Saturday, July 30, 2022

गैट अप, स्टेंड अप, ग्रो अप

पिछले दिनों अपनी निजी यात्रा से लौटे कथाकार और आलोचक दिनेश चंद जोशी के मुताबिक जुलाई 2022 के शुरुआती सप्ताह में आस्ट्रेलिया जोशो-खरोश से मनाये जाने वाले दृश्य व खबरों से रंगा रहा। 4 जुलाई से 11 जुलाई तक एबओरिजनल और टौरिस स्ट्रेट आइसलेंडर समुदाय की कमेटी ने सप्ताह भर के कार्यक्रमों से सराबोर एक उत्‍सव का आयोजन किया। बल्कि, उस पूरे सप्ताह आस्ट्रेलिया के समस्त आदिवासी समुदाय की संस्कृति,कला,सभ्यता एवं उनकी उपलब्धियों के प्रचार प्रसार और उनके संघर्षों के प्रति सम्मान जताने हेतु सरकारी,गैर-सरकारी तौर पर संचेतना कार्यक्रम आयोजित किए गये। कार्यक्रमों के श्रृंखला की वर्ष 2022 की थीम था," गैट अप, स्टेंड अप,और ग्रो अप"। साथ ही आस्ट्रेलियन ब्राडकास्टिंग कारप़ोरेसन (ए.बी.सी) का 90 वां बर्ष मनाये जाने की धूम टी वी पर थी। इस रेडियो स्टेशन की शुरुआत 1932 में हुई थी।


दिनेश जोशी कहते हैं कि दिसम्‍बर और जनवरी माह के आस-पास उत्‍तर भारत में रिमझिम बारिश का जो मौसम होता है और जैसी कड़क ठंड होती है, जुलाई माह का आस्ट्रेलिया लगभग उसी रिमझिम बारिश के गीले मौसम सा होता है। उसी दौरान, स्कूलों में तीन सप्ताह का अवकाश रहा। भ्रमण व सैर-सपाटे की गहमागहमी चारों ओर थी। मौसम की वजह से ही नहीं बल्कि जाड़ों की लगातार बारिश के कारण आसपास के निचले इलाकों में बाढ़ व घरों में पानी भर जाने के जो दृश्य वहां दिख रहे थे, उस वक्‍त आट्रेलिया उन्‍हें हूबहू अपने भारतीय शहरों की बरसात के मंजर जैसे लग रहा था। यह प्रश्‍न उनके भीतर उठ रहे थे, 'जल निकासी की व्यवस्था यहां भी विश्वसनीय नहीं है क्या?' इन उठते हुए प्रश्‍नों के साथ जिस आस्‍ट्रेलिया से वे हमें परिचित कराते हैं, मेरे अभी तक के अनुभव में वैसा आस्‍ट्रेलिय शाश्‍द ही कहीं दर्ज हो। आइये पढ़ते हैं जोशी जी का वह संस्‍मरण।

विगौ

दिनेश जोशी 


आस्ट्रेलिया हमारे इतिहासबोध में सुदूर स्थित पृथ्वी के नक्शे से अलग एक बेढंगे गोल शरीफे जैसे भूखंड के आकार का महाद्वीप है। रोचक तथ्य यह भी है कि आज यही महाद्वीप एकमात्र ऐसा भूखंड है जिसमें सिर्फ एक ही देश है। हमारी मिथकीय जानकारी और कल्पना के अनुसार दुनिया की सबसे पुरातन जनजातियों के लोग कभी यहां रहते थे। ब्रिटिश उपनिवेश के प्रारम्भिक दौर से पहले तक उन मूल जनजातियों की संख्या लाखों करोड़ों में बताई जाती है।
लेकिन अब इस महाद्वीप में समायी पचानबे प्रतिशत आवादी ब्रिटिश,आइरिस,ग्रीक,यूरोपीय,चीनी,
जापानी,कोरियाई,ईरानी लेबनानी, वियतनामी तथा अपने भारत,पाकिस्तान, बंग्लादेश,श्रीलंका, मलेशिया, इंडोनेशिया आदि दक्षिण एशियाई देशों के मूल नागरिकों से अटी पड़ी है।

यहां अब मिश्रित व मूल आदिवासी समुदाय की जनसंख्या लगभग आठ लाख है जो महाद्वीप की कुल,ढाई तीन करोड़ की आबादी का चार प्रतिशत बैठता है।
इस आवादी से थोड़ा कम लगभग तीन प्रतिशत तो यहां भारतीय मूल के लोग ही रहते हैं।
तो,तीन करोड़ की कुल आवादी में इतने कम मूल निवासियों का बचा होना क्या दर्शाता है! निश्चित रूप से यह आंकड़ा हैरतअंगेज​ करने वाला भले ही न हो पर विचारणीय व विमर्श के लायक तो है ही।
यहां के महानगर व उपनगरों में शक्ल सूरत से पहचान में आने वाले मूल निवासी तो बिल्कुल नजर नहीं आते,हां,बताया जाता है कि सुदूर दक्षिण व उत्तरी क्षेत्र के भीतरी इलाकों में वे पहचान में आ जाते हैं। इतने वर्षों बाहरी लोगो के सम्पर्क में आने से,यूं भी शुद्ध जनजातीय रक्त वाले वंशजों का मौजूद होना नामुमकिन है। अभी पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में जज नियुक्त हुए,पहले आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले सज्जन की फोटो टीवी पर देखी थी। वे रंग में गोरे,पर नाक नक्श से जरूर जनजातीय अन्वार लिए लग रहे थे।
मौसम के बरसाती तेवर के बीच बारिश के थोड़ा थमते ही बिल्कुल नीचे प्रतीत होते आसमान में बादलों के धुंए जैसे छल्ले हवा के वेग से चरवाहे की हांक से भागते भेड़ों के रेवड़ जैसे प्रतीत हो रहे हैं। प्रशान्त महासागर के इतने करीब के बादल ऐसे चलायमान नहीं होंगे तो कहां के होंगे,सोचता हुआ मैं यहां के औपनिवेशिक काल के शुरुआती इतिहास के प्रति जिज्ञासु हो उठा।


