दीवान सिंह मफ्तून और कवि कुलहड़ के साथ अपने अंतरंग संबंधों से भरे, वरिष्ठ कहानीकार और व्यंग्यकार, मदन शर्मा के लिखे संस्मरणों को यहां हम पहले भी दे चुके हैं । मदन शर्मा अपने अंतरंग मित्रों के साथ बिताए समय को सिल सिलेवार दर्ज करते हुए हमें एक दौर के देहरादून से परिचित कराते जा रहे हैं। हम आभारी है उनकी इस सदाश्यता के कि हमारे अनुरोध पर बिना किसी हिचकिचाट के वे हमारी इस चिटठा-पत्रिका के पाठकों के लिए लगातार लिख रहे हैं। अपने पाठकों को सूचित करना अपना कर्तव्य समझते हैं कि ब्लाग वाणी के आंकड़ों के मुताबिक मदन शर्मा इस चिटठा-पत्रिका के अभी तक सबसे ज्यादा पढ़े गए लेखक हैं।
मदन शर्मा 0135-2788210
एक अज़ीम शायर कंवल ज़ियायी
कुछ अर्सा पहले, हिंदी साहित्य के वरिष्ठ आलोचक डा0 नामवर सिंह ने, जब उर्दू शायरी पर अपने खय़ालात का इज़्हार करते हुए, अचानक ही यह फ़रमान जारी कर डाला, कि बशीर बद्र इस सदी के सब से बड़े शायर हैं, तो मेरा चौंक जाना स्वाभाविक था। मेरी नज़र में, बशीर बद्र, एक असाधारण शायर है। मैं स्वयं उनकी उम्दा शायरी का प्रशंसक रहा हूं। मगर दर हकीक़त, इस या पिछली सदी के दौरान, उर्दू में एक से बढ़कर एक, चोटी के शायर हुए हैं, जिन्होंने अपनी बेमिसाल शयरी की बदौलत, उर्दू अदब को अपनी बेहतरीन खिदमत पेश की हैं। अब मैं यहां पर, यदि अपने करीबी रिश्तों के मद्देनज़र यह कह डालूं, कि जनाब 'कंवल" ज़ियायी ऐशिया के सबसे बड़े शायर हैं, तो यह उर्दू अदब के साथ, नाइन्साफ़ी होगी। चुनांचे मैं अपने इस लेख में, महज़ इतना कहना चाहूंगा, कि जनाब हरदयाल दता 'कंवल" ज़ियायी, इस दौर के एक अज़ीम शायर हैं।
एक मुशायरे में, बशीर बद्र के ही, अनेक जुगनुओं से सुशोभित अशआर के जवाब में, जब कवंल साहब ने निम्नलिखित शेर पढ़ा तो पंडाल में देर तक तालियों का शोर बरपा रहा :-
तुम जुगनुओं की लाश लिये घूमते रहोलोगों ने बढ़ के हाथ पर सूरज उठा लिया
'कंवल" ज़ियायी साहब का संबंध, पंजाब के ज़मींदार घराने से है। सुप्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता राजेन्द्र कुमार इनके बचपन के दोस्त थे। यह दोस्ती ताउम्र कायम रहने वाली पी दोस्ती थी। दोनों एक ही गांव 'करूंड़दतां' में, जो ज़िला सियालकोट (पाकिस्तान) में है। वहीं जन्मे, पले पढ़े, खेले और शरारतें कीं। मुल्क की तकसीम के बाद, वे एक साथ दिल्ली पहुंचे और जिंदगी के लिये संघर्ष शुरू किया। यहां से, एक फ़िल्मों में किस्मत आज़माई के लिये बम्बई रवाना हो गया। दूसरे ने भारतीय-सेना में कलर्की को अपना लिया और शायरी शुरू कर दी। मगर ये अलग हुए रास्ते, सिर्फ रोज़ी कमाने के माध्यम थे। उनकी दोस्ती की राह एक थी, जिस पर चलते हुए, वे न तो कभी फिसले और न थके। 'कंवल" साहब का ज़मींदाराना कददावर शरीर, रोआबदार चेहरे पर बड़ी-बड़ी मूंछें और आंखों में तैरती सुर्खी देख, कितने ही लोग धोखा खा चुके हैं। एक किस्सा वह खुद ही बयान किया करते हैं--- किसी मुशायरे में हिस्सा लेने, वे अन्य शायरों के साथ जब हॉल में दाखिल हुए, तो इनके सियाहफ़ाम चेहरे पर बड़ी-बड़ी मूंछें देख, किसी ने सरगोशी की--- ये साहब गज़ल पढ़ने आयें हैं या डाका डालने! 'कंवल" साहब ने स्टेज पर खड़े होकर जब यह शेर पढ़ा, तो श्रोताओं के दिल पर, सचमुच ही डाका पड़ गया :-
