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Thursday, October 20, 2016

सम्मानजनक विदाई

यह हैं मृत होते समाज के लक्षण


जगमोहन रौतेला 

वरिष्ठ कथाकार व पत्रकार दयानन्द अनन्त का पार्थिव शरीर गत 13 अक्टूबर 2016 को प्रात: दस बजे नैनीताल के पाइन्स स्थित शमशान घाट में अग्नि को समर्पित कर दिया गया . उनकी अंतिम यात्रा भवाली के कहलक्वीरा गॉव स्थित उनके घर से प्रात: नौ बजे शुरु हुई . उनको मुखाग्नि पुत्र अनुराग ढौडियाल ने दी . उनकी अंतिम यात्रा में लेखन , पत्रकारिता व संस्कृतिकर्मी , परिवारीजन , उनके गॉव के लोग मौजूद थे . उनका अंतिम संस्कार उनकी इच्छानुसार नैनीताल के पाइन्स स्थित शमशान घाट पर किया गया . उन्होंने अपने परिवार के लोगों और मित्रों से कहा था कि उनकी मौत भले ही कहीं भी हो , लेकिन अंतिम संस्कार नैनीताल के पाइन्स शमशान घाट पर ही किया जाय .
       उनके सैकड़ों मित्रों व हजारों प्रशंसकों के होने के बाद भी उनकी अंतिम यात्रा में मुठ्ठी भर लोगों का मौजूद रहना अनेक सवाल छोड़ गया है . अंतिम यात्रा में दिल्ली से पहुँचे समयान्तर के सम्पादक व वरिष्ठ कथाकार पंकज बिष्ट , उनकी पत्नी , युवा कथाकार अनिल कार्की , रंगकर्मी महेश जोशी , भाष्कर उप्रेती , विनीत ,संजीव भगत , ग्राम प्रधान नवीन क्वीरा आदि कुछ लोग ही मौजूद रहे . पंकज बिष्ट की बीमार पत्नी का शमशान घाट तक पहुँचना अनन्त जी के प्रति उनके आत्मीय सम्बंधों व सम्मान को बता गया . युवा कथाकार अनिल कार्की का कहना है कि वे ठीक से चल भी नहीं पा रही थी , इसके बाद भी वह शमशान घाट तक पहुँची . पर मुठ्ठी भर लोगों का एक प्रसिद्ध कथाकार व अपने समय के प्रखर पत्रकार की अंतिम यात्रा में शामिल होना कार्की के लिए बहुत ही पीड़ादायक था . वह कहते हैं ," यदि जीवन के अंतिम समय में भी आप सक्रिय नहीं हैं या फिर आपके परिवार के साथ भविष्य के लिए लोगों का " स्वार्थ " नहीं जुड़ा है तो यह दुनिया आपके किसी भी तरह की सामाजिक , साहित्यिक कर्मशीलता को भूला देने में क्षण भर भी नहीं लगाती और  यह समाज बहुत ही खुदगर्ज है ". अंतिम यात्रा में उनके शुभचिंतकों , मित्रों व प्रशंसकों में से किसी के भी मौजूद न रहने पर पंकज बिष्ट को भी बहुत पीड़ा हुई . उन्होंने भाष्कर उप्रेती से सवाल किया कि क्या पहाड़ में अब लोग अपने लोगों को अंतिम यात्रा में यूँ ही लावारिस सा छोड़ देते हैं ? ये कैसा बन रहा है हमारा पहाड़ ?
       यह स्थिति तब हुई जब नैनीताल , भवाली , हल्द्वानी , रामनगर , रुद्रपुर , अल्मोड़ा , भीमताल में ही लेखन , साहित्य , संस्कृतिकर्म और तथाकथित जनसरोकारों से जुड़े चार - पॉच सौ लोग तो हैं ही . और इनमें कई लोग दयानन्द जी से सीधे तौर पर जुड़े हुए भी थे . या यूँ कहें कि उनके पारिवारिक सदस्यों की तरह थे . उनके साथ आत्मीय सम्बंधों के बारे में इन लोगों के बयान तक छपे . पर इनमें से भी किसी ने उन्हें अंतिम विदाई देने के लिए जाना तक उचित नहीं समझा . कुछ लोगों ने पहले ही दिन उनके घर जाकर अपनी सामाजिक व उनके प्रति आत्मीय जिम्मेदारी पूरी कर ली थी . इनमें से किसी ने भी यह सोचने व सुध लेने की कोशिस नहीं की कि कल उनकी अंतिम यात्रा कैसे होगी ? ऐसा भी नहीं है कि उनकी मौत की सूचना लोगों तक नहीं पहुँची हो . चौबीस घंटे पहले उनकी मौत हो गई थी . सोशल मीडिया और अखबारों के माध्यम से उनके मौत की खबर दूर - दूर तक पहुँच गई थी . इसके बाद भी उनकी अंतिम यात्रा में रचनाकर्म से जुड़े लोगों का न पहुँचना भी हमारी सामाजिक संवेदना व जिम्मेदारियों के प्रति एक बड़ा व घिनौना सवाल खड़े करता है ? क्या समाज में खुद को सबसे बड़ा संवेदनशील होने का ढ़िढौरा पिटने वाले लोग भी दूसरों की तरह ही असमाजिक व असंवेदनशील हो गए हैं ? जिनके पास अपने रचनाकर्म की बिरादरी के एक व्यक्ति को अंतिम विदाई तक देने का समय नहीं था ? या उन्होंने इसकी अपनी सामाजिक जिम्मेदारी ही नहीं समझी ?
       इससे आहात भाष्कर उप्रेती कहते हैं ," नैनीताल को आज भी चिंतनशील , सांस्कृतिक चेतना व वैचारिक धरातल वाले लोगों का शहर माना जाता है . जो समय - समय पर सरकारों की जनविरोधी नीतियों के सावर्जनिक प्रतिरोध के रुप में सामने भी आता रहा है . पर अनन्त जी की अंतिम यात्रा में शहर के लोगों ने जिस तरह की बेरुखी दिखाई उसने मुझे अंदर तक हिला कर रख दिया है . मैं यह सोचने को विवश हूँ कि इस शहर के लोग इतने आत्मकेन्द्रित कब से हो गए ? क्या हमारी सामाजिक व सांस्कृतिक चेतना केवल गोष्ठियों , सभा , प्रदर्शनों तक ही सीमित है ?" इसी तरह का सवाल भवाली के उन लोगों के लिए भी है , जो शहर में सांस्कृतिक व वैचारिक कार्यक्रम करवाते रहते हैं और उसमें बाहर से लोगों को आमंत्रित भी करते हैं . जिनमें अनन्त जी जैसे लोग भी बहुत होते हैं . ये लोग भी अपने शहर के पास ही रहने वाले अनन्त जी की अंतिम यात्रा से क्यों दूर रहे ? उन्होंने एक सामाजिक जिम्मेदारी तक का निर्वाह क्यों नहीं किया ?
       सवाल भवाली से मात्र आधे घंटे की दूरी पर रामगढ़ में स्थित कुमाऊं विश्वविद्यालय के महादेवी वर्मा सृजन पीठ पर भी उठता है . पीठ की स्थापना साहित्यिक विचार - विमर्श व लेखकों को साहित्य सृजन के लिए एक अनुकूल वातावरण प्रदान करने के लिए की गई है . जहॉ ठहर कर लेखक अपनी रचनाओं का सृजन कर सकते हैं . तो क्या पीठ सिर्फ इसके लिए ही है ? इसका उत्तर हो सकता है कि वह सरकार के अधीन है और उसी आधार पर कार्य करता है . यह बात सही भी है , लेकिन सृजन पीठ की क्या यह नैतिक जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि वह अपने समय के एक वरिष्ठ कथाकार के अवसान की जानकारी पीठ से जुड़े सभी रचना व संस्कृतिकर्मियों को देता ? और भवाली के आस - पास रहने वाले इस तरह के सभी लोगों से अनन्त जी की अंतिम यात्रा में शामिल होने का अनुरोध करता ? यदि हम किसी लेखक , कवि, कथाकार व संस्कृतिकर्मी की अंतिम यात्रा के समय अपनी सामाजिक जिम्मेदारी भी पूरी नहीं कर सकते हैं तो फिर उनके न रहने पर उनकी रचनाओं का विश्लेषण और उन पर शोध व चर्चा करने का नैतिक अधिकार हमारे पास रहता है क्या ?
