''आओ तुम्हे एक कहानी सुनाता हूं।"
दरवाजे पर पहुचा ही था कि भीतर से बाहर निकल कर मिलने के बाद उत्साह से भरे उनके कथन पर उनके पीछे-पीछे कम्पयूटर पर जाकर बैठ गया। नये वर्ष के शुरुआत के बाद से यह पहली मुलाकात थी उनसे, 12 जनवरी 2007 की दोपहर।
कम्प्यूटर पर बज रहे गीतों की मधुर स्वर लहरियों की गूंज जो मेरे पहुचने से पहले तक कथाकार सुभाष पंत के भीतर रचनात्मकता की लहर बनकर उठ रही थी, थम गयी। पंत जी से मिलने जब भी पहुॅचो- किसी ऐसे समय में, जब दोपहर का शौर सड़कों पर मौजूद हो, तो पाआगे कि या तो धूप सेंक रहे हैं, या फिर कम्प्यूटर से उठती स्वर लहरियों को सुन रहे हैं। संगीत के प्रति उनका यह गहरा अनुराग, आम तौर पर उनके चेहरे पर फैली निरापद खामोशी में शायद ही किसी ने सुना हो- कभी।
मैं भी उनके इस भीतरी मन से ऐसे ही समय में परिचित हुआ हूं। वरना उन्हें देखकर मैं तो कभी अनुमान भी नहीं लगा सकता था कि संगीत, सुभाष जी के जीवन का अभिन्न हिस्सा है। कम्प्यूटर पर बैठते ही उन्होंने 'प्लेयर" ऑफ कर दिया और स्क्रीन पर फिसलते माऊस की परछाई से वह फाईल खोली जिसमें कथा का पहला अध्याय लिखा जा चुका था। दीमागों में बनती झोपड़ पट्टी। 1990 के थोड़ा पहले लगभग 1984-85 से शुरु हुआ साम्प्रदायिक राजनीति का वह दौर, जिसने राम स्नेही (कथापात्र) जैसे लोगों के भीतर झोपड़पटि्टयों का जंगल उगाना शुरु कर दिया।
सुभाष पंत कथाकार हैं। इतिहासविद्ध या समाजशास्त्री नहीं। इतिहास और समाज उनकी कथाओं में तथ्यात्मक रूप में नहीं है, बल्कि तथ्यात्मकता से भी ज्यादा प्रमाणिक। "गाय का दूध" उनकी पहली कहानी है।
सुभाष पंत जी ने लिखना बहुत देर से शुरू किया। एक हद तक व्यवस्थित जीवन की शुरूआत के बाद से । देहरादून में उस दौर के लिक्खाड़ों में सुरेश उनियाल, अवधेश कुमार आदि लोग रहे। लिखना शुरू करने से पहले सुभाष जी का उनसे कोई परिचय नहीं था। वह तो एम एस सी करने के बाद न जाने कौन-सा क्षण रहा जब सुभाष जी साहित्य की गिरफ्त में आ गये। पढ़ने का शौक, लिखने की कार्यवाही तक तन गया। बस कहानी लिखी और उस समय की प्रतिष्ठित पत्रिका 'सारिका" को भेज दी। पत्रिका के सम्पादक कमलेश्वर जी का स्वीकृति पत्र प्राप्त हुआ तो बल्लियों उछलने लगे और जा पहुॅचे लिक्खाड़ों की महफिल- 'डी लाईट"। जहां चाय की चुस्कीयों के साथ साहित्य की गरमागरम बहस में मशगूल थे देहरादून के लिक्खाड़। वे सब पहले ही छपने लगे थे। संभवत: अवधेश की कविताऐं चौथे सप्तक में शामिल हो चुकी थीं और प्रतिष्ठा के घुंघरू उनकी पदचाप पर बजने लगे थे।
लिक्खाड़ों की महफिल में एक से एक लिक्खाड़ थे। उनकी साहित्यिक दादागिरी को चुनौति अपनी रचना के किसी प्रतिष्ठित पत्रिका में छपवाकर ही दी जा सकती थी। लेकिन सुभाष पंत चुनौति देने के लिए नहीं बल्कि अपने को स्वीकार्य बनाने के लिए पहुॅचे थे। डरे-सहमे से कोने में दुबककर बैठ गये और सुनते रहे लिक्खाड़ों के किस्से।
''मेरी कहानी भी सारिका में आ रही है।"
उनकी मरियल-सी आवाज पर मण्डली थोड़ा चौंकी। उनके चेहरे पर संकोच और मण्डली के आतंक से उभरते भावों में आत्मविश्वास की कोई ऐसी लकीर नहीं थी कि मण्डली विचलित होती।
''अच्छा।" सुरेश उनियाल ने कहा, ''कौन-सी कहानी ?"