शक्ल मेरी देखना चाहें तो हाज़िर हैं मगरमेरे दिल को मेरे द्रोरों में उतर कर देखिये
जिस तरह 'कंवल" साहब के कलम में बला की ताकत है, भाषा में सादगी और रवानगी है, शब्दों का उम्दा चयन है, उसी तरह उनकी ज़बान में भी चाश्नी है। उनके पास बैठे कितनी देर तक बातचीत करते जायें, कभी उठने को मन न होगा। शायरी में बेहद संजीदा और बातचीत में उतने ही मस्त और फक्कड़। 'कंवल" साहब की आंखों मे जो सुर्खी तैरती नज़र आती है, वह शराब की नहीं, शायरी का 'खुमार" है। मौजूदा बदनज़ामी और बेहूदगियों के खिलाफ़ एक आग है, जो हरदम उनके दिल में भी धधकती रहती हैं। वे शराब नहीं पीते। कभी पी भी नहीं। हाथ में थामें जाम से, कोका कोला के घूंट भर-भर कर, वे कितनों को धोखा दे चुके हैं। शराब कभी न चख कर भी, वे शराब पर अनगिनत शेर कह चुके हैं :-
रात जो मयकदे में कट जायेकाबिल-ए-रश्क रात होती हैबाज़ औकात मय काहर कतराइक मुकम्मल हयात होती है
'कंवल" साहब एक खुद्दार शायर हैं। वे दूसरों पर एहसान करना जानते हैं, एहसान लेना नहीं जानते। कभी अपनी रचना किसी के पास छपने के लिये नहीं भेजेंगे। कोई यार दोस्त या ज़रूरतमंद, रचना मांग ले, तो अपनी नवीनतम गज़ल या नज़्म भी, उठा कर बड़ी विनम्रता और खलूस से पेश कर देंगे। उन के अब तक दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं। 'प्यासे जाम' उनके कलाम का पहला संग्रह था, जिस का हिन्दी रूपांतर तैयार करने का शुभ अवसर मुझे प्राप्त हुआ था। इन्द्र कुमार कड़ ने इस पुस्तक का संपादन किया था। दूसरा संग्रह 'लफ़ज़ों की दीवार" उर्दू लिपि में छपा, जिसका विमोचन भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा जी ने किया। इन दोनों संग्रहों में शामिल गज़लों, नज़्मों या कतआत का एक भी मिस्रा ऐसा नहीं, जिसे किसी भी जानिब से कमज़ोर कहा जा सके। फिल्म अभिनेता पदम श्री राजेन्द्र कुमार के साथ, 'कंवल" साहब की दोस्ती, मुस्तकिल और पुख्ता थी। दोनों ही, यह रिश्ता निभाने में माहिर निकले। 'कंवल" साहब चाहते, तो एक मामूली से इशारे पर ही, राजेन्द्र कुमार इनकी गज़लों यां नज़्मों का इस्तेमाल, स्तरीय संगीतकारों के माध्यम से फ़िल्मों में करा सकते थे, जिस से 'कंवल" साहब रूपयों से मालामाल हो जाते। मगर कंवल साहब ऐसा इशारा करने वाले नहीं थे और राजेन्द्र कुमार अपनी ओर से कुछ करने में इसीलिये संकोच करते रहे कि ऐसा करने से कहीं दोस्त की 'खुददारी" को ठेस न पहुंच जाये :-खुदी मेरी नहीं कायल किसी एहसानमंदी कीमेरे खून-ए-जिगर से मेरा अफ़साना लिखा जाये 'कंवल साहब" से, पहली बार मेरी मुलाकात, एक अदबी नशिस्त के दौरान हुई। इस गोष्ठी में मेरे संस्थान के साथी और शायर स्व0 कृपाल सिंह 'राही" को अपनी नई लिखी गज़ल, समीक्षा के लिये पेश करनी थी। 