Sunday, June 16, 2024

यह कागज की कतरनों का खेल है

यूं तो अरविंद शर्मा की पहचान एक फोटोग्राफर की ही रही। साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियां ही नहीं, रैली, जूलूस, धरने प्रदर्शन के फोटो खींचना ही उसका शौक भी रहा और रोजगार भी। उसके द्वारा खींची गई फोटो की खूबी रही कि फोटो में दिखाई दे रहे चेहरे को पहचानने के लिए आपको आंखों में जोर नहीं डालना पड़ेगा। चाहे तस्वीर किसी भीड़ की ही हो। अरविंद को भीड़ के बीच भी जिस किसी की तस्वीर खींचनी होती रही, उसे खींचने में शायद ही कभी चूका हो। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौर में इसीलिए जब वह अपना कैमरा कंधे पर लिये दिख जाता था तो पिछले दिन की तस्वीरों में अपना चेहरा छांट लेने वालों की भीड़ उसे थैला खोलकर तस्वीरें उनके हवाले कर देने के लिए मजबूर कर देती थी। अरविंद जानता था कि जिसे अपनी तस्वीर दिख जाएगी, ले ही लेगा। पैसे भी मिल ही जाएंगे। लेकिन कई बार ऐसा भी होता था कि तस्वीर वाले ने अपने से सम्बंधित तस्वीर तो रख ली लेकिन पैसे नहीं दिये। अरविंद के लिए लेकिन इस बात के कोई मायने नहीं रहे। वह तो उस वक्त भी फोटो खींचने में ही लगा रहता था। यानि नफे नुकसान की चिंता किये बगैर ही वह अपने काम में मशगूल रहता था। यह जानना दिल्चस्प है कि अरविंद को कैमरे के आईपीस में आंख धंसाकर फोटो लेने में असुविधा होती थी। क्योंकि उस तरह से ओबजेक्ट को फोकस करने में उसकी आंखें साथ नहीं दे पाती। उसका हुनर तो इसी बात का रहा कि दूरी का सही सही अंदाजा लगा वह कैमरे को सिर से भी ऊपर उठाकर एक दुरुस्त फोटो खींच लेता रहा।

अब कैमरा तो छोड़ दिया अरविंद भाई ने लेकिन भीतर बसी मानवीय आकृतियों को उकेरने के लिये कोलाज बनाये हैं। आप चाहें तो इन कोलाजों को फ्रेम करके अपने घर में लगा सकते हैं। अरविंद भाई को फोन करें, वे आपको कोलाज की डिजीटल कॉपी भेज देंगे। अरविंद भाई को मालूम है, पैसे मिल ही जाएंगे। न भी मिलें तो वे कोलाज बनाना बंद करने से तो रहे।         

यह कागज की कतरनों का खेल है, आप इन्हें पेंटिग भी मान सकते हैं। 






 

Friday, May 17, 2024

सम्वेदना का साहित्यिक योगदान और आज की चुनौतियां

लूट और प्रलोभन का रिश्ता इतना गहरा होता है कि यदि उसे देखना चाहें तो किसी एक जरिये से दूसरे तक पहुंचा जा सकता है। लेकिन इस रिश्ते के बनने की प्रक्रिया इतनी जटिल होती है कि प्रलोभनों {ज्ञात व अज्ञात} का अदृश्य परदा सोचने समझने और तर्क करने की क्षमता को ही कुंद कर देता है और इसीलिए लुटने वाले को पता ही नहीं लग पाता है कि वह लूटा जा चुका है।


साहित्य में लूट की स्थिति का आंकलन करें तो दिखाई देगा कि रचनात्मकता की लूट के अड्डे सिर्फ प्रकाशक और पत्र पत्रिकाओं के सम्पादकीय विभाग ही नहीं हैं, बल्कि हर वह मंच भी हैं जो पद, प्रतिष्ठा, पुरस्कार के प्रलोभनों {ज्ञात वा अज्ञात} तक को सृजित करने में समर्थ हैं। रचनाकार ऐसे मंचों के आगे अपनी अपनी तरह से नतमस्तक है। इस हद तक कि वे मंच किस तरह सामर्थ्यवान हो जाते हैं, उनके पीछे की ताकत किन स्रोतों से हासिल है और क्यों वे पूंजी बहाते हैं, उस पर सवाल करने से भी बचने लगते हैं। लूट और प्रलोभनों की इन स्थितियों ने ही रचनाकारों को अपने मूल्य और प्रतिबद्धताओं से डिगाने का प्रपंच रचा हुआ है।         


हर रचनाकार के भीतर यह सहज महत्वाकांक्षा होती है कि उसकी रचना जन जन तक पहुंचे, सराही जाए और इस तरह से उसका रचनाकर्म एक सार्थक मानवीय गतिविधि का हिस्सा हो सके। लेकिन स्थितियां विकट हैं और उस विकटता के कारण समाज का पिछड़ापन भी एक महत्वपूर्ण कारक है। यह एक प्रचारित सत्य है कि कला-साहित्य सीधे सीधे किसी व्यक्ति विशेष के जीवन को मनुष्य द्वारा सृजित दूसरे संसाधनों की तरह सहज और समर्थ नहीं बनाता है। यही वजह है कि सर्वप्रथम कोई भी व्यक्ति पहले निजी जीवन की दूसरी आवश्यकताओं को अपनी पहुंच तक लाने की कोशिश करता है और फिर जब एक हद तक आधारभूत जरूरतों को पूरा कर लेता है तो तब अन्य भावनात्मक चीजों के प्रति कदम बढाता है। किसी भी भाषा के साहित्य को कमोबेश इस स्थिति का सामना करना ही पडता है। यदि साहित्य की समाज में पहुंच के साथ भारतीय समाज की आर्थिक स्थितियों का अध्ययन और विश्लेषण किया जाए तो जरूर चौकाने वाले ऐसे खुलासे भी हो सकते हैं कि विभिन्न भाषा-भाषी समाज के अंतरसम्बंधों और विसंगतियों के कारण भी समझ आने लगेंगे।


