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Thursday, April 4, 2024

रंगमंच की दुनिया का सिलक्यारा मिशन

 







उत्तर नाट्य संस्थान एवं दून विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित नाट्य समारोह का आखिरी नाटक 2 अप्रैल 2024 की शाम दून विश्वविद्यालय के डॉ नित्यानंद सभागार में मंचित हुआ। नाट्य समारोह की शुरुआत विश्व रंगमंच दिवस, 27 मार्च 2024 को हुई थी। समारोह का आखिरी नाटक-अन्वेषक दून विश्वविद्यालय के रंगमंच विभाग के विद्यार्थियों द्वारा खेला गया। वर्ष 2023 के लिए संगीत नाटक अकादमी से सम्मानित किए गए डॉ राकेश भट्ट के निर्देशन में खेले गए इस नाटक का यह दूसरा प्रदर्शन था। मई 2023 में भी दून विश्वविद्यालय में इसको मंचित किया गया था। कहानीकार और नाट्य लेखक प्रताप सहगल के द्वारा लिखा गया नाटक “अन्वेषक”  प्राचीन भारतीय इतिहास की विसंगतियो को केंद्र में रखकर रचा गया है। महान खगोलविद और वैज्ञानिक आर्यभट के अनुसंधान- पृथ्वी चलायमान है, के प्रति पुरोहितों द्वारा की गई अवहेलना इस नाटक का कथा बिंदू है। 20 वीं सदी के आखरी दशक में प्रकाशित हुए इस नाट्य आलेख पर बात करने से पहले मंचन की खूबियों-खामियों पर बात कर ली जाए।

कुछ छोटी मोटी तकनीकी खामियों के बावजूद 2 अप्रैल 2024 की शाम दून विश्वविद्यालय के डॉ नित्यानंद सभागार में मंचित हुए “अनवेषक” की प्रस्तुति को संतोषजनक कहा जा सकता है। मंचन में यदि कोई व्यवधान बन रहा था तो वह था नाटक का पर्श्व संगीत- जो अखरने वाला रहा। अभिनय के लिहाज से कहा जाये तो पात्र उस दायरे में रहे जिसे लेखक के रचे हुए के साथ संगत बैठाते हुए निर्देशक ने परिकल्पित किया। फिर चाहे नट-नटी (गणेश गौरव, सोनिया नौटियाल) के किरदारों का चुलबुलापन हो और चाहे संयत और धीर गम्भीर व्यवहार में राजा बुधगुप्त ( अरुण ठाकुर) या आर्यभट ( कपिल पाल) का अभिनय।      

निर्देशक की परिकल्पना के पहलुओं पर विचार किया जाये तो पाएंगे कि लेखक ने जिन उद्देश्यों को ध्यान में रखकर नाटक लिखा, निर्देशक ने उनकी प्राप्ति के लिए ही हर सम्भव स्थितियों को नाट्य तत्वों में पिरोने की कोशिश की। स्पष्ट है कि लेखकीय उद्देश्य उस विचार की साम्यता में हैं, जो अतीत के गौरव गान को ही राष्ट्रीयता और देशप्रेम मानता है। वह एक ऐसा विचार, जो जब राजनीति का चोला पहनता है तो दुनिया के सारे ज्ञान और किसी भी अनुसंधान को सिर्फ अपने धर्मग्रंथों में तलाशता है, बल्कि जिद्द की हद तक धर्मग्रंथों को ही प्राथमिक स्रोत माने रहता है। बदलती हुई दुनिया के मूल्यबोध उसके आड़े आते हैं तो शुरु में तिलमिलाता है। लेकिन जब यह जान लेता है कि समाज उन बदले हुए मूल्यबोध से इतर व्यवहार नहीं करेगा तो इस तरह पैंतरा बदलता है कि मूल्यबोधों को स्वीकारने की बजाय  प्रतीकों के माध्यम से खुद को भी उनका हिमायती होने का झूठ रचता है। उसका झूठ पकड़ में न आए इसलिए प्रतीकों के झंडे बनाकर लहराने लगता है। मसलन, भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी ने आजादी की जो कल्पना की, उसके प्रति नफरत भरा होते हुए भी राष्ट्र भक्ति का झूठ रचने के लिए वह पहले भगत सिंह को पगड़ी पहनाता है और फिर उसे देव स्वरूप पूज्य बनाता है। अहिंसा के विचारक गांधी की हत्या करता है, लेकिन झूठ को रचने के लिए चश्मे को लहराते हुए ही गांधीवाद का पूजारी दिखना चाहता है।   

प्रताप सहगल का नाट्य आलेख भी ऐसे ही झूठ के साथ वैज्ञानिक चेतना सम्पन्न आर्यभट की उस खोज को कथा में जगह देता है जिसने धार्मिक मान्यताओ को चौनौती दी थी। वे मान्यताएं, जिनका स्पष्ट मत था कि पृथ्वी स्थिर है और रात दिन की चक्रियता दैवीय चामत्कार है। ग्रहणों की स्थितियां राक्षसों के उत्पात हैं और उनके उपाय के लिए ही दैवीय उपासना और दान दक्षिणा के उपक्रम आवश्यक हैं।

चूंकि नाटक का विषय यह नहीं है कि वह उन कारणों को जानने के लिए लिखा गया है कि आखिर क्यों और कैसे एक महत्वपूर्ण अनुसंधान की पुस्तक पूरे इतिहास में विलुप्त रही, इसलिए यह आलेख भी उन स्थितियों को नहीं उठा रहा। जबकि यह कौन नहीं जानता कि झूठ को फैलाते रहने वाले धर्मग्रंथ ही नहीं, उनकी टिकाएँ तक सुरक्षित तरह से संरक्षित रहीं हैं। इसलिए यह प्रश्न विचारणीय होते हुए भी मुझे छोड़ देना पड़ रहा है कि क्यों ऐसा हुआ कि सिर्फ दो दो पंक्तियों में लिखे गए 121 श्लोकों की पुस्तक आर्यभटीय जो गणित और ज्योतिष विज्ञान के जटिल विषयों को सूत्रबद्ध किये थी, सैकड़ों सालो तक विलुप्त रही ? मेरी यह टिप्पणी सिर्फ उतने की ही बात करने के लिए बाध्य है जो मंचित हुए नाटक “अन्वेषक” का घटनाक्रम है।    

दिलचस्प है ऊपर के सवालों को दरकिनार करते हुए ही नाट्य आलेख उस गौरवगान का आख्यान बनने के साथ है जो “अतीत के सुवर्ण काल” को स्थापित करने वाला है। नाटक में आर्यभट को गुप्त शासक बुधगुप्त के समर्थन से अनुसंधान करते दिखाया जाना उसी अतीत को गौरवांवित करना है जो धर्मशास्त्रों पर टिकी मान्यताओं को ज्यादा मुस्तैदी से प्रसारित करने वाला हुआ। इतिहास गवाह है कि राजदरबारों के समर्थन कला साहित्य की उन गतिविधियों के लिए रहे, जो या तो सीधे धर्मग्रंथों की मान्यता को स्थापित कर रही थी, या फिर कुछ नया करते हुए इस बात का ध्यान रखती थी कि समाज में फैले अंधकार को चुनौती न देती हो। गुप्त काल के एक शासक चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के दरबार के नौ रत्नों के बारे में इतिहास से जानकारी मिलती है। “तथाकथित रूप से कवि कालिदास के नाम से प्रसिद्ध, परन्तु दरअसल 12वीं सदी में लिखी गई 'ज्योतिर्विदाभरण' नामक जाली पोथी के एक श्लोक में भी इन नौ रत्नों की सूची है- धन्वंतरि क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, वेतालभट्ट, घटखर्पर, कालिदास, वराहमिहिर और वररुचि । यानी पाटलिपुत्र में पूजित ज्ञान को प्रतिष्ठित करने वाले गुप्तकाल के ही के प्रथम महान गणितज्ञ आर्यभट का नामोल्लेख, नहीं है! क्या यह भारतीय विज्ञान के प्रथम पौरुषेय कृतित्व को और उसके रचनाकार को लोक-परम्परा से ही बहिष्कृत कर देने वाला प्रयत्नपूर्वक किया गया प्रयास नहीं है?” (गुणाकर मूले, शैक्षिक संदर्भ, जुलाई-अगस्त 1998) । भारतीय गणित के इतिहास की व्याख्या करने वाले विद्वान गुणाकर मूले स्पष्ट लिखते हैं, “आर्यभट के भूभ्रमण वाद पर हमला करने वाले पहले ज्योतिषी वराहमिहिर (मृत्यु : 587 ई.) हैं। आर्यभट के भूभ्रमणवाद पर कठोर प्रहार करने वाले दूसरे व गणितज्ञ-ज्योतिषी ब्रह्मगुप्त हैं।“(गुणाकर मूले, शैक्षिक संदर्भ, जुलाई-अगस्त 1998)। आर्यभट द्वारा प्रतिपादित भूभ्रमण का सिद्धांत पुरोहित-वर्ग के लिए एक नई चुनौती थी। “'परमभागवत' गुप्तों के शासनकाल में यह वर्ग काफी बलशाली बन गया था। वेदों और धर्मशास्त्रों के हवाले देकर अचला पृथ्वी का जो लोकविश्वास कायम किया गया था उसे टिकाए रखने में सबसे ज़्यादा हित पुरोहित वर्ग का ही था। इसलिए समाज के इस प्रभावशाली वर्ग ने आर्यभट के भूभ्रमणवाद के उन्मूलन के लिए हर संभव प्रयास किया हो, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है।““(गुणाकर मूले, वही)     

