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Friday, March 24, 2023

लेखक, अनुवादक यादवेन्द्र के शब्दो में कथाकार सुभाष पंत का स्कैच

 लेखक का फिक्स्ड डिपॉज़िट



सुभाष पंत की कहानी "घोड़ा" पढ़ने के बाद बहुत देर तक हॉन्ट करती है भले ही उसमें कुछ अतिशयोक्तियाँ भी लगें .... मैं देर तक चेखव की मशहूर कहानी "डेथ ऑफ़ ए क्लर्क" के बारे में सोचता रहा। आदमी को आदमी न बना कर बोझ ढ़ोने वाला घोड़ा बना देने वाली व्यवस्था का अत्यंत क्रूर और दमनकारी चेहरा चमगादड़ों के झुण्ड की मानिंद पाठक के आसपास चेहरे पर ठोकर मारते महसूस होते हैं। संक्षेप में कहें तो ऑफिस में काम करने वाले  एक मामूली मुलाजिम की कहानी है यह जो अफ़सर के बच्चे के लिए और कुछ नहीं महज़ पीठ पर सवारी कराने वाला घोड़ा है - और कोई उसको मनोरंजन समझता है तो कोई उसकी ड्यूटी। सुभाष जी ने बात करते हुए इस कहानी को जन्म देने वाली घटना सुनायी - उनकी नौकरी के शुरूआती  दिनों की बात है जब वे रेल के फ़र्स्ट क्लास कूपे में धनबाद से देहरादून की यात्रा पर थे और उनकी नीचे वाली बर्थ थी ,ऊपर कोई राजनैतिक नेता धनबाद में सवार हुआ।नेता के साथ एक अटेंडेंट भी था। नेता ने पंत जी को बताया कि वह चुनाव के लिए टिकट लेने आया था और बहुत थका हुआ है। जब ऊपर चढ़ने की बारी आयी तो अटेंडेंट बाकायदा घोड़े जैसा झुका,नेता ने उसकी पीठ पर एक गमछा  बिछाया और जूता पहने उसपर चढ़ के ऊपर की बर्थ पर पहुँच गया। अटेंडेंट ने फिर खड़े होकर फीता  खोल कर उसके जूते उतारे ,सिर से लगाया और नीचे रखा। जैसे ही नेता के  खर्राटे सुनाई देने शुरू हुए वह वही गमछा बिछा कर फ़र्श पर लेट गया - भयंकर सर्दी के दिन थे और पंत जी ने उसको अपनी गर्म चद्दर देनी चाही  पर उसने विनम्रता से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि शरीर को गर्मी मिलते ही नींद आ जायेगी - मालिक रात में जब भी जागेगा उसको सोता देखेगा तो आग बबूला  हो जायेगा ,और उसकी जान भी ले सकता है।इस घटना ने उनके ऊपर गहरा असर डाला। 

 
ऐसी ही एक और घटना उन्होंने देहरादून की सुनायी जब उनके घर में नई फ़र्श बनाने का काम चल रहा था - वैसे ही सर्दियों के दिन थे और दफ़्तर से लौटने के बाद उन्होंने देखा एक बिहारी मज़दूर  सिर्फ़ बनियान पहने हुए ओवरटाइम में फ़र्श की घिसाई का काम कर रहा है। पंत जी ने पत्नी को कहा कि इसको चाय दे दो,बेचारे के  बदन में थोड़ी गर्मी आ जायेगी। जब बार आग्रह करने पर उसने चाय नहीं ली तो पत्नी ने बताया दिन में कई बार मैंने उससे चाय के लिए कहा पर हर बार उसने मना कर दिया। जब उस मज़दूर से पंतजी ने कारण पूछा तो उसने बताया कि चाय पीने की तलब उसको थी पर यह सोच कर बार बार वह इनकार कर रहा था कि कहीं चाय की आदत न पड़ जाए - वह इस तरह की दिहाड़ी मज़दूरी में चाय पीने के बारे में सोच भी नहीं सकता था।
 