प्रलोभनों की गिरफ्त में रहते हुए और लुट जाने की चिंताओं को दूर फटकते हुए ही चित्रकारी ने बाजारू होते जाने की सीमाएं लांघी है और संगीत की रवायतों ने पहले राजाश्रयी और बदलती दुनिया के साथ शासकीय ठियों और रुतबेदार ठिकानों को ही अंतिम मानने में कोई गुरेज नहीं की। इस प्रक्रिया को समझने के साथ साथ; कभी उसका प्रतिकार तो कभी उसे अंगीकार कर लेने का रास्ता एक हद तक अब भी साहित्य और रंगकर्म की दुनिया का ढब है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि लूट और प्रलोभन की यह सतत प्रक्रिया ही कला साहित्य की दुनिया को कठिन और आसान बनाती रहती है। सवाल है कि वे कौन से कारण होते हैं जो कला साहित्य की दुनिया को इस प्रक्रिया से मुक्त नहीं होने देते ? उसे ‘महापौरों’ के आगे नतमस्तक होने को मजबूर किये रहते हैं?


यदि इन सवालों के जवाब बिल्कुल हालिया स्थितियों से तलाशे जाये तो अपने करीब घटने जा रही एक घटना का जिक्र करना ही ज्यादा उचित होगा। वह घटना जो स्वयं मुझे भी कटघरे में खड़ा कर सके। सिर्फ इतने भर से नहीं कि मैं असहमत हूं और उस जगह से अनुपस्थित रहूंगा, बावजूद उसका भागीदार तो हूं ही। स्पष्ट तौर पर कहूं तो वह घटना सम्वेदना, देहरादून का वह कार्यक्रम है जो 18 मई 2024 को 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' के हॉल में सम्पन्न होने जा रहा है।          


'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' में सम्वेदना का यह कार्यक्रम सम्वेदना की 'अपनी शर्तों' पर हो रहा है कि 1) 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' का हॉल तो मुफ्त मिले, 2) और आयोजक के रूप में भी सम्वेदना स्वतंत्र संगठन हो। देहरादून में साहित्य की 'महापौर' बनने की ओर बढती जा रही 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' की कोई भूमिका न हो। ज्ञात हो कि सम्वेदना के अंदर यह बहस वर्ष 2023 के शुरुआती माह की उस गोष्ठी से शुरु हुई थी जिसमें फिल्मों पर आयी मनमोहन चड्ढा जी की बेहतरीन पुस्तक को चर्चा के लिए चुना गया था। और उस दौरान ही 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' में सलाहकार समिति में मौजूद सदस्यों द्वारा जानकारी दी गई थी कि 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' को हॉल का किराया देना पडेगा। हालांकि सूचना देने वाले साथियों ने साथियों यह बात भी रखी ही थी कि रचनाकरों के कार्यक्रमों को हॉल मुहैया कराने के लिए 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' के क्या प्रावधान है वे पूरी तरह नहीं जानते। खैर, वे प्रावधान क्या रहे होंगे इसका खुलासा तो 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' को करना चाहिए था जो कि उसने आज तक किया नहीं पर यह स्पष्ट है वर्ष 2023 के अंतिम महीनों में मनमोहन चड्ढा जी की पुस्तक पर चर्चा आयोजित हुई पर जिसकी आयोजक सम्वेदना नहीं साहित्य की 'महापौर' स्वतंत्र रूप से 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' ही थी। यह भी कोई छुपा हुआ तथ्य नहीं वर्ष 2023 में ही नामचीन लेखक और मार्क्सवादी विचारक लाल बहादुर वर्मा जी की स्मृति में एक कार्यक्रम 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' के हॉल में ही आयोजित हुआ था जिसके लिए आयोजकों को हॉल का किराया रू 5000/- चुकाना पड़ा था क्योंकि साहित्य की 'महापौर' उस कार्यक्रम का सहभागीदार बनने से बचना चाहती थी। आनंद स्वरूप वर्मा मार्क्सवादी विचारक उस कार्यक्रम में मुख्य वक्ता थे। अज्ञात सूत्रों के हवाले से यह बात उस समय हवा में थी कि बोर्ड ऑफ़ डाइरेक्टर्स का नौकरशाही चश्मा कार्यक्रम को मार्क्सवादी फ्लेवर होने के कारण 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' को महापौर बनने से भी बचाना चाहता है। जबकि यह बात जग जाहिर है कि 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' तो किसी प्रकाशक की किताबों की बिक्री तक में सहयोग करने के लिए 'महापौर' बनने को उतावली रही है।   


अब सवाल है कि सम्वेदना का 18 मई 2024 का कार्यक्रम 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' के कौन से प्रावधान से बिना किराया लिए और 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' को महापौर की भूमिका भी अदा न करने देते हुए आयोजित हो रहा है? क्या यह किसी तरह की लूट और प्रलोभन का प्रपंच तो नहीं ?