अफ्रीकी महाद्वीप से पुराआदि काल में हुए एकमात्र मानव प्रवास के प्रमाणिक सूत्र,आस्ट्रेलियाई​ जनजातीय समुहों के डी.एन.ए में पाये गये हैं,जोकि इसको विश्व की प्राचीनतम सभ्यता साबित करते हैं। आज से पचास साठ हजार वर्ष पुरानी जीवित संस्कृति के कस्टोडियन कहे जाने वाले लगभग तीन सौ विभिन्न भाषाई व रीति रिवाजों से भरे जन समूह वाले इस द्वीप के पूर्वी तट,यानी वर्तमान शिडनी में में जेम्स कुक नामक अंग्रेज नाविक ने सन् 1770 में कदम रख कर ब्रिटिश राज की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया था। सुदूर सागर के मध्य ऐसी खुली धरती पाकर ब्रिटिश उपनिवेशकों ने द्वीप पर कब्जे की योजना बना ली।शुरुआत में इंग्लैंड की जेलों में बढ़ी हुई कैदियों की संख्या को इस धरती पर बैरक बना कर,यहां भेज देने के साथ ही आगामी कब्जे का शिलान्यास कर दिया गया।इसीलिए आस्ट्रेलिया को ब्रितानी अभियुक्तों का ठिकाना कहा जाता है।
सन 1788 में कैप्टन आर्थर फिलिप अपने जहाज में अभियुक्तों, नाविकों व कुछ अन्य नागरिकों से भरे 1500 लोगों के साथ शिडनी कोस्ट में उतरा। उसके बाद,साल दर साल विधिवत अंग्रेजों की रिहाइशों का यहां के भिन्न-भिन्न तटों पर बसना प्रारंभ हो गया।मूल निवासियों के साथ हुए संघर्ष व हिंसा के अगले दस वर्षों में आदिवासियों की आवादी घट कर काफी कम हो गई। जिसके लिए जिम्मेदार, मुख्यतया बाहरी लोगों के आने से फैली नई बीमारियों,स्माल पाक्स,मिजिल्स, दिमागी बुखार व अन्य महामारियों के साथ उनकी जमीनों को हड़पने में हुए खूनी संघर्ष के दौरान हुई मौतें हैं।
जनजातीय लोग निर्ममता पूर्वक साफ कर दिये गये, उनको खाने हेतु आर्सेनिक जैसे जहरीले रसायनों से युक्त भोजन तक दिये जाने की बातें पढ़ने को मिलती हैं ।इन वर्षों में हुए संघर्षों में लगभग 20000 आदिवासियों तथा दो ढाई सौ यूरोपीय लोगों के मारे जाने के आंकड़े मिलते हैं।औपनिवेशिक काल के संघर्षों के बाद कुल सात आठ लाख मूल लोगों के बचे होने का अनुमान लगाया जाता है।
उत्तरोत्तर,औपनिवेशिक बसावट के बाद अगले सौ वर्षों में मूल निवासियों की जनसंख्या घट कर डेड़ लाख से भी कम आंकी जाती है। सन 1900 तक इनकी संख्या डेड़ लाख तक रह गई।
आखिरी शुद्ध रक्त वाले तस्मानियाई ,'एबओरिजनल' शख्स की मौत 1876 में हुई बताई जाती है।मतलब कि मिश्रित वर्णसंकरता पहले ही काबिज हो चुकी थी।
1850 के आसपास सोने की खानों के पता चलने तथा उसकी खुदाई के तरीके जान लेने के बाद तो इस द्वीप का आर्थिक रूप से कायाकल्प हो गया। यहां की अपार खनिज सम्पदा की भनक यूरोप,चीन,यू.एस.ए तक पंहुची। हजारों चीनी मजदूर गोल्ड माइंस में काम करने आये,जो प्रथम चायनीज सैटिलमैंट के कारक बने। उनके वंशज आज,यहां की आवादी में बहुतायत के रूप में मौजूद हैं।
इस गोल्ड रस परिघटना के कारण ही यहां बहुभाषी,बहुधर्मी,विविधतापूर्ण संस्कृति की शुरुआत होने लगी,जो आज परिपक्व हो कर एक आदर्श जनतांत्रिक देश के रुप में पल्लवित नजर आती है,इस देश का कोई सरकारी संवैधानिक धर्म नहीं है, पचासों भाषाओं व दर्जनों धार्मिक मान्यताओं के लोग यहां जितने अमन चैन सहकार व सहअस्तित्व के साथ रहते हैं, वैसे अन्य देश विरले ही होंगे। नागरिकता यानी 'सिटीजनशिप' ही यहां का परम नागरिक धर्म है।
बहरहाल,औपनिवेशिक शासकों ने बाद में मूल निवासियों के संरक्षण संवर्धन व उनकी सभ्यता संस्कृति कला को बचाये रखने हेतु सहानुभूति पूर्वक काम किये,क्योंकि इस महादेश में निर्विवाद रूप से उनका राज था।उन्हें हमारे देश,भारत जैसे किसी स्वतंत्रता संग्राम का सामना भी नहीं करना पड़ा। अगर इतनी पुरानी आस्ट्रेलियाई जनजाति की हमारे यहां जैसी,वैदिक,रामायण,महाभारतकालीन सभ्यतायें,राज्य साम्राज्य,सल्तनत,सूबे व शिक्षा,कला संस्कृति होती तो आजादी की मांग भी उठती तधा औपनिवेशिक शासकों को लौटना
पड़ता । दुर्भाग्य से यहां के समस्त आदिवासी समुदाय का बाहरी सम्पर्क से अभाव,व विशाल सागर के मध्य स्थित द्वीप में अलग थलग पड़े पड़े रहने के कारण ऐसा हुआ होगा।


