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Saturday, May 18, 2013

नागरिक कर्म और रचना कर्म को साथ-साथ चरित्रार्थ करने की बेचैनी से भरा कवि



                                   
                                                                          - महेश चंद्र पुनेठा



  भले ही हिंदी कविता में जनपदीयता बोध की कविताओं की परंपरा बहुत पुरानी एवं समृद्ध है पर उच्च हिमालयी अंचल की रूप-रस-गंध ली हुई कविताएं अंगुलियों में गिनी जा सकती हैं। अजेय उन्हीं गिनी-चुनी कविताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनकी कविता के केंद्र में इस अंचल का क्रियाशील जनजीवन ,प्रकृति तथा विकास के नाम पर होने वाली छेड़छाड़ के चलते भौतिक और सामजिक पर्यावरण में आ रहे बदलाव हैं। कविता में उनकी कोशिश है कि अपने पहाड़ी जनपद की उस सैलानी छवि को तोड़ा जाय जो इस बर्फीले जनपद को वंडरलैंड बना कर पे्श करती है। वे बताना चाहते हैं कि यहां भी लोग शेष वि्श्व के पिछड़े इलाकों और अनचीन्हे जनपदों के निवासियों की भांति सुख-दु:ख को जीते हैं-पीड़ाओं को झेलते और उनसे टकराते हैं। जिनके अपने छोटे-छोटे सपने और अरमान हैं। कहना होगा कि इस कोशिश में कवि  सफल रहा है। हिंदी कविता में अजेय का नाम नया नहीं है। एक चिरपरिचित नाम है जो अपनी कविता की इस वि्शिष्ट गंध के लिए जाना जाता है। वे अरसे से कविता लिख रहे हैं और महत्वपूर्ण लिख रहे हैं। उन्होंने अपनी देखी हुई और महसूस की हुई दुनिया को बड़ी तीव्रता एवं गहराई से उतारा है  इसलिए उनके कहन और कथ्य दोनों में मौलिकता है। निजी आत्मसंघर्ष और सूक्ष्म निरीक्षण इस मौलिकता को नई चमक प्रदान करते हैं। सहज रचाव , संवेदन, ऊष्मा ,लोकधर्मी रंग , एंद्रिक-बिंब सृजन ,जीवन राग और सजग रचना दृष्टि इन कविताओं की विशिष्ट्ता है। अजेय बहुत मेहनत  से अपने नाखून छीलकर लिखने वाले कवि हैं जो भी लिखते हैं शुद्ध हृदय से ,कहीं कोई मैल नहीं। लोक मिथकों का भी बहुत सुंदर और सचेत प्रयोग इन कविताओं में मिलता है। अजेय उन लोगों में से हैं जो लोक के ऊर्जावान आख्यानों , सशक्त मिथकों और जीवंत जातीय स्मृतियों को महज अनुसंधान और तमा्शे की वस्तु नहीं बनाए रखना चाहते हैं बल्कि उन्हें जीना चाहते हैं। साथ ही किसी अंधविश्वास और रूढ़िवादिता का भी समर्थन नहीं करते हैं।

   उनकी कविताएं देश के उस आखिरी छोर की कविताएं हैं जहां आकाश कंधों तक उतर आता है। लहराने लगते हैं चारों ओर घुंघराले मिजाज मौसम के। जहां प्रकृति , घुटन और विद्रूप से दूर अनुपम दृश्यों के रूप में दुनिया की सबसे सुंदर कविता रचती है। जहां महसूस की जा सकती है सैकड़ों वनस्पतियों की महक व शीतल विरल वनैली छुअन। इन कविताओं में प्रकृति के विविध रूप-रंग वसंत और पतझड़ दोनों ही के साथ मौजूद हैं। प्रकृति के रूप-रस-गंध से भरी हुई इन कविताओं से रस टपकता हुआ सा प्रतीत होता है तथा इन्हें पढ़ते हुए मन हवाओं को चूमने,पेड़ों सा झूमने ,पक्षियों सा चहकने ,बादलों सा बरसने तथा बरफ सा छाने लगता है। इस तरह पाठक को प्रकृति के साथ एकमेक हो जाने को आमंत्रित करती हैं।  इन कविताओं में पहाड़ को अपनी मुटि्ठयों में खूब कसकर पकड़ रखने की चाहत छुपी है। पहाड़ ,नदी ,ग्लेशियर , झील ,वनस्पति , वन्य प्राणी अपने नामों और चेहरों के साथ इन कविताओं में उपस्थित हैं जो स्थानीय भावभूमि और यथार्थ को पूरी तरह से जीवंत कर देती हैं। अजेय उसके भीतर प्रवेश कर एक-एक रगरेशे को एक दृष्टा की तरह नहीं बल्कि भोक्ता की तरह दिखाते हैं। वे जनपदीय जीवन को निहारते नहीं उसमें शिरकत करते हैं। अपनी ज्ञानेन्द्रियों को बराबर खुला रखते हैं ताकि वह आसपास के जीवन की हल्की से हल्की आहट को प्रतिघ्वनित कर सकें।  यहां जन-जीवन बहुत निजता एवं सहजता से बोलता है।  ये कविताएं अपने जनपद के पूरे भूगोल और इतिहास को बताते हुए बातें करती हैं  मौसम की ,फूल के रंगों और कीटों की ,आदमी और पैंसे की , ऊन कातती औरतों की ,बंजारों के डेरों की ,भोजपत्रों की , चिलम लगाते बूढ़ों की , आलू की फसल के लिए ग्राहक ढूंढते का्श्तकारों की, विष-अमृत खेलते बच्चों की ,बदलते गांवों की। इन कविताओं में संतरई-नीली चांदनी ,सूखी हुई खुबानियां ,भुने हुए जौ के दाने ,काठ की चटपटी कंघी ,सीप की फुलियां ,भोजपत्र ,शीत की आतंक कथा आदि अपने परिवेश के साथ आती हैं।  

