(जितेन ठाकुर की कहानियों में विषयों की विविधता बरबस ध्यान खींचती है.अण्डे का स्वागत गान इसलिये भी पढ़ी जानी चाहिये कि तरक्की की मध्यमवर्गीय लहरों के बीच यह कहानी समाज के तलछट की जिन्दगी को संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत करती है)
लड़के ने प्लासटिक की पतली सफैद तांत से बुना हुआ बोरा उठाया हुआ था। लड़के की उम्र सात-आठ साल से ज्यादा नहीं थी और बोरा उसके दुबले-पतले छोटे से कद की तुलना में कहीं ज्यादा लम्बा था। वह कांधे से ढ़लक-ढ़लक जाते बोरे को बार-बार खींच कर संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा था। लड़के के काले जिस्म पर कुछ वैसे ही बदरंग और बेतरतीब कपडे़ थे जैसे किसी भी कूड़ा बीनने वाले दूसरे लड़के के जिस्म पर हो सकते हैं। बोरा लगभग खाली था और पिचका हुआ था। अभी सुबह की शुरुआत थी और बोरा भरने के लिए अभी पूरा दिन बाकी था। शायद इसीलिए लड़का जल्दी में नहीं था। लड़का चाय की एक दुकान के सामने इतिमनान से खड़ा हुआ, लोहे की तारों से बनार्इ गर्इ उस टोकरी को हसरत भरी नजरों से देख रहा था, जिससे झांकते हुए सफैद अण्डों का सिलसिला, करीने से कुछ इस तरह जमाया गया था कि वह बरबस ही रह गुजर की नजर खींच लेता।
“क्या चाहिए?" दुकानदार ने सड़क पर देर से खड़े हुए लड़के को हंस कर पूछा
“अण्डा।" लड़के ने बेझिझक उत्तर दिया
“पैसे हैं?" उसने फिर पूछा
“नहीं।" लड़के ने मासूमियत से सिर हिलाया
“तो भाग फिर।" अब दुकानदार ने डपटा
लड़का उदास हो गया और जाने को मुड़ा, पर तभी दुकानदार ने उसे पुकार कर रोक लिया। दुकानदार ने टोकरी से एक अंडा निकालकर उसकी छोटी सी हथेली को भर दिया। लड़के की आँखे चमकने लगीं।
दरअसल दुकानदार को पंडितों से नफरत थी और वह उन्हें ठग समझता था। इसके विपरीत उसकी पत्नी पंडितों पर बहुत विश्वास करती थी। वह अक्सर पति पर दबाव बनाती कि वह सोमवार को सफैद चीज का दान दे और बृहस्पतिवार को पीली चीज दान करे। पत्नी का मानना था कि पंडितों ने उसका पत्रा बांच कर ही, ग्रहों के बुरे प्रभाव को कम करने के लिए यह उपाए सुझाए थे। इससे रोजगार में बढ़ोत्तरी होना तय था। आज सोमवार था और वह पत्नी से बिना झूठ बोले यह कह सकता था कि उसने अण्डा दान करके सफैद और पीली वस्तु एक साथ दान में दे दी है। इस तरह पंडितों का मजाक उड़ाने और पत्नी को चिढ़ाने का एक बेहतरीन मौका उसके हाथ आ गया था।
बहरहाल, कूड़ा बीनने वाला वह छोटा सा लड़का बेहद खुशी और हिफाज़त के साथ अण्डे को हथेली में दबाए हुए कूड़े के ढ़ोल से घुस गया। पर अब समस्या अण्डे को कहीं रखने की थी। क्योंकि एक हाथ से झोला पकड़ कर ही दूसरे हाथ से काम की चीजें बीन कर उसमें डाली जा सकती थीं। पर हाथ में अण्डे रहते हुए यह सबकर पाना मुमकिन नहीं था। लिहाजा लड़के ने अण्डा लोहे के कूड़े वाले ढ़ोल के चौड़े किनारों