1901में 6 विभिन्न ब्रिटिश उपनिवेशों,न्यू साउथ वेल्स,क्वींसलैंड, विक्टोरिया, तस्मानिया,साउथ कोस्ट व पश्चिमीआस्ट्रेलिया को मिला कर 'कामनवेल्थ आफ आस्ट्रेलिया' नाम से इस देश का संवैधानिक जन्म हुआ।उसके पश्चात आधुनिक राष्ट्र के सभी गुण यहां की सरकारों ने अंगीकार करने प्रारम्भ किये।
जनजातियों की घटी हुई जनसंख्या में भी संरक्षण संवर्धन नीतियों से वृद्धि होना प्रारम्भ हुई।उनके सम्मान व अधिकारों हेतु बने सुधारवादी ग्रुपों​ ने समय समय पर अपने पूर्वजों के साथ हुए अत्याचारों व वर्ताव पर नाराजी जाहिर की,आवाज उठाई तथा प्रतिकर व पश्चाताप की मांग के साथ भूमि अधिकारों सहित तमाम रियायतों व सुविधाओं के हक प्राप्त किये।
'आस्ट्रेलिया दिवस',जो कि 26 जनवरी 1788 को प्रथम औपनिवेशिक जहाज के इस धरती पर उतरने की स्मृति में मनाया जाता है,उस के विरोध में जनजातीय ग्रुपों ने 1938 से 1955 तक लगातार विरोध,बहिष्कार किये इस दिन को 'शोक दिवस' के रूप में मनाया। जनजातीय संगठनों के संघर्षों व मानव अधिकार समितियों के प्रयास के साथ ही
इशाई मिशनरियों के हस्तक्षेप के कारण सरकार के साथ सुलह समझौते के प्रयास फलीभूत हुए।रिकन्सीलियेसन कमेटी व विभाग बने।
1972 में सरकार ने अलग से 'डिपार्टमेंट आफ एबओरिजनल अफेयर्स' का गठन किया।
आज वे लोग शिक्षित,सम्पन्न व सरकारी नौकरियों में हैं। सरकारी व रिजर्व जमीनें,पार्क,फार्मलैंड आदि उनके निजी नाम पर भले ही न हों पर प्रतीकात्मक रुप से उनके पूर्वजों की मानी जाती हैं।
उनसे कोई हाऊसटैक्स,लगान,आदि नहीं ली जाती।
हां,कामनवैल्थ देश होने के कारण ब्रिटिश महारानी के क्राउन का सम्मान व परंपरा का पालन अवश्य किया जाता है।
सार्वजनिक स्थानों पर आस्ट्रेलियाई झंडे के साथ एबओरिजनल,व टौरिस स्ट्रेट द्वीप के प्रतीक दो और झंडे और फहराये जाते हैं। टौरिस स्ट्रेट,क्वींसलैंड और पापुआ न्यू गुइना के मध्य स्थित द्वीप है। जहां के मूल निवासी आस्ट्रेलियाई एबओरिजनल आदिवासियों से भिन्न माने जाते हैं।जगह जगह पार्कों ,भवनों आदि में "देश का आभार" शीर्षक से स्मृति पटों पर लिखा मिलता है,
'हम एबओरिजनल तथा टौरिर स्ट्रेट आइसलैंडर जातियों के अतीत,वर्तमान व भविष्य का सम्मान करते हैं,हम इस धरती पर उनकी जीवित संस्कृति,गाथाओं व परंपराओं को आत्मसात करते हुए साथ साथ मिल कर इस देश के उज्जवल भविष्य के निर्माण हेतु प्रतिबद्ध हैं।'
इशाई धर्म की मिशनरियों के प्रभाव व वैचारिक सोच वाले राष्ट्रों की यह खूबी है कि वे पश्चाताप व कन्फैशन वाली उदारता दर्शाने में पीछे नहीं हटते तथा समझौता,सुलह या 'रीकन्सलियेसन'जैसी नीति के माध्यम से पीड़ित,प्रताड़ित जनों के घावों पर मरहम फेर कर द्वंद से बचते हुए भविष्य को उज्जवल बनाने में यकीन रखते हैं।इसी कारण उनकी सरकारों में अलग से रीकन्सीलियेसन विभाग' बनाये जाते हैं।
यह नीति भले ही कूटनीति हो,अगर राष्ट्रों में अमन चैन और समुदायों के बीच भाईचारा बढ़ता हो तो क्या नुकसान है!
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Saturday, July 23, 2022

क्रूर सलाहों के विरुद्ध

जीवन तकलीफों की खान है। तकनीक के विकास की जितनी भी कोशिशें हैं, तकलीफदेय स्थितियों को कम करते जाने और जीवन परिस्थितियों को सहज बनाने की अवधारणा उसके मूल में निहित दिखाई देती है। नैतिकता और आदर्श की स्थापनाओं के ख्यालों से भरा सारा मानवीय उपक्रम ही नहीं, बल्कि छल-छद्म को रचने वाले विध्वंसक कार्यरूप भी प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष में जीवन को सहज बनाने की अवधारणा से प्रे‍रित होकर ही किये जाते रहे हैं। यही मानवीय लीला है। मनुष्य और अन्य जीवों के बीच यही फर्क, चेतना के रूप में दिखायी देता है। इस फर्क ने ही मनुष्यं को खुद की गतिविधियों की आलोचना करने का भी सऊर दिया है। इसी से समझना आसान होता है कि जीवन को खुशहाल बनाने की बजाय उदास करने वाले उपक्रमों से असहमति एवं विरोध ही कला और साहित्य के कार्यभार हैं। यदि कोई रचना इस तरह के उददेश्य से निरपेक्ष है तो कला की कसौटी पर उसे रचना मानने से परहेज किया जाना चाहिए। रचना की शर्त ही है कि बेहतर जीवन स्थितियों के लिए बेचैनी का विचार वहां होना चाहिए। कान्ता घिल्डियाल की कविताओं में प्रकृति की जो छटाएं हैं, देख सकते हैं कि वे सिर्फ सौन्दीर्य की प्रस्तुति नहीं है, बल्कि मनुष्य जीवन की बेहतरी के लिए उस सौन्दर्य की भूमिका का आंकलन और उसकी अवश्यम्भाविता की पहचान वहां स्‍पष्‍ट है। उसको बचाने की बेचैनी है- '' मैं खोना नहीं चाहती,/ मन ही मन बतियाना पक्षियों से/ निहारना भिन्न्ता को''