''दूध का दाम।"
पत्रिका के सम्पादक, कमलेश्वर जी का स्वीकृति पत्र, जो कमीज की जेब में फड़फड़ा रहा था, बाहर आ गया। उत्सुकता से सभी ने देखा। और उसी दिन से लिक्खाड़ों की मण्डली में एक और गम्भीर लेखक हो गया शामिल। वहीं जाना समकालीन साहित्य को पूरी तरह।
वह दौर 'सामांतर कहानी" का दौर था। सुभाष पंत सामांतर कहानी आंदोलन के महत्वपूर्ण लेखकों में शुमार रहे । उस समय देहरादून का साहित्यिक-सांस्कृतिक परिदृश्य बदल रहा था। आधुनिक विधाओं के साथ, देहरादून का युवा मानस, अपने को जोड़ने की बेचैनी में कुलबुला रहा था। बंशी कौल का देहरादून आगमन हुआ। व्यवस्थित तरह से नाटकों का सिलसिला भी तभी से शुरु हुआ। कवि अवधेश कुमार की राय पर सुभाष पंत ने अपनी ही कहानी 'चिड़िया की आंख" का नाट्यांतर किया। जिसके ढेरों प्रदर्शन हुए। उसके बाद लिखने-लिखाने का जो सिलसिला शुरु हुआ तो कहानियों का संग्रह 'इककीस कहानियां", 'जिन्न तथा अन्य कहानियां", ''मुन्नी बाई की प्रार्थना", उपन्यास - 'सुबह का भूला", 'पहाड़ चोर" , सुभाष पंत की रचनात्मकता के उल्लेखनीय पड़ाव बने। उनकी रचनात्मकता के वैभव को पुरस्कारों की फेहरिस्त में नहीं बल्कि उनकी पक्षधरता के मिजाज में देखा जा सकता है।
सुभाष पंत 'समांतर" कहानी आंदोलन के दौर के एक महत्तवपूर्ण हस्ताक्षर हैं। समांतर कहानी आंदोलन की यह विशेषता रही है कि उसने निम्न-मध्यवर्गीय समाज और उस समाज के प्रति अपनी पक्षधरता को स्पष्ट तौर पर रखा है। ऐसे ही कथानक और ऐसे ही समाज के जननायकों को सुभाष पंत ने अपनी रचनात्मकता का केन्द्र बिन्दु बनाया है। या कहा जा सकता है कि सामान्य से दिखने वाले व्यक्तियों की जीवन गाथा ही उनकी रचनात्मकता का स्रोत है।
इतने साधारण लोग जो नाल ठोंकते हुए घोड़े की लात खाकर जीवन से हाथ धो बैठने को मजबूर हैं। बाजार बंद हो जाने का ऐलान जिनके लिए न बिकी तरकारी का खराब हो जाना है और चिन्ता का कारण हो, कच्चे दूध का खराब हो जाना, जिनकी एक मुश्त पूंजी का ढेर हो जाना हो, या फिर जिनकी जेब इस कदर खाली हो कि बाजार का बंद होना जिनके चूल्हे का बिना सुलगे रह जाना हो और जिनके तमाम संघर्ष उनकी कोहनियों से कमीज का फटना भी न रोक पायें। ऐसे ही सामान्य लोगों की जिन्दगी में झांकते हुए उनको समाज के विशेष पात्रों के रुप में स्थापित करने की कोशिश सुभाष पंत की कहानियों में स्वाभाविक तौर पर दिखायी देती है।
पिछले लगभग पचास वर्षों में सरकारी और अर्द्ध-सरकारी महकमों की बदौलत पनपे मध्यवर्ग और इसी के विस्तार में अपरोक्ष रुप से पनपे निम्न-मध्यवर्ग के आपसी अन्तर्विरोधों को बहुत ही खूबसूरत ढंग से सुभाष पंत ने अपनी कहानियों में उदघाटित करने की कोशिश की है। उनके कथा पात्रों के इतिहास में झांकने के लिए पात्रों के विवरण, उनके संवाद, उनके व्यवसाय और उनकी आकांक्षओं के जरिये पहुचा जा सकता है- ''उसके पास बेचने को कुछ भी नहीं था। बदन पर एक खस्ताहाल कमीज और पैंट थी और पैरों में टूटी चप्पल। जाहिर है इसमें कोई भी चीज बिक नहीं सकती थी।" उनकी कहानियो मे एसे टुकडो की भरमार है.
