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Thursday, March 9, 2023

एक दोपहर की बतरस

दिनेश चंद्र जोशी


मेरे व अरुण कुमार असफल के साथ बीच में बैठै कथाकार सुभाष पन्त को कौन नहीं जानता।

वे देहरादून के ही नहीं हिन्दी कहानी जगत के सरताज किस्सागो हैं। लाक डाउन की वजह से पिछले लगभग डेड़ दो साल से उनसे प्रत्यक्ष मुलाकात नहीं हो पाई थी। उनके घर डोभाल वाला गये तो मुझे भी काफी लम्बा अर्सा हो गया था, हां, गोष्ठियों में यत्र तत्र जरुर भेंटघाट हो जाती। पिछले दिनों एक फोन आया,मित्र कथाकार अरूण कुमार असफल का, 'पन्त जी के यहां चलेंगे? मैं जा रहा हूं,एक से भले दो ,वे स्वयं इधर उधर अब आ जा नहीं सकते,यूं स्वास्थ्य ठीक हैं, कह रहे थे,भाई,आप लोग ही आ जाओ,मैं तो अब कहीं आ जा नहीं सकता।'

मैंने हामी भर दी, बिल्कुल चलूंगा,यार! अब रिटायरमेंट के बाद भी फुर्सत का बहाना करूंगा तो मुझसे बड़ा एकलकट्टू कौन होगा, फिर आपका जैसा उदार साथी जो,घर से पिक अप करें घर तक छोड़ देता हो आग्रह करे तो अपने घरऊ काम व आलस्य को तिलांजलि देने का हक तो  मेरा भी बनता है। निश्चित ही आपकी सुविधा व समय के अनुसार मैं तैयार रहूंगा,चलने से पहले मिस काल मार देना।

अरूण जी नियत समय पर पहुंच गये थे।आधे घंटे के भीतर हम लोग पंत जी के गेट पर खड़े थे। पन्त जी बरामदे में बैठे हुए इन्तजार ही कर रहे थे। हम दोनों को देख कर वे प्रफुल्लित हो उठे, तपाक से मिले,

हाथ मिलाया और अन्दर बैठक में ले गये।बोले ,'यार ये मास्क वास्क की वजह से चेहरे ही पहचान में नहीं आ रहे। अब भंगिमा व आवाज से लोगों को पहचानना पड़ रहा है।'

पन्त जी के घर मैं पहले कई मौकों पर गया हूं। इस घर से कई यादें जुड़ी हैं, बीस तीस साल पहले जब यह मुहल्ला इतना चमकदार व आलीशान घरों से लकदक नहीं था,कस्बे व गांव की मिली जुली अनगढ़ता व महक थी,आम लीची के पेड़ हर घर में दिख जाते थे।सड़क पतली वह ऊबड़ खाबड़ रहती थी। टिन शेड की छतों वाले ढलुवा घर भी इक्का दुक्का नजर आते थे।डोभालवाला देहरादून का  पुराना मुहल्ला व बसावट का प्रतीक लगता था।अब तो मुहल्ले का हर घर नया रिनोवेटेड,डुप्लेक्स ट्रिपलेक्स नजर आ रहा था,सड़क बेशक पतली लेकिन समतल थी।

पन्त जी का घर भी वो लम्बे बरामदा वाला,अब परिवर्तित रुप में था,उस पुराने घर के बैठक में अपेक्षाकृत युवा कथाकार पन्त और आज के उम्रदराज कथाकार के शारीरिक ढांचे में कोई खास अन्तर नहीं था लेकिन आंखों की चमक,बोलने की इंटेंसिटी,और फुर्तीले पन का फर्क लाजमी तौर पर जाहिर हो रहा था।

