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Monday, August 22, 2022

आलोचना का सकारात्मक पक्ष

 

पुलिस में नौकरी, यानी धौंस-पट्टी का राज. वाह जी वाह, क्या हसीन है निजाम. पुलिस ही नहीं, गुप्तचर पुलिस, वह भी आफिसर . फिर तो कुछ बोलने की जरूरत तो शयद ही आए कि उससे पहले ही चेहरे के रूआब को देखकर, यदि मूंछे हुई तो और भी, आपराधी ही क्या, अपनी नौकरी पर तैनात कोई साधारण कर्मचारी, बेशक ओहदेदारी में किसी रेलवे स्टेशन का स्टेशन मास्टर तक हो चाहे, बुरी तरह से चेहरे पर हवाइयां उडते हुए हो जाए और यदि ओफिसर महोदय ने अपना परिचय दे ही दिया तो निश्चित घिघया जाये. यह चित्र बहुत आम है लेकिन एक सम्वेदनशील रचनाकार इस चित्र को ही बदलना चाहता है. निश्चित तौर पर श्री प्रकाश मिश्र भी ऐसे ही रचनाकर हैं. अपनी स्मृतियों के देहरादून को खंगालते हुए वे इससे भिन्न न तो हैं और न ही होना चाहेंगे, यह यकीन तो इस कारण से भी किया जा सकता है कि एक दौर में वे उन्न्यन जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका का स्म्पादन करते रहे हैं.   

देहरादून की स्मृतियों पर केंन्द्रित होकर लिखे जा रहे संस्मरण के उन हिस्सों की भाषा से श्री प्रकाश मिश्र के पाठकों को ही फिर एतराज क्यों न हो, जहाँ उनका प्रिय लेखक उन्हें दिखाई न दे रहा हो. एक मॉडरेटर होने के नाते इस ब्लॉग के पाठकों की क्षुब्धता के लिए खेद व्यक्त करना मेरी नैतिक जिम्मेदारी है. फिर संस्मरण की भाषा पर एतराज तो किसी यदा कदा के पाठक का नहीं है, बल्कि जिम्मेदार नागरिक चेतना से भरे एक ऐसे संवेदंशील रचनाकर, चंद्रनाथ मिश्र, का विरोध है, जिनके सक्रिय योगदान से यह ब्लाग अपनी सामग्री समृद्ध करता रहता है. चंद्रनाथ मिश्र के एतराज मनोगत नहीं बल्कि तथ्यपूर्ण है, “एक वरिष्ठ लेखक और 'उन्नयन ' जैसी लघु पत्रिका के संपादक रहे श्री प्रकाश मिश्र जैसे व्यक्ति से इस तरह के आत्म केंद्रित और नकारात्मक सोच की आशा नहीं की जा सकती. पूरे आलेख में प्रारंभ से अंत तक उन के सानिध्य में आने वाले व्यक्तियों के जीवन और व्यक्तिगत रूप रंग पर आक्षेप के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं. रेलवे के छोटे कर्मचारी से लेकर स्टेशन मास्टर तक , पीतांबर दत्त बड़थ्वाल जैसे शिक्षाविद और वरिष्ठ साहित्यकार, उनकी संताने,उनके गांव के सारे लोग प्रकाश मिश्र की इस आवानछनीय टीका टिप्पणी के दायरे मे शामिल हैँ. देहरादून के तात्कालिक साहित्यिक परिप्रेक्ष्य पर उनकी कोई उल्लेखनीय टिप्पणी तो कहीं भी नजर नहीं आती. यहां के वरिष्ठ साहित्यकारों के साहित्य कर्म पर लिखने के बजाय, वे उनके व्यक्तिगत, शारीरिक, जातिगत और स्थान विशेष में रहने वालों को सामूहिक रूप से कुरूप और अनाकर्षक घोषित करने का प्रयत्न करते हुए दिखाई देते हैं.”

 

यह सही है कि एक पात्र की पहचान कराने के लिए एक गद्य लेखक अक्सर पात्र के रूप रंग, उसकी चाल, हंसने-बोलने के अंदाज, वस्त्र विन्यास और बहुत सी ऐसी रूपाकृतियों का जिक्र करना जरुरी समझते है और यह भी स्पष्ट है कि उस हुलिये के जरिये ही वे प्रस्तुत हो रहे पात्र के प्रति लेखकीय मंशा को भी चुपके से पाठक के भीतर डाल देते है. वरिष्ठ कथाकार सुभाष पंत जी के द्वारा अक्सर कही गई बात को दोहरा लेने का मन हो रहा, जब वे कहते है, "जब कोई लेखक अपने किसी पात्र के बारे में लिखता है कि 'वह चाय सुडक रहा था' तो उसे अपने पात्र के परिचय के बारे में अलग से कुछ बताने की जरुरत नहीं रह जाती कि वह अमुक पात्र कौन है, किस वर्ग और पृष्ठभूमि का पात्र है." कथाकार सुभाष पंत की यह सीख हमें भाषा की ताकत से परिचित कराती है और साथ ही उसे यथायोग्य बरतने के लिए सचेत भी करती है. श्री प्रकाश मिश्र एक जिम्मेदार लेखक है. स्वयं देख सकते हैं, भाषा को बरतने वह  चूक उनसे क्यों हो गई कि जिन व्यक्तियों को प्रेम से याद करना चाह रर्है थे, उनके हुलिये के वर्णन पर ही पर चन्द्र्नाथ मिश्र और देहरादून के अन्य जिम्मेदार नागरिक एवं रचनाकारों को असहमति के स्वर में सार्वजनिक होना पडा है.

