में राज्य की मांग के लिए मर मिटने वाली जनता तक को इसीलिए निराश किया है। ऐसे में दूसरे प्रांतों के भीतर जारी राज्य आंदोलनों के संघर्ष की गाथायें कैसे भिन्न हो ?, यह प्रश्न ज्यादा महत्वपूर्ण है। बिना इस तरह के सवाल उठाये छोटे छोटे राज्यों के निर्माण की प्रक्रिया का एकतरफा समर्थन जनता के दुख दर्दो से निजात की कथा का कोई चरण पूरा करता हुआ नहीं माना जा सकता।
यह सच है कि सांस्कृतिक पहचान एवं विकास के वास्तविक मॉडल की अनुपस्थितियों ने विभिन्न प्रांतों के भीतर संघर्षरत जनता को राज्य के सवाल पर एकजुट होने को मजबूर किया हुआ है। और व्यवस्था के मौजूदा ढांचे में एक छोटी प्रशासनिक इकाई वाला राज्य, बेशक चोर जेब जैसा ही,  जनता को सड़को पर उतरने को मजबूर करता हुआ है। बहुत व्यवस्थित एवं जन आकांक्षओं को सर्वोपरी मानते हुए नीतियों का निर्धारण करती किसी मुमल व्यवस्था की तात्कालिक अनुपस्थिति में यह सवाल उठाते हुए कि क्या सचमुच जनता के सपनों को साकार करने में राज्य कामयाब रहे है ?, छोटे राज्यों की मांग को ठुकराया नहीं जा सकता या उनका विरोध करना कतई तर्कपूर्ण नहीं। लेकिन इसके साथ साथ उन खतरों को जो जनता के सपनों को कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ते, नजरअंदाज करना ठीक नहीं। तीन नव निर्मित राज्यों उत्तराखण्ड, झारखण्ड और छतीसगढ़ के आंदोलनों का इतिहास गवाह है कि बेहतर राजनैतिक विकल्प की अनुपस्थिति में चालू राजनीति के बेरोजगार नेताओं ने जो अफरा तफरी मचायी उसके प्रतिफल राज्य निर्माण के बाद स्थापित होती गयी उनकी सत्ता के रूप में सामने हैं। स्थापित राजनीति का बेहद फूहड़पन वाला विकास-मॉडल सिर्फ मुनाफे की संस्कृति की स्थापना करने में ही सहायक हुआ है। अपने व्यक्तिगत हितों के लिए आंदोलनों में सक्रिय रहते भूमाफिया और दलालों के बोलबाले ने स्थानिकता को निरीह और लाचार बनने के लिए मजबूर किया है। शासकीय गतिविधियों में हस्तक्षेप की ताकत रखने वाले अपने आकाओं के इशारों पर आंदोलन में घुसपैठ करके वे आज सत्ता पर कब्जा जमाये हैं। मासूम जनता के सपनों को आकार देने के नाम पर षड़यंत कर वे आंदोलनों का हिस्सा हुए और अराजक तरह का माहौल रचने में कामयबी हासिल कर सके हैं। देख सकते हैं कि सबसे पहले उनकी निगाहें अपनी पूंजी को जल्द से जल्द और बिना किसी अतिरिक्त निवेश या मेहनत के, अधिक से अधिक बटोरने की रही और इसके लिए भौगोलिक विशिष्टताओं से भरे भू भागों पर कब्जे करने की उनकी कोशिश बहुत दबी छुपी न रहने पर भी स्थानीय भू मालिकों के समझ न आने वाली ही हुई हैं। रूपयों के बदले जमीन के मोल भाव में स्थानीय जन इस कदर ठगे गये हैं कि न सिर्फ स्वंय लाचार हुए बल्कि माहौल में अराजकता और लम्पटई की कितनी ही स्थितियों को जमने और फलीभूत होने का अवसर बना है। खेती योग्य भूमि को प्रोपर्टी के दलालों की निगाहों ने जिस तरह से तहस नहस किया वह शायद ही तीनों में से किसी भी एक राज्य में छुपा हुआ न हो। 
भाषायी आधार पर गठित आंध्र प्रदेश में भी आज अलग राज्य की मांग का सवाल सामने है। आदिलाबाद, निजामाबाद, करीमनगर, वारंगल, खममम, नलगोडा, हैदराबाद, मेढक, रंगारेड्डी, महबूबनगर को मिलाकर तेलांगाना राज्य का सपना विकास की दौड़ में पिछड़ गयी जनता के सपनों में है। जनता के इस सपने के आकार लेते ही 1956 के बाद का इतिहास भी उलट जाने वाला है। तेलंगाना राज्य इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि 1956 से पहले तक मद्रास पे्रसीडेंसी का हिस्सा रहे आंध्र प्रदेश के दूसरे भू-भाग रायलसीमा और तटिय आंध्रा की तुलना में पिछड़े रहे इस क्षेत्र के विकास की चिन्तायें राज्य आंदोलन का मूल हैं। भाषायी आधार पर राज्यों के गठन के साथ हैदराबाद को मिलाकर आंध्र प्रदेश के इतिहास का एक नया अध्याय 1956 में शुरू हुआ था। 1956 से पहले तक हैदराबाद के निजाम के द्वारा शासित भू-भाग भारत में विलय की स्थिति के साथ हैदराबाद राज्य के रूप्ा मे रहा। 1953 में ही निजाम के हुकूमती क्षेत्र को हैदराबाद राज्य के गठन के समय ही भाषायी आधार पर बांट दिया गया था। मराठी भाषी क्षेत्र को बम्बई राज्य और कन्नड़ भाषी क्षेत्र को मैसूर राज्य में विलय कर शेष बचे तेलुगू क्षेत्र को हैदराबाद राज्य का दर्जा दे दिया गया था। हैदराबदी राज्य का वह तेलुगू भाषी क्षेत्र ही मद्रास प्रेसीडेंसी से अलग कर निर्मित हुए आंध्रा राज्य में विलय कर विशाल भाषायी राज्य आंध्र प्रदेश अस्तीत्व में आया। इस तरह से समांती हुकूमत में संस्कारित एवं पिछड़ी अर्थव्यवस्था के जन समाज और औपनिवेशिक हुकूमत के भीतर आधुनिकता की हवाओं में संस्कारित जन मानस के यौगिक को एक धरातल पर लाने के लिए जिस तरह की व्यवस्था होनी चाहिए थी, पूंजीवादी लोकतंत्र के भीतर उसके होने की कोई संभावना होने का प्रश्न नहीं हो सकता था। तात्कालिक लाभ के लिए बेचैन रहने वाली अर्थ व्यवसथा में असंतुलन को पाटने की बजाय उसके बढ़ाते जाने के बीज थे और उनका फलीभूत होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। फलस्वरूप निजामी हुकूमत का तेलंगाना क्षेत्र न तो जन सुविधाओं के स्तर पर और न ही रोजी रोजगार के स्तर पर तटिय आंध्र और रायलसीमा के क्षेत्रों के करीब आ सका। असंतोष के कारण ऐसी ही स्थितियों का सार रहे और 1969 में तेलंगाना राज्य की मांग का सवाल उठ खड़ा हुआ। यूं चालीस के दशक में ही भू सुधारों के तेलांगना आंदोलन का एक चरण अविभाजित कम्यूनिस्ट पार्टी के एजेंडे के साथ शुरू हुआ था। निजाम की हुकूमत के खिलाफ कामरेड वासुपुन्यया के नेतृत्व में यह एक ऐतिहासिक शुरूआत थी जिसका सपना भूमिहीनों को भूमि आबंटित करने का था।
मेढक संभावति तेलंगाना राज्य का एक जिला है, बिल्कुल वही स्थितियां जो उत्तराखण्ड आंदोलन के दौरान 1994 के आस पास देहरादून में दिखायी देने लगी थी, आज मेढक में साफ हैं। मेढक के बहुत छोटे और विकास की दौड़ में अभी गिनती में कहीं भी दिखायी न देते इलाके शंकरपल्ली के हवाले से कहूं तो आस पास के उजाड़ पड़े इलाके में बीच बीच में गड़े सीमेंट के अनंत खम्भे बताते हैं कि जमीनों पर पूरी तरह से कब्जा कर दलाल भूमाफियाओं का वर्ग राज्य निर्माण की प्रक्रिया के एक चरण को पूरा कर चुका है। बड़े मॉल, आम जन के लिए प्रतिबंधित पार्क, मल्टीपलेक्स, खेती को निकृष्ट कर्म और दलाली को स्थापित करने वाली मानसिकता का तर्क बहुत स्पष्ट है कि बंजर जमीनों का वे सदुपयोग करना चाहते हैं और राज्य के आय का स्रोत होना चाहते हैं। साथ ही सौन्दर्य के नये मानक भी वे इसी तरह गढ़ने को उतावले हैं। लेकिन राज्य जिसकी जरूरत रहा, उस जनमानस के लिए इस तरह का विकास कैसे लाभकारी हो सकता है, यह प्रश्न उन्हें बेहुदा लग सकता है।     
यूं यह सवाल महत्वपूर्ण हो सकता है कि किसी जगह की सुन्दरता का मानक क्या हो सकता है ? वहां रह रहे लोगों के आचार-विचार का अनुपात स्थान विशेष की सुन्दरता में क्या कोई कारक है, या उसका कोई लेना देना नहीं। मानव निर्मितयों के रूप में पार्क, सड़क, भवन, खुदरा(खुरदरा) कहलाने के बावजूद मुलायम और चुंधियाते बाजार के साथ स्थानिकता के संयोजन के कौन से तत्वों को सुंदरता के पैमाने के साथ देखा जाना चाहिए ? किसी महानगरीय सुविधाओं सी समतुल्य स्थितियों में स्थानिकता को बचाने की बात करना क्या पिछड़ा कहलाते हुए असुंदर के पक्ष में हो जाने जैसा है ? आभावों के घटाटोप के बीच सुन्दर कहने के लिए भूभाग विशेष के किसी महानगर से संबंधों में विचरण करते बहुमंजिलेपन के बदलाव ही क्या सुंदरता के सांख्यिकी पैमाने हो सकते हैं ? अस्मिता का मामला भूगोल विशेष से स्थानीय जनता के जुड़ाव का मसला है और स्थान विशेष की खूबसूरती से भी है। स्थानिकता अपनी तस्वीर भू-भाग की विविधता में देख रही होती है और जरूरत के साथ-साथ ही वक्त-वक्त पर आवश्यक हस्तक्षेप कर उसे अपने तरह से तराश रही होती है। मुनाफे के अफरा-तफरी बदलाव में वह ठगी सी रह जाती है। स्पष्ट है कि ऊंचे- ऊंचे पहाड़, हरे हरे बुग्याल, बर्फानी हवाओं का खिलंदड़पन और बहुत शान्त माहौल के बीच नदीयों, पक्षीयों के गीतों से भरे सुरीले स्वर उत्तराखण्ड की अस्मिता के केन्द्र बिन्दू रहे। लेकिन जमीनों पर तेजी से कब्जा करने के बाद जिस तरह के बदलाव एकाएक हुए हैं वे राज्य के लिए संघर्षरत रही जनता को ठगने वाले रहे। मेढक के शंकरपल्ली इलाके की सुंदरता को गहरी ठेस पहुंचाने की कोशिशों को इसीलिए चिहि्नत किये जाने की जरूरत है वरना तय है कि भविष्य में छोटा राज्य बना लेने के बाद भी व्यवस्था के झुकाव को स्थानिकता के पक्ष में खड़ा नहीं पाया जा सकता।

