बंगला दलित धारा के कवि कालीपद मणि की कविता का यह स्वर व्यापक दलित, शोषित समाज को दायरे में रखकर लिखी जाने वाली किसी भी भाषा की कविताओं के ज्यादा करीब है। यही वजह है कि वैश्विक स्तर पर इस देश को सिर्फ अध्यात्मवादी नजरिये से सिरमौर होते देखने की चाह रखने वाले सांस्कृतिक आयोजनों के ‘राष्ट्रवादी’ विचार से यह सीधे मुठभेड़ कर रही है। शिक्षा व्यवस्था का वह ढकोसला भी यहां तार तार हो रहा, जिसका यूं तो आमजन के जीवन को संवारने में वैसे भी कोई बड़ा दृष्टिकोण नहीं, पर जिसकी उपस्थिति से यदा कदा की कोई संभावना जन्म ले जाती है। तय जानिये यदा कदा की वे संभावनायें भी उनकी आंखों की किरकिरी है, मुनाफे की सोच के चलते जो, उन सरकारी विद्यालयों को भी पूरी तरह बंद कर देना चाहते हैं। उनकी साजिशों का खेल ही ‘सांस्कृतिक’ होता हुआ आर्ट ऑफ लीविंग है। |
कालीपद मणि
अनुवाद – कुसुम बॉंठिया
प्रश्न का तीर-इस्पात
फुटपाथ पर तैरता रहता है
छ: रुपया किलो, बाबू, ताजा खीरे
खत्म हो गये तो पछताओगे।
खींच-खींच कर लगाए रट्टा
ठीक जैसे बचपन की पाठशाला में
पढ़ाई की ‘रटंत’।
एक कौड़ी पा गंडा
दो कौड़ी आध गंडा।
कुछ देर खड़ा रहता हूं उसके पास
नंगे बदन, पैबन्द लगी बेहद बदरंग पैंट
पास ही उकड़ू बैठी उसकी माँ
पके बालों में जूं तलाशती हुई।
अचानक ही उससे पूछ बैठा
लड़का स्कूल क्यों नहीं जाता ?
बुढि़या फुफकार उठी निष्फल आक्रोश से
प्रश्न के तीर से इस्पात छिटक रहा था
गिरस्ती फिर कइसे चलाऊँगी
बताइए आप ?
क्यों, बोलते क्यों नई ?
उत्तरहीन पृथ्वी
मुँह पर ताला जड़े
निर्वाक् चलती जा रही है।
छ: रुपया किलो बाबू
ताजा-ताजा खीरे।