Tuesday, November 7, 2023

मसूरी में बना था उत्तर भारत का पहला सिनेमाघर

 

किसी शहर की बनावट को जानने के लिए वहां  की गलियां और चौराहों से गुजरना जरूरी है। लेकिन समय की दौड़ में यदि वे गलियां और चौरस्ते गायब हो गए हो तो क्या किया जाये। देहरादून के चौरस्ते तो पिक्चर हॉलों से गुजरते थे, वहीं उस दौर का युवा धड‌कता था। लेकिन पुरानी इमारतों को मॉल में बदल दिये जाने वाले इस दौर में वह देहरादून अपनी  शक्ल  बदल चुका है। हमारे  प्रिय  लेखक और देहरादून को हर क्षण अपने भीतर जिंदा रखने वाले शख्स कथाकार  सूरज प्र्काश की  कलम का शुक्रिया कि वह उस देहरादून  का चित्र दिखा पाने में सक्षम है जो आज विलुप्त हो चुका है। आइये  पढ‌ते  हैं, देहरादू के सिनेमा  हॉल पर लिखा उनका संस्मरण । 
विगौ


बचपन का बाइस्कोप

सूरज प्रकाश



याद आता है कि बचपन में और किशोरावस्था में हमने देहरादून के सिनेमाघरों में खटमलों से घमासान करते हुए कितनी फ़िल्में देखी झेली हैं। कितना रोमांचकारी अनुभव होता था तब फिल्म देखना। सिर्फ हम बच्चों के लिए ही नहीं, परिवार के सभी सदस्यों के लिए, अकेले रहने वाले नौकरीपेशा लोगों के लिए और हर उम्र के लोगों के घर से बाहर निकल कर मनोरंजन की तलाश करने वाले लोगों के लिए सिनेमा हॉल तब बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। फिल्म देखना किसी उत्सव से कम नहीं होता था। अगर परिवार के साथ या बाहर से आये मेहमानों के साथ रविवार या छुट्टी के दिन फिल्म देखने का प्रोग्राम बनता तो बाकायदा घर में उत्सव का माहौल बन जाता। एक या दो दिन पहले से किसी को भेज कर फर्स्ट क्लास या बाल्कनी के टिकट मंगवाये जाते, खूब तैयार हो कर और पूरे मनोयोग के साथ फिल्म देखने के लिए घर से निकलते। छुट्टी के दिन या रविवार के दिन अचानक फिल्म देखने का प्रोगाम बन जाने से या तो हाउस फुल का बोर्ड देख कर या तो निराश होना पड़ता या ब्लैक में टिकट खरीदने पड़ते। 
सन 70 से 80 के दशक तक देहरादून शहर में ये सिनेमाघर थे। जैसे भी थे, हमारे जीवन के जरूरी अंग थे।
1. लक्ष्मी टॉकीज - गाँधी रोड,  2. फिल्मिस्तान टॉकीज - पुरानी सब्जी मंडी, मोती बाजार, 3. दिग्विजय सिनेमा – घंटाघर, 4. कैपरी सिनेमा - चकराता रोड, 5. नटराज सिनेमा - चकराता रोड, 6. प्रभात टॉकीज - चकराता रोड, 7. कृष्णा पैलेस सिनेमा - चकराता रोड, 8. न्यू एम्पायर सिनेमा - राज पुर रोड, 9 . ओरिएंट सिनेमा – एस्ले हॉल, 10. छाया दीप सिनेमा - राज पुर रोड, 11. पायल सिनेमा - राज पुर रोड, 12.  ओडियन सिनेमा - राज पुर रोड, 13. विक्ट्री सिनेमा – क्लेमेंटटाउन, 14. गैरीजन हॉल सिनेमा - मॉल रोड, गढ़ी कैंट, 15. न्यू राज कमल सिनेमा- गढ़ी कैंट, 16. खेत्रपाल प्रेक्षागृह - इंडियन मिलिट्री अकादमी (आईएमए)।, 17. कनक सिनेमा - परेड ग्राउंड के समीप। 

मसूरी में बना था उत्तर भारत का पहला सिनेमाघर। 1860 से 1868 के बीच माल रोड पर मसूरी बाजार (जो कि अब लाइब्रेरी बाजार है) के पास इलीसमेयर हाउस में नाटकों का मंचन शुरू किया गया। ये सिलसिला 1935 तक चला, इसी बरस से यहां बाइस्कोप दिखाया जाने लगा। बाद में फिर यही इलीसमेयर हाउस मैजेस्टिक सिनेमा हॉल बना।
इनके अलावा उन दिनों उत्तर प्रदेश के सूचना विभाग की ओर से ऐसी खुली जगह पर, जहां तीन चार सौ आदमी आराम से जमीन पर बैठ सकें, फोल्डिंग स्क्रीन लगा कर फिल्में दिखाने का प्रचलन था। फिल्म से पहले प्रचार पसार के लिए डॉक्यूमेंट्री फिल्में दिखायी जातीं और उसके बाद फिल्म शुरू होती। तब हर पंद्रह बीस मिनट बाद जब प्रोजेक्टर पर रील बदली जाती तो वह पांच सात मिनट का अंतराल भी खराब लगता। फिल्में आम तौर पर ब्लैक एंड व्हाइट होतीं। पता नहीं हम बच्चों को कैसे खबर मिल जाती कि फलां जगह पर आज फिल्म दिखायी जा रही है, हम सब पहुंच जाते। फिल्म कितनी समझ में आयी, इससे कोई मतलब नहीं होता था, देखना महत्वपूर्ण होता था।
       दिगविजय टाकीज पहले प्रकाश टाकीज़ हुआ करता था। यह किसी गुप्ता परिवार का था। मालिक अय्याश थे। सिनेमा का दिवाला पिट गया। फिर इसे.जुब्बल के राजा.ने खरीद लिया। रिनोवेट किया और इसका नाम बदलकर दिगविजय टाकीज़.हो गया।
 नटराज का नाम पहले चीनिया हुआ करता था और उससे पहले हाउसफुल और उससे भी पहले हॉलीवुड। यूनिवर्सल पेट्रोल पंप के बगल स्थित न्यू एम्पायर सिनेमा के प्रथम तल के लकड़ी के फर्श पर देहरादून शहर के समृद्ध व्यक्ति व उनके परिवार स्केटिंग का आनंद लेते थे, इस विशालकाय हॉल को "रिंक" के नाम से भी जाना जाता था। न्यू एंपायर में सबसे अधिक सीटें थीं और वहां पर बाल्कनी के अलावा फैमिली केबिन भी बने हुए थे। वहां सबसे ज्यादा सीटें होने के कारण कभी भी टिकट मिल जाया करती थीं। 

कैप्री व ओडियन सिनेमाघरों में केवल नवीनतम अंग्रेजी फिल्में  ही प्रदर्शित होती थीं, बाद में प्रभात टॉकीज में भी सुबह के शो में अंग्रेजी फिल्में दिखाने का चलन आरम्भ हुआ जिसे कुछ समय अन्य सिनेमाघरों ने भी अपनाया।
इनमें से फिल्मिस्तान में परिवारों की महिलाएं सिनेमा देखने कम जाती थीं क्योंकि वहाँ पर बी ग्रेड की मार धाड़ वाली फिल्में और दारा सिंह टाइप की फ़िल्में ही ज्यादा लगती थी और थिएटर भी बहुत अच्छा नहीं था। वैसे तो सारे थिएटर ही अच्छे नहीं थे लेकिन जो थे, उन्हीं में गुज़ारा करना पड़ता था। महिलाओं के लिए और सपरिवार फिल्में देखने के लिए ओरिएंट सबसे अधिक अच्छा माना जाता था। एक तो लोकेशन के कारण और दूसरे अच्छी फिल्मों के कारण। 
आज इनमें से अधिकांश सिनेमा हॉल बंद हो चुके हैं और उनकी जगह मल्टीप्लेक्स खुल गये हैं जहां मल्टी स्क्रीन होते हैं या पूरे शहर में जगह जगह पर उग आये नये मॉल्स में मल्टी स्क्रीन नयी पीढ़ी के सिनेमा देखने के नये ठिकाने हैं। लेकिन तब के सिंगल स्क्रीन सिनेमा घर हमारे जीवन की और तब के अबोध सपनों की जरूरी जगहें हुआ करती थीं। याद आता है कि ये मिलने जुलने के सबसे महफूज ठिकाने होते थे। कई परिवारों के लड़के लड़कियों के रिश्ते तय करने के लिए परिवारों की पहली मुलाकात के लिए सिनेमा हॉल ही पसंद करते थे। परिवारों के लिए रविवार के दोपहर के शो सबसे मुफीद माने जाते थे।
आइएमए में खेत्रपाल थियेटर में केवल सेना के अफसरों और उनके परिवारों के लिए ही सिनेमा प्रदर्शित की जाती थी। वहां गैर सैनिकों का प्रवेश वर्जित था।
वक्त बदला, नयी पीढ़ी आयी, उसकी पसंद बदली। कभी शहर की शान माने जाने वाले लक्ष्मी टॉकीज, फिल्मिस्तान टॉकीज, कैप्री सिनेमा, ओडियन सिनेमा शॉपिंग काम्प्लेक्स में बदल दिए गए।  कनक, कृष्णा पैलेस और दिग्विजय सिनेमा भी अब फिल्में नहीं दिखाते। कुछ पुराने सिनेमा हॉल आज भी मौजूद हैं लेकिन ज्यादातर का वजूद ख़त्म हो चुका है।
चकराता रोड पर वर्ष 1947 में प्रभात सिनेमा की शुरुआत टीसी नागलिया ने की थी। उनके निधन के बाद उनके पुत्र दीपक नागलिया ने वर्षों तक इसका संचालन किया। 1977 में इसकी मरम्मत की गयी, जिसके बाद यहां सीटों की संख्या 500 से बढ़ाकर 1000 की गयी। साथ ही दीपक समय-समय पर आने वाली लेटेस्ट टेक्नोलॉजी को भी अपनाते रहे, जिससे दर्शकों को फिल्म देखने में आनंद आए। 
1948 में इस सिनेमाघर में पहली फिल्म बारह दिन दिखाई गयी थी जबकि फिल्म बागी-3 दर्शकों को आखिरी बार मार्च 2020 में दिखाई गयी। कभी हर दिन हॉल में चार शो दिखाए जाते थे। प्रभात सिनेमा हॉल में कुल 105120 शो दिखाए गए।
समय के साथ थिएटरों की साज सज्जा, सुविधाओं और रूप रंग में आए बदलावों और मल्टीप्लेक्स के बढ़ते चलन के साथ न केवल प्रभात से, बल्कि सभी सिंगल स्क्रीन और दशकों पुराने सिनेमा हॉलों से दर्शक दूर होते चले गए। हालांकि प्रभात थियेटर के मालिक नागलिया परिवार के सदस्य वहां पर अन्य कमर्शियल गतिविधियां शुरू करना चाहते थे लेकिन सरकार की तरफ से अनुमति नहीं मिली अंत: उन्हें ये सिनेमा हॉल बंद करने का फैसला लेना पड़ा।