नाटक स्पष्टत: दिखाता है कि अन्वेषक आर्यभट ने अपनी पुस्तक “आर्यभटीय” बुधगुप्त को सौंपी। यद्यपि तथ्य है, “आर्यभट अपनी कृति में किसी भी राजा या सामंत का उल्लेख नहीं करते हैं। समकालीन राजनींतिक परिस्थितियां भी अनुकूल नहीं थी। आर्यभट का जन्म 476 ई में हुआ।“ (गुणाकर मुले, महान गणितज्ञ- ज्योतिशी आर्यभट, राजकमल प्रकाशन, पेज 136)। फिर भी यदि नाटक की कथा को यदि सत्य मान लिया जाये तो फिर सवाल है कि ज्ञान विज्ञान को संरक्षण देने वाला राजदरबार ऐसे महान अनुसंधान की पुस्तक को गुप्त शासन के क्षेत्र में क्यों संरक्षित नहीं रख पाया ? यह भी इतिहास है कि “सुदूर दक्षिण भारत में, मुख्यतः मलयालम लिपि में, टीकाओं सहित आर्यभटीय की कई हस्तलिपियां उपलब्ध थीं। उनमें से कुछ हस्तलिपियां यूरोप के संग्रहालयों में भी पहुंच गई थीं, मगर उनका अध्ययन और प्रकाशन नहीं हो पाया था, और न ही उनके आधार किसी यूरोपीय विद्वान ने आर्यभट प्रामाणिक परिचय प्रस्तुत किया था। डा. भाऊ दाजी प्रथम यह काम किया लाड (1824-74 ई.) ने। उन्होंने 1865 ई. में केरल की यात्रा करके वहां मलयालम लिपि में आर्यभटीय की तीन ताड़पत्र पोथियां खोजीं। उनका अध्ययन करके भाऊ दाजी ने आर्यभट और आर्यभटीय के बारे में एक खोजपरक निबंध तैयार किया।“(गुणाकर मूले, शैक्षिक संदर्भ, मार्च-जून1998)।   



स्पष्ट है प्रताप सहगल के नाट्य आलेख में इंन तथ्यों की अवहेलना के कुछ निहितार्ठ हैं। यह नाटक अतीत के गौरवगान के लिए ऐसे दृश्य रचता है कि राजा बुधगुप्त और उसके दरबारी बार बार ही आर्यभटीय सिद्धांतों को लागू करने के लिए उद्यत हैं। यहाँ तक कि आर्यभट की स्थापना का विरोध करने वालों को कारागार में डाल देते हैं। ऐसा करते हुए प्रताप सहगल न सिर्फ अतीत का गौरव गान करने वाली राजनीति को मद्द करते है बल्कि आर्यभट की वैज्ञानिक उपलब्धि को भी अतीत की उसी गौरवशाली परम्परा का हिस्सा बना देने का रास्ता सुझाते है जिसका सारा कार्यव्यापार ही धार्मिक गतिविधियों को सर्वोपरि मानने वाला रहा है।

अतीत के गौरव गान के उद्देश्यों से तैयार प्रताप सहगल की यह स्क्रिप्ट राकेश भट्ट के निर्देशन में गुप्त काल के उस दौर को आधुनिक मूल्यबोध के उन रंगों से सजा देना चाहती हैं कि पुरातनपंथी वह दौर किस दर्शक की चाह न हो जाए जिसमें विद्ध्वत समाज की एक कुलपति स्त्री हो। पांच विद्वानों की उस सभा में दो स्त्रियां हो और उनमें से एक सभा की अध्यक्षता करे। तो कैसे नहीं वह पुरातनपंथी राजदरबार आज की जनता की चाह होने लगेगा। इतिहास की विकृति की ऐसी गौरव गाथाएं दून रंगमंच में पिछ्ले कुछ वर्षों में बहुत तेजी से बढी हैं। दिलचस्प है कि ऐसी सभी गतिविधियों में इतिहास के नायकों की वास्तविक भूमिका को चौपट करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी गई। फिर न तो वहां नागेंद्र सकलानी बच पाए हैं और न वीर चंद्र सिंह गढवाली। दून रंगमंच की यह चाल उस सिल्क्यारा मिशन की चाल है जो न तो सुरंग निर्माण के औचित्य पर बात करना चाहती है, न सुरंग में मजदूरों के फंस जाने के कारणों को तलाशना चाहती है और न ही उस श्रम का सम्मान करना चाहती है जिसके प्रतिफल से फंसे हुए मजदूरो को जीवन मिल पाया है। उसका उद्देश्य तो सिर्फ पैसा, पुरस्कार, प्रतिष्ठा और शासन प्रशासन में घुसपैठ को महत्व देना हुआ है। 

यदि अपने आस पास के परिदृश्य पर निगाह डालें तो स्पष्ट देख सकते हैं कि देश के पैमाने में जारी हिंदी रंगमंच की दुनिया का यह सिलक्यारा मिशन ही कभी “राम की शक्तिपूजा” में शरण लेता है तो कभी प्रेमचंद के “गोदान” में।

Tuesday, April 2, 2024

लोक में वास करता विश्व



अकसर सुनते हैं कि फिल्म डायरेक्टर का माध्यम है और नाटक पात्रों का। हालांकि देखा जाए तो अभिनय की ये  दोनों विधाएं ही मूल रूप से है तो पात्रों का ही माध्यम। फिर भी यदि कहावत को सच की तरह स्वीकारें तो भी यह आश्चर्य की बात ही होगी कि 1 अप्रैल 2024 को दून विश्वविद्यालय के डॉ नित्यानंद ऑडोटोरियम में खेले गए गढवाली नाटक “रुमेलो” को देखने के बाद कहना पड़ रहा है कि प्रदर्शित हुआ नाटक निर्देशन के कौशल का नमूना रहा। शेक्सपियर के नाटक “ओथेलो” पर आधारित रुमेलो की मंच परिकल्पना एवं निर्देशन दून विश्वविद्यालय में रंगमंच विभाग के शिक्षक डॉ अजीत पंवार ने किया। यह उल्लेखनीय है कीं नाटक के सभी पात्र दून विश्वविद्यालय के वे विद्यार्थी थे जिनमें से ज्यादतर के मंच पर उतरने के अनुभव नगण्य ही थे। मंचीय अनुभव सम्पन्न विद्यार्थियों की बात भी की जाए तो वे भी सीमित ही। यानि सीमित और नगण्य अनुभवों वाले कलाकारों से एक परिपक्व नाट्य प्रस्तुति को रच ले जाना बिना कुशल निर्देशकीय कौशल के सम्भव ही नहीं था। लेकिन सिर्फ इस एक मानक पर खरे उतरने के बाद भी यह कहना तो शायद उचित नहीं कि यह नाटक  निर्देशन के कौशल का नमूना रहा

