पुलिस में नौकरी, यानी धौंस-पट्टी का राज. वाह जी वाह, क्या हसीन है निजाम. पुलिस ही नहीं, गुप्तचर पुलिस, वह भी आफिसर . फिर तो कुछ बोलने की
जरूरत तो शयद ही आए कि उससे पहले ही चेहरे के रूआब को देखकर, यदि मूंछे हुई तो और भी, आपराधी ही क्या, अपनी नौकरी पर तैनात कोई साधारण कर्मचारी, बेशक
ओहदेदारी में किसी रेलवे स्टेशन का स्टेशन मास्टर तक हो चाहे, बुरी तरह से चेहरे पर हवाइयां उडते हुए हो जाए और यदि ओफिसर महोदय ने अपना
परिचय दे ही दिया तो निश्चित घिघया जाये. यह चित्र बहुत आम है लेकिन एक सम्वेदनशील
रचनाकार इस चित्र को ही बदलना चाहता है. निश्चित तौर पर श्री प्रकाश मिश्र भी ऐसे ही
रचनाकर हैं. अपनी स्मृतियों के देहरादून को खंगालते हुए वे इससे भिन्न न तो हैं और
न ही होना चाहेंगे, यह यकीन तो इस कारण से भी किया जा सकता है
कि एक दौर में वे उन्न्यन जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका का स्म्पादन करते रहे हैं.
देहरादून की स्मृतियों पर केंन्द्रित होकर लिखे जा रहे संस्मरण के उन
हिस्सों की भाषा से श्री प्रकाश मिश्र के पाठकों को ही फिर एतराज क्यों न हो, जहाँ उनका प्रिय लेखक उन्हें दिखाई
न दे रहा हो. एक मॉडरेटर होने के नाते इस ब्लॉग के पाठकों की क्षुब्धता के लिए खेद
व्यक्त करना मेरी नैतिक जिम्मेदारी है. फिर संस्मरण की भाषा पर एतराज तो किसी यदा
कदा के पाठक का नहीं है, बल्कि जिम्मेदार नागरिक चेतना से
भरे एक ऐसे संवेदंशील रचनाकर, चंद्रनाथ मिश्र, का विरोध है, जिनके सक्रिय योगदान से यह ब्लाग अपनी
सामग्री समृद्ध करता रहता है. चंद्रनाथ मिश्र के एतराज मनोगत नहीं बल्कि तथ्यपूर्ण
है, “एक वरिष्ठ लेखक और 'उन्नयन '
जैसी लघु पत्रिका के संपादक रहे श्री प्रकाश मिश्र जैसे व्यक्ति से
इस तरह के आत्म केंद्रित और नकारात्मक सोच की आशा नहीं की जा सकती. पूरे आलेख में
प्रारंभ से अंत तक उन के सानिध्य में आने वाले व्यक्तियों के जीवन और व्यक्तिगत
रूप रंग पर आक्षेप के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं. रेलवे के छोटे कर्मचारी से लेकर
स्टेशन मास्टर तक , पीतांबर दत्त बड़थ्वाल जैसे शिक्षाविद और
वरिष्ठ साहित्यकार, उनकी संताने,उनके
गांव के सारे लोग प्रकाश मिश्र की इस आवानछनीय टीका टिप्पणी के दायरे मे शामिल
हैँ. देहरादून के तात्कालिक साहित्यिक परिप्रेक्ष्य पर उनकी कोई उल्लेखनीय टिप्पणी
तो कहीं भी नजर नहीं आती. यहां के वरिष्ठ साहित्यकारों के साहित्य कर्म पर लिखने
के बजाय, वे उनके व्यक्तिगत, शारीरिक,
जातिगत और स्थान विशेष में रहने वालों को सामूहिक रूप से कुरूप और
अनाकर्षक घोषित करने का प्रयत्न करते हुए दिखाई देते हैं.”
यह सही है कि एक पात्र की पहचान कराने के लिए एक गद्य लेखक अक्सर पात्र के रूप रंग, उसकी चाल, हंसने-बोलने के अंदाज, वस्त्र विन्यास और बहुत सी ऐसी रूपाकृतियों का जिक्र करना जरुरी समझते है और यह भी स्पष्ट है कि उस हुलिये के जरिये ही वे प्रस्तुत हो रहे पात्र के प्रति लेखकीय मंशा को भी चुपके से पाठक के भीतर डाल देते है. वरिष्ठ कथाकार सुभाष पंत जी के द्वारा अक्सर कही गई बात को दोहरा लेने का मन हो रहा, जब वे कहते है, "जब कोई लेखक अपने किसी पात्र के बारे में लिखता है कि 'वह चाय सुडक रहा था' तो उसे अपने पात्र के परिचय के बारे में अलग से कुछ बताने की जरुरत नहीं रह जाती कि वह अमुक पात्र कौन है, किस वर्ग और पृष्ठभूमि का पात्र है." कथाकार सुभाष पंत की यह सीख हमें भाषा की ताकत से परिचित कराती है और साथ ही उसे यथायोग्य बरतने के लिए सचेत भी करती है. श्री प्रकाश मिश्र एक जिम्मेदार लेखक है. स्वयं देख सकते हैं, भाषा को बरतने वह चूक उनसे क्यों हो गई कि जिन व्यक्तियों को प्रेम से याद करना चाह रर्है थे, उनके हुलिये के वर्णन पर ही पर चन्द्र्नाथ मिश्र और देहरादून के अन्य जिम्मेदार नागरिक एवं रचनाकारों को असहमति के स्वर में सार्वजनिक होना पडा है.
उम्मीद है श्री प्रकाश मिश्र जी चंद्रनाथ मिश्र के एतराजों को सकारत्मक रूप से ग्रहण करेंगे और पुस्तक के रूप संकलित किये जाने से पहले वे दोस्ताना एतराज एक बार लेखक को दुबारा से अपनी भाषा के भीतर से गुजरने की राह बनेगें.
विजय गौड़