बताते हैं कि नागलिया जी के कपूर परिवार से अच्छे रिश्ते थे। कपूर खानदान की फिल्में अनिवार्य रूप से वहीं रिलीज होती थीं। नागलिया परिवार ऋषि कपूर, रणधीर कपूर, करिश्मा कपूर और करीना कपूर के लोकल गार्जियन भी रहे। पहली बार ऋषि कपूर की फिल्म बॉबी यहां 25 हफ्ते तक चली थी। 
पहले इसी बरस 30 मार्च को ऋषि कपूर की इसी सुपरहिट फिल्म बॉबी के प्रदर्शन के साथ हॉल को बंद करने की योजना थी। ये अंतिम भव्य शो होता लेकिन अब बिना फिल्म चले ही प्रभात टॉकीज बंद कर दिया गया।
72 बरसों तक देहरादून की तीन पीढ़ियों को बेहतरीन सिनेमा का एहसास कराने वाला यह हॉल अब अतीत की बात हो गयी है। हॉल के संचालकों ने इस इमारत की जगह काम्प्लेक्स बनाने का निर्णय लिया है। दीपक नागलिया के बेटे तुषार नागलिया बताते हैं कि उन्होंने देहरादून में ओपन एयर सिनेमा की शुरुआत की है। दून स्कूल से पढ़े तुषार ने ओपन एयर थिएटर कॉन्सेप्ट लॉन्च किया है।
चकराता रोड स्थित नटराज की शुरुआत वर्ष 1950 में हुई थी। इस सिनेमाघर के वर्तमान मालिक भीम मुंजाल बताते हैं कि इसका निर्माण नेपाल मूल के किसी रसूखदार ने कराया था। शुरुआती दिनों में इस सिनेमाघर का नाम नटराज नहीं था, बल्कि इसे हॉलीवुड सिनेमा के नाम से जाना जाता था। उस दौर में पूरे देहरादून में सिर्फ चार सिनेमाघर हुआ करते थे। इनमें नटराज भी शामिल था। सिनेमाघरों की संख्या कम होने और सुविधाएं अच्छी होने के चलते सबसे ज्यादा भीड़ नटराज में ही होती थी। इसके चलते यहां अधिकांश शो हाउसफुल रहते थे। देहरादून के सबसे पुराने सिनेमा हॉल होने के कारण इसके तत्कालीन मालिक ने इस सिनेमाघर का नाम ही हॉलीवुड सिनेमा से बदलकर हाउसफुल रख दिया। इस सिनेमाघर के निर्माणकर्ता ने कुछ समय बाद इसे उद्योगपति दर्शनलाल डावर को बेच दिया था। वर्ष 1980 में उद्योगपति डावर से यह सिनेमाघर वर्तमान मालिक भीम मुंजाल के पिता चमनलाल मुंजाल ने खरीद लिया। उन्होंने ही इस सिनेमाघर का नाम नटराज रखा। 
उन्हीं दिनों फिल्म डिस्ट्रीब्यूटिंग के लिए नया नियम बना दिया गया। जिसके तहत नई फिल्म उन्हीं सिनेमाघरों को दी जानी थी, जिनमें कम से कम 800 व्यक्तियों के बैठने की क्षमता हो। उस वक्त तक नटराज की क्षमता 500 सीट की थी। ऐसे में उन्होंने हॉल को 908 सीट की क्षमता का किया। पसंदीदा सिनेमाघरों में शुमार ‘नटराज’ को अब आधुनिक समय के हिसाब से नए कलेवर में तैयार किया गया है। लॉक डाउन में बंद होने के करीब एक वर्ष बाद अभी हाल ही में यह सिनेमाघर दोबारा दर्शकों के लिए खुला। 
मुझे याद आता है मैंने पहली फ़िल्म 1961 में दिग्विजय ने संपूर्ण रामायण देखी थी। उस समय टिकट 50 आठ आने का था। बाद में बहुत लंबे अरसे तक सभी थिएटरों में आगे की क्लास में टिकट एक रुपया 10 पैसे, फर्स्ट क्लास के टिकट ₹2.25 और बाल्कनी के टिकट ₹3.50 हुआ करते थे। फर्स्ट क्लास में विद्यार्थियों को आइडेंटिटी कार्ड पर 20% की छूट मिल जाया करती थी और ये आइडेंटिटी कार्ड इंटरवल में वापिस मिलते थे। परिवार वाले या अकेली महिलाएं बाल्कनी या फर्स्ट क्लास में ही फिल्म देखते थे।
तब हम गाँधी स्कूल में पढ़ते थे और फर्स्ट डे फर्स्ट शो का शौक बड़ी कक्षाओं के विद्यार्थियों को सिनेमा हॉल की तरफ खींच ले जाया करता था लेकिन हमारे प्रिंसिपल चंद्र किरण गुप्ता भी कम नहीं थे। वे सभी कक्षाओं के हाजिरी रजिस्टर चेक करते कि शुक्रवार को कौन कौन सी क्लास में कौन कौन से विद्यार्थी नहीं हैं। तब वे वाइस प्रिन्सिपल सिंघल को साथ ले कर टार्च ले कर नयी फिल्म वाले एक एक पिक्चर हॉल में विद्यार्थियों को ढूंढने निकल जाते और पकड़े जाने पर उन्हें स्कूल से निकाल दिया जाता। अगले दिन प्रार्थना सभा में उनकी पेशी होती, और  ₹10 जुर्माना देने पर ही दोबारा एडमिशन होता। ये उनकी या स्कूल की कमाई का एक अच्छा जरिया था।
मैंने दूसरी फ़िल्म लक्ष्मी थिएटर में 1963 में जय मुखर्जी और आशा पारेख की फिल्म फिर वही दिल लाया हूँ देखी थी। इस फिल्म का नशा कई दिन तक नहीं उतरा था। लक्ष्मी थिएटर के पास ही दिल्ली जाने वाली बसों का अड्डा हुआ करता था और तब देहरादून से दिल्ली जाने वाली बस का किराया छह रुपये चार आने होता था।
उस उम्र में फ़िल्म देखना एक बहुत बड़ा शगल हुआ करता था। हमें जब पता चलता कि सिनेमा हॉल में बाहर लगी शीशे की विंडोज़ में आने वाली फ़िल्म के फोटो लग गए हैं तो हम सब दोस्त बाकायदा फोटो देखने के लिए प्रोग्राम बना कर जाते और बहुत हसरत से उन पुरानी और कई शहरों की यात्रा करके आयी फोटो देखा करते थे। फ़िल्म देखना एक बहुत रोमांचक अनुभव होता था। 
सबसे पहले तो कई कई दिन इसी बात में बीत जाते थे कि फिल्म देखने का जुगाड़ कैसे बिठाया जाये। उन दिनों ढेरों ढेर फिल्मी पत्रिकाएं आती थीं जिनमें फिल्म की कहानी और गीतों के बोल हम पहले से पढ़ चुके होते थे। ये रंगीन फिल्मी पत्रिकाएं हमारे लिए फिल्मों से पहला परिचय कराती थीं। 
पहला शो बारह बजे का होता था और उसमें लड़कों और युवा लोगों के ही हुजूम नजर आते थे। लगभग 30% टिकट तो पहले ही ब्लैकियों के पास पहुँच जाते थे और ₹1.10 की टिकट मिलने के लिए खिड़की में एक हाथ घुसाने भर की जगह अपना अपना हाथ घुसेड़ने के लिए जो मारामारी मचती, शरीफ आदमी की तो टिकट लेने की हिम्मत ही नहीं होती थी। उस क्लास में सीटों के नंबर नहीं होते थे। टिकट मिल जाना मतलब आधा किल्ला फतह। सिर्फ प्रभात टॉकीज में ही एक रुपये दस पैसे की टिकट की खिड़की के आगे रेलिंग थी। एक बार रेलिंग में घुस गये तो टिकट मिलने की उम्मीद रहती थी। महिलाओं के लिए अलग लाइन होती। इस क्लास के टिकटों की एडवांस बुकिंग नहीं होती थी1 
हम बच्चे जब फ़िल्म देखकर आते तो कई कई दिनों तक उन दोस्तों को फिल्मों की कहानी सुनाते रहते जिन्होंने फ़िल्म नहीं देखी होती थी और हम अगले कई दिनों तक फ़िल्म के नशे से बाहर नहीं आए होते थे।
फिल्म देखने के लिए घर से 3 घंटे के लिए निकलने के लिए हमें दो बड़े बड़े संकट पार करने होते थे। फिल्म देखने से लिए सबसे पहले हमें ₹1.10 का इंतजाम करना सबसे मुश्किल होता था। पैसे आम तौर पर हमारे पास नहीं होते थे और दूसरे घर से फ़िल्म देखने जाने की अनुमति नहीं मिला करती थी। छुप कर फ़िल्म देखनी होती थी। पढ़ाई के बहाने या किसी दोस्त के घर जाने के बहाने या घर का कोई काम करने के बहाने। अगर ये दोनों संकट पार हो जायें तो फिल्म देखना एक लॉटरी लगने जैसा होता था।
दूसरा संकट होता था कि अगर घर से छुप कर फ़िल्म देख रहे हैं तो 3 घंटे के लिए घर से बाहर निकलने का बहाना कैसे लगाया जाए। कोई भी फ़िल्म तब 3 घंटे से कम की नहीं होती थी। हर सिनेमा हॉल में चार शो होते थे - 12:00 बजे 3:00 बजे 6:00 बजे और 9:00 बजे। परिवार के लोग या महिलाएं आमतौर पर दोपहर का शो देखना पसंद करती थीं। उसके लिए टिकट पहले से मंगा लिए जाते थे।
हम बच्चों ने 3 घंटे गायब होने के दो तरीके ढूंढ लिए थे। पहले ये तरीका था कि इंटरवल में भागकर घर आकर चेहरा दिखाना और फिर दुबारा गायब हो जाना और दूसरा तरीका हमारा नायाब तरीका था - इंटरवल से पहले एक दोस्त फ़िल्म देखता था और इंटरवल के बाद दूसरा दोस्त उसी टिकट पर फ़िल्म देखता। ये रिले रेस जैसा होता था। दूसरा दोस्त अगले दिन इंटरवल से पहले फ़िल्म देखता था। यही क्रम बाद में बदल कर दोहराया जाता। हालांकि इस तरीके से फिल्म देखने का मजा किरकिरा हो जाता लेकिन क्या करते। इंटरवल के बाद की फिल्म पहले फ़िल्म देखने पर सिर पैर समझ न आता। लेकिन छुप कर फ़िल्म देखी जाए इसके लिए हम हर तरह के जुगाड़ लगाते रहते। 
देखी गयी फ़िल्म के नशे से कई कई दिन तक हम बाहर नहीं आ पाते थे। उन दिनों घंटाघर के पास एक दुकान हुआ करती थी - पंजाब रेडियो। उसका एक कर्मचारी टांगें में बैठकर पूरे शहर में लाउड स्पीकर पर फ़िल्म के बारे में प्रचार करता। वह अकेला शख्स शहर में होने वाली हर ईवेंट का प्रचार करता। फिल्म हो, पैवेलियन ग्राउंड में फुटबाल मैच हो, या नामी ईनामी या नूरा कुश्तियां हों, एनाउंसमेंट वही करता था। वह टांगे में बैठा पूरे शहर का चक्कर लगाता और पिक्चर के पैम्पलेट हवा में उछालता जिन्हें सब बच्चे लपकते। उन पैम्पलेट को लूटना भी अपने आप में एक शगल हुआ करता था। वह आदमी लगभग अनपढ़ था लेकिन उसकी आवाज बहुत मीठी थी और उसके शब्द फिल्म और सिनेमा घर के नाम के अलावा लगभग वही रहा करते थे। वह कहता - फिल्मिस्तान के सुनहरे पर पर्दे पर देखिए हँसी मजाक, मार धाड़ और नाच गानों से भरपूर दारा सिंह की फ़िल्म जंगी लुटेरा या इसी तरह की और कोई फ़िल्म। सुनहरी परदे पर उसके हमेशा के शब्द होते।
तब शहर भर में फिल्मों के पोस्टर लगाने का, चिपकाने का एक नायाब तरीका हुआ करता था। जब फ़िल्म के पोस्टर चिपकाए जाते तो चिपकाते समय पोस्टर को फाड़कर चिपकाया जाता ताकि कोई उन्हें उतार कर न ले जाये। शहर में पोस्टर लगने का मतलब ही फ़िल्म के आने की पूर्व घोषणा हुआ करती थी।
अब तो याद भी नहीं आता कि तब कितनी फ़िल्में कितने थिएटरों में कितने तरीकों से देखीं। लेकिन उस वक्त हमें मार धाड़ और हँसी मजाक की फ़िल्में देखना ज्यादा अच्छा लगता था चाहे जौहर महमूद इन गोवा हो या इसी तरह की और कोई फ़िल्म। हमारे बड़े भाई को हॉरर फ़िल्में या जासूसी फ़िल्में देखने का शौक था। हमारा कोई ऐसा शौक नहीं था। 