        इससे तो यही लगता है कि हम चाहे खुद को जितना संवेदनशील , समाज चिंतक व उसका पैरोकार होने का दावा करें , लेकिन हम भीतर से पूरी तरह से खोखले और लिजलिजे हो चुके हैं .उनका पुत्र अनुराग स्थानीय रुप से बिल्कुल ही अकेला पड़ गया था . अगर ग्राम प्रधान नवीन क्वीरा ने अपने स्तर से उनके अंतिम यात्रा की तैयारी न की होती तो क्या होता ? तब शायद अनुराग और उनकी मॉ उमा अनन्त को इस समाज के प्रति घृणा व गुस्सा ही पैदा होता और कुछ नहीं ! अपने प्रसिद्ध रचनाकार पति की अंतिम यात्रा में मुठ्ठी भर लोगों को देखकर पीड़ा व क्षोभ का भाव तो उनके मन में होगा ही . भले ही वह उसे अभी बाहर नहीं निकाल पा रही हों . यह सोचकर ही मन ग्लानि व शर्म से भर उठता है .
        अंतिम यात्रा में न तो स्थानीय विधायक ही दिखाई दी और न कोई मन्त्री और संत्री . दूसरे स्तर के और भी किसी जनप्रतिनिधि ने भी अंतिम यात्रा में शामिल होना उचित नहीं समझा . किसी छुटभय्यै और मवाली टाइप के नेता की मौत को भी समाज के लिए अपूरणीय क्षति बताने के लम्बे - लम्बे बयान देने और शवयात्रा में शामिल होकर घड़ियाली ऑसू बहाने वाले जिले के छह विधायकों , दो मन्त्रियों और कई पूर्व विधायकों में से किसी ने उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होना तो दूर उनके शोक में दो शब्द तक नहीं कहे . यह हमारे राजनैतिक नेताओं के चरित्र के दोगलेपन की धज्जी तो उड़ाता ही है , साथ ही यह भी बताता है कि अपने समय , समाज , संस्कृति , लोक व साहित्य की चिंता करने और उसको संरक्षित करने के इनके भारी - भरकम बयान कितने उथले और छद्म से भरे होते हैं .
          मुख्यमन्त्री हरीश रावत गत 14-15 अक्टूबर को दो दिन हल्द्वानी में रहे , लेकिन उन्होंने भी अनन्त जी के घर जाकर पारिवार के लोगों से संवेदना व्यक्त करने की आवश्यकता नहीं समझी . ऐसा नहीं हो सकता कि मुख्यमन्त्री को अनन्त जी के बारे में कोई जानकारी ही न हो कि वे कौन थे ? जब अनन्त जी दिल्ली से " पर्वतीय टाइम्स " का सम्पादन कर रहे थे , तब मुख्यमन्त्री अल्मोड़ा से सांसद होते थे . जिन तेवरों के साथ " पर्वतीय टाइम्स " उत्तराखण्ड के सवालों व मुद्दों को लेकर निकल रहा था उसमें वे अखबार , उसके सम्पादक व उसकी टीम से अवश्य ही परिचित रहे होंगे . उनका साक्षात्कार भी उसमें प्रकाशित हुआ होगा ( मुझे इसकी जानकारी नहीं है , इसलिए ) . हो सकता है कि एक लम्बा अर्सा बीत जाने से मुख्यमन्त्री उन्हें भूल गए हों , क्योंकि करना अधिकतर नेताओं के डीएनए में शामिल होता है . पर क्या उनके भारी - भरकम सूचना तंत्र और उनकी सलाहकार मंडली ने भी उन्हें इसके बारे में कोई जानकारी नहीं दी ? यदि यही सच है तो फिर उनके इस लापरवाह सूचना तंत्र का " सर्जिकल स्ट्राइक " किए जाने की तुरन्त आवश्यकता है .
       यह जिले के सूचना विभाग व जिला प्रशासन की कार्यप्रणाली पर भी गम्भीर सवाल उठाता है . जो मीडिया की आड़ में दलाली करने , बड़े नेताओं व प्रशासनिक अधिकारियों की गणेश परिक्रमा करने वालों के हर सुख - दुख का ख्याल बहुत ही संजीदा होकर तो करता है , लेकिन अनन्त जी जैसे प्रसिद्ध कथाकार व पत्रकार की मौत पर कोई प्रतिक्रिया तक व्यक्त नहीं करता . इससे साफ पता चलता है कि उसके पास अपने जिले में रहने वाले हर क्षेत्र के सक्रिय व प्रसिद्ध लोगों के बारे में कितनी जानकारी है ? क्या सूचना विभाग का कार्य केवल मन्त्रियों के दौरे पर विज्ञप्तियॉ जारी करना और मीडिया की आड़ में दलाली करने वालों की जी हजूरी करना भर रह गया है ?
      यह असंवेदनशीलता लोगों ने केवल अनन्त जी के बारे में ही दिखाई हो , ऐसा भी नहीं है . उनकी मौत से दो दिन पहले ही प्रसिद्ध इतिहासकार व महाविद्यालयों में प्राचार्य रहे डॉ. राम सिंह की भी पिथौरागढ़ में 10 अक्टूबर की रात मृत्यु हुई थी . जिनका अंतिम संस्कार 11 अक्टूबर 2016 को किया गया . वे पिथौरागढ़ शहर से कुछ दूर गैना गॉव में रहते थे . उनकी अंतिम यात्रा में भी गॉव व उनके पारिवार के 20-25 लोगों के अलावा और कोई नहीं था . उनकी अंतिम यात्रा में पहुँचे वरिष्ठ पत्रकार व कहानीकार प्रेम पुनेठा भी पिथौरागढ़ के लोगों के इस असामाजिक व्यवहार से बहुत दुखी हैं . वे कहते हैें ," ऐसा नहीं है कि डॉ. राम सिंह पिथौरागढ़ के लिए कोई अनजान चेहरा हों . शहर में होने वाले किसी भी तरह के वैचारिक , सांस्कृतिक गोष्ठी में वे ही मुख्य वक्ता होते थे . उनके बिना इस तरह के आयोजनों की कल्पना तक नहीं होती थी . और कुछ भी नहीं तो उनके साथ अध्यापन कार्य करने वाले और उनके पढ़ाए हुए ही दर्जनों लोग पिथौरागढ़ में हैं . उन लोगों में से भी किसी ने उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होना जरुरी क्यों नहीं समझा ? यह सवाल मुझे बहुत व्यथित किए हुए है . जिसका एक ही जबाव मुझे नजर आता है कि हम दोहरी व सामाजिकता के नाम पर बहुत ही खोखली जिंदगी जी रहे हैं ".
     अपने - अपने क्षेत्र के प्रसिद्ध व समाज को अपने कार्यों से बहुत कुछ देने वाले इन दो व्यक्तियों की अंतिम यात्रा में समाज के लोगों ने जिस तरह की बेरुखी दिखाई उससे यह लगता कि जैसे आपकी दुनिया से सामाजिक रुप से सम्मानजनक विदाई के लिए भी आपको किसी " गिरोह " का सम्मानित सदस्य होना आवश्यक है . अन्यथा जो लोग आपके जीवित रहते आपके साथ बैठने और सानिध्य पाने में गर्व का अनुभव करते थे , वे भी आपसे किनारा करने में क्षण भर नहीं लगायेंगे . यह एक तरह से तेजी के साथ मृत होते समाज के ही लक्षण लगते हैं .