जरूरी है कि उन अन्य जरूरी उपादानों का भी जिक्र हो जिन्होंने मंचित हुए इस नाटक में वे प्रभाव पैदा किये। इसीलिए सबसे पहला जिक्र होगा उस सेट का जो वातावरण का निर्माण करने के लिए नाटक में इस्तेमाल हुआ
, अन्य अर्थों में कहें तो जिसे न सिर्फ तकनीक के समुचित प्रयोग से रचा गया, बल्कि जिंदगी के राग रंग स्पष्ट तरह से दर्शकों तक पहुंच सकें, उस तरह से व्यवस्थित किया गया। यह कहना कतई ज्यादा न होगा कि सेट के कारण जो वातावरण सृजित हुआ, उसके प्रभाव में ही दर्शक उतराखण्ड की इतिहास कथा के आस्वाद को मंचित होते दृश्यों में महसूस करते रहे।  दृश्यों के प्रभाव उस पार्श्व संगीत से ओथेलो को रुमेलो में बदल रहे थे जो लोक की स्थानिकता में लयबद्ध होकर मंचीय संतुलन को सम्भाल रहा था और प्रकाश के सुनियोजन से प्रदीप्त हो रहा था। निर्देशकीय कौशल क़े ये उल्लेखनीय पक्ष भी भी शायद यह भ्रम रचने में असमर्थ रह जाते कि दर्शक शेक्सपियर का ओथेलो नहीं बल्कि गढवाली भाषा का ही कोई मूल नाटक देख रहे हैं, यदि नाटक का स्क्रिप्ट भाषायी रूपांतरण के रचनात्मक कौशल में न तैयार हुआ होता। नाट्य आलेख के लेखक दिनेश बिजल्वाण ने कथा के योरोपीय विन्यास से भिन्न उत्तराखण्डी भूगोल को ला खड़ा किया। सम्वादों में गढवाली भाषा का लालित्य उन मुहावरों में रचा जिन्होंने पात्रों की स्थानिकता को विश्वसनीय चरित्र की तरह पेश किया। नाटक के किरदार ओथेलो, डेसिमोना, इयागो, ऐमिला, कैशियो आदि के रूप में नहीं बल्कि अपनी स्थानिक आभा और चारित्रिक विशेषताओं के साथ रुमेलो, रुकमा, बिघ्नी, मायालू, बिच्छा आदि क़े रूप में दर्शकों के सामने आते हैं।

  

यह कहने में संकोच नहीं कि न सिर्फ मंचन की दृष्टि से बल्कि लेखन की दृष्टि से भी शेक्सपियर के नाटक “ओथेलो” पर आधारित रुमेलो दून विश्वविद्यालय की ऐतिहासिक उपलब्धि होने का पात्र तो हुआ ही है, साथ ही आयोजित किये गये इस सात दिवसीय नाट्य उत्सव की भी उपलब्धि है। ज्ञात हो की इस नाट्य उत्सव का अयोजन उत्त्र नाट्य संस्थान एवं रंगमंच, देहरादून और लोक कला विभाग दून विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वाधान में किया गया है और 27 मार्च 2024 को रंगमंच दिवस के दिन शुरु हुआ।


अभिनय के स्तर पर हर पात्र की कोशिश अपने सर्वोत्तम के साथ प्रस्तुत होती हुई थी। घटना के प्रभावों में बिघ्नी की भूमिका में सृजन जोशी, रुमेलो- सृजन डोभाल, रुकमा- साक्षी देवरानी, बिच्छा आयूष चौहान, राजा- सिद्धार्थ डंगवाल, सुनार- संयम बिष्ट कई दिनों तक याद रहने वाले अभिनय हैं। जोत्रा के रूप में अनन्य डोभाल, मायालू- अंशुमन सजवाण, अलका- कनिष्का उनियाल, जलका- संध्या, कलदारसाह- राजदीप राणा और अन्य ग्रामीणों के रूप में मंच पर मौजूद रहे पात्रों की उपस्थिति के बिना तो नाटक के दृश्य भीं स्मृतियों में न उतर पाएंगे।       



 


Sunday, August 13, 2023

महा परियोजनाओं का सांस्कृतिक परिदृश्य


देहरादून की नाट्य संस्था वातायन ने पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह की  पहलकदमी दिखाई है, नाटकों के मंचन किये, इसमें कोई दो राय नहीं कि देहरादून रंगमंच के इतिहास में वह हमेशा दर्ज रहेगी. उन पर निगाह डाले तो आश्चर्यजनक खुशी मिलती है. मूल रूप से रंगमंच के लिए समर्पित इस संस्था की पिछली चार नाटय प्रस्तुतियां अपने विषय के कारण उल्लेखनीय कही जा सकती है. दिलचस्प है कि ये चारों प्रस्तुतियां कमोबेश अपने अपने तरह से भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष की कहानी और उस दौर के सामाजिक राजनैतिक और आर्थिक परिदृश्य पर ध्यान खींचतीं हैं. 2019 में रचा गया और मंचित किया गया नाटक दांडी से खाराखेत तक. स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में देश भर में व्याप्त नमक सत्याग्रह आंदोलन की आवाज देहरादून में लून नदी में नमक बनाने की कार्रवाई के साथ सुना गया था, नाटक उसी अल्पज्ञात इतिहास को सामने लाने के लिए गोरखाली समाज के नायक और नमक सत्याग्रह आंदोलन के दौरान ही गांधी जी के सम्पर्क में आए खड‌क बहादुर सिंह के नायकत्व को स्थापित करने की कोशिश करता है. उसके बाद  2022 में नागेंद्र सकलानी एवं तिलाड़ी कांड को आधार बना कर रचे और मंचित किया गया नाटक- मुखजात्रा, और आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष 2022-23 के  दौरान कथाकार प्रेमचंद के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास गोदान पर आधारित नाट्य आलेख का मंचन और इस माह अगस्त 11 एवं 12 की सबसे ताजा प्रस्तुति वीर चंद्र सिंह गढवाली’.    


इन चारों प्रस्तुतियों की एक खास बात यह है कि इनके नाट्य आलेखों को तैयार करने में वातायन के कलाकारों की भूमिका विशेष रही है और इनके प्रथम मंचन भी वातायन ने ही किये. दांडी से खाराखेत का नाट्य आलेख वातायन द्वारा 2019 में आयोजित उस रंग शिविर में तैयार हुआ जिसका संचालन निवेदिता बौंठियाल द्वारा किया. नाटक का निर्देशन निवेदिता बौंठियाल ने किया. लगभग 40-42 वर्ष पहले निवेदिता बौंठियाल (उनियाल) रंगमंच के अपने सफर की शुरुआत वातायन से ही की थी और पिछले लगभग 30-35 वर्षों से वे बम्बई में एवं कलाकार के रूप में सक्रिय हैं. मुखजात्रा सुनील कैंथोला द्वारा लिखे और प्रकाशित नाटक को एक रंग शिविर में मंचिय प्रक्रिया तक पहुंचाने का उपक्रम बना था. यह रंगशिविर उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध रंगकर्मी डॉ सुवर्ण रावत के नेतृत्व में सम्पन्न हुआ था और वे ही नाटक के निर्देशक थे. सुनी सुनायी खबरों के हवाले से यह रंगशिविर गढवाल महासभा ने अयोजित किया था.शायद इसीलिए नाटक का पहला मंचन प्रशासन द्वारा आयोजित कौथीग-2022 में हुआ हो. कुछ दिनों बाद नाटक में कुछ मामूली बदलावों के साथ नाटक का मंचन टाउन हाल देहरादून में वातायन की ओर से किया गया और डॉ सुवर्ण रावत ही नाटक के निर्देशक थे. गोदान की स्क्रिप्ट को नाटक के निर्देशक मंजुल मयंक मिश्रा ने प्रेमचंद के उपन्यास के कुछ खास हिस्सों को लेकर तैयार किया. वीर चंद्र सिंह गढवाली के मंचन के दौरान वितरत फोल्डर से नाटय स्क्रिप्ट के लेखक के बारे में तो कोई सूचना नहीं मिलती है, लेकिन मंचन से पूर्व उदघोषक की सूचना से जानकारी मिली थी वातायन के कुछ युवा साथियों द्वारा यह नाट्य आलेख राहुल सांकृत्यायन द्वारा वीर चंद्र सिंह गढवाली की लिखी जीवनी पर आधारित है.    