 -विजय गौड़

Friday, December 16, 2011

घेड़ गिंडुक की तेरहवीं


डा. शोभाराम शर्मा

ठाकुर बुथाड़ सिंह को बाप-दादों से वसीयत में जो कुछ मिला, उसमें से तीन चीजों का उल्लेख करना आवश्यक है। पहली चीज थी इलाके की थोकदारी¹, दूसरी लाइलाज बीमारी और तीसरी कोठे² के एक अंधेरे कमरे में पड़ा घेड़ गिंडुक³। सत्ता चाहे जो भी और जैसी भी हो, उसके प्राण तो लाठी में ही बसते हैं। यहां भी उधर की सत्ता ने अपना आतंक जमाने के लिए जो हथियार चुना वह घेड़ गिंडुक के रूप में सामने आया। हक-दस्तूरी⁴ की जां-बेजां वसूली के लिए वह कारगर हथियार साबित हुआ। उसके बूते उपजी दौलत, और दौलत से उपजी विलासिता। दौलत ने विलासिता को ऐसी हवा दी कि उसके असर से बच पाना आसान नहीं था। पहले शिकार बने ठाकुर बुथाड़ सिंह के अपने ही दादा। जिनकी रसिकता की चर्चा लोग आज भी चटखारे ले-लेकर करते हैं। एक से जी नहीं भरा तो चार-चार शादियां कर डालीं। एक को तो विवाह मंडप से ही उड़ा लाए। इलाके को जैसे सांप सूंघ गया। विरोध् में एक उंगली तक नहीं उठी। घेड़ गिंडुक के आगोश में मौत को गले लगाने की हिम्मत जुटाना भी तो खेल नहीं था। पिफर क्या था, वासना का ज्वार सारी सीमाएं लांघ गया। मां-बाप ने जिस बेचारी से पल्ला बांध वह तो पति की बेरुखी का अभिशाप जीवन भर भोगती रही। गनीमत हुई कि थोकदारी का वारिस उन्हीं की कोख से पैदा हुआ और इलाके के लोग 'जैजिया⁵ का संबोधन उन्हीं के सम्मान में करते थे। संतोष था तो बस इतना ही।
उधर महफिलें जमतीं, नृत्यांगनाओं के नखरे उठाए जाते, ऊपर से इलाके की सुंदरियों की टोह भी लेनी पड़ती। रखैलों का ध्यान भी गाहे-बगाहे रखना ही पड़ता। सुरा-सुंदरी के मोहपाश में ऐसे फंसे कि असमय ही बुढ़ापे के लक्षण प्रकट होने लगे। हल्का-सा ताप और ऊपर से खांसी की मार। लगता था कि एक हरे-भरे पेड़ को बेरहम काठ कीड़ा भीतर से खोखला करने में लगा हो। रोग बढ़ता गया और एक दिन खून उगलते-उगलते वे दुनियां ही छोड़ गए।
बेटे ने शादियां तो दो ही कीं लेकिन सुरा-सुंदरी के आकर्षण से बच पाना उसके बस में भी नहीं था। बाप की सौगात जल्दी ही ऐसा रंग लाई कि अधबीच जवानी में ही रोग ने धर दबोचा। आज तीसरी पीढ़ी के ठाकुर बुथाड़ सिंह उसी की चपेट में हैं। थोकदारी के साथ बीमारी भी खानदानी हो गई। खानदान पर लगे इस घुन से पीछा छुड़ाने के लिए क्या कुछ नहीं किया गया। देवी-देवता, पूजा-पाठ, जप-तप, तीरथ-व्रत, झाड़-फूंक और दवा-दारू सबकुछ तो किया लेकिन ढाक के वही तीन पात। अभी तक तो छुटकारा मिला नहीं। ठाकुर बुथाड़ सिंह को तो बस यही चिंता खाए जा रही थी कि उनका अपना तो जो कुछ हो लेकिन अगली पीढ़ी इस बला के चंगुल में न फंसे। ऊपर से एक मुसीबत और। गोरखों तक तो ऊपरवालों से तालमेल बिठाने में कोई अड़चन नहीं आई लेकिन इधर जब से सात समंदर पार के पिफरंगी मालिक बने थोकदारी पर भी संकट के बादल मंडराते नजर आने लगे। बड़े-बड़े नवाब और राजे-महाराजे तक जिस कंपनी बहादुर के आगे नहीं टिक पाए, उसका थोकदार जैसे बौने सामंत भला क्या बिगाड़ लेते? अपनी इस बेबसी पर ठाकुर बुथाड़ सिंह भीतर-ही-भीतर कसमसा रहे थे कि बाहर से किसी की पदचाप सुनाई दी। दरवाजा ठेलकर अपने ही कुलपुरोहित प्रकट तो हुए पर झिझकते हुए कुछ दूरी बनाकर बतियाने लगे। बोले- ''ठाकुर साहब! राजवैध की दवाइयों से कुछ लाभ हुआ कि नहीं?
''किसका लाभ और कहां का लाभ पंडित जी। लगता है अब ऊपर जाने के दिन नजदीक आ गए हैं। मायूस होकर ठाकुर बुथाड़ सिंह ने जवाब दिया।
''इतने निराश न हों ठाकुर साहब। हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहने से तो कुछ होगा नहीं। राजवैध यह भी तो सुझा गए थे कि मांसाहारी का मांस लाभ पहुंचा सकता है।
''तो आप चाहते हैं कि मैं गीदड़, कौवे और उल्लू आदि का मांस लेकर अपना अगला जनम भी अकारथ कर डालूं। नहीं पंडित जी मन नहीं मानता। आखिर अपने संस्कार भी तो कुछ हैं।
''आपका कहना भी सही है मन ही न माने तो उपाय भी व्यर्थ हो जाते हैं। लेकिन कुछ-न-कुछ तो करना ही होगा। आपकी जन्मकुंडली देखकर मैंने जो वर्षफल निकाला है उसके अनुसार शनि की साढ़े साती का अब एक ही साल शेष रह गया है। इस बीच अगर शनि-कोप-विमोचन-जाप किसी शिव मंदिर में शुरू कर दें तो रोग का प्रकोप अवश्य धीमा पड़ेगा और साल भर बाद अगर भगवान आशुतोष की कृपा हुई तो आप इस जानलेवा बीमारी के चंगुल से भी छुटकारा पा लेंगे।
''आप कहते हैं तो यही सही। लेकिन एक बात समझ में नहीं आती। यह साढ़े साती मेरे ही पीछे पड़ी है या मेरा पूरा खानदान ही इसकी चपेट में है। मैं तो तीसरी पीढ़ी में हूं। इसी रोग के मारे मेरे पुरखे भी असमय काल-कवलित हो गए। उन्होंने भी तो सारे उपाय किए थे। लेकिन हुआ क्या? जो कीड़ा खानदान की जड़ में लग गया वह तो छूटने का नाम ही नहीं लेता।
''देखिए ठाकुर साहब, शनि महाराज का कुछ स्वभाव ही ऐसा है कि किसी पर प्रसन्न हुए नहीं कि राज-योग बैठ गया और कहीं कुपित हो बैठे तो सालों-साल साढे़ साती के कोल्हू में पेर दिया। अति तो हर चीज की बुरी होती है। भगवान शनिदेव की कृपा से राजयोग बैठता तो है लेकिन विलास की अति उन्हें भी पसंद नहीं। राजयोग को राजयक्ष्मा में बदलते उन्हें देर नहीं लगती। कहते हैं कि अति विलासिता के कारण भगवान राम का वंश तक इसी रोग से समाप्त हो गया था। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि हम भाग्य भरोसे बैठे रहें। मैं जिस जाप की सलाह दे रहा हूं, शायद वही काम कर जाए, कौन जाने?
''लेकिन मेरी सिथति क्या जाप करने की है?
''आपको नहीं, जाप तो मुझे करना है आपके लिए। आप तो बस संकल्प भर कर दें।
''तो ठीक है, जिस चीज की भी जरूरत हो आप निस्संकोच यहां से लेते रहें। हां … । ठाकुर बुथाड़ सिंह ने कुछ कहने के लिए गला सापफ करना चाहा तो खांसी उभर आई। कहीं थूक के छींटे उन तक न पहुंचे इस डर से पुरोहित ने मुंह फेर लिया। खांसी का वेग थमा तो बुथाड़ सिंह गहरी सांस छोड़कर बोले- ''पंडित जी, एक आप ही थे जो सामने आकर बतिया लेते थे। अब तो आप भी मुंह फेरने लगे हैं। खैर! आपको ही क्या दोष दूं जब अपने ही सामने आने से कतराते हैं। और-तो-और घरवाली तक छूने से परहेज करने लगी है। बस भोजन-पानी और दवा-दारू देकर कमरे से बाहर निकलने की जल्दी में रहती है। जबसे यह रोग लगा बेटे और बहू की एक झलक तक देखने को तरस जाता हूं। नाते-रिश्तेदार और इलाके के लोग बाहर-बाहर से हमदर्दी जताकर खिसक लेते हैं। एक तो बीमारी ऊपर से अकेलेपन का एहसास, इन दोनों ने तो मुझे भीतर से तोड़  दिया है। सोचता हूं इस दुनिया से जितनी जल्दी उठ जाउफं, उतना ही अच्छा।
''ठाकुर साहब! धीरज रखें एक ही साल की बात तो है। साढे साती निपटी नहीं कि आपको चंगा होने में देर नहीं लगेगी। हां, अगर चिंता ही करनी है तो थोकदारी को लेकर करें। पंडित जी ठाकुर की ओर मुखातिब होकर कह बैठे।
''क्यों? क्या कोई नई बात सामने आई है? बेगार और बरदाइश लेने का अधिकार हमसे तो छीन लिया लेकिन अपने अफसरों के लिए उसे कानून सम्मत मानने में कोई हिचक नहीं। गनीमत है अभी हक-दस्तूरी की ओर इस सरकार की नजर नहीं गई।
''बकरे की मां कब तक खैर मनाएगी, ठाकुर साहब। थोकदारी के पर कुतरने का तो पुख्ता इंतजाम हो चुका। सारे मामले तो अब पटवारी और तहसीलदार जैसे सरकारी मुलाजिमों को देखने हैं। ऊपर से जमीन के बंदोबस्त की जो कवायद चल रही है उससे तो थोकदारी के हाशिए पर चले जाने का पूरा खतरा है। हिस्सेदार-तो-हिस्सेदार खैकरों और यहां तक सिरतावों को भी अब जमीन छिन जाने का भय नहीं रहेगा। रहे पायकाश्त तो उनकी संख्या ही कितनी है। डर के बिना तो लोग हक-दस्तूरी भी देने से रहे। लगान भी अब आगे से नकद जमा करने की बात सुनने में आई है। यह सुनकर ठाकुर साहब का चेहरा तो पीला पड़ा ही मुंह भी खुला-का-खुला रह गया। किसी तरह खांसी रोक कर बोले-''खटका तो मुझे भी था पंडित जी। आपने और भी आंखें खोल दीं। इन फिरंगियों के नियम-कानून कुछ समझ में नहीं आते। लगता है हम लोगों के दिन लद गए हैं। अंधेरा-ही-अंधेरा नजर आता है। दुख तो इस बात का है कि यह सब मेरी ही पीढ़ी के साथ होना था। बेटा ऐसा कि भविष्य की कोई चिंता नहीं। हर बात को मजाक में लेता है। सुनता हूं कि अब मनमानी पर भी उतर आया है। सात-सात खून माफ होने की बात उछालकर लोगों को धमकाने से भी बाज नहीं आता। ना-समझी तो मैंने भी की थी और उसका परिणाम भी भोग रहा हूं। पिफर भी जहां तक खानदान के हित का सवाल है, मैंने कभी अनदेखी नहीं की। लेकिन थोबू है कि इस ओर से बिल्कुल बेखबर। पिफरंगी सरकार के तौर-तरीकों से तालमेल नहीं बैठा तो अगली पीढि़यां भीखमंगों की जमात में शामिल होने से नहीं बचेंगी। सोचता हूं तो कलेजा मुंह को आता है।
तन और मन की दुहरी चिंता में घुलते थोकदार जी को सान्त्वना देने की गरज से पंडित जी बोले-''हरि इच्छा मानकर चिंता करना छोडि़ए ठाकुर साहब। उम्र की बढ़ती के साथ बेटा भी सब सीख जाएगा। जमाने के थपेडे़ उसे सही राह पर ले आएंगे। आप सोच-सोचकर क्यों जी हलकान करते हैं। मन को शांत रखिए और सबकुछ उफपर वाले पर छोड़ दीजिए वरना हालत और गंभीर हो सकती है।
''हां! और चारा भी क्या है पंडित जी, र्इश्वर की जो इच्छा।
''अच्छा तो मैं चलूं। कल से ही जाप शुरू कर देता हूं। यह कहकर पंडित जी कमरे से बाहर हो गए। भीतर बुथाड़ सिंह पिफर से खांसने लगे थे। खांसी के साथ-साथ कराहने का स्वर थोकदन⁶ के कानों में पड़ा तो वह नीचे चली आर्इ। कमरे में प्रवेश करते ही पूछ बैठी-''आपने दवा ली कि नहीं? थोकदार जी थूकदान में कपफ के साथ पहली बार खून के कतरे देखकर परेशान थे। उदास नजरों से थोकदन के चेहरे पर देखते हुए बुझे-बुझे स्वर में बोले-''जी कर ही क्या करूंगा जो दवा लूं।
''शुभ-शुभ बोलो जी! आप ही हिम्मत हार बैठे तो हमारा क्या होगा। थोकदन ने कहा।
''मन रखने को कुछ भी कहती रहो ठकुराइन लेकिन यहां मेरी चिंता ही किसको है। कारबारी हों या सिरताव-खैकर, नाते-रिश्तेदार हों या अपनी औलाद, सब-के-सब तो दूरी बरत रहे हैं। पास पफटकने में तो सबकी नानी मरती है। तुम तो अर्धंगिनी हो मेरी, सात पफेरे लिए हैं तुमने लेकिन जब से यह रोग लगा, पास आने में कतराती हो। बतियाने तक में कंजूसी बरतने लगी हो। ऐसे बच निकलती हो जैसे मैं आदमी न हुआ अजगर हो गया जो साबुत निगल जाउफंगा।
''हाय राम! यह सोच भी कैसे लिया आपने? कौन अभागिन होगी जो अपने सुहाग के बारे में ऐसा सोचे? कहते हैं इस रोग में दूरी बरतना ही सबके हित में है। यही सोचकर मैं अपने मन पर काबू रखने का प्रयास करती हूं। नहीं तो साथ निभाने की इच्छा किसकी नहीं होती।
घरवाली के मुंह से आत्म-नियंत्राण और संयम बरतने की बात सुनकर बुथाड़ सिंह के मुंह से बोल नहीं पफूटे। एकटक पत्नी के सुघड़ चेहरे पर देखते रहे। जवानी के दिन याद आने लगे तो बोले-''थोबू की मां! सोचता हूं देर-सवेर तो मरना ही है पिफर क्यों न जीवन का भरपूर आनंद उठाकर मरें। दूर क्यों खड़ी हो? पास आकर बैठो न। और वे पत्नी की ओर सरकने लगे। पत्नी ने बरजा-''छोड़ो भी। दादा-दादी की उम्र होने को आर्इ, उफपर से ऐसी बीमारी, कुछ तो खयाल करो।
लेकिन थोकदार जी अब कहां मानने वाले थे। झटके-से खड़े हुए और हिंसक पशु की तरह थोकदन की ओर लपके। आंखों में वासना के लाल डोरों की झलक देखकर थोकदन तेजी से बाहर निकल गर्इ। वह तो हाथ क्या चढ़ती, कमजोरी के कारण बुथाड़ सिंह की टांगे लड़खड़ार्इ और माथा दरवाजे से जा टकराया। आंखों के आगे चिनगारियां उड़ने लगीं और पिफर अंध्ेरा छा गया। लेकिन दिमाग की सुर्इ बीते दिनों के भूले-बिसरे परिदृश्यों पर जाकर अटक गर्इ। याद आया कि वे भी क्या दिन थे जब उनकी इच्छा ठुकराने का साहस किसी में नहीं था और आज अपनी ही घरवाली … । थोकदारी का आहत अहंकार जाग उठा और वे गुस्से में पास के उस अंध्ेरे कक्ष में घुस पड़े जहां बहुत दिनों से बेकार पड़ा घेड़ गिंडुक दीवार के सहारे खड़ा था।
आंखें मिचमिचाकर दीवार की ओर देखा तो घेड़ गिंडुक नजर आया। भारी-भरकम अजगरी आकार और सुरसा जैसा भयानक मुंह। यातना का वह राक्षसी औजार देखते ही ठाकुर को उफपर से नीचे तक झुरझुरी दौड़ गर्इ। कान भी बजने लगे। लगा कि जैसे घेड़ गिंडुक के भीतर कैद कोर्इ अभागा असहनीय यातना के मारे अपने भाग्य पर रो रहा हो। ठाकुर को घेड़ गिंडुक के मुंह से किसी आदमी का सिर बाहर लटकता नजर आया। बेतरतीब दाड़ी-मूछों वाला वह अजीब-सा चेहरा कभी सामने आया हो, ऐसा नहीं लगा। ठाकुर बुथाड़ सिंह यह नजारा देखकर किसी दूसरी ही दुनिया में खोते चले गए। देखते क्या हैं कि घेड़ गिंडुक से उछलकर वह दढि़यल सामने आकर मुंह चिढ़ा रहा है। उसने पहला व्यंग्य बाण छोड़ा-''अपमान पी जाना और गुस्सा थूक देना नागवंशी नागों ने कब से सीखा? कोर्इ प्रतिक्रिया होती न देखकर उसने पिफर कहा-''पुरखों के प्रताप का जाप झेल नहीं पाए क्या, जो आवाज तक नहीं निकलती। घबराहट में किसी तरह थूक निगलकर ठाकुर बुथाड़ सिंह बोले-''तुम हो कौन जो इस तरह बोल रहे हो?
''मैं … मैं तुम्हारे वंश का वह इतिहास हूं जो दगा-पफरेब, जालसाजी और लाठी के बल पर लिखा गया है। धूर्तता की जिस बुनियाद पर तुम्हारी थोकदारी टिकी है उसका पहला शिकार मैं हूं। सुनना चाहते हो? तो सुनो- बात उस समय की है जब खोहद्वार का यह इलाका मैदानी लुटेरों की शिकारगाह बना हुआ था। दरबार तक खबर पहुंची तो तुम्हारे दादा को इस आशय से भेजा गया कि वे लुटेरों को मार भगाएं। वे आठ-दस सैनिक लेकर यहां पहुंचे। पहली ही मुठभेड़ में दो सैनिक लुटेरों के हाथों मारे गए। एक बघेरे का शिकार हो गया। दूसरी मुठभेड़ में लुटेरों ने घात लगाकर दो और सैनिकों का काम तमाम कर डाला। उफपर से तुम्हारे परदादा और शेष तीन सैनिक मच्छरों के मारे जूड़ी-ताप के शिकार हो गए। निराश होकर वे किसी बस्ती की खोज में थे कि एक ओर अध्मरा सैनिक अजगर के पेट में समा गया। तुम्हारे पड़दादा और उनके दो साथी यहीं गध्ेरे⁷ के किनारे एक पत्थर की आड़ में अपनी मौत की बाट जोह रहे थे। मैंने उन्हें मरणासन्न अवस्था में देखा तो मुझसे रहा नहीं गया। मैं उन्हें अपने दो भाइयों की मदद से घर ले आया। हमारी सेवा-सुश्रुषा से वे कुछ ही दिनों में स्वस्थ हो गए। हां, तुम्हारे पड़दादा ध्ुन के तो सचमुच पक्के थे उन्होंने मुझे और गांव के दूसरे जवानों को भी अपनी मुहिम में शामिल कर लिया। एक मुठभेड़ में तुम्हारे पड़दादा के प्राण संकट में थे लेकिन मौके पर मेरी सूझबूझ ने पासा पलट दिया। खूंखार लुटेरा सरदार मारा गया। बाकी लुटेरे भाग खड़े हुए। इलाके को उनके आतंक से मुकित मिल गर्इ। लेकिन हमारे सरसब्ज गांव को देखकर तुम्हारे पड़दादा की आंखों में जो चमक पैदा हुर्इ उसका मतलब बाद में ही मालूम हो पाया।