इस नये वाले परिवर्तित घर की इसी बैठक में अपने पुत्र गोर्की की शादी के मौके पर पन्त जी ने अपने साहित्यिक मित्रों हेतु डिनर पार्टी का आयोजन किया था,पीने पिलाने के दौर के दौरान मदहोशी में वे,बेहद भावुक होकर बोले थे,'यार!जिंदगी में मेरी  कमाई आप लोग ही हैं मेरी,साहित्यिक बिरादरी के दोस्त,वरना व्यवहारिक जिंदगी में निपट अनाड़ी हूं, मुझे यकीन है आप लोग अपनत्व से मुझे ऊष्मा देते रहोगे,तो मेरी रचनात्मकता बची व बरकरार रहेगी। वह बात आज रह रह कर याद आ रही थी, मित्रों ने पन्त जी के सान्निध्य में खूब पीने खाने का लुत्फ उठाया था,

'अरुण तुम्हें याद है, तुम तो थे ना मौजूद उस पार्टी में ? मैंने पूछा।

'हां,हां,मैं बाकायदा था, बड़ी देर तक हम लोगों ने आनन्द लूटा था। लगभग बारह तेरह साल पुरानी बात होगी यह!' 'हां बिल्कुल।'

पन्त जी एकहरे शरीर के दुबले पतले सदाबहार एक जैसी काया में नजर आते हैं। जैसे चालीस साल पहले थे,वेसै ही अब हैं। सिर्फ़ चुश्ती फुर्ती व ऊर्जस्विता में फर्क पड़ा है,स्मृति ठीक है। लाक डाउन,करोना से बातें शुरू हुई तो फिर साहित्य,लेखन,पठन-पाठन की गतिविधियों का तब्सिरा शुरू हो गया। स्थानीय प्रकाशक समय साक्ष्य से नवीनतम कहानी संग्रह आने वाला है,वे कह रहे थे,बाहर के प्रकाशन से विलम्ब के बनिस्पत स्थानीय अच्छे प्रकाशन से त्वरित छपवा लेना उचित है।

हिंदी लेखक के लिए पुस्तक प्रकाशित करवाना हमेशा टेड़ी खीर रहा है,यह एक विडम्बना उसका पीछा कभी नहीं छोड़ती। हिंदी के बड़े से बड़े लेखक को भी प्रकाशक ठेंगा दिखा देते हैं। जगूड़ी जी जैसे लेखक भी गपशप में साहित्यकार की परिभाषा व संधि विच्छेद करते हुए कहते हैं, 'साहित्यकार' -यानी 'साहित्य' आपके पास, 'कार' प्रकाशक के पास।

'मुझे, वैसे अपने संग्रह छपवाने में बहुत समस्या नहीं आई, लेकिन विलम्ब व रायल्टी पारदर्शिता की शिकायत तो रहती ही है,यह हिंदी का दुर्भाग्य है।

मेरा पहला संग्रह बड़ी आसानी से छप गया था,

'तपती हुई जमीन' जवाहर चौधरी ने छापा था, सारिका में मेरी कहानी 'गाय का दूध छप कर चर्चित हो गई थी। उसके कवर पेज का डिजाइन मैंने ही जवाहर चौधरी से कह कर अवधेश (अवधेश कुमार) से बनवाया था। उसके बाद तो अवधेश को दिल्ली के प्रकाशक ढूंढ कर बुलवाने लगे थे,वह दिल्ली में छा गया था,बहुत टेलेन्टेड चित्रकार,व कवि था, हमारे देहरादून का लेकिन अपनी आवारगी व बदपरहेजी के कारण इतनी जल्दी चला गया हमारे बीच से। अवधेश को याद करते हुए पन्त जी भावुक हो उठे थे।

'आपकी शादी हो चुकी थी जब आपने लिखना शुरू किया'? अरुण ने पूछा। 

'हां हां,मैने तो बहुत बाद में लिखना शुरू किया,शादी मेरी ६४ में हो गई थी,लिखना छपना ७३-७४ में  शुरू हुआ,३५ साल की उम्र के बाद।उससे पहले सेहत गड़बड़ा गई थी,भवाली सेनेटोरियम में भर्ती रहा।बड़े हादसे झेले। 

देहरादून में लिखने पढ़ने वालों का माहौल बनने लगा था तब। साहित्य संसद की गोष्ठियां होती थी, ब्रह्मदेव जी,शशिप्रभा शास्त्री,सुरेश भटनागर,वीर कुमार अधीर आदि लोग आते थे। हम लोग अपेक्षाकृत युवा थे,हमारी अभिरूचि भिन्न थी