Monday, December 19, 2011

इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में



यह कविता हमारे प्रिय मित्र और महत्वपूर्ण कथाकार योगेन्द्र आहूजा के मार्फत मेल से प्राप्त हुई। स्वाभाविक है कविता उन्हें पसंद होगी ही।  कविता को इस ब्लाग पर देते हुए रचनाकार श्योराज सिंह बेचैन का बहुत बहुत आभार। उनकी अनुमति के बिना ही कविता को ब्लाग पर दिया जा रहा है, उम्मीद है वे अन्यथा न लेंगे और इस बात को समझ पाएंगे कि सम्पर्क सूत्र न होने के कारण ही उन तक पहुंचना संभव नहीं हो रहा है।
वि.गौ.
 

अच्छी कविता

 श्योराज सिंह बेचैन




अच्छी कविता
अच्छा आदमी लिखता है
अच्छा आदमी कथित ऊंची जात में पैदा होता है
ऊंची जात का आदमी
ऊंचा सोचता है
हिमालय की एवरेस्ट चोटी की बर्फ के बारे में
या नासा की
चाँद पर हुई नयी खोजों के बारे में
अच्छी कविता
कोई समाधान नहीं देती
निचली दुनियादार जिन्दगी का
अच्छी कविता
पुरस्कृत होने के लिए पैदा होती है
कोई असहमति-बिंदु
नहीं रखती
निर्णायकों, आलोचकों और संपादकों के बीच
अच्छी कविता
कथा के क़र्ज़ को महसूस नहीं करती
अच्छी कविता
देश-धर्म, जाति
लिंग के भेदाभेदों के पचड़े में नहीं पड़ती
अवाम से बावस्ता नहीं और
निजाम से छेड़छाड़ नहीं करती
अच्छी कविता
बुरों को बुरा नहीं कहने देती
अच्छी कविता
अच्छा इंसान बनाने का जिम्मा नहीं लेती
अच्छे शब्दों से
अच्छे ख्यालों से
सजती है अच्छी कविता
अच्छी कविता
अनुभव और आत्मीय सबकी दरकार नहीं रखती
कवि के सचेतन
संकलन की परिणति होती है अच्छी कविता
अच्छी कविता
अच्छे सपने भी नहीं देती
अच्छे समय में साथ ज़रूर नहीं छोडती
अच्छी कविता की
अच्छाई पूर्वपरिभाषित होती है
अच्छी कविता
अच्छे दिनों में अच्छे जनों में
हमेशा मुस्तैदी और
मजबूती से उपस्थित रहती है
पर बुरे वक़्त में
किसी के काम नहीं आती
अच्छी कविता
उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले में परसपुर के आटा ग्राम में २२ अक्टूबर, १९४७ को जन्मे अवामी शायर अदम गोंडवी ( मूल नाम- रामनाथ सिंह) ने आज दिनांक १८ नवम्बर ,२०११ , सुबह ५ बजे पी. जी. आई, लखनऊ में अंतिम साँसे लीं. पिछले कुछ समय से वे लीवर की बीमारी से जूझ रहे थे. अदम गोंडवी ने अपनी ग़ज़लों को जन-प्रतिरोध का माध्यम बनाया. उन्होंने इस मिथक को अपने कवि-कर्म से ध्वस्त किया कि यदि समाज में बड़े जन-आन्दोलन नही हो रहे तो कविता में प्रतिरोध की ऊर्जा नहीं आ सकती. सच तो यह है कि उनकी ग़ज़लों ने बेहद अँधेरे समय में तब भी बदलाव और प्रतिरोध की ललकार को अभिव्यक्त किया जब संगठित प्रतिरोध की पहलकदमी समाज में बहुत क्षीण रही. जब-जब राजनीति की मुख्यधारा ने जनता से दगा किया, अदम ने अपने साहित्य को राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल साबित किया.


अदम गोंडवी आजीविका के लिए मुख्यतः खेती-किसानी करते थे. उनकी शायरी को इंकलाबी तेवर निश्चय  ही वाम आन्दोलनों के साथ उनकी पक्षधरता से  प्राप्त हुआ था.  अदम ने समय   और समाज की भीषण    सच्चाइयों  से , उनकी स्थानीयता के पार्थिव अहसास के  साक्षात्कार  लायक  बनाया ग़ज़ल को. उनसे पहले 'चमारों की गली' में ग़ज़ल को कोइ न ले जा सका था.