हमारे पुरखों ने गांव की यह जमीन जंगल से छीनी थी। उसकी उर्वरता देखकर वे स्थायी बस्ती बसाने को प्रेरित हुए थे। गध्ेरे से गूल इस तरह निकाली गर्इ कि गांव की एक इंच भूमि भी असिंचित नहीं रह पार्इ। पूरा-का-पूरा गांव एक सेरे⁸ के रूप में उभर आया। गांव के नीचे भाबर का विशाल वन और सिर पर बांज-बुरांसों का शीतल जंगल। यह सब देखभाल कर तुम्हारे पड़दादा अपने दो साथियों के साथ राज-दरबार में अपनी कामयाबी की वाहवाही लूटने विदा हो गए। बात आर्इ-गर्इ हो गर्इ। लेकिन एक दिन वे घोड़े पर सवार हो थोकदारी का पटटा लेकर आ ध्मके। उनके साथ राज्य के दो सैनिक और एक पंडित जी भी थे। आते ही सबसे पहले मेरी पुकार हुर्इ। और जिस अकड़ के साथ मेरा चार नाली⁹ का खेत कोठे के लिए मांगा गया, सुनकर मैं तो हक्का-बक्का रह गया। कुछ कह नहीं पाया तो पंडित जी बोले-''देखो भार्इ! जमीन की तो कोर्इ कमी यहां है नहीं लेकिन वास्तुशास्त्रा के अनुसार तुम्हारा यह खेत कोठे के लिए सबसे शुभ ठहरता है। मैंने मिटटी का परीक्षण करके भी देख लिया है। देखो यह तो नागवंशी ठाकुर की भलमनसाहत है जो तुमसे जमीन का एक टुकड़ा मांगने की नम्रता बरत रहे हैं। मैं पिफर भी कुछ नहीं बोला तो नए-नए थोकदार जी ने पफरमाया- 'मैं तुम्हारा अहसान नहीं भूला हूं भार्इ। लेकिन पंडित जी का कहना है कि यही खेत कोठे के लिए सबसे उत्तम है तो क्या करें। इसके बदले तुम यहां चाहे जितनी जमीन ले लो मुझे कोर्इ आपत्ति नहीं।
इस पर मैंने कहा- 'इस खेत की उपज की भरपार्इ तो दूसरी जमीन शायद ही कर पाए। पिफर यहां आपकी कौन-सी जमीन है जो बदले में आप मुझे देने का सौजन्य बरत रहे हैं। उत्तर नहीं बन पाया तो पंडित जी यजमान की मदद को आगे आए। वे प्रश्न-पर-प्रश्न उछालते गए और खुद ही उत्तर भी देते गए। बोले-'यह ध्रती, यह दुनिया किसने बनार्इ? ईश्वर ने। तो पिफर यह दुनिया किसकी जागीर है? ईश्वर की। और ईश्वर ने इसकी देख-रेख का काम किसको सौंपा है? राजा को। और राजा ने किन लोगों में अपना दायित्व बांटा है? थोकदार-जमींदारों में। तो पिफर इलाके भर की जमीन किसकी हुई? थोकदार जी की। ध्र्मशास्त्रा तो यही कहते हैं भाई! वैसे तुम जानो। और मैं अनपढ़-गंवार भला क्या कहता। धर्मशास्त्र ने तो मेरी बोलती ही बंद कर दी थी।
दूसरे ही दिन मेरे उस खेत में कोठे के लिए नींव खुदने लगी। इलाके भर के सारे जवान मर्द-औरतों को प्रभु सेवा में जोत दिया गया। कुछ लोग चिनार्इ के पत्थर निकालने लगे। कुछ छवार्इ के पठाल¹⁰ तो कुछ लोग जंगल में इमारती लकड़ी तैयार करने में जुट गए। एक विशाल पेड़ के तने को घेड़ गिंडुक का आकार लेते भी हमने पहली बार देखा। इलाके भर के नामी ओड¹¹ भी धर लिए गए थे। थोकदार जी के कोठे की चिनार्इ साधरण बेजड़¹² से तो होनी नहीं थी सो इलाके भर से उड़द की ढेरों दाल इकटठा की गई। यहां तक कि शादी के लिए जमा उड़द भी छीन ली गर्इ। गांव की औरतों को उड़द की पीठी बनाने में जोत दिया गया। और इस तरह तुम्हारे पुश्तैनी कोठे ने आकार ग्रहण करना शुरू किया। पूरा होने पर परिवार भी आकर घेड़ गिंडुक के साथ यहां रहने लगा। लेकिन थोकदार जी परिवार के प्रति निष्ठावान होने के कायल कभी नहीं रहे। अपनी अमलदारी के चार अन्य गांवों में भी रखैलों के लिए प्रभु सेवा में घर बने। इन घरों में थोकदार जी का आना-जाना बारी-बारी लगा रहता। रखैलों में से किसी को उठा लाए थे तो कोर्इ उनके रौबदाब के मारे खुद ही गले पड़ गर्इ थी। खैर यहां तक तो गनीमत थी लेकिन जब एक बादिन¹ को कोठे में ही अपनी हवस का शिकार बना बैठे तो मुझसे नहीं रहा गया। बेचारा मंगतू बादी¹⁵ मेरे पास आया था। उसने बताया कि वह कुछ पाने की गरज से थोकदार जी की सेवा में हाजिर हुआ था लेकिन अपनी बादिन से ही हाथ धे बैठा है। थोकदार जी ने बलात उसे कोठे में बंद कर दिया है। विरोध् किया तो घेड़ गिंडुक की यातना भोगने से किसी तरह बचकर निकल आया है। मैंने उसे अपने साथ चलने को कहा लेकिन वह थोकदार जी के सामने जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। मैं अकेले ही थोकदार जी के पास जा ध्मका। पहुंचते ही पूछ बैठा-'ठाकुर साहब बादिन को आपने कहां छिपा रखा है? इस पर तुम्हारे पड़दादा ने जलती आंखों से मेरी ओर ताका और बोेले- 'खसिया की औलाद, तेरी इतनी हिम्मत! मंगतू बादी क्या तेरा रिश्तेदार लगता है? समझा, तू समझता है कि कभी एक लुटेरे के प्रहार से बचाकर तूने मुझ पर एहसान किया था, इसलिए जो चाहे मेरे मुंह पर कह सकता है। लेकिन एहसान किस बात का? राज-दरबार ने मुझे जो काम सौंपा था, प्रजा के नाते उसमें हाथ बंटाना क्या तुम्हारा पफर्ज नहीं था? आज तक मैं तुम्हारी हर गुस्तखी मापफ करता रहा लेकिन अब और नहीं। जानता है ये बेड़े-मेढ़े बड़े टेढ़े होते हैं। दबाकर न रखो तो सिर पर ता-थैया करने लगते हैं। इन कंगाल भिखमंगों की झोली में बिरमा जैसी नारी-रतन की बेकæी नहीं देखी जाती। मैं तो उसे दरबार तक पहुंचाना चाहता हूं, समझे!
इस पर मैं बोल उठा-'ठाकुर आप और यह ध्ंध! सुनना था कि उनकी आंखों में खून उतर आया। वे मुझे छज्जे से नीचे पफैंकने ही वाले थे कि 'जैजिया¹⁴ चंडी का रुप धरण कर बिरमा की बांह पकड़े नीचे उतर आर्इ। थोकदार जी सकपकाकर रह गए। देखते-ही-देखते बिरमा को लेकर ठाकुर और ठकुराइन में तू-तू मैं-मैं होने लगी। ठाकुर ने लताड़ा, बोेले-'बेहयार्इ की हद हो गर्इ। कल तक तो छज्जे से नीचे कदम नहीं रखे और आज एक पराए मर्द के सामने उघाड़े मुंह चली आर्इ। उफपर से जबान लड़ाती हो और वह भी एक कमजात बादिन जैसी नचनी के लिए। भला चाहती हो तो चुपचाप उफपर चली जाओ। मेरे काम में दखल देने की हिमाकत न करो तो अच्छा है, सरेआम कुल की इज्जत उछाल रही हो तुम।
''कुल की इज्जत! उँह, वह तो कब की नीलाम कर चुके नागवंशी ठाकुर। मैं आज तक सब सहती रही। रखैलों से तुम्हारे संबंध् तो जगजाहिर हैं ही, यहां गांव में भी कौन-सी ऐसी बहू-बेटी है जिसकी इज्जत से खिलवाड़ करने का प्रयास तुमने न किया हो। लाज-शरम के मारे कोर्इ कुछ नहीं बोले, तो तुम शेर बन गए। मैं कोर्इ रखैल नहीं ब्याहता पत्नी हूं तुम्हारी। अपने इस कोठे को मैं बार्इ का कोठा नहीं बनने दूंगी। इस बेचारी में तो मुझे अपनी बेटी नजर आती है और तुमने इसी से अपना मुंह काला किया।
इस पर थोकदार जी कुछ हतप्रभ होकर बोले- ''तुम हद पार कर रही हो ठकुराइन। नागवंशी ठाकुर ऐसा अपमान सहने के आदी नहीं। तुम सरासर इल्जाम थोप रही हो। आखिर मैं पति हूं तुम्हारा। इसने कहा और तुमने मान लिया। अरे, इनका तो यह पेशा ही है। यही तो एक हथियार है इनका जिससे ये अपना मतलब निकालने की कला बखूबी जानते हैं। मैंने तो इसकी कंगाली पर तरस खाकर राज-दरबार पहुंचाने की सोची थी। लेकिन कोर्इ किसी का भाग्य थोड़े ही बदल सकता है।
इस पर ठकुराइन बोल उठी- ''तो नागवंशी ठाकुर बहू-बेटियों का भाग्य भी बदलने लगे! सोचते होंगे दरबार को खुश करके और बड़ा इलाका हथिया लेंगे। हे भगवान! कैसे आदमी से पाला पड़ा। मैं यह सब देखने से पहले मर क्यों नहीं गर्इ। और ठकुराइन ने माथा पीट लिया। ठाकुर और ठकुराइन की इस कहा-सुनी के बीच मंगतू बादी आया और बिरमा का हाथ पकड़कर जाने लगा। ठाकुर ने हाथ आया शिकार जाते देखा तो बौखलाकर चीख उठा- ''बेड़े की औलाद ठहर। बिरमा अब तेरी घरवाली नहीं, दरबार को समर्पित इस इलाके की एक तुच्छ भेंट है। रोकने के लिए आगे बढ़ने का प्रयास किया तो ठकुराइन आड़े आ गर्इ। ठाकुर का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। बोेले-''ठकुराइन बहुत हो गया। हट जा मेरे आगे से वरना अच्छा नहीं होगा। ठकुराइन बोल उठी- ''क्या कर लोगे? बोलो! मैं भी कोर्इ ऐसी-वैसी नहीं जो घुड़की में आ जाउफँ। कत्यूरी खानदान की बेटी हूं मैं भी। मर जाउफंगी पर अपनी आँखों के आगे ऐसा अन्याय नहीं होने दूंगी।
और ठाकुर किंकत्र्तव्यविमूढ़ होकर रह गए। खिसियाकर मेरी ओर मुखातिब हुए और बोले- ''देखा तुमने, ठकुराइन पागल हो गर्इ है। कोर्इ पति का ऐसा विरोध् करता है भला। मैंने कहा-''जैजिया गलत नहीं है ठाकुर, जरा सोचकर तो देखें। इस पर ठाकुर ने त्यौरी चढ़ाकर मेरी ओर ताका और पिफर सीढि़यों से उफपर चढ़ती थोकदन को इस तरह घूरा जैसे निगल ही जाएंगे। मंगतू और बिरमा नजरों से ओझल हो चुके थे। अपने इरादों पर इस तरह पानी पिफरता देख ठाकुर तब तो हाथ मलते रह गए लेकिन उस अपमान को भूल नहीं पाए। मंगतू और बिरमा को खोज निकालने का प्रयास भी असपफल रहा। वे तो इलाका ही छोड़कर कहीं दूर जा छिपे थे। जल्दी ही ठाकुर के भीतर बैठी बदले की कुत्सा ने अपना खेल खेलना आरंभ कर दिया। पहली शिकार तो ठकुराइन ही हुर्इ। एक सुबह पता चला कि वे चल बसी हैं। मुझे उनके पफूल सिराने हरिद्वार जाने का आदेश हुआ। आदेश के पीछे ठाकुर के इरादे को भांपना मेरे बस में नहीं था। मैं हरिद्वार के लिए कुछ ही दूर निकल पाया था कि अचानक दो नकाबपोशों ने जंगल के एक मोड़ पर मुझे घेर लिया। एक ने पीछे से वार किया और ताबड़तोड़ इतने प्रहार हुए कि मैं बेहोश होकर गिर पड़ा। होश आया तो खुद को इस घेड़ गिंडुक के भीतर जकड़ा पाया। तुम्हारे पड़दादा सामने खड़े थे। भेदभरी मुस्कान के साथ बोले- ''क्यों रे, जैजिया तो गलत नहीं थी, पिफर भी दुनिया छोड़ गर्इ? हां, उफपरवाले को भी अच्छे लोगों की जरूरत होती है तो कोर्इ क्या करे। और उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही वे बाहर निकल गए। मैं अध्मरा इस घेड़ गिंडुक के भीतर कब तक जिंदा रहा, यह तो मुझे मालूम नहीं किंतु मेरी भटकती आत्मा ने ठाकुर की भूखी वासना का नंगा नाच बखूबी देखा है। ठकुराइन की मौत का भेद भी कोठे की दीवारों से बाहर नहीं जा सका। उनके न रहने पर बेलगाम ठाकुर आखिर राजरोग का शिकार हुआ और सौगात स्वरूप अपनी अगली पीढि़यों को भी सौंप गया। मेरी हत्या का रहस्य भी लोगों पर नहीं खुला। लोग तो यही जानते-मानते हैं कि हरिद्वार आते-जाते मैं किसी जंगली जानवर का शिकार बन गया। सुना है कि ठाकुर ने अपने कारिंदों से तब मेरी खोजबीन का नाटक भी करवाया था। इतना कहकर वह आÑति देखते-ही-देखते न जाने कहां तिरोहित हो गर्इ। उसकी जगह एक दूसरी ही आÑति उभर आर्इ। अपनी ओर इशारा करके वह आÑति बोल उठी- ''देख रहे हो ठाकुर, यह मेरा नीला पड़ा शरीर। यह तो कुछ भी नहीं, मेरी आत्मा में जो जहर घोला गया उसके असर का तो कोर्इ हिसाब ही नहीं। बात तब की है जब गोरखा-आंध्ी के आगे 'बोलंदा-बदरीश¹⁶ की सत्ता टिक नहीं पार्इ। हमारे कुछ खानदानी शेरों ने अनाचारियों के आगे घुटने ही नहीं टेके बलिक उनकी आड़ में अपनी कुतिसत इच्छाएं भी पूरी करने लगे। जाने कौन-सी अशुभ घड़ी थी जब अचानक पधन¹⁷ जी की तिबारी¹⁸ से मेरी बुलाहट हुर्इ। पधन जी के आंगन के एक ओर नारंगी के पेड़ पर थोकदार जी का घोड़ा बंध देखकर मैं न जाने कैसी-कैसी आशंकाओं में डूबने-उतराने लगा। तिबारी में पहुंचा तो वहां मौजूद लोगों के चेहरों पर मुर्दनी छार्इ देख मेरा रहा-सहा ध्ैर्य भी चूक गया। थोकदार जी मूछों पर ताव देकर मेरी ओर ताक रहे थे। उनके इशारे पर पधन जी बोले- ''चैतू भार्इ! थोकदार जी हम लोगाेंं की कितनी चिंता करते हैं आज पता चला। इतनी दूर से दौड़े चले आए कि हम लोग किसी मुसीबत में न पफंस जाएं। थोकदार जी को पता चला है कि गोरखा नायक तुम्हारी बेटी की पिफराक में हैं। अगर हम लोगों ने विरोध् किया तो पता नहीं क्या हो। हो सकता है गोरखे गांव के सभी जवान लड़के-लड़कियों को बतौर दास-दासियों के बेच देने की सोचें। इस टेढ़ी समस्या से निजात पाने की जो तरकीब थोकदार जी ने सोची है, मुझे तो उसी में गांव का भला नजर आता है। वैसे तुम जानो।
मुझे काटो तो खून नहीं। कुछ कहना ही नहीं आया। थोकदार जी ने खांसकर चुप्पी तोड़ी, बोले- ''गोरखे तो पिफलहाल कहीं दून की ओर गए हैं। सुना है वहां पिफरंगियों से खतरा पैदा हो गया है। कहीं लौट आए तो क्या होगा, यही सोचकर परेशान हूं। हमारी बहू-बेटियों की इज्जत पर कोर्इ बाहर वाला हाथ डाले, यह तो हमारे लिए चुल्लू भर पानी में डूब मरने की बात होगी। सोचता हूं कि लड़की को मैं स्वयं अपने सरंक्षण में ले लूं। ऐसा होने पर गोरखे सौ बार सोचने को मजबूर होंगे। वे जानते हैं कि अगर हम जैसों ने उनका साथ नहीं दिया तो वे यहां टिक नहीं पाएंगे। सवाल एक घर की इज्जत का नहीं, पूरे गांव और इलाके की इज्जत का है। मेरी अमलदारी में ऐसा कुछ हो भला मैं यह कैसे सहन कर सकता हूं। मैं आज ही लड़की को अपने साथ ले जाने आया हूं।
थोकदार जी के मन की गहरार्इ में उतरकर झांका तो खून के आंसू पीकर रह गया। हाथों के तोते उड़ गए। दिल बैठ गया। रूंध्े गले से बस इतना भर बोल पाया- ''लेकिन अगले महीने तो उसके हाथ पीले करने हैं?
''तो क्या हुआ? मामला ठंडा पड़ने पर यह भी हो जाएगा। थोकदार जी स्वयं कन्यादान कर देंगे। चिंता किस बात की? पधन जी बोल उठे।
सभी की राय वही थी मैं क्या करता। एक उमरदार रोगी के साथ बेटी को जाते देखकर मेरी छाती दरककर रह गर्इ। उसकी मां तो रो-रोकर अपनी आंखें ही पफोड़ने पर तुल गर्इ थी। लेकिन हमारे पास चारा भी क्या था। छाती पर पत्थर न रखते तो क्या करते। समधियाने खबर पहुंचा दी कि लड़की पिफलहाल अपने ननिहाल गर्इ है। लेकिन कहीं उन्हें पता चल गया तो? इसी आशंका के मारे मैं एक दिन थोकदार जी के कोठे पर जा पहुंचा। सोचा था कि अगर लड़की को सकुशल वापिस ला सका तो इज्जत मिटटी होने से बच जाएगी। थोकदार जी बड़े प्यार से मिले। खुद ही बोले- ''गोरखों का खतरा तो टल गया। पिफरंगी उन्हें ध्ूल चटाकर आगे बढ़ रहे हैं लेकिन आपसे विनती है कि लड़की को वापस ले जाने की बात न करेंं। यहां ठकुराइन की तबीयत ठीक नहीं रहती। परिचर्या के लिए उन्हें एक जवान हाथ की जरूरत है। और आपकी बेटी इस काम को बखूबी निभा रही है। अगर वह यहीं रहे तो कैसा रहे?