इसलिए मैने,नवीन नौटियाल व अवधेश ने मिल कर संवेदना संस्था का गठन किया, तय हुआ कि कोई इसका अध्यक्ष,सचिव नहीं होगा। तीनों ही इसके संवाहक होंगे। उसकी नियमित गोष्ठियां आयोजित करने लगे थे।

सारिका में छपने के बाद तो मेरी पहचान बनने लगी थी।समान्तर कहानी आयोजन देश भर में आयोजित होने लगे थे। इब्राहीम शरीफ ने मद्रास सम्मेलन  में बुला लिया,पहली बार घर से बाहर निकल कर उतनी दूर जाना हुआ। कमलेश्वर जी से पहली मुलाकात वहीं हुई,श्रवण कुमार, मधुकर सिंह,से.रा यात्री से मुलाकात हुई,सारिका के लेखक एक दूसरे से मिल कर गले लिपट पड़े।

मद्रास से लौटते हुए कालीकट विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा आयोजित एक गोष्ठी में शामिल हुए।वहां कहानी पाठ व चर्चा के बाद रात में डिनर से पूर्व पीने वगैरह का दौर शुरू हो गया, छात्रों ने स्वय एक बूंद नहीं ली, लेकिन लेखकों के सम्मान में पेय का इंतजाम कर दिया। पानी के लिए उन दिनों वहां सुराही रक्खी होती थी मेज पर  छोटी छोटी। से.रा. यात्री धुरंधर खिलाड़ी थे। मदहोशी में बोले यार,ये बोतल में बची ह्विवस्की मैं झोले में डाल लेता हूं,कल काम आयेगी,उन्हें कौन रोक सकता था।

दूसरे रोज शौक फरमाने के लिए झोले में हाथ डाला तो बोतल के बदले सुराही निकली,एक से एक रोचक किस्से हैं उस यात्रा के, जवाहर चौधरी से भी हीं मुलाकात हूई, संग्रह के प्रकाशन का आगाज भी तभी हुआ बातो बातों में।

से.रा यात्री की बात चली तो फिर उनके किस्से चलते चले गये।बोले, 'यात्री बहुत फक्कड़ और घुमक्कड़ लेखक थे। उत्कृष्ट कोई खास नहीं लिखा उन्होंने लेकिन औसत दर्जे का जितना लिखा उतना किसी और ने नहीं लिखा होगा। खादी का सफेद कुर्ता पजामा और कंधे पर झोला उनकी पहचान थी। कहते थे लेखक के पास झोला अवश्य होना चाहिए पता नहीं कब क्या छुपाना पड़ जाय।'



'वो देहरादून में रिक्शे की सवारी वाला क्या किस्सा है, यात्री जी का,पन्त जी!' हमने उन्हें कुरेदा था।

'अरे हां,अद्भुत शख्स थे यात्री जी। उन्होंने अपनी एक कहानी में देहरादून में हाथ रिक्शा चलवा दिया।

इस बात को लेकर बड़ा हल्ला हुआ, देहरादून में रिक्शे चलते नहीं,यात्री नकली कहानियां लिखते हैं।

बात,साप्ताहिक हिंदुस्तान के मनोहर श्याम जोशी तक पहुंची, उन्होंने उपसंपादक हिमांशु जोशी से पूछा,'ऐसी गल्ती क्यों हुई, प्रूफ व तथ्यात्मक अशुद्धियों हेतु सम्पादक जिम्मेदार होता है।' साप्ताहिक के कार्यालय में आने पर हिमांशु जोशी ने यात्री से इस त्रुटि हेतु मनोहर श्याम जोशी की हिदायत व नाराजगी का हवाला दिया। यात्री भड़क गये और सीधे मनोहर श्याम जोशी के चैम्बर में घुस कर सफाई दे आये,कि लेखक को कहानी के पांच सौ रुपए पारिश्रमिक मिलते हैं इसमें क्या वो हवाई जहाज चलवा देता,देहरादून में!' एक से एक मजेदार किस्से हैं हमारे जमाने के लेखक मित्रों के।पन्त जी बात बात में कमलेश्वर जी की तारीफ कर रहे थे, कमलेश्वर बड़े ग़ज़ब के आदमी थे। 'सारिका में नये लेखकों को खूब छापते व प्रोत्साहित करते थे।'

