मैं आगे, जमाना है पीछे
डॉ रश्मि रावत
खेलों
के महाकुम्भ में विश्व भर की आँखें मेगा प्रतियोगिताओं में लगी रहती हैं। उस वक्त
लैंगिक समानता के संदेश प्रभावी ढंग से सम्प्रेषित होते हैं। सितारे खिलाड़ी जो
करते,
जो बोलते हैं उनका लोगों पर बहुत प्रभाव पड़ता है। इसलिए वे निजी
कम्पनियों के ही नहीं सामाजिक प्रगति के भी ब्रांड अम्बेसडर हो सकते हैं। इस
दृष्टि से हाल ही में सम्पन्न हुए एशियाड 2018 में भारतीय खिलाडि़यों का कुल
प्रदर्शन चाहे पदकों के लिहाज से पूर्व की स्थिति में खास इजाफा करता हुआ न भी
दिखा हो तो भी सामाजिक वातावरण में स्त्री चेतना के बदलावों की एक झलक जरूर
दिखायी दी है। स्वप्ना बर्मन, हिमा दास, द्युतिचंद, हर्षिता तोमर, विनेष
फोगट, राही सरनोवत, पी.वी. संधु,
सानिया नेहवाल समेत कई अन्य स्त्री खिलाड़ियों ने ट्रेक पर अपनी
दमदार उपस्थिति दर्ज करते हुए इस बात को एक बार फिर साबित कर दिया है कि यह बीत
चुके जमाने की बात हो चुकी है जब खेल के मैदान सिर्फ पुरुषों के लिए होते थे।
भारतीय
महिला खिलाडि़यों के ऐसे प्रदर्शन को इस दृष्टि से भी देखा जाना जरूरी है कि वैश्विक
स्तर पर स्त्रिायों के प्रति जो सामाजिक बदलाव आ रहे हैं, वे उसके साथ अपनी संगति
बैठाने की पुरजोर कोशिश कर रही हैं। सन् 1991 के बाद से केवल वही नए खेल ओलम्पिक
में शामिल किए जा सकते हैं जिनमें स्त्री खिलाड़ियों की भागीदारी हो। यह एक तथ्य
है कि सन् 1900 में पेरिस ओलम्पिक में महिलाओं ने पहली बार हिस्सा लिया था। लेकिन
उस वक्त कुछ सीमित खेलों में ही उनकी भागेदारी हो पाती थी। लेकिन सन् 2012 वह
पहला वर्ष था जब ओलम्पिक में सभी खेलों में स्त्रियों ने भागीदरी की। 2012 के लंदन
ओलम्पिक के बाद से कहा जा सकता है कि सफलता से सरपट दौड़ने के लिए मैदान स्त्रियों
के लिए उसी तरह खुल चुके हैं जिस तरह पुरुषों के लिए।
इस
तरह से देखें तो खेलों में स्त्रियों की हिस्सेदारी का यह बनता हुआ नया इतिहास
है। गत कुछ वर्षों में महिलाएँ अपनी मजबूत उपस्थिति विभिन्न खेलों में निरंतर दर्ज करती जा रही हैं। उम्मीद की जा सकती है कि खेल-जगत में स्त्रियों की
उपलब्धि का हर एक कदम समाज में सदियों से व्याप्त लैंगिक विषमता को दमदार धक्का
लगाने में सक्षम हो सकेगा। एशियाड 2018 में भारतीय महिला खिलाड़ियों के प्रदर्शन
अभूतपूर्व रूप से उल्लेखनीय हैं। नए से नए रिकॉर्ड बनाते हुए वे आगे बढ़ती हुई दिखी हैं। इस
सफलता को सिर्फ पदकों से ही नहीं नापा जा सकता। पदक प्राप्त न भी कर पायी
खिलाडि़यों के प्रदर्शन इस बात की गवाही देते हुए हैं कि प्रतिभा संपन्न, जूझारू,
शारीरिक रूप से सक्षम, भारतीय स्त्री आज अपनी
संपूर्ण ऊर्जा के साथ आगे बढ़ना चाहती हैं। विश्व स्तर की सुविधाएँ, प्रशिक्षण, उपकरण इत्यादि मिले तो निश्चित ही वे
वैश्विक स्तर की ऊंचाइयों को छू पाने में कामयाब होंगी।
हाल
के प्रदर्शनों का एक दिलचस्प पहलू इस रूप में भी दिखायी दे रहा है कि महिलाओं की
उत्कृष्ट उपलब्धियाँ अधिकतर वैयक्तिक स्पर्धाओं में देखने को मिली। एथलेटिक्स, शूटिंग,
तीरंदाजी, पहलवानी, बैडमिंटन,
मुक्केबाजी जैसी स्पर्धाओं में उनकी उपस्थिति ने आश्चर्यजनक रूप से
चकित किया है। हिमा दास, स्वप्ना बर्मन जैसे कई नाम हैं जो
छोटी-छोटी जगहों से निकल कर मेहनत और संकल्प-शक्ति के बल पर अपना आकाश गढ़ते हुए
नजर आयी हैं। एशियाड 2018 से पूर्व में दीपा कर्माकार को याद करें जिसने अपने
लाजबाब प्रदर्शन से ओलम्पिक में जिम्नास्टिक्स प्रतिस्पर्धा में अपने लिए जगह
बनायी थी। साक्षी मलिक, दीपा कर्मकार, पी.वी.