'राही" साहब ने गज़ल का एक-एक शेर पढ़ना शुरू किया। प्रतिक्रिया देने के इरादे से 'कंवल" साहब ने हर शोर गौर से सुना और जब प्रतिक्रिया स्वरूप कहना शुरू किया, तो 'राही" साहब को तो ऊपर से नीचे तक तो पसीना आया ही, स्वयं मेरी भी हालत, लगभग 'राही" साहब जैसी हो गई, क्योंकि मैं भी अपना अफसाना 'बचपन का दोस्त" यहां पढ़ने के इरादे से, कोट की जेब में रख कर ले आया था। 'राही" साहब की हालत देख, मेरा हाथ, कोट की जेब तक पहुंचने के लिये हिल भी नहीं पाया और खुदा गवाह है, कि मैं आज तक, अपनी कोई रचना, उनके सामने पेश करने को हौंसला नहीं कर पाया। यह दीगर बात है कि 'कंवल" साहब से मुझे हमेशा अपनों जैसा प्यार और विश्वास मिला है। फिर हमारी मुलाकातों का सिलसिला ही शुरू हो गया। साहित्य सम्पादक इन्द्र कुमार कड़ के साथ मुझे कितनी ही बार 'कंवल" साहब के निवास पर जाकर, उन से बातचीत करने का मौका मिलता रहा। वहां हमें, उन से बहुत कुछ सीखने को मिला, जिस का संबंध, शायरी के अलावा, इन्सान और जिंदगीं की किताब से था। 'कंवल" साहब के ज्ञान का दायरा बहुत विस्तृत है और उन्होंने जिंदगीं को बडे करीब से देखा है।
जिंदगीं मेहरबान थी कल तकआज मैं जिंदगीं का मारा हूंआसमां के हसीन दामन काइक टूटा हुआ सितारा हूं
कंवल साहब के शागिर्दों की तादाद लंबी है। कहा जाता है, कि वे अपने आप में एक 'इस्टीटयूशन' हैं। 'बज़्म-ए-जिगर' नाम की साहित्य-संस्था के माध्यम से, उन्होंने एक लम्बे अर्से तक देहरादून के माहौल को उर्दूमय बनाये रखा। अपनी शायरी की आरंभिक अवस्था में उन्होंने प्रसिद्ध शायर जनाब पंडित लब्भूराम 'जोश' मलसियानी साहब से इस्लाह ली। इनकी शायरी, हज़रत 'दाग' की रवायती शायरी के काफ़ी नज़दीक तसलीम की जाती है। 'कंवल' साहब की शायरी के बारे में, मैं स्वयं अपनी तरफ़ से कुछ कहने के लिये, मौज़ूं अलफ़ाज़ तलाश करना, मेरे लिये बहुत कठिन काम है। ऐसे अलफ़ाज़, जो 'कंवल' साहब की शायरी के स्तर को छू सकें। वैसे भी इस बारे में जो कुछ कुंवर महेन्द्र सिंह बेदी 'सहर', 'साहिर' होशियारपुरी, रामकृष्ण 'मुज़्तिर", पदमश्री राजेन्द्र कुमार, साहित्य समीक्षक इन्द्रकुमार कक्कड़, 'विकल' ज़ेबाई, अवधेश कुमार, राशिद जमाल 'फ़ारूकी' और दीगर साहिबान, लिख चुके हैं, उसके बाद लिखने को कुछ भी बाकी नहीं रह जाता। अलबता अपनी जानिब से मैं 'लफ्जों की दीवार' कविता-संग्रह से चंद अशार दर्ज करना चाहूंगा, ताकि पढ़ कर आप खुद अंदाज़ा लगा सकें, कि जनाब 'कंवल' ज़ियायी का, उर्दू और हिंदी के मौजूदा दौर में, शायरी का क्या मकाम है।
लफ्ज़ों की दीवार के आगे अक्स उभर आया है किसकाखंजर लेकर कौन खड़ा है लफ्ज़ों की दीवार के पीछे
मैं छुप कर घर में आना चाहता हूंलगी है किस गली में घात लिखना
जिंदगीं आज है इक ऐसे अपाहिज की तरहला के जंगल में जिसे छोड़ दिया बच्चों नेआज के दौर की तहज़ीब का पत्थर लेकरएक दीवाने का सिर फोड़ दिया बच्चों ने
हमारा खून का रिश्ता है सरहदों का नहींहमारे खून में गंगा भी है चिनाव भी है
