तमाम हरकतों
से भरी दुनिया में आम जन मानस की दैनिक गतिविधियों का अनदेखा रह जाना एक सामान्य-सी
बात है। खूबसूरत इमारतों, विभिन्न आकरों की बेहतरीन दिखने वाली गाडि़यों, सौन्दर्य
के निखार में चार चांद लगा देने वाले प्रसाधनों के विज्ञापनी दौर में ऐसा हो जाना
कोई अनोखी बात नहीं। फिर ऐसा भी क्या विशेष है उन दैनिक गतिविधियों में जिन्हें
देखा जाना जरूरी ही है ॽ स्वाभाविक है ऐसे सवालों के उत्तर उतने सीधे सरल तरह से
नहीं दिये जा सकते कि 'विकास' की अंधी दौड़ में झल्लाती दुनिया को संतुष्ट किया
जा सके।
ब्रश और
रंगों के कलाकार बिभूति
दास के चित्रों से गुजरने के बाद लेकिन कहना असंभव है कि
ऐसे सवालों के जवाब दिये ही नहीं जा सकते। 5 अप्रैल 2019 से 11 अप्रैल 2019 तक ऑल
इण्डिया फाइन आर्टस एवं क्राफ्ट सोसाइटी, नई दिल्ली में आयोजित बिभूति
दास के
चित्रों की एकल प्रदर्शनी में ऐसे कितने ही चित्र थे जिनमें दैनिक जीवन की
गतिविधियां दर्ज होती हुई थी। दिल्ली की सड़कों पर मौजूद तेज रफ्तार के बरक्स
आईफा के हॉल के माहौल की खामोशी का रंग जूतों को चमकाते मोची की मुस्कान पर उभार
लेता था। ग्राहक का इंतजार करती गन्ना पैर कर रस निकालने वाले कामगार की आंखों
में एक आश्वस्ति का भाव खामोशी के उस चिंतन के प्रति चेताता था जिसमें चित्रों की
भव्यता उनके विन्यास में नहीं बल्कि उस दृष्टि में मौजूद थी जो उपेक्षित रह जा
रहे दैनिंदिन को दर्ज करने पर आमादा है। मीठे नारियल पानी की इच्छा जगाता पेड़ पर
चढ़कर नारियल तोड़ता कामगार, ढोलक बेचने वाला ढोलकी, अपनी नन्हीं बेटी को समुद्र
के विस्तार से परिचित कराता पिता जलरंगों के माध्यम से बने उन चित्रों में दर्ज
थे। वस्तुएं गहरे रंगों में रंगी होने के बावजूद मानवीय भावों की उजास में हर
परिस्थिति से निपट लेने की दृढ़ता इस बात के लिए आश्वस्त करती हुई थी कि दैनिक
जीवन की गतिविधियों का यूं चित्रों में ढल जाना अनायास नहीं, एक सायास प्रयास ही
रहा होगा। बिभूति
दास की यह पहली ही प्रदर्शनी इन उम्मीदों से भर कह जा सकती है
भविष्य में गहरे रंगों वाले मानवीय चेहरे भी उत्साह की लकीरों से दमकते हुए
दिखने लगेगें।
विजय गौड़