सिंधु. अदिति अशोक के उत्कृष्ट प्रदर्शन के कारण ही 2016 के रियो ओलम्पिक को ‘इयर ऑफ इंडियन वुमेन इन स्पोर्ट्स’ कहा गया
था। सानिया नेहवाल, पी.वी.सिंधु, सानिया
मिर्जा, अंजली भागवत, फोगट बहनें,
ज्वाला गुट्टा, कर्णम मल्लेश्वरी, मैरी कॉम, अश्विनी, मिताली राज,
हरमीन प्रीत, रानी रामपाल.........बहुत लम्बी
सूची है महिला खिलाड़ियों की जिन्होंने विभिन्न खेलों में विश्व स्तर पर अपनी
सफलता के झंडे गाड़े हैं।
एकल प्रदर्शनों के इतर टीम खेलों में स्त्रियां आगे बढ़ती
हुई नजर आने लगी हैं। भारतीय महिला हॉकी टीम एशियाड में 20 साल बाद फाइनल तक
पहुँची और बेहतर खेली। महिला क्रिकेट भी वैश्विक स्तर पर अपनी जगह बनाते हुए
दिखने लगी है।
एकल प्रारूप वाले खेलों और टीम प्रारूप खेलों के आंकलन इस
बात के भी गवाह हैं कि जितने संसाधन, प्रोत्साहन और लोकप्रियता महिला
खिलाडि़यों को मिलनी चाहिए, उसका शतांश भी क्या इन्हें
मिलता है? जिन खेलों के लिए मजबूत टीम और संशाधनों की
दरकार है, वहाँ तो खिलाड़ियों की पूरी कोशिश भी उन्हें ऊँचे
मुकाम तक नहीं पहुँचा सकती जब तक संस्थानों का सुनियोजित सहयोग न मिले। दूसरा वह
सामाजिक पहलू जो सामूहिक स्पर्धा में अवरोध बना हुआ है, उसको दरकिनार नहीं किया
जा सकता। सामूहिक स्पर्धाओं में लड़की होने के नाते बहुत से नुक्सान स्कूल स्तर
ही उठाने पड़ते हैं। बॉलीबॉल, फुटबाल, क्रिकेट
आदि खेलों में स्कूल और कॉलेजों में टीम ही नहीं बन पाती। खेलने की शौकीन सक्षम
खिलाड़ियों को मन मसोस कर लड़कों के खेल का मूक दर्शक बन जाना पड़ता है। उनके लिए
अनुकूल माहौल बनाना, उनके मार्ग की बाधाओं को दूर करना सारे
समाज की जिम्मेदारी है। स्कूली स्तर पर लड़के-लड़कियों के खेल एक साथ होने से
लैंगिक समरसता का माहौल भी उभार ले सकता है। लड़कियों के लड़कों के साथ खेलने का
अवसर मिलेगा तो टीम न बनने के कारण उन्हें खेल छोड़ना नहीं पड़ेगा ओर दूसरे उन्हें
मजबूत टीम के साथ खेलने और अभ्यास करने का मौका मिलेगा। इससे उनका भरपूर विकास
होगा। मनोवैज्ञानिक ढंग से भी उनके भीतर खुद को स्वस्थ व्यक्तित्व के रूप में
विकसित करने का दायित्व उपजेगा। उनका खाना-पीना-खुद की भरपूर देखभाल करना सम्भव हो
पाएगा। वर्ना अक्सर लड़कियाँ अपने शरीर और जरूरतों के प्रति सहज नहीं रह पातीं और
फिर आइरन या किसी अन्य पोषक तत्व की कमी से जूझती हैं। खेलने वालियों की संख्या
अभी कम है इसलिए उन्हें स्थानीय स्तर पर अभ्यास करने के लिए बराबर या बेहतर
प्रतिद्वंद्वी नहीं मिल पातीं हैं। महावीर फोगट जैसी संकल्प शक्ति की जरूरत है जो
हर प्रतिकूलता से टकरा कर भी बेटियों को पहलवान बनाने का सपना पूरा करता है। फोगट
परिवार अपनी बेटियों की उपस्थिति से ही चर्चा का केन्द्र बनता हुआ है जिसने हरियाणा