  यह बात भी इन कविताओं से मुखर होकर निकली है कि पहाड़ अपनी नैसर्गिक सौंदर्य में जितना रमणीय है वहां सब कुछ उतना ही रमणीक नहीं है। प्रकृति की विभिषिका यहां के जीवन को बहुत दुरुह बना देती है। यहां के निवासी को पग-पग पर प्रकृति से संघर्ष करना पड़ता है। उसे प्रकृति से डरना भी है और लड़ना भी। प्रकृति की विराटता के समक्ष आदमी बौना है और आदमी की जिजीवि्षा के समाने प्रकृति। उनकी कविता में प्रकृति की हलचल और भयावहता का एक बिंब देखिए- बड़ी हलचल है वहां दरअसल/बड़े-बड़े चट्टान/गहरे नाले और खड्ड/ खतरनाक पगडंडियां हैं/बरफ के टीले और ढूह/ भरभरा गर गिरते रहते हैं/गहरी खाइयों में/ बड़ी जोर की हवा चलती है/ हडि्डयां कांप जाती हैं।       

 कवि के  मन में अपनी मिट्टी के प्रति गहरा लगाव भी है और सम्मान भी जो इन पंक्तियों से समझा जा सकता है- मैंने भाई की धूल भरी देह पर/ एक जोर की जम्फी मारी /और खुश हुआ/मैंने खेत से मिट्टी का/एक ढेला उठाकर सूंघा/और खुश हुआ। मिट्टी के ढेले को सूंघकर वही खु्श हो सकता है जो अपनी जमीन से बेहद प्रेम करता हो। वही गर्व से यह कह सकता है- हमारे पहाड़ शरीफ हैं /सर उठाकर जीते हैं/सबको पानी पिलाते हैं। उसी को इस बात पर दु:ख हो सकता है कि गांव की निचली ढलान पर बचा रह गया है थोड़ा सा जंगल , सिमटती जा रही है उसकी गांव की नदी तथा जंगल की जगह और नदी के किनारे उग आया है बाजार ही बाजार , हरियाली के साथ छीन लिए गए हैं फूलों के रंग ,नदियों का पानी ,उसका नीलापन ,तिलतियां आदि। वह जानता है यह सब इसलिए छीना गया है ताकि-खिलता ,धड़कता ,चहकता ,चमकता रहे उनका शहर ,उनकी दुनिया। इसलिए  कवि को असुविधा या अभावों में रहना पसंद है पर अपनी प्रकृति के बिना नहीं। वे अपने जन और जनपद से प्रेम अवश्य करते हैं पर उसका जबरदस्ती का महिमामंडन नहीं करते हैं। ये कविताएं जनपदीय जीवन की मासूमियत व निष्कलुशता को ही नहीं बल्कि उसे बदशक्ल या बिगाड़ने वालों का पता भी देती हैं। जब वे कहते हैं कि- बड़ी-बड़ी गाड़ियां /लाद ले जाती शहर की मंडी तक/बेमौसमी सब्जियों के साथ/मेरे गांव के सपने । तब उनकी ओर स्पष्ट संकेत करती हैं । बड़ी पूंजी गांव के सपनों को किस तरह छीन रही है? कैसे गांव शहरी प्रवृत्तियों के शिकार हो रहे हैं तथा अपने संसाधनों के साथ कैसे अपनी पहचान खोते जा रहे हैं? ये कविताएं इन सवालों का जबाब भी देती हैं। गांवों से सद्भावना और सामूहिकता जैसे मूल्यों के खोते जाने को कवि कुछ इस तरह व्यंजित है- किस जनम के करम हैं कि/यहां फंस गए हैं हम/कैसे भाग निकलें पहाड़ों के उस पार?/ आए दिन फटती हैं खोपड़ियां जवान लड़कों की /कितने दिन हो गए गांव में मैंने /एक जगह /एक मुद्दे पर इकट्ठा नहीं देखा---शर्मशार हूं अपने सपनों पर/मेरे सपनों से बहुत आगे निकल गया है गांव/बहुत ज्यादा तरक्की हो गई है /मेरे गांव की गलियां पी हो गई हैं। यहां गांव की तरक्की पर अच्छा व्यंग्य किया गया है। आखिर तरक्की किस दिशा में हो रही है? यह कविता हमारा ध्यान उन कारणों की ओर खींचती है जो गांवों के इस नकारात्मक बदलाव के लिए जिम्मेदार हैं। यह कटु यथार्थ है कि 'तरक्की’ के नाम पर आज गांवों का न केवल भौतिक पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है बल्कि सामाजिक पर्यावरण भी प्रदूषित हो रहा है। यह आज हर गांव की दास्तान बनती जा रही है।    

  स्त्री पहाड़ की जनजीवन की रीढ़ हैं। उसका जिक्र हुए बिना पहाड़ का जिक्र आधा है। उसकी व्यथा-कथा पहाड़ की व्यथा-कथा का पर्याय है। ऐसे में भला अजेय जैसे संवेदनशील एवं प्रतिबद्ध कवि से वे कैसे छूट सकती हैं। उनकी कविताओं में आदिवासी स्त्रियों के दु:ख-दर्द-संघर्ष पूरी मार्मिकता से व्यक्त हुए हैं। कवि को चुपचाप तमाम अनाप-शनाप संस्कार ढोती हुई औरत की एक अंतहीन दबी हुई रुलाई दिखाई देती है। साथ ही वह औरत जो अपनी पीड़ाओं और संघर्षों के साथ अकेली है पर 'प्रार्थना करती हुई/उन सभी की बेहतरी के लिए /जो क्रूर हुए हर-बार /खुद उसी के लिए "। इस सब के बावजूद कवि औरत को पूरा जानने का कोई दावा नहीं करता है- ठीक-ठीक नहीं बता सकता है/कि कितना सही-सही जानता हूं /मैं उस औरत को /जबकि उसे मां पुकारने के समय से ही/उसके साथ हूं---नहीं बता सकता/कि कहां था /उस औरत का अपना आकाश।  यह न केवल कवि की ईमानदारी है बल्कि इस बात को भी व्यंजित करती कि पहाड़ी औरत के कष्ट-दु:ख-दर्द इतने अधिक हैं कि उसके साथ रहने वाला व्यक्ति भी अच्छी तरह उन्हें नहीं जान पाता है। उन्होंने आदिवासी औरत की ब्यूंस की टहनियों  से सटीक तुलना की है- हम ब्यूंस की टहनियां हैं /जितना चाहो दबाओ/झुकती ही जाएंगी /जैसा चाहो लचकाओ /लहराती रहेंगी / जब तक हममें लोच है /और जब सूख जाएंगी/ कड़ककर टूट जाएंगी। यही तो है पहाड़ी स्त्री का यथार्थ। एक असहायता की स्थिति। वह अपने साथ सब कुछ होने देती है उन मौकों पर भी जबकि वह लड़ सकती है। उसके जाने के बाद ही उसके होने का अहसास होता है।  वे औरत के गुमसुम-चुपचाप बैठे रहने के पक्षधर नहीं हैं उनका प्रतिरोध पर विश्वास है ,तभी वे कहते हैं- वहां जो औरत बैठी है/उसे बहुत देर तक/ बैठे नहीं रहना चाहिए/ यों सज-धज कर/गुमसुम-चुपचाप।

