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Wednesday, December 9, 2020

राजनीति का काव्यात्मक लहजा- सीता हसीना से एक संवाद

 

पूंजीवादी संस्‍कृति की मुख्‍य प्रवृत्ति है कि नैतिकता और आदर्श का झूठ वहां बहुत जोर-जोर से गाया जाता है। विज्ञापनी जोश ओ खरोश के साथ। तानाकसी के चलन में पूंजीवादी चालाकियों का झूठा आदर्शीकरण किया जाता है। इतने जोर से कि कोई सच स्‍वयं को ही झूठ मानने के विभ्रम में जा फंसे। यही वजह है कि व्‍यापक अर्थ ध्‍वनि से भरे शब्‍द भी वहां अपने रूण अर्थों तक ही सीमित हो जाते हैं। देख सकते हैं कि राजनीति की लोकप्रिय शब्‍दावली में राजनैतिक शुद्धता को अक्‍सर कटटरता के रूप में परिभाषित किया जाने लगताहै। हालांकि शुद्धतावाद की राजनीति की आड़ में विवेक हीनता को छुपा लेने की चालें भी दिककतें पैदा करने वाली ही होती हैं।

अतिवाद के इन दो छोरों के बीच आदर्शों का झूला मध्‍यवर्गीय मिजाज वाला हो ही जाता है। हिंदी साहित्‍य की दुनिया में व्‍याप्‍त राजनैतिक चेतना इसी मध्‍यवर्गीय मिजाज की गिरफ्त में रही है। सिद्धांतत: स्‍वीकारोक्ति के इस माहौल में ही यथार्थोन्‍मुखी आदर्शवाद को महत्‍वपूर्ण मान लिया गया है। प्रतिफल में आधुनिकता की विकास प्रक्रिया का बाधित हो जाना और गंवई ढंग का बना रहना सामाजिकी में वास करता रहा है। सामाजिक संयोग के व्‍याप्‍त वातावरण में की जाती रही कदमताल को झूठे रचनात्‍मक आंदोलन से परिभाषित करते रहने की चाल ही गंवई आधुनिकता का पर्याय भी हुई है। जबकि आदर्शोंन्‍मुखी गंवईपन की सरलता का उठान यदि वस्‍तुनिष्‍ठ यथार्थ के साथ सिलसिलेवार बना रहता तो निश्चित ही आधुनिकता की विकासमान रेखा स्‍पष्‍ट होती चली जाती। उसके लिए जरूरी था, राजनैतिक आंदोलन न सिर्फ जारी रहें बल्कि रचनात्‍मक दायरों तक अटते चले जाएं। लेकिन मुक्‍कमिल रूप से ऐसा न हो पाने के कारण रचनात्मक गतिविधियों में मौलिक होने की कोशिशें इस कदर कुचेष्‍टाएं हुई कि गंवई आधुनिकता की सरलता भी भ्रष्‍ट होने लगी और कुतर्कों को सहारा पकड़ते हुए आधुनिकता की ओर भी पेंग बढ़ाती गईं। मध्‍यवर्गीय झूलों की आवृतियों के आयाम इन दो छोरों पर ही दोलन करते नतर आते हैं। मनोगत तरह से समाज का विशलेषण करते हुए यथार्थोन्‍मुखी आदर्शवाद की गति अपने मध्‍यमान पर स्थिर रह भी नहीं सकती थी। संतुलन की स्थिति को हांसिल करने के लिए भाषायी जतन नाकाफी होते हैं। शिल्‍पगत प्रयोगों के जरिये और अन्‍य तरह से रूपाकार गढ़ने में वह बनावटीपन का शिकार हो जाते हैं। रचनाकार के भीतर की हताशा और निराशा भी उस छुपे न रह गए को स्‍वयं दिख जाने में ही जन्‍म लेती है।

 

साहित्‍य और कला की दुनिया में 'प्रतिबद्धता' और 'स्‍वतंत्रता' का शोर बहुत ज्‍यादा रहा है। प्रतिबद्धता का स्‍वांग भरते हुए सांगठनिक दायरों के भीतर भी गिरोह बनाने वाले, प्रगतिशील कहलाना चाहते रहे। प्रगतिशीलता को मूल्‍य मानते हुए भी बौद्धिक स्‍वतंत्रता का राग अलापने वाले एवं स्‍वतंत्रता को ब्‍यूरोक्रेटिक अंदाज में बरतने वाले कलावादी खेमे में पहचाने जाते रहे हैं। राजनीति को नकारने की प्रवृत्ति दोनों ही खेमों में अपने-अपने तरह से प्रभावी है। भाषा और शिल्‍प के अतार्किक प्रयोग के नाम पर 'प्रगतिशील' भी 'बौद्धिक स्वतंत्रता' का पक्षधर हो जाने में ही ज्‍यादा गंभीर रचनाकार हो जाना चाहता है। साहित्‍य एवं कला की दुनिया की इस प्रवृत्ति पर चर्चा करने लगें तो यह टिप्‍पणीकार भी मध्‍यवर्गीय दायरे के उस व्‍यवहार से शायद ही पूरी तरह मुक्‍त दिखाई दे जिसकी व्‍याप्ति के असर से विघटनकारी शक्तियां समाज में खुद को स्‍थापित करने में प्रभावी रही हैं। स्‍पष्‍ट जानिये कि मुक्तिबोध की शब्‍दावली में कहा जाने वाला मुहावरा 'पार्टनर तेरी पॉलिटिक्‍स क्‍या है' का आशय सिद्धांत को व्‍यवहार में ढालने और अनुरूप जीवनमय होने के आह्वान की पुकार बनकर हर वक्‍त गूंजता रहने वाला ऐसा राजनैतिक बोध है जिसकी संगति आधुनिकता को ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण रूप से परिभाषित करती रहने वाली है।

 

रचनात्‍मक सक्रियता और ऊर्जा से भरी कथाकार सुभाष पंत की कहानी ''सीता हसीना से एक संवाद'' को पढ़ते हुए ऐसे कितने ही सवाल जेहन में उठते हैं जो खुद के भीतर व्‍याप्‍त अन्‍तर्विरोधों से टकराने का अवसर प्रदान करते हैं। यूं तो 'पॉलीटिकली करेक्‍ट' होने की कोशिश सुभाष पंत कभी नहीं करते। उनका ध्‍येय एक ऐसी राजनीति के पक्ष को रखना होता है जिसमें आम जन के दुख दर्दों का शमन किया जा सके। 'मुन्‍नीबाई की प्रार्थना' से लेकर पहल 122 में प्रकाशित कहानी इसका साक्ष्‍य है। पहल 122 की कहानी से पहले की कहानियों में कथाकार सुभाष पंत की यह रचनात्‍मक विकास यात्रा कदम दर कदम आगे बढ़ते हुए नजर आती है। यानी पहले की कहानियों में संवेदना के स्‍तर पर पाठक को छूने की कोशिशें अक्‍सर हुई हैं। जबकि उल्‍लेखित कहानी के आशय उससे आगे बढकर बात करते हुए हैं।

वर्तमान दौर की सामाजिक चिंताओं को रखने के लिए कथाकार ने कहानी की बुनावट को विभाजन की पृष्‍ठभूमि और उस त्रासदी में की मार को झेलने वाले पात्र की मदद से बहुत से ऐसे इशारें भी किये हैं जिनका वास्‍ता दुनिया में अमन चैन कायम करने की ओर बढ़ता है। उसके लिए जिन औजारों का प्रयोग होना है, कथाकार के यहां वे औजार साहित्‍य के रूप में दिखायी देते हैं। कहानी की पात्र सीता हसीना का यह कहना यूंही नहीं, ''कृपया बताइए कि बिशन सिंह पागल है या सियासत पागल है जिसने एक लाख बीस हजार लोगों को बेघरबार किया, दस लाख्‍ लोगों को मौत के मुंह में धकेला और पिचहतर हजार औरतों को ज्‍या‍दतियों का शिकार किए जाने को मजबूर किया और यह भी कि टोबाटेक सिह कहानी बड़ी है या उसका लेखक बड़ा है ?''

घटनाओं के संयोग से बुनी जाने वाली रचनाओं पर लेखक का भरोसा हमेशा से है। साहित्‍य के प्रति लेखक के भीतर अतिशय विश्‍वास की यह उपज हिंदी की रचनात्‍मक दुनिया के बीच से ही है। लेकिन बिगड़ते सामाजिक हालातों ने शायद लेखक के भीतर के इस विश्‍वास पर सेंधमारी सी कर दी है। ऐसे में अपने भरोसे पर टिके रहना लाजिमी है। यह कहानी उस द्वंद को उभारने में भी सक्षम है। कथा पात्र सीता हसीना का सवाल इस विश्‍वास का चुनौती देता है और कथाकार के भीतर के द्वंद ही सीता हसीना के सवालों में जगह पा जाते हैं।     

  

 

पंत जी की यह कहानी समाज और साहित्‍य के जरूरी रिश्‍तों पर एक बहस शुरू करते हुए जिस तरह से अपने कथानक में प्रवेश करती है, उससे गुजरते हुए यह देखा जा सकता है कि यह कहानी आलोचना की उस शाखा से परहेज कर रही है जिसने बदलावों के झूठ में रचे गये की अनुशंसा या उसको सही दिशा मान लेने को ही सर्वोपरी माना है। ऐसी रचनाओं के कथानक सत्‍य घटनाओं वाले यथार्थ की गारंटी करते हुए भी हो सकते हैं। 'सीता हसीना' का लेखक संवेदना के धरातल पर भीतर तक हिला देने वाली रचनाओं से रिश्‍ता बनाना चाहता है। मंटो की कहानी 'टोबा टेक सिंह' का जिक्र अनायास नहीं है, लेखकीय मंशा को जाहिर करता है।

मनुष्‍य की पहचान को धर्म के साथ देखने का आग्रह, उस वैचारिकता से मुक्‍त नहीं जिसने धर्मनिरपेक्षता को 'सर्वधर्म सम्‍भाव' की तरह से परिभाषित किया है। लेकिन कहानी में लेखकीय वैचारिकी का यह तत्‍व इसलिए अनूठा होकर उभर रहा है कि यहां लेखक समाज के शत्रुओं से निपटने के लिए निहत्‍था होकर उनके घर में प्रवेश करते हुए भी उनके ही हथियारों से लड़ने की कला का नमूना पेश करता है। दुश्‍मन के खेमे में घुसकर लड़ना, निहत्‍थे होकर घुसना और दुश्‍मन के हथियारों से ही उस पर वार करना, इस कला को सीखना हो तो कथाकार सुभाष की इस कहानी को विशेष तौर पर पढ़ा जाना चाहिए। कोई रचनाकार अपने समय काल से जब पूरी तरह संवादरत रहता है, तो ही ऐसी रचनाएं सामने आती हैं।

 

समाज के विकास में राष्‍ट्रवाद एक चरण है, लेकिन अन्तिम नहीं। यह कहानी भी कुछ इसी तरह की अनुगंजों में घटित होती है। स्‍थानिकता से वैश्विक होती यह एक अन्‍तराष्‍ट्रीय फ्रेम को बनाती रचना है। यथार्थ की पृष्‍ठभूमि से उपजी और अवधारणा के स्‍तर पर जददो जहद करने को मजबूर करती यह एक राजनैतिक कहानी है। जिसकी रेंज राष्‍ट्रवाद तक सीमित नहीं है। झूठे राष्‍ट्रवाद की प्रतीक 'माता' की स्‍थापना में धर्मों की विभिन्‍नता भरे समाज की कल्‍पना करता है, बल्कि इतिहास में मौजूद इस सच को ही प्रमुख बना देता है। अपने माता-पिता के धर्मो का खुलासा करती सीता हसीना दरअसल भारत माता की उस छवि को देखने का इशारा बार-बार कर रही है जिसकी संगति में 'विशेष धर्म ही राष्‍ट्र है', मध्‍यवर्ग के बीच इधर काफी ही तक स्‍वीकार्य होता हुआ है। आपसी भाईचारे में आकार लेता समाज संरचित करने का यह तरीका उस राजनीति का पर्याय है जिसका वास्‍ता सर्वधर्म सम्‍भाव से रहा है। राष्‍ट्रवादी झूठ को फैलाने वाले भी जिसके सहारे ही जब चाहे तब प्रेममय दिख सकते हैं और जब चाहे तब 'लव-जेहाद' के फतवे जारी करते रहते हैं। पंत जी कहानी कुछ-कुछ उस ध्‍वनि को ही अपना बनाती है जिसने 'लव-जेहाद' के शाब्दिक अर्थ को विग्रहित करके उसकी नकारात्‍मक अर्थ-ध्‍वनि को चुनौती देनी शुरू की है। हालांकि अपने निहित अर्थ में यह चुनौती भी कोई ऐसा फलसफा लेकर साने नहीं आती जिसमें आर्मिक आग्रहों से जकड़ा समाज मुक्ति की राह पर बढ़ सके।     

ठीक इसी तरह पंत जी भी अपनी उल्‍लेखनी कहानी में झूठे राष्‍ट्रवादी से मुक्‍त नहीं हो पाते हैं और उसकी जद में ही बने रहते हैं। कहानी की पात्र सीता हसीना के मार्फत विभाजन के कारणों पर टिप्‍पणी करते हुए सीता हसीना का संवाद सुनाई पड़ता है- दरअसल यह ऐसा जंक्‍चर है जहां से खड़े होकर एक लेखक के भीतर परम्‍परा की गहरी जड़ों और उससे मुक्ति की चाह भरी छटपटाहट को समझा जा सकता है। उसकी गति को पहचाना जा सकता है। उसके उपजने के सामाजिक, नैतिक कारणें की पड़ताल की जा सकती है।   

      

अध्‍यात्‍म की गरिमा और कलाओं का माधुर्य कहते वक्‍त पंत जी के जेहन में क्‍या रहा होगा, यह विचारणीय है। सीता हसीना का परिचय देते हुए कथा का नैरेटर ऐसा वर्णन करता करता है। निश्चित ही यह बिन्‍दू गंवई आधुनिकता से पूरी तरह मुक्‍त न हो पाए रचनाकार का परिचय देता है। अलबत्‍ता यह कहानी अपनी बुनावट में आधुनिकता के झूठ को रचने वाली कहानियों की रफ्तार में एक हद तक शामिल होते हुए भी खुद को उससे बाहर ले आने की कोशिश भी लगती है। मेरा मानना है कि इस कहानी का महत्‍व कहानी के बीच आए इस संवाद में तलाशा जा सकता, ''मैंने एक अनिश्वरवादी धर्म के बारे में भी जाना, जिसकी मान्यता है कि सृष्टि का संचालन करनेवाला कोई नहीं है, वह स्वयं संचालित और स्वयं शासित।'' वैसे कहानी में यह संवाद एक विशेष धर्म की बात करते हुए कहा गया है लेकिन इसका अर्थ विस्‍तार करें तो धर्म विलुप्‍त हो सकता है और एक ऐसी राजनीति का चेहरा आकार ले सकता है जो सामाजिक व्‍यवस्‍था के संचालन में स्‍वय्रं को ही विलोपित कर लेने का आदर्श हो सकती है। यहीं उनकी गद्य भाषा का मिजाज भी काव्यात्मक लहजे की बानगी बनता है। हालांकि यदा-कदा की अपनी बातचीत में सुभाष पंत कविता के मामले में खुद की समझ पर संदेह से भरे रहते हैं। उनके पाठक भी उन्‍हें कहानीकार के रूप में ही जानते हैं। यूं भी उन्‍होंने कभी कोई कविता नहीं लिखी, अपने लेखन के शुरूआती दौर में भी नहीं।

Wednesday, August 29, 2018

तंग गलियों से भी दिखता है आकाश


इसलिए नहीं कि ‘तंग गलियों से भी दिखता है आकाश’ यादवेन्द्र जी की पहली किताब है, बल्कि इसलिए कि मेरे देखे हिंदी में यह पहली किताब है जिसमें दुनिया के विभन्न हिस्सों के रचनाकारों की रचनाओं के अनुवाद एक ही जगह पढ़ने को मिल रहे हैं, यह बात भी ध्या्न खींचती है कि यह किताब भारत से इतर दुनिया के स्त्री रचनाकारों के गद्य का नमूना पेश करती है। जहां तक मेरी जानकारी है, किताब में शामिल ज्यादातर अनुदित रचनाएं यादेवन्द्र जी की उस सहज प्रवृत्ति का चयन हैं जिसके जरिये वे अपने भीतर के कलारूप को अपने मित्रों के साथ शेयर करना चाहते रहे हैं। पुस्तक की भूमिका भी इस बात की गवाह है जब वे लिखते हैं, ‘’कोई पन्द्रह साल पहले की बात होगी, ‘द हिन्दू ‘ में प्रकाशित एक युवा भारतीय लेखक की कहानी ‘चॉकलेट’ मुझे बहुत पसन्द आयी भी और मैं उसे अम्मा को सुनाना चाहता था... पहले सोचा सामने बैठ कर हिन्दी अनुवाद करते-करते बोलकर सुना दूंगा पर लगा इससे कथा का तारतम्य टूट जाएगा सो बैठ कर कॉपी पर अनुवाद लिख डाला।‘’ यानी दुनिया के साहित्य से रिश्ता बनाते हुए जब उन्हेंअपने मन के करीब की कोई रचना नजर आयी उसे अपने मित्रों तक ही नहीं, बल्कि बहुत से दूसरे लोगों तक भी पहुंचाने के लिए वे उसे हिन्दी में अनुवाद करने को मजबूर होते रहे। कल्पित रूप में किसी किताब की योजना के साथ तो उनका चयन किया ही नहीं गया। यही वजह है कि अपने चयन में ये रचनाएं इस मानक से भी मुक्त कि भारतीय साहित्य से उनकी संगति एकाकार हो रही है या नहीं। यदि जुदा हैं तो उसके जुदा होने के कारण क्या हैं, विषय की  विविधता से भरी इन  रचनाओं के चयन की आलोचना में यह आरोप नहीं है ।  बल्कि उस बिन्दु की की ओर इशारा करना है कि इस पुस्तक की कुछ रचनाओं का मिजाज हिन्दी की कहानियों से ही नहीं अपितु अन्य भारतीय भाषाओं की कहानियों (यह कथन सीमित जानकारी के आधार पर) से भी भिन्न है और पाठक के अनुभव क्षेत्र को व्यापक बनाता है। 

