सुबह के वक्त थमजैफलांग में बारिस की रिमझिम पड़ने लगी। तम्बू उखाड़ चुके थे। सामान की पैकिंग की जा चुकी थी। रोहतांग पार बारिस- सच में एक सुकून देने वाला क्षण था। कमलनाथ जी की पुस्तक स्फीति में बारिस तो बारिस के इंतजार का ही गान है। हमारे अपने अनुभवों में भी यह पहला ही क्षण था। लेकिन बारिस में भीगने का खतरा नहीं उठा सकते थे। ठंड बढ़ने लगी थी। बारिस से बचने के लिए पॉलीथिन की बरसातियां निकाल ली गयीं। और बरसाती ओढ़े-ओढ़े ही सिंगोला की ओर रुख किया। रंगबिरंगी बरसातियों में ढके हम चलते फिरते ढूह नजर आ रहे थे। हर कोई दूसरे को ढूह कह सकता था। लेकिन हमारे साथ चल रहा वह इजरायली लड़का हम सबक को ढूह कह कर मंद-मंद मुस्करा रहा था जो पलामू से हमारे साथ चल रहा था।
वह हिन्दी भाषा सीखना चाहता था। देवनागरी स्क्रिप्ट उसने एक हद तक सीख ली थी और कुछ शब्द भी टूटे-फूटे तरह से बोलने लगा था। कोई नया शब्द सुनता तो उसकी उत्सुकत बढ़ जाती। अर्थ पूछ कर उसे बार-बार दोहराता। ढूह- उसकी जुबान में था। ब्रिटेन वासी एक दूसरा युवक उसका सहयात्री था। दोनों की ही उम्र में करीब 13-14 वर्ष का अंतर था। पलामू में ही पहली बार इन दोनों युवकों से मुलाकात हुई थी। वहीं से वे हमारे साथ-साथ थमजैफलांग तक पहुंचे थे। पलामू में टैन्ट गाड़ कर बैठे वे दोनों ही आगे के मार्ग से अनभिज्ञ थे। दारचा से चलते हुए उनके सामने बहुत स्पष्ट नहीं था कि आगे कितने दिनों का मार्ग है पदुम तक। हालांकि एक गाईड बुक उनके पास थी। पर उसमें दिए गये वर्णन से बेपरवाह वे दोनों बिना पर्याप्त भोजन सामाग्री को लादे ही निकल पड़े। कुछ पैक फूड ही लेकर चले थे वे। कोई गाईड या सहयोगी भी उनके साथ नहीं था। पलामू में वे हमारे तम्बू में आए तो अपरिचय की दीवार टूट गई। मालूम हुआ कि दोनों ही भारत में, वो भी इस जांसकर यात्रा के दौरान ही एक दूसरे के दोस्त बने हैं और यात्रा कि समाप्ति पर फिर अपने-अपने रास्तों के हिसाब से निकल लेंगे। यात्रा के दिनों के हिसाब से उनके पास राशन का अभाव था। पूछने लगे कि आगे कहां मिल सकता है। उस बीहड़ में कहां तो मिलना था राशन। हम स्वंय ही उस जिम्मेदारी के दबाव में आ गए कि इनके लिए कुछ न कुछ व्यवस्था तो करनी ही होगी। हम तो अपने हिसाब से ही राशन लादकर चले थे। कम-कम भी खाएं तो एक व्यक्ति को तो एडजस्ट किया जा सकता था पर वे दो थे। खैर उस शाम का भोजन तो हमने उनके लिए भी बनवा दिया। कैम्पिंग-चार्ज वसूलने के लिए तम्बू लगाए नेपाली लड़के से गुहार लगाई कि किलो दो किलो चावल और कुछ दाल का प्रबंध कर दे। नेपाली युवक सहृदय था। हमारे कहे का मान रख दिया और आगे के दो-तीन दिनों की राशन उसने वाजिब पैसे लेकर अपने टैन्ट से निकाल कर मुहैय्या कर दी।