''लेकिन उसकी तो शादी तय है। मैंने कहा।
''तो क्या हुआ? समझ लो कि उसके भाग्य में यही घर लिखा था। थोकदार जी बोले।
''यह क्या कह रहे हैं, ठाकुर। मेरी तो बिरादरी में नाक कट जाएगी। लोग थू-थू करेंगे। कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रह पाउफंगा मैं। पिफर अपनी उमर तो देखो ठाकुर?
''अरे! अभी तो साठ पर भी नहीं पहुंचा। और मर्द तो साठे पर पाठा होता है। हमसे संबंध् जुड़ना क्या तुम्हें पसंद नहीं?
''नहीं! बिल्कुल नहीं! मैंने चीखकर कह तो दिया मगर विश्वास के पांव डगमगा रहे थे। ठाकुर ने एक व्यंग्य भरी मुस्कान मेरी ओर पफेंकी पिफर अपने कारिंदों को सुनाते हुए बोला- ''लगता है इनकी समझदारी का दायरा बहुत तंग है। कुछ ऐसा करो कि बात इनकी समझ में आ जाए। इतना कहकर थोकदार जी एक ओर हट गए। पिफर क्या था, उनके दो लठैत यमदूतों की तरह मुझे घेर बैठे। एक बोला- ''क्यों रे! बछिया के ताउफ! थोकदार जी बेटी का हाथ मांग रहे हैं और तू इनकार कर रहा है। दूसरे ने कहा- ''बौड़म है या पूरा पागल! इतने उफंचे खानदान से रिश्ता जुड़ा और तू है कि तोड़ने की बात कर रहा है।
''कहां का रिश्ता और कैसा रिश्ता? गुस्से में मैं चीखा।
''अरे! तू दुनिया को बेवकूपफ समझता है क्या? तब जवान बेटी को चुपचाप थोकदार जी के साथ क्या सोचकर भेजा था? रिश्ता तो उसी दिन तय हो गया था। बेटी क्या कुंवारी बैठी है अभी तक। वह तो कब की छोटी ठकुराइन बन चुकी। शेर की मांद में घुसकर उसके मुंह से शिकार छीन लेगा क्या? पहले ने ध्मकी भरा सवाल किया तो दूसरे ने जोड़ा- ''पिददी न पिददी का शोरबा! छोटी मालकिन को कहीं और ब्याहेगा? अकल के अंध्े! तूझे तो खुश होना चाहिए कि तेरी बेटी राज कर रही है। यह सब सुनने पर भी जब मैंने अपनी जिदद नहीं छोड़ी तो वे दोनों मुझे यहां ले आए। मार बांध्कर जबरन घेड़ गिंडुक में ठूंस दिया गया। बहुत दिनों से खाली पड़ा घेड़ गिंडुक चूहों का घर बन चुका था। नागराज को भनक लगी तो दावत उड़ाने उसके भीतर घुस आए थे। ठुंसा-ठांसी में मेरे पैरों का दबाव नागराज के गले पर पड़ा तो उसमें पफंसा चूहा बाहर निकल भागा और नागराज ने पलटकर मुझे ही काट खाया। पांव से सिर तक दर्द की ऐसी लहर उठी कि मैं घेड़ गिंडुक से न जाने कैसे बाहर छिटक पड़ा। नागराज भी पफन उठाए बाहर रेंग आए। दोनों लठैत चिल्लाए- ''सांप! सांप! मुझे नीला पड़ता देख उनके चेहरों पर हवाइयां उड़ने लगीं। उनकी घबराहट भरी चिल्लाहट से कोठे में कुहराम मच गया। थोकदार जी खांसते, गिरते-पड़ते आए। नागराज अभी तक पफन पफैलाए घूरता नजर आया। मेरी आंखें मुंद रही थीं। उनमें मौत की छाया देखकर थोकदार जी सिथति भांप गए। मुझे घेड़ गिंडुक के पास से खींचकर सीढि़यों पर लिटा दिया गया। वे शायद मेरा हठ छुड़ाना चाहते थे, जान लेने का उनका इरादा नहीं था। और इसीलिए मेरे साथ जो कुछ घटा उसे एक दुर्घटना का रूप दे दिया गया। ठकुराइन के साथ बेटी आर्इ। बाप की दशा देखकर चीख मारकर गिर पड़ी। ठकुराइन ने उसे बड़ी मुशिकल से संभाला। कुछ और लोग भी जमा हो गए। भीड़ की बढ़ती नागराज को रास नहीं आर्इ और वह पफुपफकार छोड़ते हुए नीचे झाडि़यों में गायब हो गया। थोकदार जी ने जहर उतारने वाले तांत्रिक को तुरंत लाने का आदेश अपने लठैत को दिया तो सही लेकिन उसके रवाना होने से पहले ही मेरे प्राण-पखेरू उड़ चुके थे। मेरे साथ जो कुछ बीती, वह आज तक किसी को पता नहीं है। हां, यह घेड़ गिंडुक ही उसका एकमात्रा साक्षी है।
उस आÑति के गायब होते ही एक और चेहरा सामने आ गया। बोला- ''ठाकुर, पहचाना? बचपन के दिन याद करो। तब तुम यही दस-ग्यारह साल के रहे होगे। तुम्हारे पिता को अल्मोड़ा पिफरंगी के पास जाना था। पिफरंगी सरकार का आदेश था कि सारे कमीण-थोकदार और अहलकार अपनी अमलदारी का सबूत लेकर अल्मोड़ा पहुंचे। उतनी दूर पैदल पांव नापने का तो सवाल ही नहीं था। डांडी¹⁹ बोकने के लिए आठ-दस तगड़े जवान छांटे गए और दुर्भाग्य उनमें मेरा अपना वह बेटा भी था जिसका विवाह उसी बीच होना तय था। मैंने थोकदार जी से विनती की लेकिन वे कब मानने वाले थे। बोले- 'तो क्या हुआ? तुम खसियों में तो वर की अनुपसिथति में भी विवाह संपन्न हो जाता है। दुल्हन से केले के सात पफेरे लिवा लिए और मुहर लग गर्इ। हम बाप-बेटे इसके लिए तैयार नहीं थे। बेटा कहीं दूर की रिश्तेदारी में चला गया। उसके भाग जाने की खबर थोकदार जी के कानों में पड़ी तो उनके लठैत मुझे ही पकड़ ले गए। लड़के को वापस बुलाने के लिए मुझ पर दबाव डाला गया। मैंने हाथ जोड़े, पैरों पड़ा और जोर देकर कहा कि वह बिना बताए ही कहीं चला गया है लेकिन थोकदारी हठ के आगे मेरी क्या चलती। मालिक थे, ठान ली तो ठान ली। जमीन छीन लेने और गांव से बेदखल कर देने की ध्मकी ही नहीं दी गर्इ बलिक मार-बांध्कर मुझे इस घेड़ गिंडुक के हवाले कर दिया गया। मेरी दुर्दशा का पता जब बेटे का लगा तो वह लौट आया। मैं तो घेड़ गिंडुक में पड़ा-पड़ा मौत की घडि़यां गिन रहा था। करवट बदलना तो दूर रहा, वहां तो टस-से-मस होना भी दूभर था। हाथ-पैर सीध्े तने हुए, पैरों से गरदन तक पसीने से तरबतर हाजत हुर्इ तो वहीं- विष्टा और मूत से सराबोर नरक की यातना भोग ही रहा था कि अचानक मुझे छोड़ देने का आदेश हो गया। लेकिन उतने दिनों सीध पड़े रहने का यह परिणाम निकला कि कमर से नीचे बिल्कुल बेजान होकर रह गया। टांगों ने काम करना बंद कर दिया और मैं एक अपाहिज की जिंदगी जीने पर मजबूर हो गया। जितने दिन जिंदा रहा रोते-कलपते ही बीते।
आप-बीती सुनाकर वह चेहरा भी न जाने कहां अन्तर्धन हो गया। उसके गायब होते ही एक के बाद एक कर्इ चेहरे सामने आए। उनकी शिकायतें भी लगभग एक जैसी थीं। उन्हें हक-दस्तूरी न चुका पाने या भेंट-पिठार्इ न पहुंचाने के आरोप में कुछ समय के लिए घेड़ गिंडुक का आतिथ्य स्वीकार करना पड़ा था। अंत में एक ऐसा चेहरा प्रकट हुआ जिसकी अंध्ी आंखों से निकलने वाली अदृश्य चिंगारियों को थोकदार जी सहन नहीं कर पाए। उसने कहा- ''ठाकुर मुझे तो मारने के बाद भी तुम शायद ही भुला पाओ। अपनी मान-मर्यादा पर पड़ने वाली चोट क्या होती है, यह अनुभव तो तुम्हें मेरे ही कारण हुआ था। हमारी बहू-बेटियों से मनमाना खेल खेलना तो तुम लोग अपना अधिकार समझते रहे। तुम्हारे लेखे हम खैकर-सिरतान और उफपर से खसिया भला किस बूते तुम्हारी बगिया में सेंध् लगाने का दुस्साहस करते। मेरा कसूर इतना ही तो था कि मैंने तुम्हारी बहन को डूबने से बचाया था। कान के कच्चे तो तुम जनम से ही थे। किसी ने कान भरे कि मैं उस पर बुरी नजर रखता हूं और तुमने सच मान लिया। घेड़ गिंडुक के हवाले कर जिस बेरहमी से मेरी आंखों की रोशनी छीन ली गयी, उसकी मिसाल शायद ही कहीं और मिले। अपनी अंध्ेरी दुनिया में मैंने जो कुछ भोगा, मेरी आत्मा आज तक भुला नहीं पार्इ। यह देखकर भी भीतर की आग शांत होने का नाम नहीं लेती कि मेरी दुनिया में अंध्ेरा करने वाला आज अपने नसीब पर आठ-आठ आंसू रो रहा है। ठाकुर, तुमने और तुम्हारे पुरखों ने जो कुछ किया उसका परिणाम यही तो होना था। बुरे काम का परिणाम बुरा नहीं तो क्या भला होगा?
उसकी अंध्ी आंखों ने ठाकुर का मन कुछ-का-कुछ कर दिया। करतूत याद आर्इ तो सोचने-समझने की सलाहियत भी जाती रही। बाहर-भीतर जैसे अंध्ेरा छा गया और लगा कि अब तक देखे सारे चेहरे उसे घेरकर बदला लेने पर उतर आए हाें। बाहर भागना चाहा तो घेड़ गिंडुक से ऐसी ठोकर लगी कि संभल नहीं पाए। दीमक खाए कमजोर आधर वाला घेड़ गिंडुक ऐसा लुढ़का कि घेड़ गिंडुक ऊपर और ठाकुर नीचे। उफपर से सिर इतनी जोर से दीवार से जा टकराया कि दर्द के मारे बेचारे ठाकुर का हाथ-पैर मारना भी किसी काम नहीं आया।
और ठीक उसी समय बेटे ने आकर उध्र झांका तो दंग रह गया। घेड़ गिंडुक के नीचे दबा ठाकुर एक भारी-भरकम मंेंढक की तरह पिचका हुआ कबका टें बोल चुका था। बेटे ने घेड़ गिंडुक को एक ओर हटाने का प्रयास किया लेकिन अकेले उसके बस की बात भी कहां थी। अपनी ही अमलदारी के एक गांव से वह बहुत गुस्से में लौटा था। दिमाग तो वैसे ही काम नहीं कर रहा था। बाप की सेहत के लिए किसी सिरतान ने बकरे की मांग ठुकरा जो दी थी। गांव के दूसरे लोग भी जब उसी सिरतान का साथ देने लगे तो वह बंदूक लेने आया था उन Ñतघिनयों को सबक सिखाने। लेकिन यहां तो बाप की सर-परस्ती से ही हाथ धे बैठा था। चिल्लाकर मां को आवाज दी। थोकदन आकर रोने-चिल्लाने लगी तो गांव को भी खबर हो गयी। लोग आए तो सही लेकिन छूत लगने के डर से कोर्इ लाश छूने को तैयार नहीं था। यहां तक कि अपने कारिंदे भी सिर झुकाए एक ओर खड़े थे। बेटे ने आव देखा न ताव, भीतर से बंदूक उठा लाया और लोगों की ओर तानकर घोड़ा दबाने ही वाला था कि किसी ने पीछे से आकर बंदूक छीन ली। वह कोर्इ और नहीं पटटी-पटवारी थे जो पड़दादा की किसी रखैल की तीसरी पीढी में से थे और उस नाते चाचा लगते थे। पटवारी जी बोले- ''पागल हो गया क्या थोबू? गोली चलाकर पफांसी चढने का शौक चर्राया है क्या? वे दिन हवा हुए जब हमारा वचन ही कानून था, क्यों कानून अपने हाथ में लेता है? लाश का निरीक्षण करते हुए पिफर बोले- ''लगता है भार्इ साहब मरे नहीं मारे गये हंै। हत्या की गयी है इनकी। पहले सिर पर चोट मारी गर्इ और पिफर घेड़ गिंडुक इनके उफपर गिरा दिया गया। जिसने भी यह अपराध् किया है वह सामने आए अन्यथा सारे गांव को बांध् ले जाउफंगा। यह सुनना था कि सारे लोग सकते में आ गए । सबको जैसे काठ मार गया। बोलती बंद हो गयी। मरघट के उस सन्नाटे को तोड़ते हुए पटवारी ने आंसू बहाती थोकदन से पूछ लिया- ''भाभी, आपने किसी को आते-जाते या भार्इ साहब से बतियाते तो नहीं देखा?
इस पर थोकदन ने बताया कि उसने न तो किसी को आते-जाते देखा और न बतियाते सुना। हां, कुछ ही देर पहले वह खुद दवा पिलाकर जब बाहर निकल रही थी तो थोकदार जी भी उसके पीछे हो लिए थे, वह तो उफपर अपने कक्ष की ओर चली आर्इ थी। छज्जे से नीचे आंगन पर थोकदार जी को इसी कोठरी की ओर बढ़ते देखा था। सोचा शायद यों ही मन बहलाने निकले हैं। उसके बाद क्या हुआ उसे कुछ पता नहीं।
पटवारी ने अब दूसरे कोण से सोचना आरंभ कर दिया। कहीं ऐसा तो नहीं कि अंध्ेरे कमरे में घेड़ गिंडुक से बुरी तरह टकरा जाने के कारण यह कांड घटा हो। लाश के ओर नजदीक जाकर देखा तो दायें पैर के जख्मी अंगूठे ने पटवारी के हत्या वाले शक का निवारण कर दिया। बोले- ''मैं नहीं चाहता कि मरने के बाद भार्इ साहब की मिटटी पलीद हो। मामला तो दुर्घटना का ही अधिक लगता है। किसी का हाथ होने की संभावना नजर नहीं आती। लेकिन आप लोग अभी तक चुपचाप खड़े तमाशा देख रहे हंै। थोकदार जी घेड़ गिंडुक के नीचे मरे पड़े हैं और किसी में कोर्इ हरकत नहीं। अपने सरपरस्त को इस दशा में देखकर भी आप लोग चुप हैं, ताज्जुब है।
इस पर कोर्इ पफुसपफुसाया- ''छूत का रोग जो है …
''छूत लगे या भूत, कंध तो देना ही होगा। अगर कहीं शव परीक्षण के लिए ले जाना पड़ता तो क्या तुम्हारे पुरखे आते? बहुत देर हो चुकी, जल्दी करो।
पटवारी के जोर देने पर लोग हरकत में आए और थोकदार जी का अंतिम संस्कार जैसे-तैसे संपन्न हो गया।
शव-दहन के बाद लोग कोठे पर लौटे ही थे कि रास्ते पर कुछ ढांकरी²⁰ बैठे दिखार्इ दिए। अपने बोझ खेत की मेड़ पर उतारकर वे गीत गाने में मशगूल थे। एक ने टेक उठार्इ-
उठी जा मेरी बौ ¿ ¿ ¿
(हे मेरी भाभी अब तो जाग)
दूसरों ने लंबी तान खींचकर साथ देना आरंभ किया-
गैड़ी च झूमक-डांडि-कांठयों घाम मेरी बौ गदन्यूं रूमक।
(झुमके गढ़े गए ;तुक के लिएद्ध धूप ऊंचे पर्वत-शिखरों पर पहुंच गई,
नदी-घाटियों में अंधेरा झूलने लगा है।)
उठी जा मेरी बौ ¿ ¿ ¿
(हे मेरी भाभी! अब तो जाग)
गैड़ी जाली बीछी- अगि बटी द्वाड़ा दी मैची अब केन खाई गिच्ची।
(पैरों के बिछुवे गढ़े जाएंगे ;तुक के लिए)
पहले तो प्रत्युत्तर दे रही थी, अब तेरे मुंह को क्या खा गया?
उठी जा मेरी बौ ¿ ¿ ¿ ।।
(हे मेरी भाभी! अब तो जाग।)
उनका इस तरह उल्लासपूर्वक गीत गाना बाप की क्रिया में बैठे नए थोकदार को रास नहीं आया। बस क्या था, उठकर बाहर निकल आया। बंदूक अपनी ओर तनी देखकर ढांकरियों की तो सिटटी-पिटटी गुम हो गर्इ। किसी तरह साहस जुटाकर उन्होंने बताया कि वे तो कहीं दूर दूसरे इलाके के हैं लेकिन उनकी एक नहीं चली। कहा गया कि हैं तो वे उसी इलाके में जहां के थोकदार जी का आज ही निध्न हुआ है। ऐसे में गीत गाने का दंड तो उन्हें भोगना ही पड़ेगा। उन्होंने बहुत कहा कि उन्हें पता ही नहीं था लेकिन उनकी सुनता कौन? जबरन उनके बोझ घेड़ गिंडुक वाले कक्ष में रखवा दिए गए और मृतक के नाम उन सबके सिर मुंडवाने का आदेश दे दिया गया। पता नहीं कौन-सी सनक सवार हुर्इ कि कुछ के आध्े सिर तो कुछ की आध्ी मुंछ छोड़ दी गर्इ। यही तमाशा दाढि़यों के साथ भी किया गया। उनमें एक-दो तो ऐसे भी थे जिनके मां-बाप अभी जिंदा थे लेकिन आपत्ति करने पर भी उन्हें नहीं छोड़ा गया। जो भी उन्हें देखता छिप-छिप कर मुस्करा उठता। वे बेचारे करते भी क्या? थोकदार जी की बंदूक और घेड़ गिंडुक का भय जो सामने था। विरोध् करने का साहस वे क्या खाकर जुटा पाते? बेचारे मन मसोसकर रह गए। अब तो तेरहवीं होने पर ही छुटटी मिलनी थी।
सैंकड़ोें लोगों के भोजन के लिए रसद इकटठी करने, पकाने के लिए भांडे-बर्तन और लकडि़यां जमा करने तथा पत्तल-दोने आदि तैयार करने के काम में उन्हें जोत दिया गया। और भी छोटे-मोटे काम उनसे लिए जाते रहे। लेकिन ठीक तेरहवीं के दिन सुबह से ही इतनी भारी बरसात हुर्इ कि सारी लकडि़यां गीली हो गर्इं। भोजन पकना मुशिकल हो गया तो उन्हीं में से एक ने सूखे घेड़ गिंडुक की ओर इशारा किया। थोकदन तो उसे अपने कुल का अभिशाप ही मान बैठी थी। नए थोकदार ने भी अनुभव किया कि नयी व्यवस्था में घेड़ गिंडुक का शायद ही कोर्इ उपयोग है। और इस तरह वह घेड़ गिंडुक थोकदार जी की तेरहवीं में काम आ गया। उसकी चीर-पफाड़ करते हुए एक ढांकरी ने चुपके से कहा- ''चलो अच्छा हुआ, लोगों को सताने का यह औजार भी गया।
दूसरे ने कहा- ''हां, घेड़ गिंडुक की भी तेरहवीं हो गयी। और उपसिथत लोग होठों-ही-होठों में मुस्करा उठे।