उम्मीद है श्री प्रकाश मिश्र जी चंद्रनाथ मिश्र के एतराजों को सकारत्मक रूप से ग्रहण करेंगे और पुस्तक के रूप संकलित किये जाने से पहले वे दोस्ताना एतराज एक बार लेखक को दुबारा से अपनी भाषा के भीतर से गुजरने की राह बनेगें.      


विजय गौड़ 

   

Friday, August 19, 2022

स्मृतियों का शहर

पिछ्ले दिनों मेरा भोपाल जाना हुआ. वहां जाकर मुझे मालूम हुआ कि भोपाल भी देहरादून की तरह की ऐसी जगह है, रोजी रोजगार की वजह से भोपाल पहुुंचा शख्स एक उम्र गुजार लेने के बाद फिर कहीं दुसरी जगह जाना ही नहीं चाहता, यहां तक कि अपने गृह प्र्देश  लौटने की बजाय वहीं बस जाने के लिए एक छोटी सी झोपडी जुटा लेना चाहता है. यदि किन्हींं कारणों से गृह प्रदेेश लौटना भी हो गया तो जेहन से न तो देहरादून निकलता है और न भोपाल. 
भोपाल में ही मालूम हुआ कि भोपाल के बाशिंदा एवंं हिंदी गजल के पर्याय दुष्यंत के पूर्वज तो  पश्चिमी उत्तरप्रदेश निवासी रहे. मेरे मित्र, प्रशिक्षण क्षेत्र के राष्ट्रीय व्यक्तित्व एवं तुरंता हास्य को जन्म देने वाले कलाकार ओ पी द्विवेदी ने, जिनका युवा दौर दुष्यंत जी के सानिंध्य में बीता, वायदा किया है कि वे दुष्यंत के जीवन के अभी तक उधाटित न हो पाये कुछ चित्रों की स्मृतियोंं से हमेँ परिचित कराएंगे. उम्मीद है देहरादून शहर की स्मृतियों पर आधारित श्री प्रकाश मिश्र का संस्मरण भाई ओ पी द्विवेदी को उनके वायदे के स्मरण मेँ ले जा सकने में सक्ष्म होगा. श्री प्रकाश मिश्र, एक समय की महत्वपूर्ण लघु पत्रिका उन्नयन के संपादक रहे हैं. वर्तमान में इलाहाबाद में रहते हैं. ज़पनी स्मृति के शहर- देहरादून और वहाँ के लोगों के संग साथ हाँसिल अनुभवों को वे यहां सांझा कर रहे हैं. विगौ       

स्मृतियों में बसा नगर : देहरादून :


श्री प्रकाश मिश्र


इसी अगस्त की यही सोलहवीं तारीख थी,जब मैं १९७९ में देहरादून पहुंचा आइजाल से शिलांग , शिलांग से लखनऊ, लखनऊ से मेरठ ‌होकर। ट्रैन शाम को पहुंची, खूब बारिश हो रही थी, इसलिए मैंने स्टेशन पर पड़े रहने को ठानी , प्रथम श्रेणी के प्रतिक्षालय में स्थान लिया। पहले रिटायरिंग रूम का कमरा लेना चाहा, पर देनेवाला सक्षम अधिकारी नहीं मिला। शाम आठ बजे के बाद उपस्थित परिचारक परेशान हो गया। अब कोई ट्रेन आने -जाने वाली नहीं थी। यह‌ समय उसके घर जाने का था। वह मेरे पास आया और बोला,"कब जाएंगे साहब?" मैंने कहा," कल दस बजे।" वह परेशान हो गया। कहा , " रात में यहां रुकने की इजाजत नहीं है साहब।" "किसने ‌कहा " मैंने पूछा, तो उसने बेहिचक जवाब दिया, " स्टेशन मास्टर ने।" "उन्हें बुलाओ", मैंने कहा, "उनका कहना गलत है।" मैं बिस्तर लगाने में लग गया। मेरी छरहरी काया और विशाल मूंछों के नाते वह मुझे फौजी समझ रहा था। कहा,"फौज की गाड़ी आई तो थी सात बजे। आप गये नहीं।"" मैं क्यों जाता फौज की गाड़ी से?" मैंने कहा। वह और परेशान ‌हो गया और उसी परेशानी में कहा, " शैलानी हैं? शैलानियों को यहां रुकने की कोई इजाजत नहीं। पास में होटल हैं, वहां जाइए।" मैंने कड़ाई से कहा," मैं आज रात यहीं रहूंगा।" वह कुछ देर तक घूरता रहा, फिर चला गया। आधे घंटे बाद आया और बोला, "स्टेशन मास्टर साहब बुला रहे हैं।" मैं उस वक्त खाना खा रहा था। मेरठ में मित्र बने ‌ स्टेनो टी.पी.सिंह ने शुद्ध घी की पूड़ी तरकारी बांध दी थी, जो वाकई बड़ी स्वादिष्ट थी। गुस्सा तो लगा, पर उस पर नियंत्रण कर उंगली से इशारा कर कह, "खा करि आता हूं।"
मैं खाना ‌खा कर स्टेशन‌मास्टर के कमरे में गया। वे रजिस्टर में आंख गड़ाए होने का नाटक करते मुझे आपाद-मस्तक कुछ देर तक देखते रहे। मैं भी उन्हें अपनी आर-पार चीर कर देखनेवाली आंखों से (जैसा कि मेरी प्रेमिकाएं कहती रही हैं) देखता रहा। फिर उन्होंने कहा, "आप हायर क्लास वेटिंग रूम में रुके हैं?" मैंने कहा," जी हां।" उन्होंने कहा,"सुरक्षित नहीं ‌है, साहब। चोर-उचक्के रातभर घूमते हैं। वेटिंग रूम को भीतर से बंद करने की इजाजत नहीं ‌है।" "मैं उनकी तलाश में रहता हूं।"मैंने कहा। "वे समूह में आते हैं , छुरा -चाकू रखते हैं।" "मैं भी हथियार बंद हूं।"
आप हथियार लेकर रुके हैं?" "जी।" उनके चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। कहा,"आप क्या करते हैं?" "सी.बी.आइ.में अफसरी।" साहब - साहब कहकर वह घिघियाने लगा, "पहले बताए होते।" "आपने मौका‌ही बाद में दिया।"
वह उठ खड़ा हुआ। "मैं आप के दफ्तर फोन कर गाड़ी मंगा देता हूं या सवारी कर देता हूं।" " नहीं मैं चुपचाप बिना बताए ही वहां जाना चाहता हूं कल दफ्तर के समय। आज यहीं रहने दीजिए। हां यदि रिटायरिंग रूम बुक कर दें तो कृपा होगी।" "हां -हां "करते हुए उन्होंने एक कमरा बुक कर कहा कि आधा घंटा लगेगा कमरा ठीक करने में। चद्दर कंबल यहां रहता नहीं, लोग दुरुपयोग करते हैं।" "ठीक है",‌मैंने कहा।

