टंटा-शब्द के उस नामकरण के पीछे कई दिमाग लगे थे. सुनील कैन्थोला की असंदिग्ध मौलिक प्रतिभा का सहयोग तो था ही, टंटों की सामूहिक चेतना ने इसे और ऊंचाई दी. होने यह लगा कि शहर के तमाम साहित्यिक , सांस्कृतिक कार्य-क्रमों में बाकायदा टंटा-समिति के नाम निमन्त्रण पत्र आने लगे.व्यक्तिगत-स्तर पर हर टिप-टापिया अपने को टंटा समझता था किंतु टंटा-पन को लेकर सार्वजनिक खिंचाई में चूकता भी नहीं था.शायद सर्वजनिक धिक्कार की भर्त्सना करना भी टंटों के पुनीत कर्तव्यों में से एक रहा है.अवधेश की एक कविता है- माचिस जिसकी शुरुआती पंक्तियां यूं हैं
माचिस एक आग का घर है
जिसमें बावन सिपाही रह्ते हैं
जिनके सिरों पर बारूद भरा है
इस कविता की पैरोडी बनायी गयी जो दुर्भाग्य से अब मुझे याद नहीं है. यह पैरोडी उस जगह चस्पा कर दी गयी जिसे अमूमन दुकानदार लम्बे इन्तजार और कई तकादों की अप्रिय प्रक्रिया के बाद थक कर उन देनदारों का नाम सार्वजनिक करने के लिये चुनते हैं जिनकी देनदारी की रकम बर्दाश्त ली सीमा ले बाहर जाती नजर आने लगती है.टिप-टाप में ऐसे देनदार बहुत थे-लगता था जैसे उस सांस्कृतिक हलचलों से भरपूर समय में उधार न चुका कर प्रदीप गुप्ता पर बडा अहसान कर रहे हैं.कुछ के पास पैसे ही नहीं होते थे!
बहरहाल अवधेश ने पैरोडी पढी-उसकी प्रशंसा की और पैरोडीकारों की त्रुटियों को बाकायदाअपने हाथ से दुरूस्त कर चिपका दिया!अब टंटा गतिविधि में यह क्रिया भी शामिल हो गयी-पैरोडी.कुछ टंटे तो यह तक मानने लगे कि यह जीवन अगर सृष्टिकर्ता की रचना है तो इस जीवन को जीने वाला उसका पैरोडीकार!उन्ही दिनों टंटों के बीच दर्द भोगपुरी का आगमन हुआ.ये साहब शायरी सीखना चाहते थे और शायराना तबियत के मालिक थे - यह बात दीगर है कि शायराना तबियत के बारे में उनके विचार हमेशा बदलते रहते थे. तो दर्द भोगपुरी ने हरजीत से इस्लाह लेने का इरादा किया और कुछ पंक्तियां सुनाकर जानना चाहा कि इनमें शायरी है भी या नही.और अगर शायरी नहीं है तो इनमें पैदा कर दे! हरजीत ने सुना बहुत देर तक सोचा .आहिस्ता -आहिस्ता अपना चश्मा दुरूस्त किया और बोला,"दर्द साहब!यूं ही कहते जाईये . सही समय पर खुद समझ जायेंगे कि शायरी है या नहीं.और रही बात दुरूस्त करने की तो जब उसका भी वक्त आयेगा तो खुद ब खुद शे’र हो जायेगा."