चारों नाटको के विषय चयन को देखते हुए यह ध्यान बरबस ही जाता है कि कुछ बड़ा करने और बड़ा रचने की सदइच्छाओं के साथ वातायन लगातर अपने आपको तैयार करता जा रहा है. अति महत्वकांक्षा से भरी वातायन की यह परियोजना दून रंगकर्म पर किस तरह से प्रभाव डाल रही है और शेष भारत की साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों से इनका क्या रिश्ता है ? उसे समझना चाहें तो वह समीकरण ही दिखाई देगा जिसका कमोबेश लक्ष्य यही होता है कि दिखती हुई दूरी के साथ अंदरखाने सत्ता से एक सम्पर्क सधा रहे ताकि कार्यक्रम आयोजित करने के लिए बजट, पुरस्कार, विदेश यात्राएं जैसे मिलने वाले लाभ झोली में बने रहें. गतिविधि विशेष को अलोचना के दायरे में  लाए बगैर भी कहा जा सकता है कहाँ सिर्फ विषय भर से और कहाँ विषय को एक सीमा तक तोड़ मरोड करके शुद्ध सांस्कृतिक कर्म किया जा सकता है और इतना ही नहीं,जनपक्षीय तक बना रहा जा सकता है. नाटक सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की काव्य रचना राम की शक्ति पूजा से लेकर प्रेमचंद का गोदान के सहारे देशभर में नहीं विदेशों तक घूमा जा सकता है. बिना इस और सोचे हुए कि हवाई खर्चे से लेकर महंगे होटलों तक में रुकने की सुविधा के खर्च कहां से आते होंगे, कविकुंभों का हिस्सा हुआ जा सकता है. 

 

किसको पिता तुल्य कह दिया गया और किस तरह आयोवा हुआ जा सकता है, जब यह आज छुपाया नहीं जाया जा पा रहा है तो क्यों नहीं माथे पर त्रिपुंड लगाकर चिढाती हुई  हंसी हो लिया जाये? मंदिर के नाम पर दिए गए चंदे के चेक को लहरा लिया जाए. पुरस्कार वापसी जैसी जबरदस्त कार्रवाई का हिस्सा होते हुए बहुत भी आयोजित हो रहे किसी कार्यक्रम का चुपके से हिस्सा हो लिया जाये? साहित्य अकादमी ही आयोजक हो चाहे. तो फिर क्या हाल ही में मंचित वातायन के नाटक वीर चंद्र सिंह गढवाली भी उस महत्ती परियोजना का सबसे विकसित रूप तो नहीं जिसकी शुरुआत नजीबाबाद का इफ्तार हुसैन वाली मासूम संस्कृतिक चिंता से हुई थी?

चलिए, इसको थोड़ा परख लिया जाए और नाटक के उस अंतिम दृश्य को याद कर लिया जाए जो नाटक की टैग लाइन बना दिया गया- आखिर क्या दिया? क्या दिया? क्या दिया? और इस बात तक को दरकिनार कर दिया जाए कि एक इक्लाबी चरित्र किस तरह रिड्यूस होकर अपनी गरिमा खो दे रहा है. यह दृश्य आजादी के बाद उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पेशावर कांड के सिपाही वीर चंद्र सिंह गढ़वाली को दी गई तुच्छ पेंशन पर सवाल उठाते हुए नाटक का अंत करता है और यहीं पर नाटक का किरदार- राहुल सांकृत्यायन चीख चीख कर चिल्ला रहा है - आखिर क्या दिया? क्या दिया? क्या दिया? इतना नहीं  अपने साथी किरदार के साथ जीवन की घटनाओं को शेयर करता वीर चंद्र सिंह गढवाली का किरदार भी दाहड़ मारकर रोते हुए वही दोहरा रहा है - आखिर क्या दिया? क्या दिया? क्या दिया? नाटक अपने अंत की ओर है और पार्श्व से अन्य कलाकार भी अब मंच पर आकर उतनी ही तीखी आवाज और कोरस के से स्वर में दोहरा रहे हैं - आखिर क्या दिया? क्या दिया? क्या दिया?


यह आरोप नहीं बल्कि उस अनुगूंज को याद दिलाना है, पिछले कुछ सालों से जिसका हल्ला खूब सुनाई दे रहा है कि मानो भारत देश मात्र आठ दस साल पहले आजाद हुआ हो और अब आजाद देश की जो पहली सरकार है, वह पहले के दौर की सरकारों से भिन्न है.

सरकारी चरित्र में वास करती अमानवीयता को छुपाते हुए गैर राजनैतिक दिखने का यही साहित्यिक-सांस्कृतिक तरीका है. और यही समझदारी तथ्यों में हेर फेर कर देने का उत्स होती है. देख लेते हैं कि राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखी जीवनी में पेशावर कांड के सिपाही की स्थिति क्या है, 

“ ... 25  जुलाई 1955  को उत्तर प्रदेश सरकार ने लिखा कि राज्यपाल को इसके लिये बड़ी प्रसन्नता है कि चन्द्र सिंह गढ़वाली को अब १४ रुपया मासिक आजीवन पेन्शन दी जायगी। यह जले पर नमक छिड़कना था। भला आजकल के जमाने में 14 रुपये से क्या बनता है? बड़े भाई ने 16  अगस्त 1955 को सरकार को चिट्टी लिखकर इस पेंशन को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। यह खबर समाचार-पत्रों में भी प्रकाशित हुई। बड़े भाई की चिट्टी का कुछ अंश निम्न प्रकार है-

.. मेरी उमर 65 साल की है। आपने 14  रुपये मुझे पेंशन दिये हैं। क्या मैं यह समझँ कि हमारे गणतन्त्र राज्य ने मेरे लिये अन्तिम कार्य के लिये उपरोक्त पेंशन ही उचित और काफी समझी....? मैं आपके भेजे हुये पेंशन के पत्र को वापस करता हूँ.... । क्षमा । “[1]


कोई भी रचना या कलाकृति अपने समकाल से निरपेक्ष नहीं हो सकती। किसी बदले हुए समय में उसके पाठ भी अपने समय भिन्न कैसे हो सकते हैं फिर। राहुल सांकृत्यायन के पात्र के माध्यम से नाटक का यह अंत आखिर कहना क्या चाहता है? यह बिंदु अहम रूप से विचारणीय है। यह एक बड़ी विडंबना है, जब रचनात्मकता सत्ता की भाषा हो जाना चाहती है और एक नायक के जीवन से केवल उन क्षणों को

चुनती है जो उसके द्वारा चुन लिए गए अंत का विकास कर सकते हैं
, या थोड़ा बहुत तोड़ मरोड़ कर, कुछ अतिरिक्त जोड़ घटाकर, वैसा कर सकने में सहायक हो सकते हैं।

 



राजनैतिक पार्टी और सरकार के फर्क को भूला देने वाली राजनीति की चेतना ही पेशावर के नायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली जेल जीवन के दौरान डिप्रेशन में दिखा सकती है। उसे खुद के कपड़े फाड़ कर बिलख बिलख कर रोता हुआ दिखा सकती है। वरना राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखी वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की जीवनी पेशावर कांड का घटनाक्रम घटने से पहले ही नहीं, बल्कि बाद में सजा पाए गढ़वाली को भी जेल में अन्य कैदियों के साथ सम्पर्क बनाये रखते हुए ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष करते वीर का परिचय देती है। मूल जीवनी का निम्न हिस्सा यहां देख सकते हैं,

इस एकान्त काल कोठरी में चन्द्र सिंह कभी सोचते— “चन्द्र सिंह, तुम क्या कर बैठे ? मारे जाओगे। पिता, स्त्रि[i]याँ, बच्चे सदा के लिये तुमसे छूट चुके । तुम इस अंधेरी कोठरी में पड़े हुए हो, न जाने कब तक के लिये ?"