सुबह आठ बजे तैयार हुआ। सामान क्लाक रूम में जमा किया । जैसा कि मेरी आदत है नये नगर को पैदल चलकर देखना, उसके लिए निकल पड़ा।रात भर पानी बरसा था। सोचा कि सड़कें पानी और कीचड़ से भरी होंगी। पर वे धुलकर साफ चमक रही थीं। स्टेशन से बाहर निकल कर अपने दफ्तर का रास्ता पूछा और और चल पड़ा। अगले ही मोड़ पर जैन धर्मशाला और अग्रवाल धर्मशाला था, खूब भव्य। सामने मिठाई -पूडी की दुकान थी। दही -जलेबी का नाश्ता किया। स्वाद ऐसा था कि मजा आ गया। चलते चलते पलटन बाजार के चौक पर पहुंचा। शिलांग में पुलिस बाजार, गोरखपुर में उर्दू बाजार --सभी फौज से जुड़े। चौक पर घंटाघर है। ऊपर दो - तीन लोग चढ़े थे। उनके देखा - देखी मैं भी चढ़ गया। अजनवी को देखकर वे चौंक गये। पूछा,"कौन" ? मैंने कहा,"शहर में नया आदमी हूं। यहां से पूरे शहर को नजर घुमा कर एकसाथ देखना चाहता हूं।"वे सफाई वाले थे।एक खिड़की खोल दी। वहां से पूरे शहर को देखा। चारो तरफ छोटी छोटी पहाड़ियां थी, बीच में विस्तृत मैंदान में बसा शहर। तभी उत्तर तरफ से चल कर एक बादल का विशाल काला टुकड़ा नगर पर टंग गया। लगा कि कटोरी जैसी घाटी में दही की साढ़ी जैसे बादल जम गये ‌हों। वहां से उतर कर हाथीबड़कला चला। वहीं कालिदास रोड पर मेरा दफ्तर था,१३-ए बंगले में। तब कालिदास रोड देहरादून का सबसे पोश इलाका माना जाता था। टिहरी के राजा और तमाम सेवानिवृत्त बड़े फौजी अधिकारियों के बंगले वहां थे। जिस बंगले में मेरा दफ्तर था, उसे देख कर चकित रह गया। लगभग एक एकड़ में लीची का बाग था, कुछ आम के पेड़। गेट पर ही चन्दन और कपूर के क ई गाछ। बीच में दक्षिणी किनारे पर एकपलिया लाल बंगला, लंबोतरा। आधे से दफ्तर, आधे में मेरा आवास। देखकर तबीयत खुश हो गई।
मैं गेट खोलकर भीतर घुसा।दफ्तर में घुसते वक्त जिसने मुझे टोका उसका नाम दाता राम काला था। जैसा नाम, वैसा ही रूप। लम्बा, दुबला पतला, चुचका चेहरा, बेहद काला। बाद में पता चला कि वे पितांबर दत्त बड़थ्वाल के गांव के हैं। बड़थ्वाल हिंदी के प्रथम डी लिट् थे। नाथ संप्रदाय पर काम किया था। इसलिए बड़ा नाम था। उनके भतीजे के दो बेटे लखनऊ में मेरे विभाग में तैनात थे। पता चला कि उस गांव के अधिकांश लोग बड़े कुरूप होते हैं। पितांबर जी की संतानें भी बड़ी कुरूप हुईं, बिल्कुल बंदर जैसी और प्रतिभा से शून्य। वे कुछ कर नहीं पाईं। मैं तो उनसे कभी मिला नहीं।
ग्यारह बजे से ज्यादा हो रहा था, पर अठ्ठारह लोगों में सिर्फ तीन लोग हाजिर थे। तो मुझे ठीक बताया गया था कि लोग भरसक दफ्तर आते नहीं, और जो आते हैं, वे दो बजे के बाद दारू पीते हैं और घर चले जाते हैं। इसलिए वहां कुछ काम - घाम नहीं होता। पर बाद में पता चला कि लोग फिल्ड में काम पूरा करके लंच के बाद आते हैं। देहरादून बहुत फैला शहर है। फौज के अड्डे और तिब्बतियों के इलाके बहुत दूर-दूर हैं। इसलिए यह नियम बनाना कि लोग पहले दफ्तर आएं, फिर फिल्ड में जाएं, बहुत उपयोगी नहीं हो सकता था। ड्राइवर आया तो एक व्यक्ति को साथ लेकर स्टेशन गया और अपना सामान ले आया। इस बीच हमारे रहने के हिस्से को ‌साफ-सुथरा कर दिया गया था। रहने के साथ-साथ खाने-पीने की भी समुचित व्यवस्था तुरंत हो गयी।