हाल ही में कान्ता घिल्डियाल ने हिमांशु जोशी के उपन्यास 'कगार की आग' का गढवाली अनुवाद किया है जो 'बीस बीसि' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। इससे पूर्व कान्ता घिल्डियाल दो अन्य पुस्तकों 'शहीद अब्दुल हमीद' अर 'मटकू बोलता है' का भी गढ़वाली भाषा में अनुवाद कर चुकी हैं। ये दोनों ही अनुवाद राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (NBT) से प्रकाशित हैं। अनुवाद के ये काम कान्ता घिल्डियाल के उस व्याक्तित्वत से परिचित होने का अवसर देते हैं जिसमें एक व्यक्ति के लेखन की ओर उन्मुख होने के कारणों को तलाशा जा सकता है। अपनी धरती, अपनी भाषा और उस भाषा की समृद्धि का ख्याल, कान्ता घिल्डियाल के व्‍यक्तित्‍व की विशेषता बन रहा है। उनके व्याक्तित्व के इस पहलू को जानकर भी उनकी रचनाओं के पाठ तक पहुंचने के रास्ते पर चला जा सकता है।उनकी हिंदी कविताओं का संग्रह 'मुट्ठी भर रंग' शीर्षक से प्रकाशित है। 

प्रस्तुत हैं देहरादून में रहने वाली कान्ताा घिल्डियाल की कुछ नयी कविताएं।


विगौ

कान्ता घिल्डियाल


मेरा वसंत

 

अलसुबह रोज़ र्बोगेनवेलिया पर

आने लगी हैं

घिंडुड़ी, सिंटुली, बुलबुल, तोते, कौऔं

और नन्‍हीं चिड़ियां

 

सूरज की आमद से पहले

शुरू हो जाता है एक सुरीला ऑर्केस्ट्रा

अफसोस कि पड़ोस में है कसमसाहट

नींद में पड़ रहा खलल  

नहीं जानते वे

गाँव और शहर के बीच पुल बन रही बेल

मन-प्राणों पर छा सकती है

सुगंध की तरह,

 

अक़्सर मिलती हैं

बोनसाई बनाने की क्रूर सलाहें

 

मैं खोना नहीं चाहती,

मन ही मन बतियाना पक्षियों से

निहारना भिन्‍नता को

 

वैसे कभी-कभी तो मुझे भी हो ही जाती है शिकायत

बढ़ जाता है बोझ एक अतिरिक्त काम का

हवा से गलबहियां करती शाखें

जब झरती हैं फूल, पत्तियां

 

पर सच कहूं

बोगेनवेलिया के बेल

मेरा वसंत है

तकिया है ,नींद और सपने है

और हर सुबह की 

सुनहरी शुरुआत है।

 

 

मेरा हौंसला हो तुम

 

 

चिड़ियों !

क्या तुम्हें

धूल-धूसरित आसमान में उड़ते हुए

किसी बहेलिए का डर नहीं सताता ?

 

पुष्पकलिकाओं !

क्या तुम्हें खिलखिलाकर हँसते हुए

मसले जाने का ख़ौफ़ नहीं होता ?

 

गर्भ में पल रही,

जन्म लेने को आतुर बच्चियों !

क्या तुम नहीं जानती हो

बड़ी-बड़ी टोही आँखे

हाथों में हथियार लिए

कत्ल करने को तैयार हैं ?

 

नृशंस हत्याओं के धुंध इरादे

खून की लकीरें खींच रहे लगातार

मुझे तो हर पल डराता है

तुम सब मेरा हौंसला हो पर

तुम्‍हें बेखौफ बने रहना है इसी तरह।   

 

 

ए‍क जरूरी भाव

 

 

अपमान की अग्नि

नज़र नही आती

पर बढ़ तो जाता ही है

शरीर का ताप

अंतस की

भीतरी तहों को भेदकर

डस जाती है

सर्पजिभ्या

आत्मा का कोई भी हिस्सा

नहीं रहता घाव विहीन....

 

  

गुलाबी गाँव

 

एक

चैत के महीने भीटों पर

खिली फ्योंली को देख

भले ही पियरी पहने चहक उठता हो गांव

पर गुलाबी नहीं होता

 

रोटी की तलाश में जा चुके बेटों के

कभी-कभार लौटने से भले ही

हरी हो जाती हो गांव की रंगत

पर गांव ग़ुलाबी नहीं होता

 

खेतों को बिलाकर बनी सड़क पर

धूल उड़ाती गाड़ी से उतरती

नई-नवेली दुल्हन को देख

बेशक सतरंगी हो जाता है गाँव

पर गुलाबी नहीं होता

 

गुलाबी हो उठता है गाँव

जब उसे वर्षों बाद दूर धार में दिखती है

अपने पास आती हुई कोई ब्याही बेटी ,

अचानक हो जाते हैं हरे

उससे गलबहियां करने को आतुर

खेतों के किनारे खड़े

भीमल खड़ीक के पुराने पेड़,

चूडियों भरी हथेलियों को चूमकर

स्वागत गीत गाने को आतुर होता है

खुदेड स्वरों में बहता मंगरों का मीठा पानी ,

बरसों बाद उसकी छुअन महसूस कर

उसके पदचिन्हों को चूमती हैं

बचपन के खेलों की गवाह टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियाँ ,

खारे नमकीन पानी से भीग जाती हैं

तिबारी के छज्जे में

माथे पर झुर्रियों भरे हाथ टिकाए

बाट जोहती बूढ़ी आँखें ,

सूनी गलियां सुहागन बन पूछती हैं

कुटुंब-परिवार की कुशल-क्षेम ,

जंक लगे तालों संग

आँखों के कोरों को पोंछती हैं

सीलन और उदासी से नम हो चुकी

खाली खूंटों की पहरेदारी करती

गोबर मिट्टी से लिपी दीवारें ,

सुहाग की सलामती के साथ

दूधो नहाओ पूतो फलो के

आशीषों से नवाजते हैं

वीरान पड़े देवी-देवताओं के मंडुले ,

संबंधों में गरमाहट का गवाह

गांव के बीचोबीच खड़ा पीपल

अंग्वाळ बटोरकर पूछता है हाल

लाडो ! 