फिर उनके मन में यह सोचकर गर्व हो उठता- "चन्द्र सिंह शाबाश, तुमने मानुष जीवन का फल पा लिया। अपनी तुच्छ शक्ति के अनुसार तुमने देश माता के लिये यह सब कुछ किया। देश-भक्ति कसूर नहीं है। यह शर्म करने या घबराने की चीज नहीं है। तुमने अपने जीवन की कीमत वसूल कर ली। अपने परम कर्त्तव्य को पूरा कर लिया। जब तक साँस चलती है, तब तक इस कोठरी में आनंद से रहो। जो तुम चाहते थे, वही तुमको मिला।" वह इस प्रकार के विचारों में अपने आपको भूल गये इसी समय बूटों की आहट से उनका ध्यान टूटा। जंगले से बाहर शौककर देखा कि नम्बर १ और नम्बर ४ प्लाटून के सैनिक जा रहे हैं उन्होंने जोर से आवाज़ दी — “ जवानों, घबड़ाना मत। मैं भी यहीं हूँ” [2]

                                              

सिर्फ अपने बारे में, परिवार, मां, बाप, पत्नी और बच्चों के बारे में सोचते हुए अपने किये पर पश्चाताप करते हुए डिप्रेशन का शिकार होकर विक्षिप्त अवस्था को प्राप्त हो चुके चन्द्र सिंह गढवाली को प्रस्तुत करने के लिए पूरे नाटक का जो ताना बाना बुना गया उसकी शुरुआती झलक एक मांगल गीत से होती है. जिसे गाते हुए कलाकार दर्शकों पर फूल बरसाते हुए एक दम बीचोंचीच से जाते हुए गुजरते हैं, मंच पर सामूहिक अभिनंदन करते हैं और विंग्स के पीछे निकल जाते हैं. यहाँ उस तरह की ओपनिंग और मंगल गीत की प्रासंगिकता का सवाल करना बेमानी है क्योंकि अभी आप नहीं जानते कि नाटक किस तरह से डेवेलप होगा. और वह अपने पहले दृश्य में उस बालक च्न्द्र सिंह से परिचित कराता है जिसकी बहादुरी का यह किस्सा नाटय टीम  के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है कि कैसे बालक चंद्र सिंह एक क्रोधित अंग्रेज अधिकारी के सिर पर एक तांत्रिक के मंत्र से शक्तिकृत भभूत चुपके से छिडक कर उसके क्रोध को कम कर देता है और निर्दोष लेकिन गुनहगार ठहराये जा रहे गांव वाले सिर्फ छोटे से जुर्माने की सजा में ही निपट जाते हैं.

अगले दृश्य पार्श्व में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आक्रोशित जनसमूह की आवाजें हैं, मंच पर हवलदार चन्द्र सिन्ह और उसकी बटालियन के दूसरे सिपाहियों को जनता पर गोली चलाने का हुक्म देते अंग्रेज फौजी अफसर हैं और जवाब में अपने साथियों सीज फायर का हुक्म देता हवलदार चन्द्र सिन्ह है.यही है पेशावर विद्रोह. जो ऐसे लगता है जैसे एकाएक घटा हो. ऐसा नहीं है कि तैयारी की आवश्यक कार्रवाइयों के विवरण राहुल संकृत्यायन द्वारा लिखी जीवनी में न हो. लगभग 415 पृष्ठ और 26 प्र्करणों में लिखी मूल जीवनी के लगभग 350 पृष्ठ ऐसे ही विवरणों से भरे हैं. लेकिन नाटय टीम की दिक्कत है कि यदि वह उन विवरणों के एक छोटे से प्रकरण को भी मंच पर लाए तो दो समस्यायें हैं.

1.      नाटक की समयावधि बढ सकती है क्योंकि बाकी वे हिस्से तो उसके लिए जरूरी ही हैं जिनसे अपनी कर्रवाई पर पछताते हुए असहाय से दिखते चंद्र सिंह के प्रति दर्शकों के भीतर सहानुभूति का भाव उपजाने और अपने लक्ष्य तक पहुंचना है.

2.      वैसे दूसरी दिक्कत ज्यादा बड़ी है,क्योंकि दर्शकों के भीतर पहले से ही मौजूद वीर चंद्र सिंह गढवाली की छवि को तोड‌ना तो मुश्किल ही हो जाएगा तो फिर अपनी पेंशन के लिए लाचार होकर गिडगिडाते चंद्र सिंह गढवाली को कैसे दिखाया जा सकता था.

घटनाक्रम के बाद जेल जीवन के दृश्य हैं और उससे पहले मोर्चे से वापिस भेज दिये गए बगावती सिपाहियों की आपसी बतचीत है. जिसमें चन्द्र सिन्ह के आर्यसमाजी हिंदू होने का खुलासा नाटय टीम को ज्यादा महत्वपूर्ण लगा है. खैर, प्रसंगों के चयन में  नाट्य टीम की स्वतंत्रता को सवाल क्यों किया जाए ? जबकि राहुल सांकृत्यायन की मूल जीवनी और पृष्ट 198 में दर्ज एक ऐसा ही विवरण हमारे पास हो,उसे देख लेते हैं,

            “चन्द्र सिंह के ऊपर आर्यसमाजी होने की बात कह करके एक और इल्जाम खड़ा किया गया था, जिसके लिये कोर्ट मार्शल ने एबटाबाद के डिप्टी कमिश्नर लेफ्टिनेंट कर्नल एम० ई० रेकी से गवाही ली थी, बयान भी लिया था।“[3]

यह विवरण राहुल उस वक्त देते हैं जब चंद्र्सिंह को बगावत का गुनाहगार घोषित करने के लिए सरकारी गवाह सूबेदार जय सिंह और सूबेदार त्रिलोक सिंह के बयानों का जिक्र मूल जीवनी में हो रहा है. सवाल है पेशावर कांड के वीर सिपाही को आर्यसमाजी हिंदू साबित करके वातायन नाट्य दल क्या कहना चाहता है. यहां यह आग्रह  नहीं कि वातायन को नागेंद्र सकलानी हो चाहे चन्द्र सिंह गढवाली, दोनों की कम्यूनिस्ट पहचान दिखानी ही चाहिए थी. जबकि अपनी परियोजना के सबसे मह्त्वपूर्ण नाटक मुखजात्रा में नागेंद्र सकलानी की मूल पहचान-कम्यूनिस्ट को छुपाने का एक इतिहास पहले से है. मूल जीवनी से चन्द्र सिंह गढवाली की जो छवि बंनती है उसकी एक बानगी यहां प्रस्तुत है कि अपने जनसमाज के बारे में वह समझदारी क्या थी,   


“हमारे गढ़वाल में ताँबा -लोहे की खानें हैं। नाना प्रकार की जड़ी-बूटियाँ, औषधियाँ हैं। पत्थर, लकड़ी है, कागज बनाने की सामग्री, मधु, शिलाजीत, इंगुर, फूल और फलों से जंगल सम्पन्न हैं। इससे भी बड़ी और महत्व की चीज बहती हुई गंगा की धारा है, जिससे हम करोड़ों किलोवाट बिजली पैदा करके घर-घर पहुँचा सकेंगे। हमारा गढ़वाल औद्योगिक प्रदेश हो जायगा । हम समय और शक्ति का सदुपयोग करेंगे।”