जैसे राज्य की लैंगिक सोच के ठहरे पानी में हलचल मचा दी और घर-घर में ये विचार
उपजा कि “म्हारी छोरियाँ क्या छोरों से कम हैं”। अगर महावीर ठान नहीं लेते तो उनकी बेटियाँ तो वैसी ही जिंदगी जी रही थीं
जैसी समाज ने लड़कियों के लिए तय की होती है। वैसा ही खाना-पीना-पहनना। लड़कों के
साथ लड़कियों को पहलवानी वह न करवाते तो कैसे उनका विकास होता। उन्हें खूब पौष्टिक
खिलाना, जरूरत भर नींद, आराम...
सुंदरता के मिथक से मुक्त व्यक्तित्व के रूप में विकसित करना। यही हर स्तर पर किए
जाने की जरूरत है। शरीर जब स्वस्थ रहता है तो ऊर्जा अपने निकास के लिए स्वस्थ
मार्ग खोजती है। आज के उपभोक्तावादी दौर में लड़कियों पर फिर से कोमल, नाजुक, कमसिन, चिकनी बने रहने
का इतना अधिक दवाब है कि मध्य-उच्च वर्गीय लड़कियाँ भर पेट खाती नहीं हैं और निम्न
वर्ग की लड़कियों को पौष्टिक खाना उपलब्ध नहीं हो पाता। राष्ट्रीय-अतंर्राष्ट्रीय
स्तर पर भी 16 वर्ष तक के लड़कों-लड़कियों की स्पर्धा एक साथ होना अच्छा रहेगा।
समाज में लैंगिक समानता स्थापित होने पर वह समय आएगा जब स्त्री-पुरुष के प्रदर्शन
में अंतराल नहीं रह जाएगा। फिलहाल वह समय दूर है। लेकिन किशोरावस्था तक के
प्रदर्शन में इतना अंतर नहीं दिखता कि वे एक साथ न खेल पाँए।
टेनिस जैसे कुछ खेलों को छोड़ दिया जाए तो स्त्री-पुरुष के वेतन, पुरस्कार राशि, स्पांसरशिप, और
मीडिया कवरेज में बहुत अधिक भेदभाव है। इस भेदभाव का काफी नकारात्मक प्रभाव
महिलाओं के प्रदर्शन और उन्हें मिलने वाली सुविधाओं तथा प्रशिक्षण में पड़ता है।
अमेरिका में जहाँ खिलाड़ियों की 40% संख्या महिलाओं की
है वहाँ मीडिया में खेलों में इनकी कवरेज की प्रतिशतता 6-8% है और सर्वोच्च 4 समाचार पत्रों में केवल 3.5% ही है। भारत में, जहाँ खेलने वाली स्त्रियों का
प्रतिशत पुरुषों के अनुपात में बहुत कम है। वहाँ मीडिया और वेतन के अंतराल का
अनुमान किया जा सकता है। यदि आर्थिक तौर पर और मीडिया के स्तर पर स्त्रियों को
समान महत्व दिया जाए तो समाज में उनके खेल के प्रति सकारात्मक माहौल बनने में बहुत
मदद मिलेगी। सामाजिक, परम्परागत रूढ़ियाँ टूटेंगी जिनके कारण
लोग लड़कियों को बाहर भेजने में हिचकिचाते हैं। चोटिल होने वाले, तथाकथित सौंदर्य पर नकारात्मक प्रभाव डालने वाली गतिविधियों से लड़कियों
को रोका जाता है। सुरक्षा को लेकर हमारा समाज पहले ही अतिरिक्त सजग है। निर्णायक
मंडल, कोच की लड़कियों के यौन शोषण की कुत्सा की खबरें आती
हैं तो यह लड़कियों की भागीदारी को बहुत हतोत्साहित करता है।
खिलाड़ियों की जीविकार्जन की क्षमता और लोकप्रियता समाज में
स्टीरियो टाइप को तोड़ेगी और कई अनावश्यक टैबू भी टूटेंगे तो महिलाएँ खुद को अधिक