गाँव तो बेटियों के होते हैं

जब तक बेटियाँ न बिसराएँगी इसे

तब तक गुलाबी ही रहेंगे गाँव।

 

दो

गाँव से शहर ब्याही गयी

बेटियों के सपनों में रोज़ आते हैं

छूट चुकी नदी , पहाड़

और सीढ़ीनुमा खेत

 

नदी की गोद में गिरता झक्क सफ़ेद झरना

सुरों में बहने लगता है

कानों में संगीत घोलती है

गाँव को जाती सड़क

चीड़ , देवदार , काफ़ल और बुरांस

शहर की उमस भरी गर्मी को सोख लेना चाहते हैं

देह और आत्मा में ठंडक घोलता है

धारे-मंगरों का ठंडा-मीठा पानी

उदास मुख पर

उजास बिखेरता है

गाँव की सुबह का बाल सूरज

 

तीन

सूरज की किरणों से 

बिखरता है सोना पहाड़ पर

हवा संग गलबहियां कर

गीत गाते हैं पत्ते

उड़ती चिडियाँ

छज्जे पर आकर

घर के साथ जोड़ती है

पहला संवाद।

पहाड़ के हँसने , रोने , गाने

और नाराज़ होने की

पहली राज़दार होती हैं नदियाँ..


Tuesday, July 19, 2022

कहानी के बारे में

हिंदी कहानी में गंवई आधुनिकता की तलाश करते हुए अनहद पत्रिका के लिए कहानियों पर लिखे गये मेरे आलेखों की श्रृंखला का एक आलेख मुक्तिबोध की कहानि‍यों पर था। गंवई आधुनिक प्रवृत्ति के बरक्‍स जिन रचनाकारों की रचनाओं में मैंने आधुनिकता के तत्‍वों को पाया- भुवनेश्‍वर, यशपाल, रमाप्रसाद घिल्डियाल 'पहाडी’, मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय, यह आलेख उसकी पूर्व पीठिका भी माना जा सकता है। । मुक्तिबोध की कहानियों पर लिखा गया आलेख वर्ष 2016 के अनहद में है और शेष रचनाकार  भुवनेश्‍वर, यशपाल, रमाप्रसाद घिल्डियाल 'पहाडीऔर रघुवीर सहाय कहानियों के मार्फत आधुनिकता को परिभाषित करने वाला आलेख सोवियत इंक्‍लाब के शताब्‍दी वर्ष को केन्‍द्रीय थीम बनाकर निकले अनहद के वर्ष 2017 में प्रकाशित है। 2017 वाले आलेख में ही अल्‍पना मिश्र की कहानी छावनी में बेघर को अपने समकालीन रचनाकारों की रचनाओं में आधुनिक मानते हुए उसके उस पक्ष को देखने की कोशिश की थी जो इधर के दौर में सैन्‍य राष्‍ट्रवाद के रूप में दिखता है। छावनी में बेघरउस सैन्य राष्‍ट्रवाद को ही निशाने पर लेती है। 2017 के उसी आलेख में युद्धरत कहानियों की अवधारणा की बात करते हुए ही चन्‍द्रधर शर्मा गुलेरी की गंवई आधुनिक कहानी उसने कहा थाके बरक्‍स युद्ध के सवालों पर रमाप्रसाद घिल्डियाल पहाडी, भुवनेश्‍वर और रघुवीर सहाय की कई कहानियों के जरिये आधुनिकता की तलाश करने की कोशिश हुई। बाद में युद्धरत कहानियों पर आलोचक गरिमा  श्रीवास्‍तव जी के आलेख में पहाडी जी कहानियों और अल्‍पना मिश्र की कहानी पर की गयी टिप्‍पणी को बिना किसी संदर्भ के साथ गरिमा जी ने जिस तरह से अपने आलेख में उसे अपनी मौलिक अवधारणा के साथ रखा और समालोचन के संपादक अरुण देव जी ने युद्धरत हिंदी कहानियों पर गरिमा जी के आलेख को पहला मौलिक काम कह कर प्रस्‍तुत किया था, वह देखकर ही मैं उस वक्‍त क्षुब्‍ध हुआ था।

खैर। यह टिप्‍पणी लिखने के पीछे के बात इतनी से है कि इस वक्‍त मैं 2016 में कथाकार सुभाष पंत द्वारा हिंदी कहानियों पर लिखी उस टिप्‍पणी को यहां प्रकाशित करके सुरक्षित कर लेना चाहता हूं जो उन्‍होंने मुक्तिबोध की कहानियों पर लिखे आलेख की प्रतिक्रिया में एक मेल के जरिये मुझे भेजी थी। आज उसे प्रकाशित करने का औचित्‍य सिर्फ इसलिए कि अपने उस मेल को फारवर्ड करते हुए सुभाष जी ने मुझसे कल फिर जानना चाहा कि उन्‍होंने यह टिप्‍पणी क्‍यों लिखी थी, इसका संदर्भ क्‍या था। वे स्‍वयं याद नहीं कर पा रहे। उनको दिये जाने वाले जवाब ने ही प्रेरित किया कि चूंकि हिंदी कहानियों पर यह सुभाष जी की एक महत्‍वपूर्ण टीप है, तो इसे सार्वजनिक करना ही ठीक है ताकि लम्‍बे समय तक सुरक्षित भी रखा जा सके।