"हमें स्वस्तन्त्र भारत में जनतान्त्रिक गढ़वाल बनाने का मौका मिलेगा। हम १० लाख गढ़वालियों की आर्थिक समस्या, संस्कृति, भाषा, भारत के ६६० जिलों से भिन्न है। "

आज के टिहरी गढ़वाल और ब्रिटिश गढ़वाल, अपर-गढ़वाल और लोअर - गढ़वाल, ठाकुर और ब्राह्मण, डोम और बिष्ट, खैकर और हिस्सेदार, राजा और प्रजा, नहीं रहेंगे, लेकिन, हमको उस समय के इन्तजार में बैठे नहीं रहना होगा। हमें उस समय को लाने के लिये महान् से महान् प्रयत्न करने होंगे। जनता के बीच जाकर, उनके दुःखों का अध्ययन करके, उन्हीं के सामने रखकर उनको दूर करने का प्रयास करना होगा। जन-संगठन के द्वारा शक्ति प्राप्त करना, जनता में राजनीतिक जागृति लाना। भूख, महामारी, हर प्रकार के आशंकाओं के समय उनकी सहायता करके उनमें विश्वास प्राप्त करना होगा। आज संसार में ऐतिहासिक परिवर्तन होने जा रहा है। हमको भी इस ऐतिहासिक निर्माण में सक्रिय भाग लेना पड़ेगा। हमारी आजादी भी संसार की आजादी में निहित है, इसलिये हमें आपसी छोटे-छोटे झगड़ों को छोड़ देना चाहिये। वैसे तो डोला- पालकी का सवाल भी गौण सवाल नहीं है। इसमें भी नागरिक अधिकार और सामाजिक स्वतन्त्रता की माँग मौजूद है। मगर इस झगड़े से आम डोम जाति का उपकार हो सकेगा। शब्दों में चाहे आर्य कहो या हरिजन, अछूत कहो या आदिवासी, या डोम; उनके लिये अलग मंदिर बना दो, अलग कुआँ खोद दो या थोड़ी देर के लिये उनके हाथ का बनाया लड्डू भी खा लो, इन सबसे उनका असली उपकार नहीं हो पायेगा।“[4]

मंचन के लिहाज से बात की जाये तो बहुत ही बचकाना सा मामला था. जबकि अपने इस नाटक के साथ ही वातायन अपनी रंग यात्रा के 45 वर्षों का जिक्र करती है. इतना ही नहीं आजादी के अमृत महोत्सव के समय की अपनी इस नाटक को दिल्ली के गिन्नी बब्बर से निर्देशित करवाती है. जिनके परिचय में दर्ज करती है कि उन्होने  वर्ष 2012 में श्रीराम सेंटर फॉर आर्ट एंड कल्चर,नई दिल्ली से दो वर्षा का अभिनय में डिप्लोमा प्राप्त किया है. राजेंद्र नाथ, त्रिपुरारी शर्मा, बापी बोस,हेम सिंह, लेंडी ब्रायन, राज बिसारिया, रुद्र्दीप चक्रवर्ती,स्वरूपा घोष, चितरंजन गिरी,के एस राजेंद्रन,मुश्ताक काक व कई अन्य जाने-माने राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त व्यक्तियों/निर्देशकों के सानिध्य में काम किया है.       



[1] वीर चन्द्र सिंह गढवाली, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल प्रकाशन, वर्ष 2006, ध्रुवपुर (1950) ,  पृष्ठ 415

 

[2] वीर चन्द्र सिंह गढवाली, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल प्रकाशन, वर्ष 2006, गिरफ्तारी (1930 में),  पृष्ठ 179

 

[3][3] वीर चन्द्र सिंह गढवाली, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल प्रकाशन, वर्ष 2006, फौजी फैसला (1930 में),  पृष्ठ 198

 

[4][4] वीर चन्द्र सिंह गढवाली, राहुल सांकृत्यायन, किताब महल प्रकाशन, वर्ष 2006, गांधी जी के पास,  पृष्ठ 305



उपयोग की जा रही सभी तस्‍वीरों के लिए जयदेव भट्टाचार्य का आभार। तस्‍वीरें उनके कैमरे का कमाल हैं।  

Wednesday, April 5, 2023

देहरादून में गोदान का सफल मंचन

 

यह स्‍वीकृत सत्‍य है कि नाटक अभिनेता/ अभिनेत्री का माध्‍यम है और इसी बात को एक बार फिर से साबित किया वातायन द्वारा मंचित नाटक गोदान ने। गोदान का मंचन  3 एवं 4 मार्च 2023 को टाउन हाल देहरादून में संपन्‍न हुआ। मंजुल मयंक मिश्रा क निर्देशन में खेला गया यह नाटक वातायन के युवा और वर्षो से रंगमंच कर रहे रंगकर्मियों का ऐसा सुंदर संतुलन था जिसमें निर्देशकीय समझ निश्चित ही सफलता का एक पैमाना बन रही थी।   

प्रस्‍तुति के लिहाज से संदर्भित नाटक ने न सिर्फ वातयान को ऐतिहासिक सफलता से गौरवान्वित होने का अवसर दिया, अपितु देहरादून रंगमंच के लिए भी यह प्रस्‍तुति एक यादगार प्रस्‍तुति के रूप में याद रखे जाने वाले इतिहास को गढने में सफल कही जा सकती है। 

 

संदर्भित नाटक का आलेख, हिंदी में यथार्थवादी साहित्‍य के प्रणेता कथाकार प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्‍यास ‘’गोदान’’ के आधार पर तैयार किया गया था और उपन्‍यास की उस मूल कथा को आधार बनाकर रचा गया है, आजादी पूर्व भारतीय किसान के जीवन की त्रासदी के प्रतीक के रूप में जिसके मुख्‍य चरित्र होरी के  जीवन का खाका प्रमुख तरह से प्रकट होता है। यानि ग्रामीण समाज के जंजाल को ही नाटक में प्रमुखता से उकेरा गया है। यद्यपि नाटक के उत्‍तरार्द्ध में गांव से भाग कर, शहरी जीवन के अनुभव से विकासित हुए गोबर के चरित्र की एक हल्की झलक भी मिल जाती है। लेकिन शहरी जीवन के छल छद्म और आजादी पूर्व के ग्रामीण समाज के जीवन को प्रभावित कर रही शहरी हवा और इन अर्न्‍तसंबंधों को परिभाषित करने वाले गोदान उपन्‍यास के अंशों से एक सचेत दूरी बरतते हुए निर्देशक ने जिस नाट्य आलेख के साथ गोदान को प्रस्‍तुत करने की परिकल्‍पना की, उसने नाटक की सफलता की जिम्‍मेदारी होरी और धनिया के कंधों पर पहले ही डाल दी। यानि नाट्य आलेख के इस रूप ने भी निर्देशक को पार्श्‍व में धकेलते हुए पात्रों को ही असरकारी भूमिका में प्रस्‍तुत होने का एक अतिरिक्‍त अवसर दिया। मंचन के दौरान यह स्‍पष्‍टतौर पर दिखा भी। धनिया के पात्र को जीते हुए सोनिया नौटिायन गैरोला और होरी की भूमिका में धीरज सिंह रावत ने निर्देशकीय मंतव्‍य को प्रस्‍तुत करने में अहम भूमिका अदा की। बल्कि यह कहना ज्‍यादा उचित होगा कि होरी के परिवार के अन्‍य पात्रों:  सोना के रूप में अनामिका राज, रूपा की भूमिका में सिद्धि भण्‍डारी और गोबर की भूमिका में शुभम बहुगुणा दर्शकों की निगाहों में ज्‍यादा प्रभावी तरह से प्रस्‍तुत होते रहे। लेकिन यह भी सत्‍य है कि अवसर की अनुकूलता के कारण से ही नहीं, अपितु अपने जीवन के सम्‍पूर्ण अनुभव को प्रतिभा के द्रव में घोलकर जिस तरह से सोनिया नौटियाल गैरोला ने धनिया के किरदार का जीवंत रूप में प्रस्‍तुत किया, उसे उनका दर्शक‍ एक लम्‍बे समय तक भुला नहीं पाएगा। रंगकर्म के अपने छोटे से जीवन में ही एक परिपक्‍व अभिनेत्री के रूप में सोनिया नौटियाल गैरोला को देखना और वैसे ही छोटे अंतराल के रंगकर्म के सफर में होरी के किरदार धीरज सिंह रावत का अभिनय इस बात की आश्‍वस्ति दे रहा है कि दून रंगमंच अपने ऐतिहासिक मुकाम की नयी यात्रा पर आगे जरूर बढेगा। रंग संस्‍था वातायन के लिए भी यह आश्‍वस्‍तकारी है कि नये-उत्‍साही और गंभीरता से नाटक करने वाले रंगकर्मियों का इजाफा उनके यहां हुआ है।