   अजेय अपने को केवल अपने जनपद तक ही सीमित नहीं करते हैं। उनकी कविताओं में खाड़ी युद्ध में बागी तेवरों के साथ अमरीकी सैनिक , अंटार्कटिका में शोधरत वैज्ञानिक ,निर्वासन में जीवन बिता रहे तिब्बती ,उनके धर्मगुरू आदि भी आते हैं। इस तरह उनकी कविता पूरी दुनिया से अपना रिश्ता कायम करते हैं। उनकी कविता का संसार स्थानीयता से वैश्विकता के बीच फैला है। अनुभव की व्यापकता के चलते विषयों की विविधता एकरसता नहीं आने देती है।  कहीं-कहीं कवि का अंतर्द्वद्व भी मुखर हो उठता है। कहीं-कहीं अनिर्णय और शंका की स्थिति में भी रहता है कवि । यह अनिर्णय और शंका व्यवस्था जनित है। उनके यहां ईश्वर भी आता है तो किसी चत्मकारिक या अलौकिक शक्ति के रूप में नहीं बल्कि एक दोस्त के रूप में जो उनके साथ बैठकर गप्पे मारता है और बीड़ी पीता है। यह ईश्वर का लोकरूप है जिससे कवि किसी दु:ख-तकलीफ हरने या मनौती पूरी करने की प्रार्थना नहीं करता है। यहां यह कहना ही होगा कि भले ही अजेय जीवन के विविध पक्षों को अपनी कविता की अंतर्वस्तु बनाते हैं पर सबसे अधिक प्रभावित तभी करते हैं जब अपने जनपद का जिक्र करते हैं। उनकी कविताओं में जनपदीय बोध का रंग सबसे गहरा है।

  युवा कवि अजेय की कविता की एक खासियत है कि वे इस धरती को किसी चश्में से नहीं बल्कि अपनी खुली आंखों से देखते हैं उनका मानना है कि चश्में छोटी चीजों को बड़ा ,दूर की चीजों को पास ,सफ्फाक चीजों को धुंधला ,धुंधली चीजों को साफ दिखाता है। वे लिखते हैं -लोग देखता हूं यहां के/सच देखता हूं उनका /और पकता चला जाता हूं /उनके घावों और खरोंचों के साथ। कवि उनकी हंसी देखता है ,रूलाई देखता है ,सच देखता है ,छूटा सपना देखता है। इस सबको किसी चश्में से न देखना कवि के आत्मविश्वास को परिलक्षित करता है। एक बात और है कवि चाहे अपनी आंखों से ही देखता है पर उसको भी वह अंतिम नहीं मानता है। विकल्प खुले रखता है। अपनी सीमाओं को तोड़ने-छोड़ने के लिए तैयार रहता है। हमेशा यह जानने की कोशिश करता है कि- क्या यही एक सही तरीका है देखने का। अपने को जांचने-परखने तथा आसपास को जानने-पहचानने की यह प्रक्रिया कवि को जड़ता का शिकार नहीं होने देती। यह किसी भी कवि के विकास के लिए जरूरी है। इससे पता चलता है कि अजेय किसी विचारधारा विशेष के प्रति नहीं मनुष्यता के प्रति प्रतिश्रुत हैं। उनकी कविताएं इस बात का प्रमाण हैं कि अगर कोई रचनाकार अपने समय और जीवन से गहरे स्तर पर जुड़ा हो तो उसकी रचनाशीलता में स्वाभाविक रूप से प्रगतिशीलता आ जाती है। 