' 
मैं चमारों की गली में ले  चलूँगा आपको' जैसी लम्बी कविता न केवल उस 'सरजूपार की मोनालिसा' के साथ बलात्कार, बल्कि प्रतिरोध के संभावना को सूंघकर ठाकुरों द्वारा पुलिस के साथ मिलकर दलित बस्ती पर हमले की भयानकता की कथा कहती है. ग़ज़ल की भूमि को सीधे-सीधे राजनीतिक आलोचना और प्रतिरोध के काबिल बनाना उनकी ख़ास दक्षता थी-

जुल्फ
- अंगडाई - तबस्सुम - चाँद - आईना -गुलाब
भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इनका शबाब
पेट के भूगोल में उलझा हुआ है आदमी
इस अहद में किसको फुर्सत है पढ़े दिल की किताब
इस सदी की तिश्नगी का ज़ख्म होंठों पर लिए
बेयक़ीनी के सफ़र में ज़िंदगी है इक अजाब


भुखमरी, गरीबी, सामंती और पुलिसिया दमन के साथ-साथ उत्तर भारत में राजनीति के माफियाकरण पर  हाल के दौर में  सबसे मारक कवितायेँ उन्होंने लिखीं. उनकी अनेक पंक्तियाँ आम पढ़े-लिखे लोगों की ज़बान पर हैं-

काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में

पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में

उन्होंने साम्प्रदायिकता के उभार के अंधे और पागलपन भरे दौर में ग़ज़ल के ढाँचे में सवाल उठाने
, बहस करने और समाज की इस प्रश्न पर समझ और विवेक को विकसित करने की कोशिश की-

हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये

ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये

हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये

छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये

इन सीधी अनुभवसिद्ध, ऐतिहासिक तर्क-प्रणाली में गुंथी पंक्तियों में आम जन को साम्प्रदायिकता से आगाह करने की ताकत बहुत से मोटे-मोटे उन ग्रंथों से ज़्यादा है जो सेक्युलर बुद्धिजीवियों ने रचे. अदम ने सेकुलरवाद किसी विश्विद्यालय में नहीं सीखा था, बल्कि ज़िंदगी की पाठशाला और गंगा-जमुनी तहजीब के सहज संस्कारों से पाया था.
आज जब अदम नहीं हैं तो बरबस याद आता है कि कैसे उनके कविता संग्रह बहुत बाद तक भी प्रतापगढ़ जैसे छोटे शहरों से ही
छपते रहे, कैसे उन्होंने अपनी मकबूलियत को कभी भुनाया नहीं और कैसे जीवन के आखिरी दिनों में भी उनके परिवार के पास इलाज लायक पैसे नहीं थे. उनका जाना उत्तर भारत की जनता की क्षति है, उन तमाम कार्यकर्ताओं की क्षति है जो उनकी गजलों को गाकर अपने कार्यक्रम शुरू करते थे और  एक अलग ही आवेग और भरोसा पाते थे, ज़ुल्म से टकराने का हौसला पाते थे, बदलाव के यकीन पुख्ता होता था. इस भीषण भूमंदलीकृत समय में जब वित्तीय पूंजी के नंगे नाच का नेतृत्व सत्ताधारी दलों के माफिया और गुंडे कर रहे हों, जब कारपोरेट लूट में सरकार का साझा हो, तब ऐसे में आम लोगों की ज़िंदगी की तकलीफों से उठने वाली प्रतिरोध की भरोसे की आवाज़ का खामोश होना बेहद दुखद है, अदम गोंडवी को जन संस्कृति मंच अपना सलाम पेश करता है.


जन संस्कृति मंच की ओर से महासचिव प्रणय कृष्ण द्वारा जारी

Tuesday, November 8, 2011

साफ़ ज़ाहिर है

कंवल ज़ियायी
उर्दू के सुप्रसिद्व शायर जनाब हरदयाल सिंह दत्ता  कंवल जियायी इस भैयादूज को, अर्थात दिनांक 28-10-2011 की सुबह, इस नश्वर संसार को अलविदा कह गये। वे चौरासी वर्ष के थे। कहा जाता है, कि केवल योगी ही चौरासी के होकर "चोला" बदला करते हैं।
    वे सचमुच योगी थे। उन्होंने जब पहले पहल पंडित लब्भुराम जोश मलसियानी की सरपरस्ती में शायरी का आगाज़ किया, उस वक्त उर्दू के अधिकांश शायर हुस्नोइश्क का इज़्हार अपनी शायरी के माध्यम से किया करते थे। मगर कंवल साहब ने उन दिनों भी जिस मौजूं को अपनी शायरी में लिया। वह ज़िंदगी की तल्ख हकीकत के बिल्कुल करीब था।
    पाकिस्तान के ज़िला सियालकोट के गांव कंजरूढ़ दत्ता में कंवल साहब का जन्म एक प्रतिष्ठित जमींदार घराने में हुआ। फिल्म अभिनेता पद्मश्री राजेन्द्र कुमार भी वहीं के थे और कंवल साहब के लंगोटिया यार थे। देश का बंटवार होने के बाद, ये दोनों पक्के दोस्त एक साथ पाकिस्तान से भारत (दिल्ली) चले आये। वहां से राजेन्द्र कुमार एक्टर बनने के लिये मुम्बई चले गये और कवंल साहब रक्षा-विभाग में लिपिक के तौर पर नौकरी करने लगे और उसी के साथ अपना रूझान साहित्य की और मोड़ा और शायरी के माध्यम से साहित्य सृजन में जुट गये।
    कंवल साहब एक बहुत ही मस्तमौला, फक्कड़, हँसमुख, स्प्ष्टवादी, संवदेनशील और स्वाभिमानी व्यक्ति थे। बातें इतनी अच्छी करते, कि घंटों तक उनके पास बैठकर भी उठने को मन न होता। मगर वही कंवल साहब, जब शेर लिखने के लिये कलम हाथ में थामते, तो इस कद्र संजीदा हो जाते कि सामने मौजूदा प्राणी सहम कर रह जाता।
    उनकी शायरी जिंदगी के "कटुसत्य" से दोचार करने वाली संजीदा शायरी थी। बहुत ही सरल भाषा, या सीधे सादे शब्दों में, गहरी से गहरी बात कहने में उन्हें महारत हासिल थी। उसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि उन्होंने जीवन भर संघर्ष ही संघर्ष किया और जिंदगी को बेहद करीब से देखा, परखा और विचारा और तब जो कुछ महसूस किया, उसी को अपनी गज़लों, नज़मों या कतआत की शक्ल में उतारा।
    कंवल साहब एक उस्ताद शायर थे। उनके शागिर्दों की संख्या पर्याप्त है। कहा जाता है कि वे खुद एक "इंस्टीट्यू्शन" थे।
    कंवल साहब के अब तक केवल दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए। "प्यासे जाम" सन् 1973 में राहुल प्रकाशन दिल्ली द्वारा देवनागरी लिपि में प्रका्शित हुआ। दूसरा काव्य संग्रह, "लफ्ज़ों की दीवार" 1993 में उर्दू लिपि में छपा। इन दोनों संग्रहों में कंवल साहब की चुनींदा गज़लों, नज़्मों और कतआत शामिल है।
    एक लम्बे अर्से से कंवल साहब अस्वस्थ चल रहे थे। इसलिये कहीं जाना आना न हो पा रहा था। इस दौरान वे और अधिक संजीदा रहने लगे थे। उन्हें निश्चित ही इस बात का एहसास हो चला था। कि उनके पास अब अधिक समय नहीं रहा। तभी उनके द्वारा लिखे अंतिम एशआर में दो शेर ये भी थे :-
        साफ़ ज़ाहिर है कि उम्र की आंधी
         इक दिया और बुझाने वाली है
       ज़िंदगी तखलिया कि पल भर में
       मौत तशरीफ़ लाने वाली है।