दर्द साहब ने कुछ लोगों से सुना था कि कि हरजीत कभी उर्दू की नशिश्तों मे जाया करता था और राजेश पुरी तूफ़ान का शागिर्द रहा.प्रसंगवश तूफ़ान साहब से एक मुलाकात मुझे भी याद है-अतुल शर्मा के साथ.गांधी पार्क की बगल में एक नये खुले टी हाउस में ( वह ज्यादा नहीं चल सका).वहां उन्होंने एक पते की बात बतायी थी-अच्छा शे’र वह होता है जो गद्य और पद्य में एक सा रहे यानि उसका अन्वय न करना पडे- उदाहरण के रूप में उन्होंने मीर के बहुत से शे’र उद्धृत किये थे.एक मुझे याद आ रहा है
नाजुकी उन लबों की क्या कहिये
पंखुडी कोई गुलाब की सी है
खैर एक रोज दर्द साह्ब के साथ अजब वाकया पेश आया. वे टिप-टाप मे बैठे थे कि दो महिलायें एक सूर्ख गुलाब लिये दर्द साहब को पूछती चली आयीं.थोडा सकुचाते ,कुछ हिचकिचाते हुए उन्होंने वह गुलाब कुबूल किया - मेज के किनारे रखा और प्रदीप गुप्ता को उधार की चाय का आर्डर दिया.दर्द साहब सूर्ख गुलाब का सबब समझ नहीं पा रहे थे .तभी वहां हरजीत का आगमन हुआ.उसने मंजर देखा , प्रदीप गुप्ता से कुछ बात की और फिर उस सार्वजनिक पोस्टर -स्थल से अवधेश की पैरोडी हटाकर एक नया शे’र चस्पां कर दिया
शराबो- जाम के इस दर्जः वो करीब हुए
जो दर्द भोगपुरी थे गटर-नसीब हुए
इसे पढ़्कर दर्द भोगपुरी ने ,जाहिर है, राहत की सांस ली
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Tuesday, December 7, 2010
Thursday, April 29, 2010
हरजीत की गज़लें
पिछली पोस्ट में नवीन मैठाणी जी ने हरजीत सिंह का एक पोस्टर लगाया था। इस पोस्ट में मैं उनकी दो गज़लें लगा रही हँ।
1.
जो अपने खून में जारी नहीं है
अदाकारी अदाकारी नहीं है
सभी फूलों में जितना खौफ है अब
ख़िजाँ की इतनी तैयारी नहीं है
ख़ला में जो भी मेरे हमसफर हैं
कोई हल्का कोई भारी नहीं है
निकलकर घर की दीवारों से बाहर
कोई भी चारदीवारी नहीं है
सभी मेहनत से बचना चाहते हैं
वगरना इतनी बेकारी नहीं है
मैं उनके खेल में शामिल हूँ लेकिन
वो कहते हैं मेरी बारी नहीं है
2.
उसके लहजे में इम्तिहान भी था
और वो शख्स बदगुमान भी था
फिर मुझे दोस्त कह रहा था वो
पिछली बातों का उसको ध्यान भी था
सब अचानक नहीं हुआ यारों
ऐसा होने का कुछ गुमान भी था
देख सकते थे छू न सकते थे
काँच का पर्दा दरमियान भी था
रात भर उसके साथ रहना था
रतजगा भी था इम्तिहान भी था
आई चिड़ियाँ तो मैंने ये जाना
मेरे कमरे में आसमान भी था
हरजीत सिंह
1.
जो अपने खून में जारी नहीं है
अदाकारी अदाकारी नहीं है
सभी फूलों में जितना खौफ है अब
ख़िजाँ की इतनी तैयारी नहीं है
ख़ला में जो भी मेरे हमसफर हैं
कोई हल्का कोई भारी नहीं है
निकलकर घर की दीवारों से बाहर
कोई भी चारदीवारी नहीं है
सभी मेहनत से बचना चाहते हैं
वगरना इतनी बेकारी नहीं है
मैं उनके खेल में शामिल हूँ लेकिन
वो कहते हैं मेरी बारी नहीं है
2.