   उनके लिए कविता मात्र स्वांत:सुखाय या वाहवाही लूटने का माध्यम नहीं है। वे जिंदगी के बारे में कविता लिखते हैं और कविता लिखकर जिंदगी के झंझटों से भागना नहीं बल्कि उनसे मुटभेड़ करना चाहते हैं। कविता को जिंदगी को सरल बनाने के औजार के रूप में प्रयुक्त करते हैं। उनकी अपेक्षा है कि- वक्त आया है/कि हम खूब कविताएं लिखें/जिंदगी के बारे में/इतनी कि कविताओं के हाथ थामकर/जिंदगी की झंझटों में कूद सकें/जीना आसान बने/और कविताओं के लिए भी बचे रहे/थोड़ी सी जगह /उस आसान जीवन में। अर्थात कविता जीवन के लिए हो और जीवन में कविता हो। उनकी कविता ऐसा करती भी है जीवन की कठिनाइयों से लड़ने का साहस प्रदान करती है। वे जब कहते हैं कि-यह इस देश का आखिरी छोर है/'शीत" तो है यहां/पर उससे लड़ना भी है/यहां सब उससे लड़ते हैं /आप भी लड़ो। यहां पर 'शीत" मौसम का एक रूप मात्र नहीं रह जाता है। यह शीत व्यक्ति के भीतर बैठी हुई उदासीनता और निराशा का प्रतीक भी बन जाता है , सुंदर समाज के निर्माण के के लिए जिससे लड़ना अपरिहार्य है। कविता का ताप इस शीत से लड़ने की ताकत देता है। कविता अपनी इसी जिम्मेदारी का निर्वहन अच्छी तरह कर सके उसके लिए कवि चाहता है कि कविता में -एक दिन वह बात कह डालूंगा /जो आज तक किसी ने नहीं कही/जो कोई नहीं कहना चाहता। यह अच्छी बात है कि कवि को अपनी अभिव्यक्ति में हमेशा एक अधूरापन महसूस होता है। अब तक न पायी गई अभिव्यक्ति को लेकर ऐसी बेचैनी के दर्शन हमें मुक्तिबोध के यहां होते हैं।यह नागरिक कर्म और रचना कर्म को साथ-साथ चरितार्थ करने की बेचैनी लगती है। वे मुक्तिबोध की तरह परम् अभिव्यक्ति की तलाश में रहते हैं। यह अजेय की बहुत बड़ी ताकत है जो उन्हें हमेशा कुछ बेहतर से बेहतर लिखने के लिए प्रेरित करती रहती है। उनके भीतर एक बेचैनी और आग हमेशा बनी रहती है। एक कवि के लिए जिसका बना रहना बहुत जरूरी है। जिस दिन कवि को चैन आ जाएगा। समझा जाना चाहिए कि उसके कवि रूप की मृत्यु सुनिश्चित है क्योंकि एक सच्चे कवि को चैन उसी दिन मिल सकता है जिस दिन समाज पूरी तरह मानवीय मूल्यों से लैस हो जाएगा ,वहां किसी तरह का शोषण-उत्पीड़न और असमानता नहीं रहेगी। जब तक समाज में अधूरापन बना रहेगा कवि के भीतर भी बेचैनी और अधूरापन कायम रहेगा। यह स्वाभाविक है। कवि अजेय अपनी बात कहने के लिए निरंतर एक भाषा की तलाश में हैं और उन्हें विश्वास है कि वह उस भाषा को प्राप्त कर लेंगे क्योंकि आखिरी बात तो अभी कही जानी है । कितनी सुंदर सोच है- आखिरी बात कह डालने के लिए ही /जिए जा रहा हूं /जीता रहुंगा। आखिरी बात कहे जाने तक बनी रहने वाली यही प्यास है जो किसी कवि को बड़ा बनाती है तथा दूसरे से अलग करती है। मुक्तिबोध के भीतर यह प्यास हमेशा देखी गई। उक्त पंक्तियों में व्यक्त संकल्प अजेय की लंबी कविता यात्रा का आश्वासन देती है साथ ही आश्वस्त करती है कि कवि अपने खाघ्चों को तोड़ता हुआ निरंतर आगे बढ़ता जाएगा जो साहित्य और समाज दोनों को समृद्ध करेगा।

  अजेय उन कवियों में से हैं जिन्हें सुविधाएं बहला या फुसला नहीं सकती हैं। चारों ओर चाहे प्रलोभनों की कनात तनी हों पर वे दृढ़ता से संवेदना के पक्ष में खड़े हैं। यह सुखद है कि कवि तपती पृथ्वी को प्रेम करना चाहता है -कि कितना अच्छा लगता है/ नई चीख/नई आग/ और नई धार लिए काम पर लौटना। ठंड से कवि को जैसे नफरत है । वह ठंडी नहीं तपती पृथ्वी को प्रेम करना चाहता है। तपते चेहरे की तरह देखना चाहता है पृथ्वी को। आदमी की भीतर की आग को बुझने नहीं देना चाहता है शायद इसीलिए इन कविताओं में 'आग’ शब्द  बार-बार आता है। यही आग है जो उसे जीवों में श्रेष्ठतम बनाती है। कवि प्रश्न करता है-खो देना चाहते हो क्या वह आग? यह आग ही तो आदमियत को जिंदा रखे हुए है। आदमियत की कमी से कवि खुश नहीं है। कवि मानता है कि ठंडे अंधेरे से लड़ने के लिए मुट्ठी भर आग चाहिए सभी को। उनके लिए महज एक ओढ़ा हुआ विचार नहीं सचमुच का अनुभव है आग। इन कविताओं में अंधेरे कुहासों से गरमाहट का लाल-लाल गोला खींच लाने की तासीर है जिसका कारण कवि का यह जज्बा है -कि लिख सको एक दहकती हुई चीख/ कि चटकाने लगे सन्नाटों के बर्फ/ टूट जाए कड़ाके की नींद।  

   जहां तक भाषा-शिल्प का प्रश्न है , कहना होगा कि उनकी काव्यभाषा में बोधगम्यता और रूप में विविधता है। वे परिचित और आत्मीय भाषा में जीवन दृश्य प्रस्तुत करते हैं। उनकी भाषा में जहां एक ओर लोकबोली के शब्द आए हैं तो दूसरी ओर आम बोलचाल में प्रयुक्त होने वाले अंग्रेजी शब्दों का भी धड़ल्ले से प्रयोग हुआ है। इन शब्दों का अवसरानुकूल और पात्रानुकूल प्रयोग किया गया है।  इसके उदाहरण के रूप में एक ओर बातचीज तो दूसरी ओर ट्राइवल में स्की फेस्टीवल कविता को देखा जा सकता है। कवि जरूरत पड़ने पर अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग से भी परहेज नहीं करता है। स्वाभाविक रूप से उनका प्रयोग करता है। रूप की दृ्ष्टि से भी इनकी कविताओं में विविधता और नए प्रयोग दिखाई देते हैं। आर्कटिक वेधशाला में कार्यरत वैज्ञानिक मित्रों के कुछ नोट्स और 'शिमला का तापमान" इस दृष्टि से उल्लेखनीय कविताएं हैं। ये बिल्कुल नए प्रयोग हैं। इस तरह के प्रयोग अन्यत्र कहीं नहीं दिखते।कनकनी बात, कुंआरी झील, तारों की रेजगारी, जैसे सुंदर प्रयोग उनकी कविताओं के सौंदर्य को बढ़ाते हैं। उनके अधिकांश बिंब लोकजीवन से ही उठाए हुए हैं जो एकदम अनछुए और जीवंत हैं। इन कविताओं का नया सौंदर्यबोध ,सूक्ष्म संवेदना और सधा शिल्प अपनी ओर आकर्षित करता है।

    अजेय की कविताओं को पढ़ते हुए मुझे कवि भवानी प्रसाद मिश्र की ये पंक्तियां बार-बार याद आती रही कि यदि कवि व्यक्तित्व स्वच्छ है ,उसने जाग कर जीवन जिया है और उसके माध्यम के प्रति मेहनत उठाई है तो वह सौंदर्य से भरे इस जगत में नए सौंदर्य भी भरता है। ये पंक्तियां अजेय और उनकी कविताओं पर सटीक बैठती हैं। उनकी कविताओं में भरपूर सौंदर्य भी है और सीधे दिल में उतरकर वहांघ् जमी बर्फ को पिघलाने की सामर्थ्य भी। आ्शा है उनकी धुर वीरान प्रदेशों में लिखी जा रही यह कविता कभी खत्म नहीं होगी तथा कविता लिखने की जिद बनी रहेगी। हिंदी के पाठक  इसका पूरा आस्वाद लेंगे।







  

Friday, September 10, 2010

पहाडी खानाबदोशों का गीत

अजेय की कविता

अलविदा ओ पतझड़!
बांध लिया है अपना डेरा डफेरा
हांक दिया है अपना रेवड़
हमने पथरीले फाटों पर
यह तुम्हारी आखिरी ठंडी रात है
इसे जल्दी से बीत जाने दे
आज हम पहाड़ लांघेंगे
उस पार की दुनिया देखेंगे!