पर इस तरह टिका दिया कि वह लुढ़क न पाए। इतना करके वह अभी कचरे पर झुका ही था कि काफी देर से उसके पीछे-पीछे आता हुआ कुत्ता कूद कर ढ़ोल पर चढ़ गया और अण्डे को सूंघने लगा। लड़के की सांस अटक गर्इ। उसे लगा कि अभी अण्डा गिरकर फूट जाएगा। उसने बिजली की तेजी से झपटकर अण्डा उठा लिया और कूद कर ढ़ोल से बाहर आ गया। अलबत्ता, कुत्ता वहीं उसी ढ़ोल पर कुछ सूंघता हुआ खड़ा रहा।
लड़का अब अण्डे की सुरक्षा के प्रति अतिरिक्त सतर्क हो गया था।
जब से शहर की साफ-सफार्इ का ठेका किसी कम्पनी को दिया गया था- शहर में कूडे़ के ढ़ोल बहुत कम हो गए थे। कम्पनी के कारिंदे घर-घर से कूड़ा उठाते और उसमें से काम की चीजें बीन कर कबाड़ी को बेच देते। इस कारण लड़के के लिए संघर्ष बढ़ गया था। अब उसे कूड़े की खोज में दूर-दूर जाना पड़ता और वह सारे दिन में बा-मुशिकल दस-बीस रुपए ही कमा पाता। टोकरियों में लटकते हुए सफैद अण्डे उसे लुभाते थे, वह उन्हें खरीदना चाहता था, खाना चाहता था। पर माँ समझी कि अण्ड़े की कीमत में डिबरी भर तेल खरीदा जा सकता है जिससे कुछ रातें उजियारी हो सकती हैं। वह मन मसोस कर रह जाता। पर आज तो उसे मुफ्त में अण्डा मिल गया था और वह खुश था, इतना खुश कि अण्डे को चूम रहा था और बार-बार उसे अपने गालों से छुवा कर उसकी ठंडक महसूस कर रहा था।
अपने छोटे-छोटे कदमों से लम्बे रास्ते को नाप कर लड़का अब जहाँ पहुँचा था वह कूड़े से भरा हुआ एक खुला प्लाट था। उसने आस-पास देखा। वहाँ कोर्इ कुत्ता नहीं था। उसने अण्डे को हौले से एक इर्ंट पर रख दिया और ताजे फैंके गए कूड़े को कुरेदने लगा। कूड़े को कुरेदते हुए अभी उसे कुछ हासिल नहीं हो पाया था कि उसने अपने ऊपर किसी साए को अनुभव किया और चांैक गया। उसने गर्दन उठाकर आकाश की तरफ देखा। एक चील उसके ऊपर से होती हुर्इ निकल गर्इ थी। उसने पक्षियों की किताबें तो नहीं पढ़ी थीं पर इतना जानता था कि चील की नजर बहुत तेज होती है। उसके मन में शक पैदा हुआ कि हो न हो चील की नियत अण्डे पर डोल गर्इ हो। वह कुछ देर आसमान की तरफ देखता रहा। उसने देखा कि एक चक्कर लेकर चील वापिस लौट रही है। जहाज की तरह बिना पंख फड़फड़ाए हुए नीचे की तरफ झुकती हुर्इ। उसने झट से छलांगे लगा कर अण्डा उठा लिया और चल पड़ा। चील फिर ऊपर उठने लगी थी।
लड़के को कूडे़ के नए ढ़ोल तक पहुँचने के लिए फिर एक लम्बी दूरी नापनी पड़ी। ढ़ोल के पास पहुँच कर उसने दूर तक जाती सड़क को देखा- कहीं कोर्इ कुत्ता नहीं था। फिर देर तक आसमान को देखता रहा, चील, कऊआ या कोर्इभी परिंदा आसमान में नहीं उड़ रहा था। अलबत्ता छोटी-छोटी चिडि़यों के झुंड यहाँ-वहाँ उड़ते हुए चहक रहे थे- फुदक रहे थे। वह निशिचंत हो गया। यहाँ अण्डे को कोर्इ खतरा नहीं था। कूड़े सेभरे हुए गहरे ढ़ोल में घुसने के लिए लड़का अ्भी ईंट पर चढ़ा ही था कि उसका कलेजा