हमारे घर के सामने रहने वाले नंदू के पिता का ढाबा था जो मंगलवार को बंद रहता था। नंदू थोड़े थोड़़े करके रोजाना कुछ पैसे चुराता और मंगलवार को बिला नागा चार फिल्मों के चार शो देखता। वह सुबह ग्यारह बजे सज धज कर निकल जाता और को आखिरी शो देख कर ही लौटता। बस फिल्म होनी चाहिये। कोई भी हो। 
एक और बात याद आती है कि उस समय चौराहों की दुकानों के ऊपर फिल्मों के बड़े बड़े होर्डिग लगाए जाते थे और इसके बदले में दुकानदार को फ़िल्म के आखिरी दिन दो टिकट आधे कीमत पर दिए जाते थे। हमारे मौसा जी की चाय की दुकान दिलाराम बाजार में थी और उनके दुकान के ऊपर लक्ष्मी टॉकीज का होर्डिग लगाया जाता था। जब फ़िल्म का आखिरी दिन होता तो नयी फिल्म का होर्डिग लगाते समय उन्हें दो पास मिलते। मौसी का लड़का अक्सर हमारे घर आता और बताता कि नाइट शो की दो टिकट हैं। उसके साथ किसी न किसी भाई को आधी कीमत पर फ़िल्म देखने के लिए अक्सर घर से अनुमति मिल जाती। फ़िल्म बेशक घटिया होती लेकिन मुख्य मकसद तो फ़िल्म देखना होता था, घटिया या अच्छे होने का प्रमाणपत्र देना नहीं।
अंग्रेजी फ़िल्म देखना 1968 में शुरू हुआ। हमारा क्लास फैलो था शशि मोहन पंछी जिसने हमें अंग्रेजी फिल्मों और इस तरह के तौर तरीकों की तरफ आकर्षित किया। बेशक अंग्रेजी हमें बिल्कुल समझ में नहीं आती थी, वह अंग्रेजी अब भी समझ में नहीं आती लेकिन फिल्म देखने का रोमांच बहुत बड़ा हुआ करता था। 1968 में हाई स्कूल में परीक्षाओं के दिनों में जेम्स बॉन्ड की फ़िल्म गोल्डफिंगर लगी थी। गणित के पेपर से एक दिन पहले सामूहिक पढ़ाई के नाम पर ये फिल्म देखी गयी थी। हम रोमांच से भर गये थे। अभी 2 दिन ही बीते थे और हम उसके नशे से बाहर ही नहीं आ पाए थे। आखिरी पेपर ड्राइंग का था और शशि ने बताया कि फ़िल्म में कुछ और दृश्य जोड़े गए हैं इसलिए फ़िल्म उतरने से पहले एक बार दुबारा देखनी चाहिए और हमने ड्राइंग के पेपर से पहले गोल्डफिंगर दुबारा देखी थी। बाद में तो अंग्रेजी फिल्में देखने का सिलसिला बनता चला गया।
अंग्रेजी फिल्में अक्सर एडल्ट होतीं और 18 बरस की उम्र से कम के लड़कों को टिकट नहीं मिलते थे। शायद 1970 के आसपास की बात है। 18 का होते ही एडल्ट फिल्म देखने का मन हुआ। दोस्तों के साथ दोपहर के शो में ब्लो हाट ब्लो कोल्ड देखी। ओडियन से बाहर निकले ही थे कि पिता के एक मित्र ने देख लिया। तय था कि वे हमसे पहले पहुंच कर पिता से शिकायत करते। वही हुआ। घर पहुंचे तो वे इंतजार कर रहे थे। पिता जी ने देखते ही पूछा – कहां से आ रहे हो। बताया – फिल्म देख कर। अगला सवाल था – कौन सी? बता दिया – ओडियन में ब्लो हॉट ब्लो कोल्ड लगी है। वही देखी। पिता जी ने अपने मित्र की तरफ देखा और कंधे उचकाये – बेटा सच बोल रहा है। अब किस बात पर डांटूं।
परिवार के लोग आमतौर पर फर्स्ट क्लास में ₹2.25 का टिकट लेकर फ़िल्म देखते थे। हम लड़कों के लिए तो एक रुपया दस पैसे जुटाना ही मुश्किल होता था। पिक्चर का इंटरवल कितनी देर चलेगा यह इस बात पर निर्भर करता था कि जब तक कैंटीन के सारे चाय और समोसे नहीं बिक गए हैं पिक्चर शुरू नहीं की जाएगी। आमतौर पर पिछले शो की बची हुई चाय थोड़ी सी चीनी डालकर गरम करके दूसरे शो में पिलायी जाती। समोसे कभी ताजे होते कभी पिछले शो के बचे हुए भी।
फर्स्ट डे फर्स्ट शो में और नाइट शो में दर्शकों की क्लास आमतौर पर अलग हुआ करती थी। दिन भर के थके हुए लोग रात को फ़िल्म देखना पसंद करते थे। कॉलेज के लड़कों की पसंद फर्स्ट शो हुआ करती थी। 
कई बार ऐसा भी होता कि कोई फ़िल्म घटी दरों पर दिखाई जा रही होती यानी टिकट साठ पैसे। हम इतने पैसे भी न जुटा पाते और कई बार ऐसा भी होता कि फ़िल्म उतर जाती और हम फिल्म देखने से रह जाते। 
तब खटमल सभी सिनेमा हॉलों में होते थे। आगे की सीटों पर रैक्सीन नहीं होती थी लेकिन फर्स्ट क्लास में सीटें थोड़ी आरामदायक और रेक्सीन वाली होती थीं। तब बाल्कनी में फ़िल्म देखना तो शायद कभी नसीब नहीं हुआ होगा। जब कुछ पैसे होने लगे तो फर्स्ट क्लास में टिकट लेना आसान हो जाता था क्योंकि ₹2.25 की टिकट एक रुपये अस्सी पैसे में मिल जाती थी और ₹1.10 की जनता क्लास की तुलना में पीछे फर्स्ट क्लास में बैठकर फ़िल्म देखना किसी अय्याशी से कम नहीं होता था।
मुझे 1971 के आसपास की एक घटना याद आती है। नटराज में तब दस्तक फिल्म लगी थी। दोपहर का शो था। तब एक बात हुआ करती थी कि अगर इंटरवल से पहले लाइट चली गयी है और बहुत देर तक लाइट वापस ना आयी तो उसी टिकट पर अगले दिन फिल्म देखने का मौका मिल जाता था लेकिन इंटरवल के बाद अगर लाइट गयी है तो उसके लिए कोई रिफंड नहीं दिया जाता था। उन दिनों बड़ी मंडी के पास एक डॉक्टर हुआ करता था जिसकी चिढ़ थी - हो गया। लोग उसके क्लिनिक के आगे से आते जाते उसे चिढ़ाते - हो गया। बदले में वे सारे काम छोड़ कर अपने क्लिनिक से बाहर निकलकर माँ बहन की गालियां दिया करते। तब तक कोई और आदमी हो गया की पुकार करके आगे निकल जाता और गलियों का सिलसिला दोबारा शुरू हो जाता। वे मरीज को इंजेक्शन भी लगा रहे होते तो उसे रोक कर बाहर आ कर गालियां जरूर देते। 
तो बात चल रही थी नटराज में दस्तक देखने की। अचानक लाइट चली गयी। तब अंधेरे में किसी ने यूं ही ज़ोर से कह दिया - हो गया। तब उसे मालूम नहीं था कि डॉक्टर हो गया भी थिएटर में मौजूद हैं। डॉक्टर साहब ने गालियां देनी शुरू कर दीं - तेरी माँ का हो गया, तेरी बहन का हो गया, कोई और हो तो उसे भी ले आ, उसका भी कर दूं। अब तो सबको पता चल गया कि डॉक्टर साहब सिनेमा हॉल में हैं तो दोनों तरफ से धुआंधार मुकाबला शुरू हो गया और गालियों की जो बरसात शुरू हुई,  लोग भूल गए कि इस समय लाइट गयी हुई है और पिक्चर रुकी हुई है। अब वहां पर दूसरी ही जीवंत फ़िल्म चलने लगी थी।
फिल्म देखने से जुड़़ा एक और रोचक लेकिन अप्रिय सा किस्सा याद आ रहा है उस वक्त का। हम बचपन में जहां पर मच्छी बाजार में रहते थे, पास में ही खटीकों और कसाइयों की मांस मछली बेचने की कई दुकानें थीं। वहीं पर गफूरा नाम का आदमी था जिसकी गंदी निगाह जवान होते किशोरों पर होती। सबको पता था कि उसकी नीयत क्या है। दुकान बंद करने के बाद वह रात को सैर के लिए निकलता और किसी न किसी लड़के को फुसला कर दूध जलेबी खिलाने ले जाता। हम सब बच्चे जानते थे कि दूध जलेबी का मजा लेने के बाद बहाने से खिसकना कैसे है। वह तब नये लड़के की तलाश में रहता। उसका अगला कदम होता फिल्म दिखाना। वह लड़के को ही पैसे देता कि फर्स्ट क्लास के दो टिकट ले आये। वह खुद हॉल में अपनी सीट पर बाद में पहुंचता। 
सभी लड़कों को ये पता था कि वह फिल्म क्यों दिखा रहा है और अंधेरे में क्या करेगा और खुद उन्हें क्या करना है। सीनियर लड़के सब बता चुके होते। जिस भी लड़के को वह फिल्म दिखाने ले जाता, वह लड़का किसी न किसी बहाने से बाहर आता, अपनी टिकट उसी दाम पर या कम दाम पर किसी को बेचता और घर आ जाता। बाद में अंधेरे में उस लड़के की जगह कोई और आदमी पहुंचता। 
आप कल्पना कर सकते हैं कि अंधेरे में उसके बाद क्या होता होगा।
बाद में पता चला था कि गफूरे ने कई बार दूध जलेबी का लालच दे कर नंगी घूमने वाली एक पागल औरत के साथ दुष्कर्म किया था और बाद में वह पगली औरत गर्भवती हो गयी थी।