विगौ














सुभाष पंत 
  

आलोचना 

                                      सुभाष पंत


      तुम्हारा आलेख बहुत अच्छा है और एक बार फिर से मुक्ति बोध के गद्य साहित्य को पढने को उत्साहित करता है। मुक्तिबोध की कहानियों के धूमिल से एक्सप्रैसन दिमाग़ होने की वजह से तुम्हारे आलेख पर कोई टिप्पणी जल्दबाजी होगी। लेकिन इसकी प्रस्तावना में कहानी पर भाषा और कहानीपन के जो मुद्दे तुमने उठाए हैं, उन पर एक कामचलाऊ, त्वरित टिप्पणी दे रहा हूं, इस पर विचार किया जा सकता है। यह संभवतः तुम्हारे अगले समीक्षाकर्म में किसी काम आ सके।

वह चाय सुड़क रहा था। वह चाय घकेल रहा था। वह चाय सिप कर रहा था। वह चाय पी रहा था। वह चाय नहीं, चाय उसे पी रही थी।’

 इतना कह देने के बाद मुझे नहीं लगता की चाय पीनेवाले पात्र के विषय में कुछ कहने की जरूरत नहीं रह जाती है। यह उसके वर्गचरित्र के साथ उसके संस्कार, मिजाज, शिक्षा के स्तर वगैरह के विजुअल्स निर्मित कर देती है। एक सार्थक भाषा वही है, जिसे पढ़ते हुए बिम्ब स्वयं ही निर्मित होते चले जाएं। यह ताकत हर भाषा में होती है लेकिन जैसे जैसे भाषा देसज से अभिजन में बदलती जाती है वैसे वैसे यह अपनी इस ताक़त खोती जाती है। जब एक पिता अपने बच्चे को डांट रहा होता है, ’अबे स्साले दिनभर चकरघिन्नी बना रहता है’-यहां स्साले गाली न रहकर पिता की बच्चे के भविष्य की चिंता और ममता है। और चकरघिन्नी शब्द तो हवा में घूमती फिरकी का अनायास आंखों के सामने नाचता हुआ बिम्ब है। हर शब्द का अपना एक बाहरी और भीतरी जगत, इतिहास, संस्कार, छवि, लय और ध्वनि है। स्थिर दिखते शब्द परमाणु में घूमते न्यूट्रॉन की तरह भीतर ही भीतर गतिमान रहते है और सही तरह से प्रयोग में लाए जाने से ऊर्जा प्रवाहित करते है। शब्दों से भाषा बनती है और भाषा से अभिव्यक्ति। अभिव्यक्ति साध्य है, भाषा अभिव्यक्ति का साधन है, लेकिन उसका सटीक प्रयोग लेखकीय जिम्मेदारी है, वह इस जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकता। हिन्दी भाषा की दूसरी ताकत उसके मुहावरे हैं। हर मुहावरे के भीतर कहन का एक संसार बसा होता है। ’नाच न जाने आंगन टेढ़ा’, ’राड़ से बाड़ भली’ बस दो ही उदाहरण है। इन्हें खोलकर देखिए कितनी बातें उनमें छिपी हुई हैं। हर लेखक के लिए जरूरी है कि वह रचना में अपने मुहावरे भी गढे। अफसोस है कि अपने मुहावरे गढ़ने की बात तो दूर लेखन से मुहावरे गायब हो रहे हैं और भाषा नंगी होती जा रही है। रचना में कोमल भाषा मुझे बहुत परेशान करती है। उसमें उसकी अक्खड़ता, अकड़, करेर और बांकपन होना चाहिए। जब जीवन ही कोमल नहीं है तो भाषा की कोमलता उसका गुण नहीं हो सकती, भले ही उसमें माधुर्य हो।

तुम्हारी इस बात से मैं पूरी तरह सहमत हूं कि रचनात्मक भाषा शब्दकोश से नहीं, उनसे सीखी जाती है, जो भाषा का व्याकरण नहीं जानते। मुझे एक्सप्लाइटर के लिए शब्दकोश ने ’शोषक’ शब्द सिखाया था लेकिन एक मजदूर ने मेरा शब्दसंस्कार करके बताया कि उसे ’नोचनिया’ कहते हैं। इस शब्द में ज्यादा ताकत है और अनायास बनता बिम्ब भी है।

सरलता भाषा का तीसरा गुण है, लेकिन इसे साधना उसी तरह मुश्किल है, जैसे फ्री हैंड सरल रेखा खींचना। किसी भी बच्चे के हाथ में पेंसिल पकड़ा दो तो वह फूल, पत्ती, चिड़िया वगैरह बना लेगा लेकिन फ्रीहैंड सरल रेखा खींचना तो पिकासो के लिए भी संभव न होता। मुक्तिबोध यहां मुझे कविता और गद्य दोनों में कमजोर दिखाई देते हैं। सरल भाषा का अर्थ सरलीकरण कतई नहीं है। मैंने तो आजतक जितने भी महान रचनाकारों-प्रेमचंद, गोगोल, दास्तोयास्की, चेखब, गोर्की, स्टेनबैक, हेनरी, हैमिंगवे, बक, सेस्पेडिस वगैरह की रचनाएं पढ़ी है, उनमें भाषा की सरलता में जादू रचने का कौशल देखा है।