किये जा रहे सवाल इसलिए बेबुनियाद नहीं है क्योंकि हॉल के किराये के मामले को प्रशांकित करते हुए यह बातें हमेशा दोहराई गई हैं कि सिर्फ सम्वेदना के कार्यक्रम ही नहीं बल्कि कोई भी साहित्यिक संस्था यदि उस हॉल में उपल्बध तिथि के दिन आयोजन करे तो 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' को वह जगह बिना किराये के मुहैया करानी चाहिए। किराये मुक्ति के पीछे यह स्पष्ट तर्क है कि 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' का निर्माण जनता के पैसों से हुआ है। यह तथ्य है कि स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट का हिस्सा होकर सामने आई 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' का  निर्माण का टैंडर TOT reference No. 36993223 एवं Document reference No. 3081/Nivida (Garhwal)/125, dated 01/10/2025 को Pey Jal Nigam, Govt of Uttarakhand, के द्वारा कुल Tender Value: Rs. 111000000 के रूप में जारी किया गया था। उसके बाद ही 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' का निर्माण कार्य उस जगह शुरु हुआ था जहां देहरादून का आवाम नागरिकता संशोधन कानून के रूप में लगातार धरने प्रदर्शनों के साथ मौजूद होता था।


चोरी-चोरी, चुपके चुपके जिस तरह से सम्वेदना ने अपने कार्यक्रम के लिए इस बार बिना किराये के भी 'मॉर्डन लाइब्रेरी, देहरादून' के हॉल को हासिल किया है क्या उसे देहरादून की उस समस्त साहित्यिक बिरादरी के साथ गद्दारी नहीं मानना चाहिए ?, जो अभी भी निश्चिंत नहीं हो सकती कि भविष्य में यह हॉल उन्हें स्वतंत्र आयोजक रहते हुए फ्री मिलेगा या नहीं?


सम्वेदना से अपने जुड़ाव के नाते यह तो कह ही सकता हूं सम्वेदना की कार्यशैली हमेशा पारदर्शी रही है। आयोजन पहले भी हुए हैं और हर सक्रिय सदस्य को कार्यक्रम से सम्बंधी हर छोटी से छोटी बात तक मालूम रही है। जबकि खुले व्यवहार की सम्वेदना में आयोजन के नाम पर कमेटी बनाने तक की कभी कोई औपचारिकता नहीं की गई। उसके पीछे की सौद्धांतिकी रही है कि औपचारिक कमेटियां साथियों की भागीदारी को सीमित करती है। कोई कम सक्रिय साथी कार्यक्रम को मूर्त रूप देने के लिए अपने सुझाव को सबके सामने रखने से पहले खुद ही सीमित कर लेता है और कमेटी सद्स्योंं को ही महत्वपूर्ण मानता रहता है। लेकिन यह पहला मौका है जब मैं कह सकता हूं कि कार्यक्रम को लेकर औपचारिक कमेटी तक स्थापित हुई। सम्वेदना की कार्यशैली में आ रहे बदलाव क्या किसी तरह के प्रलोभनों की आहट तो नहीं? यह आशंका नहीं उस बाइनरी में चीजों को देखना है जो बताती है प्रलोभनों के झूठ ही लूट तक जाते हैं। यदि इसमें रत्तिभर भी सत्यता हो तो तय है कि भविष्य में देहरादून का साहित्यिक, सांस्कृतिक परिदृश्य अघोषित आपातकाल के भीतर छटपटाने को मजबूर होगा। और तब उसके विरुद्ध संघर्ष करने का वैधानिक अधिकार भी खो चुका होगा। क्योंकि हॉल को किराया मुक्त किये जाने सम्बंधी कोई पारदर्शी नियमावली बनाने की बात को मजबूती से रखने की बजाय सम्वेदना सिर्फ अपने लिए चोर रास्ता बना रही है।


दिलचस्प है साहित्यकारों के बीच राजनैतिक और राजनीति वालों के बीच साहित्यकार दिखने वालों तक को सम्वेदना की यह चोर गतिविधि जायज दिख रही है।


उम्मीद है सम्वेदना के साथी आयोजित कार्यक्रम के विषय "सम्वेदना का साहित्यिक योगदान और आज की चुनौतियां" में ऐसे विषय पर भी खुली चर्चा करने के साथ रहेगे। इस नयी बनती हुई दुनिया में लूट और प्रलोभन ज्यादा बड़ी चुनौतियां है। 

Wednesday, April 17, 2024

ललन चतुर्वेदी की कविताएं

इसमें कोई दो राय नहीं कि बढती हुई तकनीक के साथ मनुष्य की तकलीफें कम हो सकती थी और दुनिया ज्यादा खूबसूरत। लेकिन पाते है कि तकलीफें ही नहीं, उन से पार पाने की जटिलताएं भी बढी हैं। कोई एक दृश्य जो साफ दिख रहा होता है, न जाने कितने ही अंधेरे कोने छुपाए रहता है। ललन चतुर्वेदी की कविताओं की विशेषता है कि साफ दिखते दृश्यबंध के साथ साथ, अदृश्य कोनो को भी उजागर कर देना चाहती हैं। इसीलिए जटिलताओं का एक समग्र चित्र पाठक के सामने प्रस्तुत हो जाता है और छुपने छुपाने की संगति उजागर होने लगती है।