मैंने जब पंतजी से इन दोनों घटनाओं पर कहानियाँ लिखने के बारे में पूछा तो उन्होंने बड़ी सहजता और दृढ़ता से जवाब दिया कि ये मेरे जीवन का "फिक्स्ड डिपॉज़िट" है जिसको मैंने सोच रखा है काम चलाने के लिए कभी तुड़ाऊँगा नहीं ..... और हमेशा ये घटनाएँ मुझे दिये की तरह रोशनी दिखाती रहेंगी और यह बताती रहेंगी कि मुझे किनके बारे में और किनके लिए लिखना है।

यादवेन्द्र

लेखक अनुवादक
पूर्व निदेशक,के.भ.अ. संस्थान,रुड़की

Saturday, March 18, 2023

पर्यावरण संघर्ष का सबाल्टर्न इतिहास :"पहाड़चोर"

 यादवेंद्र 



कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट में अरावली के संदर्भ में एक मामला चर्चा में आया था जिसमें राजस्थान सरकार की ओर से यह हलफनामा दिया गया कि पिछले कुछ दशकों में तीस से ज्यादा पहाड़ धरती से गायब हो गए। गायब होना तो एक दिखने वाला परिणाम था लेकिन हुआ यह कि खनन माफिया ने इन पहाड़ों को गैर कानूनी ढंग से बारूद से उड़ा कर वहाँ से निकले पत्थरों को बेच दिया।इसपर दो जजों की पीठ ने कटाक्ष करते हुए यह पूछा कि उस इलाके में क्या हनुमान जी आए थे जो सुमेरु पर्वत की तरह अपने कंधों पर सारे पहाड़ों को लेकर चले गए?वैसे जिधर आँख उठा कर देखें उधर यह दुर्दशा दिखाई देती है परन्तु यह भारतीय समाज में पर्यावरण कानूनों की अनदेखी करने का एक ज्वलंत व दर्दनाक उदाहरण है।

आज से लगभग बीस साल पहले वरिष्ठ और प्रतिबद्ध लेखन के लिए जाने जाने वाले सुभाष पंत का इसी विभीषिका पर केन्द्रित बेहद महत्वपूर्ण उपन्यास "पहाड़चोर" आया था और हिंदी जगत में उसका खासा स्वागत हुआ था। सुभाष जी ने मुझे बताया कि उपन्यास का ताना बाना चूने के खनन के चलते नक्शे से विलुप्त हो गये इस (भूतपूर्व) गाँव के बारे में देहरादून के एक युवा पत्रकार की "नवभारत टाइम्स"में संक्षिप्त रिपोर्ट के इर्दगिर्द बुना गया है और उन्होंने खनन का विरोध करने वाले आन्दोलनकारियों से बातचीत भी की थी। उपन्यास की भूमिका में स्व कमलेश्वर इसे "यथार्थ से भी नीचे आत्मिक यथार्थ की महागाथा" कहते हैं.... यह उपन्यास गढ़वाल की तलहटी में सहस्रधारा के पास बसे एक छोटे से गाँव का  ऐसा अविस्मरणीय आख्यान है जिसके किरदारों के भीतर संघर्ष चेतना राजनीतिक सिद्धांतों से नहीं बल्कि अपने दुखों और संकटों से उपजती है। यह समाज में निम्न समझे जाने वाले(सबाल्टर्न)  उन महान लोगों की गौरव गाथा है जो इतिहास को थाम कर बैठते नहीं बल्कि अपने जातीय गौरव के साथ संघर्ष करते हुए न सिर्फ़ आगे बढ़ते हैं बल्कि अपना अगला इतिहास निर्मित भी करते हैं। यही कारण है कि कमलेश्वर "पहाड़चोर" की आंचलिकता को सीधे वैश्वीकरण के साथ जोड़ते हैं। 