मुंह को आ गया। ढ़ोल के अंधेरे में झुक कर कबाड़ बीनता हुआ एक तगड़ा लड़का अचानक सीधा खड़ा हो गया था और अब दिखलार्इ देने लगा था। यह लड़का कर्इ बार उसे पीट कर उससे कबाड़ छीन चुका था। तय था कि आज वह अण्डा छीन ही लेगा। लड़के ने बिना समय गंवाए हुए छलांग लगार्इ और सड़क पर अपनी पूरी ताकत से दौड़ पड़ा। वह जल्दी से जल्दी आने वाली मुसीबत की जद से बाहर निकल जाना चाहता था।
लड़का फिर रास्ते में कहीं नहीं रुका। जब वह पेड़ों से बांधे गए काले तिरपाल वाले अपने सिकुड़े हुए घर में पहुँचा तो बुरी तरह हांफ रहा था। बदन पसीने से तर था जिस कारण कमीज का कपड़ा चिपचिपाने लगा था। थकान से टांगें कांप रही थीं। वह अपनी जिंदगी में इतना कभी नहीं भागा था। इसके बावजूद वह खुश था कि उसने अण्डे को लुटने से बचा लिया था।
“क्या हुआ? आज कुछ नहीं मिला क्या?" ईंटों के चूल्हे पर रोटी सेंकती हुर्इ माँ ने उसके खाली झोले के देख कर पूछा
“मिला - ये अण्डा! मुफ्त!" उसने सांस को किसी तरह काबू करके उत्तर दिया। उसे कमार्इ न होने का कोर्इ मलाल नहीं था। वह जानता था कि वह दस-बीस रुपए कमा भी लेता तो उनसे अण्डा खरीदने की इजाजत हरगिज न मिलती।
उसकी छोटी सी हथेली के ठीक बीच में रखा हुआ झक्क सफैद अण्डा चमक रहा था। माँ ने उसकी आँखों की चमक देखी और अण्डा उठाते हुए कुछ नहीं बोली। माँ को लगा कि वह आज की कमार्इ अण्डे पर उड़ा आया है, पर अब तो अण्डा खरीदा जा चुका था, इसलिए कुछ भी कहने का कोर्इ फायदा नहीं था। अलबत्ता छोटी ने अण्डे की खुशी में पहले भार्इ से लिपट कर उसे प्यार किया और फिर उछल-उछल कर चिल्लाने लगी। वह अण्डे के लिए कोर्इ गाना गा रही थी जो किसी को भी समझ नहीं आ रहा था।
माँ ने अण्डा गर्म राख में दबा दिया। लड़का तिरपाल के नीचे बिछी हुर्इ दरी पर लेट गया और लम्बी-लम्बी सांसे भरकर थकान कम करने की कोशिश करने लगा। उसने हसरत के साथ आग के भरे चूल्हे की उस राख को देखा जिसके नीचे दबा हुआ अण्डा सिक रहा था।
“माँ हम अण्डा कब खाएंगें?’ छोटी उतावली हो रही थी।
“जब बाबा आ जाएंगें?” माँ ने रोटी तवे पर डालते हुए कहा।
संतोष से्भरे हुए लड़के को लगा कि कुछ देर बाद जब यह अण्डा सिक कर राख से बाहर निकलेगा तो पूरा घरा जश्न के माहोल में डूब जाएगा।
लड़के की खुली हुर्इ आँखों में अचानक, सिके हुए अण्डों से भरा हुआ बोरा समाने लगा। उसने देखा कि बोरे से निकल कर अण्डों की जर्दी रूर्इ के नर्म फोहों की तरह उड़ने लगी है। जर्दी के उन गोल-गोल पीले बादलों में तैरते हुए लड़के ने बहन के उगते हुए नन्हें पंखों को देखा। उसने देखा कि पिता ने खांसना बंद कर दिया है और माँ चिड़चिड़ा नहीं रही है। अल्यूमीनियम की थाली बड़े-बड़े सफैद अंडों सेभरी हुर्इ है और आसमान में चील भी नहीं है। सड़क पर न तो कुत्ता है औन न ही मोटा लड़का। अलबत्ता, चिडि़याँ गा रही है।