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¹ थोकदारी . पहाड़ की छोटी-मोटी जमींदारी जिसे कमीणचारी भी कहा जाता था।
² कोठे. थोकदार बनाम कमीण या सयाणा का किलेनुमा घर।
³ घेड़ गिंडुक . कटे पेड़ का विशाल तना जिसे भीतर से खोखला कर दिया जाता था ताकि अपराध्ी को उसके भीतर ठूंसकर सजा भोगने के लिए मजबूर किया जाए।
⁴ हक-दस्तूरी .कमीण-सयाना-थोकदार या पधन आदि द्वारा लिया जाने वाला कर।
⁵ जैजिया .जिया- लोकप्रसिदध् कत्यूरी रानी। कुछ कत्यूरी वंशजों में 'जिया शब्द मां का अर्थ भी देने लगा और आज भी कहीं-कहीं सुनने को मिलता है। 
⁶ थोकदन .थोकदार की पत्नी
⁷ गध्ेरे . छोटी-मोटी नदी
⁸ .सेरे.उपजाउफ सिंचित भूमि
⁹ नाली . लगभग दो सेर
¹⁰ पठाल. 
¹¹ ओड . चिनार्इ करने वाले कुशल कारीगर
¹² बेजड .गारे-मिटटी का मिश्रण
¹³ .बादिन या बेडि़न- नाचने गाने वाली जाति की स्त्राी
¹⁴ बादी .नाचने-गाने वाली जाति का पुरुष 'बादी  
¹⁵ जैजिया.थोकदन
¹⁶ बोलंदा-बदरीश .बोलता हुआ अर्थात साकार बदरी नारायण
¹⁷ पधन .पधन मèय पहाड़ी समाज में कुल का मुखिया गांव का मुखिया भी होता था जिसे बि्रटिश सरकार ने भी मान्यता प्रदान कर दी थी।
¹⁸ तिबारी .उफपरी मंजिल का स्तंभों वाला एक ओर को खुला स्थान जो बैठक का काम देता था।