उसी बंगले के आउटहाउस में बंगले के मालिक के सबसे छोटे बेटे ठाकुर रहते थे। उनका पूरा नाम याद नहीं आ रहा है। वे हम -उम्र थे , इसलिए तुरंत खूब पटने लगी। पता चला कि यह बंगला उनके पिता ने एक अंग्रेज से खरीदा था, जब अंग्रेज भारत छोड़ कर जाने लगे। पिता नेपाली मूल के भारतीय फौज में अफसर थे। बाद में रक्षा मंत्रालय में चले गए थे और डिप्टी सेक्रेटरी होकर सेवा निवृत्त ‌हुए थे और सपरिवार यहां रहने लगे थे। ठाकुर क ई भाई थे, जिनकी आपस में नहीं पटती थी। वे ठाकुर को देखना नहीं चाहते थे, क्यों कि वे एक दूसरी जाति की लड़की से शादी कर लिए थे। मकान किराए पर देने का कारण भी यही था कि वे घर छोड़ कर चले जांय। पर ऐसा हो नहीं पाया। वे आउटहाउस में बने रहे। वे‌ पहले नेपाल पौलिस में थे। कब वह काम छोड़ कर होटल प्रेसिडेंट में नौकरी करते थे। उनसे देहरादून के बारे में काफी कुछ पता चला। यह भी कि देहरादून की कुल जनसंख्या में एक तिहाई नेपाली हैं। उन्होंने कालिदास रोड के तमाम घरों में लेजाकर मेरा परिचय करवाया। ऐसे बहुत कम लोग होते हैं जो अपने पूरे मित्र समाज को नये मित्र को‌सौंप देते हैं।
उसी सड़क पर घूमते हुए मैंने एक दिन एक भव्य ब़गले के सामने नेमप्लेट पढ़ा , "एस.एम. घोष"।मैं चौंका, इसलिए नहीं कि उस सड़क पर किसी बंगाली का होना अजीब था, बल्कि इसलिए कि वह नाम कुछ कुछ जाना था। बांग्लादेश की लड़ाई समाप्त हो जाने के बाद मैं कुछ दिन धुबुड़ी में रुका। बंगाली की पुस्तक रमनी विक्षा में मैं धुबुड़ी की उत्पत्ति की कथा पढ़ चुका था कि नगर का यह नाम एक धोबिन के कारणि पड़ा था, जो यहां ब्रह्मपुत्र के तट पर कपड़ा धोती थी।उस जगह को देखने की मेरी बहुत इच्छा थी। पर कोई दिखा नहीं पाता था। एक दिन मेरे एक मातहत नन्दी (
पूरा नाम भूल रहा हूं ) ने घोषबाड़ी में ले जाने की बात कही। घोष लोग वहां के पुराने जमीनदार रहे हैं, जैसे गौरीपुर और लखीपुर के जमींदार। गौरीपुर घराने से प्रमथेश बरुआ हुए, जिन्होंने पहली देवदास फिल्म बनाई, जिसमें सहगल के गाये गानों को रेडियो सिलोन पर सुनकर हमारी पीढ़ी बड़ी हुई। लखीपुर के जमींदार मन से अंग्रेजों की मातहती स्वीकार नहीं कर पाए। वे दोनों घराने असमिया हैं। घुबुड़ी का घोष घराना बंगाली है। एस.एन.घोष उसी घराने के थे। वे संभवतः पहले आइ.पी.एस. बैच के थे,असम कैडर के। जब नागालैंड को अलग राज्य बनाने का निर्णय गृहमंत्रालय ने लिया तो उन्होंने उसका भरपूर विरोध किया। वे उस वक्त केंद्र के इंटेलिजेंस ब्यूरो में शिलांग में उपनिदेशक के रूप में नियुक्त थे। उनका कहना था कि इससे नगालैंड की समस्या नहीं सुलझेगी, ऊपर से असम के अनेक टुकड़े होने का का रास्ता खुल जाएगा। तत्कालीन आई बी के निदेशक भोला नाथ मलिक ने उनकी दूरदृष्टि की भूरी -भूरी प्रशंसा की है। घोष साहब इस निर्णय से इतना आहत हुए कि आई बी की नौकरी छोड़ दी। फिर असम ही छोड़ दिया। असम सरकार उन्हें आई जी बनाकर रखना चाहती थी। पर वे नहीं माने। देहरादून आकर बस गए। मर गये, पर असम नहीं गये। बोर्ड देखकर लगा कि यह उसी घोष साहब का घर है। इच्छा हुई कि तुरंत उनसे मिलूं। पर हिम्मत नहीं पड़ी। सोचा कि पहले दफ्तरवालों से पता करूंगा, फिर समय लेकर मिलूंगा। दफ्तरवालों को उनके बारे में कुछ पता नहीं था। क ई दिन उनके घर के सामने से गुजरा। फिर एक दिन ठान लिया कि मिलूंगा ही। शाम को उनके घर की कालबेल दबा दी। नौकर के हाथ में अपना परिचय पत्र थमा दिया। कहा कि साहब को देकर कहो कि मैं मिलना चाहता हूं। वे तुरंत बाहर आए। मुझे बैठक में ले गये । आने का उद्देश्य पूछा। वे अंग्रेजी में बोल रहे थे, हिंदी भाषी समझकर। मैं औपचारिकता के बाद बंगाली में बोलने लगा। इससे वे बहुत आकर्षित हुए। मैं चलने को हुआ तो वे बार-बार आने के लिए बोले। यह भी कहा कि क ई वर्षों से सुनता हूं कि आप लोगों का दफ्तर यहां है। पर कभी कोई नहीं आया। आप पहले आदमी हैं। फिर मैं अक्सर वहां जाने लगा।