यह ब्लाग ललन चतुर्वेदी की कविताओं से अपने को समृद्ध कर पाया, इसके लिए कवि का आभार।

विगौ



मैं लंबी कविताएं नहीं लिख सकता

         
मैं छोटी- छोटी चीजों से घिरा हुआ हूँ
मेरे आसपास छोटे - छोटे लोग रहते हैं
उन लोगों की दुनिया बहुत छोटी है
उनके लिए छोटी- छोटी समस्याएं भी बहुत बड़ी हैं

वे विज्ञान, अध्यात्म, दर्शन,योग आदि की बात नहीं करते
शेयर बाजार की चर्चा तो वे कर भी नहीं सकते
वे समय पर जगने  के लिए घड़ी में अलार्म लगाने वाले लोग नहीं हैं
वे सूरज की गति से समय को मापने वाले लोग हैं
वे पेड़ों की छाया में सुस्ताने वाले लोग हैं
किसी ठेले पर खड़े-खड़े चाय-बिस्किट से हलक को तृप्त करने वाले लोग हैं

हर सुबह एक चौराहे पर टोकरी-कुदाल लेकर वे खड़े हो जाते हैं
धूप के चढ़ते ही उनके चेहरे पर छाने लगती है उदासी
कुछ को काम मिलता है और कुछ

भारी कदमों से लौट जाते हैं अपनी झोंपड़ी की ओर
उन्हें दोपहर के पहले घर लौटते हुए देखना

हमारे समय की खौफनाक त्रासदी है

उनमें से कुछ शाम में गीत गाते हुए लौटते हैं
बाजार से आटा- दाल और अपने बच्चों के लिए पकौड़े लेकर
मैं ठिठक कर उनके गीत सुनना चाहता हूँ
मेरे लिए यह सबसे बड़ा म्युजिक कंसर्ट है कि
आज उनके घर में चूल्हा जल सकेगा


रोज ऐसे दृश्यों से दो-चार होते हुए
मेरे सामने ऐसा कोई नायक उपस्थित नहीं है
जिसकी गाथा लिखी जाए
इन छोटे लोगों का दुःख भी कहाँ ठीक से अंकित कर पाता हूँ
बस, संक्षेप में उनका हालचाल आपतक पहुँचाना चाहता हूँ ।

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चीजों का सुलभ होना ही दुर्लभ होना है


जब लोग कहते हैं-
अब बहुत आसान हो गया है सब कुछ
तब मेरे चेहरे पर तिरने लगता है दुख
तमाम अकादमिक डिग्रियां क्यों नहीं पढ़ पातीं हमारे  दुख
ताक़तें इतनी निर्बल कि किसी गिरे हुए  को उठा नहीं सकतीं
महंगी तो नहीं होती हॅ़ंसी लेकिन लोग उसका भी मोल वसूल लेते हैं
किसने किसी गरीब की अर्जी लगाई मुफ्त में न्याय की खातिर
क्या पढ़ने लिखने का मतलब  शातिर हो जाना है

वैसे प्रेमी आसानी से दिलों पर हो रहे हैं काबिज जो प्रेयसी से मिले लाल गुलाब को स्वयं का  घोषित कर देते हैं
और आंखों में आंख डाल महबूबा को बेशर्मी से भेंट करते  हुए
दिखाते हैं चांद - सितारे के सपने
ज़माना ऐसे आशिकों की दरियादिली पर तालियां बजाता है
इधर बावरी  प्रेमिका झूम- झूम कर नाच रही है  पूरे जग में  पीट रही है ढिंढोरा
मेरे आशिक ने मुझे सोना का नथिया दिया है
वह कभी नहीं समझ पाएगी चीजों का सुलभ होना ही दुर्लभ होना है।

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काल के कपाल की अबूझ लिपियाँ

कितनी हलचलें दर्ज हो रही हैं लगातार

कुछ स्मृतियों में धँस चुकी हैं कील की तरह
जिनमें जंग लगने की गुंजाइश नहीं हैं जीवन पर्यन्त

हवा समय - समय पर  राख में छिपी आग को भड़का देती है
दिखता है सब कुछ जलता हुआ,धुंआ-धुंआ
यहाँ तो सन्नाटा पसरा है अन्तश्चेतना पर
और तुम पूछते हो क्या हुआ ?

बिकाऊ -फेंकाऊं चीजों के दिनों में
जरूरी सवालों से कतराने लगे हैं लोग
दर्द की भी कोई मियाद होती है क्या
असमंजस में पड़ा मन बार- बार पूछता है


अनेक हृदयद्रावक घटनाएं दफ़न हो जाती हैं विस्मृति के गर्भ में
जैसे जीभ भूल जाती है पाँच-दस मिनट में चाय का स्वाद

समय लगातार लिख रहा है अबूझ लिपियों में

एक साथ जय- पराजय की अनेक कथाएं
किसकी जय और किसकी पराजय ?
हम अपनी ही व्यथाओं में व्यस्त लोग
इनसे हैं बेखबर, लापरवाह
इन्हें पढ़ने की कोशिशें करने वाले भी
क्यों हो रहे  हैं लगातार नाकाम ?