विकास की वर्तमान अवधारणा पर बहुत गहरे सवाल उठाता है यह उपन्यास जिसमें सड़क बिजली पानी और पक्के मकान विकास के प्रतीक मान लिए गए हैं।उपन्यास के केन्द्र में देहरादून के सहस्रधारा इलाके के आसपास मोचियों का एक छोटा सा गांव झंडूखाल है और इसके विलोपन की कहानी भी एक सड़क के साथ शुरू हुई थी - अवसर और सम्पन्नता की नगरी  तक पहुँचाने वाली सड़क का स्वप्न लेकर चूना कंपनी के मालिक आते हैं जो देखते देखते गाँव को दो हिस्सों में बाँटने,पहाड़ चुराने के उद्योग और अंततः गाँव को हजम कर जाने का कारगर रूपक बुन देते है। 


यह सड़क सिर्फ मामूली सी सड़क नहीं है बल्कि गांव के लोगों के दिलों को चीरती हुई निकल जाती है...गांव के कुछ लोगों को खदान पर नौकरी देकर उन्हें अपनि जमीन और जमीर पर कायम रहने वालों से तोड़ देती है। 'सभ्यता से निष्कासित और इतिहास की अंधेरी खाई में खोये हुए गाँव के सीधे सरल वासियों को प्रलोभन दिया जाता है  कि सड़क बनते ही वे समय और सभ्यता की धारा से जुड़ जायेंगे। 


विकास का यह कुरूप और क्रूर रूपक ही इस उपन्यास की आत्मा है जो अंततः उसके विलोपन का रोड मैप सीधे सादे विपन्न गाँववासियों से ही तैयार करवाता है। तब उन्हें इल्म भी नहीं हुआ कि वे धूल और धुएँ से लिख रहे हैं झंडूखाल के आगामी समय की कहानी। 


अपनी ही धरती पर बीड़ी पीने का अधिकार छिन जाना और जगह जगह अपने इलाके में ही 'आगे खतरा है' या 'इससे आगे ना जाएं' लिखे तख्ते गड़े हुए देखना इस उपन्यास की परतों को खोलने वाले सुचिंतित प्रसंग हैं - कंपनी ने गाँव से लकड़ी, घास और जलस्रोत बहुत दूर कर दिए...अपना पहाड़ उन्हीं लोगों के वास्ते देखते देखते वर्जित और अजनबी हो जाता है जिनकी पीढ़ियाँ उसके आँचल में फली फूली हैं। 

लेखक की सूक्ष्म दृष्टि समस्या को बड़े सधे हुए तरीके से परिभाषित करती है : "सड़क बनने के बाद झंडूखाल में बाहर से आने वाली सामान की पहली सौगात - औजार ...डायनामाइट ....और जगह-जगह के लोग" 


विस्फोट और खनन धीरे धीरे झंडूखाल के लोगों के जीवन का ऐसा अटूट हिस्सा हो जाता है कि जब धमाका नहीं होता तो लोग निराश हो जाते हैं - इस निराशा को प्रकट करने के लिए लेखक ने बड़ा अच्छा रूपक चुना है :'जैसे बच्चे के हाथ से दूध का कटोरा छिन गया हो।


चूना कंपनी के आने के बाद से समाज का यह विभाजन बड़े क्रूर तरीके से सामने आता है - उदाहरण के लिए पिरिया विस्फोट और खनन के कारण पानी की कमी के चलते प्यास से तड़प तड़प कर मर जाती है....यह समय दिहाड़ी का समय था इसलिए उसकी लाश उठाने के लिए नाते रिश्तेदार और पड़ोसी भी नहीं मिलते।तभी तो लेखक झंडूखाल को 'बिराना और अजनबी' कहने लगता है। 


