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Sunday, April 14, 2024

मन की उधेड़बुन

मोनिका भण्डारी शिक्षिका हैं और उत्तराखंड के उत्तरकाशी जनपद में रहती हैं। यह वही उत्तरकाशी है जिससे हमारा परिचय एक समय में रेखा चमोली की कविताओं से हुआ और फिर उस परिचय को सपना भट्ट की कविताओं ने गाढा किया।   


मोनिका भण्डारी की
कविताओं से मेरा परिचय हाल ही में फेसबुक के माध्यम से हुआ। अपने तरह की ताजगी से भरी उनकी कविताओं ने जिन चीजों की ओर ध्यान खींचा, खासतौर पर वह शिल्प की परिपक्वता रही, जो निजता के स्तर पर अर्जित अनुभवों को सार्वजनिक बना दे रहा। इन कविताओं में प्रेम की अविकलता नहीं, उम्मीदों और आशवस्ति के उदात्त भाव बिखरे नजर आते हैं। ज्यादातर कविताएं शीर्षक विहीन हैं। इस तरह से ये कविताएं पाठक को भी स्वतंत्रत तरह से अपना पाठ रचने की छूट दे रही हैं। 

विगौ

मोनिका भण्डारी की कविताएं  

एक

हजारों उलझनों के बीच
जब जीवन निःसंग सा लगने लगता है
और रिक्तता घेर लेती है
ऐसे में
कुछ आवाजें बहुत आश्वस्त लगती हैं

बदलाव जो होने जरूरी हैं
बहुत भारी होते हैं कई बार
अभिभूत नहीं,असंतुलित कर देते हैं स्वतः ही
ऐसे में
हाथों पर कोई हाथ दिलासा लगते हैं

हृदय कितनी पीड़ाएं सह लेता है कुशलता से
किंतु छले जाने पर
घनघोर निराशा के क्षणों में
जब चुन लेता है पाषाण होना
ऐसे में
कोई हल्का सा प्रेमिल भाव
भरपूर नमी बनाए रखने जैसा लगता है

 

 दो 

मन रुका रह गया
देह चली आई
देह में मैं नहीं थी
देह रिश्तों की ट्रेडमिल पर दौड़ती रही
लेकिन जिंदगी थमी सी रही
कुछ चीजें बस शुरू हो जाती हैं
लेकिन खत्म होने पर 
एक मुकम्मल कहानी सा क्लोजर मांगती हैं

 

  

तीन 

मन जब भी
कातर हुआ
अनगिनत मूक संवाद ,
और स्नेह आलंबन भी
आश्वस्त न कर पाए,
जबकि दूर से दिखती
सुंदर चेहरों की हंसी
अच्छी लगी
लेकिन कभी उन चेहरों के
मन के पास से गुजरी तो
निशब्द हो उठी
उदासी छुपाने के उपक्रम में
खुशगवार दिखते चेहरों की
तमाम गर्द और खलिश बिखर गई
दर्द समेट लेने के यत्न में
उन्मुक्त हंसी का निहायती बनावटीपन दिख गया
कितनी पक्की रंगरेज बन जाती हैं ये
अपनी देह और मन को बेतरह अचाहे रंगों से ढक लेती हैं
बस नाम और चेहरे बदल जाते हैं
लेकिन कहानी,अनजानी नहीं होती
हमारी पीड़ाएं भी कितनी मिलती जुलती होती हैं ना!

 

चार

प्रेम में पगी स्त्रियाँ
मन के कठिन दिनों में भी
दिल की ज़मीन को
घास पर फिसलती ओंस
की तरह
नम बनाये रखती हैं
खुश्क नहीं होने देती
बूँद बूँद बरसती उदासी
और गहरी खामोशी में भी
किरणों की उजास सी
बिखर जाती हैं
प्रेम में पगी स्त्रियाँ
प्रेम से विश्वास नहीं उठने देतीं
बेशुमार छ्ले जाने पर भी।

 

पांच 

मन की उधेड़बुन
देह की तपन
सहोदर हो गए जैसे
अकथ दुःख
पूरी देह का नमक
आंखों को सौंप
झरता रहा अनवरत
सुख उस तितली सा रहा
जिसको पाने के लिए
हथेली आगे की तो
फुर्र से उड़ गया
मुसाफ़िर जीवन की यात्राएं
अनवरत जारी रहीं
कुछ यात्राएं मंजिल पाने को नहीं होती
चलती जाती हैं चुपचाप
कि चलते जाने के क्रम में
चुप्पियां छूट रही हैं पीछे


मैं जानती हूं


मेरी बच्चियों
मैं जानती हूं
नहीं बताता कोई तुम्हें
सही गलत
प्रेम या उत्पीड़न के बारे में
सुनो...
अपने शरीर व मन पर सिर्फ
अपना ही अधिकार रखना
अपने संरक्षण के लिए
सहज और असहज स्पर्श की
पहचान रखना
प्रेम खूबसूरत अनुभूति है
पर
प्रेम करना या पाना
बिलकुल अलग है
दैहिक आवेग से
कभी आहत हो भी जाओ यदि
तो इसे बेबसी न समझना
निडर,संयमित जीवन जीना।
सजग रहना ताकि
सुरक्षित रह सको।
आकर्षण की अभिव्यक्ति
संयमित रखना
विवेकी बन निर्णय लेना
तुम्हारी मर्यादा ही
मर्यादित रखेगी सबको।
बातें साझा करना जरूर
झिझक न पाल लेना।
सही गलत की कोई परिभाषा  नहीं,
परिस्थितियां ही सहायक हैं
इन्हें पहचानने में
तुम भी पहचानना ।