एक चमकदार विज्ञापन
क्षण भर में कर देता है सुर्ख़ियों को विस्थापित
बहुत गझिन है यह भ्रम जाल
हम समाते जा रहे हैं एक अंतहीन सुरंग में
कैसा कोहरा है कि सूझ नहीं रहा हाथ को हाथ
यहाँ पास में बैठे आदमी का चेहरा भी अपठनीय है

असत्य भी पूरे गर्व के साथ हो सकता है  विराजमान
तस्दीक कर रहे हैं चौराहे पर चस्पां  विज्ञापन

केवल किताबों को पढ़कर घोषित मत कीजिए 

किसी को  ज्ञानी- विज्ञानी
मत समझिए किसी को भाग्य विधाता
बहुत जरूरी है पढ़ा जाना

काल के कपाल पर निरंतर अंकित हो रहा मनुज का भविष्य।

 

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इंटरनेशनल एयरपोर्ट


मुग्ध हूं
पांव जमीन पर ही हैं
पर यकीन नहीं हो रहा है
निगाहें आसमान में हैं
अद्भुत वास्तुशिल्प का नमूना देख रहा हूं
कलाकृतियों से सजाया गया है टर्मिनल - टू
कृत्रिम झरने से जल गिर रहा है कल-कल
कभी धरती को देखता हूं
कभी गगनचुंबी इस इमारत को
भूल गया हूं पत्नी भी साथ हैं
देखकर इंद्रप्रस्थ का वैभव
दुर्योधन भी यहां आता तो एक बार चकरा  जाता

यात्रियों की सुरक्षा जांच जारी है
एक मां दूध का पाउडर निकाल
प्रस्तुत कर रही है सुरक्षाकर्मियों के समक्ष
नोट कर लिया गया है उसका पीएन‌आर नंबर  और मांग लिया गया है  मोबाइल नंबर
मैं देख रहा हूं यह दृश्य मूक-निश्चल
गांधी बाबा यदि भूले-भटके पहुंच जाते यहां
कैसे छिपाते अपनी लाठी
करनी पड़ती स्थगित उन्हें अपनी यात्रा

पत्नी झरने के नीचे बैठ गई हैं विशिष्ट मुद्रा में
ले रही हैं  सेल्फियां धराधर
अचानक ध्यान आकृष्ट करती हैं तेज स्वर में -
आओगे भी या ताकते रहोगे आकाश
एक सेल्फी तो ले लो संग -साथ
स्टेटस बदलना ज़रुरी है उड़ान भरने के पहले।

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दृश्य में जीवन ढूँढते लोग

यहाँ कुछ लोग आठ के ठाठ में व्यस्त हैं
वे रात को दिन और दिन को रात बनाने वाले लोग हैं
उनके लिए निर्धारित समय से चार घंटे बाद होता है सूर्योदय

ऐसे ही लोगों से बनता है यहाँ का नागर समाज
जहाँ से गढ़ी जा रही हैं सभ्यता की नई-नई परिभाषाएं
एक दिन असभ्य घोषित किये जा सकते हैं
इस साँचे से बाहर के लोग
यहाँ फोन करने के पूर्व संदेश भेजकर लेनी पड़ती है इजाजत


यहाँ चमचमाती इमारतों के आगे-पीछे है चकाचौंधी रोशनी
यहाँ सपने साकार होने की लुभावनी गारंटी है
यहाँ घंटों साथ रहने के बावजूद लोग एक-दूसरे के लिए बेगाने हैं
क्या हुआ,हम तो इस शहर के दीवाने हैं
यहाँ लोग मिलते हैं,बिछुड़ते हैं, टूटते हैं

और फिर से जुट जाते हैं जीवन के समर में
यहाँ शनि या रविवार को खुशियों को आमंत्रित किया जाता है

इस मेले में आने के बाद हम भूल जाते हैं घर  के रास्ते
यहाँ लोग जीते हैं,सुरा में ,सौन्दर्य में, आजादी में
यहाँ अस्वीकार्य है किसी प्रकार का हस्तक्षेप

यहाँ सर्वत्र सुनाई देता है निजता का राग

यहाँ केवल महसूसा जाता है बोला नहीं जाता
ध्वनियाँ स्वत: होंठों से  हो जाती हैं वापस 
यहाँ महाप्राण ध्वनियाँ हो चुकी हैं लगभग लुप्त
शब्दों में नहीं, अक्षरों में होता है संबोधन

जिसे हम रोज आते- जाते देखते हैं
जो रोज करता है हमें नमस्कार
उसका हम कभी नहीं पूछते समाचार
वह भी देखता है हम सब अपरिचितों को आते- जाते
किसी की कोई छवि नहीं बनती किसी के मस्तिष्क में
यहाँ  लोग  दृश्यों में  ढूँढते हैं जीवन
जबकि इस दृश्य का प्रत्येक लघुतम अंश

अचीन्हा और अदृश्य होने के लिए अभिशप्त है।

 

       *****


मूर्ख युद्ध नहीं करते

एक युद्ध लड़ा जा रहा है सीरिया में
एक अफगानिस्तान में ,एक  युक्रेन में
जहां युद्ध नहीं है वहाँ भी लड़ा जा रहा है युद्ध
अनेक देश  लड़ रहे हैं अपने - अपने युद्ध

