Tuesday, January 30, 2024

हिंदी कविता की स्थापना का खूबसूरत खयाल है अलीक


 “अ ली क” कोलकाता से निकलने वाली एक अनियतकालीन पत्रिका है, जिसका संपादन कवि नील कमल करते हैं। हाल ही में इस पत्रिका का चौथा अंक जनवरी 2024 प्रकाशित हुआ है। अभी तक के अंकों को देखने पर यह कविता केंद्रित दिखायी देती है। अलीक का अंक 3 और सद्य प्रकाशित अंक 4 के साथ‌-साथ जीवन के एक छोटे से अंतराल में कवि नील कमल से रहे साक्षात सम्पर्क के हवाले से यह कह सकता हूं कि एक अच्छी कविता की तलाश नील कमल क शगल है। वे हमेशा ऐसी कविताओं के पास जाते हुए होते हैं जहां उन्हें एक खास तरह की निश्छलता दिखाई दे। और उस निश्छलता के दायरे में सिर्फ कविता ही नहीं, कवि का निजी जीवन भी हो। उस निश्छलता की परख वे नैतिकता और आदर्शों के स्तर पर करते हैं, विचाराधारा की बारीकी में नहीं। बल्कि थोड़ा और खुलासा हो तो कहा जा सकता है कि सृजन के उद्देश्यों में दुनिया की खुशहाली की वह संगति जिसको वस्तुनिष्ठता के साथ जांचा परखा जा सके। हालांकि आज के इस समय में जब नैतिकता और आदर्श ज्यादा वाचालता के साथ सिर्फ थोड़ा विश्वसनीय दिखने भर की कार्रवाई हुए जा रहे हैं, नील कमल की कोशिशों के परिणाम किस रूप में दिखेंगे, उन्हें वक्त के साथ ही देखना सम्भव हो सकेगा। फिर भी एक अच्छी कविता को तलाशने की उनकी कोशिश पर भरोसा किया जा सकता है। क्योंकि वे कविता को ही नहीं एक कवि को भी खरेपन के अपने पैमानों से तैयार बक्से में संजो लेते हैं। अलीक वह बक्सा ही नील कमल के भीतर एक अच्छी कविता को सामने लाने का एक जूनून है। यह जूनून ही उन्हें न सिर्फ अलीक निकालने को मजबूर करता है बल्कि कविताओं की आलोचना के रूप में प्रकाशित उनकी पुस्तक गद्य वद्य कुछ इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है।

हिंदी साहित्य की दुनिया से प्रेम करते हुए भी यदा कदा घटने वाली और दिख जाने वाली अंतर्विरोधी घटनाएं नील कमल को क्षुब्ध किये रहती हैं। उन स्थितियों से पार पाने वे लिए वे एक अच्छी कविता तक पहुंच जाने में सुकून महसूस करते हैं। इस जमाने में जब सम्पत्ति को जहां तहां से समेट लेने का पागलपन हावी हो रहा हो, अपने सुकून के लिए नील अपनी  मासिक आमद के एक हिस्से से कभी किताबे छपते हैं तो कभी पत्रिका। निजी स्रोतों से गैरव्यवसायिक ढंग का काम करने वाले लोगों को यदि तलाशा जाये तो हिंदी का नील कमल वहां ज्यादा मजबूती से खड़ा नजर आएगा। अलीक क यह अंक उन्हें अपनी जमीन को और सख्त बनाए रखने की राह दिखा रहा है। इसमें प्रकाशित कविताएं और आलोचनात्मक आलेख उल्लेखनीय है।  