महीने भर के भीतर मैंने उन तमाम लोगों से संबंध बना लिया जो मेरी नौकरी में काम आने वाले थे, फिर रुटीन काम में लग गया। मुझसे उम्मीद की गई थी कि मैं सेना से विशेष संबंध बना कर रखूंगा, जिसका मुझे विशेष अनुभव ‌था और देहरादून में इसकी बेहद कमी थी। इसी सिलसिले में मेजर प्रभाकर से‌मुलाकात हुई। वे मराठी मूल के इलाहाबादी थे। विद्यार्थी जीवन में बहुत अच्छ फुटबाल खेलते थे और क ई वर्षों तक यू.पी. एलेवेन में रहे। मुझे फुटवाल का खेल देखना बहुत अच्छा लगता था, क्योंकि स्वयं अच्छा खेल नहीं पाता था। प्रभाकर लेफ्ट आउट पोजीशन से खेलते थे और बहुत ही अच्छा ग्रासकट किक मारते थे। मैं उनका प्रशंसक था और थोड़ी जान-पहचान हो गयी थी। कोई ग्यारह वर्षों बाद मिलने पर लगा कि जैसे वह जान-पहचान दोस्ती हो। एकदिन दोपहर बाद वे अपने कलीग कप्तान के.पी.सिंह के साथ मिलने आये। हम उनको लेकर लान में बैठ गये और एक मातहत को चाय वगैरह की औपचारिकता के लिए सहेज दिया और कमरे से बिस्कुट वगैरह लाने के लिए भेजा। काफी देर हो गयी, पर वह आया नहीं। उधर प्रभाकर चलने की बात करने लगे। एक दूसरे आदमी को भेजकर सामान मंगा खातिरदारी की औपचारिकता पूरी की। उनके चले जाने के कुछ देर बाद वह आदमी मेरे सोने के कमरे से बाहर आया और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। मुझे उसपर क्रोध तो बहुत आया पर, उस पर नियंत्रण कर कहा,"जाओ"। वह वैसे ही हाथ जोडे खड़ा रहा। मैंने फिर कहा कि जाओ। उसने कहा कि मैं एक बात कहना चाहता हूं साहब। मैंने कहा, "मैं समझ गया हूं, जाओ।" "नहीं साहब आप मुझे क्षमा कर दें।"
"कर दिया "
वह थोड़ा खिसिया कर हंस कर कहा,"मैं क्षमा उसके लिए नहीं मांग रहा हूं कि चाय की व्यवस्था नहीं कर पाया। उसके लिए तो जो सजा दें, भुगतने के लिए तैयार हूं। मैं क्षमा दूसरी बात के लिए मांग रहा हूं।"
मैं चौंका और प्रश्नवाची निगाहों ‌से देखा। उसने कहा, " मैंनै आपकी डायरी पढ़ी है।"
मुझे ख्याल आया कि सुबह डायरी मेज पर खुली छोड़ दी थी। वही पढ़ा होगा। कहा, "कोई बात नहीं। उसमें तो बस इधर-उधर की बातें लिखीं हैं, कुछ प्रकृति के चित्र वगैरह..."
"नहीं साहब, यदि उनमें थोड़ा सुधार कर दिया जाय, थोड़ी सिमेट्री बदल दी जाय तो वे अद्भुत कविताएं बन जाएंगी।"
मैं उसके 'सिमेट्री'शब्द के प्रयोग पर चौंका, पर कहा कि तुम कविता के बारे में क्या जानते हो?
तभी दाता राम काला अपने स्थान से बैठे ही बोले,"यह बहुत अच्छा गाता है साहब!"
मैं क्षण भर के लिए सोचता रहा, फिर कहा, "ठीक है दफ्तर के ‌बाद इनका गाना सुनते हैं।"
जब वह जाने लगा तो मैंने उसे गौर से देखा : कंधे ‌से नीचे तक लटकते बाल, दुबली -पतली लचकती काया। ससुर नचनिया ही ‌होंगे--मन-ही-मन कहा।
दफ्तर बंद कर सभी ल़ोग लान में बैठे। शाम होने में देरी थी। पश्चिम तरफ आसमान साफ था, इसलिए वृक्षों की परछाइयों से लान ‌भरा था। पूरब तरफ से बादल का एक पारदर्शी टुकड़ा आ कर स्थिर हो गया था। उत्तर की तरफ से हवा बह रही थी, न ठंडी, न गर्म। दक्षिण तरफ के आम के पेड़ पर धामिन (घोड़ा पछाड़) सांप चिड़िया के पुराने घोंसले में जीभ डाल रहा था। उसने गाना शुरू किया," जिंदगी है एक शिकन रुमाल की/देखते ही देखते उड़ जाएगी यह चिरैया डाल की'। गाना समाप्त किया तो मैंने कहा,"यह तो कुंवर बेचैन की कविता है।"
उसने कहा,"वे मेरे मित्र हैं।"
मैं चौंका, सहसा विश्वास ही नहीं हुआ। कहां वे पोस्ट-ग्रेजुएट कालेज में प्राध्यापक और कहां यह जुनियर अफसर! पूछा,"कैसे?"
उसने बताया कि हम एकसाथ मंचों पर जाते हैं।
"तुम खुद गीत लिखते हो?"
"जी हां।"
"सुनाओ"
उसने सुनाया : दर्द मेरा मनमीत बन गया
सुधियों के आंगन में पल कर
गंगाजल सा पुनीत हो गया.....
उसकी आवाज में जो खनक थी, वह अद्वितीय थी, जो वेदना थी उससे सबकी आंखें नम हो गई। मुझे विश्वास हो गया कि यह कोई सामान्य आदमी नहीं है। मुझे अपने अबतक के व्यवहार पर बड़ा पछतावा हुआ। मैं क्षमा तो नहीं मांग सका, पर आगे बहुत विनीत हो गया। उसका नाम राजगोपाल सिंह था।