 ¹⁹ डांडी .पीनस या एक तरह की पालकी जिसे दो आदमी कंधें पर ढोते हैं।

²⁰ढांकरी . दूर किसी हाट-बाजार से घर के लिए आवश्यक सामान खरीदकर लाने वाले लोग।




Sunday, May 8, 2011

पैरेट मिर्ची खाता है, रैबिट कैरेट खाता है


मानव जीवन और पशु जीवन के बीच के आपसी रिश्तों के असंगत व्यवहार वाली पर्यावरणीय मानसिकता को जन्म दिया है। जंगलों और उसके आस-पास निवास करने वाले ग्रामीणों के लिए जंगल और पशु उनके आर्थिक आधार हैं, इस बात को ऐसे स्थानों पर रह रहे ग्राम वासी वर्षों से जानते हैं। लेकिन पर्यावरण की एकांगी समझ ने न सिर्फ मानवीय जीवन को ही दूभर बनाया हुआ है बल्कि जंगली पशुओं के प्रति एक झूठे प्रेम का ढकोसला रचा हुआ है। जंगलों के आस-पास निवास कर रहे ग्रामीणों का किस तरह से ऐसी ही मानसिकता से बने कानून के दायरे का शिकार होना पड़ जाता है इसका ताजा उदाहरण उत्तराखण्ड के रिखणीखाल इलाके में घटी हाल की घटना है। कानूनी दायरे ने मामले को इस कदर पेचीदा बना दिया है कि उत्तराखण्ड के विभिन्न इलाकों में पुलिस प्रशासन के खिलाफ आवाजें हर ओर सुनायी दे रही है। धरने प्रदर्शनों के लिए मजबूर जनता गिरफ्तार किये गये ग्रामीणों की रिहाई के लिए सड़कों पर उतरने को मजबूर हो रही है। विस्तृत सूचना के लिए विभिन्न पत्रों की रिपोर्ट की तस्वीरें यहां दी जा रही है। पर्यावरणीय मामले की पड़ताल करता डॉ सुनिल कैंथोला का आलेख एक सचेत नागरिक की चिन्ताओं के साथ है।
डा. सुनील कैंथोला








‘‘लामा जी उवाच’’
 ‘पैरेट मिर्ची खाता है, रैबिट कैरेट खाता है।’ 
लामा जी अभी सिर्फ ढाई साल के हैं और रंग-बिरंगे चित्रों से भरपूर अपनी किताब से बारहखड़ी सीखने के खेल में जुटे रहते हैं। ये किताब लामाजी को दुनियां भर का ज्ञान बटोरने का अवसर प्रदान करेंगी, परन्तु यदि वे इस किताबी ज्ञान का ही सच मान लेंगे और अपने सामान्य ज्ञान को नजर अंदाज करेंगे, तो यह उनके लिए घातक भी हो सकता है। जैसे किताबें कहेंगी कि भोजन चक्र के अनुसार बाघ का भोजन वनों के शाकाहारी प्राणी हैं, तो यह लामाजी व उनकी किताबों के लिए एक क्रूर मजाक ही होगा। क्योंकि उत्तराखंड में बाघ बच्चे भी खाता है और उनकी माताओं को भी। ऐसा बहुत पहले से होता आ रहा है। तार्किक आधार पर यह भी कह सकते हैं कि ऐसा तो उस समय से होता आ रहा है, जब जंगलों में बाघ के प्राकृतिक आहार की कोई कमी न थी और भोजन चक्र में बाघ के लिए पर्याप्त भोजन उपलब्ध हुआ करता था। ’’मैन ईटर आॅफ रुद्रप्रयाग’’ में जब जिम कार्बेट उस बाघ का किस्सा लगाते हैं, जो तीर्थयात्रियों से भरी एक झोपड़ी के भीतरी कक्ष से एक स्थानीय महिला को उठाकर ले जाता है, तो क्या यह ये इंगित नहीं करता कि उत्तराखंड के बाघों के भोजन चक्र का हिस्सा यहां की महिलाएं बन चुकी थी।
वन्यजीव शास्त्री संभवतः इसे हंसी में उड़ा दें, किन्तु वन्यजीव शास्त्र अभी इतना परिपक्व भी नहीं हुआ है। फिर इसे साबित करने के लिए मात्र वन्यजीव शास्त्रियों के पुस्तकालयों और शोधपत्रों को खंगालने मात्र से ही समस्या का समाधान नहीं होने जा रहा है। निश्चित रूप से वन्यजीव शास्त्र को इस विवाद में शामिल किए जाने की आवश्यकता है, किंतु समग्र रूप में यह सवाल राजनैतिक है।

मैं अपना तर्क इस स्थापना ;हाइपोथीसीस से शुरू करता हूं कि उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में बाघ के भोजन चक्र में स्थानीय महिलाएं और बच्चे शामिल हैं। इसके पक्ष में मुझे आंकड़े प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं लगती, क्योंकि यह सर्वविदित है कि बाघ लगातार हमारे बच्चों और महिलाओं को दबा रहा है। ऐसा तब से है, जब वनों में उसके लिए प्रचुर आहार मौजूद था। ऐसा कहा जा सकता है कि बूढ़ा अथवा घायल बाघ ही नरमांस का भक्षण करता है। तब भी बात वहीं की वहीं रहती है, क्योंकि हर बाघ यदि घायल न भी हो तो बूढ़ा तो होगा ही अर्थात् बाघ जब बच्चा होता है, तो मां का दूध पीता है, जवानी में हिरन वगैरह खाता है और बुढ़ापे में हमारे बच्चों और महिलाओं को अपना निवाला बनाता है। ऐसा संभवतः इसलिए भी हो कि विकट पहाड़ में हिरन का शिकार मैदानी क्षेत्रों की तुलना में अधिक श्रमपूर्ण हो, अन्यथा न लिया जाए तो मैदानी तथा पर्वतीय क्षेत्रों में बाघ द्वारा हिरन के आखेट में कुल ऊर्जा ;कैलोरी व्यय पर तुलनात्मक अध्ययन पर पीएचडी कोई बुरी बात न होगी।
बहरहाल! मैं पुनः बाघ के भोजन चक्र में शामिल हो चुके अपने पहाड़ों के बच्चों तथा महिलाओं के प्रश्न पर आता हूं। समाचार पत्रों में नरभक्षी बाघों के आंतक की घटनाएं लगातार छपती आ रही हैं। इन्हें नरभक्षी ;मैन ईटर कहना भी उचित न होगा, क्योंकि उत्तराखंड के बाघ नर का भक्षण नहीं करते। वे अपने भोजन चक्र को लेकर बहुत ही चूजी हैं। उन्हें सिर्फ महिलाएं और बच्चे ही चाहिए। चंूकि पहाड़ के अर्थतन्त्र की रीढ़ कहे जाने वाली महिला और भविष्य कहे जाने वाले बच्चे राजनैतिक रूप से हाशिए पर हैं। अतः देश में बाघ के  संरक्षण के नाम पर उनका बाघों का भोजन बन जाना कोई बड़ा सवाल पैदा नहीं करता।
इन्हीं क्षेत्रों में हमारे भाई लोग भी तो शाम को झूमते हुए निकलते हैं। कभी ज्यादा हो जाए, तो कहीं थोड़ा बहुत आराम भी कर लेते हैं। रसोई में खाना बनाती महिला के सामने से उसके बच्चे को उठा ले जाने के तो अनेक किस्से मिल जाएंगे, पर ऐसा नहीं सुना कि रास्ते में टुन्न पड़े अपने किसी भाई पर बाघ ने हमला कर दिया हो। शायद बाघ उसे सूंघ कर या उस पर कुछ कर के चला जाए, पर उसे हानि नहीं पहुंचाएगा। इससे कुछ लोग यह भी निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि बाघ संभवतः शराब विरोधी आन्दोलन के सदस्य होते हों।
किन्तु इस विषय पर चर्चा करना इस लेख का उद्देश्य नहीं है। यहां तो मैं मात्र अपने महान देश के विकास और संरक्षण के लिए अर्पित अपने समुदाय की बात निम्न बिन्दुओं के आधार पर रखने का प्रयास कर रहा हूं। 

1. उपलब्ध आंकड़े और ज्ञात इतिहास यह इंगित करते हैं कि महिलाएं और बच्चे बाघ के भोजन चक्र का हिस्सा बन सकते हैं।

2. अपना उत्तराखंड बन जाने के बाद भी हमारे सैकड़ों बच्चे और महिलाएं बाघ का शिकार बनी हैं। किसी गांव में आक्रोशित जनता द्वारा पिंजड़े में कैद बाघ को जलाया जाना निश्चित रूप से गैर कानूनी है, पर महानगरों में बैठे पर्यावरण प्रेमियों के बच्चे और महिलाएं बाघ के आतंक से महफूज हैं और पर्यावरण प्रेमी, पहाड़ की महिलाओं और बच्चों की त्रासदी से अनजान हैं।

3. बाघ नरभक्षी नहीं अपितु महिला एवं बालभक्षी होता है। कम से कम उत्तराखण्ड के परिप्रेक्ष्य में तो यह तथ्य स्वीकार करना ही पड़ेगा, किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि नरभक्षी बाघ होते ही नहीं हैं। हमारे यहां वे भी पाए जाते हैं, किन्तु मनुष्य के रूप में। ये संख्या में कम हैं, पर दबंग हैं। इन पर अभी हाल ही में कुलानन्द घनसाला ने ’मनखी बाघ’ के नाम से एक नाटक भी खेला था। ये कई रूपों में और व्यवसाय में मिल जाएंगे। ये अभी हाल ही में बड़ी तेजी से फले-फूले हैं। इन पर उंगली उठाना अपने को ‘विनायक सेन’ बनाना है। इनकी कचहरी में बाघों का आंतक कोई मुद्दा नहीं है। इसीलिए उत्तराखण्ड की महिलाओं और बच्चों का बाघ से मुक्ति का फिलहाल कोई रास्ता नहीं है।

4. ऐसा नहीं कि बाघों को संरक्षण की आवश्यकता नहीं। वे उत्तराखण्ड की जैव विविधता का अभिन्न अंग हैं, किन्तु इनको बचाने की प्रक्रिया में कहीं तो कोई खोट है। इस बारे में सूचना के अधिकार का उपयोग करके बहुत कुछ सामने लाया जा सकता है कि कहीं सर्कस के बाद तो यहां नहीं छोड़े या नरभक्षी की समस्या को सरकारी विशेषज्ञ किस स्तर पर देखते हैं। शायद कभी कोई सिरफिरा सवाल पूछने की हिम्मत करे वरना ज्यादातर संस्थाएं तो पर्यावरण संरक्षण में ही जुटी हैं, क्योंकि फिलहाल पैसा उसी के लिए आ रहा है।

5. टाईगर बचाने के लिए टास्क फोर्स बन सकता है, तो हमारे बच्चे बचाने के लिए क्यों नहीं? यहां तात्पर्य वन कर्मियों को तोप तमंचे से लैस करने का नहीं, अपितु नरभक्षी होने के कारणों पर विशेषज्ञ समिति के गठन से है।

5. इस लेख के माध्यम से मैं उत्तराखण्ड पुलिस का हार्दिक आभार व्यक्त करना चाहता हूं, जिन्होंने धामधार गांव की श्रीमती बिल्ला देवी को तब तक गिरफ्तार नहीं किया, जब तक वे जंगल से घास काट कर नहीं लाई और अपने पशुओं के चारे का इंतजाम कर सकी। श्रीमती बिल्ला देवी भी बाघ को जलाने की आरोपी हैं। भाईसाब, ऐसी दरियादिली और मानवता तो अपने देवभूमि उत्तराखण्ड की पुलिस में ही हो सकती है। उत्तर प्रदेश की बात होती, तो आसपास के 5-7 गांव के लोग गिरफ्तार कर लिए जाते और वो सब कबूल भी कर लेते कि ’ हां साब बाघ हमने जलाया है’। ये हुआ अपना प्रदेश बनाने का फायदा।

रीजनल रिपोर्टर से..