थमजैफलांग तक वे दोनों ही साथी हमारे साथ थे लेकिन थमजैफलांग पहुचते-पहुचंते एक साथी की तबीयत खराब होने लगी। ब्रिटेन वासी जो रास्तेभर सिगरेट का धुंआ उड़ाता रहा, उसकी सांस फूलने लगी थी और एक-एक कदम बढ़ाना उसके लिए भारी हो गया। हम लोग तम्बू गाड़ चुके थे। लेकिन न तो इजरायली युवक रूई अमित और न ही उसका साथी अभी तक पहुंचे थे। उनका इंतजार करने के बाद अंतत: यह मानते हुए कि शायद जांसकर सुमदो भी ही वे लोग रुक गए हैं, हमने सूप बनाया और पी कर कुछ देर यूंही लेटे कि आंख लग गई। थकान ज्यादा थी। कुछ ही देर बाद कुछ आवाज-सी हुइ। सोचा हमारा सहयोगी दोरजे है जो अपने घोड़ों के साथ बतिया रहा है शायद। बस वैसे ही लेटे रहे। जब आंख खोली तो देखा कि इजरायली युवक रूई अमित पहुंच हुआ है। उसके चहरे पर थकान थी और परेशानी के भाव। पूछना चाहा तो कुछ कहना उसने उचित न समझा। उसके चेहरे पर थकान की रेखाएं इतनी गहरी थीं कि उसकी नीली आंखें गडढों में धंसकर और नीली हो गईं थीं। हम उसे आराम करने देना चाहते थे। लिहाजा उसे यूंही अपने शरीर को ढीला छोड़ कर उसे बिना डिस्टर्ब किए लेटने दिया। लेकिन थोड़ा विश्राम करने के बाद रूई अमित अपना पिट्ठू वहीं पटक गायब था। सोचा, दिशा-मैदान के लिए निकला होगा। लेकिन थोड़ी ही देर बाद वह अपने साथी ब्रिटेनी युवक का पिट्ठू लादे गहरी थकान से भरे पांवों को उठाते हुए उस पहाड़ी के कोने से प्रकट हुआ, थमजैफलांग जिसकी ओट में था। पीछे-पीछे उसका साथी। उसकी हालत कहीं ज्यादा खराब थी। हमारे तम्बू के पास आकर उसने पिट्ठू को ऐसे पटका मानों एक क्षण भी उसे संभाले रखना अब उसके लिए संभव न रहा हो और हाथ पांवों को फैलाकर थमजैफलांग के उस मैदान में लेट गया। ऐसे मानो उस छोटे से मैदान को अपने शरीर से ढांप लेना चाहता हो। उसके साथी के लिए तो उस तरह से लेटना भी संभव न रहा। वह तो उल्टियां कर रहा था। दोनों की स्थितियां हमें परेशान कर गयी। दवा के बाक्स को ढूंढा गया और जल्द से जल्द उनका उपचार कर देना चाहा । कच्चे लहसुन की एक फांक उन्हें चबाने को दी। अपने अनुभव के देशीपन में ऊंचाई पर आने वाली समस्या से हम अक्सर ही ऐसे निपटते रहे हैं। ब्रिटेन के उस युवक का हाथ पकड़ कर उसे इधर-उधर चहलकदमी करवाई तो उसे थोड़ा आराम-सा मिलने लगा। ऐसा लगता था कि सिगरेट की बुरी लत ने उसके फेफड़ों की ताकत को निचोड़ दिया है। वह अपने शरीर में तकात महसूस ही नहीं कर रहा था। रूई अमित शांत था। कुछ देर तक वैसे ही लेटा रहा। फिर जाने कहां से उसमें ऐसी स्फूर्ति आई कि टैंट खोलने लगा। हवा जो कुछ देर पहले काफी तेह बह रही थी- अभी उसकी गति में कुछ कमी आ गई थी। अपना टैंट लगाने के बाद हमारे साथियों ने उन युवकों का टैंट भी लगवाना चाहा तो रूई अमित हिचकने लगा। लेकिन आग्रह को टाल न पाया। उनका तम्बू खड़ा हो गया था।