भाषा पर और भी बातें हो सकती हैं। फिलहाल इतनी ही।

अब कहानी में कहानी की बात।

प्रेमचंद युग की कहानियों में कहानी का एक सुगठित ढांचा है। कहानी अपने मिजाज में बहुत संवेदनशील है। वह हर दशक में अपना मिजाज बदलती जाती है। नई कहानी के दौर में उसका शहरीकरण हुआ। जाहिर है जब कहानी गांव से शहर आई तो उसे अपना लिबास, भाषा, शिल्प, तेवर वगैरह बदलने ही थे। उसने बदले। प्रेमचंदीय कहानी के ढांचे पर प्रहार हुआ। यह ढांचा पूरी तरह से नहीं टूटा। यह कहीं संघन  और कहीं विरल रूप में मौजूद रहा। इन कहानियों में शिल्प और भाषा का नयापन है लेकिन इनकी सामाजिकता संकुचित है और भोगा हुआ यथार्थ का नारा देकर इन्होंने अपनी सामाजिकता को और भी ज्यादा संकीर्ण कर लिया और कहानियों के केंद्र में खुद स्थापित हो गए। कमलेश्वर की आरम्भिक कस्बे की कहानियों में कहानीपन मौजूद है और ये कहानिया जैसें-राजा निरबंसिया, नीली झील, देबा की मां आदि महत्वपूर्ण कहानियां हैं। दिल्ली और मुम्बई के दौर की उनकी कहानियों में कहीं यह ढांचा बना रहता है और कंहीं टूटता है और दोनों ही प्रकारो में उनके पास मांस का दरिया और जो लिखा नहीं जाता जैसी महत्वपूर्ण कहानियां हैं। यादव की कहानियों में कहानीपन कम है लेकिन उनके पास कोई अच्छी कहानी नहीं है सिवा जहां लक्ष्मी कैद है, उसमें कहानीपन मौजूद है। मोहन राकेश की सबसे महत्वपूर्ण कहानी-मलवे का मालिक में भी कहानीपन की रक्षा की गई है। इसके अलावा उस समय की अमरकांत और भीष्म साहनी की बड़ी और चर्चित कहानियां, हत्यारे, डिप्टी कलक्टरी, दोपहर का भोजन, अमृतसर आ गया, चीफ की दावत वगैरह में कहीं न कहीं कहानीपन है।

   कहानी का ढांचा तोड़ने की घोषणा के बावजूद नई कहानी में कहानीपन एक नए रूप में उपस्थित रहा। ये नेहरूयुग के मोहभंग की कहानियां हैं, लेकिन इनमें कोई नया रास्ता तलाश करने की तड़प या संघर्ष दिखाई नहीं देता। कुल मिलाकर ये राजनैतिक दृष्टिशून्य कहानियां हैं। इस दौर की कहानियों का सकारात्मक पक्ष यह है कि कहानी लेखन में महिलाएं भी हिस्सेदार हुई। मैं तो नई कहानी का प्रस्थानबिन्दू ही ऊषा प्रियंवदा की कहानी ’वापसी’ को ही मानता हूं। इस कहानी में भी कहानीपन है। नामवर इसका श्रेय निर्मल वर्मा की कहानी ’परिंदे’ को देते हैं। शायद इसके पीछे उनकी पुरुषवादी मानसिकता रही हो। बहरहाल इस कहानी  में कहानीपन गौण है और लतिका का अकेलापन ज्यादा मुखर है और भाषा-शिल्प का नयापन है। इसके अतिरिक्त उनकी लगभग सभी कहानियां कहानीपन से विरत मऩस्थितियों, अजीब सी उदासी और परिवेश की काव्यात्मक अभिव्यक्तियां है, जिनका एक बहुत बड़ा पाठक वर्ग है। मनोहरश्याम जोशी की कहानियों में लाजवाब भाषा, विलक्षण शिल्प, विट् के साथ कहानीपन है, लेकिन ये संवेदना का कोई धरातल नहीं छूतीं। इस दौर का सबसे बड़ा कहानीकार शैलेष मटियानी है, जिसके पास भाषा-शिल्प, विश्वसनीयता, कहानीपन, संवेदनशीलता का बेजोड संतुलन है। अगर प्रेमचंद के पास दो-चार विश्वस्तरीय कहानियां हैं, तो मटियानी के पास आधा दर्जन से ज्यादा ऐसी कहानियां हैं। महिला कथाकारों में मन्नूभंड़ारी और कृष्णा सोबती ने कहानीपन बनाए रखने के साथ बहुत सी लाजवाब कहानियां दी हैं। काशीनाथ की कहानियों में भाषा का करेर और विट है और वे कहानियां अपनी बात शिद्दत से कहती हैं। इसके विपरीत दूधनाथ के पास बहुत अच्छी भाषा और शिल्प नहीं होने के बावजूद बेहद सशक्त कहानीपन की अविस्मरणीय कहानियां है। शेखर जोशी के पास सामान्य भाषा और शिल्प होने के बावजूद बहुत अच्छी कहानियां है। उनके पास जहां एक ओर कोसी का घटवार जैसी विलक्षण प्रेम कहानी है तो दूसरी ओर दाज्यु जैसी संवेदनशील कहानी है और तीसरी ओर कारखाने के जीवन की बदबू जैसी कहानी है। इनकी सभी कहानियों में झीना ही सही पर कहानीपन देखा जा सकता है। नई कहानी आंदोलन के बावजूद प्रेमचंद परम्परा की कहानियां इस दौर में जीवित ही नहीं रहीं बल्कि रेणु ने तो उन्हें कलात्मक उत्कर्ष पर भी पहुंचाया। इस परम्परा की कहानियां शिवमूर्ति, यादव, वगैरह आज भी एक नई दृष्टि भाष और शिल्प में लिख रहे हैं। इस दौर में मुक्तिबोध ही एकमात्र ऐसे लेखक हैं जिन्होंने कहानी के कहानीपन को फैंटंसी में बदला है। लेकिन उनका रचना विधान जटिल है, जिसके कारण वे एक विशेष बौद्धिकता की मांग करती हैं। यहां एक विचारणीय प्रश्न यह है समतामूलक समाज के निर्माण में, जहां  आदमी के सम्पत्ति वगैरह के बराबर अधिकार की बात की जाती है साहित्य संरचना को इतना दूरूह बनाना न्यायोचित होगा कि वह सामान्य पाठक की पहुंच से दूर हो जाए। 

नई कहानी के बाद उसके समग्र विरोध में अकहानी का दौर आया। कहानी यहां पूरी तरह बदलती दिखाई देने लगी, उसका कहानीपन विरल होता चला गया और एक नई भाषा, कहन के तरीके और भावबोध में आमूलचूल परिवर्तन हो गया। इस दौर का सबसे महत्त्वपूर्ण लेखक ज्ञानरंजन है। उनकी कहानियां एक साथ भीतर और बाहर की यात्रा करती हैं। उनमें बिल्कुल अलग तरह की बोलती भाषा, अनोखा शिल्प और गजब की पठनीयता है। वे अपने वक्त के संकटों के साथ भविष्य के संकटों की ओर भी संकेत करती हैं।