Tuesday, June 22, 2010

प्राकृतिक और सामाजिक प्रबंधन हेतु सदियों से चली आ रही "बारी" व्यवस्था

पहाड़ हो चाहे मैंदान, मरूस्थल हो चाहे समुद्री किनारा- जल, जंगल, जमीन से बेदखल किए जाते स्थानीय निवासियों पर चलने वाले डण्डे की मार एक जैसी ही है। हरे चारागाहों के शिकारी पर्यावरण और पारिस्थितिकी संतुलन जैसे तर्कों से लदी भाषा के साथ न सिर्फ कानूनी रूप से बलपूर्वक, बल्कि जनसंचार के माध्यमों के द्वारा विभ्रम फैलाकार सामाजिक रुप से भी, खुद को दुनिया को खैरख्वाह और स्थानीय निवासियों को उसका दुश्मन करार देने की कोशिश में जुटे हैं। पहाड़ के एक छोटे से हिस्से लाता गांव में उत्तर चिपको आंदोलन के बाद शुरु हुए  छीनों-झपटो आंदोलन के प्रणेता धन सिंह राणा का यह खुला पत्र जिसका संपादन डॉ सुनील कैंथोला ने किया है, ऐसे ही सवालों से टकराता हुआ कुछ प्रश्न खड़े कर रहा है। पत्र मेल द्वारा भाई सुनील कैंथोला के मार्फत पहुंचा है जिसको एक स्थानीय पत्रिका में प्रकाशित होने के बाद यहां पुन: प्रकाशित किया जा रहा है।    


असकार का मतलब समझते हो प्रोफेसर सत्या कुमार?

सेवा में,
प्रो.सत्या कुमार
भारतीय वन्य जीव संस्थान
देहरादून, भारत

आदरणीय साहब,
आशा है कि आप स्वस्थ और राजी खुशी होंगे और आपका रिसर्च करने का धंधा भी ठीक-ठाक चल रहा
होगा। हम भी यहां गांव में ठीक-ठाक हैं। ऐसा कब तक चलेगा, ये तो ऊपर वाला ही जानता है लेकिन हमारा अभी तक भी बचे रहना किसी चमत्कार से कम नहीं है। क्योंकि गांव में सड़क से ऊपर पर्यावरण संरक्षण का शिकंजा है और सड़क से नीचे बन रहे डाम का डंडा हम सब पर बजना शुरू हो चुका है। यहां पिछले कई वर्षों से हम आपका बड़ी बैचेनी से इंतजार कर रहे हैं। हमें लगा कि जो व्यक्ति पर्यावरण का इतना बड़ा पुजारी है कि जिसके शोध के हिसाब से हमारी भेड़-बकरी के खुर पर्यावरण को हानि पहुंचाते हैं, जो नंदा अष्टमी के अवसर पर नंदा देवी राष्ट्रीय पार्क में सदियों से चली आ रही दुबड़ी देवी की पूजा तक को बंद करवाकर इस आजाद देश में धार्मिक स्वतंत्रता के हमारे मौलिक अधिकार तक छीन ले, वह महान वैज्ञानिक हमारे गांव की तलहटी पर बन रहे डाम से होने वाली पर्यावरणीय क्षति को लेकर अवश्य चिंतित होगा और अपनी वैज्ञानिक रिपोर्ट के आधार पर बांध का निर्माण चुटकी बजाते ही रुकवा देगा। अब हमें लगने लगा है कि हो न हो दाल में जरूर कहीं कुछ काला है। अत: इस शंका के निवारण के लिए ही गांव के बड़े बुजुर्गों की सहमति से यह पत्र आपको लिख रहा हूं।
आदरणीय साहब,
आप तो हिमालय के चप्पे-चप्पे में घूमे हैं। आपकी शिव के त्रिनेत्र समान कलम ने हिमालय में निवास करने
वाले लाखों परिवारों की आजीविका और संस्कृति का संहार किया है। पूरे विश्व का बि(क समाज आपके इस
पराक्रम के आगे नत मस्तक है। ऐसे में हे! मनुष्य जाति के सर्वश्रेष्ठ संस्करण, आपकी ही कलम से ध्वस्त हुआ
मैं, धन सिंह राणा और उसका समुदाय, आपको, आपके जीवन के उन गौरवशाली क्षणों की याद दिलाना चाहते हैं, जब आपने हमारा आखेट किया था।

हे ज्ञान के प्रकाश पुंज,

नाचीज, ग्राम लाता का एक तुच्छ जीव है, जो पिछले जन्मों के पापों के कारण मनुष्य योनि में पैदा हुआ। मेरा
गांव उत्तराखंड के सीमांत जनपद चमोली की नीति घाटी में स्थित है। यह इलाका भारत में पड़ता है और पूरे विश्व में नंदा देवी बायोस्फेयर रिजर्व के नाम से जाना जाता है। यदि मेरी स्मृति सही है, तो हमारी भूमि पर आपके कमल रूपी चरण पहली बार संभवत: 1993 में पड़े थे। आप भारतीय सेना के एक अभियान दल के साथ नंदादेवी कोर जोन के भ्रमण पर आए थे, जिसमें सेना के सिपाहियों ने नंदा देवी कोर जोन से कचरा साफ किया था। आपसे दिल की बात कहना चाहता हूं, जिसे आप लोग कचरा कह रहे थे, उसमें अनेक चीजें ऐसी थी कि जिन्हें देखकर हमारी लार टपक रही थी। मुझे याद है कि जब अपने गांव से हम लोग पोर्टर बनकर नंदादेवी बेस कैंप जाते थे, तब महिलाओं का एक ही आग्रह होता था कि बेस कैंप से दो-चार खाली टिन के डिब्बे लाना मत भूलना। टिन के ये खाली डिब्बे हमारे नित्य जीवन में बड़ी सक्रिय भूमिका निभाया करते थे। अभियान दल की वापसी पर आप लोगों द्वारा ग्राम रैंणी के पुल पर एक मीटिंग का भी आयोजन किया था, जिसमें आपने फौज द्वारा लाए गए कचरे को हमारे सामने कुछ ऐसे प्रस्तुत किया था, जैसे कि वह हमारे द्वारा प्रकृति के साथ किए गए अपराध का ठोस सबूत हो।

हे! पर्यावरण के अखंड तपस्वी,

यही वह अवसर था, जब आपके साक्षात् दर्शन हुए थे। मैं अबोध और गंवार आपके हृदय में हिलोरे लेते प्रकृति प्रेम के सागर और उसमें पनप रहे उस तूफान से तब पूर्णत: अनभिज्ञ था, जो हमें समूचा लील जाने को अधीर था। इस नाचीज ने तब आपसे यह प्रश्न करने का साहस किया था कि इस कचरे का असली जिम्मेदार कौन
है? और आपने कहा था- इंसान। वह बड़ी अजीब स्थिति थी। एक तरफ मैं अपने समुदाय को इस अपराध से परे
रखने का तर्क रखना चाहता था और दूसरी तरफ, मां कसम, आपको चूम लेने की इच्छा भी हो रही थी। आपने
एक ही झटके में अमीर-गरीब, गोरा-काला, पोर्टर-मैंबर की सारी दीवारें गिरा दी थी और हमें भी इंसानों की श्रेणी में शामिल कर दिया था।

हे अपनी इंद्रियों को वश में रखने वाले विधियात्मा,

वर्ष 2003 में आपके द्वारा नंदादेवी बेस कैंप यात्रा का स्मरण करने की अनुमति चाहता हूं। संदेश मिला कि
प्रोफेसर सत्या कुमार साहब के साथ गए फौज के दस्ते का वायरलैस ऑपरेटर कोर जोन से लौटते समय बीमार
पड़ गया है। जैसे कि हमारे गांव की परंपरा रही है, सूचना मिलते ही मैं व अन्य ग्रामीण मदद पहुंचाने के उद्देश्य से तुरंत दुब्बल घाटी रवाना हो गए। आपके दल से मिलने पर पाया कि मरीज की जान खतरे में है और खराब मौसम के कारण हैलीकॉप्टर का उतरना असंभव है। आपको याद होगा कि दुब्बल घाटी से पोर्टर आप लोगों का सामान लेकर लाता खर्क निकल गए थे और उस भीषण वर्षा में थोड़े से राशन और तिरपाल की सहायता से मैंने भी आपके साथ दो रातें मात्र उस वायरलेस ऑपरेटर की जान की रक्षा के लालच में गुजारी थी। प्रोफेसर सत्या कुमार साहब थोड़ा और याद करेंगे तो आपको यह भी ध्यान आ जाएगा कि ये दो दिन और रात हम लोगों ने आस-पास की घास-पत्ती उबालकर और सूखी लकड़ियों को जलाकर बिताई थी। गांव लौटने पर जब इस घटना का जिक्र मैंने आपके साथ गए पोर्टरों से किया, तो वे आपको बुरा-भला कहने लगे। उनका कहना था कि ये आदमी पाखंडी है। बेस कैंप की यात्रा के दौरान बोझा ढोने वाला कोई पोर्टर यदि घास को पकड़कर सहारा लेने की कोशिश करता था, तो ये साहब जोर से चिल्लाने लगता था। जब तक इसके पास तंबू था, तो खराब मौसम में भी पत्थरों की आड़ में रात बिताने वाले पोर्टरों को आग जलाने की अनुमति न थी और जब अपनी जान पर बन आई तो सारे नियम-धर्म ताक पर रख दिए। बहरहाल! मैंने गांव वालों को यह कहकर शांत कर दिया था कि वे बड़े विद्वान पुरुष हैं। उन्हें परमात्मा ने वन्य जीवों के रक्षार्थ भेजा है। अत: मानवीय संवेदनाएं व सरोकार उनकी समझ के परे हैं।

हे संरक्षित क्षेत्रों के इष्ट गुरू!

मनुष्य होते हुए भी पशुवत् जीवन जीने वाला यह तुच्छ प्राणी क्या आपकी करूणा का पात्र नहीं है? हमारे पुराणों में रावण का उल्लेख है, जिसे दशानन अर्थात् दस सिर वाला भी बोलते थे। अपनी गंवार जड़ बुद्धि से मुझे
लगता है कि रावण के दस सिर जरूर दस किस्म की बात करते रहे होंगे। ऐसा ही उसकी दृष्टि के साथ भी रहा होगा।

हे! जैव विविधता के आराध्य देव,

क्या आपको कभी ऐसा प्रतीत हुआ है कि आप भी दशानन के एक मुख का प्रतिनिधित्व करते हैं? क्योंकि जो आप कहते और देखते हैं, वह आपके शरीर के दूसरे सिर को दिखाई नहीं देता! वन्य जीव संस्थान के रूप में
आप भी सरकार हैं और टी.एच.डी.सी.व एन.टी.पी.सी।
भी सरकार हैं। यह कैसा प्रभु का मायाजाल है कि आपके ज्ञान चक्षुओं से जहां जैव विविधता का भंडार है, जो ग्रामीणों के हगने-मूतने से भी नष्ट हो सकता है। उसी क्षेत्र में डाम विशेषज्ञों को कहीं कोई विविधता नजर नहीं आती और आप दोनों के ही सिर उस शरीर से जुड़े हैं, जिसे हम आदिवासी, 'सरकार’ कहते हैं। यह खेल गज़ब है। वन विभाग माणा से मिलम गांव तक बायोस्फेयर के नाम पर प्रतिबंध लगाता है और बांध के विशेषज्ञ नीति घाटी को नंदादेवी पार्क से बाहर बताते हैं। हमारे लिए इसका एक ही मतलब है यानि जो आपकी कलम का शिकार होने से बच गया, उसके लिए बांध के बुलडोजर की व्यवस्था है।

हे दुर्निग्रहम! अर्थात कठिनता से वश में होने वाले,

इस जगत में कीट-पतंगों से लेकर घास, कुशा और फूल-पत्तियों का भी अपना अस्तित्व है। ये सब एक-दूसरे
से जुड़े हैं। जैसे- हमारे घरों में होने वाली मधुमक्खियों का अस्तित्व मात्र मधु उत्पन्न करने के लिए नहीं, बल्कि फूलों के परागकणों की अदला-बदली के लिए भी था। मधुमक्खियां थीं, तो फूलों के प्रजनन की गारंटी थी। जैसे- फूल मधुमक्खियों के जिंदा रहने की अनिवार्य शर्त। मधुमक्ख्यां इसलिए थी, क्योंकि उन्हें हमारे घर में आश्रय मिलता था। यह आश्रय इसलिए मिलता था, क्योंकि हमें उनसे मधु मिलता था। अब न मुमक्खी है, न मधु। कदाचित आपका ध्यान इस ओर नहीं भी जाएगा, परंतु हे विद्या के मंदिर के गर्भगृह! हमारे समुदाय से मधुमक्खी की प्रजाति के नाश का आपकी जैव विविधता पर क्या प्रभाव पड़ा होगा, इस पर आप जैसे विद्वान की दृष्टि का न जाना सुनियोजित लगता है।

हे जैव विविधता के सचिन तेंदुलकर!

