इकवर खेलै कुंवर कन्हैया, इकवर राधा होरी होया
सदा अन्नदही रहयौ द्वारा, मोहन होरी खेलै हो।
कहै के हाथे कनक पिचकारी,, कहै के हाथे गौरी की चुनरी होह्णह्णह्ण
अभी तो ठीक से याद भी नहीं,। सुने हुए को भी नहीं तो 28-30 वर्ष हो गए।
इधर हमारी परीक्षाओं की तैयारी चल रही होती थी और उधर वे होलियारे हमें अपनी लोकधुन गुन-गुना लेने को उकसा रहे होते थे।
इस बार हू-ब-हू तो नहीं, पर हां वैसा ही, लेकिन बिना साज बाज का नजारा था- कालोनी के तमाम जौनसारी लड़के जिस मस्ती में होली गा रहे थे और नाच रहे थे, देखकर मन मचल उठा। गाने के बोल को तो समझा नहीं जा सका पर उस लय को तो महसूसा ही जा सकता था जो इन आधुनिक पीढ़ी के जौनसारी युवाओं को मस्त किए थी। अपनी भाषा और लोकगीत के प्रति उनका अनुराग घरों के भीतर बैठे लागों को भी पहले बैलकनी से झांकने के लिए और फिर रंग लेकर नीचे उतर आने को उकसा रहा था। बेशक कोई पूर्व तैयारी के बिना यह हुजूम गा रहा था पर उनके गीत और नृत्य में एक खास तरह का उछाल था। लीजिए आप भी देखिए और सुनिए-