अलीक के इस अंक में चार युवा कवियों की कविताएं हैं- प्रियदर्शी मातृशरण, उमा भगत, ललन चतुर्वेदी और पल्लवी मुखर्जी। प्रियदर्शी मातृशरण और उमा भगत की कविताओं से मुझे पहली बार अलीक-4 से ही परिचित होने का अवसर मिल रहा है। यह अच्छी बात है कि कवि प्रियदर्शी मातृशरण की कविता खुशामदी होने से ऐतराज करते हुए अपने होने के साथ रहना चाहती है लेकिन एक लोचा है कि खुशामद कराती सत्ता का बिम्ब वहां किसी “पुराने” कवि की आकृति पर अटका हुआ है। एक बार प्रियदर्शी मातृशरण की इस बात को मान ही लिया जाए कि “पुराने” कवि की स्वाद- कलिकाएं किसी उससे भी “पुराने” कवि के पद-तल में वास करती हों और यह भी कि जितना पीछे जाएं वह बेशक उतना ही पुराने कवि की इच्छाओं वाले तैल-चित्र नजर आएं तो भी नवाचार और मौलिकता का तकाजा तब ही माकूल है जब सत्ता की ट्रू पिक्चर बनती हो। निश्चित ही कवि प्रियदर्शी मातृशरण उस ट्रू पिक्चर को आकार देना जानते हैं वरना लोभियों के गांव से गुजरना गंवारा ना करते।

अपने समय को परिभाषित करना कला साहित्य का मुख्य विषय रहा है। लेकिन इस तरह परिभाषित करते रहने में एक बात यह भी दिखायी देती रही कि हर रचना में एक बहुत बड़ा हिस्सा अपने से पूर्व का यथावत आ गया और इसीलिए नये एवम मौलिक होने की कोशिश में वह उसी तर्ज के साथ आगे बढने लगा। यानि समय को परिभाषित करने की एक नयी पहल से आगे नहीं चला। इस तरह देखें तो कला साहित्य ने अपने को कुछ ऐसी सीमाओं में कैद करा लिया जिसको नैतिक और आदर्श से सम्पृक्त सामजिकी के सौंदर्य में जांचने परखना भी एक संकाय हो गया। प्रफुल्ल कोलख्यान का आलेख एक संकाय से आगे बढकर सिविल सोसाइटी को नहीं देख पा रहा है।    

 

“अ ली क” को सिर्फ एक पत्रिका भर नहीं कहा जा सकता है। दरअसल यह लीक से हट कर की जाने वाली एक ऐसी कार्रवाई है जिसके केंद्र में हिंदी कविता की स्थापना का खूबसूरत खयाल हमेशा मुख्य रहता है। विचार के स्तर पर एक प्रतिबद्ध नागरिक चेतना इस पत्रिका की सामाग्री का मुख्य लक्षण है।         

Monday, January 1, 2024

स्त्री के भय

  

वर्ष 2024 की शुरुआत कथाकार विद्या सिंह की कहानी "स्त्री मन के आवर्त" के साथ करते हुए यह सांझा करना अच्छा लग रहा है कि यदि रचनाकारों का समुचित सहयोग मिलता रहा तो इस पूरे वर्ष स्त्री मन के आवर्त को हर दृष्टिकोण से रखने की कोशिश की जाएगी। यानी वर्ष 2024 को हम "स्त्री मन" शीर्षक के साथ देखना चाहते हैं।


प्रस्तुत कहानी पर अलग से कोई टिप्पणी करने की बजाय कहानी आए कुछ सूत्रात्मक संदेशों, सवालों को यहां रखना ही पर्याप्त लग रहा है। 

"पुरुष आकृति में न जाने कौन सा रसायन मिला होता है कि सामने पड़ते ही आँखें अपने आप झुक जाती हैं।"


"स्त्री को हर समय कितने भय से गुज़रना पड़ता है इस पर भी एक पुस्तक लिखी जा सकती है। हर उम्र की स्त्री के अलग-अलग प्रकार के भय।"


स्त्री मन के आवर्त्त 

डॉ. विद्या सिंह 


डॉ. डिमरी के कमरे में जाने का इरादा बाँध कर निकले मेरे कदम दरवाजे पर ही ठिठक गए। अभी-अभी मैंने अपने कमरे को ताला लगा कर चाभी पर्स के हवाले की थी। अब मैं उस खिड़की पर हूं जो कोरिडोर में खुलती है। खिड़की का परदा खिसक गया है, अतः गरदन ज़रा सी टेढ़ी कर झांकने पर भीतर का दृश्य साफ़ दिखाई दे रहा है। कुर्सी पर बैठे-बैठे वह लगातार आगे-पीछे पेंडुलम की तरह हिल रहे हैं। लगता है नहाने धोने के बाद किसी देवी-देवता का पाठ कर रहे हैं। कल इतना ध्यान नहीं गया था किन्तु आज देख रही हूँ उनका सिर पीछे से काफ़ी गंजा है। उनका बायाँ गाल मेरी नज़रों के घेरे में है। वह इतना मोटा दिख रहा है जैसे गाल में कुछ दबा रखा हो, या कुछ चुभला रहे हों। हो सकता है उनके गालों की बनावट ही ऐसी हो, दूसरा गाल भी ऐसा ही हो। कल तो ऐसा कुछ भी नहीं लगा था लेकिन भरपूर नज़रों से देखा भी तो नहीं था। पुरुष आकृति में न जाने कौन सा रसायन मिला होता है कि सामने पड़ते ही आँखें अपने आप झुक जाती हैं। 