उसके लहजे में इम्तिहान भी था
और वो शख्स बदगुमान भी था
फिर मुझे दोस्त कह रहा था वो
पिछली बातों का उसको ध्यान भी था
सब अचानक नहीं हुआ यारों
ऐसा होने का कुछ गुमान भी था
देख सकते थे छू न सकते थे
काँच का पर्दा दरमियान भी था
रात भर उसके साथ रहना था
रतजगा भी था इम्तिहान भी था
आई चिड़ियाँ तो मैंने ये जाना
मेरे कमरे में आसमान भी था
हरजीत सिंह
Thursday, March 20, 2008
फेंटा
कल यानी 19 मार्च 2008 को नवीन भाई (नवीन नैथानी) और मैं साथ थे। शिरीष कुमार मौर्य का ब्लाग देख रहे थे। हरजीत याद आ गया। नवीन भाई कह रहे थे, ''आज हरजीत होता तो ब्लाग पर जुटा होता।'' ऐसे जैसे स्पीक मेके के साथ जुटा रहता था, जैसे समय साक्ष्य के साथ और जैसे बाद में बच्चों के खिलौने बनाने में जुट गया था। कभी कभी एकलव्य के साथ भी। कोई कभी पूरी तरह से कभी नहीं जान पाया वह कहॉं-कहॉं जुटा है इन दिनों। ब्लाग पर भी होता तो सिर्फ अपने ही नहीं ढेरों अपने तरहों के साथ होता। कम्बख्त समय से पहले चला गया। वह हुनरमंद कारीगर था लकड़ी का। गज़ल कहता था। स्केच करता था। फोटोग्राफी करने लगा था। फोटोग्राफी सीखाने वाला हुआ अरविन्द शर्मा। वही अरविन्द जिसका पता ठिकाना था - ''टिप टॉप''। आजकल कहां है, मैं नहीं जानता। मैं तो सिर्फ इतना जानता हूं अहमदाबाद में है। हमारा देहरादूनिया भाई सूरज प्रकाश शायद जानता होगा उसका पता। अहमदाबाद आना जाना अरविन्द का पहले भी होता ही रहता था। अहमदाबाद में उसके परिवार के लोग जो ठहरे। भाई सूरज प्रकाश को वहीं से खोज कर लाया था वह और हम सब जानने लगे फिर सूरज भाई को।
जी हॉं, उसी अरविन्द शर्मा का जिक्र कर रहा हूं मैं जिसकी आंखें बेशक कैमरे की आंख में अपनी आंख गढ़ा ऑब्जेक्ट का सही फोकस न कर पाती हों पर दूरी के अनुमान से खींची गयी उसकी तस्वीरों को देखकर मजाल है किसी की जो उसके होंठ खुद ही न खुल जाएं - वाह। क्या क्लीयरटी है, क्या ऐंगल है।
उसके खींचे हुए पेडों के न्यूड कभी देख लें तो जान जायेगें कि मित्रतावश नहीं कह रहा हूं। हरजीत का या अवधेश का या कवि जी (सुखबीर विश्वकर्मा) का जिक्र हो तो कविता फोल्डर निकालने वाले उस अरविन्द शर्मा की याद न आए, ऐसा असंभव है। हो सकता है यह मेरा अरविन्द से खासा लगाव हो। अन्य मित्रों की यादों में उसकी तस्वीर न जाने कब उभर जाती है। यदि हरजीत के शब्दों को उधार लेकर कहूं तो शायद कह पाउं -
जब भी ऑंगन धुयें से भरता हैदिन हवाओं को याद करता है
साफ़ चादर पे इक शिकन की तरह मेरी यादों में तू उभरता है
हरजीत के बहाने वह अरविन्द याद आ रहा है जो अपनी रचनाओं को कभी तरतीब से न रख पाया। न जाने अब भी लिखता है या नहीं।
एक बार टिप-टॉप में अरविन्द ने अपना थैला खोला। वही थैला, जिसमें कैमरा, फिल्म, समय बे समय खींचे गये किसी के भी चित्र जो जब तस्वीर के ऑब्जेक्ट की तलाश कर लेते तो अरविन्द की रोजी रोटी का जुगाड़ हो जाते, रखे रह्ते और उसकी रचनाएं जो पन्नों के रुप में बिखरी पड़ी होतीं, वे भी उसी में। ज्यादातर कविताएं या आलेख जो किसी अखबार के पृष्ठ पर छपने को कसमसा रहे होते। पर उस दिन अरविन्द ने कागजों को जो पुलिंदा निकाला तो वो उपन्यास था।
''मैं आज तुम लोगों को उपन्यास सुनाता हूं।"" उसने कहा और लगा पढ़ने।
पहला पेज पढ़ने के बाद उसे क्रमवार दूसरा पेज ही नहीं मिला उसे। जो पढ़ा वो न जाने कौन से क्रम का था। पहले पढ़े गये पृष्ठ से वह जुड़ ही नहीं पाया। दूसरा पृष्ठ समाप्त तीसरा पढ़ा जाने वाला पृष्ठ संभवत: पच्चीसवां या तीसवॉं ही रहा हो शायद। ऐसे कईयों पृष्ठ पढ़े गये।
जीवन में कभी क्रम से न चल पाने वाला अरविन्द आखिर लिखने में कैसे क्रमवार रहता।
राजेश भाई (राजेश सकलानी) ने पूछा -''उपन्यास का शीर्षक क्या है अरविन्द ?"
