Thursday, March 28, 2013
Wednesday, March 20, 2013
मैं हूँ उन सब भाषाओं का जोड़: अवधेश कुमार की याद (१)
अवधेश कुमार हिन्दी की कुछ विलक्षण प्रतिभाओं में थे.कवि, चित्रकार,
कहानीकार,नाटक कार और रंगकर्मी अवधेश के नाम हिन्दी की कितनी ही प्रसिद्ध /अप्रसिद्ध पुस्तकों के आवरण पृष्ठ
भी दर्ज हैं .कितनी ही पत्रिकाओं में उनके रेखाचित्र बिखरे पडे हैं.१४ जनवरी १९९९में
यह दुनिया छोड़ चले अवधेश पर ‘लिखो यहाँ-वहाँ’ की विशेष शृँखला में आज प्रस्तुत हैं उनके दो गीत
मैं हूँ
जितने सूरज उतनी ही छायाएँ
मैं हूँ
उनसब छायाओं का जोड़
सूरज के भीतर का अँधियारा
छोटे-छोटे
अँधियारों का जोड़
नंगे पाँव चली
आहट उन्माद की
पार जिसे करनी
घाटी अवसाद की
एक द्वन्द्व का भँवर
समय की
कोख में
नाव जहाँ
डूबी है
यह संवाद की
जितने द्वन्द्व कि
उतनी ही भाषाएँ
मैं हूँ उन सब भाषाओं का जोड़
उग रही है घास
उग रही है घास
मौका है जहाँ
चुपचाप
जहाँ मिट्टी में जरा सी जान
है
जहाँ पानी का जरा सा नाम है
जहाँ इच्छा है जरा-सी धूप
में
हवा का भी बस जरा-सा काम
बन रहा आवास
मौका है जहाँ
चुपचाप
पेड़ सी ऊँची नहीं ये बात है
एक तिनका है बहुत छोटा
बाढ़ में सब जल सहित उखड़े
एक तिनका ये नहीं टूटा
पल रहा विश्वास
मौका है जहाँ चुपचाप
लेबल:
अवधेश कुमार,
गीत,
देहरादून
Saturday, March 16, 2013
Thursday, March 14, 2013
Saturday, March 9, 2013
नरेश सक्सेना की कविता
(नरेश सक्सेना की यह कविता इधर प्रकाशित हुई कविताओं में बेजोड़ है.लगभग दो वर्ष पूर्व यह पहली बार आधारशिला में प्रकाशित हुई थी.महाकाव्यात्मक क्षितिजों को छूती यह कविता उनके संग्रह सुनो चारूशीला से ली गयी है)
पहाड़ों के माथे पर बर्फ़ बनकर जमा हुआ,
यह कौन से समुद्रों का जल है जो पत्थर बनकर,
पहाड़ों के साथ रहना चाहता है
मुझे एक नदी के पानी को
कई नदियाँ पार करा के
एक प्यासे शहर तक ले जाना है
नदी को नापने की कोशिश में
जहाँ मैं खड़ा हूं
वहाँ वह सबसे अधिक गहरी है
गहरे पानी से मैं डरता हूं ,क्योंकि
तैरना नहीं आता
लेकिन सूखी नदियों से ज्यादा डर लगता है
पूरी नदी पत्थरों से भरी है
जैसे कि वह पानी की नहीं , पत्थरों की नदी हो
अचानक शीशे की तरह कुछ चमकता है
एक खास कोण पर
हर पत्थर सूर्य हो जाता है.
चन्द्रमा हो जाता होगा, चाँदनी रातों में ,
हर पत्थर
यह इलाका परतदार चट्टानों का है
जिन्हें समुद्र की लहरें बनाती हैं
पता नहीं किस उथल-पुथल और दबाव में
मुसीबत की मारी, यह चट्टानें,
इस उँचाई पर आ पहुँची हैं
लेकिन समुद्र इन्हें भूला नहीं है.
लगातार छटपटाते,जब हो जाता है बर्दाश्त के बाहर
तो वह उठ खड़ा होता है,एक दिन
घनघोर गर्जनाएँ करता हुआ
वह उठ खड़ा होता है ,कि बिजलियाँ चमकती हैं
बिजलियाँ चमकती हैं
कि वह पहाडों को बाहों में भर लेता है
और डोल उठता है
भारी मन
भारी मन चट्टानों का डोल उठता है कि वे
पानी की उँगली थामे
डगमाती,फिसलती और गिरती
हुईं
चल पड़ती हैं ,छलाँगें लगाती खतरनाक ऊँचाइयों से
बिना डरे,तेज़ ढलानों
पर तो इतनी तेज़
कि पानी से आगे-आगे दौड़ती हुई
कहती हुई कि देखें पहले कौन घर पहुँचता है.
हर पत्थर समुद्र की यात्रा पर है
जो गोल है, वह लम्बी दूरी
तय करके आया है
जो चपटा या तिकोना है,वह नया सहयात्री है.
मेरी उपस्थिति से बेखबर, सभी पत्थर
नंगधड़ंग और पैदल
टकटकी लगाये आकाश पर.
हर रंग के,छोटे और बड़े,सीधे और सरल
कि जितने पत्थर भीतर से
उतने ही पत्थर ऊपर से
टूतने के बाद भी पत्थर के पत्थर
हाँ,
अपनी भीतरी तहों में छुपाये हुए बचपन की यादें
मछलियों और वनस्पतियों के जीवाश्म
शंख और सीपियाँ और लहरों के निशान
ध्यान देने पर पानी की आवाजें भी सुनी जा सकती थीं
हर पत्थर एक शब्द था
हर शब्द एक बिम्ब
हर बिम्ब की अपनी खुशबू और छुअन और आवाज
जिनके अर्थ बजने लगे मेरी हड्डियों में
मुझे अपने पूर्व जन्मों की याद दिलाते हुए
पत्थरों की उस नदी में डूब कर
याद आयी सोन रेखा
जिसे अपने छोटे-छोटे पाँवों से पार किया करता था
याद आये कितने ही चेहरे, और आँगन और सीढ़ियाँ और रास्ते
हम कितनी जल्दी भूल जाते हैं
अपने रिश्ते
पत्थर नहीं भूलते.
तभी पानी की कुछ बूँदें मेरे माथे पर पड़ीं
“बारिश शुरू हो गयी है,सर,निकल चलिये,”साथी इंजिनियरों ने कहा,
“बारिश के मौसम में पहाड़ी नदियों का भरोसा नहीं किया जा सकता.”
“मनुष्य का भरोसा किस मौसम में किया जा सकता है”
यह उनसे पूछना बेकार था.
अँधेरा घिर आया था
पत्थरों को छूकर बहते पानी के संगीत का रहस्य
धीरे-धीरे खुल रहा था
पत्थरों और पानी की इस जुगलबन्दी में
कितनी आवाज़ पत्थरों की थी
कितनी पानी की
यह जानना असम्भव था
रात देर तक गूंजता रहा पत्थरों का कोरस
“जा रहे हैं
हम उस पथ से कि जिससे जा रहा है जल
रेत होते ही सही,हम जा रहे हैं
जा रहे
हम जा रहे
घर जा रहे हैं.”
लेबल:
कविता,
नरेश सक्सेना,
सुनो चारूशीला
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