ताइवान : प्रतिरोध की कविता
आज से करीब सोलह साल पहले ताइवान के हजारों कारखाना मजदूरों को बढ़ती प्रतिद्वंद्विता को देखते हुए उत्पादों की लागत कम करने के नाम पर बगैर कोई हर्जाना दिए नौकरी से निकाल दिया गया था। अचानक आई इस बिपदा से मजदूरों और उनके परिवारों का जीवन छिन्न भिन्न हो गया ,हाँलाकि यूनियनों के हस्तक्षेप से यह रहत मिली कि सरकारी श्रम विभाग उनको कुछ राशि "ऋण" के तौर पर देने को तैयार हो गया जो बाद में दोषी कारखाना मालिकों से वसूल लिया जाना था। अब सोलह साल बाद सरकार ने लाभार्थी मजदूरों ( जिनमें से अधिकतर अब मौत के मुंह पर दस्तक दे रहे हैं) को दिए गए "ऋण" को वापस लेने के लिए कानूनी अभियान चलाया है। गैर कानूनी ढंग से सरकारी ऋण डकार जाने का अभियोग उन मजदूरों पर लगाया गया है और कोर्ट में मुकदमा चलाया जा रहा है।
ताइवान के एक कलाकार लेखक "BoTh Ali Alone" ( सरकारी दमन से बचने के लिए रखा गया छद्म नाम) ने इस घटना को रेखांकित करते हुए और पीड़ित मजदूरों की तकलीफ से खुद को अलग और मसरूफ रखने वाले सुविधा संपन्न वर्ग की ओर इशारा करते हुए एक कविता लिखी।
http://globalvoicesonline.org/2013/02/11 से ली गयी यह कविता यहाँ प्रस्तुत है:
प्रस्तुति : यादवेन्द्र
यह एक द्वीप है जिसपर लोगबाग़
लगातार ट्रेन में चढ़े रहते हैं
जब से उन्होंने कदम रखा धरती पर।
उनके जीवन का इकलौता ध्येय है
कि आगे बढ़ते रहें रेलवे के साथ साथ
उनकी जेबों में रेल का टिकट भी पड़ा रहता है
पर अफ़सोस,रेल से बाहर की दुनिया
उन्होंने देखी नहीं कभी ...
डिब्बे की सभी खिड़कियाँ ढँकी हुई हैं
लुभावने नज़ारे दिखलाने वाले मॉनीटर्स से।
ट्रेन से नीचे कदम बिलकुल मत रखना
एक बार उतर गए ट्रेन से तो समझ लो
वापस इसपर चढ़ने की कोई तरकीब नहीं ...
तुम आस पास देखोगे तो मालूम होगा
सरकार बनवाती जा रही है रेल पर रेल
जिस से यह तुम्हें ले जा सके चप्पे चप्पे पर
पर असलियत यह है कि इस द्वीप पर बची नहीं
कोई जगह जहाँ जाया जा सके अब घूमने फिरने
क्यों कि जहाँ जहाँ तक जाती है निगाह
नजर आती है सिर्फ रेल ही रेल।
जिनके पास नहीं हैं पैसे रेल का टिकट खरीदने के
वे किसी तरह गुजारा कर रहे हैं रेल की पटरियों के बीच ..
जब कभी गुजर जाती है ट्रेन धड़धड़ाती हुई उनके ऊपर से
डिब्बे के अन्दर बैठे लोगों को शिकायत होती है
कि आज इतने झटके क्यों खा रही है ट्रेन।