विदा ओ खामोश बूढी सराय!
तेरी केतलियां भरी हुई हैं
लबालब हमारे गीतों से
हमारी जेबों में भरी हुई हैं
ठसाठस तेरी कविताएं
मिल कार समेट लें भोर होने से पहले
अंधेरी रातों की तमाम यादें
आज हम पहाड़ लांघेंगे
उस पार की हलचल सुनेंगे!

विदा ओ गबरू जवान कारिन्दों!
हमारी पिट्ठुओं में
ठूंस दिये हैं तुमने
अपनी संवेदनाओं के गीले रूमाल
सुलगा दिया है तुमने
हमारी छातियों में
अपनी अंगीठियों का दहकता जुनून
उमड़ने लगा है एक लाल बदल
आकाश के उस एक कोने में
आज हम पहाड़ लांघेंगे
उस पार की हवाएं सूंघेंगे!

सोई रहो बरफ में
ओ कमजोर नदियों!
बीते मौसम में घूंट-घूंट पिया है
तुम्हें बदले में
कुछ भी नहीं दिया है
तैरती है हमारी देहों में
तुम्हारी ही नमी
तुम्हारी ही लहरें मचलती हैं
हमारे पांवों में
सूरज उतर आया है आधी ढलान तक
आज हम पहाड़ लांघेंगे
उस पार की धूप तापेंगे

विदा ओ अच्छी ब्यूंस की टहनियां
लहलहाते स्वप्न हैं
हमारे आंखों में तुम्हारी हरियाली के
मजबूत लाठियां है
हमारे हाथों में
तुम्हारे भरोसे की

तुम अपनी झरती पत्तियों के आंचल में
सहेज लेना चुपके से
थोडी सी मिट्टी और कुछ नायाब बीज

अगले बसंत में हम फिर लौटेंगे!
(अकार २७ से साभार)

Friday, January 23, 2009

दोर्जे गाईड की बातें



रोहतांग
बर्फ से ढका हुआ है। लाहौल में जनजीवन की हलचल को जानने के लिए टेलीफोन के सिवा कोई दूसरा रास्ता दिखाई देता है। केलांग लाहुल का हेडक्वार्टर है जहां हमारे प्रिय कवि अजेय रहते है। फोन की घंटी बजती है, देखता हूं अजेय का नाम उभर रहा है। बर्फ की दीवार के पार से सीलन भरे मौसम की खामोशी को तोड़ती अजेय की आवाज सुनायी देती है। कुछ मौसम की, कुछ अपनी कारगुजारियों की और एक हद तक साहित्य की दुनिया की हलचलों पर बातें होती हैं। रोहतांग की सरहद के पार से दुनिया जहान की हलचलॊं के साथ हिस्सेदारी की बेचैनी से भरा अजेय बताता है कुछ कविताएं लिखी हैं उसने इस बीच। पर उन पर काम होना अभी बाकी है। जब तक कवि उन्हें मुकम्मल करे तब तक के लिए अजेय की कुछ चुनिंदा कविताओं को यहां सबके पढ़ने के लिए रख दिया जा रहा है। पढ़ें अपनी कविताओं के बारे में अजेय का कहना है-


''कविता मेरे लिए आत्माभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है। मैं अपनी कविताओं द्वारा अपने पहाड़ी जनपद की उस सैलानी -छवि को तोड़ना चाहता हूं जो मेरे बर्फ़ीले जनपद को रहस्यभूमि (वंडरलेंड) बना कर पेश करते हैं। मैं यह बताना चाहता हूं कि यहां भी लोग शेष विश्व के पिछड़े इलाकों और अनचीन्हे जनपदों के निवासियों की भांति सुख-दुख को जीते हैं-पीड़ाओं को झेलते और उनसे टकराने वाले लोग बसते हैं। जिनके अपने छोटे-छोटे सपने और अरमान हैं। हम और अध्कि रहस्य, रोमांच, मनोरंजन अथवा शो-पीस बनकर चिड़ियाघर या अजायबघर की वस्तु बन कर नहीं जीना चाहते।"

अजेय

कविता खत्म नहीं होती
(मेन्तोसा1 पर एडवेंचर टीम)

पैरों तक उतर आता है आकाश
यहां इस ऊँचाई पर
लहराने लगते हैं चारों ओर
मौसम के धुंधराले मिजाज़
उदासीन
अनाविष्ट
कड़कते हैं न बरसते
पी जाते हैं हवा की नमी
सोख लेते हैं बिजली की आग।

कलकल शब्द झरते हैं केवल
बर्फीली तहों के नीचे ठंडी खोहों में
यदा-कदा
अपने ही लय में टपकता रहता है राग।

परत-दर-परत खुलते हैं
अनगिनत अनछुए बिम्बों के रहस्य
जिनमें सोई रहती है ज़िद
छोटी सी
कविता लिख डालने की।

ऐसे कितने ही
धुर वीरान प्रदेशों में
निरंतर लिखी जा रही होगी
कविता खत्म नही होती,
दोस्त ....................
संचित होती रहती है वह तो
जैसे बरफ
विशाल हिमनदों में
शिखरों की ओट में
जहाँ कोई नही पहुँच पाता
सिवा कुछ दुस्साहसी कवियों के
सूरज भी नहीं।

