क्या कभी लौटा लेकर दिशा मैदान जाती स्त्री का चित्र बनाया है किसी
चित्रकार ने ? हिन्दी की दुनिया में ऐसे प्रश्न अल्पना मिश्र की कहानी में उठे
हैं।
ऐसे प्रश्नों की गहराईयों में उतरे तो कहा जा सकता है कि ये प्रश्न स्त्री
को मनुष्य मानने और तमाम मानवीय कार्यव्यापार के बीच उसकी उपस्थिति को दर्ज करने
के आग्रह हैं। नील कमल की कविता ‘’कितना बड़ा है स्त्री की देह का भूगोल’ ऐसे ही प्रश्न को अपने अंदाज में उठाती है। पहाड़, पठार, नदी, रेगिस्तान, भौगोलिक
विन्यास की ऊंचाईयों वाले उभार, या झील सी गहराइयों वाली नमी के ऐसे यथार्थ हैं
जिनकी उपस्थितियों का असर भूगोल विशेष के भीतर निवास करने वाले व्यक्ति के व्यक्तित्व
को आकार देने में अहम भूमिका निभाते हैं। लेकिन उन प्रभावों को नापने का कोई यंत्र
शायद मौजूद नहीं। यदि ऐसा कोई यंत्र हो भी तो क्या अनुमान किया जा सकता है कि
लैंगिक अनुपात का ऐसा कोई ब्यौरा प्राथमिकता में शामिल होगा, जिसमें स्त्री मन
की आद्रता, तापमान और रोज के हिसाब से टूटती आपादओं के असर में क्षत विक्षत होती
उसकी देह के आंकड़े होंगे ? यह सवाल निश्चित ही उन स्थितियों को याद करते हुए जहां
स्त्री जीवन को इस इस स्तर पर न समझने की तथ्यता मौजूद है। पृथ्वी की ऊंचाईयों
वाले उभारों, या झील की गहराइयों वाली नमी पर तैरने वाले भावों से भरी काव्य अभिव्यक्तियों
के बरक्स नील की कविता सीधे-सीधे सवाल करती है- बताओ लिखी क्यों नहीं गई कोई
महान कविता/ अब तक उसकी एडि़यों की फटी
बिवाइयों पर।‘’
विज्ञान के अध्येता नील कमल के यहां सीली हुई दीवार को सफेद धूप सा खिला देने वाला भीगा हुआ चूना नरेश सक्सेना की
कविता के कलीदार चूने से थोड़ा अलग रंग दे देता है। उसकी खास वजह है कि शुद्ध
तकनीकी गतिविधियों को कहन के अंदाज में शामिल करके शुरू होती नील की कविता बस शुरूआती
इशारों के साथ ही तुरन्त आत्मीय दुनिया में प्रवेश कर जाना चाहती है। सामाजिक
विसंगतियों की घिचर-पिचर में अट कर रास्तों को तलाशने की मंशा संजोये रहती है। लेकिन
कई बार प्रार्थना के ये स्वर भाषा के उस सीमान्त पर होते हैं जहां इच्छायें
बहुत वाचाल हो जाना चाहती हैं। वे जरूरी सवाल जिन्हें हर भाषा की कविता ने अपने
अपने तरह से उठाने की अनेकों कोशिशें की
हैं, लेकिन तब भी जिन्हें अंतिम मुकाम तक पहुंची हुई दुनिया का हिस्सा होने के
लिए बार बार दर्ज किया जाना जरूरी है, अच्छी बात है कि नील की कविताओं के भी विषय
है लेकिन उनका स्वर कहीं कहीं थोड़ा वाचाल है। यह आरोप नहीं बल्कि एक इशारा है,
इसलिये कि नील कमल के यहां कविता के बीज अपनी धरती पर उगने की संभावना रखते हैं।
सलाह के तौर पर कहा जा सकता है कि ऐसी कवितायें जो काव्य-स्पेश तो कम क्रियेट कर
रही हो और बयान ज्यादा हो जाना चाहती हों, उनसे बचा जाना चाहिए। यहां कविता में आ
रही दुनिया और उन जरूरी मुद्दों से नाइतिफाकी न देखी जाये, क्योंकि जरूरी मुद्दों
की तरह उन्हें पहले ही चिह्नित किया जा चुका है। स्पष्ट है कि उन जरूरी सवालों
से टकराते हुए ही नया बिमब विधान रचते हुए किसी भी तरह की पुरनावृत्ति से बचा ही