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नोट: सभी तस्वीरें इंटरनेट से साभार्। 

Sunday, November 5, 2023

एक अलग आस्वाद और परिवेश की कहानियाँ अर्थात सौरी की कहानियां

कथाकार नवीन कुमार नैथानी का कहानी संग्रह सौरी की कहानियां वर्ष 2009 में प्रकाशित हुआ था. उसके बाद की कहानियां अभी तक किताब की शक्ल में नहीं आईं, हालांकि ‘हतवाक, होराइजन, धन्यवाद ज्ञापन, लैंड्सलाइड आदि कई महत्वपूर्ण कहानियां प्रकाशित हुईं और लगातार चर्चा में रहीं. लेकिन दिलचस्प है कि उनके उस पहले संग्रह की कहानियों का आस्वाद अभी भी उतना ही ताजा लगता है. इसकी मूल वजह क्या हो सकती है ? इस सवाल पर खुद से उलझने की जहमत उठाये बगैर भी हम उन कहानियों पर लगातार लिखी जा रही आलोचनाओं के जरिये भी पहुंच सकते हैं. समीक्षा के क्षेत्र में अपनी टिप्पणियों की विश्वसनीयता से स्थापित अलोचक गीता दूबे ने हाल ही मैं सौरी की कहानियों का उत्खनन किया है. पढते हैं उनका आलेख और जानते हैं सौरी की कहानियां के एक अन्य पाठ को.
विगौ