उम्‍मीद की जा सकती है कि गोदान के मंचन की यह सफलता वातायन को नयी ऊर्जा से जरूर भरेगी। बेहतर टीम वर्क ही उल्‍लेखित नाटक के मंचन  की सफलता को तय करता हुआ दिख रहा था। संगीत और प्रकाश का खूबसूरत संयोजन भी नाटक को प्रभावी बनाने में अहम भूमिका अदा कर रहा था।




उपयोग की जा रही सभी तस्‍वीरों के लिए जयदेव भट्टाचार्य का आभार। तस्‍वीरें उनके कैमरे का कमाल हैं।  

Wednesday, October 5, 2022

मधुपुर आबाद रहे

 

वृहत्तर सरोकारों से जुड़ा काव्य संग्रह : मधुपुर आबाद रहे

किरण सिपानी

 सहलेखन,सहसंपादन के अतिरिक्त गीता दूबे के स्वलेखन की पहली प्रकाशित काव्य कृति है —   'मधुपुर आबाद रहे।पहली संतान की तरह पहली मौलिक पुस्तक भी प्रिय होती है। इस सृजन के लिए गीता दूबे को बधाई।

बड़ी संजीदगी से अपने युग के यक्ष- प्रश्नों से जूझती कवयित्री स्त्री-मन के तहखानों की पड़ताल भी करती है। व्यापक मानव समुदाय से जुड़ी विभिन्न भावों और मूडों की 53 कविताएंँ कवयित्री के उज्जवल भविष्य का शंखनाद करती हैं। कवयित्री के शब्दों में —"कविता की व्यापकता मानव मात्र से जुड़ी संवेदना को खुद में समेट कर उसे विस्तार देती है ,शब्दबद्ध करती है।" उसकी कविताओं में कहीं आतंकवाद का खौफ पसरा है।कहीं बेरोजगारी का टीसता दर्द है।कहीं सिर उठाए आधुनिक जीवन शैली की विडम्बनाएँ हैं।कहीं इंसानियत का गला घोटता बाजारवाद है। कहीं प्रजातंत्र में खूनमखून हो गए अरमानों की पड़ताल है।कहीं बुद्ध के बहाने मूर्ति पूजा की साजिश की पीड़ा है। कहीं प्रकृति और मानव के अंतर्संबंधों की पड़ताल है। कहीं स्त्री-पुरुष के संबंधों के इंद्रधनुषी- सलेटी रंग हैं। कहीं जीवन के केंद्रीय भाव प्यार के रंग-तरंग-व्यंग की बौछार है और कहीं पर अपने गुरुओं का कृतज्ञतापूर्ण स्मरण-नमन है। संग्रह की पहली कविता 'स्त्री होना' से ही स्त्री होने की विडंबना का एहसास हौले -हौले पाठक के जेहन में उतरने लगता है। चौंसठ कलाओं में दक्ष होकर भी स्त्री देह की धुरी पर ही टँगी होती है।हकीकत को बयांँ करती कवयित्री के शब्द हैं:


स्त्री होना

विषैले सांँपों की संगत को

तनी हुई रस्सी समझकर चलना होता है।

 

परंपरा और आधुनिकता के बीच 'चिड़ियाँ' सी झूलती लड़कियांँ आँधियों के वार से तार-तार हो जाती हैं। मुक्ति के लिए छटपटाती बेटियों को कवयित्री छद्म मुक्ति के भुलावे से सावधान रहने की सीख देती है। मुक्ति के संदर्भ में कवयित्री की दृष्टि साफ है :

मुक्ति का सही आनंद और आस्वाद

अपनी नहीं, सबकी मुक्ति में है।

जहांँ मुक्त विचार और उदार आचार हो

हर एक के लिए विकास का आधार हो।

 जहाँ अर्गलाएँ तन की ही नहीं

मन की भी कटकर गिरें....

 असहमति के लिए जगह मिले

निर्णय का अधिकार मिले।

 

'मुक्ति कहांँ है' कविता पुरातन से अधुनातन नारी की कहानी बयांँ करती है। नारी स्वयं से ही प्रश्न करती है :

मुक्ति कहांँ है अभी

पूरी समग्रता में।

 

अभी भी तो नारी चीज और वस्तु है, द्वितीय श्रेणी की नागरिक है, वह मनुष्य कहांँ है ? अभी तो वह नए इतिहास को रचने के लिए हुंकार रही है। अपनी सखियों को संगठित होने के लिए पुकार रही है। नए प्रतीकों, नए उपमानों  का एक नया संसार गढ़ना चाहती है वह। सूरज को अपनी हथेली पर उतार लाना चाहती है वह। कोमलता के रेशमी एहसासों की कैद से मुक्त हो  पथरीले रास्तों पर चलकर अपने सही मुकाम तक पहुंँचने की आकांक्षी है वह।

 

प्यार-1, प्यार-2, इंतजार, प्रेम, फासला, सौंदर्य, सूरज, मंजिल आदि कविताएंँ इस विश्वास पर मुहर लगाती हैं कि प्रेम ही जीवन की धुरी है। जीवन की समस्त परिधियांँ इसी से संचालित होती हैं, गतिमान रहती हैं। इस धुरी का स्खलन जीवन को एकाकीपन और उदासी के रंगों से भरकर श्री हीन कर देता है। किसी अपने के प्रेम की नर्म-गर्म रोशनी से सार्थक है कवयित्री का जीवन:

सौभाग्य तिलक जो रच दिया

तुमने मेरे माथे पर अनायास ही

उसकी ऊष्मा से अब तक

घिरा हुआ है मेरा जीवन।

उस सौभाग्य को

अपने प्रशस्त भाल पर

विजय पताका सी धारे हुए

सपनों के संसार में विचर रही हूँ मैं।

 

बसंत की मादक बयार की तरह प्रेम सांँस-सांँस को महका देता है। प्यार की ताजा सुवास व्यक्ति के पोर-पोर में घुल जाती है। असीम संभावनाओं के द्वार खुल जाते हैं। जीवन को एक मकसद मिल जाता है। प्रकृति के अद्भुत सौंदर्य को पीने के लिए प्रिय का स्मरण कितना स्वाभाविक होता है :

इस अद्भुत अप्रतिम सौंदर्य को निहारते हुए

जाती है

अनायास तुम्हारी याद।....

इस सौंदर्य को संजो पाना

बटोर पाना

अकेले मेरे वश की बात भी तो नहीं।

 

प्यार का रंग सुरक्षित रहे तो दुनिया बेनूर नहीं होती। पर आधुनिक समय में मनुष्य पर स्वार्थ इतना हावी हो गया है कि वह अपनी जिंदगी की ताल को बिखेरने पर आमादा हो गया है।प्रेम के शाश्वत पाठ को पढ़ने के लिए मनुष्य को प्रेम के प्रतीक मधुपुर के पास लौटना ही होगा:

मधुपुर

ऐसे ही रहना आबाद

अपने अंतर में समेटे

प्रेम का शाश्वत राग।

 हम आएंगे

फिर -फिर तुम्हारे पास

सीखने प्रेम का अद्भुत अनूठा पाठ।

 

मन की धरती पर विचरने वाली इस संग्रह की ढेरों कविताएंँ मानवीय संवेदनाओं को बड़े जीवंत रूप में उकेरती हैं। इन कविताओं में अभिव्यक्त व्यक्तिगत पीड़ा, थकान, विचलन,विराग ,विश्वास, आश्वस्ति पाठक को स्पंदित करते हैं :

ऐसा क्यों होता है

कभी-कभी मन बादल हो जाता है

जरा सी ठेस लगी तो टप टप झड़ जाता है

.....