- मदन शर्मा 
9897692036
                                                         

Sunday, May 15, 2011

विश्वास रखो, रास्ते में विश्वास रखो


पिछले साल 14 जुलाई, २०१० को जब बादल दा ८५ के हुए थे, हम में बहुत से साथियों ने  लिख कर और उन्हें सन्देश भेजकर जन्मदिन की बधाई के साथ  यह आकांक्षा प्रकट की थी कि वे और लम्बे समय तक हमारे बीच रहें . लेकिन परसों १३ जुलाई ,२०११ को वे हम सबसे अलविदा कह गए.  भारतीय रंगमंच के  क्रांतिकारी, जनपक्षधर  और अनूठे रंगकर्मी बादल दा को जन संस्कृति मंच लाल सलाम पेश  करता है.  उनके उस लम्बे, जद्दोजहद  भरे सफर को  सलाम पेश  करता है, जो १३ मई  को अपने अंतिम मुकाम को पहुंचा.  लेकिन हमारे संकल्प , हमारी स्मृति  और सबसे बढ़कर  हमारे कर्म में बादल दा का सफ़र कभी विराम नहीं लेगा. क्या उन्होंने ही नहीं लिखा था, "और विश्वास  रखो, रास्ते में विश्वास  रखो. अंतहीन रास्ता, कोइ मंदिर नहीं हमारे लिए. कोइ भगवान नहीं, सिर्फ रास्ता. अंतहीन रास्ता"  
     जनता का हर बड़ा उभार अपने सपनों और विचारों को विस्तार देने के लिए अपना थियेटर माँगता है. बादल दा का थियेटर का सफ़र नक्सलबाड़ी  को पूर्वाशित करता सा शुरू हुआ, जैसे कि मुक्तिबोध की ये अमर पंक्तियाँ जो आनेवाले कुछेक वर्षों में ही विप्लव की आहट को  कला की अपनी ही अद्वितीय घ्राण- शक्ति से सूंघ लेती हैं-
'अंधेरी घाटियों के गोल टीलों, घने पेड़ों में
कहीं पर खो गया,
महसूस होता है कि वह , बेनाम
बेमालूम  दर्रों के इलाकों में 
( सचाई के सुनहरे तेज़ अक्सों के धुंधलके में )
मुहैय्या कर रहा  लश्कर
हमारी हार का बदला चुकाने आएगा
संकल्प्धर्मा चेतना का रक्ताप्लावित स्वर
हमारे ही ह्रदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
प्रकट हो कर विकट हो जाएगा. 
  नक्सलबाड़ी के महान विप्लव ने जनता के बुद्धिजीवियों से मांग की कि वे जन -कला की क्रांतिकारी भूमिका के लिए आगे आएं.  सिविल इंजीनियर और  टाउन प्लैनर  के पेशे  से अपने वयस्क सकर्मक जीवन की शुरुआत  करने वाले बादल दा जनता की चेतना के  क्रांतिकारी दिशा में बदलाव के  किए तैय्यार करने के  अनिवार्य उपक्रम के  रूप में नाटक और रंगमंच को  विकसित करनेवाले अद्वितीय रंगकर्मी के रूप में इस भूमिका के  लिए समर्पित हो गए.  ”थर्ड थियेटर” की  ईजाद के साथ उन्होने  जनता और  रंगमंच, दर्शक और कलाकार की दूरी को  एक झटके  से तोड  दिया. नाटक अब हर कहीं हो सकता था. मंचसज्जा, वेषभूशा और  रंगमंच के  लिए हर तरीके  की विशेष ज़रूरत को उन्होंने  गैर- अनिवार्य बना दिया. आधुनिक नाटक गली, मुहल्लों ,चट्टी-चौराहों , गांव-जवार तक यदि पहुंच सका , तो  यह बादल दा जैसे महान रंगकर्मी की भारी सफलता थी. 1967 में स्थापित ”शताब्दी” थियेटर संस्था के  ज़रिए उन्होंने  बंगाल के  गावों में  घूम-घूम कर राज्य आतंक और गुंडा वाहिनियों के हमलों का खतरा उठाते हुए जनाक्रोश को  उभारनेवाले व्यवस्था-विरोधी  नाटक किए. उनके  नाटको  में नक्सलबाडी किसान विद्रोह का ताप था. 
     हमारे आन्दोलन  के नाट्यकर्मियों ने   खासतौर पर  १९ ८० के दशक में बादल दा से प्रेरणा  और प्रोत्साहन प्राप्त किया. वे  इनके बुलावे पर इलाहाबाद और  हिंदी क्षेत्र के दूसरे हिस्सों में भी बार बार आये, नाटक किए, कार्यशालाएं   कीं, नवयुवक  रंगकर्मियों  के साथ-साथ रहे , खाए , बैठे  और उन्हें  सिखाया.  जब मध्य बिहार के क्रांतिकारी किसान संघर्षों के इलाकों में युवानीति और हमारे दूसरे नाट्य-दलों पर सामंतों के हमले होते तो साथियों को जनता के समर्थन से  जो बल मिलता सो मिलता ही, साथ ही यह भरोसा और प्रेरणा भी मन को बल प्रदान करती कि बादल सरकार जैसे अद्वितीय कलाकार बंगाल में  यही कुछ झेल कर जनता को जगाते आए हैं.
    एबम इंद्रजीत, बाकी इतिहास, प्रलाप,त्रिंगशा शताब्दी, पगला घोडा, शेष  नाइ, सगीना महतो ,जुलूस, भोमा, बासी खबर और  स्पार्टाकस(अनूदित)जैसे उनके  नाटक भारतीय थियेटर को  विशिष्ट  पहचान तो  देते ही हैं, लेकिन उससे भी बडी बात यह है कि बादल दा के  नाटक किसान, मजूर, आदिवासी, युवा, बुद्धिजीवी, स्त्री, दलित आदि समुदाय के संघर्षरत लोगों के  साथी हैं, उनके  सृजन और संघर्ष में  आज ही नहीं, कल भी मददगार होंगे ,उनके  सपनॉ के  भारत के  हमसफर होंगे.
( प्रणय कृष्ण , महासचिव, जन संस्कृति मंच द्वारा जारी) 