संग्रह की दो कहानियां का विशेष रूप से जिक्र करना चाहूंगा। पहली, आयरलैंड की रचनाकार मीव ब्रेन की कहानी ‘जिस दिन हमारी पहचान हमें वापिस मिल गयी’। विचार/राजनीति और कला को दो भिन्न रूप और एक दूसरे से जुदा मानने वाले यदि इस कहानी को पढ़ेंगे तो निश्चित है कि किंचित हिचकिचाहट भी यह कहने में महसूस नहीं करेंगे कि बिना विचार के कला का कोई औचित्य नहीं। बहुत महीन बुनावट की यह उल्लेखनीय रचना है। 
दूसरी, ईराक की रचनाकार बुथैना अल नासिरी की कहानी ‘कैदी की घर वापसी’। आजकल ‘राष्ट्र वाद’ का डंका पीटने वाली मानसिकता को आईना दिखाती यह कहानी उस यथार्थ से रूबरू होने का अवसर देती है कि सत्ता किस तरह से लठैती के झूठे तमगे से नवाजती है और जीवन से हाथ धोने को मजबूर एक सैनिक के प्रियजनों को किस तरह की ‘शहादती’ प्रतिष्‍ठा से भर देती है। शहीद घोषित हो चुका कोई सैनिक यदि कई सालों के बाद, जैसे-तैसे बचते-बचाते हुए, सकुशल घर लौटता है तो आत्मीयता को मिले उपहारों में घोल कर पी चुके सगे-संबंधी किस तरह से पेश आ सकते हैं। यह किसी एक देश की सत्‍ता का चरित्र और किसी एक भूगोल का यथार्थ नहीं, बल्कि उसकी व्‍यापाकता सार्वभौमिक है। 

वे कहानियां जिनके मिजाज एक निश्चित भूगोल और समाज के यथार्थ के साथ एकाकार होने के कारण हिन्दी से भिन्न भी हैं, रचनाकारों के परिचय के तौर पर दर्ज बहुत सी बातें, पाठक को उसे अपने संदर्भों के साथ मिलान करते हुए पढने का अवसर प्रदान कर रहे हैं।


इस ब्लाग के पाठक यह फख्र महसूस कर सकते हैं कि संग्रह की कुछ रचनाओं को वे बहुत पहले ही यहां भी पढ़ चुके होंगे। अभी उसी कड़ी को संभालते हुए यादवेन्द्र जी के चयन की दो बानगियां यहां अतिरिक्तं रूप से सांझा की जा रही हैं। संभवत: भविष्य की किसी पुस्तक में ये फिर से दिखायी दें।

अर्जेंटीना की कहानी

अनूठी आदर्श जोड़ी 

                     

   -- एंद्रेस नेओमान  (अर्जेंटीना)








 ( एक)

मेरा नाम मार्कोस है। मेरी  हमेशा से क्रिस्टोबल बनने की ख्वाहिश रही है।  
पर ऐसा नहीं है कि मुझे क्रिस्टोबल कह  पुकार जाए इसकी मंशा है - वह मेरा दोस्त है ,जिसको मैं अपना  बेस्ट फ्रेंड कहता हूँ ... और कोई नहीं है मेरा बेस्ट फ्रेंड ,बस वही है। 
गैब्रिएला मेरी पत्नी है - वह मुझसे बेहद प्यार करती है ... पर सोती क्रिस्टोबल के साथ है। 
क्रिस्टोबल  इंटेलिजेंट है ,खुद पर भरपूर भरोसा है उसे और साथ साथ चुस्त तथा फुर्तीला डांसर है।उसको घुड़सवारी भी आती है ... और तो और वह लैटिन ग्रामर में उस्ताद है। रच रच कर लजीज़  खाना बनाता है जिसे औरतें बड़े चाव से खाती हैं। मैं कहूँगा कि गैब्रिएला उसकी फ़ेवरिट डिश है। 
जो सारे मामले को नहीं जानता वह सोच सकता है कि गैब्रिएला मुझसे धोखा  कर रही है पर सच्चाई इस से ज्यादा परे और कुछ  नहीं हो सकती   
मेरी  हमेशा से क्रिस्टोबल बनने की ख्वाहिश रही है पर वहाँ सामने खड़े होकर टुकुर टुकुर ताकने के लिए नहीं। मैं भरपूर कोशिश करता हूँ कि और कुछ बनूँ पर मार्कोस न बनूँ। डांसिंग की क्लास जाता हूँ और किसी विद्यार्थी की तरह किताबों को छान मारता हूँ। मुझे भली तरह से एहसास है कि मेरी पत्नी मेरा बहुत सम्मान करती है .. इतना कि  वह बेचारी सोती मेरे नहीं  उस आदमी के साथ है बिलकुल जिसके जैसा मैं बनने  का यत्न करता रहता हूँ।क्रिस्टोबल के बलिष्ट सीने में दुबक कर मेरी गैब्रिएला हमेशा अधीर होकर आशाभरी नज़रों से मेरी ओर देखती है... दोनों बाँहें फैला कर। 
उसके अंदर का धीरज देख कर मैं रोमांच और उत्तेजना से भर उठता हूँ .... बस हरदम यही मनाता रहता हूँ कि उसकी उम्मीदों पर खरा उतर पाऊँ जिस से एकदिन हम दोनों का भी संयोग बैठे। वह इस अटल प्रेम को साकार रूप देने के लिए कितनी   लगन  से लगातार प्रयास कर रही है - क्रिस्टोबल की नजर से छुप छुप कर पीठ पीछे  उसके शरीर, स्वभाव और पसंद के बारे में गहराई से पता करती रहती है जिस से वह तब पहले की तरह ही मेरे साथ भी खुश और सहज बनी रहे जब मैं बिलकुल क्रिस्टोबल की तरह बन जाने में कामयाब हो जाऊँ - तब हमें उसकी दरकार नहीं रहेगी हम उसे अकेला उसके हाल पर छोड़ देंगे।    

(दो) 

यह याद रखने वाली बात है कि फूहड़पन कभी कभी जरूरत से ज्यादा समानता से  भी उपजती है। एलिसा और इलियास को देख कर यह बात कही जा सकती है - वे इसके बिलकुल उपयुक्त उदाहरण हैं। इनमें से एक अपनी बाँयी बाँह हवा में ऊपर लहराता है और दूजा दाँयी बाँह तब जाकर वे एक दूसरे को आलिंगन  में ले पाते हैं फिर भी जब वे एक दूसरे की बातें करते हैं तो लगता है जैसे उनके मन तन में कामोत्तेजना दहाड़ें मार रही हो। उन दोनों की आदतें बिलकुल एक समान थीं और अलग अलग घटनाओं पर भी राजनैतिक मतभेदों की दूर दूर तक कोई संभावना नहीं दिखायी देती - झगड़ने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता। संगीत दोनों एक ही सुनते और दोनों ठहाके लगा कर हँसते भी तो एक ही लतीफ़े पर।  जब वे किसी रेस्तराँ में खाने जाते तो बगैर दूसरे से  कुछ पूछे इनमें से एक ऑर्डर दे देता। कभी ऐसा नहीं होता कि उनमें से किसी एक को जिस समय नींद आ रही हो उस समय दूसरा नींद नहीं अलग मूड में हो और यह उनकी सेक्स लाइफ़ के लिए  बड़ा मुफ़ीद था हाँलाकि व्यावहारिक तौर पर इसके अपने नुकसान  भी थे - जैसे सुबह सुबह उठ कर पहले बाथरूम कौन जाये ....  या रात में फ्रिज में रखे  दूध का ग्लास पहले कौन पीने के लिए उठा ले ...  या कि पिछले हफ़्ते मिलजुल कर योजना बना कर खरीदा गया नॉवेल पहले कौन पढ़ कर ख़तम कर ले - इसको लेकर उन दोनों के बीच अदृश्य प्रतिद्वंद्विता रहती। सिद्धांत रूप में कहें तो एलिसा बगैर किसी अतिरिक्त  कोशिश के सेक्स में अपने ऑर्गैज़्म (चरम बिंदु) पर उसी पल पहुँचती जिस समय इलियास वहाँ कदम रखता पर व्यावहारिक जीवन में उन दोनों के शरीरों का एक समय में एक गाँठ में बँध जाना एकदम सहज  और अनायास था। उनके बीच इस तरह की समानता को देख कर एलिसा की माँ अक्सर कहती कि देखो लगता है दोनों जैसे एक ही संतरे की बीच से आधा आधा काट दी गयी दो फाँकें हों। जब भी वे यह कहतीं दोनों के गालों पर लाली छा  जाती और दोनों झुक कर एक दूजे को चूमने लगते। 
उस ख़ास उथल पुथल वाली रात एलिसा बिस्तर से उठ कर बीच सड़क पर जोर जोर से चिल्लाने को आतुर थी: मैं दुनिया में सबसे ज्यादा नफ़रत यदि किसी से करती हूँ तो वह और कोई नहीं तुम हो  ... हाँ ,तुम ... सिर्फ़ तुम। और इलियास था कि गुस्से में बोल वह भी रहा था पर उसकी आवाज़ एलिसा की चीख के सामने मामूली  और कमजोर थी सो अनसुनी रह जा रही थी। इसके बाद वे दोनों सोने की कोशिश करते रहे पर डरावने सपनों ने उन्हें चैन से सोने न दिया ... सुबह उठ कर  बगैर एक शब्द बोले पूरी ख़ामोशी के साथ उन्होंने नाश्ता किया और यह बातचीत करनी भी जरूरी न समझी कि इस घटना के बाद अब आगे क्या और कैसे करना है। शाम को जब एलिसा काम से घर लौटी और बैग में अपने सामान समेटने सहेजने लगी तो उसे पहले से आधा खाली वार्ड रोब को देख कर कोई अचम्भा नहीं हुआ। 
जैसा ऐसे मामलों में दो प्रेमियों के बीच आम तौर पर हुआ करता है , एलिसा और इलियास ने कई बार बीती बातों को भुला कर सुलह कर  लेने की कोशिशें कीं .... पर हुआ कि जब भी एक ने दूसरे से  फ़ोन पर बातचीत करने की कोशिश की उधर का फ़ोन हमेशा बिज़ी आया।इतना ही नहीं उन दोनों ने कई मौकों पर आपस में मिल बैठ कर आमने सामने बात करने की योजना बनाई पर यह सोच सोच कर कि दूसरे ने इस बात को खाम खा इतना तूल दे दिया और मिलने में इतनी देर क्यों लगाई , तय समय और स्थान पर मिलने भी नहीं गए - कोई एक नहींदोनों में से कोई भी नहीं गया।  
   
(स्पैनिश से निक केस्टर व लोरेंजो गार्सिया द्वारा किये अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित तथा ओपन लेटर द्वारा 2015 में प्रकाशित "द थिंग्स वी डोंट डू" संकलन से साभार) 

Friday, March 18, 2016

मेरी, तेरी, सबकी मां की जय हो भारत

विजय गौड़

 
भारत माता की जय, तू-तू, मैं-मैं की हदों को पार कर रही है। यहां तू-तू, मैं-मैं को मुहावरे की तरह ही देखें। वैसे भी मैं राष्‍ट्रद्रोही नहीं हूं। राष्‍ट्रदोह का सार्टिफिकेट बांटने वालों से अपील है कि वे अपनी सील-मुहर को अभी थैले से बाहर न निकाले और घ्‍यान से पढ़ें।

अब देखिये न एक तरफ वे महाशय जिद ठाने बैठे हैं कि मैं भारत माता की जय नहीं बोलूंगा, दूसरी ओर माता के सच्‍चे पुत्र हैं, जो यूं तो अक्‍सर ही मां का नाम भूल जाते हैं, और वक्‍त बेवक्‍त के हिसाब से कुछ भी पुकार लेते हैं, जिद्द ठाने हैं कि भारत माता की जय तो बुलवा कर ही रहेगें। देखिये मैं राष्‍्ट्रदोही पुकार दिये जाने का खौफ खाये बगैर बता देना चाहता हूं कि कभी किसी क्रिकेटकर, किसी विराटरू या मोनी-जॉनियों के कलात्‍मक अंदाजों पर, खासतौर पर उस वक्‍त जब वे भारतीय जनता के करोड़ो रूपयों के कजर्दार किसी शराब के व्‍यापारी की खरीद पर बनायी गयी एक टीम हों या अन्‍यथा भी, जब वे विरोधी टीम के धुर्रे उड़ा रहे हों और उनका मालिक व्‍यपारी चीयर्स गर्ल्‍स की कमर में हाथ डालकर यम यम करता हो, तो औपनिवेशिक पहचान कराती भाषा में गूंजने वाले नाम के साथ माता को याद करते हुए लगाया जाने वाला जयकारा भी उनकी दमित इच्‍छाओं का यम यम हो जाता है। एक बात ओर है कि संसद, कानून और जब चाहे तब बेखौफ सरहदों के आर-पार निकल जाने वाले और सब तरफ से विजय पाये व्‍यापारी के राष्‍ट्रद्रोह को भी यदाकदा पहचान लेने वाले चैनलों के एंकर भी तू-तू, मैं-मैं को हवा देने में कम नहीं।

मजेदार है कि कितने ही चैनेलों के एंकर भी गले की नसें फुलाफुलाकर उस टोपीबाज को बिल्‍कुल सामने-सामने देशद्रोही और जाने क्‍या क्‍या बोल रहे हैं, मुकदद्दमें का डर दिखा रहे है, लेकिन वह तब भी भरत माता की जय न बोलने की जिद्द पर अड़ा बैठा है और अपने ही धर्म के एक सांसद के भावनात्‍मक इजहार तक को धत्‍ता बताकर कभी जय हिन्‍द तो कभी इंक्‍लाब जिंदाबाद ही कहे जा रहा है। भारत माता की जय का तर्जुमा करके मंद मंद मुस्‍कराते हुए वह और भी चिढ़ाऊ कार्रवाई करने में माहिर है। उसके अंदाज पर तो नसें फुलाकर बोलने वाले एंकरों से प्रभावित और देश प्रेम के क्रोध से उबल रहे भले मानुस भी कभी-कभी सारे मामले को खुद ही नूरा कुश्‍ती के रूप में देख सकते हैं।

खैर हमें इस चिन्‍ता में नहीं घुलना है और न ही तू-तू, मैं-मैं करने वालों के झांसे में आकर कभी राष्‍ट्रवाद का सार्टिफिकेट बांटने वालों के साथ होना है और न ही हर सेकैण्‍ड के हिसाब से बांटे जा रहे उन सार्टिफिकेटों को फाड़ने में जुटे नूरा कुश्‍ती लड़ते हुए मुस्‍कराने वालों के साथ होना है। खतरा तो दोनों ही ओर है। निश्चित ही है। वैश्विक पूंजी से दोनों का ही प्रेम इतना अनूठा है कि अपनी अपनी जरूरत के हिसाब से दोनों ही जनता की एक मुश्‍त गाढ़ी कमाई के पैसे को वैश्विक पूंजी द्वारा बाजार में उतारी हुई मशीनों पर लुटा देना चाहते हैं। उनकी जरूरत को पूरा करने के लिए सार्टिफिकेट बांटने वाली मशीन प्रति सैकेण्‍ड की दर से सार्टिफिकेट बांटेगी और फाड़ने वाली प्रति सैकेण्‍ड की दर से उन्‍हें फाड़ती जायेगी1 खबरों की तलाश में जुटे चैनलों को विकास के आंकड़े पर सुबह से शाम तक मजमा-ए-बहस जुटाना आसान होगा। वे बता पायेगें कि आज सार्टिफिकेट बांटने वाली मशीन प्रति सैकेण्‍ड चार सार्टिफिकेट की दर से कुल तीस हजार सार्टिफिकेट ही बांट पायी जबकि सार्टिफिकेट फाड़ने वाली मशीन ने प्रति सैकेण्‍ड पांच सार्टिफिकेट की दर से सारे के सारे सार्टिफिकेट कुल समय से दो घंटे पहले ही फाड़ दिये। तय मानिये मजमा-ए-बहस के निर्णय आंकड़ो को इस तरह से परिभाषित करने में साहयक रहेंगे कि गठित समीक्षा कमेटी सिफारिशें दे पाये कि मशीन की कार्यक्षमताओं को परिमार्जित करना आवश्‍यक है। अत: एफ डी आई का प्रतिशत 51 कर दिया जा रहा है।