सुविधाएं फुसला नही सकती
इन कवियों को
जो बहुत गहरे में नरम और खरे
लेकिन हैं अड़े
संवेदना के पक्ष में
गलत मौसम के बावजूद
छोटे-छोटे अर्द्धसुरक्षित तम्बुओं में
करते प्रेमिका का स्मरण
नाचते-गाते
घुटन और विद्रूप से दूर

दुरूस्त करते तमाम उपकरण
लेटे रहते हैं अगली सुबह तक स्लीपिंग बैग में
ताज़ी कविताओं के ख्वाब संजोए
जो अभी रची जानी हैं।


1. लाहुल की मयाड़ घाटी में एक पर्वत शिखर(ऊँचाई 6500मी0)


गाँव में चक्का तलाई

मेरे गाँव की गलियाँ पक्की हो गई हैं।
गुज़र गई है एक धूल उड़ाती सड़क
गाँव के ऊपर से
खेतों के बीचों बीच
बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ
लाद ले जाती हैं शहर की मंडी तक
नकदी फसल के साथ
मेरे गाँव के सपने
छोटी छोटी खुशियाँ --
मिट्टी की छतों से
उड़ा ले गया है हेलीकॉप्टर
एक टुकड़ा नरम धूप
सदिZयों की चहल पहल
ऊन कातती औरतें
चिलम लगाते बूढ़े
`छोलो´ की मंडलियाँ
और विषअमृत खेलते बच्चे।
टीन की तिरछी छतों से फिसल कर
ज़िन्दगी
सिमेंटेड मकानों के भीतर कोज़ी हिस्सों में सिमट गई है
रंगीन टी वी के
नकली किरदारों में जीती
बनावटी दु:खों में कुढ़ती --
´´कहाँ फँस गए हम!
कैसे निकल भागे पहाड़ों के उस पार?´´
आए दिन फटती हैं खोपड़ियाँ जवान लड़को की
बहुत दिन हुए मैंने पूरे गाँव को
एक जगह/एक मुद्दे पर इकट्ठा नहीं देखा।
गाँव आकर भूल गया हूँ अपना मकसद
अपने सपनों पर शर्म आती है
मेरे सपनों से बहुत आगे निकल गया है गाँव
बहुत ज्यादा तरक्की हो गई है
मेरे गाँव की गलियाँ पक्की हो गई हैं।


आलू का सीज़न

गोली मार टरक को यार।
अब तो रात होने को है
ठंड भी कैसी है
कमबखत
वो सामने देखते हो लेबर कैम्प
सोलर जल रहा जहाँ
मेटनी के तम्बू में
चल , दो घूंट लगाते हैं
जीरे के तड़के वाली
फ्राईड मोमो के साथ
गरमा जाएगा जिसम
गला भी हो जाएगा तर
दो हाथ मांगपत्ता हो जाए
पड़े रहेंगें रात भर
सुबह तक पटा लेगें किसी उस्ताद को हज़ार पाँच सौ में
खुश हो जाएगी घरवाली।


छतड़ू में कैम्प फायर

ऐसे ही बैठे थे
`फायरप्लेस´ के सामने
हम पाँच छह जने
कि अचानक दीवार पर टंगी सूली से
उतर आया जीजस
चुपचाप हमारी बकवास में शमिल हो गया।

रात भर बतियाते रहे हम
अलाव तापते
बीयर के साथ
दुनियादारी की बातें
मौसम की
रंगों
कीट पतंगों की
आदमी की, पैसों की
कफ्र्यू और दंगों की
हँसता रहा पैगम्बर
रातभर।

अंतत:
सरूर में
पप्पू ने गिटार उठाई
शामू ने बाँसुरी
मैंने सीटी
स्वामी ने ताली बजाई
और झूमते हुए ईश्वर के बेटे ने गाया
एक सुन्दर यहूदी गीत-
``- - ईश्वर मरा नहीं
सो रहा है।´´


`ट्राईबल´ में स्की-फेस्टिवल

सन सन सर्र सर्र
बर्फ पर
चटख झंडे
लाल पीले नीले
मजेन्टा और पर्पल और फलॉरेसेन्ट बच्चे
पाऊडर स्कीईंग
वाह जी वाह!
अभी कल ही तो पड़ी है
पाँच-छह फुट समझो
इस बार तो
कुल मिलाकर
गाँव में बड़ी मस्ती है
उम्मीदें जगी है
बुजुर्गों ने कहा है बच जाएंगी फसलें ।
बड़ा महंगा होगा
नही शर्मा जी,
यह `इकुपमिंट´ ?
इंपोर्टिड.........
अच्छा, `स्मगल्ड´ है ?
वाह जी वाह!
मनाली वाले हैं
दो चार `इंस्ट्रक्टर´
कुछ `फोर्नर´
ये `फोर्नर´ भी बस ......
और ये छोकरू अपने
उनके पीछे-पीछे ।
वैसे एक बात कहूं सर,
यह एडवेंचर
और मस्ती-
स्वस्थ मनोरंजन है
`टॉनिक´ कहो `.......काइंड आफ´ ।
वही तो,
हमारे ऋषि मुनि
क्या करते थे दुर्गम कन्दराओं में ?
एडवेंचर तो
`हेल्दी थिंकिंग डिवलेप´ करता है जनाब ।
`एक्ज़ेक्टली सर !`
और कैसे पीके `गच्च´ रहते हैं
यहां के लोग
पिछली बार याद है
कितना नाचे थे
कपूर साब
रात भर `छंका`.........
और कैसी प्यारी-प्यारी लड़कियां आई थीं
दारचा से
वाह जी वाह!
गिल साब का भांगडा
जगह नहीं थी
हाँल में तिल धरने को ।
मैंने तो डी´स्साब से कहा
यह रौनक मेला लगे रहना चाहिए
ट्राईबल में
और क्या है
टाईम पास ।
हाँ जी, हाँ ।





केलंग
(सर्दियां -2004)

1/ हरी सिब्ज़याँ

`फ्लाईट´ में सब्ज़ी आई है
तीन टमाटर
दो नींबू
आठ हरी मिरचें
मुट्ठी भर धनियाँ
सजा कर रखी जाएँगी सिब्ज़याँ
`ट्राईबेल फेयर´ की स्मारिका के साथ
महीना भर
जब तक कि सभी पड़ोसी सारे कुलीग
जान न लें
फ्लाईट में हरी सिब्ज़याँ आई है।