कहते हैं युद्ध मूर्खता है 
पर मूर्ख कभी नहीं लड़ते युद्ध
सभी युद्धों की अगुवाई करते हैं प्रबुद्ध
जो युद्ध की घोषणा करता है
वह युद्ध में शामिल नहीं होता
वह केवल बतलाता है कि युद्ध उसके  लिए नाक का प्रश्न है,
युद्ध उसके देश की शान का और उसके
कोटि- कोटि जन के  जान का प्रश्न है

हालांकि युद्ध कोई मुद्दा नहीं
परंतु युद्ध के लिए अनेक मुद्दे हैं
युद्ध के घोषकों के अपने तर्क हैं
बाघ का पुरातन आरोप है -
बकरी नाव में धूल उड़ाती है

हम युद्ध से थोड़ा सा दूर हैं , दो क़दम दूर
युद्ध हमारे लिए मात्र किसी दूर देश की ख़बर है
हम बाख़बर रहते हुए बेखबर हैं

एक खौफनाक घटना घटती है राजधानी में
हम टीवी पर देखते हैं
थोड़ी देर के लिए हम हो जाते हैं चुप
लग जाते हैं दैनिक कामकाज में
घटना का खबर में बदल जाना 
हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी है

जानते हैं कि दिल्ली दूर नहीं है
फिर भी,मन को समझाते हैं कि दिल्ली दूर है

एक हत्या हो जाती है हमारे प्रांत में
एक राजनेता के लिए यह विधि- व्यवस्था का प्रश्न है
पड़ोस में हो जाती है कोई अनहोनी
तब भी झट से बंद कर लेते हैं किवाड़
हम दूसरे के फटे में टाँग नहीं अड़ाते

हम ग्लोबल गाँव के शिष्ट, संभ्रांत नागरिक‌ हैं
हम रक्षात्मक खेल खेलने वाले खिलाड़ी हैं
हमें शायद  मालूम नहीं कि
अगली बॉल पर हो सकते हैं हम भी आउट
अब इसे मासुमियत कहूं या मान लूं अपनी कायरता
हम लाख चाहें ,बच नहीं सकते
हमें शामिल कर लिया जाएगा युद्ध में
कोई लड़ने नहीं आएगा हमारे हिस्से का युद्ध
हम भी अनेक मोर्चे पर लड़ रहे हैं
क्या कोई देख सकेगा हमारा युद्ध?
       *****


देह का अध्यात्म
वह सद्यस्नाता  स्त्री
जिसके कुंतल से टपक रहे हैं बूंद-बूंद जल
एक झटके से झाड़कर बाल
खड़ी हो गई है आईने के सामने
उसने विदा कर दिये हैं मन के सारे शोक -संताप
स्थितप्रज्ञ सी निहार रही है
एक -एक कर अपने अंग
अपनी काली आंखों में दे रही है अतिरिक्त काजल
सुर्ख कपोलों पर लगा रही है अंगराग
नखों पर दे रही है जतन से लालरंग
बालों में बांध चुकी है सफेद पुष्पों का जूड़ा
पहन चुकी है मनपसंद रेशमी परिधान
एक बार  देखती है पीछे मुड़कर
शायद भूलने को अतीत
सांसों में भरना चाहती है वर्तमान
फैल गई है उसके होंठों पर मुस्कान
नखशिख पर्यन्त प्रकीर्ण हैं विविध रंग
चमक रहा है सिन्दूर तिलकित भाल
ज्यों नीलगगन में उतर आया हो इन्द्रधनुष
कहां है कोई क्लेश - कालुष्य
कहां है आत्मा, कहां है वैराग्य
कहां है देह के बिना इनका अस्तित्व
जिस दिन मिलना होगा , मिट्टी में मिल जाएगी देह
देह ही है सत्य ,देह ही है प्रेय,
बिल्कुल नहीं है हेय यह कंचन देह
जब तक है देह तब तक है नेह
नहीं सुनना कोई प्रवचन उपदेश
कोई गुरु नहीं,कोई देव नहीं,कोई पोथी नहीं
एक स्त्री ही समझा सकती  है देह का अध्यात्म ।

            ******

 

वी आई पी लाऊंज


कुछ शब्द जीभ पर आसानी से नहीं चढ़ते
जैसे अति विशिष्ट व्यक्तित्व
भारी भरकम शब्दों में लगती है शिष्टता की न्यूनता

उतरना जरूरी हो जाता है विदेशी भाषा में
शब्दों में भरने के लिए सभ्यता ,शिष्टता
देने के लिए अतिरिक्त वजन
संक्षिप्तता समय की मांग है

वीआईपी लाउंज में घुसने के पहले
बाबा तुलसीदास का कवित्त याद आया -
"हौं तो सदा खर को ही सवार , तेरे ही भाग गयंद चढ़ायो"
यह मेवा सेवा का प्राप्य है
बिना डेबिट कार्ड यहां प्रवेश निषेध है
जेब में एक डेबिट कार्ड हो तो दो रुपए में
खाया जा सकता है तरह- तरह के व्यंजन
यहीं आकर पता चला
मुफ्त का अन्न आदमी को बना देता है विपन्न
यहीं आकर समझ में आ‌यी बात
गरीबों से कहीं अधिक भूक्खड़  हैं धनवान