मित्रों बहुत हुई तू-तू, मैं-मैं।

यह बताइये कि आपकी भाषा में मां को क्‍या कहते हैं ?
मैं तो गढ़वाल का रहने वाला हूं, मेरी मातृभाषा में तो ‘ब्‍वै‘ बोला जाता है।
कल एक मित्र बोले कि उनकी भाषा में ‘दइया’, ‘महतारी’, ‘माई’, तीनों ही शब्‍द प्रचलित हैं।
वैसे मेरा दोस्‍त पाटिल तो ‘आई’ ही बोलता है।
आपको सच बताऊ गढ़वाल के पड़ोस में ही कुमाऊ है वहां ‘ईजा’ बोला जाता है।
आपकी मातृभाषा में क्‍या बोलते हैं ? जो भी बोलते हों बोलिये उस मां की भी जय।

 

Sunday, August 16, 2015

कहानी पाठ

ब‍हुत दिनों बाद एक ऐसी कहानी पढ़ने को मिली जिसे जोर जोर से उव्‍वारित करके पढ़ने का मन हुआ। यह कहानी के कथ्‍य की खूबी थी या उसका शिल्‍प ही ऐसा था कि उसे उच्‍चारित करके पढ़ने का मन होने लगा, इस बहस में नहीं पढ़ना चाहता। लीजिए आप भी सुनिए।

  

Friday, July 31, 2015

अनजाना फासीवाद


लोकतंत्र का मतलब इतना ही नहीं कि किसी भी संस्‍था के हर फैसले को किसी भी कीमत पर उचित ही मान लिया जाए। वैधानिक ढांचे के कायदे से चलती संस्थाओं की कार्यशैली और निर्णय भी। उन पर स्‍वतंत्र राय न रख पाने की स्थितियां पैदा कर देना तो नागरिक दायरे को तंग कर देना है। स्‍वतंत्र राय तो जरूरी नागरिक कर्तव्‍य है, जो वास्‍तविक लोकतंत्र के फलक को विस्‍तार देती है। सहमति और असहमति की आवाज को समान जगह और समान अर्थों में परिभाषित करने से ही लोकतंत्र का वास्‍तविक चेहरा आकार ले सकता है। ऐसे लोगों का सम्‍मान किया जाना चाहिए जो बिना धैर्य खोये भी असहमति के स्‍वर को सुनने का शऊर रखते हैं। सम्‍मान उनका भी होना चाहिए जो बेलाग तरह से नागरिक कर्तव्‍य को निभाने में अग्रणी होते हैं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया को वास्‍तविक ऊंचाईयों तक पहुंचाने में ऐसी दृढ़ताएं महत्‍वपूर्ण साबित होती हैं।
आदरणीय कलाम साहब, भूतपूर्व राष्‍ट्रपति की लोकप्रियता को कोई दाग नहीं लगा सकता। उनका घोर विरोधी भी नहीं। वे सादगी पसंद, भारत के ऐसे राष्‍ट्रपति थे, टी वी पर जिन्‍हें कई बार स्‍कूली बच्‍चों के बीच देख मन प्रफुल्लित हो जाता था। अन्‍य मौकों पर भी उनकी सहजता, सरलता की ऐसी तस्‍वीरें देखते हुए उनके प्रति आदर उमड़ता था, यह कोई आश्‍चर्य की बात नहीं। उनके व्‍यक्तित्‍व में एक सच्‍चे नागरिक का तेज नजर आता था। वे विज्ञान के अध्‍येता थे, वैज्ञानिक थे, यह कोई छुपा हुआ तथ्‍य नहीं। लेकिन उनके वैज्ञानिकपन को अनुसंधान के शास्‍त्रीय पक्ष के साथ पहचान करती आवाज पर हिंसक हो जाना,  लोकतंत्र का मखौल बना देना है। सहमति के संतुलन की ऐसी आवाज से असहमति रखना लोकतंत्र की खासियत हो सकता है, वाजिब भी है। लेकिन हिंसक हो जाना तो अनजाने में ही हो चाहे, फासीवादी मूल्‍यों का ही समर्थन है।
न्‍याय के विभिन्‍न रूपों में फांसी सबसे बर्बर अंदाज है, यह कहना भी लोकतंत्र का पक्ष चुनना है और वैश्विक दृष्टि का पक्षधर होना है। अंधराष्‍ट्रवादी निगाहें यहां भी विरोध के फासीवादी चेहरे में नजर आती हैं।
आश्‍वस्ति की स्थिति हो सकती है कि खुद के भीतर उभार ले रहे फासीवाद को पहचानना शुरू हो और अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता के स्‍वस्‍थ लोकतंत्र की दिशा निश्चित हो।     
-- विजय गौड  

Tuesday, July 14, 2015

मित्र हो तो असहमति को रखने में संतुलन बरतना ही होगा




हमेशा इस पसोपेश में रहता हूं कि मन की बातों को कह दूं या नहीं। संकट है कि कहने का वह सलीका कहां से लाऊं जो शालीन बनाये रखे। फिर भी कोशिश में तो रहता ही हूं कि मेरे भीतर का मनुष्‍य, जो वैसे ही वाचाल है, और वाचाल न नजर आये। यूं कहने का साहस तो अब भी नहीं जुटा पा रहा हूं। बस इतना जाने कि जो कुछ कह रहा हूं किंचित जमाने से असहमतियों के कारण कह रहा हूं।
कह पा रहा हूं तो यह भी स्‍पष्‍ट जानिये असहमत हूं जिनसे/जिससेए जरूर है वह कोई मित्रवत स्थिति ही होगी। मेरे ऐसा स्‍पष्‍टीकरण न देने पर भी आपकी सह्रदयता उसे दुश्‍मन तो नहीं ही मानेगी, मित्र ही समझेगी। ज्‍याद ही अपने अनुमानों के घोड़ो पर दौड़ेगे तो इतना ही कह पायेंगे कि किसी मित्र से संवादरत हूं शयद। तात्‍कालिक समय में रूठे हुए किसी मित्र से। यानि स्‍थायी दुश्‍मनाने में असहमति को रखने का भी कोई औचित्‍य नहीं।
बेशक आप जो भी माने पर मित्र को सिर्फ मनुष्‍य की शक्‍ल में न देखें। बस, अपने दायरे को थोड़ा विस्‍तार दें और जीवन जगत में व्‍याप्‍त किसी पेड़, पक्षी, फल जानवर, कंकड़, पत्‍थर, शैवाल, फफूंद और निर्मितियों की अजब गजब दुनिया को भी- भौतिक या, अभौतिक तरह से भी जो अपनी ताकत दिखाते हुए मौजूद हैं, अपनी निगाह में उतार लें। मेरे कहे के साथ चलते हुए पायेंगे कि असहमति का मसला सैद्धान्तिक नहीं बल्कि व्‍यवाहरिक होता है। सैद्धान्तिक असहमतियां तो मित्रवत दायरे में ही निपट चुकी होती है। उनके प्रकटीकरण तो स्‍वंय व्‍यवहार से ही उपजी असहम‍तियां हो जाती हैं। कई बार प्रकटीकरण की कोई स्‍पष्‍ट वजह भी नहीं होती, तो भी वे तो न जाने कब हिंसक हो जाती हैं। ऐसी असहमतियां निश्चित ही  हत्‍यारेपन की प्रवृत्ति है, विरोध की असभ्‍य आवाज और सांस्‍कृतिक हत्‍यारेपन में उनके अर्थ एक ही होते हैं। यूं लिजलिजे समर्थन में तो अराजक हिंसा ही प्रश्रय पाती है।
आप जानना चाहते हैं ये सांस्‍कृतिक हत्‍यारापन क्‍या है ? विश्‍वास दिलाइये कि हिसंक न होंगे। हो सकता है मैं अपनी वाचालता में आपको जाने क्‍या-क्‍या कह बैठूं, वैसे भी इस वक्‍त तो असहमति की असभ्‍य आवाज और उसकी तीव्र हिंसकता ही मुझे वाचाल हो जाने को मजबूर कर रही है, आपका सांस्‍कृतिक हत्‍यारापन उतना नहीं। फिर भी जानने चाहे तो जान ले- ठेकेदार, दलाल और बिल्डिरों वाले टुच्‍चेपन को ही आप जो थोड़ा नफासत भरा अंदाज दे देते हैं, वह तो निश्चित ही सांस्‍कृतिक हत्‍यारापन है- संवाद के लिए छटपटाती किसी पुकार को सुनने लेने के बाद भी अनुसनापन ही जाहिर करना, विरोध की स्थितियां निगाह में निगाह डाल कर न रखी जा सके, गर्दन पहले ही घुमा देना।

चलिये छोडि़ये क्‍या-क्‍या कहूं। वैसे भी दुनिया संबंधों को कायम रखने की जितनी आधुनिकता से सुसज्जित हो रही है, असहमति का हत्‍यारापन उतना सांस्‍कतिक हुआ जा रहा है, बहुधा असभ्‍य आवाज के साथ साथ कदमताल करता हुआ भी।    

Friday, July 10, 2015

वक्त बचा है कम, कुछ बोल लेना चाहिए

अतियथार्थ की स्थितियों का प्रकटीकरण व्‍यवस्‍थागत कमजोरियों का नतीजा होता है, कला, साहित्‍य के सृजन ही नहीं उसके पुर्नप्रकाशन की स्थितियों में भी इसे आसानी से समझा जा सकता है। हिन्‍दी साहित्‍य में कविता कहानियां ही भरमार में हैं। यह यथार्थ ही नहीं बल्कि अतियथार्थ है। देख सकते हैं कि व्‍यवस्‍थागत सीमाओं के बावजूद, कविता और कहानी के दम पर साहित्‍य की पत्रिकाएं निकालना आसान है। इतर लेखन पर केन्‍द्रीत होकर काम करने के लिए पत्रिकाओं को अपनी व्‍यवस्‍थागत सीमाएं नजर आ सकती हैं, या आती ही हैं। इसलिए कविता कहानी वाले अतियथार्थ के साथ समझोता करते हुए ही उनका चलन जारी रहता है, बल्कि बढ़ता हुआ है। ऐसे में पुस्‍तक आलोचना पर केन्‍द्रीत होकर अंक निकालने के लिए जैसी वैचारिक दृढ़ता चाहिए, वह अपने आपमें सांगठनिक कार्यपद्धति की ओर बढ़ने की मांग करत है। 

हाल ही में प्रकाशित एवं वितरित होता हुआ अकार का 41वां अंक इसकी बानगी है। आपसी सहयोग की सांगठनिक पद्धति ही उसे महत्‍वपूर्ण स्‍वरूप देती हुई देखी जा सकती है। अकार-41 का यह अंक पुस्‍तक समीक्षाओं पर केन्‍द्रीत है और राकेश बिहारी के अतिथि सम्‍पादन में प्रकाशित हुआ है। 
अकार का यह अंक मेरे हाथ में उस वक्‍त आया है, जब मैं अपनी प्रिय पत्रिका पहल के 100 अंक का इंतजार कर रहा था। हालांकि पहल का 100 वां अंक तो आज भी रतजगे करवाता हुआ है बल्कि अब तो लगने लगा है कि संभवत: डाक की गड़बड़ी में हो न हो, मुझे इन्‍टरनेट के जरिये ही उसे उसी तरह पढ़ने को मजबूर होना पड़े, जैसे पहल 99 के लिए हो चुका हूं। मेरी इस चिन्‍ता से डाक व्‍यवस्‍था को क्‍या लेना देना कि कुछ पत्रिकाएं ऐसी होती है जिन्‍हें पढ़ने ही नहीं बल्कि सहेजने का भी अपना सुख होता है। पहल के अभी तक के संग्रहित अंको में पहल-99 मेरे पास हमेशा हमेशा के लिए नदारद रह जाने की स्थितियों में है।
अकार-41 कर चर्चा के बीच में पहल का जिक्र मैं क्‍यों करने लग गया ?
यह सवाल किसी ओर से नहीं, मैं खुद से पूछ रहा हूं।
अपनी दिनचर्या के हिसाब से सुबह दफ्तर जाने के पहले बचने वाले समय को मैंने, आमतौर अपने छुट-पुट लेखन और कुछ ऐसी जरूरी चीजें पढ़े जाने के लिए सुरक्षित रखा हुआ है जो ज्‍यादा धैर्य की मांग करती हैं। सुबह के उस वक्‍त में पत्रिकाओं पर सरसरी निगाह डालने का भी कोई अवकाश नहीं। हां, पिछली शाम पलटी गयी पत्रिका में यदि नजर आ गया कोई आलेख वैसे ही धैर्य की मांग करता दिखा तो उसे जरूर शामिल कर लेना होता है। लेकिन मुझ तक पहुंचने वाली हिन्‍दी की पत्रिकाएं में ऐसे पढ़े जाने की स्थितियां सीमित ही हैं। पहल और समयांतर ही दो ऐसी पत्रिकाएं हैं, जो  मेरे इस सुबह के वक्‍त पर डाका डालने में अभी तक अव्‍वल मानी जा सकती हैं। समयांतर का इंतजार तो हर महीने का इंतजार है। अभी तक अनुभव के आधार पर वह किसी भी महीने की 27 तिथि तक पहुंच ही जाती हैपहल के 100 वे अंक से संबंधित कार्यक्रम के दिन वाली अनुगूंज खरों ओर है और मैं उसके अंक 99 से ही अभी वंचित हूं। अब मानने को विवश हो जा रहा हूं कि शायद मुझे 100 वें अंक से भी वंचित हो जाना होगा। क्‍यों अब तक पहुंची नहीं है। मित्रों की सूचनाओं में उसका पढ़ जाना पूरा होता हुआ है। मित्रों से बातचीत के बहाने ही मैं उसके कई सारे पृष्‍ठों के स्‍वाद और प्रभाव को महसूस कर चुका हूं। अकार-41 ने मेरे उस वक्‍त पर आजकल कब्‍जा किया हुआ है।
यहां एक अन्‍य बात, जो प्रासंगिक जान पड़ रही है, कह देना चाहता हूं-
पिछले दिनों अपने एक मित्र से इस प्रस्‍ताव पर बात की, ''भाई क्‍या संयुक्‍त प्रयासों वाली किसी पहलकदमी से कुछ-कुछ पहल और कुछ-कुछ समयांतर वाले स्‍वर के बीच से गुजरती किसी पत्रिका को हम शुरू कर सकते हैं ?'' यद्यपि यह भी कह देना मैं जरूरी जान रहा हूं, यहां स्‍मृतियों में पहली पारी वाली पहल मौजूद है। पहली पारी वाली पहल का प्रकाशन स्‍थगित हो जाने का वक्‍त मेरे लिए स्‍तब्‍धकारी था। क्‍योंकि मेरा मानना रहा कि कविता, कहानियों वाली हिन्‍दी पत्रिकाओं की प्रगतिशील दिशा को बांधे रखने में पहल एक हद तक महत्‍वपूर्ण भूमिका निभा रही थी। उसका प्रकाशन बंद नहीं होना चाहिए था। समयांतर का स्‍वरूप एवं मिजाज थोड़ा भिन्‍न है और जरूरी है।  कविता, कहानियों वाले दायरे की पत्रिकाएं उसके दबाव से मुक्‍त होकर कहीं भी छलांग लगाने को स्‍वतंत्र हैं। दूसरी पारी की पहल को भी अपनी उस भूमिका में अभी उतना नहीं पाता हूं। मित्र ने पत्रिका के प्रकाशन संबंधि अपनी सहमति जाहिर की है। फिर भी अभी बहुत सी दिक्‍कतें हैं कहा नहीं जा सकता कि क्‍या ऐसा संभव होगा भी या नहीं अड़चन के कारण हमारी कमजोर इच्‍छाशक्ति में भी छुपे हो सकते हैं और वास्‍तविक भी हो ही जायें तो वैसा भी हो सकता है।   
इसीलिए अकार-41 का जिक्र करते हुए पहल का जिक्र हो जाना स्‍वाभाविक सी बात है। लेकिन मेरे कहे से ये अनुमान न निकाले जाएं कि बेताबी भरे इंतजार की घडि़यों में अकार का 41वां अंक डाक में अचानक नजर आ जाना, किसी भी पत्रिका के मिल जाने की सी वजहों के कारण यहां जगह पा रहा है। ऐसे होने के अनुमान तो इस बात से भी निर्मूल हो जाते हैं कि पहल-99 के अलम्बित इंतजार में भी अकार के 40वें अंक ने दस्‍तक दी थी। हालांकि अकार के 40वें अंक ने भी उस वक्‍त ठिठकाया था। ज्ञात रहे कि अकार का वह पहला अंक था जो शुद्ध रूप से कविता, कहानी वाले अतियथार्थ का घेरा तोड़ रहा था लेकिन इतिहास संबंधित जानकारियों की अतिमार में बदले हुए स्‍वरूप के प्रभाव बहुत गहरे नहीं पड़ रहे थे। अकार-41 के बारे में अपनी राय व्‍यक्‍त कर देने की जो बेचैनी अभी महसूस हो रही, वैसा तब नहीं हुआ था। बल्कि उस वक्‍त यदि कुछ कह देने की जल्‍दबाजी कर देता तो आज अकार-41 की संभावनाओं पर टिप्‍पणी कर लेने में शायद अब हिचकिचाहट तो महसूस होती ही। 