'कमलेश्वर जी सबके साथ ऐसे ही पेश आते थे,जैसे आपके साथ?' अरुण पूछ बैठा।

शर्मीली सी गौरवान्वित मुस्कान के साथ वे बोले,

'हां,मेरे प्रति थोड़ा ज्यादा ही स्नेहिल थे,यूं सबके प्रति  उनका व्यवहार अच्छा रहता था।' सारिका बन्द होने के बाद 'गंगा' के सम्पादक बने। गंगा के आठ दस अंक निकले,उसमें उन्होंने मेरा उपन्यास 'सुबह का भूला' छापा।

'हां,हां मुझे याद है,गंगा में ही पढ़ा मैंने भी उसे,८८-९० के आसपास, मैने कहा।

'गंगा' के बन्द होने के बाद कमलेश्वर जी फिर पूर्णतया साहित्य से कट कर फिल्म संवाद लेखन की ओर उन्मुख हो गये थे। हालांकि उन्होंने 'कितने पाकिस्तान' जैसा मार्के का उपन्यास भी बाद में लिखा।

इस बीच पन्त जी बोले,' यार तुम इधर लगातार बड़ी अच्छी कविताएं लिख रहो हो,फेसबुक पर,वो स्त्री वाली कविता तो बहुत अच्छी है,क्या नाम है 'स्त्रियां' है,ना! 'हां,हां अभी हाल ही में डाली थी!'

तुम्हारे लेखन में इतनी वैरायटी है, व्यंग्य, कहानी, कविता। संग्रह आने चाहिए इन सबके।

'हां,हां अब कोशिश करता हूं, रिटायरमेंट के बाद फुर्सत मिली है इस वास्ते।'

बातों बातों में कब दो घंटे बीत गये पता ही नहीं चला,'अरे! मैं तो पूछना ही भूल गया चाय लोगे,या ड्रिंक्स चलेगी,तकल्लुफ की बात नहीं, है इंतजाम बोलो।' 

नहीं,नहीं ड्रिंक्स नहीं, दिन का वक्त हैं,चाय ही लेंगे

अरुण ने कहा,मैंने भी उसका समर्थन किया।

पन्त जी भीतर गये। थोड़ी देर बाद उनकी पुत्रवधू चाय का ट्रे व नमकीन बिस्कुट रख गई। इतनी देर की बातचीत व किस्से कहानियों के बाद गर्मा-गर्म चाय बिस्कुट की तलब लगी ही थी। 

मेल जोल व बातचीत से मन कितना बदल जाता है,यह पन्त जी की मुखर,उत्साही व प्रसन्न  भंगिमा से जाहिर हो रहा था,बनिस्पत दो घंटे पूर्व की उदास व शान्त भंगिमा से। मित्रों के सान्निध्य के बीच पुरानी स्मृतियों व किस्सों की अदायगी से उनके शरीर  में जैसे जान व रौनक आ गई थी।बढ़ती उम्र में इंसान की यह सामाजिक भूख और बढ़ जाती है,इसलिए हमें अपने अग्रज मित्रों,परिजनों से मुलाकात भेंट घाट करते रहनी चाहिए ताकि उनको एकाकीपन उपेक्षा,अवहेलना महसूस न हो। यह बात शिद्दत से हमें भी महसूस हो रही थी। हममें से अरुण इस भूमिका को बखूबी निभाता है ,यह गुण उसमें स्वभाव के अलावा जिम्मेदारी के दायित्व बोध का भी है।

वर्तमान साहित्य के परिदृश्य पर बातचीत करने का यह अवसर नहीं था,गपशप के बीच ही सहज अनौपचारिक रुप से पुरानी स्मृतियों के स्फुरण से हम लोग आनन्दित हो रहे थे और पंत जी को भी उल्लसित देख रहे थे।