हम स्लीपर क्लास के यात्री निम्नमध्यवर्गीय
बैठ ग‌ए हैं साहब- सुब्बे के साथ
वीआईपी लाउंज में चख रहे हैं तरह तरह के खाद्य और पेय पदार्थ
समझ रहे हैं  विकास का निहितार्थ

एक ही डेबिट कार्ड है जेब में
लोगों के पास हैं क‌ई कार्ड
(अब यह अचरज की बात नहीं)
सपरिवार कर रहे हैं उपयोग और लगा रहे हैं भोग


सोच रहा हूं, अगली यात्रा के पहले
पत्नी के लिए बनवा दूंगा कार्ड
बहुत खल रही है उनकी अनुपस्थिति
वह अकेले बैठी हैं प्रतीक्षालय में।

         *****


एक्सप्रेस वे

 

पुणे - मुंबई एक्सप्रेस वे पर हूं
लग्जरी वाहन वहन कर रहा है मुझे
यह भी किसी  पुण्य से कम नहीं है

जगह- जगह सीसीटीवी कैमरे हैं संस्थापित
भूल से भी कोई आ जाए दुपहिया वाहन
तो हो सकती है दंडात्मक कार्रवाई

क्या अभिराम दृश्य है
सांवले - सांवले बादल कर रहे हैं स्वागत
पर्वतों पर घिर आए हैं मेघ
अब प्रियतमा को संदेश पहुंचाने का नहीं सौंपूंगा इन्हें दायित्व
वीडियो काल पर हाजिर हो चुकी हैं खुदमुख्तार
बोल रहीं हैं - अकेले मजे ले रहे हो बर्खुरदार
इच्छा हो रही है तुम्हारे साथ चलूं एक्सप्रेस वे पर
हाथों में डालकर हाथ

मैं थोड़ी देर के लिए मौन हो जाता हूं
यहां कोई पदयात्री नहीं दिख रहा है दूर- दूर तक
सोचा नहीं था एक दिन सड़कें आरक्षित हो जायेंगी
और लोग महसूस करेंगे असुरक्षित ।

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बासी पूरियां
जो अघाए हुए थे, उन्हें सबसे पहले परोसा गया

लगातार नजर‌अंदाज किया गया उन्हें
जो अहले सुबह से डटे हुए थे अपने कर्तव्य पर

पंगत के लिए उमड़ चुका था लोगों का हुजूम
एक के उठते दूसरा बैठने की प्रतिस्पर्धा में शामिल थे

जो दिन भर के भूखे थे
वे अपना धैर्य चबाते हुए प्रतीक्षा में खड़े थे
ऐसा कभी महसूस नहीं किया गया कि
उनके बैठने के लिए भी होनी चाहिए कोई जगह

वे सालों भर श्रम का साग-सत्तू खाने वाले लोग थे
जो सपरिवार करते थे इन्तज़ार एक दिन के भोज का
वे कोई भिखमंगें नहीं थे, पेशेवर श्रमजीवी थे
जो करते थे विश्वास अपनी भुजाओं पर
सदियों से  निभा रहे थे निर्धारित वर्ण व्यवस्था में  कारगर भूमिका
उनके देर से आने या सामान नहीं पहुंचाने पर रुके रहते थे मंगल या श्राद्ध कार्य
छोटी मोटी भूलों पर वे अकसर बनते रहते थे यजमानों के कोपभाजन

गांव का एक -एक घर होता था उनका यजमान
अचरज यह कि सबके सब ने उन्हें घोषित कर रखा था शैतान
गांव की चौहद्दी के बाहर अकेले खड़ी होती थी उनकी झोंपड़ी 
उन्हें पंगत में बैठकर खाने की अनुमति नहीं थी
वे ताकते रहते थे यजमान का मुंह देर रात तक खड़े होकर

वे लाते थे अपने घर से टिनही बरतन,कटोरा
सारी पंगतों के उठ जाने के बाद
एक निश्चित दूरी से लोग परोस देते थे उसी में भोज- सामग्रियां
आधे -अधूरे बचे -खुचे जो भी मिले वे लेकर लौट जाते आधी रात
बच्चे जब सुबह उठते, वे बताते कि  बहुत देर से शुरू हुआ था भोज
वे बताते थे आंखें फाड़कर,उमड़ पड़ा था लोगों का हुजूम
वे शब्द टटोलते थे पर नहीं मिलते थे उन्हें कोई उपयुक्त शब्द
जो दे सकें उनकी भावनाओं को सही स्वर
वैसे ही जैसे पंगत में नहीं मिलती थी उन्हें जगह
वे बतलाना चाह रहे थे  बच्चों को अपना दुख
और बच्चे दांतों से खींचते हुए बासी पूरी
कर रहे थे शिकायत  - बाबू ! बुंदिया नहीं बनी थी क्या ?