अकहानी के बाद कहानियां पूरी तरह भटक गईं। वे सैक्स और स्त्री की जांधों के गिर्द घूमने लगी। ऐसी कहानियों के खिलाफ कमलेश्वर के घर्मयुग में ’अय्याश प्रेतों का विद्रोह’ नाम से तीन या चार बेहद महत्त्व आलेख प्रकाशित हुए। नक्सलवाड़ी का विद्रोह ने भी कहनियों में राजनैतिक चेतना विकसित की। इस बात को बहुत गहराई से महसूस किया जाने लगा कि कहानियों के केन्द्र में आम आदमी और उसके संकटों को जगह दी जानी चाहिए। एक तरह से इसे नई कहानी का ही विस्तार ही कहा जा सकता था। इसमें इतना ही परिवर्तन है कि कहानी के केन्द्र जहां पहले लेखक खुद स्थापित था, उसकी जगह सामान्यजन ने और भोगे हुए यथार्थ की जगह देखें ओर अनुभव किए यथार्थ ने ले ली। यह समान्तर कहानी आंदोलन था, जिसके साथ दलित पैंथर के प्रखर लेखक भी इसके साथ जुड़े जिन्होंने हिन्दी साहित्य में दलित लेखन का दरवाजा भी खोला। संयोंग से संमातर का मधुकर ऐसा लेखक था जिसका समस्त रचनाकर्म दलित चेतना के साथ राजनैतिक चेतना को समर्पित है, लेकिन उसने आत्मदया बटोरने के लिए अपनी आत्मकथा नहीं लिखी। वह निरंतर पाले बदलकर सीपीआई से एम और फिर एमएल की ओर जाता रहा और झगड़कर जाता रहा तो वामपंथ की साहित्यिक बिरादरी ने उसके साहित्यिक अवदान पर चुप रहीं। इसके बाद इस परिवर्तित साहित्य की राजनीति में उसे इसलिए कभी रेखांकित नहीं किया जिससे दलित साहित्य का सेहरा उसके सिर पर न बंध जाए। बहरहाल संमातर कहानियों में केंद्रित किया गया आम तो जाहिर था कि उसके साथ उसकी कहानियां भी आनी ही थीं। इसी के साथ प्रेमचंद का कहानीपन का मुहावरा भी कहानी में लौटा। संभवतः सुभाष पंत की कहानी ’गाय के दूध’ के साथ यह ठोस रूप में लौटा। यह पुराने ढांचे के पुनःस्थपित करनेवाली टै्रंड सैटर कहानी थी। संभवतः यही कारण था कि यह इतनी पसंद की गई कि इसके अंग्रेजी समेत भारत की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद और नाट्य रूपान्तरण हुए। बाद में इस कहानी के ल लेखक ने कहानीपन की इस जकड़बंदी को विरल करने के लिए सेमी फैटेसी का सहारा लेना भी शुरू किया। इस कहानी आंदोलन में चिंरतर वाम की अवधारणा थी कि जब तक एक भी आदमी हाशिए के बाहर है तब तक लेखक की भूमिका निरंतर विरोध की भूमिका में रहेगा। इस आंदोलन का निराशाजनक पक्ष यह रहा कि यह आमआदमी की दयनीय अवस्था  और उसके लिए सहानुभूति तक सीमित रह गया। उसकी संधर्षकामी जिजीविषा पुष्ठभूमि में चली गई। सहानुभूति लिजलिजी होती है। जीवन सहानुभूति से नहीं संघर्ष से बदलता है। इसके अलावा सारिका में छपने के लिए अवरवादी लेखकों एक जमावड़ा भी इस आंदोलन में जुड़ता चला गया और कहानियां टाइप्ड़ होती चली गई। कमलेश्वर जी के सारिका से हटते ही यह सारा कुनबा बिखर गया। शायद मैं ही एक ऐसी बचा रहा, जो तब भी वैसा ही लिख रहा था और आज भी वैसा ही लिख रहा।          

सारिका के बंद होते ही यादवजी ने इस शून्य का लाभ उठाया और हंस के राइट्स खरीदकर इसे पुनर्जिवित किया। यह उनका हिन्दी साहित्य के लिए अविस्मरणीय योगदान है। उन्होंने स्त्री और दलित विमर्श का मुहावरा अपनाया लेकिन वे सिर्फ उसतक सीमित न रहकर दूसरी तरह की कहानियों को लिए भी अपने दरवाजे खुले रखे। कहानी के क्षेत्र में मार्केज का ’जादुई यथार्थवाद’ का सिक्का उछल रहा था। उदय प्रकाश की कहानियों को जादुई यथार्थवाद की कहानियों कहकर भी हंस ने उसे शीर्ष कहानीकार बना दिया। बहरहाल स्त्री विमर्श की कहानियों में कहानीपन का झीना ढांचा है, दलित विमर्श में सधन और जादुई यथार्थवाद की कहानियों में अतिशयोक्ति भरा।

   बाजार के आक्रमण के साथा कहानियांं में अनाश्यक विवरण, नेट से प्राप्त सूचनाओं, भाषा और शिल्प के चमत्कार से भरी कहानियां बड़ी कहानियां मानी जाने लगी और ऐसा लगने लगा कि अब कहानीयां लिचाने के नियम अब मल्टीनेश्नल ही ही निर्धारित करेंगी। लेकिन यह दौर बहुत छोटा रहा। यह पत्रिकाओं का दौर है। हर शहर से पत्रिकाएं निकल रही हैं। कहानियों का धरातल व्यापक हुआ और विविध मिजाज की कहानियां लिखी जा रही है। कहीं कहानी का पारम्परिक ढांचा मौजूद है और कहीं उसका अतिक्रमण भी हो रहा है।