एक दिन सुबह राजगोपाल सिंह आये और मेरी डायरी ले गये। दो-तीन घंटे तक पढ़ते रहे और निशान लगाते रहे। मुझे लौटाते हुए कहा कि जहां -जहां निशान लगाया है उनको यदि एक सिमेट्री में लिखा जाय तो अच्छी कविताएं बन जाने की संभावना है। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उसने निशान उन्हीं अंशो पर लगाया है, जिन्हें लेकर मैंने कुछ कविताएं अंग्रेजी में लिखी थीं शिलाङ में १९७४-७५ में जो इलुस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया में छपी थीं। पर तब मैंने कवि बनने के लिए नहीं सोचा था।(शिलाङ प्रसंग की चर्चा कभी मैं अलग से करूंगा। वैसे वह रघुवीर शर्मा को दिये साक्षात्कार में आया है और डा. सुरेश चंद्र संपादित 'रचनाधर्मिता की परख' में संकलित है।) इससे मुझे लगा कि उसे कविता के बारे में --कथ्य और शिल्प, दोनों स्तरों पर-- गहरी जानकारी है, मुझमें कवि बनने की प्रतिभा देख रहा है और उसे बाहर लाना चाह रहा है।
मैंने उसका विस्तृत परिचय पूछा। पता चला कि वह रूड़की के पास मंगलौर के एक गांव का रहनेवाला है। जाति का नाई है। पिता हमारे ही विभाग में अधिकारी हैं दिल्ली में तैनात। गाजियाबाद के एक कालेज से हिंदी साहित्य में एम.ए. प्रिवियस तक पढ़ा है। पढ़ाई पूरी नहीं कर पाया क्योंकि पिता की कमाई से घर नहीं चल पाता था। उन्होंने बड़े अधिकारियों से कह कर इस पद पर रखवा दिया। ट्रेनिंग के बाद पोस्टिंग काला पानी, धारचूला, माना आदि में होती रही। पिछले दो साल से देहरादून में है। तीन बच्चे हैं। उन्हें किसी तरह से जिला रहा हूं। कविता लिखना पढ़ते समय से ही शुरू कर दिया था। उसी समय से आज के गीतकारों से परिचय होने लगा था। पर महत्व सिर्फ कुंवर बेचैन को देता हूं। कविता ‌सिर्फ उनके गीतों में ‌है। दूसरे गला और चुटकुला के बल पर कमाते - खाते हैं। उसने यह भी बताया कि देहरादून में कुछ बड़े अच्छे साहित्यकार हैं। उन सबसे उसका परिचय है मैं चाहूं तो वह सबसे परिचय करा सकता है। उनसे मिलने - जुलने से रचना में निखार आएगा, उनके वजन का पता चलेगा, आज की प्रवृत्तियों का ज्ञान होगा, आगे बढ़ने का मौका मिलेगा। मैं साहित्य की इस दुनिया को देखने के लिए अपने को मन ही मन तैयार किया।