पिरिया के साथ प्रकृति के सहज स्वरूप के मर जाने का बड़ा मर्मस्पर्शी प्रसंग स्मृति से निकलता नहीं: "पिरिया छाज में अनाज  पिछोड़ती तो उसके हाथ की चूड़ियाँ खनकते हुए संगीत सिरजतीं और चिड़ियों की एक लंगार घर के छाजन पर आकर बैठ जाती। चिड़ियाँ चहक कर दाना माँगतीं। वह पिछोड़न फेंकती तो वे छाजन से उतरकर दाना चुगने लगतीं। फुदक कर उछलते छाज पर बैठ जातीं। वह डाँटती तो उसके सम्मान की रक्षा के लिए छाज से दो कदम आगे कूद जातीं। उनकी शरारत से तंग आकर वह हाथ लहरा कर उन्हें उड़ाती तो वे हल्की सी उड़ान लेकर आँगन के किनारे बैठ जातीं और फिर धीमे-धीमे पंजों के बल चलती हुई उसके गिर्द जमा हो जातीं।पूछतीं: नाराज क्यों हो गयीं मालकिन? क्या ख़ता हुई?पिरिया  नाराज हो कर डाँटती: बड़ी ढीठ हो गई हो तुम... तंग कर दिया।....चिड़िया जिद्दभरी मनुहार करने लगतीं - तेरा कोठा भरा रहे, चूड़ियाँ संगीत सिरजतीं रहें,बच्चों से भी कोई तंग हुआ है कभी मालकिन?अपनी धूप सी हंसी बिखेर... देख आँगन कैसा निखर निखर उठता है..." 


वास्तविक पहाड़ी जीवन की तरह ही इस उपन्यास की संरचना निरक्षर पर समझदार,दूरदर्शी ,जिद्दी और जुझारू स्त्रियों के कंधों पर टिकी हुई है - सच ही तो है :"पहाड़ की औरत की आँख  का गलता यह लावा ही पहाड़ का भविष्य बदलता है।  


लेखक कितनी पैनी नजर से अपने एक एक किरदार को देखता है इसके अनेक उदाहरण उपन्यास में ध्यान खींचते हैं,जैसे : "आगे आगे साबरा( कंपनी की दलाली कर के रसूख जमाने वाला) चल रहा था बूटों की धप्प धप्प आवाज के साथ, दर्प और अभिमान से भरा ।पीछे गुपाल( कंपनी की कारस्तानियों का विरोध करने वाला) था जो इतनी होशियारी से चल रहा था कि कहीं उसकी चप्पल न टूट जाए ...और इतना तेज भी कि साबरा की बराबरी बनाए रख सके।" पर सबसे सजीव विवरण पहाड़ के पहले विस्फोट का है जब गाँववासी बुरी तरह जमीन हिलने और ऐसी डरावनी आवाजों से परिचित नहीं थे - इसका क्लाइमेक्स है प्रसव कराने में माहिर भिक्खन दाई जब रधिया को बच्चा पैदा कराने में असफल रही तो इस धमाके की भयानक और अप्रत्याशित आवाज से शिशु अपने आप गर्भ से बाहर निकल आता है।   


कंपनी के प्रलोभन से सरदार बन जाने वालों की तुलना में यह उपन्यास अपने संघर्षशील नायिकाओं /नायकों के लिए याद किया जाएगा - इतिहास गवाह है कि किसी समाज को मानव निर्मित विभीषिका से बचा पाता है तो "झंडूखालिया जिद" ही है।  


मेरा मानना है कि सुभाष पंत का यह उपन्यास बदलते हुए भारत की कुरूप तस्वीर दिखाने वाले मैला आंचल, आधा गांव और राग दरबारी सरीखे कालजयी उपन्यासों की श्रृंखला का सुयोग्य उत्तराधिकारी है। पर विडंबना यह कि बगैर किसी जोड़ तोड़ और नेटवर्किंग के देहरादून में बैठ कर चुपचाप अपना काम करने की प्रवृत्ति ने लेखक और इस कृति को किसी बडे़ सम्मान से वंचित ही रखा। 


खुशी की बात है कि लंबी अनुपलब्धता के बाद यह उपन्यास फिर से छप कर आ गया है - दिल्ली के राजेश प्रकाशन से।