बताना चाहता हूं कि डाक में मिले अकार-41 को पहली शाम सरसरी निगाह से पूरी तरह पलट लेने में मैं मात खा गया था। फेसबुक से पहले ही मिल चुकी सूचना के आधार पर, मैं अपने मित्र सुभाष चंद्र कुशवाह की किताब चौरीचौरा पर हितेन्‍द्र पटेल के लिखे आलेख से गुजर कर अन्‍य सामाग्री तक गुजर जाना चाहता था। लेकिन उस शाम हितेन्‍द्र पटेल के आलेख ने मुझे छूट ही नहीं दी और पूरा पढ़े जाने से शेष रह गया। इस तरह आलेख ने अकार-41 को मेरी अगली सुबह के वक्‍त में धकेल दिया। मित्रों का लिखा, या उन पर लिखे को सबसे पहले पढ़ने की अपनी कमजोरी को मैं छुपाना नहीं चाहता। आलेख तो पूरा हो गया लेकिन उस सुबह अकार की दूसरी समाग्री से गुजरना तो अधूरा ही रह गया था। शाम को उसे फिर से पलट कर किनारे रख देना चाहता था। पर दिखाये दे गये एक ओर भरोसे के लेखक, बसंत त्रिपाठी ने भी उस शाम अटका दिया। दलित चिंतक तुलसीराम की आत्‍मकथाओं के बहाने लिखे गये उस आलेख को धैर्य से पढ़ लेने के लिए अकार फिर से अगली सुबह के वक्‍त पर हावी थी। ग्रंथ शिल्‍पी से प्रकाशित ई एम एस आत्‍मकथा और वाम राजनीति के कुछ जटिल प्रश्‍न पर लिखे उर्मिलेश के आलेख से ही अभी तक निपट पाया हूं और अकार का 41वां अंक मुझे अभी भी ठिठकाये हुए है। 

अभी तक के आखिरी आलेख से कुछ सहमत और कई जगहों पर असहमति के बावजूद अकार अभी भी मुझे सरसरी निगाह से गुजरने नहीं दे रहा है। हां, शुद्ध साहित्‍य की चयन वाली पुस्‍तकों पर लिखे आलेख तो मेरे सुबह के वक्‍त पर हमला नहीं ही कर रहे। उनके भरोसे अतियथार्थ वाली व्‍यवस्‍थागत कमजोरियां तो नजर आ ही रही है, अकार को सोचना है उससे कैसे निपटे। कविता, कहानियों में मिठू-मिठू अंदाज की आलोचना से ज्‍यादातर साहित्यिक पत्रिकाएं, जगमग दुनिया पहले ही बनाये है। हिन्‍दी साहित्‍य की हमारी दुनिया का यही वह मर्मस्‍थल है जहां मुझे अकार-41 का बदला हुआ स्‍वरूप 1994 के फुटबाफल वर्ल्‍ड कप प्रतियोगिता में अचानक से उभर आयी कैमरून की टीम की सी तात्‍कालिक चमक वाला लग रहा है। उम्‍मीद है भविष्‍य का अकार कैमरून की तात्‍कालिक चमक वाला नहीं बल्कि हिन्‍दी साहित्‍य से संबंधित पत्रिका की दुनिया में स्‍थायी रोशनी वाली आकृति हो।

पहल-100 का इंतजार अभी बाकी है। समयांतर के न पहुंचने की आशंका से ग्रसित नहीं हूं, पंकज जी को फोन करने पर डाक की गडबड़ी के बावजूद वह दुबारा पहुंच ही जायेगी।    

      विजय गौड़     

Thursday, June 11, 2015

घुसपैठियों से सावधान


प्रिय मित्र यादवेन्‍द्र जी से मुखातिब होते हुए

हम, जो दुनिया को खूबसूरत होते हुए देखना चाहते हैं-  किसी भी तरह के शोषण और गैर-बराबरी के विरूद्ध होते हैं, चालाकी और षड़यंत्र की मुनाफाखोर ताकतों का हर तरह से मुक्कमल विरोध करना चाहते हैं । यही कारण है कि अपने कहे के लिए उन्‍हें  ज्‍यादा जिम्मेदार भी माना जाना चाहिए, या उन्‍हें खुद भी इस जिम्मेदारी को महसूस करना चाहिए । ताकि उनके पक्ष और विपक्ष को दुनिया दूरगामी अर्थों तक ले सके और उनकी राय से व्‍युत्‍पन्न होती नैतिकता, आदर्श को विक्षेपित किया जाना संभव न हो पाये। पर ऐसा अक्सर देखने में आता नहीं। खास तौर पर तब जब प्रतिरोध के किसी मसले को  शासक वर्ग द्वारा भिन्‍न अंदाज में प्रस्तुत कर दिया गया हो। ऐसे खास समय में प्रतिरोध का हमारा तरीका कई बार इतना वाचाल हो जाता है कि खुद हमारे अपने ही मानदण्‍डों को संतुष्‍ट 0कर पाना असंभव हो जाता है । कई बार ऐसा इस वजह से भी होता है कि शासकीय चालाकियों को पूरी तरह से पकड़ पाना हमारे लिए मुश्किल होता है और उसका लाभ उठाकर शासक वर्ग के घुसपैठिये भी प्रतिरोध का नकाब पहनकर अपनी भूमिका को बदल चुके होते हैं ताकि हमारे हमेशा के वास्‍तविक प्रतिरोध को अप्रसांगिक कर सके । उस वक्‍त उनके प्रतिरोध की आवाज इतनी ऊंची होती है कि एकबारगी वे हमें जनता के पक्षधर नजर आते हैं जो हमारे ही मन के प्रिय भावों को प्रकट करने में साथ दे रहे होते है। उनकी इस भूमिका पर हम उन पर कोई सवाल नहीं उठा सकते बल्कि उनके ही नारों, उनके ही तर्कों के साथ खुद प्रतिरोध में जुट जाते हैं। लेकिन एक दिन जब वे पाला बदलकर फिर से अपने पूर्व रंग में होते हें तो पाते हैं कि उनके अधुरे तर्कों के कारण और उनके ही पीछे पीछे डोलने के कारण हम खुद ही अप्रसांगिक हो चुके हैं।

घुसपैठियों के तर्कों में बहने की बजाय हमें प्रतिरोध की अपनी भूमिका को स्पष्ट रखते हुए  निशाना ठीक से साधना आना चाहिए। मैगी के समर्थन में आ रहे विचारों के मद्देनजर बात न भी की जाये तो ओसामा बिन लादेन की हत्‍या के समय को देखिये जब एक वैश्विक पूंजी के विरोध में किया जा रहा हमारा प्रतिरोध हमें अप्रसांगिक बना दे रहा था । हम लादेन के पक्षधर नहीं हो सकते पर अनायास वैसा दिख रहे थे। हाना मखमलबॉफ की फिल्‍म एक बार फिर याद आ रही है  

Friday, October 24, 2014

गंवर्इ आधुनिकता में सांस लेती हिन्दी कहानी

 यह आलेख हिन्दी चेतना के कथा आलोचना विशेषांक में प्रकाशित हुआ है। 

विजय गौड़

बेशक साहितियक रचनाओं को इतिहास न कहा जा सके पर उनमें दर्ज होता यथार्थ, दौर विशेष की सामाजिकी को ऐतिहासिक नजरिये से खंगालने का अवसर तो देता ही है। कथादेश, अक्टूबर 2012 में प्रकाशित कथाकार हरीचरण प्रकाश की कहानी सुख का कुंआ खोदते हुए- दिन प्रतिदिन मध्यवर्गीय जीवन के समकालीन यथार्थ को ऐसी ही करीबी से पकड़ती है। उसका पाठ भारतीय समाज के ऐतिहासिक अव्लोकन की मांग करने लगता है। पिछले 60-70 सालों की हिन्दी कहानियों में दर्ज होते समय से गुजरे बिना उसको समझा भी नहीं जा सकता है। कथ्य की संगतता में वह अपनी जैसी जिन अन्य कहानियों को याद करवाती है उनमें प्रमुख हैं- कथाकार ज्ञानरंजन की सबसे ज्यादा याद आने वाली कहानी पिता, उदय प्रकाश की तिरिछ और सुभाष पंत की ए सिटच इन टाइम। आजादी के बाद लगातार आगे बढ़ते समय में पिता और पुत्र के संबंधों की एक श्रृंखला बनाती ये चारों कहानियां भारतीय समाज व्यवस्था के विकासक्रम का सांखियकी आंकड़ा जैसा प्रस्तुत करने लगती है। ''सुख का कुंआ खोदते हुए- दिन प्रतिदिन का पिता जहां कुछ ही समय पहले लिखी गयी कहानी 'ए सिटच इन टाइम के पिता का हम उम्र साथी नजर आता है तो वहीं नब्बे के दशक में आयी 'तिरिछ’ के पिता से उसका पुत्र का सा संबंध बन रहा है और 'पिता का पिता उसे दादा-पोते के से रिश्ते में बांधता हुआ है। कथाकार कामतानाथ की कहानी संक्रमण भी पिता-पुत्र के ही संबंधों पर रची गयी है। सतत सामाजिक बदलावों की संगत में उसके कथ्य को इन चारों कहानियों के ठीक मध्य में रखा जा सकता है। दकियानूस सामंती जकड़न के विरूद्ध 'पिता’ कहानी का अंदाज जहां 'लव-हे’ रिलेशनशिप के साथ है, वहीं 'तिरिछ’ में मिथकीय आख्यान जीवन्त हो उठता है। सुभाष पंत के यहां भावनात्मक संवेदना के अतिरिक्त उभार में असंवेदनशील होता जा रहा समय बोलने लगता है तो हरीचरण प्रकाश की कहानी परिसिथतियों के वस्तुगत बदलाव में यकीन जताती है। सामाजिक बदलावों के इस प्रवाह की मध्यस्ता में खड़ी 'संक्रमण उन अवस्थओं को पुन:सृजित करती है जो बदलाव को एक सीमित गतिविधि या वय की एक अवस्था भर मान रही हैं और पुत्र में संकि्रमत होते पिता के साथ अपना होना सुनिशिचत करती है।    

दुनियावी विकास का वास्तविक पैमाना हमेशा तकनीक से निर्धारित होता है और सामाजिक ठहराव में हलचल भी उसी के बदलाव पर निर्भर करती रही है। लेकिन पिछले लगभग दो सौ सालों से मुनाफाखौर बाजार ने एक ही तरह के उत्पाद की भिन्न-भिन्न किस्मों को ही तकनीक की तरह प्रचारित कर विज्ञान का भी कर्मकाण्ड फैलाया है और तकनीक के बदलावों को दो भिन्न स्तरो पर विभाजित किया है। ये दो स्तर हैं- 'मेजर टैक्नोलाजिक एडवांस्मेंट एवं 'माइनर टैक्नोलाजिक एडवांस्मेंट। 'माइनर टैक्नोलाजिक एडवांस्मेंट की राह चलता समकालीन विज्ञान उत्पादों के विशिष्ट 'वर्जन के साथ ही पूंजी की सेवादारी में संलग्न है। हिन्दी ही नहीं, भारतीय मध्यवर्ग की गैर-वैज्ञानिक गंवर्इ आधुनिकता तकनीक और उत्पाद के फर्क को अलग-अलग न मान पायी। बलिक उत्पाद को ही तकनीक मानती रही और पुरजोर तरह से तकनीक के ही विरोध में जुटी रही। इस गैर वैज्ञानिक समझदारी के प्रति तार्किक रूख अपनाते हुए जिस मध्यवर्गीय आधुनिकता का विकास होना चाहिए था, सामंती सरोकारी से मुक्त न हो पायी राजनैतिक सिथतियों में वह होना संभव नहीं था। जिसके चलते गंवर्इपन से मुकित की राह खोजता मध्यवर्ग उत्पाद को ही तकनीक मान लेने वाली लपक में आता रहा।
उद्धृत की जा रही कहानियां के अलावा भी कर्इ कहानियां हो सकती है जिनमें पिता-पुत्र का संबंध करीब से गुजरा हो। पर इन चारों कहानियों की तारतम्यता आजादी के बाद विकसित होते मध्यवर्ग के भीतर लगातार पनपती और घर बनाती गर्इ गंवर्इ आधुनिकता को चिहिनत करने में मददगार है। वैसे गंवर्इ आधुनिकता एक भिन्न पद है लेकिन यह भिन्नता सिर्फ शाबिदक नहीं है। बलिक रचनात्मक दौर की प्रवृतितयों को चिहिनत किये बगैर, उसको आंदोलन मान लेने वाली प्रवृतित से नाइतितफाकी है, जिसकी मांग हरी चरण प्रकाश की कहानी भी कर रही है। तात्कालिकता को एक आंदोलन मान लेने वाली गैर विश्लेषणात्मक पद्धति ही आलोचना के ऐसे मान दण्ड खड़ी करती रही है जिसमें रचना से इतर रचनाकार को ही ध्यान में रखकर, पहले से तय निष्कषोर्ं को ही आरोपित किया जाने लगता है। लेखक तो कहानी के इस दौर को गंवर्इ आधुनिकता, से नवाजे जाने वाली संज्ञा के पक्ष में है और कहानी आंदोलन के नाम पर अभी तक जारी सारी संज्ञाओं को तथाकथित मानने को मजबूर है। 

पिछले लगभग 70-80 वर्षो के भारतीय समाजिक ढांचे को देखें तो उसका गंवर्इ आधुनिकपन साफ तरह से समझा जा सकता है। आधुनिक काल के आरमिभक समय में उसका व्यवहार किस तरह और कौन से मध्यवर्गीय रास्तों की राह को पकड़ कर वह आगे बढ़ रही है, इसे भी जाना जा सकता है। हरीचरण प्रकाश की कहानी यहां दूसरे छोर पर है और पहला छोर कथाकार ज्ञानरंजन की कहानी 'पिता’ के मार्फत ज्यादा साफ दिख रहा है। बिना किसी आग्रह-दुराग्रह के यदि बहस में उतरें तो अनेकों सवालों से टकराना होगा और गंवर्इ आधुनिकता से मध्यवर्गीय आधुनिकता में छलांग लगाते भारतीय मध्यवर्ग का चेहरा किस रूप में हमारे कथा साहित्य में दर्ज हुआ है उसे जानना-समझना संभव हो सकता है। 

सवाल है कि गंवर्इ आधुनिकता है क्या ? हरीचरण प्रकाश की कहानी और उसके बहाने याद आ रही अन्य कहानियों से उसका क्या संबंध बनता है ? स्पष्ट है कि गंवर्इ आधुनिकता का वास्तविक अर्थ हिन्दी साहित्य की अभी तक की उस दुनिया से भिन्न नहीं है, जो मेहनतकश आवाम के प्रति पक्षधर रही। वैशिवक पूंजी के आक्रामक बदलावों से नाइत्तफाकी ही उसका आदर्श है। लाख कहा जाये कि हिन्दी साहित्य के पाठकों की दुनिया सीमित है तो भी इस सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि  भारतीय मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा साहित्य के आदर्शोे की रोशनी में ही आवाम के प्रति संवेदनशील बना रहा है, यह उस गंवर्इपन की सकारात्मकता ही है। निम्न वर्गीय सामाजिक पष्ठभूमि से भरे कथ्य के बावजूद संवाद की मध्यवर्गीय जड़ताओं के दायरे में सिमटा होना इसके कमजोर पक्ष के रूप में रहा है। भले-भले से विचार और मेहनतकश आवाम के प्रति पक्षधर होने के बावजूद भी बदलाव के सतही नारों की शिकार रही राजनैतिक पृष्ठभूमि इसकी सीमा निर्धारित करती रही। जिसके चलते तकनीकी बदलावों को ठीक से समझने और उस आधार पर सामाजिक आदर्श को गढ़ने की प्रक्रिया में अवरोध ही बना रहा। इसका सीधा असर उन मूल्य-आदर्शों पर पड़ा जो समाज की खुशहाली का स्वप्न बुनने में सहायक होते। सिर्फ कोरे आदशोर्ं के कुछ ऐसे प्रतिमान गढ़े गये जिसने आधुनिकता की ओर संक्रमण करते समाज को घोर निराशा में जीने को मजबूर किया। व्यकितगत महत्वाकांक्षाओं की तुषिट के लिए बचाव की भूमिका ही व्यकित का आदर्श होती गर्इ। जनतांत्रिक मध्यवर्गीय आधुनिकता की बजाय भ्रष्ट मध्यवर्गीय आधुनिकता को जन्म देने वाली सिथतियां ऐसे तथ्यों के साक्ष्य है। 