हम न हिंदु हैं न मुसलिम है फ्क़त इन्सां हैंहम फ़कीरों की कोई ज़ात नहीं है भाईदोस्ती उड़ती हुई गर्द है वीरानों कीदोस्ती फूलों की बरसात नहीं है भाई
मैं भी इन्सां हूं तू भी इन्सां हैक्यों मुझे देखता है खुदा की तरह
इक इन्कलाब आके मेरे पास रूक गयामुझ से ही मेरे घर का पता पूछता हुआतू मुझ को क्या पढ़ेगी ऐ निगाह-ए-वक्तवो खत हूं जिसका हर लफ्ज़ है मिटा हुआ
सोच रहा हूं कदम बढ़ाऊं किस जानिबआगे आग का दरिया है पीछे सूली है
कांधों पर रख के अपने फ़रायज़ के बोझ कोअपने ही घर में हम रहे मेहमान की तरह
वोह शख्स मेरे सामने मुजरिम की तरह हैमैं उस के रूबरू हूं गुनाहगार की तरह
मुफ़लिस तो हूं ज़रूर बिकाऊ नहीं हूं मैंक्यों मुझको देखता है खरीदार की तरह
साफ़ था जब ज़ीस्त का शीशा तो आंखें खुश्क थींज़ीस्त के शीशे में बाल आया तो रोना आ गया
हमारी मुफ़लिसी की आबरू इसी में हैन तुझ से मैं ही कुछ मांगू न मुझ से तू मांगे
जिन जंगलों में छोड़ गई हम को ज़िदगींउन जंगलों से लौट कर कोई न घर गया
पेट के शोलों का जब आयेगा होंटों पर सवालएक रोटी से करेंगे मेरा सौदा आप भीधज्जियां जिस की उड़ा दी हैं बदलते वक्त नेदरम्यां इक दिन गिरा देंगे वोह पर्दा आप भी
सुना है आप के हाथों में इक करिश्मा हैजो हो सके तो सकूने-ए-अवाम लौटा दो
बातचीत के दम पर आओ वक्त काट लेंदोस्ती पे गुफ्तगू दोस्ती से बेहतर है
जब से खाई है कसम तुमने वफ़ादारी कीइक नये रूप का इनसान निकल आया हैजिस को दरवेश समझ बैठे थे बाज़ार के लोगवोह इसी शहर का धनवान निकल आया है
अपनी ही जगह अच्छी अपना ही मकाम अच्छाअम्बर से उतर आओ धरती पे चलो यारो
हम किसी तौर-ए-तअल्लुक के नहीं कायलजो सज़ा हम को सुनानी है सुना दी जाये
शक सा होने लगा है देख कर माहौल कोघर को शायद लूट लेना चाहते हैं घर के लोग
अब न दीवाना कोई है न कोई उठती नज़रघर का दरवाज़ा अंधेरे में खुला रहने दोमौत अपनी का तमाशा भी तो खुद देख सकेहर नई लाश की आंखों को खुला रहने दो
चंद साँसों के लिये बिकती नहीं है खुद्दारीज़िंदगीं हाथ पे रखी है उठा कर ले जा
'कंवल" ज़ियायी साहब ने, एक कलर्क का आम जीवन भी हँसते-खेलते और बड़ी शान के साथ व्यतीत किया है। उसी अल्प आय में, उन्होंने बच्चों को पाला, पढ़ाया-लिखाया और शादियां कीं। उर्दू साहित्य में आज वे जिस मकाम पर हैं, वहां तक पहुंचाने में, निश्चित ही आदरणीया श्रीमती वेदरानी दत्ता साहिबा का बड़ा हाथ रहा है, जिन्होंने 'कंवल" साहब की शायरी को, कभी 'सौत" नहीं माना और ज़िंदगीं के हर एक नरम या सख्त दौर में, एक आदर्श भारतीय नारी की तरह पति का साथ दिया और सेवा की है। उन्हीं से सुनी एक दिलचस्प घटना का ज़िक्र कर रहा हूं। एक बार किसी महफ़िल में, चंद दोस्तों ने शरारतन, 'कंवल" साहब के कपड़ों पर शराब छिड़क दी। वे दरअसल देखना चाहते थे, कि 'कंवल" साहब जब घर तशरीफ़ ले जायेंगे, तो भाभी जी उनका किस तरीके से इस्तकबाल करती हैं। वे घर पहुंचे और 'कंवल" साहब के कपड़ों से निकलती गंध नाक तक पहुंची, तो उन्होंने हंसते हुए महज़ इतना ही दरियाफ्त किया, 'यह शरारत किसने की है?'