 गीता दूबे                                                         

बहुधा विभिन्न भाषाओं में एक ही चीज के लिए अलग- अलग शब्दों का प्रयोग किया जाता है। ठीक उसी तरह एक ही शब्द विभिन्न भाषा परिवेश में अलग -अलग अर्थ में व्यवहृत होता है। उत्तर प्रदेश, बिहार आदि में सौरी शब्द का अर्थ सौर गृह या प्रसूति गृह होता है लेकिन एक अलग कालखंड या स्थान पर उस शब्द विशेष के मायने बदल जाते हैं। वरिष्ठ कथाकार नवीन कुमार नैथानी जब 'सौरी की कहानियाँ' लिखते हैं तो वे प्रसूति गृह से संदर्भित कथा नहीं कहते बल्कि उनकी कहानियों में प्रयुक्त 'सौरी' एक ऐसा स्वप्नलोक या फैंटेसी जगत है जहाँ मनुष्य की आकांक्षाओं को एक नया आकाश मिलता है। ये कहानियाँ आमतौर पर कहीं कही, लिखी या सुनी जानेवाली साधारण कहानियों से भिन्न हैं या फिर ऐसा भी कहा जा सकता है कि  साधारणता सी नजर आनेवाली ये कहानियाँ पाठकों को असाधारण लोक में ले जाती हैं। एक ऐसी दुनिया जो जानी -पहचानी होती हुई भी अपने अंदर जिन गोपन बिंदुओं या रहस्यों को छिपाए हुई थी, वे एक -एक कर हमारी दृष्टि के समक्ष उजागर होने लगते हैं और हम कुछ नया जानने के आश्चर्यमिश्रित आनंद से भर उठते हैं। एक ऐसा आनंद जिसमें दुखों की किरकिराहट भी है और आँसुओं का गीलापन भी, चाहनाओं की उड़ान भी है और अतृप्ति की कसक भी। उस दुनिया के लोगों में अपनी मंजिल को हासिल करने के लिए तिकड़मे या जोड़तोड करने का नहीं बल्कि बहुत कुछ कर गुजरने का साहस है। कथाकार द्वारा सृजित यह प्रदेश अर्थात सौरी वास्तविक है या काल्पनिक, इसका पता कहानी पाठ की यात्रा में तो नहीं लगता लेकिन पाठकों के मन में यह आकांक्षा अवश्य जन्म लेने लगती है कि काश ! वह भी इस अद्भुत प्रदेश का निवासी होता और वहाँ के परिवेश में व्याप्त अलौकिक आनंद के साथ ही अतृप्ति के कसक को भी महसूस कर पाता। कथाकार यह कहानी संग्रह सौरी के उन तमाम लोगों को समर्पित करता है जो संसार में हर जगह बिखरे हुए हैं। यह बात और है कि उनकी वह अद्भुत सौरी काल के प्रवाह में कहीं खो सी गई है। जिससे एक अर्थ यह भी ध्वनित होता है कि कभी ना कभी ऐसी जगह जरूर थी जहाँ लोग सुख नहीं आनंद के प्रवाह में सहजता से बहते थे लेकिन जिस तरह तमाम अच्छी जगहें नष्ट हो जाती हैं, उसी तरह यह सौरी भी बर्बाद हो जाती है और गुरु नानक के जीवन की उस प्रसिद्ध कथा की तरह वहाँ के अद्भुत मानवीय लोग जिनके अंतस में प्रेम की निर्झरिणी प्रवाहित होती रहती है, इधर -उधर बिखर गये ताकि अपने प्रेम और सद्भावना का प्रकाश सब तक समान रूप से पहुँचा सके, दुनिया को और भी बेहतर और सुंदर बना सकें।

सौरी की यह विशेषता है कि यहाँ रहने वाले लोग अद्भुत हैं और बाहरी दुनिया से जो कोई व्यक्ति यहाँ प्रवेश करता है, उसकी समस्त पूर्व स्मृतियाँ लोप हो जाती हैं। संग्रह की पहली कहानी 'पारस' सौरी की उस खासियत या कमी को उद्घाटित करती है कि वहाँ किसी कन्या संतान का जन्म नहीं होता, मात्र लड़के ही पैदा होते हैं। आज अखबारों में इस बात पर लगातार चिंता प्रकट की जाती है कि लिंगानुपात गड़बड़ हो गया है, लड़कियों को मारते- मारते देश के बहुत से प्रदेश इस स्थिति में पहुँच गए हैं कि वहाँ लड़कों के मुकाबले लड़कियाँ बहुत कम संख्या में बची हैं और अब स्थिति यह है कि उन शहरों में लड़कों की शादी के लिए लड़कियाँ बाहर से खरीदकर लाई जाती हैं। सौरी के लोगों की भी बड़ी चिंता थी कि पिछले कई वर्षों से यहाँ कोई बारात नहीं आई है क्योंकि किसी लड़की का जन्म नहीं हुआ है और आस- पास के गाँव के लोगों ने यह तय किया है कि जब तक सौरी में कोई लड़की पैदा नहीं होती कोई अपनी लड़की का ब्याह उस गाँव के लड़कों से नहीं करेगा। यह बड़े- बुजुर्ग लोगों के लिए सबसे बड़ी चिंता का विषय था। शायद इसीलिए खोजाराम पारस पत्थर की तलाश में जंगल की ओर चल पड़ता है क्योंकि एक तो उसे एक ही कान से सुनाई देता है और वह एक पाँव से लंगड़ाता भी है। ऐसे में पारस पत्थर मिलने पर ही वह अपने ब्याह के अरमान को पूरा कर पाएगा। हालांकि इस किस्से के कई संस्करण और प्रारूप मिलते हैं हर आदमी के पास इस किस्से की अपनी व्याख्या है। किसी दैवीय कथा या जादुई कहानी की तर्ज पर खोजाराम अपने पैरों में घोड़े की तरह लोहे की नाल बँधवाकर सोने की तलाश में निकल पड़ता है और वक्त के प्रवाह में खो जाता है, उसकी स्मृतियाँ भी लोगों के जेहन से मिटने लगती हैं लेकिन उसकी संगिनी सुनैना एक कन्या को जन्म देकर मानो सौरी के लोगों को शापमुक्त करती है। लोकप्रिय व्रत कथाएँ जिस तरह फल प्राप्ति के साथ समाप्त होती हैं, ठीक उसी तरह यह सुनैना द्वारा बेटी के जन्म के साथ समाप्त होती है लेकिन यह कथा इस मायने में भिन्न है कि इसमें पुत्र की कामना के बजाय कन्या की कामना की भी जाती है और वह पूरी भी होती है। ऊपरी तौर पर किसी सामाजिक समस्या के तार कहानी से जुड़ते से नहीं लगते लेकिन पुत्र संतान की चाह में कन्याओं को कोख में मारनेवाले लोगों की इस देश में कमी नहीं है और  उनके ऊपर अब भी यह शाप ज्यों का त्यों बना हुआ है। सुनैना की कन्या संतान का स्वागत सौरी में भले हुआ है लेकिन आम सौरगृहों में जन्म का सुयोग पाकर भी ये कन्याएँ घर परिवार की उपेक्षा झेलती हुई ही बड़ी होती हैं। सौरी की कथा से हमें सीखने की जरूरत है। खोजाराम सोने की तलाश में कहानियों की दुनिया में अब तक भटक रहे हैं या फिर यह भी कहा जा सकता है कि कन्या के जन्म के बाद उनकी खोज समाप्त हो जाती है। कुछ लोग इसी तरह सिर्फ किस्से -कहानियों में ही जीवित रहते हैं और एक उदाहरण के तौर पर लोगों के बीच उन्हें याद किया जाता है।

सौरी के लोगों की खासियत है कि सारी दुनिया में विचरने के बावजूद वे फिर- फिर सौरी में ही लौटते हैं। जो नहीं लौटता वह कहीं खो जाता है। बच जाती हैं तो बस उसकी यादें और कहानियाँ। यहाँ की कहानियाँ भी किसी फंतासी कथाओं से कम नहीं हैं। यहाँ कई ऐसी जगहें हैं जिन्हें देखने के लिए, उनकी तलाश में लोग भटकते रहते हैं। एक ऐसी ही जगह है, 'चोर घटड़ा' जहाँ पहुँचना आसान नहीं है लेकिन पहुँचकर लोग अक्सर अपनी तरकीबों से कमाई हुई पूँजी तमाम सावधानी के बावजूद गँवा बैठते हैं और सौरी के बाहर की स्मृतियों से मुक्त होकर पुनः निश्छल हो जाते हैं अर्थात सौरी में बसने वाले लोगों के लिए भोलापन जरूरी है। कपटी लोगों के लिए वहाँ कोई जगह नहीं है और फिर तो वह जगह स्वर्ग सरीखी ही होगी क्योंकि वहाँ कोई ईर्ष्या द्वेष या कपट आचरण नहीं होगा। चोर घटड़े तक भी उसी भोलेपन और विश्वास के साथ ही जाया जा सकता है। सैलानियों की तरह वहाँ पहुँचने वाले यात्री अपना सब कुछ गँवा बैठते हैं। पाली जैसे बुजुर्गों के पास उन लुटे हुए, गुमे हुए लोगों की, कलाधर वैद्य जैसे लोगों की कहानियाँ ही बची हैं। चोर घटड़े की तलाश में निकले पिता -पुत्र में से पुत्र तो उस जगह को ढूँढ लेता है लेकिन पिता अपनी दुनियादारी के बावजूद वहाँ तक नहीं पहुंच पाता। सौरी को केंद्र में रखकर कही -सुनी जानेवाली कहानियों में चोर घटड़ा बचा रहता है, भले ही वहाँ के लोग गुम हो जाएँ। ये किस्से ही लोक इतिहास रचते हैं जिमें बहुत सी अद्भुत अविस्मरणीय जगहें और उनकी कथा बची रह जाती है।