उबा देने वाले मनहूस काले तिरपाल के नीचे ऐसा खुशनुमा माहोल उसने पहले कभी अनुभव नहीं किया था।
4, ओल्ड सर्वे रोड़
देहरादून- 248001
लड़के ने प्लासटिक की पतली सफैद तांत से बुना हुआ बोरा उठाया हुआ था। लड़के की उम्र सात-आठ साल से ज्यादा नहीं थी और बोरा उसके दुबले-पतले छोटे से कद की तुलना में कहीं ज्यादा लम्बा था। वह कांधे से ढ़लक-ढ़लक जाते बोरे को बार-बार खींच कर संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा था। लड़के के काले जिस्म पर कुछ वैसे ही बदरंग और बेतरतीब कपडे़ थे जैसे किसी भी कूड़ा बीनने वाले दूसरे लड़के के जिस्म पर हो सकते हैं। बोरा लगभग खाली था और पिचका हुआ था। अभी सुबह की शुरुआत थी और बोरा भरने के लिए अभी पूरा दिन बाकी था। शायद इसीलिए लड़का जल्दी में नहीं था। लड़का चाय की एक दुकान के सामने इतिमनान से खड़ा हुआ, लोहे की तारों से बनार्इ गर्इ उस टोकरी को हसरत भरी नजरों से देख रहा था, जिससे झांकते हुए सफैद अण्डों का सिलसिला, करीने से कुछ इस तरह जमाया गया था कि वह बरबस ही रह गुजर की नजर खींच लेता।
“क्या चाहिए?" दुकानदार ने सड़क पर देर से खड़े हुए लड़के को हंस कर पूछा
“अण्डा।" लड़के ने बेझिझक उत्तर दिया
“पैसे हैं?" उसने फिर पूछा
“नहीं।" लड़के ने मासूमियत से सिर हिलाया
“तो भाग फिर।" अब दुकानदार ने डपटा
लड़का उदास हो गया और जाने को मुड़ा, पर तभी दुकानदार ने उसे पुकार कर रोक लिया। दुकानदार ने टोकरी से एक अंडा निकालकर उसकी छोटी सी हथेली को भर दिया। लड़के की आँखे चमकने लगीं।
दरअसल दुकानदार को पंडितों से नफरत थी और वह उन्हें ठग समझता था। इसके विपरीत उसकी पत्नी पंडितों पर बहुत विश्वास करती थी। वह अक्सर पति पर दबाव बनाती कि वह सोमवार को सफैद चीज का दान दे और बृहस्पतिवार को पीली चीज दान करे। पत्नी का मानना था कि पंडितों ने उसका पत्रा बांच कर ही, ग्रहों के बुरे प्रभाव को कम करने के लिए यह उपाए सुझाए थे। इससे रोजगार में बढ़ोत्तरी होना तय था। आज सोमवार था और वह पत्नी से बिना झूठ बोले यह कह सकता था कि उसने अण्डा दान करके सफैद और पीली वस्तु एक साथ दान में दे दी है। इस तरह पंडितों का मजाक उड़ाने और पत्नी को चिढ़ाने का एक बेहतरीन मौका उसके हाथ आ गया था।
बहरहाल, कूड़ा बीनने वाला वह छोटा सा लड़का बेहद खुशी और हिफाज़त के साथ अण्डे को हथेली में दबाए हुए कूड़े के ढ़ोल से घुस गया। पर अब समस्या अण्डे को कहीं रखने की थी। क्योंकि एक हाथ से झोला पकड़ कर ही दूसरे हाथ से काम की चीजें बीन कर उसमें डाली जा सकती थीं। पर हाथ में अण्डे रहते हुए यह सबकर पाना मुमकिन नहीं था। लिहाजा लड़के ने अण्डा लोहे के कूड़े वाले ढ़ोल के चौड़े किनारों पर इस तरह टिका दिया कि वह लुढ़क न पाए। इतना करके वह अभी कचरे पर झुका ही था कि काफी देर से उसके पीछे-पीछे आता हुआ कुत्ता कूद कर ढ़ोल पर चढ़ गया और अण्डे को सूंघने लगा। लड़के की सांस अटक गर्इ। उसे लगा कि अभी अण्डा गिरकर फूट जाएगा। उसने बिजली की तेजी से झपटकर अण्डा उठा लिया और कूद कर ढ़ोल से बाहर आ गया। अलबत्ता, कुत्ता वहीं उसी ढ़ोल पर कुछ सूंघता हुआ खड़ा रहा।