कतरा कतरा लहू जिगर का

बर्फ  सा जम जाता है।

 

लाजवंती के पौधे सा दुख हद से गुजर जाता है और :

 जो दर्द से दवा बनने की तैयारी में घुट रहा था

भीतर ही भीतर

भीतर ही भीतर।

 

इश्तिहार, काश, मन की धरती, दुख, प्रतिकार स्वीकारोक्ति, ऐसा क्यों होता है आदि कविताएंँ बहुत ही मर्मस्पर्शी हैं।

 

प्रकृति के विभिन्न उपादानों के रूप- सौंदर्य से कवयित्री आंदोलित होती है ।कभी चांँद चिरकालिक शाश्वत मैसेंजर की तरह आज भी संदेश पहुंँचाता सा प्रतीत होता है। कभी कवयित्री को रुमानियत का प्रतीक चाँद नहीं चाहिए, वह तो अपनी हथेली पर सूरज को उतार लाने की कामना करती है। तो कभी उसे दुलारता हुआ जंगल पास बुलाता है :

कहता है, आओ

सुनो जरा हमारी भी तान।

अनदेखे, अनछुए, अद्भुत सौंदर्य से घिरा

जंगल का जादुई परिवेश

बांँध लेता है मन को।

दूर हो जाता है

अजनबियत का अहसास।

 

कवयित्री पीड़ित है कि सभी फेसबुक और व्हाट्सएप पर व्यस्त हैं। किसी को नन्ही गौरैया की चिंता नहीं है। आधुनिक विकास और विनाश जुड़वाँ भाइयों जैसे एक साथ पल्लवित हो रहे हैं। मोबाइल, कंप्यूटर और अनेक इलेक्ट्रॉनिक उपादानों ने जीवन की रफ्तार कई गुना तेज कर दी है। पर मोबाइल टावरों का संजाल और इलेक्ट्रॉनिक कचरे का बेहिसाब जंगल विनाश-लीला रच रहा है। लाखों अवरोधों के बाद भी प्रकृति का वरदान नन्ही गौरैया दुगने जोश से अपने नए सृजन में जुट जाती है।

'घरबंदी' की चार कविताएंँ खाये-पीये-अघायों के सोशलाइजेशन की खोज-खबर लेती हुई भुखमरी के विकराल प्रश्न पर जा टिकती है। कोरोना काल में सरकारी फरमानों की बंदिशें भी दिहाड़ी मजदूरों के सैलाब को रोक नहीं पातीं। 'हथेली पर रख कर प्राण, पाने को सजा से त्राण'  वे निकल पड़ते हैं अपने घरों की ओर। जाने घर की चौखट कब नसीब होगी उन्हें। कब घर वालों के प्यार से सनी रूखी रोटी मिलेगी। घरबंदी के शिकार इन जैसे लोगों के प्रति ये कविताएंँ करुणा की धार बरसाती हैं। उनकी खुशहाली के लिए पाठकों के हाथ दुआओं में उठ जाते हैं।

 

शांतिनिकेतन, चंद्रा मैडम के साठवें जन्मदिन पर, सुकीर्ति दी की मृत्यु पर लिखी कविताएंँ अपने गुरुओं-साहित्यकारों के प्रति प्रणति-निवेदन है। यह स्मरण मन को तृप्त- शांत करता है :

आकुल हमारा मन

खोजता है समाधान

जब किसी समस्या का

शीष पर रख हाथ

वात्सल्य का

दुलार देती हैं आप

नन्हे छौने की तरह।

 

सच्चे मित्र शब्दों-दूरियों के मोहताज नहीं होते। वे हमारी प्राण-वायु होते हैं। बड़े मार्मिक अंदाज में 'गुइयां' कविता सख्य के अद्भुत संबंध को कलमबद्ध करती है :

दोनों हथेलियों पर अपना मासूम उजला चेहरा टिका

बड़े भोलेपन से पूछती तुम,

' गोंइयां बोलबू नाहीं ?'

इतना निश्चल होता तुम्हारा स्वर

कि बरबस हंँस पड़ती मैं

और फिर शुरू हो जाता किस्सों का अनंत सिलसिला।

 

विज्ञान और तकनीक ने हमारे आधुनिक जीवन में अकल्पनीय परिवर्तन किया है। पर पुराने जीवन की कुछ रस्में आज भी हमारे दिलों में कसक पैदा करती हैं। आज :

प्रेम के संदेशे भी

जो कई बार

पढ़ लेने के तुरंत बाद

मिटा भी दिये जाते हैं।

जैसे डिलीट करने मात्र से

डिलीट हो जाती है

वह सूरत भी।

काश! फिर से लिखे जाते खत,

सहेजे जाते उम्र भर।

 

व्यंग्य का पैनापन सिंदूर, कवि गोष्ठी, राज़, न्याय, इंतजार, बाज़ार जैसी कविताओं के माध्यम से हमारे अंतर को भेदता चला जाता है। इंसानियत का गला घोंटता बाजार हमारी मूलभूत आवश्यकता बन गया है। आज के जीवन का शाश्वत सत्य है बेचना और खरीदना:

व्यापार हमारे खून में समा गया है

और हम मुग्ध हैं

अपने इस कौशल पर खुद ही

आखिर कुछ तो सीखा है

हमने अपने प्रभुओं, आकाओं

और तथाकथित लोकनायकों से,

जिन्होंने हमारी हर सांँस को गिरवी रख दिया है

देशी-विदेशी तिजोरियों में।

शरीर की नुमाइश में आत्ममुग्ध स्त्रियों को लताड़ने में कवयित्री कोई कोर-कसर नहीं छोड़ती :

धड़काती रही तुम

सैकड़ों युवाओं के दिल

बनावटी सौंदर्य की मरीचिका में

भटककर खो बैठे

वे अपनी मंजिल।

 

आतंकवाद, एसिड फेंकने और बेरोजगारी जैसी समस्याओं से कवयित्री विचलित होती है। वह आलोचक की भूमिका में उतर जाती है। सच्चे प्रेमी तो उदार होते हैं। उनमें अहंकार का लेश मात्र भी नहीं होता। बड़ी बेबाकी से वह कहती है :

 

फेंकते हैं जो एसिड

प्रेमिका के चेहरे पर

नहीं होते प्रेमी

होते हैं शिकारी

या फिर पागल,वहमी

.........

भला कैसा है यह प्यार

झुलसा कर, जला कर

अपनी ही प्रिया को

कर दे, उसका सर्वनाश।

यह तो है,

महज घातक अहंकार।

अहंकार, किसी का भी हो

पुरुष, जाति, देश या धर्म का

अपने साथ लाता है

सिर्फ और सिर्फ

विध्वंसक विनाश।

 

युग के तमाम उतार-चढ़ावों पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करती हुई कवयित्री आनेवाले उजियारे के प्रति आश्वस्त है:

जन चेतना का, होगा जब विस्तार

अंधेरा छंट जायेगा, छायेगा उजियार।

 

अतुकांत कविताओं के साथ, टेक लिए तुकबंद कविताएंँ, कुछ मुक्तक और गजलें प्रभावित करती हैं। इस संग्रह की भाषा बहते नीर सी है, संतरण करते मन में मिश्री सी घुल जाती है। अक्सर स्त्री सृजनात्मकता को स्त्री विमर्श के चश्मे से निहारने का चलन है। चश्मा उतार कर दीदार होना चाहिए, बात तो तब बने!



पुस्तक: मधेपुर आबाद रहे

रचनाकार: गीता दूबे

प्रकाशक: न्यु वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली

मूल्य: 175/-