जवाब हरजीत ने दिया -"फेंटा।"
और अरविन्द के हाथ से उसने उपन्यास रुपी कागजों का बण्डल झपटकर ताश की गड्डी की तरह उसे फेंटा और जोर-जोर से पढ़ने लगा- फ़ेंटा।
प्रस्तुत हैं हरजीत सिंह की गज़लें और शेर -
सोचकर सहमी हुई खामोश आवाज़ों के नाम
कितने खत लिक्खे हैं मैंने बंद दरवाज़ो के नाम
झील के पानी को छूकर जब हवा लहरायेगी
याद आयेगें मुझे तब कितने ही साज़ों के नाम
पत्थ्रों के बीच ये सरगोशियॉं कैसी भला
कोई साज़िश चल रही है आईनासाज़ो के नाम
कितने दीवारों को काला कर गया इक हादसा
इस बहाने पढ़ लिये लोगों ने लफ्फ़ाजों के नाम
फूल मसले, बाग लूटे, और खुश्बू छीन ली
मुल्क होता जा रहा है कुछ दगाबाज़ों के नाम
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
रेत बनकर ही वो हर रोज़ बिखर जाता है
चंद गुस्ताख्ा हवाओं से जो डर जाता है
इन पहाड़ों से उतर कर ही मिलेंगीं बस्ती
राज़ ये जिसको पता है वो उतर जाता है
बादलों ने जो किया बंद सभी रास्तों को
देखना है कि धुऑं उठके किधर जाता है
लोग सदियों से किनारे पे रुके रहते हैं
कोई होता है जो दरिया के उधर जाता है
घर की नींव को भरने में जिसे उम्र लगे
जब वो दीवार उठाता है तो मर जाता है
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इक शख्स मेरे घ्ार में कई साल तक रहा
किस नाम से रहा है मुझे खुद पता नहीं
मेरे अहसास पे उभरा है इस तरह कोई कॉच पर जैसे कि उंगली का निशॉ रहता है
हम किसी और बात पे खुश हैं
तेरा मिलना तो इक बहाना है
कोई चुप र हके छुपा लेता है उन बातों को
जिसके कहने से उसे लोग समझ ही न सकें
जी हॉं, उसी अरविन्द शर्मा का जिक्र कर रहा हूं मैं जिसकी आंखें बेशक कैमरे की आंख में अपनी आंख गढ़ा ऑब्जेक्ट का सही फोकस न कर पाती हों पर दूरी के अनुमान से खींची गयी उसकी तस्वीरों को देखकर मजाल है किसी की जो उसके होंठ खुद ही न खुल जाएं - वाह। क्या क्लीयरटी है, क्या ऐंगल है।
उसके खींचे हुए पेडों के न्यूड कभी देख लें तो जान जायेगें कि मित्रतावश नहीं कह रहा हूं। हरजीत का या अवधेश का या कवि जी (सुखबीर विश्वकर्मा) का जिक्र हो तो कविता फोल्डर निकालने वाले उस अरविन्द शर्मा की याद न आए, ऐसा असंभव है। हो सकता है यह मेरा अरविन्द से खासा लगाव हो। अन्य मित्रों की यादों में उसकी तस्वीर न जाने कब उभर जाती है। यदि हरजीत के शब्दों को उधार लेकर कहूं तो शायद कह पाउं -
जब भी ऑंगन धुयें से भरता हैदिन हवाओं को याद करता है
साफ़ चादर पे इक शिकन की तरह मेरी यादों में तू उभरता है
हरजीत के बहाने वह अरविन्द याद आ रहा है जो अपनी रचनाओं को कभी तरतीब से न रख पाया। न जाने अब भी लिखता है या नहीं।