चूंकि हरीचरण प्रकाश की कहानी सुख का कुंआ--- गंवर्इ आधुनिकता के अंत होते दौर को बयान करती है। इसीलिए जरूरी हो जाता है कि इस अंत होती गंवर्इ आधुनिकता की पड़ताल पूर्ववर्ती कहानियों के सहारे की जाये। और उस मध्यवर्गीय आधुनिकता को भी समझा जाये जो सामाजिक बदलाव की स्वाभाविक वैज्ञानिक प्रक्रिया की बजाय बलात आरोपित होती हुर्इ है। पायेगें कि गंवर्इ आधुनिकता का परित्याग अकस्मात झटके के साथ नहीं हो रहा है बलिक सामाजिक आदर्श और नैतिकताओं से धीरे-धीरे किनारा करते ऐसे मध्यवर्गीय रुझानों के साथ है जो अस्वीकार एवं स्वीकारोकित की सिथतियों की द्विविधा में गैर सामाजिक हो जाने के अंदेशों से कांपती भी रहती है। कांपने की थर-थरहाट को शिल्प और भाषा पर जरूररत से ज्यादा जोर देकर लिखी गयी कहानियों के रूप में देख सकते हैं। बिना किसी असमंजस के यदि ऐसी कहानियों का जिक्र करना पड़े तो योगेन्द्र आहूजा की पांच मिनट, मनोज रूपड़ा की रददोबदल गीत चतुर्वेदी की सावंत आंटी..., पिंक सिलप डेडी का जिक्र किया जा सकता है। ऐसी अन्य कहानियों से गुजरते हुए देखा जा सकता है कि तरह-तरह के उपभोक्ता उत्पाद की भूख पैदा करने वाली मुनाफाखौर पूंजी के विरोध के नाम पर विषय की विशिष्टता, शिल्प और अति भाषायी सजगता में मनोगत कारणों के प्रभाव ही ज्यादा प्रबल होते हुए हैं। 

दुनियावी विकास का वास्तविक पैमाना हमेशा तकनीक से निर्धारित होता है और सामाजिक ठहराव में हलचल भी उसी के बदलाव पर निर्भर करती रही है। लेकिन पिछले लगभग दो सौ सालों से मुनाफाखौर बाजार ने एक ही तरह के उत्पाद की भिन्न-भिन्न किस्मों को ही तकनीक की तरह प्रचारित कर विज्ञान का भी कर्मकाण्ड फैलाया है और तकनीक के बदलावों को दो भिन्न स्तरो पर विभाजित किया है। ये दो स्तर हैं- 'मेजर टैक्नोलाजिक एडवांस्मेंट एवं 'माइनर टैक्नोलाजिक एडवांस्मेंट। 'माइनर टैक्नोलाजिक एडवांस्मेंट की राह चलता समकालीन विज्ञान उत्पादों के विशिष्ट 'वर्जन के साथ ही पूंजी की सेवादारी में संलग्न है। हिन्दी ही नहीं, भारतीय मध्यवर्ग की गैर-वैज्ञानिक गंवर्इ आधुनिकता तकनीक और उत्पाद के फर्क को अलग-अलग न मान पायी। बलिक उत्पाद को ही तकनीक मानती रही और पुरजोर तरह से तकनीक के ही विरोध में जुटी रही। इस गैर वैज्ञानिक समझदारी के प्रति तार्किक रूख अपनाते हुए जिस मध्यवर्गीय आधुनिकता का विकास होना चाहिए था, सामंती सरोकारी से मुक्त न हो पायी राजनैतिक सिथतियों में वह होना संभव नहीं था। जिसके चलते गंवर्इपन से मुकित की राह खोजता मध्यवर्ग उत्पाद को ही तकनीक मान लेने वाली लपक में आता रहा। लोभ और भ्रष्टता का दल-दल समाज में ऐसे भी अपना दायरा बढ़ता जा रहा है। वर्ष 2012 में प्रकाशित कथाकार हरीचरण प्रकाश की कहानी उसके होने और उससे निषेध की बहुत क्षीण आवाज का प्रमाण प्रस्तुत कर रही है।

सामंती मानसिकता में रंगी जिस गंवर्इ आधुनिकता ने आजादी के आंदोलन में भारतीय जन मानस का नेतृत्व किया, आगे के समय में पीढ़ी दर पीढ़ी उसका ज्यों का त्यों बना रहना भी सामंती मूल्यों को पोषित करती राजनीति की ही देन रहा। उपभोक्ता संस्कृति की मुखालफत में मशीनीकरण का ही विरोध भारतीय मध्यवर्ग की भी आवाज होता गया। परिणामत: नाक भौं सिकोड़ोते हुए भी वैशिवक पूंजी की मंशाओं को पूरी तरह से पर्दा फाश करने में प्रगतिशील धारा की राजनीतिक सीमायें भी सामाजिक निराशा को जन्म देती रही है। व्यवस्था रूपी संख्याबल से बाहर हो जाने की चिन्ताओं में वह खुद अपने भीतर के मैकेनिज्म में भी वैसी ही सिथतियों को यथावत बने रहने देने वाली कार्यशैली को अपनाने वाली रही, जिसने गैर वैज्ञानिकता का ही साथ दिया। भारतीय राजनीति के इस 'प्रगतिशील रूप की बहुत साफ तस्वीर हिन्दी साहित्य में देखी जा सकती है। विचारभूमि की ऐसी सिथतियाें में ही हिन्दी कहानी का केन्द्र दया, करुणा वाले नैतिक आदर्शों से आगे नहीं बढ़ पाया। शोषण के प्रतिरोध की सदइच्छायें, साम्प्रदायिकता जैसे कुतिसत विचार की मुखालफत में भी एक ऐसा दार्शनिक अंदाज जो धर्म पर चोट करने को कतर्इ जरूरी नहीं मानता रहा। प्रगतिशीलता के ऐसे ही मानदण्ड संस्कृति और कला के घालमेली करण में वहां-वहां तर्क बन कर सामने आते रहे जहां पूजा पंडालों वाले उत्सवों के साथ बली प्रथाओं जैसी अमानवीय प्रवृत्तियां आज तक खुले आम जारी हैं, बल्कि सरकारी संरक्षण देता वर्दी धारी कानूनी राज मानो उनके लिए ही पहरे पर हो। 

उन कहानियों का जिक्र फिर कभी जो भ्रष्ट मध्यवर्गीय आधुनिकता का चेहरा हो रही हैं, अभी तो गंवर्इ आधुनिकता की तलाश में जुटते हुए कहा जा सकता है कि भारतीय समाज के चेहरे पर उभर आने वाले गंवर्इपन को पूरी तरह से मिटा पाने में असमर्थ और स्वंय को आधुनिक मान लेने के मुगालते में जीता मध्यवर्ग, न टूट पाये सामंती मूल्यों की जड़ता में वर्ण संकर जैसा जरूर हुआ। सामंतवादी मूल्य और आदर्शों से मुकित की सिथतियां इस वर्ग के निजी दायरे में भी वहीं तक प्रवेश कर पायी हैं जिनकी वजह से उसकी मौज मस्ती में खलल पड़ सकती थी। यदा कदा के प्रतिरोधी प्रदर्शनों वाले 'इवेन्ट को खबर बनाकर पेश करने वाले मीडिया पर भी इस वर्ग का यकीन ही जनतंत्र का झूठ रचकर आजादी का झण्डा फहराती मुनाफाखौर पूंजी की षडयंत्रकारी गतिविधियों में भी सहायक हुआ है। सिर्फ मुनाफे की हवस से भरी दलाल पूंजी ने सामंतवादी मूल्यों को पोषित करती शासन-प्रशासन की नीतियों को ही राष्ट्रीयता का नाम दिया। वैशिवक पूंजी ने स्वंय के विस्तार के लिए भी, तंत्र की इस खूबी को पहचानते हुए उसे यथावत बना रहने देने की हर भरसक कोशिश की। उसके दोहरेपन ने, जो एक ओर तो स्तंत्रता और संपभुता का स्वीकार प्रस्तुत करता रहा और दूसरी ओर वैसी सिथतियों में जारी सिथतियों को छुपाये रखने वाली मानसिकता का पक्ष चुनता रहा, स्वतंत्रता के मायने कभी पूरी तरह से परिभाषित नहीं होने दिये और स्थानीय पूंजी के दलाल रूप पर भी पर्दा पड़ा रहा। जात-पांत, क्षेत्र, धर्म और लैंगिक भेदभाव को फैलानी वाली विभेदकारी शकितयों के लगातार आगे बढ़ते रहने की सिथतियां भारतीय राजनीति की सीमा रही। बदलाव की वैशिवक भूमिका में स्वंय को प्रगतिशील मानती ताकतें भी व्यवहार में भिन्न नहीं हो पायीं। सीमित स्वत्रंता वाली स्थानीय पूंजी को अपना पिछलग्गू बनाये रखने और संसाधनों पर सीधे कब्जे वाली एफ.डी.आर्इ की हिस्सेदारी पर मन मसौस-मसौस कर भी स्वीकारोकित का वातावरण मौजूद रहा। इस प्रक्रिया में इतिहासबोध और सांस्कृतिकपन की जितनी जरूरत थी, भारतीय मध्यवर्ग ने उसे स्वीकारने में कभी कोर्इ हिचक नहीं दिखायी। घुड़सवारी, तैराकी और तमाम रोमांचक गतिविधियों में दक्षता के साथ पुरूष को पति परमेश्वर मानते रहने वाली स्कूली शिक्षा के आदर्श इसका एक नमूना मात्र है। ऐसी विशेष भारतीय सामाजिकी में जिस तरह की रचना उपज सकती हैं, वे गंवर्इ आधुनिकता से भिन्न हो नहीं सकती थी। न ही हो पायी हैं। देख सकते हैं कि दलित धारा की रचनायें भी इसी गंवर्इ आधुनिकता के भीतर सांस लेती हुर्इ हैं। लेकिन आलोचना की चालू पद्धति में वे भी उसी तरह एक अलग धारा के रूप में परिभाषित हुर्इ हैं, जैसे स्त्री सवालों की वे रचनायें जो सामंती मूल्यों की बगावत में तो लिखी गर्इं लेकिन विमर्श के भीतर आकार लेते आर्थिक स्वतंत्रता और दैहिक सजगता से भरे दो भिन्न पाठों में बंट कर रह गयीं। 

आज तक की हिन्दी कहानी मुख्यतौर पर शिल्प और पासंग में भाषायी बदलाव के साथ ही दिखायी देती  हैं। आलोचना के स्तर पर भी कलात्मक सौन्दर्य के ऐसे ही प्रतिमानों की स्थापना में रचनात्मक साहित्य के मूल्यांकन की जो पद्धति अपनायी गयी वह दृषिट में तात्कालिक और प्रस्तुति में निर्णायक ही ज्यादा रही, जिसके लक्ष्य न सिर्फ खुद में अतिमहत्वाकांक्षा से भरे रहे बलिक रचना जगत के सामने जिसने व्यकितवादी होने के मानदण्डों वाली नैतिकता के आदर्श को स्वीकारोकित प्र्रदान की। राजनैतिक ढुलमुलपन में वास्तविक प्रतिरोध के प्रतिमानों की चूकती गयी स्थापनाओं ने ही रचनात्मक जगत को भी ऐसे तार्किक आधार दिये कि सामंतवाद को उसके क्रूरतम में चिहिनत करना प्राथमिक नहीं रहा। संस्कृति को ध्वस्त किये बगैर आजादी के आंदोलन में पैदा होती आधुनिकता, आजादी के बाद भी सामंती संस्कारों से मुक्त नहीं हो सकी बलिक शासन प्रशासन के भीतर तक घुसपैठ करते हुए संवैधानिक ढांचे की शक्ल अखितयार करती गर्इ। भारतीय नौकरशाही के मूल चरित्र को उसने 'बासिज्म की ऐसी ठकुरार्इ प्रदान की कि कानून चौराहे पर खड़े सिपाही का हाथ होता गया। यानी किसी भी सीट पर बैठा कर्मचारी अपनी सीमित समझ और मनोगत कारणों से जन्म लेती व्याख्यायों को ही कानून बनाकर सामान्य जन की मुसिबतों को बढ़ाने की छूट पाता रहा। 

60 के दशक में लिखी गयी कथाकार ज्ञानरंजन की कहानी 'पिता', दौर विशेष के भीतर मौजूद सामंती मूल्यों की भिड़न्त में आधुनिकता की जिस तस्वीर को प्रस्तुत करती है उसमें नये जीवन मूल्य के समर्थन में खड़ी भारतीय राजनीति की प्रगतिशील धारा के तत्कालिन मानदण्ड साफ दिखायी देते हैं। पिछड़ी तकनीक को जिददीपन की हद तक जीवन का आदर्श मान रहे पिता से आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल के पक्ष को चुनने वाले पुत्र का मतभेद कहानी का मूल विषय है। लेकिन इस प्रगतिशीलता की अपनी सीमायें रही जिसमें तकनीक के बजाय उत्पाद के प्रति मोह को आधुनिक मान लिये जाने का खतरा था और उसी की गिरफ्त में फंसती गर्इ आधुनिकता का प्रवाह ही परवर्ती काल की विशेषता बन कर उभरने लगा। सामंती अन्तर्विरोधों को उभारते हुए भी उनसे पूरी तरह से मुक्त न हो पाने की त्रासदी भारतीय मध्यवर्गीय आधुनिकता की वह तस्वीर है जो वास्तविक रूप में आधुनिक होने की बजाय गंवर्इपन के झूठे विलगाव में भ्रष्ट हो जाने का आधार प्रदान करती है। संबंधों में एक किस्म का आत्मीय अनुराग लेकिन अभिव्यकित पर ताले लगाने को मजबूर करता सामंतीपन यहां सतत मौजूद रहता है। विवरणों में पुत्र की नफरत है लेकिन नफरत की वजह पुत्र का अपनी पहचान का संकट है। वह झूठी पहचान, जो सामंती ठसक में नाक को ऊंची रखने के लिए जिन्दा रहती है। लू के थपेड़ो वाली गर्मी की रात पंखे में लेटने की बजाय पिता घर के बाहर 'बान वाली चारपार्इ को भिगो-भिगो कर उस पर लेटते हुए गर्मी से निपटने की युक्ती खोज रहे हैं। पंखे की हवा में लेटा पुत्र चिनितत है कि गर्मी के कारण हो रही बेचैनी से पिता निजात पा जायें और चैन की नींद सो सकें। इस निजात पाने में पिता की हरकतों पर ध्यान देने की आशंका से भरा ऐसा आस-पास है जो पुत्र को इस कदर डराये है कि अब नाक कटी कि तब। नाक का यह सवाल ही भारतीय मध्यवर्ग की आधुनिकता के साथ आगे बढ़ता गया है। स्वस्थ पूंजीवादी प्रभावों के असर में नहीं बलिक आरोपित किस्म के पूंजीवाद ने जिस तरह सामंती गठजोड़ को आकार दिया, बिल्कुल वही। सृंजय की एक कहानी है ''मूंछ" जिसमें इस विशेष भारतीय पूंजीवादी-सामंती गठजोड़ की स्तिथियाें पर करारा व्यंग्य हुआ है। 

'पिता’ भारतीय समाज के उस वर्ग का चेहरा बनती है जिसने आजादी के बाद आकार लेना शुरू किया है। तकनीक का उपयोग जिसे खुद के जीवन को सरल बनाता हुआ लग रहा था और अपने सीमित संसाधनों में वह उनका उपयोग भी करने लगा था।  यथा,

''उसने जम्हार्इ ली, पंखे की हवा बहुत गरम थी और वह पुराना होने की वजह से चिढ़ाती सी आवाज भी कर रहा है।''

वह एक पुराना पंखा है जो खड़खड़ाहट करने की सिथति तक पहुंच चुका है। उपभोक्तावाद ने यहां अभी अपने पांव नहीं पसारे हैं। यानी जरूरत के हिसाब से पुरानी-धुरानी चीजों के साथ जीवन आगे बढ़ रहा है। अपने सीमित साधनों में ही पहुंच की सीमायें हैं।

''... लेकिन दूसरे कमरे के पंखे पुराने नहीं हैं।''

  ये अनिवार्य सुविधायें नये उभरते वर्ग की जरूरत का हिस्सा होती जा रही हैं और नयी और पुरानी पीढ़ी के बीच जीवन मूल्यों की खींचतान ऐसे मुददों पर ही अपने-अपने तर्क के साथ आगे बढ़ती है।

'' वे पुत्र, जो पिता के लिए कुल्लू का सेब मंगाते और दिल्ली एम्पोरियम से बढि़यां धोतियां मंगाकर उन्हें पहनाने का उत्साह रखते थे, अब तेजी से पिता विरोधी होते जा रहे हैं।''

पिछड़ेपन की जिद पर अड़े रहने वाले पिता से मतभेद के बावजूद अपने विरोध को सीधे रखने की एक स्पष्ट हिचकिचाहट यहां नयी पीढ़ी के भीतर सतत मौजूद है। बलिक पिता की भूमिका यहां कुछ आक्रामक ही बनी रहती है और गैर जनतांत्रिकता और सामंतीपन सामाजिक मूल्य के रूप में ज्यों के त्यों बचे रहते हैं।

''आप लोग जाइए न भार्इ, काफी हाऊस में बैठिये, झूठी वैनिटी के लिए बेयरा को टिप दीजिए, रहमान के यहां डेढ़ वाला बाल कटाइए, मुझे क्यों घसीटते हैं ?''