ऐसी ही एक कथा 'चाँद पत्थर' की भी है सौरी के दायरे में इसकी ढेरों कहानियाँ फैली हुई हैं और उन कहानियों के लोगों के पास अपने-अपने संस्करण हैं। हर कोई उसे अपने अंदाज में सुनाता है सौरी में आने वाले लोगों को सौरी के लोग यह सलाह देते हैं कि फुर्सत के वक्त जरा चा पत्थर तक घूम आइए, यानी चाँ पत्थर एक ऐसी जगह है जिस पर सौरी के लोगों को अभिमान है। अब  क्या यह चाँद पत्थर चोर घटड़े की तरह कोई वास्तविक स्थान है या बस पोल कल्पना या स्मृतियों का गह्वर ? इस चाँ पत्थर की कथा के साथ जुड़ी है वैद्य लीलाधर की कथा चोर घटड़ा वाली कहानी में वैद्य कलाधर थे जो भटकते हुए कहानियों की दुनिया में गुम हो जाते हैं और इस कथा में वैद्य लीलाधर हैं जो अपने समय के बेजोड़ वैद्य माने जाते थे और अपनी दवाइयाँ सौरी के आसपास फैले जंगलों से ढूँढ कर लाते  थे उनकी ख्याति सौरी के बाहर दूर-दूर तक फैली थी लेकिन वह मरीज को देखने भी सौरी के पास नहीं जाते थे शायद उन्हें भी अंदेशा रहा होगा कि अगर वह बाहर जाएँगे तो भटक जाएगे या दोबारा लौटकर नहीं पाएगे लेकिन कमल गोटा की कमला रानी की बीमारी ने उन्हें सौरी की सीमाओं को पार करने को विवश किया, यह बात और है कि वे कमल गोटा तक पहुँचे ही नहीं और कमला रानी उनकी प्रतीक्षा करते-करते हा कर खुद ही सौरी की ओर चल पड़ी लेकिन कमला रानी लोगों को नहीं मिली। शायद आपस में वे एक दूसरे से मिले। रात्रि के अंधकार में आभूषणों से लदी हुई कमला ही शायद सुस्ताने के लिए पत्थर पर बैठी हुई वैद्य जी को मिली या फिर उन्हें एक स्त्री की आवाज़ सुनाई दी और पत्थर पर आभूषणों की आभा दिखाई दी। दोनों एक दूसरे से मिल पाए या नहीं, यह कहानी तो बस हवा में तैरती रह गई लेकिन इस पत्थर पर बैठी हुई कमला या वायवीय स्त्री के आह्वान पर जब वह उस तक पहुँचने के लिए आगे बढ़े तो पत्थर पर चढ़ते ही फिसल कर नदी किनारे गिर पड़े। लोग ताप में पड़े, बर्राते हुए वैद्य जी को उठाकर गाँव ले गए लेकिन जरा सा ठीक होते ही वे जड़ी की तलाश में जंगल गए और फिर किसी को नहीं मिले। कमला और वैद्य जी दोनों ही गायब होकर मानो किसी जादुई लोक में पहुँच जाते हैं या लोककथाओं की तरह कमला अप्सरा की तरह स्वर्ग लोक में चली जाती है और वैद्य जी पत्थर में बदल जाते हैं। शायद इसलिए सौरी में जहाँ घरों की संख्या तीस से घटकर छ: पर गई थी, के बच्चे अंजुली में पानी भर -भर कर पत्थर पर डालते और कहते थे, वैद्य जी ठंडे हो जाओ अर्थात वह ताप मुक्त या शाप मुक्त हो जाएँ। ठीक उसी तरह जैसे राम कथा में अहिल्या पत्थर में बदल जाती है और फिर शापमुक्त होती है। ऐसा नहीं कि इस तरह की कहानियाँ हमारी स्मृतियों में नहीं है लेकिन हम उन कहानियों पर यकीन करना चाह कर भी कई बार नहीं कर पाते। यह बात और है कि ऐसे बहुत से लोग इस दुनिया में मिलेंगे जो इन पर यकीन करते हैं सौरी के लोगों के पास तो यकीन करने की कोई वजह ही नहीं थी। सौरी के लोग इसी तरह के विश्वास पर टिके हु लोग थे और उनका समय एक अद्भुत समय था। उनके वर्तमान भले ही अभावग्रस्त था लेकिन उनके पास अतीत की संपन्नता और समृद्धि की ढेरों कहानियाँ या स्मृतियाँ थीं जिनके साथ वह वर्तमान को खूबसूरत बना ही लेते थे। विस्मृति रोग से पीड़ित इस समय में यह स्मृति संपन्नता सचमुच आह्लादित करती है।

सौरी का हर किरदार अजूबा है जिसकी उपस्थिति सिर्फ वहीं हो सकती थी। यहीं मुँदरी बुढ़िया भी मिलती है जो उजाले से बचती फिरती है। रोशनी अर्थात कृत्रिम रोशनी से उसे परहेज हैं लेकिन चाँद की रोशनी से उसे कोई दुराव नहीं है। वह गोकुल मिस्त्री से अपने लिए एक अनोखा मकान बनवाती है जिसके कोने उसे आनेवाले लोगों से छिपने की जगह देते हैं। हालांकि वह मुसाफिरों का स्वागत करती है, उन्हें रात भर ठहरने की जगह भी देती है जो सौरी से कौड़सी तक जाते हुए उसके घर में पनाह लेते हैं लेकिन उसकी आवाज़ से ही लोगों का परिचय होता है या फिर उसके बारे में फैले किस्से -कहानियों से। सवाल यह है कि क्या असली जिंदगी में ऐसे किरदार होते हैं। इसका जवाब पाठकों को अपने अंदर या समाज के भीतर ढूँढने की आवश्यकता है। आज जब विमर्शों की धारा में एक और विमर्श अर्थात बुजुर्ग विमर्श भी जुड़ गया है और उनके जीवन की समस्याओं आदि पर बात होने लगी है, उस दौर में मुँदरी बुढ़िया किसी कल्पना लोक से उतरी हुई नहीं लगती। प्रेमचंद की बूढ़ी काकी को एक कोठरी में जगह मिलती है और भीष्म साहनी के शामनाथ अपनी बूढ़ी माँ को गैरजरूरी सामान की तरह एक कोठरी में छिपा देना चाहते हैं ताकि वह उनके विदेशी चीफ के सामने आकर उनकी भद न करवाए लेकिन नवीन नैथानी की वृद्ध किरदार अपनी बढ़ती उम्र को लेकर पारंपरिक चिंता में तो जरूर है और इसलिए लोगों से छिपती हैं क्योंकि "बहुत ज्यादा जीने के बाद अच्छा नहीं लगता। उनके सामने जाओ तो वे डर जाते हैं। लगता है मैं उनकी उम्र खा रही हूँ।"  (मुँदरी बुढ़िया के दरवाजे) ऐसे वृद्ध इस समाज में बहुतायत से मिलेंगे जिनकी मृत्यु की कामना उनके परिवार वाले ही करते हैं, इस तरह की बातें सुनने में आती हैं कि न जाने कितनी उम्र लेकर आई / आए हैं और इससे परेशान बुजुर्ग भी किलस कर कहते हैं कि भगवान बुलाता ही नहीं। ऐसे में मुँदरी का लोगों की नजर से छिपकर रहना कोई अजूबा नहीं है।

इस संग्रह की कहानियों में स्मृतियों की झीनी चादर पड़ी हुई है और एक ऐसे अद्भुत लोक का वर्णन है जहाँ जीवन और मृत्यु के बीच की विभाजक रेखा महीन होते -होते धुँधली पड़ जाती है। जीवन और मृत्यु भले ही जिंदगी के दो अलग -अलग किनारे हैं लेकिन क्षितिज की तरह वे भी कभी- कभार मिलते हुए से दिखाई देते हैं। दोनों लोकों के बीच एक अविश्वसनीय लेकिन आकर्षक लोक रचा गया है, 'अखंड सुहागवती' कहानी में। मृतक लोगों को इस तरह याद किया जाता है जैसे वे यह लोक नहीं बल्कि गाँव छोड़कर चले गए हैं और उनकी अनुपस्थिति के गह्वर को गाँव के लोग न केवल उनकी स्मृतियों से भरते हैं बल्कि जब जी चाहे उनसे मिल भी आते हैं। यह मिलना अस्वाभाविक नहीं बल्कि एकदम सहज- सरल लगता है जैसे हम अपने दोस्तों- रिश्तेदारों से मिलते हैं ठीक उसी तरह दिवंगत व्यक्तियों से भी मिलते हैं। इस मिलन में कोई जड़ता या भय नहीं बल्कि एक सुकून का भाव है, मानो उस पार के व्यक्तियों से हम इस पार की दुनिया को आनंददायक बनाने की युक्तियाँ या आश्वासन पाते हैं या उनके प्रति अपने नेह और सम्मान को अभिव्यक्ति देते हैं। यह मिलन स्थल कहाँ है, इसका कोइ ब्यौरा कहानीकार नहीं देता क्योंकि वह छोटे- छोटे ब्योरों या तथाकथित डिटेल्स में उलझने के बजाय अनुभूतियों का सघन और ऊष्मा से भरा हुआ लोक रचता है जो मानवीय प्रेम के भरोसे पर टिका हुआ है। मनुष्य का मन अपने लिए कुछ ऐसी जगहें या भावलोक ढूँढ ही लेता है जहाँ वह स्वप्न को यथार्थ और यथार्थ को स्वप्न में बदल दे। नवीन नैथानी की कहानियों में भी स्वप्न और यथार्थ, जीवन और मृत्यु, कल्पना और वास्तविकता के बीच की रेखाएँ गड्डमगड्ड हो जाती हैं और पाठकों के लिए एक अनोखा आस्वाद वह रस बचता है जो जीवन को तमाम वह प्रतिकूलताओं के बावजूद खूबसूरत और जीवंत बनाए रखता है। सत्यवती और किशन आखिरकार अपने डर पर काबू पाकर उस रस को बचा पाने में कामयाब हो जाते हैं। सत्यवती में वह पारंपरिक भारतीय स्त्री भी नजर आती है जो अखंड सुहागवती होने की कामना में परंपरागत जीवन मूल्यों को सीने से लगाए जीती है। सौरी की स्त्रियों में परंपरागत मान्यताएं जीती जागती हैं जो उनके अद्भुत चरित्र के बावजूद साधारण बनाती हैं।