राजगोपाल ने प्रतिदिन किसी न किसी साहित्यकार के यहां चलने की योजना बनाई। राय दी कि उनसे भरसक उनके घर जाकर मिला जाय और घर सरकारी वाहन से न जाया जाय। घर पर मिलने से आत्मीयता बढ़ेगी। सरकारी वाहन से जाने पर एक तो अगल-बगल के लोगों का अनावश्यक ध्यान खिंचेगा, दूसरे जिसके घर जाएंगे वह महत्वपूर्ण आदमी आया जानकर स्वागत और औपचारिकता ‌ में लगा रहेगा, इससे आत्मीयता नहीं ‌‌स्थापित हो पाएगी , जो हमारा उद्देश्य है। मुझे उसकी बात में दम लगा। लगा कि वह सामाजिक व्यवहार के बारे में कितना अनुभव रखता है। वैसे भी उन दिनों सिर्फ तीस लीटर पेट्रोल मिलता था महीने भर में जो दफ्तर के काम के लिए भी पूरा नहीं पड़ता था। उन दिनों मेरे पास क्रुसेडर मोटरसाइकिल थी, फिरोजी रंग की चमकती हुई, जिसे मैं शिलाङ से लाया था। अभी चलाने में उतना पारंगत नहीं हुआ था। कुछ दिन अभ्यास करने में लगाया। राय दिया कि वह अपने बाल कटा डाले, रोज दाढ़ी बनाये। जमाना छायावाद का नहीं था कि सुमित्रानंदन पंत या रवींद्रनाथ टैगोर की तरह लंबे बाल रखे जांय और और उर्दू के कवियों की तरह गम में डूबा दिखा जाय। उसने मेरी बात पर अमल किया।
हम जिया नहटौरी से मिलने पहले गये कि सुखबीर विश्वकर्मा से, ख्याल नहीं आ रहा है। दोनों पल्टन बाजार के घंटाघर के दक्षिण काम करते थे। घंटाघर से जो सड़क सीधे दक्षिण जाती है, उसी पर कोई दो सौ मीटर चलकर जिया का स्टूडियो था, एक पुराने मकान की दूसरी मंजिल पर। फोटोग्राफी उनकी जीविका का साधन थी। हम पहुंचे तो लगा कि जैसे वे प्रतीक्षा कर रहे हैं। शायद राजगोपाल उन्हें सुबह दफ्तर आते वक्त बता आए थे। नाटा कद, दाढ़ी -मूंछ सफाचट, सफेद कुर्ता -पायजामा, पान से रंगे दांत और होठ। बड़ी गर्मजोशी से मिले। परिचय के बाद खुल कर बातें करने लगे, समकालीन उर्दू कविता के बारे में। अब मैं अमीर अली का उर्दू साहित्य का इतिहास अंग्रेजी में पढ़ चुका था, जिसमें अंतिम कवि के रूप में मोहम्मद इकबाल का जिक्र था। उसके आगे मेरे लिए सबकुछ नया था, इसलिए काफी जिज्ञासा थी। अंत में उन्होंने ग़ज़ल कहने का सुझाव दिया और उसका व्याकरण सिखा देने का वादा किया। पहली ही मुलाकात में हम इतने खुले कि आगे मुझे जब भी मौका मिलता था, नि: संकोच टाइम -बेटाइम उनके पास चला जाता था।
सुखबीर विश्वकर्मा से मुलाकात उनके वैंग्वार्ड प्रेस में हुई। घंटाघर से सीधे जो सडक पश्चिम जाती है, उसी पर कुछ दूर चलकर एक छोटा -सा खुला मैंदान था, जिसके दक्षिण तरफ वह प्रेस था, जहां वे काम करते थे।वैंग्वार्ड एक चार पेजी साप्ताहिक था, जिसके तीन पन्ने अंग्रेजी के होते थे, एक पन्ना हिंदी का, जिसमें कुछ साहित्य भी छपता था। बाद में वह दैनिक हो गया। सुखबीर विश्वकर्मा उस पन्ने के संपादक थे। पता चला कि वे स्वयं ठीक -ठाक कविताएं नहीं लिखते , पर कविता के बारे में उनका ज्ञान अच्छा-खासा है। नाटा कद, कुछ ज्यादे ही नीला रंग, ऊपर से ललछ ऊं, आगे के कुछ दांत गायब, बाकी पीक से रंगे, काफी हद तक गंजा सिर, चौकोर चेहरा लगभग सपाट, ठुड्डी नुकीली, नाक उठी हुई, काइयां आंखें, पूरे चेहरे पर सामने वाले के प्रति उपेक्षा का भाव। हम जब पहुंचे तो वे काम में व्यस्त थे, अखबार छप रहा था, वे फाइनल टच दे रहे थे। खाली हुए तो परिचय हुआ, कुछ बातें हुईं, चाय पीया गया। जब हम चलने लगे तो उन्होंने कहा,"जो भाषा आप बोलते हैं, उसमें कविता नहीं लिखिएगा। जो भाषा हम लोग बोलते हैं, उसमें लिखिएगा। मेरी जिज्ञासा स्वाभाविक थी, "क्यों?" "यह भाषा छायावादी है।" मैंने पहली बार जाना कि भाषा भी बीरगाथाकालीन, भक्तिकालीन, रीतिकालीन, भारतेंदु कालीन, छायावादी आदि होती है और मुझे समकालीन सामान्य लोगों की भाषा में लिखना है। उन दिनों मैं संस्कृतनिष्ठ भाषा बोलता था, जिसे लोग चेस्ट हिंदी कहते थे।

छुट्टी का दिन था। राजगोपाल सिंह सुबह- सुबह आ गये। आते ही बोले, " भाई साहब एक ग़ज़ल हुई है"। इधर वे थोड़ा बेतकल्लुफ़ हो गये थे और अकेले में कभी-कभी भाई साहब कह देते थे, विशेषकर जब वे खुशी से उत्तेजित होते थे। पहले अपपटा लगता था, अब नहीं। मैं नाश्ता करके उठा ही था। आगे का काम स्थगित कर ग़ज़ल सुनी जा सकती थी। कहा,"सुनाएं।" जो ग़ज़ल उन्होंने सुनाई, वह यूं थी :
कुछ नया करके दिखाना चाहता है आदमी
मारकर खुद को जिलाना चाहता है आदमी
अपनी दीवारों को ऊंचा और करने के लिए
दूसरों के घर गिराना चाहता है आदमी
सौंप कर सत्ता समूची हाथ में अंधियार के
रोशनी के पर जलाना चाहता है आदमी
भाषणों की रोटियों को फेंक कर माहौल में
आग पानी में लगाना चाहता है आदमी
खींच कर जम्हूरियत से कुव्वते गुफ्तार को
अम्न की दुनिया बसाना चाहता है आदमी
शहर का इक खूबसूरत चित्र क्यों इसको दिखा
गांव को फिर बर्गलाना चाहता है आदमी
(बाद में उन्होंने जिआ नहटौरी के सुझाव पर पहले शै'र की दूसरी पंक्ति बदल दी --हाथ पर सरसों उगाना चाहता है आदमी। फिर इसे पहली पंक्ति बनाकर, पहले की पहली पंक्ति को दूसरा बना दिया। और बाद में साकिब बरेलवी के सुझाने पर पांचवा शे'र हटा दिया। ग़ज़ल शायद पांच शे'रों की ही स्तरीय मानी जाती है। इसी रूप में यह ग़ज़ल उनके संग्रह "ज़र्द पत्तों का सफर" में छपी है।)
मैंने उन्हें गाकर सुनाने के लिए कहा। उसे सुनकर कैंपस के सभी ल़ोग उपस्थित हो गये। उम्मीद थी कि उनकी फरमाइश पर यह सिलसिला लंबा चलेगा, पर बात यहीं थम गई जब उन्होंने तुरंत प्रस्तावित किया कि सुभाष पंत से मिलने चलते हैं। वे यहीं पास में रहते हैं। मुझे तुरंत जाना ठीक न लगा। छुट्टी का दिन है, देर से उठे होंगे, नहाना -धोना चल रहा होगा, कुछ घरेलू काम होगा। मैं टालना चाहता था, पर राजगोपाल सिंह ने कहा कि ऐसे सोचते रहेंगे तो कभी किसी से मिलना नहीं हो पाएगा। बात तो ठीक थी। मैं चलने के लिए तैयार हो गया।
डोभालवाला गांव कालिदास रोड के दक्षिणी छोर पर स्थित है, मेरे आवास से मुश्किल से हजार कदमों की दूरी पर। पहले वह गांव रहा होगा, अब पोश शहर का हिस्सा है। पंत जी का घर पाश ही था। उनकी दो-तीन कहानियां मैं सारिका में पढ़ चुका था और "गाय का दूध" की विशेष स्मृति थी। उसी के लेखक की छवि लिए मैं उनके घर पहुंचा। वे अपने कैंपस की झाड़ियां साफ कर रहे थे। राजगोपाल सिंह से परिचित थे। राजगोपाल ने छूटते ही कहा,"मैं मिश्र जी को ले आया हूं।" अभिवादन के बाद वे अपनी बैठक में ले गये। दुबली पतली काया, नाटा शरीर, फोकचिआए गाल, टिपिकल पहाड़ी रंग, खूब छोटे -छोटे बाल, दृढ आवाज, सधे कदम, हाथ की मुठ्ठी बंधी हुई, स्वयं आत्मविश्वास से भरे हुए।