इस आक्रामकता का तार्किक जवाब देने की बजाय सिथति को यथावत जारी रहने देने के लिए तात्कलिक तौर पर किनारा कर लेने में ही विरोध की गढ़ी जाती तमीज ने उस मध्यवर्गीय व्यवहार को जन्म दिया जो भले-भले बने रहने की मानसिकता में ही समाज का चेहरा होती गयी।

''कमरे से पहले एक भार्इ खिसकेगा, फिर दूसरा, फिर बहन और फिर तीसरा चुपचाप। सब खीझे हारे खिसकते रहेंगे। अंदर फिर मां जाण्ंगी और पिता, विजयी पिता कमरे में गीता पढ़ने लगेंगे या झोला लेकर बाजार सौदा लेने चले जाएंगे।''

आधुनिकता के नाम पर बचा रह जा रहा यह सामंतीपन अगली पीढ़ी तक स्थायित्व होता चला गया। 'तिरछ कहानी में ऐसे ही पिता की तस्वीर आदर्श पिता के रूप में दर्ज है। जीवन मूल्यों में बदलाव की हिमायती होने के बावजूद भी समय के साथ वैसी ही जिदद के संक्रमण का यही रूप बाद के दौर में कथाकार कामतानाथ की कहानी 'संक्रमण' में दिखता है।

''थोड़ा समय गुजर जाने के बाद फिर लोगों का मन पिता के लिए उमड़ने लगता है। लोग मौका ढूंढ़ने लगते हैं, पिता को किसी प्रकार अपने साथ की सुविधाओं में थोड़ा बहुत शामिल कर सकें।''  - पिता, ज्ञानरंजन

यूं गैरजनतांत्रिक प्रक्रिया के खिलाफ यहां मुखरता की सिथति फिर भी साफ-साफ है। कहानी के विवरण बतातें हैं कि पिता अपनी ही तरह की अकड़ ओर जिदद के साथ हैं। सामंती मानसिकता ने पिता को इस कदर जकड़ा हुआ है कि बढ़ती तकनीक की आधुनिकता में भी उन्हें असहजता महसूस होती है और वे उसका विरोध करने को मजबूर होते हैं। उनकी सांस्कृतिक शुद्धता के आगे तकनीक की आधुनिकता भी, बेशक वह कितना ही मनुष्य के हक में हो, त्याज्य है। भारतीय आजादी के आंदोलन में यह विचार गांधी के प्रभाव से मुखर हुआ और जिसे बाद के काल में स्वतंत्र चिंतन की सीमित सिथतियों के साथ, मौखिक रूप से गांधी से असहमति के बावजूद, ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया गया। एक लम्बे समय तक, बलिक आज तक, ऐसे प्रभाव में जकड़ा हिन्दी भाषा, समाज और उसका पूरा बौद्धिक वातावरण इसका गवाह है। गांधी का गांधीवाद तो गंवर्इ दौर की सिथतियों में सांस लेता था लेकिन आधुनिक होते समाज के भीतर भी उसकी ज्यों की त्यों सिथति को फिर 'गंवर्इ आधुनिकता क्यों नहीं कहा जाना चाहिए ? भारतीय राजनीति का यह एक ऐसा चेहरा था जिसके कारण औपनिवेशिक दासता की छाया से पूरी तरह मुकित का रास्ता तलाशना भी मुशिकल हुआ। वामपंथी राजनीति के भटकाव की गलियां भी एक हद तक ऐसी ही खाइयों में धंसी देखी जा सकती हैं। जहां उत्पाद को ही तकनीक मानते रहने की समझ काम करती रही। पायेंगे कि इंक्लाब का नारा बुलन्द करती  क्रान्तिकारी धारा तक ने अपने को ट्रेड यूनियन आंदोलन से बचाये रखते हुए नवजनवादी क्रानित के उस नारे को बुलन्द किया है जो पिछड़े तरह के औजारों और दैवीय अनुकम्पा में टिकी खेती का हिस्सा हो जाता है। 'आधुनिक किस्म के उपक्रमों में काम कर रहे मजदूर और कर्मचारियों की तकलीफें उसके दायरे से बाहर रही और झूठे जनवाद की वकालत में जुटी संसदीय राजनीति के आसरे मजबूत संभावनाओं वाले ट्रेड यूनियन आंदोलन का जो हश्र और पतन होना था, वह लगातार जारी रहा। बौद्धिक जमात और साहित्य, संस्कृति और कला में जुटे समाज से भी क्रानितकारी धारा की एक हद तक दूरी इसी लिए बनी रही- खासतौर पर हिन्दी भाषी क्षेत्र में तो इसे दूरी के रूप में भी चिहिनत नहीं किया जा सकता। परिणामत: सांस्कृतिक बिरादरी का अधिकांश हिस्सा सामाजिक परिवर्तन की किसी सकारात्मक कार्यवाही से बाहर ही खड़ा रहा और बदलाव की क्रानितकारी धारा ही नहीं बलिक बदलाव का परस्पर रास्ता तक विकसित नहीं हो पाया। सिथतियों की यह विकटता जनपक्षधर प्रतिबद्ध रचनाकार जमात को भी अपने औजार तलाशने के अवसरों से वंचित करने वाली साबित हुर्इ। साहित्य की दुनिया के ऐतिहासिक पड़ाव को रचनाकारों के नामों के साथ जोड़कर, या कोर्इ नया सा नाम देकर, स्थापित होने की व्यकितवादी प्रवृतित ही आगे बढ़ती रही। 19 वीं सदी से शुरू हुर्इ आधुनिक हिन्दी साहित्य की पड़ताल में जुटी हिन्दी आलोचना का ऐतिहासिकताबोध तो इस बात की तथ्यात्मक पुष्टी करता है। जहां कितने ही पड़ावों से हिन्दी की आधुनिक धारा को परिभाषित होते हुए देखने के बाद भी किसी एक रचना को पढ़कर यह अनुमान लगाना संभव नहीं कि इसे किस खांचे में रखकर पढ़ा जाये जब तक कि रचनाकार का नाम और रचना के काल एवं उसको प्रकाशित करने वाले ग्रुप के साथ जोड़ने वाली सूचनाओं का अभाव हो। यानी प्रवृतित में एक ही तरह की रचनायें, कमोबेश कालक्रम के कारण आ रहे छोटे मोटे बदलावों में सांस लेने के कारण कुछ भिन्नता भी बेशक लिए हों, लगातार पनपती और विकसित होती व्यकितवादी प्रवृतितयों के कारण जन्म लेते गये खेमों में बंटी हुर्इ रही। व्यवहार में गिरोहगर्द होते जाने का इतिहास निर्माण जारी रहा और आलोचना, आत्मआलोचना का दायरा सिकुड़ता चला गया। भारतीय राजनीति के संसदीय चेहरे को निखारने में जुटे साहित्यक संगठनों ने इस प्रक्रिया में खाद पानी का काम किया और मनोगत कारणों से व्याख्यायित होती झूठी प्रगतिशीलता की स्थापनाओं को आधार प्रदान किया। हिन्दी कथा साहित्य में ऐसे यथार्थ की अनेकों तस्वीरें साफ-साफ दर्ज हुर्इ हैं जो स्वत: इस बात का भी प्रमाण हैं कि बिना किसी दूरगामी राजनीति के साहित्य भी किसी नये कल्पनालोक की स्थापनाओं का वास्तविक पक्षधर नहीं हो सकता।

संदर्भित कहानी 'पिता’ में निसंदेह सामंतवाद के प्रति एक निषेध तो दिखता है लेकिन समाज में बहुत भीतर तक जड़ जमायी सामंती प्रवृति से पूरी तरह से मुक्त न हो पाये रचनाकार का मानस भी अपना असर डालता है। कथाकार ज्ञानरंजन की आलोचना में कहा जाये तो स्पष्टतौर से कहना पड़ेगा कि वे 'अकहानी के दौर के ऐसे रचनाकार हैं जिनके यहां मानवीय संबंधों की आत्मीय पुकार सामंती मुकित से पूरी तरह विलग संसार रचने में एक पड़ाव भर ही रही। प्रतिरोध की मुक्कमल तस्वीर नहीं बनाती। हां, यह जरूर है कि पिता कहानी में मानवीय संबंधों की ऊष्मा को बचाए रखने की कोशिश अपने समय के हिसाब से ज्यादा तार्किक और संबंधों में आ रहे बदलावों को ज्यादा करीब से पकड़ती है। इस कहानी के साथ ही शुरु हुआ दौर कुछ भिन्न इसीलिए भी दिखायी देता है कि यहीं से हिन्दी कहानी जिन्दगी के ऊबड़ खाबड़ पन को ज्यादा मारक तरह से रखने वाली भाषा को गढ़ने के साथ आगे बढ़ती हुर्इ दिखने लगी। लेकिन अनुतरित रह जा रही सामंती सिथतियों से छलांग लगाकर मध्यवर्गीय होते जीवन के उस कथा संसार से बहुत भिन्न न हो पायीं जो छायावादी युगीन काव्य-कोमलता से आगे निकल आने के बावजूद मध्ववर्गीय जीवन के कलह-झगड़े, प्रेम और नफरत के कोमल-कोमल से दृश्य ही लगातार रच रही थी । यहां तक कि निर्ममता से भरी मुनाफाखोर संस्कृति पर राजनैतिक दृढ़ता से भरे हमले की ठोस पहल को प्रेरित करने में भी अपनी सीमाओं के साथ रहीं। सांस्कृतिक वातवारण के निर्माण में ही नहीं अपितु वास्तविक अर्थोें में भी वित्तीय पूंजी की बढ़ती चौधराहट के साथ कामगार वर्ग पर तेज हो रहे हमलों से बच निकल जा रहा हिन्दी का रचनात्मक संसार सिर्फ भाषायी प्रयोग और कलात्मक अभिव्यकित में बदलाव के साथ भिन्न नहीं हो सकता था और न ही है भी।
     
इतिहास अपनी व्याख्याओं में 'ऐसा था होने की स्थितियों का नाम नहीं बल्कि 'यही थ’ होने की तार्किकता का समर्थक होता है। और उस 'यही था को प्रस्तुत करने के लिए उसे साक्ष्यों को रखना अनिवार्य शर्त जैसा हो जाता है। गल्प और कथाऐं 'ऐसा था’ होने की आवृतित के साथ इतिहास जैसी आवाज हो जाती है। क्योंकि तथ्यों का अनुसंधान और उनके अनिवार्य विश्लेषण में वे अपना होना साबित करती हैं। साक्ष्यों की उपसिथति की वहां कोर्इ जरूरत भी नहीं लगती। साहित्य की यह खूबी किसी भी घटना के एकांगी पाठ की सीमाओं को तोड़ देती है और रचनाकार के मंतव्य का भी अतिक्रमण करते हुए अनेकों पाठ की छूट ले लेती है। संभावनाओं की अनंत दिशाओं के द्वार खोलते पाठों के रास्ते ही 'ऐसा था से 'ऐसा होगा तक की व्याख्याऐं जन्म लेना शुरू होती है। यानी, साहित्य की प्रासंगिकता इस दृषिटकोण से भी महत्वपूर्ण होती है कि वह मात्र सांखियकी आंकड़ों के आधार पर किसी मसले को पूरी तरह से समझने की सीमाओं को चिहिनत करती है। 'तिरिछ कहानी का पाठ घटना के विश्लेषण को विभिन्न स्तरों पर मांग का पक्षधर है। पिता की मृत्यु हो जाना एक घटना है और मृत्यु के कारणों की खोज में जो ताना-बाना है वह किस कदर वास्तविक कारणों तक पहुंचना चाहता है कि उससे गुजरना दिलचस्प है। मृत्यु तिरिछ के काट लेने से हुर्इ है। लेकिन प्रश्न है कि वह तिरिछ एक जहरीला जंगली जानवर भर है, जो किसी अंधेरी खोह में रहता है, या सर्वत्र व्याप्त तिरिछ की सिथतियां मृत्यु का कारण हैं ? साथ ही उपचार की वह कौन सी पद्धति है जो पूरी तरह से स्वस्थ कर पाने में कारगर हो सकती है ? कल्पनाओं की अनंत उछालों के साथ रची गयी यह कहानी अभी तक की ज्ञान-विज्ञान की जानकरियों से उपजी पद्धति तक को सवालों के घेरे में लेती है और अज्ञात रह गये बहुत से क्षेत्रों तक आगे बढ़ने का इशारा करती है। तिरिछ के काट लिये जाने पर समुचित रूप से उपचारित होने की संभवानायें बेशक यहां निशाने पर नहीं हैं पर धतुरे का काढ़ा पिलाकर किये जा रहे उपचार की विधि पर आधारित तथाकथित 'आधुनिक चिकित्सा पद्धति की सैद्धानितकी तो निशाने पर है ही। 'तिरिछ’ कहानी का यह पाठ भी उसको एक महत्वपूर्ण कहानी बनाता है। भाषा और शिल्प के स्तर पर गंवर्इ आधुनिकता में धंसे समाज की अनेको-अनेक पर्तों को उदघाटित करने की सचेत कोशिश भी कहानी को महत्वपूर्ण बना रही है।

गांव-गंवर्इ का ठेठ देशीपन जो सामूहिकता के साथ ही विपदाओं से निपटने को तैयार रहता है, बदलती सामाजिक सिथतियों में 'तिरिछ के पिता को धतुरे का काढ़ा पिलाकर निशिचत हो जाता है। लेकिन एक ऐसा पिता (एक समय का पुत्र) जो सामंती जकड़न से अपने को पूरी तरह से मुक्त नहीं कर पाया, साम्राज्यवादी शहरीकरण के बीच उसके खो जाने की आशंका निमर्ूल नहीं थी। भविष्य के पिता और वर्तमान पुत्र द्वारा पूर्व पुत्र और वर्तमान पिता को खोजने के लिए बहुत से बंद पड़े दरवाजों को खड़-खड़ाना इसीलिए जरूरी भी था।   

''पिताजी के साथ एक दिक्कत यह भी थी कि गांव या जंगल की पगडंडियां तो उन्हें याद रहती थीं, शहर की सड़कों को वे भूल जाते थे।   - तिरिछ

तिरिछ कहानी का पिता पिता कहानी का वह पुत्र है जो एक दौर में पिछली पीढ़ी से एक हद तक आधुनिक हुआ था। और इस आधे-अधूरे आधुनिकत पिता पर उसके पुत्र का यकीन स्पष्ट है। पिता का जिक्र यहां कुछ इस तरह से होता है,

''दुबला शरीर, बाल बिल्कुल मक्के के भुटटे जैसे सफेद। सिर पर जैसे रूर्इ रखी हो। वे सोचते ज्यादा थे बोलते बहुत कम। जब बोलते तो हमं राहत मिलती जैसे देर से रुकी हुर्इ सांस निकल रही हो।"

आदर्शवादी और दूसरों से कुछ आधुनिक पिता पर मुग्ध यह पुत्र चश्मदीद गवाह, पत्रकार सत्येन्द्र थपलियाल के कहे पर यकीन नहीं कर सकता कि उसका पिता किसी सर्राफ की बीबी और बेटी पर हमला करने वाला शख्स हो सकता है। पिता के आदर्श और उनकी नैतिकता पर उसका पूरा भरोसा है। किन्हीं अनजानों को बेवजह गालियां देने वाले पिता की तो वह कल्पना ही नहीं कर सकता।

''मेरा अनुमान है कि पिताजी उनके पास या तो पानी मांगने गये होंगे या बकेली जाने वाली सड़क के बारे में पूछने। उस एक पल के लिए पिताजी को होश जरूर रहा होगा। लेकिन इस हुलिये के आदमी को अपने इतना करीब देखकर वे औरतें डरकर चीखनें लगी होंगी।"

भारतीय राजनीति के इंक्लाबी दौर का सातवां, आठवां दशक इस बात का गवाह है कि सामंतवाद को पहला शत्रु मानने वाला पुत्र नव औपनिवेशिक ढांचे के साथ विस्तार लेती जा रही सिथतियों को नजरअंदाज कर रहा था, ट्रेड यूनियन आंदोलन में हिस्सेदारी से परहेज कर गांव-देहातों से जंगल के भीतर तक सुरक्षित आधार तैयार कर लेना उसकी प्राथमिकी में रहा और आज तक बना हुआ है। इसीलिए वह उन गहरे अंधेरों के तिरिछों से निपटना तो जानता था जो किसी खोह में, नदी के तट पर या किसी गाछ की जड़ में दिख जाते हैं लेकिन शहरी वातावरण में हर ओर मौजूद ज्यादा जहरीले तिरिछ की उसे पहचान नहीं हो सकती थी।

किराये के मकान में रहते हुए मध्यवर्गीय जीवन की त्रासदी ढोता तिरिछ कहानी का पिता साठ के दशक के पुत्र होने के पूरे प्रमाण छोड़ता है। पारिवारिक ढांचा यहां सिर्फ पत्नी और ब्च्चों वाली तस्वीर में मौजूद है। संयुक्त परिवारों वाली सामूहिकता यहां गायब होने लगी है। साथ ही छल-छदम और हर तरह से मारकाट के निर्मित होते वातारवरण में परिवार के मुखिया की चिंताएं अपने परिवार की सुख-सुविधाओं को बचाये रखने की है। जीवन के इस संघर्ष में न सिर्फ मध्यवर्गीय जड़ताएं हैं बलिक सामंती प्रभावों में जन्म लेती बहुत-सी दैनिक दिक्कतें हैं जो उसे घेरे रहती हैं।

''उस समय पिताजी सिर्फ तिरिछ के जहर और धतूरे के नशे के खिलाफ ही नहीं लड़ रहे थे बलिक हमारे मकान को बचाने की चिन्ता भी कहीं न कहीं उनके नशे की नींद में बार-बार सिर उठा रही थी।"

यहां पिता का अपने परिवार और बच्चों से जो रिश्ता है, उसमें एक हद तक खुलापन है। वह यदा-कदा बच्चों के साथ घूमने भी जाता है। पारिवारिक ढांचे में एक सीमित हद तक बराबरी के भाव भी रखना चाहता है। पुरानी पीढ़ी से भिन्न उसकी यह छवी ही उसे अपनी संततियों के सामने एक आदर्श पिता का व्यकितत्व प्रदान करती है।

''कभी-कभी, वैसे ऐसा सालों में ही होता, वे शाम को हमें अपने साथ टहलाने बाहर ले जाते। चलने से पहले वे मुंह में तंबाकू भर लेते। तंबाकू के कारण वे कुछ बोल नहीं पाते थे। वे चुप रहते। यह चुप्पी हमें बहुत गंभीर, गौरवशाली, आश्चर्यजनक और भारी-भरकम लगती।"

कितना साफ दर्ज है कि पिता कहानी में जहां पुत्र पिता का विरोधी नजर आता है, वहीं तिरिछ का पुत्र विरोध तो बहुत दूर की बात, उस तरह की किसी अभिव्यकित को भी अपने भीतर नहीं उपजने देता। पिता पर उसके यकीन के ढेरों साक्ष्य कहानी में हैं,

"एक तरह की राहत और मुक्ति की खुशी मेरे भीतर धीरे-धीरे पैदा हो रही थी। कारण, एक तो यही कि पिताजी ने तिरिछ को तुरन्त मार डाला था और दूसरा यह कि मेरा सबसे खतरनाक, पुराना परिचित शत्रु आखिरकार मर चुका था। उसका वध हो गया था और मैं अपने सपने भीतर, कहीं भी, बिना किसी डर के सीटी बजाता घूम सकता था।"

 देख सकते हैं कि संबंधों को बचाये रखने के नाम पर सामंती सरोकार से मुकित की कोर्इ स्पष्ट राह नहीं बन पाती। बलिक जो थोड़ा-बहुत रास्ता बन भी रहा होता है उसमें भी गतिरोध पैदा होने लगा। जनतांत्रिक प्रक्रिया बाधित होने लगी है और अन्तर्विरोधों के उभरने की बजाय स्वीकारोकित का यथासिथ्तिवाद जन्म लेने लगा। पिता की आधुनिकता को ही अनितम रूप से स्वीकारते हुए, पीढ़ीगत अन्तर्विरोध जैसा भी कुछ नहीं उभरता। पूरी तरह से सहमत पुत्र के भीतर स्थापित हो रहे आदर्शों को अपनाने में किसी भी तरह की कोर्इ द्विविधा नहीं रहती। यह विचारणीय है कि सामाजिक बदलाव की यह गति क्या उतनी ही स्वाभाविक थी जितनी सरलता से वह साहित्य में दर्ज हो रही थी ?