सौरी के बाशिंदे रोजमर्रा की जिंदगी जीते हुए, साधारण होते हुए भी कुछ मायने में असाधारण होते हैं, इतने असाधारण कि दूर  दराज के लोग केवल सौरी को खोजने और देखने आते हैं बल्कि वहाँ के लोगों से मिलने भी आते हैं। ऐसा ही एक अविस्मरणीय किरदार है, 'चढ़ाई' कहानी का चौकीदार या बूढ़ा आदमी जो अपने उम्र की गिनती भूल गया है और शायद अपने घर का पता भी भूल जाना चाहता है, बस इसीलिए अपने घर पर कुंडी चढ़ाकर जंगलों में या फिर स्मृतियों की खोह में भटकता रहता है। वह आने जाने वालों को सौरी और कभी- कभार अपना ही पता बताता रहता है जो उसे सिर्फ नाम से जानते हैं। तकरीबन सौ की उम्र छू चुका या पार कर चुका रामप्रसाद अपने जीवन और पहाड़ों की चढ़ाई अपनी लाठी और शरीर के दम पर चढ़ता रहता है। उसके पास ढेरों कहानियाँ हैं, अपनी और सौरी की लेकिन उन कहानियों में उसकी अपनी कहानी कहीं खो सी गई है। अकेलापन आदमी को इसी तरह स्मृतिहीनता के अंधकार में झोंक देता है।

अकेलेपन का यह निचाट बियाबान अन्यान्य कहानियों में भी पसरा हुआ है। गाँव से शहर को प्रस्थान करतीं पीढ़ियाँ, वे चाहे सौरी की हों या फिर किसी भी गाँव की अपने पीछे अपने घर और घर में छूटे लोगों को अकेला छोड़ जाती हैं। समय और मौसम की 'आँधी' में मकान ढहता रहता है, छत उड़ जाती है, दीवारें सील जाती हैं और कोने- अँतरों में कबाड़ के ढेर जमा हो जाते हैं। गोकुल मिस्त्री जैसे माहिर कारीगर भी दीवारों के पोलेपन की बात करते हुए उसकी मरम्मत से इनकार कर देते हैं। पोलेपन की वजह सिर्फ पुरानापन ही नहीं अकेलेपन का त्रास भी है जिसकी ओर इशारा करता हुआ गोकुल मिस्त्री कहता है- "जब कोई नहीं रहता तो दीवारें पोली हो जाती हैं" और नौजवानों के पास शायद पैसा तो है जिसे वह मरम्मत पर खर्च करने को तैयार हैं लेकिन समय नहीं है जिसे वह घर और उसके बाशिंदों के साथ बाँट सके, उसकी दीवारों को मजबूत बना सके। जब रिश्तों और भावनाओं में पोलापन जाता है तो कोई सीमेंट या माहिर कारीगर घर की मरम्मत नहीं कर सकता है। गोकुल मिस्त्री की आँखों से फूटता घृणा का सैलाब अपनी जड़ों के प्रति उसके जुड़ाव को व्यक्त करता है और नैरेटर को उसकी स्वार्थपरता के लिए धिक्कारता है।

अकेलेपन का अवसाद जब संबंधों में घुलने लगता है, भावनाओं में सेंधमारी करता है तब मन मस्तिष्क के साथ शरीर में भी इतना ठंडापन पैठ जाता है कि गर्माहट की तलाश मनुष्य को बेचैनी से भर देती है। आश्चर्य इस बात का यह कि जिन जगहों से उसे 'गरमाहट' या ऊष्मा मिलनी चाहिए वे भी क्रमशः क्षरित होती जाती हैं। आखिरकार आदमी की महत्वाकांक्षाएँ उसे आदमियत से इस कदर मरहूम कर देती हैं कि वह अपनी सहज  स्वाभाविक जिंदगी को भुलाकर सत्ता के मद में चूर ऐसी जिंदगी जीने लगता है कि कृत्रिमता ही उसे तसल्ली बख्श लगती है। प्राकृतिक जीवन शैली से कटाव उसे कमजोर शख्सियत में तब्दील कर देता है। इंसान की संगत से दूर रहते हुए वह जीवन और संबंधों की ऊष्मा से भी दूर होता जाता है। निसंगता बर्फ सी डराने लगती है और फिर वह आवाजों के शोर के बीच, मनुष्यों के समुद्र के बीच दौड़ पड़ता है ताकि रगों को ठिठुराती हुई ठंड से निजात पा सके। लेकिन असली ठंड तो दिमाग में पसरी होती है इसलिए आदमियों की जिस उपस्थिति ने उसे ऊष्मा से भर दिया था, अंततः वह भी बर्फ सी हो जाती है और उससे बचने के लिए वह पानी में छलांग लगा देता है। अनुकूलता की हद से ज्यादा चाह जीवन में तमाम प्रतिकूलताओं को जन्म देती है। इसका उपाय क्या है ? आखिरकार क्या हो सकता है ? पलायन या मुकाबला। पलायन हमें कहीं नहीं ले जाता इसलिए मुकाबला बेहतर हो सकता है। लेकिन आत्ममुग्ध व्यक्ति मुकाबले के बजाय पलायन में यकीन करता है और अंततः सबसे कट जाता है।

आत्ममुग्धता की अति मनुष्य को किसी भी हद तक ले जा सकती हैं। उसमें अमरत्व की चाह को भी जन्म देती है और हमारे पास ढेरों कहानियाँ हैं कि यह चाह कितनी भयावह हो सकती है। आम आदमी चमत्कारों में यकीन करता है और अब तो विज्ञान ने बहुत से चमत्कारों को सच भी कर दिया है। इस संग्रह में एक विज्ञान फंतासी कथा भी है। क्लोनिंग की बहुत सी कहानियाँ कही-सुनी जाती हैं। पशुओं की क्लोंनिंग तो हो चुकी है लेकिन मनुष्यों की क्लोंनिंग अभी भी सवालों के घेरे में है, कानूनी मान्यता तो अलग बात है। हर किसी के मन में राजा ययाति की भाँति अक्षय यौवन की आकांक्षा जन्म लेती है ताकि वह अनंत भोग की लालसा को परितृप्त कर पाए। हालांकि तृप्ति एक कल्पित अवधारणा है क्योंकि वह शायद ही कभी मिलती है लेकिन अपनी तृप्ति के लिए मनुष्य अराजक और हिंसक भी हो सकता है। ययाति में भी ये प्रवृत्तियाँ थीं। इसी कारण वह पुत्र का यौवन माँगकर अनंत सुख भोगता है और प्रकारांतर से पुत्र को अपनी आकांक्षाओं पर कुर्बान कर देता है। 'एक हत्यारे की आत्मस्वीकृति' का पात्र भी अपने ही क्लोन की हत्या करता है। मनुष्य कितनी भी वैज्ञानिक उन्नति क्यों कर ले लेकिन ईर्ष्या द्वेष और प्रतिद्वन्द्विता जैसी मानवीय भावनाओं से कभी मुक्ति नहीं पा सकता। इन्हीं दुर्भावनाओं के हाथों वशीभूत होकर या कामनाओं से परिचालित होकर वह अपने पिता, भाई या पुत्र की हत्या कर सकता है तो फिर अपने ही प्रतिरूप या प्रतिद्वंद्वी को भी मार सकता है। अब यह अपराध है या नहीं यह कौन तय करेगा ? अदालत या मानवीयता ? भले ही किसी जमाने में द्वंद्व युद्ध में की जाने वाली हत्याएँ अपराध की श्रेणी में नहीं आती थीं लेकिन आज की अदालत के लिए हत्या किसी की भी हो, वह उसी प्रकार का अपराध है जैसे क्लोनिंग। वस्तुतः मनुष्य की अतिशय आकांक्षा जिससे किसी को भी क्षति पहुँचे, वह अपराध ही माना जाना चाहिए। अमरत्व की कामना भी ऐसी ही आकांक्षा है। 