सुबह के आठ बजे हैं। अगल-बगल के सभी कमरे शान्त पड़े हैं, लगता नहीं है इनमें कोई है। डॉ. डिमरी ने बताया था होटल में कमरे तो कई लोगों ने लिए हैं लेकिन इस अवसर का उपयोग वे शहर के अपने मित्रों-रिश्तेदारों से मिलने में कर रहे हैं ।

मैं योगाभ्यास और प्राणायाम के बाद नहा धो कर नाश्ते पर जाने के लिए तैयार हो गई थी। सोचा डॉ. डिमरी से पूछ लूँ वह भी चलें, लेकिन उनकी कल की बातें याद कर उनके साथ जाने को दिल नहीं किया। अकेली चली जाती तो भी न मालूम वह क्या सोचते! इसीलिए रिसेप्शन पर पूछना बेहतर विकल्प लगा कि नाश्ता कमरे में आ सकता है क्या ? मैनेज़र ने असमर्थता ज़ाहिर कर दी फ़िर तो नीचे जाने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं बचा। डॉ. डिमरी के फोन के बाद कोई औचित्य नहीं बनता कि अकेली जाऊँ। साथ जाना ही ठीक रहेगा। इसीलिए उनके आने तक यहीं गैलरी में इन्तज़ार कर लूंगी।

इस बार फ़िर ‘हिन्दी-उर्दू अवार्ड कमिटी का अधिवेशन लखनऊ में है। पिछले कई सालों से डॉ. जोशी कार्यक्रम में भाग लेने के लिए आग्रह कर रहे थे लेकिन मेरी गृहस्थी मेरे पैरों में बेड़ियों की तरह पड़ी हुई है। मेरी रसोई मेरे जीवन का कितना बड़ा हिस्सा हज़म कर जाती है, कभी सोचती हूँ तो कोफ़्त होती है। दो बच्चों की परवरिश, नौकरी, रिश्ते-नाते हर समय चुनौती बन कर सामने खड़े होते हैं। बड़ी मुश्किल से पति को मना पाई थी। यह पहला मौका है जब मैं अकेली, पति और बच्चों के बिना, घर से निकली हूँ। पति और बच्चे स्टेशन पर छोड़ने आए थे। सोचा था बच्चियाँ रोएँगी लेकिन पति ने न जाने कौन सी पट्टी पढ़ाई कि दोनों खुशी खुशी ‘बाय मम्मी‘ करने लगीं। मेरा मन उमड़ने लगा था लेकिन मैंने अपने मन को थाम लिया। आँखें छलछला आईं पर जबरन होठों पर हँसी लाने की कोशिश की और जवाब में मैंने भी हाथ हिला दिया।

कल नियत समय से काफ़ी देर से ट्रेन लखनऊ पहुँची थी। होटल पहुँचते-पहुँचते नौ बज गए थे। मैं हड़बड़ाई सी रिसेप्शन पर पहुँची और अधिवेशन में शामिल होने की बात बताई।

‘‘आपका नाम मैडम?‘‘

‘‘डॉ. सुनीता‘‘ मैंने डाॅक्टर पर थोड़ा ज़ोर डालते हुए कहा ताकि मेरे व्यक्तित्व का उस पर कुछ रौब पड़े।