लड़का अब अण्डे की सुरक्षा के प्रति अतिरिक्त सतर्क हो गया था।
जब से शहर की साफ-सफार्इ का ठेका किसी कम्पनी को दिया गया था- शहर में कूडे़ के ढ़ोल बहुत कम हो गए थे। कम्पनी के कारिंदे घर-घर से कूड़ा उठाते और उसमें से काम की चीजें बीन कर कबाड़ी को बेच देते। इस कारण लड़के के लिए संघर्ष बढ़ गया था। अब उसे कूड़े की खोज में दूर-दूर जाना पड़ता और वह सारे दिन में बा-मुशिकल दस-बीस रुपए ही कमा पाता। टोकरियों में लटकते हुए सफैद अण्डे उसे लुभाते थे, वह उन्हें खरीदना चाहता था, खाना चाहता था। पर माँ समझी कि अण्ड़े की कीमत में डिबरी भर तेल खरीदा जा सकता है जिससे कुछ रातें उजियारी हो सकती हैं। वह मन मसोस कर रह जाता। पर आज तो उसे मुफ्त में अण्डा मिल गया था और वह खुश था, इतना खुश कि अण्डे को चूम रहा था और बार-बार उसे अपने गालों से छुवा कर उसकी ठंडक महसूस कर रहा था।
अपने छोटे-छोटे कदमों से लम्बे रास्ते को नाप कर लड़का अब जहाँ पहुँचा था वह कूड़े से भरा हुआ एक खुला प्लाट था। उसने आस-पास देखा। वहाँ कोर्इ कुत्ता नहीं था। उसने अण्डे को हौले से एक इर्ंट पर रख दिया और ताजे फैंके गए कूड़े को कुरेदने लगा। कूड़े को कुरेदते हुए अभी उसे कुछ हासिल नहीं हो पाया था कि उसने अपने ऊपर किसी साए को अनुभव किया और चांैक गया। उसने गर्दन उठाकर आकाश की तरफ देखा। एक चील उसके ऊपर से होती हुर्इ निकल गर्इ थी। उसने पक्षियों की किताबें तो नहीं पढ़ी थीं पर इतना जानता था कि चील की नजर बहुत तेज होती है। उसके मन में शक पैदा हुआ कि हो न हो चील की नियत अण्डे पर डोल गर्इ हो। वह कुछ देर आसमान की तरफ देखता रहा। उसने देखा कि एक चक्कर लेकर चील वापिस लौट रही है। जहाज की तरह बिना पंख फड़फड़ाए हुए नीचे की तरफ झुकती हुर्इ। उसने झट से छलांगे लगा कर अण्डा उठा लिया और चल पड़ा। चील फिर ऊपर उठने लगी थी।
लड़के को कूडे़ के नए ढ़ोल तक पहुँचने के लिए फिर एक लम्बी दूरी नापनी पड़ी। ढ़ोल के पास पहुँच कर उसने दूर तक जाती सड़क को देखा- कहीं कोर्इ कुत्ता नहीं था। फिर देर तक आसमान को देखता रहा, चील, कऊआ या कोर्इभी परिंदा आसमान में नहीं उड़ रहा था। अलबत्ता छोटी-छोटी चिडि़यों के झुंड यहाँ-वहाँ उड़ते हुए चहक रहे थे- फुदक रहे थे। वह निशिचंत हो गया। यहाँ अण्डे को कोर्इ खतरा नहीं था। कूड़े सेभरे हुए गहरे ढ़ोल में घुसने के लिए लड़का अ्भी ईंट पर चढ़ा ही था कि उसका कलेजा मुंह को आ गया। ढ़ोल के अंधेरे में झुक कर कबाड़ बीनता हुआ एक तगड़ा लड़का अचानक सीधा खड़ा हो गया था और अब दिखलार्इ देने लगा था। यह लड़का कर्इ बार उसे पीट कर उससे कबाड़ छीन चुका था। तय था कि आज वह अण्डा छीन ही लेगा। लड़के ने बिना समय गंवाए हुए छलांग लगार्इ और सड़क पर अपनी पूरी ताकत से दौड़ पड़ा। वह जल्दी से जल्दी आने वाली मुसीबत की जद से बाहर निकल जाना चाहता था।