संग्रह की कहानियाँ स्मृतियों का धूसर अलबम बनाती हैं। इस अलबम में बहुत सी पुरानी तस्वीरें, यादें, क्षण कैद होते हैं जो हमारे अवचेतन में पड़े रहते हैं। उनकी उपस्थिति भले ही बहुत सजग हो लेकिन हम उन्हें भुला नहीं पाते। इनमें से कुछ यादें बेहद आत्मीय और कोमल होती हैं जिनकी छुअन भर हमें उद्वेलित, स्पंदित कर देती है और कुछ कसक से भर देती हैं। जीवन में बहुधा परिवर्तन आता है, स्थितियाँ बदल जाती हैं लेकिन तस्वीरों में समय ठहर जाता है। जीवन की हताशा, निराशा या उदासी की झाइयाँ तस्वीरों पर जरा नहीं पड़ती। मुस्कराते हुए पल उनमें बँध कर अमर हो जाते हैं, तभी तो हम खूबसूरत क्षणों को या क्षणिक खुशियों की स्मृतियों को हमेशा के लिए अपने एलबम में कैद कर लेना चाहते हैं। 'तस्वीरें' अतीत और वर्तमान के बीच आवाजाही करती स्मृतियों की कथा है जिसमें नैरेटर पिता अपनी बेटी के लिए उसके जन्मदिन पर बड़े एहतियात से एक खूबसूरत अलबम तैयार करता है। एहतियात इसलिए कि बदलती परिस्थितियों का खुरदरापन उस एलबम को जरा भी छुए। पत्र शैली में बुनी गई इस कहानी में दांपत्य जीवन में क्रमशः घुलती कड़वाहट और संतान पर पड़ते उसके नकारात्मक प्रभावों के संकेत जरूर मिलते हैं लेकिन अपनी बेटी को उपहार देने के लिए पिता ऐसे क्षणों की तलाश करता है जब वे दोनों अर्थात पुत्री के माता- पिता कभी साथ में बेहद खुश हुआ करते थे। वह खुशी जीवन से भले ही फिसल गई लेकिन तस्वीर में हमेशा के लिए कैद हो गई। कोई भी पिता या माता अपनी संतान को अवसाद की कड़वाहट नहीं बल्कि खुशनुमा क्षणों की मिठास सौंपना चाहता है। हालांकि कई बार तमाम कोशिशों के बावजूद ऐसा संभव नहीं हो पाता। खुशियों या आशाओं का 'कद' घटते -घटते इतना सा रह जाता है कि मनुष्य को वे नजर ही नहीं आतीं और उनकी तलाश में आँखों की रोशनी भी साथ छोड़ती जाती है। माता -पिता का अपना दांपत्य कितना भी अवसाद पूर्ण या ठंडा क्यों हो वह अपनी संतान को खुश और आबाद ही देखना चाहते हैं। यह अलग बात है कि चाहने भर से ही कुछ नहीं होता। स्त्री जीवन की पराधीनता और घरेलू हिंसा के बीच पिसती हुई मानसिक संतुलन खोती स्त्री के लिए सहानुभूति का स्वर इस कहानी (कद)  में नजर आता है। हाँ प्रतिरोध की कमी जरूर खलती है लेकिन यथास्थितिवाद के प्रति क्षोभ को अभिव्यक्ति मिली है।

अधिकांशतः मैं शैली में लिखी गई इन कहानियों में स्मृतियों का घटाटोप छाया हुआ है। कहीं वह कुहासे की तरह मन के उल्लास पर बिछ जाता है तो कहीं रोशनी के तीर सा हृदय को बेध देता है। अतीत और वर्तमान को एक 'पुल' की तरह जोड़ती ये स्मृतियाँ रोज दर रोज अपने अतीत को पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते इंसान के अंदर उस नामालूम अहसासात की तरह जिंदा रहती हैं जिनके बिना जिंदगी बेमानी होती है। वह वर्तमान समय में किसी पुराने परिचित से मिलते हुए उनमें किसी और परिचित की शक्ल को अनायास याद करने लगता है। हालांकि देबू दा और बल्लू की माँ के बीच कोई कड़ी नहीं जुड़ती लेकिन अट्ठाइस सालों बाद नैरेटर को अपने भाई के मित्र देबू दा से मिलकर जाने क्यों बल्लू की माँ की याद जाती है। उनका स्पर्श नब्बे वर्ष की बूढ़ी औरत के स्पर्श सा लगता है। देबू दा की हर बात, अदा या गतिविधियाँ उसे फिर- फिर बल्लू की माँ से क्यों जोड़ती हैं। शायद इसलिए क्योंकि हमें जिस व्यक्ति से जरा भी लगाव होता है या सहारा मिलता है, हम उसे बार- बार अन्य परिचित, अपरिचित या अल्प परिचित चरित्रों में खोजते हैं। चरित्रों का वैविध्य हमें आकर्षित भले करे लेकिन साम्यता हमें आशवस्त करती है और मनुष्य इस आशवस्ति या फिर शांति की तलाश में लगातार स्मृति लोक की यात्रा करता रहता है। देबू दा एक जगह कहता है- "सच कहूँ, यहाँ रहते हुए कभी कभी लगता है कि हम एक साथ दो अलग -अलग समय को जी रहे हैं।" वस्तुतः यह आम आदमी की नियति है कि वह कभी भी समूचा एक समय में नहीं जीता। अतीत का मुश्किलें और भविष्य की चिंता उसके वर्तमान पर दबाव डालती रहती हैं और जहाँ भविष्य को लेकर कोई स्वप्न नहीं बचता वहाँ अतीत की सपनीली छाया वर्तमान पर अपना आधिपत्य जमा लेती है। आलोच्य संग्रह की कहानियों के पात्रों की स्थिति कमोबेश ऐसी ही है। नवीन नैथानी वर्तमान समय की बड़ी चुनौतियों या चिंताओं की जो सतह पर तैरती नजर आती हैं, की बात नहीं करते या किसी तथाकथित विमर्श या विचारधारा के दबाव में नहीं लिखते लेकिन मनुष्य के अंतर्मन को कुरदने वाली चिंताओं, उसके अवसाद, मानसिक विच्छिन्नता अथवा सामाजिक असंबद्धता या अलगाव के कारणों की पड़ताल करने वाली स्थितियों  को खोजने की कोशिश जरूर करते हैं। इस कोशिश में वे एक ऐसा सम्मोहक वातावरण या लोक रचते हैं जो हमें बेतरह आकर्षित करता है। ये कहानियाँ देश -काल की सीमा से परे ऐसे मनुष्यों की कहानियाँ हैं जो भौतिक सुख -दुख की सीमा से परे जा चुके हैं। उनके जीवन में संघर्ष तो हैं लेकिन वे रोजी-रोटी की चिंताओं से जुड़े संघर्ष नहीं है। जीवन में रोटी ,कपड़ा, मकान के अलावा भी मनुष्य की बहुत सी दिक्कतें होती हैं कहा जा सकता है कि इन कहानियों का लेखक आम आदमियों की कहानी कहता हुआ भी एक ऐसे वर्ग या समूह के लोगों की कहानी कहता है जो तथाकथित रोजमर्रा के संघर्ष से भले ही  गुजरते नजर नहीं आते लेकिन उनके अपने संघर्ष हैं। इनमें दफ्तर में काम करने वाला क्लर्क या ऑफिसर, लेखक, चित्रकार और ग्रामीण जीवन के तमाम पात्र बिखरे हुए हैं जो अपने जीवन की अंदरूनी लेकिन बड़ी   दिक्कतों से अपने तौर पर जूझ रहे हैं और जूझते- जूझते कभी -कभार अवसाद के गर्त में मुंह छिपा लेते हैं। शुतुरमुर्ग कहानी का लेखक 'रेगिस्तान में शुतुरमुर्ग' शीर्षक से कहानी लिखता है और उसकी प्रेमिका शुतुरमुर्ग के चरित्र को उसके जीवन में उतरते हुए देखते है। वह दिन की रोशनी में लोगों का सामना करने से कतराता है, अँधेरे कोनों में मुँह छुपा कर बैठा मानो वास्तविक समस्याओं से दूर भागता है लेकिन उसका यह पलायन क्या उसका कवच नहीं है?  हर व्यक्ति के पास अपना एक कवच होता है और उस लेखक के पास शायद यह दुराव छिपाव या अगर आप उसे पलायन का नाम देना चाहे तो यह पलायन ही कवच की तरह है। हम में से बहुत सारे लोग इस कवच को धारण किया करते हैं। कुछ लोग मुखौटे लगाने में माहिर होते हैं तो कुछ इस कवच के पीछे खुद को छुपाए रहते हैं और जब यह कवच अभेद हो जाता है तो वास्तविक दुनिया से हमारा रिश्ता कटने सा लगता है और उसे स्थिति में ही हम एक बार फिर से संबंधों की ऊष्मा की चाह में भटकने लगते हैं। भटकते हुए जब संबंधों की उष्मा हमारे आसपास इफरात मात्रा में हो जाती है तो फिर उससे भी दूर भागते हैं।

 दरअसल इस संग्रह की कहानियाँ आम नजर आते खास लोगों की एक विशेष किस्म की मानसिक बुनावट की कहानियाँ है जिसके कारण हमारे पास जो कुछ होता है वह हमें कभी संतुष्ट नहीं कर पाता। कुछ अलग, कुछ खास की चाह हमें निरंतर भटकाती रहती है और उस परेशान हाल स्थिति में हम जिंदगी गुजारने को विवश होते हैं। उस स्थिति में मनुष्य एक ऐसा जादुई लोक रचता है, जहाँ सब कुछ बेहद भला-भला सा और खूबसूरत है और उसकी स्मृतियों, कहानियों के साथ पीढ़ी दर पीढ़ी जिंदगी गुजार देता है। सौरी के लोगों के पास शायद अब भी ये कहानियाँ बची होंगी और उस के साथ बचा होगा रचने और कहने का अलौकिक सुख, किस्सागोई की कला भी जो कथाकार नवीन कुमार नैथानी में भरपूर है। इन कहानियों में पाठक सहजता से रम जाता है क्योंकि ये किसी सरलीकरण के सूत्र, समाधान या सुझाव के रूप में नहीं लिखी गई हैं। इनमें कथा कहने और सुनने के साथ उसमें डूबने के सुख को बचाए रखने की अद्भुत क्षमता है।