2/ पानी

बुरे बक्त में जम जाती है कविता भीतर
मानो पानी का नल जम गया हो
चुभते हैं बरफ के महीन क्रिस्टल
छाती में
कुछ अलग ही तरह का होता है, दर्द
कविता के भीतर जम जाने का
पहचान में नहीं आता मर्ज़
न मिलती है कोई `चाबी´
`स्विच ऑफ´ ही रहता है अकसर
सेलफोन फिटर का।

3/ बिजली

`सिल्ट´ भर गया होगा
`फोरवे´ में
`चैनल´ तो शुरू साल ही टूट गए थे
छत्तीस करोड़ का प्रोजेक्ट
मनाली से `सप्लाई´ फेल है
सावधान
`पावर कट´ लगने वाला है
दो दिन बाद ही आएगी बारी
फोन कर लो सब को
सभी खबरें देख लो
टी. वी. पर
सभी सीरियल
नहा लो जी भर रोशनियों में खूब मल-मल
बिजली न हो तो
ज़िन्दगी अँधेरी हो जाती है।

4/ सड़कें

अगली उड़ान में `शिफ्ट` कर दिया जाएगा
`पथ परिवहन निगम´ का स्टाफ
केवल नीला टेंकर एक `बोर्डर रोड्स´ का
रेंगता रहेगा छक-छक-छक
सुबह शाम
और कुछ टेक्सियाँ
तान्दी पुल-पचास रूपये
स्तींगरी-पचास रूपये
भला हो `बोर्डर रोड्स´ का
पहले तो इतना भी न था
सोई रहती थी सड़कें, चुपचाप
बरफ के नीचें
मौसम खुलने की प्रतीक्षा में
और पब्लिक भी
कोई कुछ नहीं बोलता ।

दोर्जे गाईड की बातें
(ग³् स्ता³् हिमनद का नज़ारा देखते हुए)


इससे आगे?
इससे आगे तो कुछ भी नहीं है सर!
यह इस देश का आखिरी छोर है।
इधर बगल में तिबत है
ऊपर कश्मीर
पश्चिम मे जम्मू
उधर बड़ी गड़बड़ है
गड़बड़ पंजाब से उठकर
कश्मीर चली गई है जनाब
लेकिन हमारे पहाड़ शरीफ हैं
सर उठाकर
सबको पानी पिलाते हैं
दूर से देखने मे इतने सुन्दर
पर ज़रा यहाँ रूककर देखो .................
नहीं सर,
वह वैसा नहीं है
जैसा कि अदीब लिखता है-
भोर की प्रथम किरणों की
स्वर्णाभा में सद्यस्नात्
शंख-धवल मौन शिखर,
स्वप्न लोक, रहस्यस्थली .......
वगैरा-वगैरा
जिसे हाथों से छू लेने की इच्छा रखते हो
वो वैसा खामोश नहीं है
जैसा कि दिखता है।
बड़ी हलचल है वहाँ दरअसल
बड़े-बड़े चट्टान
गहरे नाले और खì
खतरनाक पगडंडियाँ हैं
बरफ के टीले और ढूह
भरभरा कर गिरते रहते हैं
गहरी खाईयों में
बड़ी ज़ोर की हवा चलती है
हिìयाँ काँप जाती हैं, माहराज,
साक्षात् `शीत´ रहता है वहाँ!
यहाँ सब उससे डरते हैं
वह बरफ का आदमी
बरफ की छड़ी ठकठकाता
ठीक `सकरांद´ के दिन
गाँव से गुज़रते हुए
संगम में नहाता है
इक्कीस दिनों तक
सोई रहती है नदियाँ
दुबक कर बरफ की रज़ाई में
थम जाता है चन्द्रभागा का शोर
परिन्दे तक कूच कर जाते हैं
रोहतांग के पार
तन्दूर के इर्द गिर्द हुक्का गुडगुड़ाते बुजुर्ग
गुप चुप बच्चों को सुनाते हैं
उसकी आतंक कथा।
नहीं सर
झूठ क्यों बोलना?
अपनी आँखों से नहीं देखा है उसे
पर कहते हैं
घर लौटते हुए
कभी चिपक जाता है
मवेशियों की छाती पर
औरतें और बच्चे
भुर्ज की टहनियों से
डंगरो को झाड़ते हैं-
``बर्फ की डलियाँ तोडो
`डैहला´ के हार पहनो
शीत देवता
अपने `ठार´ जाओ
बेज़ुबानों को छोड़ो´´
सच माहराज, आँखों से तो नहीं............
कहते हैं
गलती से जो देख लेता है
वहीं बरफ हो जाता है
`अगनी कसम´।
अब थोडा अलाव ताप लो सर,
इससे आगे कुछ नहीं है
यह इस देश का आखिरी छोर है
`शीत´ तो है यहाँ
उससे डरना भी है
पर लड़ना भी है
यहाँ सब उससे लड़ते हैं जनाब
आप भी लड़ो।

Friday, September 19, 2008

अजेय की कविता

अजेय ने कुछ कविताऐं भेजी हैं (उनमें से एक यहां प्रस्तुत है) मैं नहीं जानता कि लिखे जाते वक्त कवि के भीतर कौन से बिम्ब तैर रहे होगें। कोसी नदी की बाढ़ और उसमें डूब रहा सब कुछ, नदी कहने भर से ही मुझे, उस व्यथित कर देने वाले मंजर में डूबो रहा है।
लाहुल (लाहौल- स्पीति ) में रहने वाले अजेय की कविता में नदी अपने सौन्दर्य भरे चित्रों के साथ होते हुए भी ऐसी ही स्थितियों के बिम्ब अनायास प्रकट नहीं कर रही हो सकती है - अलग-अलग बिछे हुए/पेड़/मवेशी/कनस्तर/डिब्बे लत्ते/ढेले/कंकर/---



अजेय
ajeyklg@gmail.com

इस उठान के बाद नदी

इस नदी को देखने के
लिएआप इसके एक दम करीब जाएँ।
घिस-घिस कर कैसे कठोर हुए हैं और सुन्दर
कितने ही रंग और बनक लिए पत्थर।

उतरती रही होगीं
पिछली कितनी ही उठानों पर
भुरभुरी पोशाकें इन की
कि गुमसुम धूप खा रही
चमकीली नंगी चट्टानें
उकड़ूँ ध्यान मगन
और पसरी हुई कोई ठाठ से
आज जग उतर चुका है पानी।