Friday, January 22, 2010

डॉ0 कालिका प्रासाद चमोला नही रहे



केन्द्रीय विद्यालय संगठन , जयपुर  के सहायक आयुक्त डा। कालिका प्रासाद चमोला का दिनॉक 13.01.2010 को निधन हो गया । वे 46 वर्ष के थे और पिछले चार माह से लीवर की बीमारी से पीड़ित थे। तबियत बिगड़ने पर उन्हे दिनॉक 14.01.2010 को जयपुर के अपेक्स अस्पताल मे भरती किया गया जहॉ अपराह्रन 15:45 पर उनका निधन हो गया। उनके परिवार में पत्नी के अलावा दो पुत्र हैं।
दिनॉक 30.06.1963 को रूद्रप्रयाग में जन्मे चमोला आरॅभ से ही मेधावी छात्र थे। एमएससी गणित विषय में गोल्ड मेडलिस्ट होने के पश्चात उन्होने पीएचडी की और केन्द्रीय विद्यालय में पीजीटी अध्यापक के रूप में नौकरी आरम्भ किया। उसके पश्चात उन्होनें तिब्बती विद्यालय संगठन दिल्ली में एजूकेशन अधिकारी  के रूप में कार्य किया। सन 2001 में वे केन्द्रीय विद्यालय पाण्डिचेरी में प्रधानाचार्य के पद पर नियुक्त हुये। पाण्डिचेरी रहते हुये उन्होने गणित की दो शोधपरक् पुस्तकें लिखीं - वैदिक अर्थमेटिक्स एण्ड डेवलपमेंट ऑफ बेसिक कान्सेप्टस् तथा दूसरी एलिमेन्टरी वैदिक अलजेबरा ( दोनो ही सूरा प्रकाशन चेन्नई से सन 2006 में प्रकाशित)। वे विद्यालयं में स्कूली शिक्षा के अतिरिक्त रचनात्मक गतिविधियों की ओर भी विशेष ध्यान देते थे। सन 2006 में पाडिचेरी में प्रथम मैथमैटिक्स ओलम्पियाड कराने का श्रेय उन्हीं को जाता हैं।
बाद में सन 2007 जुलाई में केन्द्रीय विद्यालय संगठन के सहायक आयुक्त बन कर जयपुर आये। नई जिम्मेदारी में वे अत्यन्त व्यस्त रहते। प्राय: वे दौरे पर जयपुर से बाहर रहते और जब जयपुर में रहते भी तो देर रात तक कार्यालय में रहते। इतनी व्यस्तताओं के बावजूद उनकी दो अन्य पुस्तकें बाजार में आईं- वैदिक मैथमैटिक्स फॉर बिगनर्स (धनपत रॉय प्रकाशन नई दिल्ली 2007 ) तथा द ग्रेट आर्किटेक्ट्स ऑफ मैथमैटिक्स वाल्यूम 1 ( आर्य बुक डिपो नई दिल्ली 2008)। इसके अतिरिक्त निम्न लिखित पुस्तकों पर कार्य कर रहे थे-
1। मैथमैटिक्स डिक्शनरी 
2। द ग्रेट आर्किटेक्ट्स ऑफ मैथमैटिक्स वाल्यूम 2
3। द पायोनियर ऑफ मैथमैटिक्स
4। मैथमैटिकल एम्यूज़मेन्ट्स
वैदिक मैथमैटिक्स फॉर बिगनर्स को केन्द्रीय विद्यालय संगठन के पुस्तकालयों के लिये अनुमोदित किया गया है।
 डा कालिका प्रासाद चमोला का साहित्य से भी गहरा सरोकार रहा है। अस्सी नब्बे के दशक में जब वे देहरादून में थे तो वे रचनात्मक रूप से काफी सक्रिय थे। साहित्यिक गोष्ठियों में नियमित उनकी उपस्थिति रहती। उन्हे 1991 का कादम्बरी का युवा कहानीकार मिला था। पाण्डिचेरी और जयपुर रहते हुये भी वे साहित्य के लिए बेचैन रहते थे और कई बार अपनी व्यस्तता को कोसते रहते। फिर भी इस दौरान उन्होने "शिकार", "झड़ते काफल" तथा "एक और पलायन" जैसी कहानियॉ लिखा। जयपुर आते ही वे वरिष्ठ साहित्यकार विजयदान देथा से मिलने उनके घर बोस्न्दा ( जोधपुर) गये। साहित्य के प्रति उनके अनुराग का इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा।
 किसी एक नौकरी में लम्बे समय न टिके रहने से अस्थायित्व उनके जीवन का मुख्य चरित्र बन गया था। नई नौकरी को नई जगह से शुरू करने से वे हमेशा व्यस्त रहते। ऐसा नही था कि वे अपने बेहतर जीवन या व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए "कैरियरिस्ट" थे। वरन् यह कैसे  होता कि इतनी बड़े पद पर आसीन व्यक्ति के पास चौपहिया तो क्या दुपहिया भी न हो। दरअसल जब उन्होने केन्द्रीय विद्यालय में अध्यापक के रूप में नौकरी शुरू की तो उस समय केन्दीय विद्यालयों का स्तर का ग्राफ एक ऊंचाई को छूकर गिरना शुरू हो गया था। संवेदनशील चमोला इसे लेकर काफी बेचैन रहते। उन्होने सोचा कि सुधारने का वे  कितना दृढ़ संकल्प क्यों न  ले ले एक अध्यापक के रूप में तो केवल पहाड़ को खिसकाने जैसा ही कोशिश होती। इस कृत संकल्प के साथ उन्होने प्रशासनिक सेवा की राह चुना। और प्रशासक बनते ही संगठन से जुड़े विद्यालयों को सुधारने की मुहिम में लग गये। इसीलिए वे आये दिन विभिन्न केन्द्रीय विद्यालयों के दौरे पर रहतें। वे विद्यार्थियों मे नैतिक उत्थान के प्रति काफी चिन्तित रहते और इस क्षेत्र में सक्रिय  संगठनों या संस्थाओं से अपने स्कूलों में कार्यशाला करवाने की सॅभावना का पता लगाते। इसी उद्देश्य से उन्होने माउंटआबू स्थित ब्रह्मकुमारियों के संगठन से अपने कई स्कूलों में कार्यशाला लगवाया। उनसे बातचीत से  गृह प्रदेश उत्तराखण्ड के केन्द्रीय विद्यालयों का स्तर सुधारने की उनकी इच्छा जाहिर होती थी और इसके लिये उत्तराखण्ड में स्थानन्तरण के लिये प्रयत्नशील थे। उनके असमय निधन से शिक्षा क्षेत्र ने न केवल एक कुद्गाल एवम् ऊर्जावान प्रशासक को खोया है बल्कि गणित एवम् साहित्य का एक सॅभावनाशील व्यक्तित्व भी हमारे बीच से अचानक ही चला गया।

-अरूण कुमार असफल

Monday, December 7, 2009

एक विरासत का अन्त




हिम आहुजा
(लेखक एक शोधकर्ता हैं जो आजकल टौंस घाटी, जिला उत्तरकाशी में कार्यरत हैं)

माधो सिंह भण्डारी को कौन नहीं जानता? वीरता की मिसाल, उनका नाम पूरे गढ़वाल में जाना जाता है। किन्तु दले सिंह जड़यान इतने भाग्यशाली नहीं। अपितु वीर सही, रवांई क्षेत्र में बच्चा-बच्चा उनका नाम जानता है। उनकी वीरता के कारनामे जानता है। यही सत्य है उस क्षेत्र के अनेक राजपूत वीरों की कथाओं के लिए - जैसे दले सिंह का बेटा जीतू जड़यान, नागदेऊ फन्दाटा, बहादर सिंह और कर्ण महाराज के रांगड़ वज़ीर।

इन्हीं लोगों की वीरता के किस्सों से बना है इस पूरे क्षेत्र का इतिहास। आने वाली कई पीढ़ियों के लिए यही एकमात्र तरीका है अपने पूर्वजों को याद रखने और उन्हें इज्जत देने का। परन्तु बुली दास के बिना, हरकी दून क्षेत्र के देऊरा गाँव से एक साधारण गरीब बाजगी, ये किस्से और इतिहास कब के लुप्त हो जाते।