यह विवरण भी कहानी में ही है कि पिता को जहां सबसे ज्यादा प्रताड़ना मिली वह इतवारी कालोनी है। विकसित होती आर्थिक व्यवस्था का स्थायी कहा जा सकने वाला डेरा, जहां साम्राज्वादी पूंजी की खुरचन से जीने के नये अंदाजों की ओर बढ़ते मध्यवर्ग का विस्तार दिखायी देता है। तिरिछ कहानी के पुत्र का अपने पिता के बारे में दिया जा रहा यह विवरण उल्लेखनीय है,

''इस घटना का संबंध पिताजी से है। मेरे सपने से है। और शहरों से भी है। शहर के प्रति जो एक जन्मजात भय होता है, उससे भी है।"

मध्यवर्गीय जीवन शैली कैसे नितांत व्यकितगत बनाती जाती है और सामूहिकता को नष्ट करती जाती है, बदलते भारतीय समाज की आरमिभक पदचापों में ही उसके संकेत दिखने लगे थे।

''एक सबसे बड़ी विडम्बना भी इसी बीच हुर्इ। हमारे ग्राम-पंचायत के सरपंच और पिताजी के बचपन के पुराने दोस्त पंडित कंधर्इ राम तिवारी लगभग साढ़े तीन बजे नेशनल रेस्टोरेंट के सामने, सड़क से गुजरे थे। वे रिक्शे पर थे। उन्हें अगले चौराहे से बस लेकर गांव लौटना था। उन्होंने उस ढाबे के सामने इक्टठी भीड़ को भी देखा और उन्हें यह पता भी चल गया था कि वहां पर किसी आदमी को मारा जा रहा है। उनकी यह इच्छा भी हुर्इ कि वहां जाकर देखें कि आखिर मामला क्या है। उन्होंने रिक्शा रुकवा ली थी। लेकिन उनके पूछने पर किसी ने कहा कि कोर्इ पाकिस्तानी जासूस पकड़ा गया है जो पानी की टंकी में जहर डालने जा रहा था, उसे ही लोग मार रहे हैं। ठीक इसी समय पंडित कंधर्इ राम को गांव जाने वाली बस आती हुर्इ दिखी और उन्होंने रिक्शेवाले से अगले चौराहे तक जल्दी-जल्दी रिक्शा बढ़ाने के लिए कहा। गांव जाने वाली यह आखिरी बस थी। अगर उस बस के आने में तीन-चार मिनट की भी देरी हो जाती तो वे निशिचत ही वहां जाकर पिताजी को देखते और उन्हें पहचान लेते।"

आरोपित शहरी जीवन की सामूहिकता यहां निशाने पर है, बेशक स्वााभाविक रूप से विकसित होते शहरों की बुनावट का जिक्र नहीं लेकिन उस तरह के क्रमिक विकास पर सोचने का रास्ता तो कहानी देती ही है। गफलतों में विकसित होती शहरी मानसिकता के शिकार पिता भीड़ के हत्थे चढ़े हैं।

कहानी से बाहर जाकर यदि तत्कालिन समय को खंगाले तो तथ्य बताने लगेंगे कि सामंतवाद को पहला शत्रु मानने वाले पिता ने नव औपनिवेशिक विस्तार के खतरों से बिना डरे और उससे निपटने के ट्रेड यूनियनवादी तरीकों को गैर इंक्लाबी रूझान मानकर उनसे किनारा करना ही उचित समझा। आंदोलन के केन्द्र सिर्फ पिछड़े इलाकों तक ही केन्द्रीत होते चले गये। कहानी में दर्ज समय 1972 अनायास नहीं माना जा सकता। बावजूद बदलते हुए समय के, पुत्र अपने पिता के प्रति अभी भी सहृदय है। पिता सामंती प्रवृतितयों के तिरिछ के काटे जाने के शिकार हुए हैं। बलिक कथा विवरणों के सहारे आगे बढ़े तो कह सकते हैं कि सामंती दौर से भी पहले की समाज व्यवस्था का प्रतीक,

''तालाब के किनारे जो बड़ी-बड़ी चटटानों के ढेर थे और जो दोपहर में खूब गर्म हो जाते थे, उनमें से किसी चटटान की दरार से निकलकर वह पानी पीने तालाब की ओर जा रहा था।"

हिन्दी कहानी की राजनैतिक और वैचारिक सीमा उस समाज से भिन्न नहीं, जो हर स्तर पर गंवर्इ मानसिकता में सिमटा रहा। घटना के कारणों को बहुस्तरीय मानते हुए भी समाज निर्माण में विभिन्न स्तरों को निधार्रित करती चलाक व्यव्स्था के पेचोंखम इसीलिए अपने तीखेपन के साथ दर्ज नहीं हो पाते। उनका आभाव ही समाज को निर्णायक बदलाव वाले संघर्ष तक ले जाने में बाधा बन जाता है। सिर्फ प्रचलित शहरी और गंवर्इ मानसिकता के अन्तर्विरोध ही प्रधान बने रहते हैं। जबकि वे कारण, जो समाज को पिछड़ा बनाये रखने के लिए पूरी तरह से जिम्मेदार हैं और जिनके कारण यह दिखायी देता हो कि चालाक व्यवस्था किस तरह से अपने मंसूबों को साधने के लिए 'आधुनिक चोला ओढ़ती है, अछूते रह जाते हैं। सिर्फ मिथकों, धार्मिक विश्वासों और गैर तार्किक धारणाओं को आधार बनाकर गल्प रचने का यह जादुर्इपन रचनाकार की उस अवधारणा से उपजा होता है जिसमें राजनीति से परहेज करना एक रचनाकार के लिए जरूरी मान लिया जाता है।  
'तिरिछ’ से आगे बढ़ते हैं तो सुभाष पंत की कहानी 'ए सिटच इन टाइम’ पिता की भूमिका में तब्दील हुए पुत्र का साक्ष्य बनती है। बहुत करीब से गुजरता समय यहां दिखायी देने लगता है। उस करीब के समय में ही सामाजिक वंचना के नये-नये रूप भी दिखायी देने लगे हैं। बेरोजगारी उन्हीं में से एक ऐसी आधुनिक अवधारणा है जिसकी शुरूआत पारम्परिक और पुश्तैनी कार्यव्यापार के ध्वस्त होने के साथ और उधोग की नयी केन्द्रीकृत सिथतियों में जन्म लेती है। ज्ञानरंजन की कहानी 'पिता का दौर भारतीय समाज में आ रहे बदलावों का वह दौर है जिसमें पुश्तैनी कार्यव्यापार को ध्वस्त कर सृजित होते हुए नये उधोगों की आर्थिकी पनपती है। इस आर्थिकी की परिणिति में ही नये किस्म की बेरोजगारी भी जन्म लेती है। यहीं से भारतीय राजनीति का वह घुमावदार रास्ता भी शुरू होता है जो कारणों की तलाश में उत्पाद को ही तकनीक मान लेने वाली गैर तार्किकता के साथ तकनीक का ही विरोधी करने लगता है। इस तरह की सिथतियों से पूंजी के षड़यंत्रों का पर्दाफाश होने की बजाय षड़यंत्रकारी ताकतों को पूंजी के विभ्रम का तानाबाना बुनने में ही मदद मिली और आरोपित बेरोजगारी के भी भयावह मंजर दिखायी देने लगे। कथाकार सुभाष पंत की कहानी 'ए सिटच इन टाइम में आरोपित की जा रही बेरोजगारी का चेहरा ज्यादा भयावह है। ज्ञान रंजन की कहानी के दौर की बेरोजगारी की सिथतियों से भिन्न यहां पैने नाखूनों वाले जालिम जमाने का अदृश्य विभत्सपन लेखकीय चिन्ताओं के दायरे में है। चमचमाती दृनिया की चकाचौंध से पैदा होते अंधकार में ठीक से पांव भी न उठा पाने की बेचैनी यहां साफ दर्ज होती है। सिथति का सामना करने की बजाय अवसाद में डूबते जाने की मजबूरियां लेखकीय बेचारगी की भी गवाह बन रही हैं। अपने चुराये एकान्त में बेरोजगार बना दिये जा रहे कारणों की पहचान करने का अवकाश भी यहां मौजूद नहीं है। बावजूद इसके कि 'ए सिटच इन टाइम ऐलानिया बाजार के प्र्रतिरोध में लिखी रचना है लेकिन देख सकते हैं कि ऐलानिया बाजार के आदर्शों का हव्वा कहानी के उस पात्र के भीतर भी मौजूद है जो प्रतिरोध के प्रतीक के तौर पर लेखकीय आदर्श के रूप में दिखता रहता है। यह वही पिता है जो तकनीक और उत्पाद को अलग-अलग देख पाने में चूक जाने के कारण प्रतिरोध की किसी सामूहिक कार्यवाही का हिस्सा होने की बजाय खुद को हारा हुआ महसूस करता है। ऐलानिया बाजार से मतभेद के बावजूद झूठी जीत के आदर्शों से भरी उसके भीतर की अभिव्यकितयां कुछ इस तरह हैं,

''मैंने फोरन अमन टेलर्ज से सिलवार्इ कमीज निकालकर मेज पर फैला दी। यह सिर्फ मेरे लिए सिली गर्इ कमीज थी, जो ऐलानिया बाजार में खरीदी या बेची नहीं जा सकती थी और मेरी एक अलग पहचान कायम करती थी।''

यूनिक होने और यूनिक दिखने के ये जो आदर्श हैं, ऐलानिया बाजार के प्रतिरोध को बेहद बचकाना साबित कर दे रहे हैं। जबकि 'यूनिकनेस का प्र्रोपोगण्डा फैलाता ऐलानिया बाजार वस्तुओं को उपयोगिता से ज्यादा उनके विशिष्ट होने के ही आदर्श से गढ़ रहा है। पक्ष का यह ऐसा प्र्रतिपक्ष है जिसकी पहचान में ही न सिर्फ राजनैतिक दिशा गड़बड़ायी है बलिक इस देश की तमाम बौद्धिकता लाचार साबित हुर्इ है। खास तौर पर हिन्दी क्षेत्र में सतही तरह के विरोध। इस देश के कामगार वर्ग ने ऐसे बौद्धिकपन की कमजोरी को अच्छे से पहचाना है। पाठक का रोना रोते हिन्दी समाज का विश्लेषण करें तो देख सकते हैं कि संकटों से बाहर निकलने की कोर्इ स्पष्ट राह न सुझा पा रहे साहित्य से आम जन की दूरी दिखायी दे सकती है,

''दरअसल अब रेडीमेड गारमेंटस का जमाना है। इन्हें बचाने के लिए आइ बड़ी कम्पनियों ने दर्जियों के कारोबार को मंदी में धकेल दिया है। कारीगरों का मेहनताना निकालना ही मुशिकल हो गया। हमारा यह धंधा बंद होने के कगार पर है। बच्चों का मन दुकान से पूरी तरह उचट गया है। बड़ी मछली के सामने छोटी मछली बहुत दिन टिकी नहीं रह सकती ... कभी हमारे भी दिन थे।''

यहां देख सकते हैं कि अमन टेलर न सिर्फ खुद की सिथति और सहानुभूति की आवाज में बतियाते किसी ग्र्राहक के भीतरी मन से वाबस्ता है बलिक व्याप्त माहौल की गिरफ्त में जीवन जीती खुद की संततियों से भी उसे कोर्इ उम्मीद नजर नहीं आती। उसे कोर्इ अंदेशा नहीं कि यूनिकनेस का जादू एक दिन उसे अपने ग्र्राहकों से पूरी तरह से जुदा कर देगा क्योंकि मशीनी कुशलता के आगे तो मानवीय कौशल वैसे भी पिछड़ना ही है। फिर रंग की यूंनिकनेस, स्टफ की यूनिकनेस और दूसरे ऐसे बहुत से कारक जिन पर बड़ी पूंजी का स्पष्ट नियंत्रण है। सचमुच की यूनिक कमीज जो किसी एक ग्राहक विशेष के लिए ही हो सकती है, वैसा मानदण्ड खड़ा करने के लिए मात्र कारीगरी काफी नहीं है। उसे अपने ग्र्राहक की भीतरी मनसिथति भी अच्छे से मालूम है जो बाजारू पूंजी के विरोध में उत्पाद की नहीं बलिक तकनीक का ही विरोधी करती है और स्वंय कलात्मक यूनिकनेस की सी जद में होती जा रही है,

''उसे पहनते ही मैंने महसूस किया मैं बदल गया हूं। मैं ज्यादा संस्कारित, सभ्य और कीमती हो गया। बड़प्पन की ऐंठ से मेरी छाती फैल गर्इ। सीना गदबदाने लगा और आंखों की झिलिलयां फैल गर्इ। मेरे पीछे ताकतें थी। आला दिमाग, श्रेष्ठ अभिकल्प और महानायक थे। मैं सतह से ऊपर उठ चुका था।''

ब्र्राण्डेड कमीज और अमन टेलर की सीली कमीज के बीच तुलना की एक अन्य सिथति भी कहानी में देखी जा सकती हैं जो अमन टेलर वाले समाज के भीतर निराशा पैदा करती है,

''टीना की कमीज मेरी नाप के अनुसार नहीं थी। ऐसी कमीजें किसी के भी नाप के मुताबिक नहीं होती। ये पहनने वाले से रिश्ता कायम करके नहीं बनार्इ जाती। इनका नाप स्टेटिस्टीस्कम की मोस्ट अकरिंग फ्रिक्वेंसिज है। बहरहाल, ढीली फिटिंग के बावजूद उसमें आक्रामक उत्तेजना थी। शोख, गुस्सैल और मोहक लड़की की तरह। इनके साथ समझोता करना होता है। मैंने भी किया और कमीज पहन ली।''

उत्पाद और तकनीक को एकमेव मानते हुए बड़ी पूंजी के विरोध का जो रूप 'पिता' में दिखता हैं उससे भिन्न समझदारी 'ए सिटच इन टाइम' के पिता की भी नहीं बन पा रही है। 'पिता’ कहानी में पिता अपने पुत्रों को लताड़ते हुए कहते है,

''मैं सबको जानता हूं, वही म्यूनिसिपल मार्केट के छोटे-मोटे दर्जियों से काम कराते है और अपना लेबल लगा लेते हैं। साहब लोग, मैंने कलकत्ते के 'हाल एण्डरसन के सिले कोट पहने हैं अपने जमाने में, जिनके यहां अच्छे-खासे यूरोपियन लोग कपड़े सिलवाते थे। ये फैशन-वैशन, जिसके आगे आप लोग चक्कर लगाया करते हैं, उसके आगे पांव की धूल हैं। मुझे व्यर्थ पैसा नहीं खर्च करना है।               ..... पिता, ज्ञानरंजन    