इस तरह से देखें तो 1947 के पहले जो पात्र प्रेमचंद के यहॉ होरी, धनिया, गोबर, निर्मला के रुप में दिखायी देते हैं, बाद के काल में वही पात्र सुभाष पंत के यहॉ मुननीबाई, रुल्दूराम, जीवन सिंह, छविनाथ आदि के रुप में पहचाने जा सकते हैं।
इस बात को यूं भी कहा जा सकता है कि 1947 से पहले प्रेम चन्द के यहॉ जो युवा पात्र है उन्हीं के बुजु्र्ग होते जाने और समय और परिस्थितियों के बदलने के साथ ही उनसे आगे की पीढ़ी के विस्तार स्वरूप पनपे समाज और उस समाज के वास्तविक नायक ही पंत जी की कहानियों में उपस्थित होते रहे हैं। पर प्रेम चन्द के यहॉ जो यथार्थ दिखायी देता है वैसा तो नहीं, हां उसी की शक्ल वाला यथार्थ फेंटेसी के रूप में उनकी कहानियों में प्रकट होता है। यही कारण है कि कल्पनाओं के घोड़ों पर दौड़ता उनका कथानक समाज में घटित होने वाली घटनाओं के एकदम नजदीक से गुजरता है और उनका काल्पनिक-सा लगने वाला चेहरा वास्तविक नजर आता है।खुरदरे और घिनौने यथार्थ को रचते हुए घटनाओं के पार छलांग लगाने का यह अनूठा ढब काबीले-तारीफ है।
उनके रचना संसार की यही विशेषता है जिसकी वजह से जटिल से जटिल अन्तर्विरोध भी कथा में सहजता से उदघाटित होने लगता है। भिखारी और चोर पैदा करती व्यवस्था के परखचे उस वक्त खुद-ब-खुद उघड़ने लगते हैं जब सुभाष पंत यर्थाथ से फंटेसी में प्रवेश करते हैं। विकल्पहीनता की स्थितियां किस तरह से बहुसंख्यक समाज को ऐसी परिस्थितियों की ओर धकेल रही है इसे जानने और समझाने के लिए सुभाष पंत की कहानियां सहायक है। इस बिन्दु पर उनकी कहानियां समाजशास्त्रीय विश्लेषण की भी मांग करती है-''इससे पार पाने के सिर्फ दो ही विकल्प उसके पास थे। भीख और चोरी। भीख मांगने की कलात्मक बारीकी उसे आती नहीं थी। निश्चय ही भीख मांगना एक कलात्मक खूबी है जो किसी के भीतर संवेदनायें जगाकर उसकी जेब तक पहुचती है। वह लूला, लंगड़ा, अंधा या कोई शारीरिक विकृति सम्पन्न भी नहीं था और न ही उसके पास कोई धार्मिक कौशल था। दूसरा विकल्प था, चोरी। जो उसे भीख मांगने की तुलना में अधिक सम्मानजनक और उत्तेजनापूर्ण लगा।"
१९९० के बाद देहरादून का रचनात्मक परिदृश्य बदलने लगा। उससे पहले के दौर में सुरेश उनियाल, मनमोहन चढढा और धीरेन्द्र अस्थाना की तिकड़ी को देहरादून छोड़ना पड़ा। वैनगार्ड में अवधेश, सुभाष पंत, अरविन्द, हरजीत, देशबन्धु और कभी कभार वालों में वेदिका वेद की मण्डली सुखबीर विश्वकर्मा की बैठकों का हिस्सा होती रही। अन्य लिखने वालों में गुरुदीप खुराना, कृष्णा खुराना, शशीप्रभा शास्त्री, कुसुम चतुर्वेदी, जितेन ठाकुर और अतुल शर्मा के साथ भी सुभाष जी का नजदीकी रिश्ता रहा। जितेन ठाकुर से नजदीकी का दौर तो आज भी किस्सों की दास्तान है।
'साहित्य संसद" के ब्रहमदेव, मदन शर्मा और भटनागर जी आदि लोगों से भी वे गरमजोशी के साथ मिलते रहे और लिखते, छपते रहे। इसी दौर मे 'संवेदना" को फिर से जीवित करने की पहल डॉ जितेन्द्र भारती ने सुभाष पंत और गुरुदीप खुराना के साथ ही की। 'संवेदना" का गठन बहुत ही शुरुआती दौर में सुरेश उनियाल, सुभाष पंत और उस दौर के अन्य लिक्खाडों ने किया था। तब से आज तक लगातार लिखते रहने की कथा अभी जारी है।
कम्प्यूटर पर खुला कहानी का पहला अध्याय हमारे सामने था। सुभाष पंत पढ़ रहे थे और मैं सुन रहा था। कथा 'रथ-यात्रा" से शुरु होती है। राम स्नेही, कथापात्र के भीतर भी, जिसने एक रथ यात्रा को जन्म दे दिया है और जो प्राचीन ग्रन्थों के भाष्यों को लिखकर हिन्दू संसकृति के उत्थान के लिए कमर कस रहा है।
अभी उपन्यास अपनी शुरुआती स्थिति में है, पर कथाकार सुभाष पंत के पाठक उम्मीद कर सकते हैं कि हिन्दू संस्कृति के पुनरुत्थान के लिए प्रयासरत रामसनेही, अपनी वर्गीय स्थितियों के बावजूद, लेखक का प्रिय पात्र न रह पायेगा।
ब्लाग पर
अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखने वाली वे रचनायें जिनका प्रथम प्रकाशन इसी ब्लाग पर हो रहा है, अब से उनके लेबल में ब्लाग पर अंकित होगा। तकनीक की सीमित जानकारी के चलते पहले प्रस्तुत की जा चुकी रचनाओं पर ऐसा करना संभव नहीं रहा। पूर्व में प्रस्तुत ऐसी रचनाओं के शीर्षक यहां दिये जा रहे हैं - क्वाण्टम भौतिकी एवं सृजन की संभावना, परितोष चक्रवर्ती का कथा संग्रह: कोई नाम न दो, विजय गौडत्र की लघु-कथा आदि।