एक बार टिप-टॉप में अरविन्द ने अपना थैला खोला। वही थैला, जिसमें कैमरा, फिल्म, समय बे समय खींचे गये किसी के भी चित्र जो जब तस्वीर के ऑब्जेक्ट की तलाश कर लेते तो अरविन्द की रोजी रोटी का जुगाड़ हो जाते, रखे रह्ते और उसकी रचनाएं जो पन्नों के रुप में बिखरी पड़ी होतीं, वे भी उसी में। ज्यादातर कविताएं या आलेख जो किसी अखबार के पृष्ठ पर छपने को कसमसा रहे होते। पर उस दिन अरविन्द ने कागजों को जो पुलिंदा निकाला तो वो उपन्यास था।
''मैं आज तुम लोगों को उपन्यास सुनाता हूं।"" उसने कहा और लगा पढ़ने।
पहला पेज पढ़ने के बाद उसे क्रमवार दूसरा पेज ही नहीं मिला उसे। जो पढ़ा वो न जाने कौन से क्रम का था। पहले पढ़े गये पृष्ठ से वह जुड़ ही नहीं पाया। दूसरा पृष्ठ समाप्त तीसरा पढ़ा जाने वाला पृष्ठ संभवत: पच्चीसवां या तीसवॉं ही रहा हो शायद। ऐसे कईयों पृष्ठ पढ़े गये।
जीवन में कभी क्रम से न चल पाने वाला अरविन्द आखिर लिखने में कैसे क्रमवार रहता।
राजेश भाई (राजेश सकलानी) ने पूछा -''उपन्यास का शीर्षक क्या है अरविन्द ?"
जवाब हरजीत ने दिया -"फेंटा।"
और अरविन्द के हाथ से उसने उपन्यास रुपी कागजों का बण्डल झपटकर ताश की गड्डी की तरह उसे फेंटा और जोर-जोर से पढ़ने लगा- फ़ेंटा।
प्रस्तुत हैं हरजीत सिंह की गज़लें और शेर -
सोचकर सहमी हुई खामोश आवाज़ों के नाम
कितने खत लिक्खे हैं मैंने बंद दरवाज़ो के नाम
झील के पानी को छूकर जब हवा लहरायेगी
याद आयेगें मुझे तब कितने ही साज़ों के नाम
पत्थ्रों के बीच ये सरगोशियॉं कैसी भला
कोई साज़िश चल रही है आईनासाज़ो के नाम
कितने दीवारों को काला कर गया इक हादसा
इस बहाने पढ़ लिये लोगों ने लफ्फ़ाजों के नाम
फूल मसले, बाग लूटे, और खुश्बू छीन ली
मुल्क होता जा रहा है कुछ दगाबाज़ों के नाम
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रेत बनकर ही वो हर रोज़ बिखर जाता है
चंद गुस्ताख्ा हवाओं से जो डर जाता है
इन पहाड़ों से उतर कर ही मिलेंगीं बस्ती
राज़ ये जिसको पता है वो उतर जाता है
बादलों ने जो किया बंद सभी रास्तों को
देखना है कि धुऑं उठके किधर जाता है
लोग सदियों से किनारे पे रुके रहते हैं
कोई होता है जो दरिया के उधर जाता है
घर की नींव को भरने में जिसे उम्र लगे
जब वो दीवार उठाता है तो मर जाता है
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
इक शख्स मेरे घ्ार में कई साल तक रहा
किस नाम से रहा है मुझे खुद पता नहीं
मेरे अहसास पे उभरा है इस तरह कोई कॉच पर जैसे कि उंगली का निशॉ रहता है
हम किसी और बात पे खुश हैं
तेरा मिलना तो इक बहाना है
कोई चुप र हके छुपा लेता है उन बातों को
जिसके कहने से उसे लोग समझ ही न सकें
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