फिट रख पाएँगी। अपने शरीर और उसकी जरूरतों के प्रति सहज रहेंगी तो उनके प्रदर्शन
में नई उठान आएगी। एक भीषण समस्या जो स्त्री होने के कारण झेलनी पड़ती है
खिलाड़ियों को। अधिकांश स्त्रियों का मानना है कि मासिक स्राव उनके प्रदर्शन को
प्रभावित करता है। कई शीर्ष खिलाड़ियों ने महत्वपूर्ण स्पर्धाओं में इसे अपनी हार
का कारण माना है। इस तरह के टैबू दूर होने के बाद से समस्याओं और समाधान पर खुल कर
बात होती है तो समस्या कम होती जाती है। 26 साल की किरन गाँधी ने लंदन में मासिक
स्राव के दौरान बिना नैपकिन प्रयोग किए मैराथन दौड़ सम्पन्न की। वे इस दौरान खुद
को संकुचित महसूस करने के चलन को तोड़ते हुए अपने शरीर के प्रति सहज होने का संदेश
देना चाहती थी। उन्होंने माना कि महत्वपूर्ण स्पर्धाओं में फोकस अपने प्रदशर्न पर
रहे, जिसके लिए जीवन भर तैयारी की है न कि लिहाज करने पर।
2014 के कॉमन वेल्थ गेम्स में द्युतिचंद को जिन दो प्रतियोगिताओं से बाहर
कर दिया था। 4 साल बाद एशियाड में उन्ही दोनों स्पर्धाओं में उन्होंने पदक जीते।
आजीवन स्त्री की तरह जिंदगी जीने, सारे क्रिया कलाप सम्पन्न
करने के बाद टेस्टोटेरोन हार्मोन का स्तर देख कर अंतर्राष्ट्रीय मानक यह तय करते
हैं कि वह महिला वर्ग में भाग ले सकती है या नहीं। इसी को द्युतिचंद ने चुनौती दी
थी और अंततः उनके पक्ष में फैसला आया। फिर उन्होंने स्पर्धाओं में भाग भी लिया
सफलता भी पाई पर कितना कुछ खोया भी। नए नियमों के अनुसार भी महिलाओं के भीतर
हार्मोन का स्तर तय करेगा कि वे किस वर्ग में स्पर्धा में हिस्सा ले सकती हैं और
उन्हें दवाइयों की सहायता से अपने हार्मोन के स्तर को मानकों के अनुकूलन में लाना
पड़ेगा। द्युतिचंद समेत कई खिलाड़ियों की सख्त आपत्ति है कि हम अपनी स्वाभाविक,
प्राकृतिक संरचना को क्यों कृत्रिम साँचे में जबरन ढालें। इसका कोई
वैज्ञानिक प्रमाण भी नहीं है कि प्राकृतिक रूप से पाए जाने पर यह हार्मोन प्रदर्शन
को प्रभावित करता है या नहीं। करता भी है तो जैसे किसी को अपने कद या किसी भी
शारीरिक वैशिष्ट्य का फायदा या नुक्सान होता है उसी तरह यह भी एक विशिष्ट लक्षण की
तरह लिया जाना चाहिए और व्यक्ति की गरिमा और निजता की रक्षा करनी चाहिए। यह उसके
मानवाधिकारों का भी एक तरह से उल्लंघन है। स्त्रियों के खेल के प्रति समाज में
जागरुकता आएगी और अधिकाधिक स्त्रियों खेलों में भागीदारी बढ़ाती जाएंगी, बढ़ाती जाएँगी तो मीडिया भी स्थान बढ़ाने के लिए मजबूर होगा। वर्ना सोशल
मीडिया भी है और हमारे जैसी हजारों-लाखों स्त्रियाँ भी। सचेतनता स्त्री विषयक इन
समस्याओं पर हस्तक्षेप करके एक आम सहमति बनाएगी तो खेल के इन नए नियमों में स्त्री
के गरिमामय समावेशन की पूरी सम्भाव्यता होगी