यह कैसा विरोधाभास है कि आप कंक्रीट की इमारत में रहकर भी प्रकृति की इबादत करते हैं और हम प्रकृति
के बीच रहकर भी उसके दुष्मन हैं। हमारे और आपके कार्बन उत्सर्जन में भले ही विराट असामानता हो, पर
प्रकृति की रक्षा का जिम्मा हमेशा आपकी ही बिरादरी का रहेगा। अंग्रेजों के जमाने से ही हमारे जंगलों का शोषण होता आ रहा है। ये अब जंगल भी कहां रहे। ये तो आप लोगों के खेत हैं। जिसमें आप अपनी आवश्यकता के हिसाब से पेड़ बोते हैं। हमारी जरूरतें और हमारे जंगलों में रहने वाले वन्य प्राणियों की जरूरतें आपकी जरूरतों से भिन्न हैं। मान्यवर, जंगलों में अब वन्य प्राणियों के लिए आहार बचा ही कहां है? भूख से बैचेन वन्य प्राणी जंगलों से बाहर आ रहे हैं और गांवों, बस्तियों व खेतों पर आफत ढा रहे हैं। इसमें भोले-भाले इंसान भी मर रहे हैं और बेजुबान वन्य जीव भी। इस सब के लिए कोई दोषी है, तो आप और आपकी बिरादरी द्वारा की जा रही शोध और उससे उपजा वन प्रबंधन।
विभिन्न राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय कार्यशालाओं में गरजने वाले ओ मिट्टी के शेर, हमारे यहां एक कहावत है कि- जो सो रहा हो, उसे जगाया जा सकता है। पर जो सोने का नाटक कर रहा हो, उसे जगाना नामुमकिन है। चूंकि आप हमारे नीति नियंता हैं, तो यह पूछने का अधिकार तो हमारा बनता ही है कि मान्यवर क्या आप सो रहे हैं या फिर सोने का नाटक कर रहे हैं। प्रकृति हो या समाज, उस पर आधिपत्य जमाने की साम्राज्यवादी प्रवृत्ति खत्म कहां हुई है? अंगुलि बंदूक के घोड़े पर हो या फिर अंगुलियों के बीच फंसी कलम को ही बंदूक बना दिया गया हो। निशाना लगने के बाद अनुभूति तो शिकारी की ही होती है न प्रोफेसर सत्या कुमार साहब! आज मेरा गांव जोशीमठ के बाजार के बिना जिंदा नहीं रह सकता। सदियों से किसानी करने वाला अब खेत के कम और बाजार के ज्यादा चक्कर काटता है। हमारी स्वावलंबी जीवन शैलियों से बलात्कार आपका संवैधानिक अधिकार है, पर यदि हम आपकी जीवनशैली पर अंगुलि उठाएं, तो वह आपकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों के हनन का मामला बन जाता है। मैं इतना पढ़ा-लिखा नहीं हूं, पर यह सवाल मेरे दिमाग में हमेशा कौंधता है कि आखिर साहब लोग हमारी तरह हाथ से क्यों नहीं धोते? आपकी बिरादरी द्वारा सिर्फ टायलेट पेपर के इस्तेमाल को बंद कर देने से प्राकृतिक संसाधनों व बढ़ते कार्बन उत्सर्जन को कितनी राहत मिलेगी, यह आपके शोध का विषय कब बनेगा? आदरणीय प्रोफेसर साहब! अपने अभिजात्य वर्ग के लालन-पालन के कारण यदि आप इस कौशल को सीखने से वंचित रह गए हैं, तो गांव लाता का कोई भी बच्चा आप लोगों को यह बिना कंस्लटैंसी या मानदेय के सिखाने को तैयार है।
हमारी स्वावलंबी जीवन शैलियों से बलात्कार आपका संवैधानिक अधिकार है, पर यदि हम आपकी जीवनशैली पर अंगुलि उठाएं, तो वह आपकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों के हनन का मामला बन जाता है। मैं इतना पढ़ा-लिखा नहीं हूं, पर यह सवाल मेरे दिमाग में हमेशा कौंधता है कि आखिर साहब लोग हमारी तरह हाथ से क्यों नहीं धोते? आपकी बिरादरी द्वारा सिर्फ टायलेट पेपर के इस्तेमाल को बंद कर देने से प्राकृतिक संसाधनों व बढ़ते कार्बन उत्सर्जन को कितनी राहत मिलेगी, यह आपके शोध का विषय कब बनेगा?

परम आदरणीय साहब,

हम लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं और साथ ही उस अलौकिक सत्ता में भी जिसने बिना किसी परियोजना अथवा विश्व बैंक की सहायता से इस जंगल का निर्माण किया। जब हम पर विपत्तियां आती हैं, तो हम दोनों के ही दरवाजे खटखटाते हैं, लोकतंत्र के भी और उस परम सत्ता के भी जिसने इस सृष्टि का निर्माण किया। इस मामले में तो मैं आपको कतई बदकिस्मत ही कहूंगा कि आप नंदादेवी विश्व धरोहर की जैव विविधता को समझने तो आए, पर हमारे क्षेत्र की सांस्कृतिक धरोहर को समझने व आत्मसात करने से वंचित रह गए। अपने पूर्वाग्रहों के कारण आपने स्वयं अपनी ज्ञानप्राप्ति के वह दरवाजे बंद कर दिए, जो आपको एक स्वावलंबी सामाजिक-सांस्कृतिक इकाई के उसके प्राकृतिक वातावरण के साथ सदियों से स्थापित सतत सहजीवी संबंधों को समझने की दिशा प्रदान करते। आपके अधूरे शोधों ने लोकतंत्र के कानों को बंद और उसके दिमाग को दूषित कर दिया है। पर ऐसा करते हुए स्वयं आपके दूषित मंतव्य भी जग जाहिर हो गए हैं।
पर्यावरण अध्ययन से हुई कमाई को एन.टी.पी.सी, वेदान्ता और जी.वी.के जैसी कम्पनियों के शेयर में लगाने की बेशक़ आप लोगों को वैधानिक इजाजत है, पर यदि इस जगत में पाप करने की भी कोई कैरयिंग कैपेसिटि है, तो आप लोगों का घड़ा कब का भर चुका है!
क्योंकि बांधों से प्रकृति पर पड़ने वाले प्रभावों की लड़ाई में आप नदारद हैं। हमारे लोगों का यह भी मानना है कि संभवत: अपनी रोजी-रोटी और नौकरी के चलते आप दिल से चाहकर भी यह कदम उठा ना पा रहे हों। हमारे यहां प्राकृतिक और सामाजिक प्रबंधन हेतु सदियों से चली आ रही 'बारी" व्यवस्था है। इसके अंतर्गत हम आपकी व्यवस्था करने को प्रतिबद्ध रहेंगे। यदि आप यथोनाम तथो गुण को चरितार्थ करने का साहस करें। जाहिर है कि आप और आपकी कथित वैज्ञानिक बिरादरी के पास अपने तर्क होंगे, जिसमें अपनी नौकरी को बचाने और बाल-बच्चे पालने के भी सरोकार होंगे, जो कि स्वाभाविक भी है। पर आपके जूठे बर्तनों को धोने और नित्य फर्श पर पोचा लगाने जो आती है, उसके अस्तित्व को आप अपने पारिस्थितिकीय के समग्र ज्ञान में कहां रखते हैं प्रोफेसर साहब? कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक लाखों आदिवासी परिवारों को कहीं संरक्षण तो कहीं बांध अथवा खान के नाम पर बेदखल किया गया है, जो आप जैसे साहब लोगों के लिए सस्ती मजदूरी से लेकर मानवीय अंगों और विकृत मनोरंजन का मुख्य स्रोत बन जाते हैं। पर्यावरण अध्ययन से हुई कमाई को एन.टी.पी.सी, वेदान्ता और जी.वी.के जैसी कम्पनियों के शेयर में लगाने की बेशक़ आप लोगों को वैधानिक इजाजत है, पर यदि इस जगत में पाप करने की भी कोई कैरयिंग कैपेसिटि है, तो आप लोगों का घड़ा कब का भर चुका है! हमारे लोकगीतों में सृष्टि की रचना के गीत हैं, जिसमें निरंकार का भी जिक्र है और अहंकार का भी। आपके पास भी अपने ज्ञान का अहंकार है पर आपका ज्ञान अधूरा है और आपका अहंकार प्रकृति के अहंकार के सामने बौना है। इन्हीं रहस्यमयी रास्तों से हमारी व्यथा भी उस तक पहुंचती है, जिसके समग्र नियमों को समझने में आप
असफल रहे हैं। उसी के मायावी संसार में "हाय" अथवा "असकार" भी एक शब्द है, बल्कि पूरी व्यवस्था है। हम
मानते हैं कि यह अत्याचारियों और आतताईयों को सबक सिखाती है। यह हमारे हाथ के बाहर की बात है पर हमारा करुण रुदन और विलाप इसके कारण हो सकते हैं। फिर भी हम इतने घटिया या तुच्छ नहीं कि किसी
के अनिष्ट के बारे में सोचें। पर साथ ही हम यह भी मानते हैं कि हमारे साथ हुए अन्याय का 'असकार" जगत के
उन्हीं अनबूझे नियमों के तहत एक स्वाभाविक और अनिवार्य प्रक्रिया है। शांत मन से, बिना किसी पूर्वाग्रह के आंखों को बंद करके सोचेंगे तो इसी नतीजे के इर्द-गिर्द पहुंचेंगे कि जिस रास्ते से आप अपने संरक्षण के विषय को ले जाना चाहते हैं, वह वहां नहीं ले जाता, जहां उसे ले जाना चाहिए था। इसके बाद आईने में अपनी आंखों से आंखें ईमानदारी से मिलाएंगे तो आपको स्वत: यह अहसास हो जाएगा कि अब तक का जीवन व्यर्थ गया। यही "असकार" है, पर यह अंत नहीं! पश्चाताप करने का कोई समय या आयु सीमा नहीं होती।
बाकी फिर कभी
लाता से धन सिंह और उसके ग्रामवासी


धन सिंह राणा द्वारा लिखित एवं डॉ. सुनील कैंथोला
द्वारा संपादित-
खुला पत्र


भेड़ चरवाहे

ऊंचे पहाड़ों पर देवता नहीं
चरवाहे रहते हैं
भेड़ों में डूबी उनकी आत्मायें

खतरनाक ढलानों पर
घास चुगती हैं

पिघलती चोटियों का रस
उनके भीतर
रक्त बनकर दौड़ता है

उड्यारों में दुबकी काया
बर्फिली हवाओं के
धार-दार चाकू की धार को भी
भोंथरा कर देती है

ढंगारों से गिरते पत्थर या,
तेज उफनते दरिया भी
नहीं रोक सकते उन्हें आगे बढ़ने से
न ही उनकी भेड़ों को

ऊंचे- ऊंचे बुग्यालों की ओर
उठी रहती हैं उनकी निगाहें

वे चाहें तो
किसी भी ऊंचाई तक
ले जा सकते हैं भेड़ों को
पर सबसे वाजिब जगह
बुग्याल ही हैं
ये भी जाने हैं

ऊंचाईयों का जुनून
जब उनके सिर पर सवार हो
तो भी
भेड़ों को बुग्याल में ही छोड़
निकलता है उनमें से कोई एक
बाकि के सभी
बर्फ से जली चट्टानों की किसी खोह में
डेरा डाले रहते हैं
बर्फ के पड़ने से पहले तक

भेड़ों के बदन पर
चिपकी हुई बर्फ को
ऊन में बदलने का
खेल खेलते हुए भी
रहते हैं बेखबर
कि उनके बनाये रास्ते पर
कब्जा करती व्यवस्था जारी है,

ये जानते हुए भी कि
रुतबेदार जगहों पर बैठे
रुतबेदार लोग
उन्हें वहां से बेदखल करने पर आमादा हैं,
वे नये से नये
रास्ते बनाते चले जाते हैं
वहां तक
जहां, जिन्दगी की उम्मीद जगाती
घास है
और है फूलों का जंगल

बदलते हुए समय में
नक्शेबाज दुनिया ने
सिर्फ इतनी ही मद्द की
कि खतरनाक ढाल के बाद
बुग्याल होने का भ्रम अब नहीं रहा
जबकि समय की नक्शेबाजी ने
छीन लिया बहुत कुछ
जिस पर वे लिखने बैठें
तो भोज-पत्रों के बचे हुए जंगल भी
कम पड़ जाएंगे

भोज-पत्रों के नये वृक्ष रोपें जायें
पर्यावरणवादी सिर्फ यही कहेगें

उनके शरीर का बहता हुआ पसीना
जो तिब्बत के पठारों में
नमक की चट्टान बन चुका गवाह है
कि सुनी घाटियों को गुंजाते हुए भी
अनंत काल तक गाते रहेगें वे
दयारा बुग्याल हमारा है
नन्दा देवी के जंगल हमारे हैं
फूलों की घाटी में
पौधों की निराई-गुड़ाई
हमारे जानवरों ने
अपने खुरों से की है


-विजय गौड़