बुली दास का ज्ञान पीढ़ियों पीछे जाकर रोमांचक, अविश्वसनीय घटनायें ढूँढ लाता था। उन घटनाओं को जिनसे पिछले सैकड़ों साल में इस क्षेत्र का भौगोलिक, सामाजिक एवं राजनीतिक इतिहास निर्मित हुआ।

उदाहरण के तौर पर हिमांचल के बुशेहर और यहां की टौंस घाटी के लोगों के बीच चरागाह विवाद, पीढ़ी दर पीढ़ी चलती आ रही राजपूत खानदानों के बीच की दुश्मनी, एवं अनेक ऐसी कथायें, घटनायें जिन्होंने सिर्फ इस क्षेत्र का इतिहास ही नहीं दर्ज किया अपितु जो लिपिबद्ध इतिहास एवं दस्तावेजों से प्रमाणित भी हुआ।

बाजगी जिन्हें बेड़ा, बादी, औजी, ढ़ाकी आदि नामों से भी जाना जाता है, उत्तराखण्ड के परम्परागत गायक वादक हैं। इनका मुख्य कार्य हर अवसर पर गाँव में गाना और बजाना है। चाहे वे जन्म के गीत हों या मृत्यु के, शादी-ब्याह के, ऋतुओं के, मेलों के और देवता के उत्सवों के, बिना बाजगी के वे सम्पन्न नहीं हो सकते। वे 'मौखिक परम्परा' के भी संवर्धक हैं जिनसे समुदाय की सामुहिक स्मृति जिन्दा रहती है।

मुझे याद है जब मैं पहली बार 2005 में उनके घर गया, तो वे हाईडलबर्ग विश्वविद्यालय के डॉ। विलियम सैक्स को एक 'पंवाड़ा' (वीरता की गाथा) सुनाने में तल्लीन थे। उनका ज्ञान और असर ऐसा था कि डॉ। विलियम ने उन्हें दस साल तक लगातार वृत्तचित्रित किया और उनका रिश्ता एक खूबसूरत दोस्ती में बदल गया।

इस दशहरे, टौंस घाटी की यात्रा पर, मैं बुली दास से मिला। परन्तु इस बार एक कमजोर, निढ़ाल और संक्रमण से जूझते बुली दास ने बिस्तर से मेरा अभिवादन किया। मैं उनके लिए कुछ दवाईयाँ लेकर आया था। हम हमेशा की तरह बैठे और पुरानी कथाओं में खो गये। उनकी आवाज कमजोर थी परन्तु हिम्मत मज़बूत थी। उन्होंने गाना गाने की कोशिश की परन्तु थोड़ी देर बाद ही वे रुक गये और मुझे विस्तार से कहानी रुप में सुनाने लगे।

उनकी सेहत के बारे में चिन्तित, डॉ। विलियम उनका परीक्षण करवाने उन्हें रोहड़ू ले गये। वहाँ पता चला कि उन्हें दमा है। सब प्रकार की दवाईयाँ लेकर वे लौट आये, इस आश्वासन के साथ कि बीमारी मिल जाने पर ईलाज भी शीघ्र हो जायेगा।

आज, सिर्फ दस दिन बाद ही, 62 साल की उम्र में, बुली दास नहीं रहे। वो 'जीवित परम्परा' चली गई। पीछे छोड़ गई वो खनकती हुई हंसी जो मेरे कानों में आज भी गूँज रही है, वो सालों के अनुबद्ध और संग्रहित गाने, गाथायें, कथायें जो सिर्फ उनके समुदाय ही नहीं, अपितु आने वाली कई पीढ़ियों के काम आयेंगें और एक तीखे दर्द का एहसास जो समय के साथ बढ़ता ही जायेगा।

हमारे चारों ओर ऐसी कई 'जीवित परम्परायें' हैं जो हमेशा के लिए खो जाने के कगार पर हैं। उत्तराखण्ड की हर वादी में ऐसे व्यक्तित्व हैं जिन्होंने अपना जीवन अपने समुदाय की 'मौखिक परम्पराओं' को सुरक्षित और जीवित रखने में समर्पित कर दिया। यह उन्हें सिर्फ दक्ष ढ़ोल वादक और गायक के रुप में ही अमूल्य नहीं बनाता अपितु उस 'निरन्तरता' का संग्रहणी बनाता है जिसे हम संस्कृति कहते हैं। टिहरी रियासत से मिलने वाले प्रश्रय का खो जाना और लोगों का परम्परागत गीतों और ढ़ोलों के बजाय डी।जे। और ऑरकेस्ट्रा की धुनों में जादा रुचि लेना- इन सबके कारण इनका जीवनयापन एवं समुची परम्परा ही खतरे में है। यही समय है जब सरकार को जागकर प्रदेश की संस्कृति में इनके बहुमूल्य योगदान को पहचानना चाहिए एवं इस परम्परा को बचाने के लिए हर सम्भव प्रयास करने चाहिएं।

Thursday, December 25, 2008

क्रांतिकारी धारा के कवि ज्वालामुखी को विनम्र श्रद्धांजलि



सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी तेलुगू कवि,संस्कृतिकर्मी और मानवाधिकारवादी श्री ज्वालामुखी (वीर राघवाचारी) का गत 15 दिसंबर को 71वर्ष की आयु में हैदराबाद में देहान्त हो गया। श्री ज्वालामुखी आंध्रप्रदेश के क्रांतिकारी किसान आंदोलन का हिस्सा थे। श्रीकाकुलम,गोदावरी घाटी और तेलंगाना में सामंतवाद-विरोधी क्रांतिकारी वामपंथी किसान संघर्षों ने तेलुगू साहित्य में एक नई धारा का प्रवर्तन किया,ज्वालामुखी जिसके प्रमुख स्तंभों में से एक थे। 70 और 80 के दशक में जब इस आंदोलन पर भीषण दमन हो रहा था, उस समय सांस्कृतिक प्रतिरोध के नेतृत्वकर्ताओं में ज्वालामुखी अग्रणी थे.चेराबण्ड राजू,निखिलेश्वर, ज्वालामुखी आदि ने क्रांतिकारी कवि सुब्बाराव पाणिग्रही की शहादत से प्रेरणा लेते हुए युवा रचनाकारों का एक दल गठित किया.इस दल के कवि तेलुगू साहित्य में (1966-69 के बीच) दिगंबर कवियों के नाम से मशहूर हुए। नक्सलबाड़ी आंदोलन दलित और आदिवासियों के संघर्षशील जीवन से प्रभावित तेलुगू साहित्य-संस्कृति की इस नई धारा ने कविता, नाटक, सिनेमा सभी क्षेत्रों पर व्यापक असर डाला। ज्वालामुखी इस धारा के सशक्त प्रतिनिधि और सिद्धांतकार थे। वे जीवन पर्यन्त नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन से उपजी देशव्यापी सांस्कृतिक ऊर्जा को सहेजने में लगे रहे। वे इस सांस्कृतिक धारा के तमाम प्रदेशों में जो भी संगठन,व्यक्ति और आंदोलन थे उन्हें जोड़ने वाली कड़ी का काम करते रहे। हिंदी क्षेत्र में जन संस्कृति मंच के साथ उनका गहरा जुड़ाव रहा और उसके कई राष्ट्रीय सम्मेलनों को उन्होंने संबोधित किया। उनका महाकवि श्री श्री और क्रांतिकारी लेखक संगठन से भी गहरा जुड़ाव रहा।
ज्वालामुखी लंबे समय से जन संस्कृति मंच की राष्ट्रीय परिषद के मानद आमंत्रित सदस्य रहे। हिंदी भाषा और साहित्य से उनका लगाव अगाध था। उनके द्वारा लिखी हिंदी साहित्यकार रांगेय राघव की जीवनी पर उन्हें साहित्य अकादमी का सम्मान भी प्राप्त हुआ था। ज्वालामुखी अपनी हजारों क्रांतिकारी कविताओं के लिए तो याद किए ही जाएंगे, साथ ही अपनी कथाकृतियों के लिए भी जिनमें `वेलादिन मन्द्रम्´, `हैदराबाद कथालु´,`वोतमी-तिरगुबतु´अत्यंत लोकप्रिय हैं। वे लोकतांत्रिक अधिकार संरक्षण संगठन के नेतृत्वकर्ताओं में से थे तथा हिंद-चीन मैत्री संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी थे। उनकी मृत्यु क्रांतिकारी वामपंथी सांस्कृतिक धारा की अपूर्णीय क्षति है। जन संस्कृति मंच इस अपराजेय सांस्कृतिक योद्धा को अपना क्रांतिकारी सलाम पेश करता है।