अलग-अलग बिछे हुए
पेड़
मवेशी
कनस्तर
डिब्बे
लत्ते
ढेले
कंकर
रेत---
कि नदी के बाहर भी बह रही थीं
कुछ नदियां शायद
उन्हें करीब से देखने की ज़रूरत थी।

कुछ बच्चे मालामाल हो गए अचानक
खंगालते हुए
लदे-फदे ताज़ा कटे कछार
अच्छे से ठोक- ठुड़क कर छांट लेते हर दिन
पूरा एक खज़ाना
तुम चुन लो अपना एक शंकर
और मुट्ठी भर उसके गण
मैं कोई बुद्ध देखता हूँ अपने लिए
हो सके तो सधे पैरों वाला
एकाध अनुगामी श्रमण
और खेलेंगे भगवान-भगवान दिन भर।

ठूँस लें अपनी जेबों में आप भी
ये जो बिखरी हुई हैं नैमतें
शाम घिरने से पहले वरना
वो जो नदी के बाहर है
पानी के अलावा
जिसकी अलग ही एक हरारत है
गुपचुप बहा ले जाएगा
अपनी बिछाई हुई चीज़ें
आने वाले किसी भी अंधेरे में
आप आएँ
देख लें इस भरी पूरी नदी को
यहां एक दम करीब आकर।

Saturday, July 19, 2008

इस कुंआरी झील में झांको

(केलांग को मैं अजेय के नाम से जानने लगा हूं। रोहतांग दर्रे के पार केलांग लाहुल-स्पीति का हेड क्वार्टर है। अजेय लाहुली हैं। शुबनम गांव के। केलांग में रहते हैं। "पहल" में प्रकाशित उनकी कविताओं के मार्फत मैं उन्हें जान रहा था। जांसकर की यात्रा के दौरान केलांग हमारे पड़ाव पर था। कथाकार हरनोट जी से फोन पर केलांग के कवि का ठिकाना जानना चाहा। फोन नम्बर मिल गया। उसी दौरान अजेय को करीब से जानने का एक छोटा सा मौका मिला। गहन संवेदनाओं से भरा अजेय का कवि मन अपने समाज, संस्कृति और भाषा के सवाल पर हमारी जिज्ञासाओं को शान्त करता रहा। अजेय ने बताया, लाहौल में कई भाषा परिवारों की बोलियां बोली जाती हैं। एक घाटी की बोली दूसरी घाटी वाले नहीं जानते-समझते। इसलिए सामान्य सम्पर्क की भाषा हिन्दी ही है। भाषा विज्ञान में अपना दखल न मानते हुए भी अजेय यह भी मानते हैं कि हमारी बोली तिब्बती बोली की तरह बर्मी परिवार की बोली नहीं है, हालांकि ग्रियसेन ने उसे भी बर्मी परिवार में रखा है। साहित्य के संबंध में हुई बातचीत के दौरान अजेय की जुबान मे। शिरीष, शेखर पाठक, ज्ञान जी ज्ञान रंजन से लेकर कृत्य सम्पादिका रति सक्सेना जी का जिक्र करते रहे। एक ऐसी जगह पर, जो साल के लगभग 6 महीने शेष दुनिया से कटा रहता है, रहने वाले अजेय दुनिया से जुड़ने की अदम्य इच्छा के साथ हैं। उनसे मिलना अपने आप में कम रोमंचकारी अनुभव नहीं। उनकी कविताओं में एक खास तरह की स्थानिकता पहाड़ के भूगोल के रुप में दिखायी देती है। जिससे समकालीन हिन्दी कविता में छा रही एकरसता तो टूटती ही है। कविताओं के साथ मैंने अजेय जी एक फ़ोटो भी मांगा था उनका पर नेट के ठीक काम न करने की वजह से संलग्नक उनके लिये भेजना संभव न रहा. कविताऎं भेजते हुए अपनी कविताओं के बारे में उन्होंने जो कहा उसे पाठकों तक पहुंचा रहे हैं - u can publish my poems without photo and all. poems should reflect my inner image....thats more important , i suppose, than my external appearence.....isnt it ?---------- ajey)

अजेय 09418063644

चन्द्रताल पर फुल मून पार्टी

इस कुंआरी झील में झांको
अजय
किनारे किनारे कंकरों के साथ खनकती
तारों की रेज़गारी सुनो

लहरों पर तैरता आ रहा
किश्तों में चांद
छलकता थपोरियां बजाता
तलुओं और टखनों पर

पानी में घुल रही
सैंकडों अनाम खनिजों की तासीर
सैंकडों छिपी हुई वनस्पतियां
महक रही हवा में
महसूस करो
वह शीतल विरल वनैली छुअन------------

कहो
कह ही डालो
वह सब से कठिन कनकनी बात
पच्चीस हज़ार वॉट की धुन पर
दरकते पहाड़
चटकते पठार

रो लो
नाच लो
जी लो
आज तुम मालामाल हो
पहुंच जाएंगी यहां
कल को
वही सब बेहूदी पाबंदियां !

(जिमी हैंड्रिक्स और स्नोवा बार्नो के लिए)
चन्द्रताल,24-6-2006

भोजवन में पतझड़

मौसम में घुल गया है शीत
बैशरम ऎयार
छीन रहा वादियों की हरी चुनरी

लजाती ढलानें
हो रही संतरी
फिर पीली
और भूरी

मटमैला धूसर आकाश
नदी पारदर्शी
संकरी !

कॉंप कर सिहर उठी सहसा
कुछ आखिरी बदरंग पत्तियां
शाख से छूट उड़ी सकुचाती
खिड़की की कांच पर
चिपक गई एकाध !

दरवाजे की झिर्रियों से
सेंध मारता
बह आखिरी अक्तूबर का
बदमज़ा अहसास
ज़बरन लिपट गया मुझसे !

लेटी रहेगी अगले मौसम तक
एक लम्बी
सर्द
सफेद
मुर्दा
लिहाफ के नीचे
एक कुनकुनी उम्मीद
कि कोंपले फूटेंगी
और लौटेगी
भोजवन में ज़िन्दगी ।
नैनगार 18-10-2005