रूई अमित तो फिर भी थोड़ी देर बाद अपने को ठीक महसूस करने लगा लेकिन ब्रिटिश युवक की हालत गम्भीर थी। वह आगे निकलने से घ्ाबराने लगा था। हम भी नहीं चाहते थे कि इस हालत में वह सिंगोला की लगभग 17000 फुट की उस कठिन चढ़ाई पर चढ़े। रूई अमित अमित का मन जांसकर को देखने का था। अपनी यात्रा को स्थगित होते देख वह गम्भीर हो गया था। एक खास किस्म की निराशा उसके चेहरे पर थी। आगे जाना चाहता था। हिम्मती था लेकिन अकेले आगे जाने का जोखिम नहीं उठाना चाहता था। वह चाह रहा था कि हम उसे अपने साथ ले चलें। वह पदुम तक जाना चाहता था। टैन्ट और अन्य साधन उसके अपने पास थे। वह कह रहा था कि फूड आईटम्स उसके पास है। पांच-छै मैगी के पैकेट और पलामू में खरीदा गया मात्र थोड़ा-सा राशन- दाल और चावल। रूई अमित की इच्छाओं का दमन नहीं किया जा सकता था। लेकिन उस ब्रिटिश युवक का क्या होगा ? यही हमारी चिन्ता थी। लेकिन उसका हल खुद उसने ही निकाल दिया। वह भी चाहता था कि हम रूई अमित को अपने साथ ले जाएं। वह खुद वापिस लौटना चाहता था- दारचा। बस रूई अमित हमारा साथी हो गया। वैसा ही साथी जैसे दोरजे सहित हम छै थे। उसे मिलाकर सात।
हम सभी साथी चुमी नापको की ओर बढ़ रहे थे। चुमी नापको- सिंगोला का बेस।
मौसम अभी पूरी तरह से साफ नहीं हुआ था।
हां, बारिश रुक चुकी थी। मौसम के गीलेपन की वजह से हवा का वो बहाव जो पास के एकदम नजदीक काफी तेज होता है और जिसमें टैन्ट लगाना आसान नहीं होता है, अभी उतना वेगवान नहीं था। लेकिन वैसा ही शांत बना न रहेगा, इस बात से अनभिज्ञ न थे। बस्स, जब तक मौसम साथ दे रहा है, टैंट गाड़ लेते हैं, यह हर कोई कह रहा था। टैंट गाड़ दिए गए। चारों ओर बर्फीली चोटियों के बीच चुमी नापको पर हमारे टैंटों की रंगीनियां बिखर गई।
मौसम के मिजाज में जो बदलाव था वो हैरान करने वाला भी था और उसी वजह से थोड़ा परेशान भी हो गए। समाने के पहाड़ों पर ताजा पड़ी बर्फ की सफेदी स्पष्ट थी। सिंगोला यूं तो ऊंचाई पर होते हुए भी आसान पास कहा जा सकता है- हौले-हौले उठती हुई चढ़ाई। पर सीधी धूप गिरने की वजह से बर्फ सुबह ही गलने लग जाती है वहां और फिर गलती हुई बर्फ में घुटनों-घुटनों धंसते हैं पांव। जिन्हें निकालने में ही सारी ऊर्जा खर्च हो जा रही होती है। फिर तो पार करना कठिन लग रहा होता है। सोचते रहे कि कल यदि मौसम ठीक से न खुला तो क्या सुबह-सुबह ही निकलना संभव होगा ? और निकलने में देर हो गई तो कहीं फंस न जाएं गलती हुई बर्फ में। हमारे अनुभवों में इसी सिंगोला पर घुटनों-घुटनों धंसना अटका हुआ था।
समाप्त
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