मैनेजर पांडेय,राष्ट्रीय अध्यक्ष
जनसंस्कृति मंच

प्रणय कृष्ण,महासचिव,
जनसंस्कृति मंच

Saturday, September 20, 2008

उसे रवि शंकर का कैसेट चाहिए

हमारे दौर की महत्वपूर्ण लेखिका, जिन्होंने अपने लेखन से हिन्दी जगत में स्त्री विमर्श की धारा को एक खास मुकाम तक पहुंचाने मे पहलकदमी की, प्रभा खेतान, कल रात हृदय आघात के कारण हमसे विदा हो गयी हैं। यह खबर कवि एकांत श्रीवास्तव के मार्फत मिली है। प्रभा जी को याद करते हुए इतना ही कह पा रहा हूं कि उनके लेखन ने मुझे काफी हद तक प्रभावित किया है। युवा कथाकार नवीन नैथानी भी अपनी प्रिय लेखिका को याद कर रहे हैं -

उनका लिखा छिनमस्त्ता याद है, उसे रवि शंकर का कैसेट चाहिए भी एक यादगार रचना है। हंस के प्रकाशन के साथ ही प्रभा खेतान हिन्दी के प्रबुद्ध घराने में अपनी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति दिखा चुकी थीं। सार्त्र : शब्दों का मसीहा संभवत: हिन्दी में अस्तित्ववाद पर पहला गम्भीर एकेडमिक ग्रन्थ है। स्त्री उपेक्षिता के द्वारा तो प्रभा खेतान हिन्दी जगत में फेमिनिज़म की बहस को बहुत मजबूत डगर पर ले आयीं। उनकी आत्मकथा भी अपने बेबाक कहन के लिए हमेशा याद की जायेगी। उन्हें मेरी विनम्र श्रद्धांजली। -नवीन नैथानी



दलित धारा के चर्चित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्म्रतियों में कुछ ऐसे दर्ज हैं प्रभा खेतान :

प्रभा खेतान के दु:खद निधन के समाचार से एक पल के लिए तो मैं अवाक रह गया था। एक लेखिका के तौर पर छिनमस्ता या फिर अहिल्या जैसी रचनाओं की लेखिका और सिमोन की पुस्तक The Second Sex को हिन्दी में प्रस्तुत करने वाली लेखिका का अचानक हमारे बीच से चले जाना, एक तकलीफदेह घटना है। एक रचनाकार से ज्यादा मुझे उनका व्यक्तित्व हमेशा आकर्षित करता रहा। उनकी आत्मकथा अनन्या--- के माध्यम से एक ऐसी महिला से परिचय होता है जो परंपरावादी समाज से विद्राह करके अपने जीवन को अपने ही ढंग से जीती है और सामाजिक नैतिकताओं के खोखले आडम्बरों को उतार फेंकने में देर नहीं करती। अपने ही बल बूते पर एक बड़ा बिजनैश खड़ा करती हैं, प्रभा खेतान का यह रूप मुझे हमेशा आकर्षित करता रहा। वे अहिल्या की तरह शापित जीवन नहीं जीना चाहती थी। बल्कि मानवीय स्वतंत्रता की पक्षधर बनकर खड़ा होना, उनके जीवन का एक अहम हिस्सा था। यह उनकी रचनाओं में दृष्टिगाचर होता है और जीवन में भी। यानि कहीं भी कुछ ऐसा नहीं जिसे छिपा कर रखा जाये या फिर उस पर शर्मिंदा होना पड़े। प्रभा खेतान सिर्फ एक बड़ी रचनाकार ही न हीं एक बेहतर इन्सान के रूप में भी सामने आती हैं।
वे एक खाते-पीते समपन्न परिवार से थी। लेकिन जिस तरह से वे अपना जीवन जी उसमें कहीं भी इसकी झलक दिखायी नहीं देती। जिस समय हंस में छिनमस्ता धारावाहिक के रूप में छप रहा था, वह हिन्दी पाठकों के लिए एक अलग अनुभव लेकर आया था। प्रभा खेतान के अपने अनुभव और पारिवारिक सन्दर्भ इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में स्पष्ट दिखायी दे रहे थे, जो आगे चलकर उनकी आत्मकथा में भी दिखायी दिये। एक स्त्री के मन की आंतरिक उलझनों, वेदनाओं की अभिव्यक्ति जिस रूप्ा में प्रभा खेतान की रचनाओं से सामने आयी वह अपने आप में उल्लेखनीय हैं। सबसे ज्यादा वह इतना पारदर्शिता के साथ अभिव्यक्त हुआ कि हिन्दी पाठकों को अविश्वसनीय तक लगता है। क्योंकि हिन्दी पाठक की अभिरूचि में यह सब अकल्पनीय था। जीवन की गुत्थियों को कोई लेखिका इस रूप में भी प्रस्तुत कर सकती है, इसका विश्वास हिन्दी पाठक नहीं कर पा रहा था। ऐसी लेखिका और एक अच्छी इन्सान का इस तरह चुपके से चले जाना, दुखद है। अविश्वसनीय भी। मेरे लिए प्रभा खेतान की स्मृतियां कभी शेष नहीं होंगी।।। क्योंकि उनकी स्मृतियां, उनके अनुभव, उनकी रचना धर्मिता हमारे पास है, जो हमेशा रहेगी।


-ओमप्रकाश वाल्मीकि