लड़का फिर रास्ते में कहीं नहीं रुका। जब वह पेड़ों से बांधे गए काले तिरपाल वाले अपने सिकुड़े हुए घर में पहुँचा तो बुरी तरह हांफ रहा था। बदन पसीने से तर था जिस कारण कमीज का कपड़ा चिपचिपाने लगा था। थकान से टांगें कांप रही थीं। वह अपनी जिंदगी में इतना कभी नहीं भागा था। इसके बावजूद वह खुश था कि उसने अण्डे को लुटने से बचा लिया था।
“क्या हुआ? आज कुछ नहीं मिला क्या?" ईंटों के चूल्हे पर रोटी सेंकती हुर्इ माँ ने उसके खाली झोले के देख कर पूछा
“मिला - ये अण्डा! मुफ्त!" उसने सांस को किसी तरह काबू करके उत्तर दिया। उसे कमार्इ न होने का कोर्इ मलाल नहीं था। वह जानता था कि वह दस-बीस रुपए कमा भी लेता तो उनसे अण्डा खरीदने की इजाजत हरगिज न मिलती।
उसकी छोटी सी हथेली के ठीक बीच में रखा हुआ झक्क सफैद अण्डा चमक रहा था। माँ ने उसकी आँखों की चमक देखी और अण्डा उठाते हुए कुछ नहीं बोली। माँ को लगा कि वह आज की कमार्इ अण्डे पर उड़ा आया है, पर अब तो अण्डा खरीदा जा चुका था, इसलिए कुछ भी कहने का कोर्इ फायदा नहीं था। अलबत्ता छोटी ने अण्डे की खुशी में पहले भार्इ से लिपट कर उसे प्यार किया और फिर उछल-उछल कर चिल्लाने लगी। वह अण्डे के लिए कोर्इ गाना गा रही थी जो किसी को भी समझ नहीं आ रहा था।
माँ ने अण्डा गर्म राख में दबा दिया। लड़का तिरपाल के नीचे बिछी हुर्इ दरी पर लेट गया और लम्बी-लम्बी सांसे भरकर थकान कम करने की कोशिश करने लगा। उसने हसरत के साथ आग के भरे चूल्हे की उस राख को देखा जिसके नीचे दबा हुआ अण्डा सिक रहा था।
“माँ हम अण्डा कब खाएंगें?’ छोटी उतावली हो रही थी।
“जब बाबा आ जाएंगें?” माँ ने रोटी तवे पर डालते हुए कहा।
संतोष से्भरे हुए लड़के को लगा कि कुछ देर बाद जब यह अण्डा सिक कर राख से बाहर निकलेगा तो पूरा घरा जश्न के माहोल में डूब जाएगा।
लड़के की खुली हुर्इ आँखों में अचानक, सिके हुए अण्डों से भरा हुआ बोरा समाने लगा। उसने देखा कि बोरे से निकल कर अण्डों की जर्दी रूर्इ के नर्म फोहों की तरह उड़ने लगी है। जर्दी के उन गोल-गोल पीले बादलों में तैरते हुए लड़के ने बहन के उगते हुए नन्हें पंखों को देखा। उसने देखा कि पिता ने खांसना बंद कर दिया है और माँ चिड़चिड़ा नहीं रही है। अल्यूमीनियम की थाली बड़े-बड़े सफैद अंडों सेभरी हुर्इ है और आसमान में चील भी नहीं है। सड़क पर न तो कुत्ता है औन न ही मोटा लड़का। अलबत्ता, चिडि़याँ गा रही है।
उबा देने वाले मनहूस काले तिरपाल के नीचे ऐसा खुशनुमा माहोल उसने पहले कभी अनुभव नहीं किया था।
4, ओल्ड सर्वे रोड़
देहरादून- 248001