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संपर्क:

ललन चतुर्वेदी

lalancsb@gmail.com


Sunday, April 14, 2024

मन की उधेड़बुन

मोनिका भण्डारी शिक्षिका हैं और उत्तराखंड के उत्तरकाशी जनपद में रहती हैं। यह वही उत्तरकाशी है जिससे हमारा परिचय एक समय में रेखा चमोली की कविताओं से हुआ और फिर उस परिचय को सपना भट्ट की कविताओं ने गाढा किया।   


मोनिका भण्डारी की
कविताओं से मेरा परिचय हाल ही में फेसबुक के माध्यम से हुआ। अपने तरह की ताजगी से भरी उनकी कविताओं ने जिन चीजों की ओर ध्यान खींचा, खासतौर पर वह शिल्प की परिपक्वता रही, जो निजता के स्तर पर अर्जित अनुभवों को सार्वजनिक बना दे रहा। इन कविताओं में प्रेम की अविकलता नहीं, उम्मीदों और आशवस्ति के उदात्त भाव बिखरे नजर आते हैं। ज्यादातर कविताएं शीर्षक विहीन हैं। इस तरह से ये कविताएं पाठक को भी स्वतंत्रत तरह से अपना पाठ रचने की छूट दे रही हैं। 

विगौ

मोनिका भण्डारी की कविताएं  

एक

हजारों उलझनों के बीच
जब जीवन निःसंग सा लगने लगता है
और रिक्तता घेर लेती है
ऐसे में
कुछ आवाजें बहुत आश्वस्त लगती हैं

बदलाव जो होने जरूरी हैं
बहुत भारी होते हैं कई बार
अभिभूत नहीं,असंतुलित कर देते हैं स्वतः ही
ऐसे में
हाथों पर कोई हाथ दिलासा लगते हैं

हृदय कितनी पीड़ाएं सह लेता है कुशलता से
किंतु छले जाने पर
घनघोर निराशा के क्षणों में
जब चुन लेता है पाषाण होना
ऐसे में
कोई हल्का सा प्रेमिल भाव
भरपूर नमी बनाए रखने जैसा लगता है

 

 दो 

मन रुका रह गया
देह चली आई
देह में मैं नहीं थी
देह रिश्तों की ट्रेडमिल पर दौड़ती रही
लेकिन जिंदगी थमी सी रही
कुछ चीजें बस शुरू हो जाती हैं
लेकिन खत्म होने पर 
एक मुकम्मल कहानी सा क्लोजर मांगती हैं

 

  

तीन 

मन जब भी
कातर हुआ
अनगिनत मूक संवाद ,
और स्नेह आलंबन भी
आश्वस्त न कर पाए,
जबकि दूर से दिखती
सुंदर चेहरों की हंसी
अच्छी लगी
लेकिन कभी उन चेहरों के
मन के पास से गुजरी तो
निशब्द हो उठी
उदासी छुपाने के उपक्रम में
खुशगवार दिखते चेहरों की
तमाम गर्द और खलिश बिखर गई
दर्द समेट लेने के यत्न में
उन्मुक्त हंसी का निहायती बनावटीपन दिख गया
कितनी पक्की रंगरेज बन जाती हैं ये
अपनी देह और मन को बेतरह अचाहे रंगों से ढक लेती हैं
बस नाम और चेहरे बदल जाते हैं
लेकिन कहानी,अनजानी नहीं होती
हमारी पीड़ाएं भी कितनी मिलती जुलती होती हैं ना!

 

चार

प्रेम में पगी स्त्रियाँ
मन के कठिन दिनों में भी
दिल की ज़मीन को
घास पर फिसलती ओंस
की तरह
नम बनाये रखती हैं
खुश्क नहीं होने देती
बूँद बूँद बरसती उदासी
और गहरी खामोशी में भी
किरणों की उजास सी
बिखर जाती हैं
प्रेम में पगी स्त्रियाँ
प्रेम से विश्वास नहीं उठने देतीं
बेशुमार छ्ले जाने पर भी।

 

पांच 

मन की उधेड़बुन
देह की तपन
सहोदर हो गए जैसे
अकथ दुःख
पूरी देह का नमक
आंखों को सौंप
झरता रहा अनवरत
सुख उस तितली सा रहा
जिसको पाने के लिए
हथेली आगे की तो
फुर्र से उड़ गया
मुसाफ़िर जीवन की यात्राएं
अनवरत जारी रहीं
कुछ यात्राएं मंजिल पाने को नहीं होती
चलती जाती हैं चुपचाप
कि चलते जाने के क्रम में
चुप्पियां छूट रही हैं पीछे


मैं जानती हूं


मेरी बच्चियों
मैं जानती हूं
नहीं बताता कोई तुम्हें
सही गलत
प्रेम या उत्पीड़न के बारे में
सुनो...
अपने शरीर व मन पर सिर्फ
अपना ही अधिकार रखना
अपने संरक्षण के लिए
सहज और असहज स्पर्श की
पहचान रखना
प्रेम खूबसूरत अनुभूति है
पर
प्रेम करना या पाना
बिलकुल अलग है
दैहिक आवेग से
कभी आहत हो भी जाओ यदि
तो इसे बेबसी न समझना
निडर,संयमित जीवन जीना।
सजग रहना ताकि
सुरक्षित रह सको।
आकर्षण की अभिव्यक्ति
संयमित रखना
विवेकी बन निर्णय लेना
तुम्हारी मर्यादा ही
मर्यादित रखेगी सबको।
बातें साझा करना जरूर
झिझक न पाल लेना।
सही गलत की कोई परिभाषा  नहीं,
परिस्थितियां ही सहायक हैं
इन्हें पहचानने में
तुम भी पहचानना ।