सुभाष पंत उन दिनों एक कहानी लिख रहे थे 'समुद्र' या 'महासमुद्र' शीर्षक से। उसमें वे नेता और निचले तबके के लोगों की बढ़ती जा रही खाई का जिक्र किया था, जिसमें जनता का विशाल समुद्र भरता जा रहा था, जिसके परिणामस्वरूप न तो लोग अपनी जरूरत नेता को बता पा रहे थे और न ही नेता द्वारा प्रदत्त लाभ उनतक पहुंच पा रहा था। उसके कच्चे रूप को उन्होंने सुनाया। बताया कि वे कहानी को पहले मन ही मन पूरा लिख डालते हैं, फिर कागज पर उतारते हैं।यह मेरे लिए एक व्यावहारिक इशारा था। उन्होंने मुझसे कुछ कविताएं सुनाने के लिए कहा।कहा कि रचनाकार की पहचान रचना ही होती है। तबतक मेरे पास कोई कविता थी नहीं। याद नहीं है कह कर तोप-ढाक किया।
जिनसे अच्छा निभना होता है उसकी बुनियाद अक्सर पहली मुलाकात में ही पड़ जाती है। पंत जी के साथ भी ऐसा ही हुआ। वे इंडियन फारेस्ट इंस्टीट्यूट में वैज्ञानिक थे। बाटनी में एम. एससी. हैं । लिखने लगे तो हिंदी में भी एम.ए. कर लिया, जिससे कि दृष्टि साफ हो जाय। वह साफ दृष्टि उनकी रचनाओं में उजागर है। उपन्यास "पहाड़ चोर" उसका उत्तम उदाहरण है। खैर, दफ्तर से आने के बाद फ्रेश होकर वे अक्सर मेरी तरफ आ जाते थे, या मैं उनकी तरफ जला जाता था। हम टहलते हुए साहित्य पर बातें करते थे, जो मेरे लिए बहुत लाभदायक सिद्ध हुईं। ऐसी ही बातचीत के दौरान उन्होंने मुझे धूमिल और मुक्तिबोध की कविताओं को पढ़ने की राय दिया। दोनों का नाम मैंने सुन रखा था, पर पढ़ा कुछ नहीं था। कांग्रेस पार्टी के दफ्तर के पास ही किताबों की एक अच्छी दुकान थी, शायद अब भी ‌हो । करेंट या माडर्न बुक डिपो नाम था। धूमिल का संकलन "संसद से सड़क तक" वहां मिल गया। पर मुक्तिबोध की पुस्तक नहीं मिली। शुरू में ही तीन पंक्तियां उद्धृत थीं: "कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है", "कविता भीड़ में बौखलाए हुए आदमी का एकालाप है", और एक पंक्ति थी जो फीलवक्त याद नहीं आ रही है। इन पंक्तियों को पढ़ कर मैं झन्न से रह जाता था। आकर्षित करती थीं, झटका देती थीं, पर उनका अर्थ गोचर नहीं होता था, एक-एक शब्द का अलग -अलग अर्थ जानने के बावजूद। मैंने फिर भी पुस्तक पढ़ी। राजगोपाल सिंह ने एक दिन उस पुस्तक को मेरी मेज पर देखा तो पूछा,"कुछ समझ में आता है?" मैंने नहीं कहा तो उन्होंने भी बताया कि वे क ई बार पढ़ चुके हैं, पर कुछ पल्ले नहीं पड़ा है। बल्कि सविता जी से भी पूछा है, पर वे भी कुछ ठीक से समझा नहीं पाये। कहे कि यह किसी बड़े ही प्रतिभा सम्पन्न आदमी की उल्टी है। सविता जी राजगोपाल के फूफा थे, जो रुड़की या मुजफ्फरनगर के किसी कालेज में अंग्रेजी साहित्य पढाते थे। स्वयं भी अंग्रेजी में कविताएं लिखते थे। बाद में जब वे संकलित होकर प्रकाशित हुईं त़ो उस पुस्तक की भूमिका मैंने लिखी थी। बाद में इन कविताओं का अर्थ तब गोचर हुआ जब मैं इलाहाबाद आया।