ठीक वैसे ही मन:सिथति 'ए सिटच इन टाइम' के कारीगर को फंतासी में ले जाती है,

'' आखिरकार हमारी फैक्ट्री ने घुटने टेक दिए और वह ठेके पर 'एक्सेल गारमेंटस मल्टीनेशनल' का माल बनाने लगी। इन बड़ी और सारी दुनिया में फैली कम्पनियों की अपनी फैक्ट्रीयां नहीं होती। ये गरीब मुल्कों की फैक्ट्रीयों में अपना माल बनवाती है। इनका तो बस नाम चलता है। ये नाम का पैसा बटोरती हैं। गरीब मुल्क की फैक्ट्रीयां तालाबंदी के डर से लागत से भी कम में इनका माल तैयार करने को मजबूर हो जाती है।''              
अन्तत: अनिच्छा के बावजूद लाचारी भरी सिथतियों में ब्राण्डेड कमीज को पहन कर जश्न का हिस्सा हो जाते पिता का चेहरा भारतीय मध्यवर्ग का यर्थाथवादी चित्र उकेरता है। भले-भले बने रहने और भले-भले दिखने का इससे साफ चित्र दूसरा नहीं हो सकता। एक लम्बे अंतराल में बहुत सी हो चुकी तब्दलियों में देखा जा सकता है कि पिता अब मजबूर हैं पुत्री के सामने। यहां पुत्र के रूप में पुत्री की उपसिथति उस सामाजिक बदलाव का एक ऐसा सकारात्मक संकेत जरूर है जहां पुरूष प्रधान समाज के सामने चुनौतियां पेश होनी शुरू हो चुकी हैं। एक खास तबके में पुत्र और पुत्री में भेद को जायज नहीं माना जाने लगा है।  
साम्राज्यवादी पूंजी का प्रसार ब्रांडेड उपभोक्ता वस्तुओं के रूप में स्थापित हो चुका है। देशी किस्म कारीगरी तक को मशीनी उत्पादन ने लील लिया है। गुणवत्ता के पैमाने बहुत चुस्त दुरस्त दिखने वाले हुए हैं। पैकेजिंग के तीखे नोकदार उभार गुणवत्ता की प्राथमिकी में स्थापित हुए हैं। लेकिन पिता अभी भी देशी कारीगर के हाथ से बनी हुर्इ कमीज पहनना चाहता है। उसका पूरा यकीन उस कारगरी पर है जो रोजी-रोटी के अवसरों का विकंन्द्रीकरण कर सकती है। लेकिन उसका यह चाहना सिर्फ मनोगत भाव है। वरना व्यवहार में उसके लगातार खत्म होते जाने की सिथतियां बनी रहती हैं। 'कपड़े विचार हैं, यह सूत्र वाक्य है 'ए सिटच इन टाइम का। बर्थडे पार्टियों की सिथतियां यहां एक क्षण-विशेष को जीना मात्र नहीं बलिक बाजारू संस्कृति की लगातार चाहत का नमूना है। एक तरफ बदलती सिथतियों से विरोध तो दूसरी ओर उसकी स्वीकार्यता की मजबूरी। इन्हीं सिथतियों की संगत में समाज के उस चेहरे को देख सकते हैं जहां दुनिया के बदलाव के संघर्ष के लिए हमेशा बेचैन रहने वाले पिताओं तक की भावी संततियां कैसे बाजारू मूल्यबोध के साथ अपने होने को साबित करती रही है। किसी व्यकित विशेष का नाम लेकर अलोचना को व्यकित केनिद्रत कर देना होगा। एक लम्बे दौर की राजनैतिक शखिसयतों एवं बदलाव की राजनीति से इतफाक रखने वाले बौद्धिकों तक की भावी संततियां किन रास्तों से गुजरी हैं और गुजर रही हैं, यह छुपा हुआ नहीं है। साम्राज्वाद विरोध का दावा घर की चारदीवारी के भीतर ही ध्वस्त हुआ है। तुर्रा यह कि व्यकितगत आजादी का सिद्धान्त बघारते हुए भी झूठ से लिपटे रहने की सिथतियां चहूं ओर हैं। 'ए सिटच इन टाइम के पिता का संकट ऐसी ही सिथतियों की उपज है जहां घर के भीतर साम्राज्यवादी चाल-चलन के नशे में धुत होकर लड़खड़ाता परिवारिक वातावरण है। हर तरह की सुविधा संपन्नता का ताउम्र इंतजाम करते पिता की द्धिविधा उसे स्वंय ही उन अवस्थाओं तक नहीं ले जाती जब जाने और अनजाने उसने ही अपनी संततियों के आगे कोर्इ आदर्श गढ़ा होता है या उसके लिए वातावरण बनाया होता है।

भारतीय समाज की इस यात्रा से गुजरते हुए यह देखना दिलचस्प है कि कथाकार हरी चरण प्रकाश की कहानी के विवरण गंवर्इ आधुनिकता से मुक्त होते भारतीय समाज का इससे भिन्न चेहरा नहीं रचते। कहानी के मार्फत जान सकते हैं कि 'प्रोफेशनली अप-टू-डेट न हो पा रही मध्यवर्गीय आधुनिकता कैसे तकनीक के ही प्रतिरोध में जाने को विवश है। कहानी का एक हिस्सा इस बात का गवाह है कि घर में काम करने वाली बार्इ से बतियाते हुए कथा नायिका ऋचा अपनी चिन्ताओं को दोहराती है,

''करता तो तुम्हारा आदमी भी कुछ नहीं।"
''ऐसा न बालो मैडम जब मैंने शादी की तो खूब काम करता था। मैं तुम्हें बताऊं, मेरी मौसी ने शादी नहीं बनार्इ क्योंकि शादी के बाद मालिक का घर छोड़ना पड़ता था। मुझे भी कहा, सोच समझ कर शादी कर। मैं बोली मेरा हसबैण्ड इतना अच्छा कैमरा चलाता है उसे काम की क्या कमी। आज झोपड़पटटी में रह लूंगी, कल को अच्छा मिलेगा, लेकिन फिर वही किस्मत, नए किस्म के कैमरे आ गए और उसका काम खत्म हो गया।"
''सून रहे हो ऋचा की आवाज वेद के कान खींचने लगी। ऋचा हमेशा यह कोशिश करती थी कि वेद साफ्टवेयर की नर्इ टेक्नालाजी सीखे और प्रोफेशनली अप-टू-डेट रहे लेकिन यह अलहदी लड़का आगे बढ़ने का तैयार नहीं था।"   
हरीचरण प्रकाश की कहानी का नैरेटर इस बात से सचेत तो दिखता है कि तकनीक के साथ प्रोफेशनली अप-टू-डेट होना आज की जरूरत है। वह बाजारूपन की उस चालाकी से भी वाबस्ता है जो किसी भी उत्पाद को बेचने के लिए आइडेनिटटी पालीटिक्स करता है। मसलन, भोजन के ही रूप में शाकाहार की आइडेनिटटी पालीटिक्स जहां पंजाबी थाली, राजस्थानी थाली, वैष्णव थाली इत्यादी नामों से अपने ग्राहकों को लक्षित करती है। लेकिन उसके पास भी यह तर्क एक दूसरे किस्म के बाजारूपन को प्रसारित करती मानसिकता से पैदा होता हुआ दिखता है। वह मानसिकता जो न सिर्फ आर्थिक स्तर पर बलिक सांस्कृतिक स्तर पर भी गुलाम बना लेना चाहती है। सौन्दर्य का मतलब, तराशा हुआ जिस्म जिसके पैमाने हैं और देख सकते हैं कि कहानी उन्हीं रास्तों से आगे बढ़ने लगती है। जिम जाने को ही आधुनिक मान लिया जाना एक लक्षण के तौर पर उभरता है। बेशक यह स्वास्थय की चिन्ता करती मासूमियत के साथ आता है। स्वमंत्रता के मायने यहां निर्वस्त्र होकर घूम सकने की छूट ले लेना जैसे हो रहे है।

सकारात्मक सिथतियों के तौर पर यहां पति-पत्नी के आपसी रिश्तों में एक हद तक आ रही बराबरी की भावना को पुरानी पीढ़ी की स्वीकार्यता मिलने लगी है। लेकिन बदलाव की गति सामंती सरकारों से पूरी तरह अभी भी मुक्त नहीं हुर्इ है। बहुत सी द्विविधाऐं अभी भी ज्यों की त्यों हैं। परिसिथतियां जिस तरह का मोड़ ले रही उसमें उनको टूटना ही है। कहानी में एक प्रसंग आता है जहां कुछ रोज के लिए मेड छुटटी पर जा रही हैं। मेड की अनुपसिथति में घर को संभालने का संकट दोनों काम-काजी पती-पत्नी, वेद एवं ऋचा के सामने है। बच्चे की केयरिंग को लेकर उनके बीच के संवाद और कहानी के विवरण उल्लेखनीय है,

'' डोन्ट वरी, मैं घर से काम कर लूंगा। वेद ने सीनियर साफ्टवेयर इंजिनियरों की इस सुविधा का उल्लेख किया।"
''आज तो नहीं।"
''आज मैं छुटटी लूंगी। कल से चाहे जो करना। बस इस समय मैं तुम्हारी शक्ल नहीं देखना चाहती।, कहने हेतु उसने ऐसी सांस खींची  किवह भी सुनार्इ पड़ गर्इ।
"मैं चुपचाप बैठा अवि की पीठ सहलाता रहा। ऋचा ने जब मेरी ओर देखा तो सहमकर मैंने पीठ सहलाना बन्द कर दिया। "

क्या यह अनायास है कि सुभाष पंत की कहानी में जहां पुत्री को पुत्र के रूप में देखना संभव होता है वहीं हरीचरण प्रकाश की कहानी पुत्र एवं पुत्रवधु दोनों के साथ ही आधुनिक पुत्र रूपी पात्र प्रकट हो रहे हैं। बदलाव के ये चिहन जिस तरह से गंवर्इ आधुनिकता को लांधते हुए हैं, उसी के साथ ही मध्यवर्गीय आधुनिकता का चेहरा भी आकार लेता हुआ सामने होने लगता है। लैंगिक समानता की सिथतियों के एक हद तक स्वीकार की ये सकारात्मक मध्यवर्गीय मानसिकता समाज में दिखायी देने लगी है। यधपि व्यापक जनसमाज में अभी भी वह पिछड़ी मानसिकता की जकड़ में ही है। परिस्थितिजन्य बदलाव से असमहति का स्वर कहानी में ही दर्ज होता हुआ है, पिता की त्रासद स्वरों में उसे सुना जा सकता है,

 ''कल मेरा बेटा ही मां का दायित्व निभायेगा, यह ख्याल आते ही मुझे सीरियल गुस्सा आने लगा। पहले बहू पर, फिर बेटे पर और अन्त में अपने आप पर।"

भारतीय मध्यवर्ग के व्यवहार में होते गये इस बदलाव को उस पृष्ठभूमि में समझा जा सकता है जो उसे परम्परागत और पुरातन मूल्यों से पूरी तरह मुक्त नहीं होने दे रही थी। बहुत सी ऐसी सिथतियां जिनसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया अवरूद्ध हो रही हो, उसे जानते बूझते हुए भी उससे पूरी तरह मुक्त न हो पाने की भारतीय मध्यवर्गीय समझदारी यहां अपनी सीमाओं में दिखती है। अन्य सिथतियों में भी ऐसे प्रभावों को देखने के लिए यह कहानी हवाला बन जाती है,

'' हमने कभी आध्यातिमक होने की तैयारी नहीं की। मैं आसितक जरूर था लेकिन पूजा पाठ में मन नहीं लगता था, वह भी आसितक थी लेकिन इतना ही कि जल चढ़ाने के बाद ही सबेरे की चरय पीती थी।" -. हरीचरण प्रकाश

'योजनामय प्रेम विवाह’ के दौर की ओर बढ़ रही सामाजिक स्थितियों में अपने बुढ़ापे को इन्जाय करते इस पिता की तस्वीर अभी तक की गंवर्इ आधुनिकता का अनितम सोपान बन रही है लेकिन आधुनिकता की जिस उछाल में वह प्रवेश करती है, वहां उत्पाद को ही पूरी तरह से तकनीक मान लेने की वह आरमिभक गड़बड़ जिस तरह का माहौल रचती है उसे नये ज्ञान की उत्सुकता और चीजों के प्रति मात्र आकर्षण से परिभाषित नहीं किया जा सकता। नव- औपनिवेशिक आदर्शो के प्रति ललचायी दृषिट से भरी 'मध्यवर्गीय आधुनिकता का वह रूप जो बड़ी पूंजी के प्रतिरोध में होने की सदइच्छा के साथ भी उसके समर्थन में जुटा होता है, उसे पहचानने तक की सुध-बुध यहां पूरी तरह से गायब हो जाती है।

''उन दिनों मैं और पत्नी विवाह प्र्रस्तावों की कटार्इ छंटार्इ में लगे हुए थे कि बेटे ने खुद ही अपने विवाह का प्रस्ताव कर दिया। लड़की मुसलमान नहीं है, हमने राहत की सांस ली। इसके बाद तो हम दोनों के बीच अनुलोम प्रतिलोम किस्म का संवाद होने लगा। हिन्दू है तो जाति क्या है ? जाति से क्या मतलब जब वह हमारे तरफ की हिन्दू नहीं है, केरल की हिन्दू है, कोर्इ पूछे तो ? कौन पूछता है और कौन सी हमें दूसरी औलाद ब्याहनी है, इकलौता बेटा।''

रोजगार ने क्षेत्र विशेष की हदबंदी को जिस तरह से तोड़ा है, उसमें एक हद तक जातिगत विभेद का तंत्र थोड़ा ढीला हुआ है। शहरीकरण की प्र्रक्रिया में जातिगत जड़ताएं अपने पुराने रूप में रह पाने की सिथति में नहीं रह गयीं। लेकिन सामाजिक बदलाव की यह प्र्रक्रिया सामंती नैतिकता और आदर्श को पूरी तरह से बदलने वाली नहीं रही क्योंकि प्र्रगतिशील नैतिक मूल्यों और आदर्शों की स्थापना की प्र्रक्रिया आरोपित शहरीकरण के कारण जन्म लेने वाली रही। स्वाभाविक गति में उसका विकास न हुआ। स्पष्ट है कि विकास के टापू खड़े करता बड़ी पूंजी का माडल सामाजिक बदलाव के प्र्रति किसी भी तरह की सजग जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं था। मुनाफे के मंसूबे उसकी प्र्राथमिकता को तय करते रहे। इसीलिए क्षेत्र और एक हद तक जातिबंधन से मुक्त हो चुकी मानसिकता में धर्म की चार दीवारियां ज्यों की त्यों खड़ी दिखायी देती हैं। बलिक इसे धर्म की धार्मिकता की तरह भी चिहिनत नहीं किया जा सकता। विभेदों का दानव घृणा को ही जन्म देने वाला रहा और धार्मिक वैमनस्य के साथ श्रैष्ठताबोध में संलग्न धार्मिकता का माडल तैयार होता रहा। विकास की असंतुलित और लड़खड़ाती गति में पीछे छुट जा रहे लोगों के धर्म विशेष के प्रति घृणा फैलाता राजनैतिक ताना-बाना बुनना आसान हुआ है। यूं विश्लेषण की इस पद्धति से सीधे तौर पर हरीचरण प्रकाश की कहानी से तथ्य नहीं जुटाये जा सकते। बलिक अपने मिजाज में ऐसी मुखालफत के साथ वह इस ओर ही सोचने को मजबूर करती है कि क्या जाति और क्षेत्र के बंधनों को तोड़ने में सुक्ष्म से सुक्ष्म होते जा रहे परिवारिक ढांचे की कोइ भूमिका है ? सीमित संतानों वाली सिथति में सामाजिक बदलाव की कोर्इ नयी सिथति जन्म ले रही है ? यह निशिचत ही एक दिलचस्प विचारणीय पहलू है। हिन्दी कथा साहित्य में दर्ज सामाजिक बदलाव के ऐसे विवरण साहित्य की भूमिका को महत्वपूर्ण तरह से स्थापित कर रहे हैं। ऐसे ही वातावरण में गंवर्इ आधुनिकता से मध्यवर्गीय आधुनिकता की ओर सरक रहे जमाने का जो रूप दिख रहा है वह बहुत आशानिवत नहीं करता।

हिन्दी कहानी ही नहीं किसी भी विधा के लिए यह प्राथमिक सवाल होना चाहिए कि गंवर्इ आधुनिकता से मुक्त होते दौर को वास्तविक जनतांत्रिक मूल्यों के लिए माहौल बना सकने वाली मध्यवर्गीय आधुनिकता का पाठ रचे। उसे ठीक से चिहनत कर पाये। ताकि झूठे रूप में भले-भले बने रहने की बजाय वास्तविक जनवाद का माहौल जन्म ले। तकनीक और उत्पाद के फर्क के साथ वैशिवक पूंजी के उस षड़यंत्र का भी पर्दाफाश हो सके, जो अनुसंधान पर अबोली रोक बनाये रखते हुए विज्ञान के भी कर्मकाण्ड का माहौल रच रही है। एक रचना की सार्थकता इस बात में भी है कि वह ऐसे सवालों से टकराने को भी प्रेरित कर सके है। हरीचरण प्रकाश की कहानी इस कारण से भी एक यादगार कहानी है कि उसके बहाने ऐसे बहुत से सवाल सहजता से उठा पाना संभव हो रहा है।