योजनाओं का शहर
जो दुनियादार थे वे योजनाकर थे
जो समझदार थे वे योजनाकर थे
एक लड़का रोज़ एक लड़की को
गुलदस्ता भेंट करता था
उसकी योजना में
लड़की एक सीढ़ी थी
जिसके सहारे वह
उतर जाता चाहता था
दूसरी योजना में
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योजनाओं में हरियाली थी
धूप खिली थी, बह रहे थे मीठे झरने
एक दिन एक योजनाकार को
रास्ते में प्यास तड़पता एक आदमी मिला
योजनाकार को दया आ गई
उसने झट उसके मुॅंह में एक योजना डाल दी।
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योजनाऐं अक्सर योजनाओं की तरह आती थीं
लेकिन कई बार वे छिपाती थीं खुद को
किसी दिन एक भीड़ टूट पड़ती थी निहत्थों पर
बस्तियॉं जला देती थी
खुलेआम बलात्कार करती थी
इसे भावनाओं का प्रकटीकरण बताया जाता था
कहा जाता था कि अचानक भड़क उठी है यह आग
पर असल में यह सब भी
एक योजना के तहत ही होता था
फिर योजना के तहत पोंछे जाते थे ऑंसू
बॉंटा जाता था मुआवज़ा
एक बार खुलासा हो गया इस बात का
सबको पता चल गया इन गुप्त योजनाओं का
तब शोर मचने लगा देश भर में
तभी एक दिन एक योजनाकार
किसी हत्यारे की तरह काला चश्मा पहने
और गले में रूमाल बॉंधे सामने आया
और ज़ोर से बोला - हॉं, थी यह योजना
बताओ क्या कर लोगे
सब एक-दूसरे का मुॅंह देखने लगे
सचमुच कोई उसका
कुछ नहीं कर पाया।
संजय कुदन, सी 301 जनसत्ता अपार्टमेंटस सेक्टर 9, वसुंधरा, गाजियाबाद- 201012 मो। 09910257915
संजय कुंदन की कविताऐं वागर्थ के मार्च 08 अंक से साभार ली गयी। यहॉं प्रकाशन से पूर्व कवि की सहमति प्राप्त होने के बाद ही पुन: प्रस्तुत किया जा रहा है। हम उम्मीद करते हैं कि भविष्य में जल्द ही उनकी ताजा रचना भी इस ब्लाग के पाठकों के लिए प्राप्त हो सकेगी।