जाना चाहिये। फिर वह चाहे खुद की हो या अन्य प्रभावों की हो।
रोमन लिपि के पच्चीसवें वर्ण का एक बिम्ब गुलेल से बन जाता है। तनी हुई
विजयी प्रत्यंचा की धारों पर पांव बढ़ते जाते हैं। इस छवी के साथ एक उत्सुकता
जागने लगती है। लेकिन निशाने पर गोपियों
की मटकी है। पके हुए आम के फल हैं। जबकि प्रत्यंचा के तनाव पर सारा आकाश आ सकता
था। यदि ऐसा हुआ होता तो शायद तब इस खबर का कोई मायने नहीं रह जाता कि अपने निर्दोषपन
की छवी में भी गुलेल बेहद खतरनाक हथियार है। रचना की प्रक्रिया को जानने की कोई मुक्कमल
एवं वस्तुनिष्ठ पद्धति होती तो जिस वक्त
गुलेल एक बिम्ब के रूप में कवि के भीतर अटक गयी होगी, उसे जाना जा सकता था, कि
उसके निशाने कहां सधे थे। कविता की अंतिम पंक्तियों में उसको खतरनाक बताने वाली
खबर अनायास तो नहीं ही होगी। अनुमान लगाया जा सकता है कि उभरे हुए बिम्ब और कविता
के उसके दर्ज होने में जरूर कहीं ऐसा अंतराल है जो कवि की पकड़ से शायद छूट रहा
है। इस बात को तो कवि स्वंय जांच सकता है। यदि यह सत्य है तो कहा जा सकता है कि कविता को लिखे जाने से पहले उस वक्त
का इंतजार किया जाना था जहां फिर से वही स्थितियां और मन:स्थिति कवि की अभिव्यक्ति
का सहारा बनना चाह रही होती। सामाजिक, सांस्कृतिक ओर मानसिक स्थितियों की ऐसी
छवियां जो एक समय में कोंध कर कहीं लुक गयी हों, एक कवि को उन्हें पकड़ने के लिए
फिर से इंतजार करना चाहिये। नील कमल की बहुत सी कविताओं में वह इंतजार न करना खल
रहा है। जबकि नील की कविताओं का बिम्ब विधान अनूठे होने की हद तक मौलिक है। ‘पेड़
पर आधा अमरूद’, ‘पेड़ो के कपड़े बदलने का समय’, ‘स्त्री देह का भूगोल’, ‘ईश्वर
के बारे में’ आदि ऐसी कवितायें है जिनमें नील जिन अवधारणाओं के साथ हैं, वे
आशान्वित करती हैं। उनके सहारे कहा जा सकता है – हे ईश्वर ! तुम रहो अपने स्वर्ग
में, तुम्हारा यहां कोई काम नहीं। मुसीबतों में फंसे होने पर सिर्फ ‘आह’ भर का
नाम नहीं होना चाहिये ईश्वर। यहां- पिता
नाम है, इस पृथ्वी पर/दो पैरों पर चलते ईश्वर का। ईश्वर के बारे में रची गयी
अवधारणाओं का यह ऐसा पाठ हे जो मुसिबत की हर कुंजी को अपने पास रखने वाली ताकत को
ईश्वर के रूप में पहचान रही है।
भावुक मासूमियत से इतर नील कमल की कविताओं का मिजाज उसी तरह से तार्किक है
जैसे कवि नरेश सक्सेना के यहां दिखायी देता है। वहां बहुत सी ऐसी धारणायें ध्वस्त
होती हैं जो अतार्किक तरह से स्थापित होना चाहती है। सबसे गहरी जड़ो वाला
पौधा न तो बूढ़ा बरगद है न पीपल, बल्कि वह
तो एक नन्हा कैक्टस है जिसकी जड़ें धरती में उस गहराई तक उतरती हैं, पानी की बूंद
होने की संभावाना जहां मौजूद हो। धरती की अपनी सतह पर के सूखे के विरूद्ध हार कर पस्त
नहीं हो जाना चाहती। कई कवितायें इतनी सहज होकर सामने आती हैं कि हैरान कर देती। जीवन
के जाहिल गणित को सुलझाने में नील की कवितायें न भूलने वाली कवितायें हैं। अपनी पंक्तियों को वे सह्रदय
पाठक के भीतर जिन्दा किये रहती है। दो को पहाड़ा दोहराने के लिए उन्हें ताउम्र भी
याद रखा जा सकता है।
- विजय गौड़