वे बोले,'राजेन्द्र यादव की हंस पत्रिका में मैंने कहानी भेजी ही नहीं,छपने के वास्ते, क्योंकि उन्होंने सारिका में छपने वाले समांतर के दौर के रचनाकारों को कमलेश्वर के 'चेले चपाटे' कह कर हमारा  मजाक उड़ाया था। हंस में मेरी एक दो कहानियां ही शुरू में प्रकाशित हुई थी उसके बाद नहीं भेजी।

पिछले वर्षों में ज्ञानरंजन की पहल पत्रिका में कहानियां प्रकाशित व चर्चित हुई, ज्ञान जी सम्मान पूर्वक मंगवाते थे,मैंने भी उनका मान रक्खा और रचनायें भेजी।'कथादेश' में बहुत कहानियां छपी।'

कुछ इधर उधर की बातें हुई, एफ.आर.आई की नौकरी आदि की। अब संस्थान के पुनर्गठन के बाद काउन्सिल बन जाने के बाद भी इतने प्रसिद्ध नामी संस्थान की हालत से वे क्षुब्ध थे,कह रहे थे, 'काउन्सिल बनने के बाद संस्थान खुद नवोन्मेषी उद्यमों से अपनी आमदनी बढ़ा रहा है लेकिन ओवरहैड खर्चे इतने ज्यादा हैं कि घाटे में ही जा रहा है।'

इस बीच एक वक्त में काफी चर्चित हुई कहानियां, 'कामरेड का कोट,' 'भगदत्त का हाथी' व 'पिंटी का साबुन' तथा इनके कथाकारों की चुप्पी पर भी चर्चा हुई, इसी सिलसिले में  गंभीर सिंह पालनी की कहानी 'मेंढक' का जिक्र चला तो पंत जी बोले, 'मुझे खास अपील नहीं करती वह कहानी,मेंढक जैसे बचकाना प्रतीक पर है।'

अरुण ने प्रतिवाद किया,'नहीं,नहीं मेंढक तो अच्छी कहानी है,शिक्षा व्यवस्था पर करारा प्रहार है उसमें नयापन है',मैने भी अरुण का समर्थन किया।

'ज्वलंत सामाजिक समस्याओं पर धारदार लेखन ही अन्तत: सराहा जायेगा,आम आदमी की मुश्किलें अभी खत्म नहीं  हुई है।' पन्त जी ने कहा। यही सब बातें करते करते काफी देर हो गई थी, लगभग तीन घंटे तक हम लोग पंत जी से बोलते बतियाते रहे। चलने को उद्यत हुए तो वे,भीतर रैक से एक मोटी सी किताब लाकर मुझे थमाते हुए बोले,तुम रिटायर हो गये हो,वक्त की कमी नहीं है,इस जीवनी को पढ़ना। अब तो अनुवाद की बहुत सुविधा है,विश्व साहित्य की अनुदित अच्छी पुस्तकें हिंदी में आ रहीं हैं।

जरूर जरूर, मैंने पन्त जी द्वारा उपहार स्वरूप प्राप्त वह किताब ले ली।

बाल्जाक की जीवनी थी,चार्ल्स गोरहाम की लिखी तथा जंग बहादुर गोयल द्वारा हिंदी में अनूदित।संवाद प्रकाशन से छपी,काफी मोटे कलेवर की। 

उसके बाद हम तीनों ने साथ बैठ कर फोटोग्राफ खिंचवाया,जो उनकी पोती नताली ने खींचा। वह बड़ी हो गई है,क्लास सिक्स में पंहुच गई है,नताली के प्रथम जन्मदिन पर आयोजित समारोह में हम सब लोग एकत्रित हुए थे, नताली को देख कर उस समारोह की याद आ गई। फोटो खिंच जाने के बाद पंत जी हमें छोड़ने गेट तक आये।

'अच्छा फिर आते रहना आप लोग,मेरा तो आना जाना मुश्किल है।' 'जरूर, आयेंगे, नमस्ते।' हम दोनों समवेत स्वर में बोले और गेट बन्द कर लौट आये।

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