रिसेप्शनिस्ट ने मेज़ के दराज से सूचीपत्र निकाला और एक नाम के आगे रुक गया। मैं उसके चेहरे के बदलते भावों को बड़े गौर से देख रही थी। उसके माथे का तनाव समाप्त हो चुका था और ‘रूम नंबर 106‘ बोलते हुए उसने एक कार्डनुमा चाभी पकड़ा दी। मेरे चेहरे पर उभरे असमंजस को भाँप कर उसने मेरे साथ एक लड़का भेज दिया। ‘मैडम को कमरे तक छोड़ आओ।‘ लड़का मेरा सामान ले कर आगे-आगे और मैं उसके पीछे-पीछे। उसके बिना माँगे ही मैंने चाभी उसे दे दी। उसने कार्ड एक स्लाॅट में डाला और एक आवाज़ हुई, लड़के ने तभी हैंडिल घुमा दिया। मैं ध्यान से उसे दरवाजा खोलते देखती रही। मुझे उस समय अपने पति पर झुंझलाहट हुई थी। ‘हटो तुम्हारे वश का कुछ नहीं है‘ कह कर कुछ भी नया काम सीखने ही नहीं देते। आज कल ताले भी कैसे-कैसे आने लगे हैं?

 डॉ. डिमरी ने ‘ऊँ‘ का उच्चारण करते हुए अंगड़ाई ली हैै। लगता है उनका अनुष्ठान संपन्न हो गया है। मैं फिर उसी हिस्से से देख रही हूँ। वह अलमारी की ओर बढ़ रहे हैं शायद शर्ट पहनने जा रहे हैं, अभी तक तो बनियान में ही थे। मैं रेलिंग की ओर चली जाती हूँ। डॉ. डिमरी मुझे इस तरह अपने कमरे में झाँकते हुए देख लें तो मेरे बारे में न जाने क्या सोचेंगे!

कल के सेमीनार में डॉ. जोशी के अलावा मेरे लिए सभी चेहरे अपरिचित थे। मेरे पहुँचने तक पहला सत्र प्रारंभ हो चुका था। मैं चुपचाप एक खाली सीट पर बैठ गई थी। ग्यारह बजे बिस्कुट के साथ चाय मेज पर ही आ गई थी। एक बजे लंच के अवकाश में मैं डॉ. जोशी से मिली। उन्होंने मेरा परिचय अपने साथ के सज्जन से कराया,‘‘इनसे मिलिए, डॉ. डिमरी आपके प्रदेश से ही आए हैं।‘‘ सौजन्य में हम दोनों के हाथ जुड़े और मैं भोजन की मेज़ की ओर बढ़ गई। मेरी नज़रें किसी महिला प्रतिभागी को ढूँढ़ रही थीं, जिसके साथ सहज़ता से बातें कर सकूं। सेमीनार में महिलाएँ बहुत कम थीं मालूम हुआ जो हैं, वे भी लोकल हैं।

होटल वापस आने वालों में हम सिर्फ़ दो थे, मैं और डॉ. डिमरी।

 ‘‘नवम्बर की शाम कितनी छोटी होती है। देखिए अभी छह बजे हैं और चारों ओर अँधेरा पसर गया।‘‘ मेरे दिमाग में पहले से ही उधेड़ बुन चल रही थी, डॉ. डिमरी का वाक्य बहुत दूर से आता हुआ प्रतीत हुआ। होटल के लाउंज में घुसते ही मेरा दिल बैठने लगा। आस-पास कोई बसावट भी नहीं है। होटल शहर के एक छोर पर हाइवे के किनारे बना हुआ है। मेरा मन आशंकाओं से घिर गया।

अब देख रही हूँ इस समय सड़क पर गाड़ियाँ खूब चल रही हैं किन्तु कल तो लगा था कैसी भुतहा जगह पर रुकवा दिया डॉ. जोशी ने। 

हम रिसेप्शन पर पहुँचे तो देखा लड़का अपनी सीट पर बैठा-बैठा ऊँघ रहा था। ‘यह मैंने अपने आप को कहाँ फँसा दिया‘, मेरे भीतर से आवाज़ उठी थी। सीढ़ियाँ चढ़ते समय मुझे अपने दिल की धड़कन साफ़ सुनाई दे रही थी। मेरे पीछे डॉ. डिमरी थे। सीढ़ी पर चढ़ने से पहले हमारी अच्छी खासी बहस हो गई थी। मैं चाहती वह आगे चलें मैं निश्चिन्त भाव से उनके पीछे हो लूँ किन्तु उनकी ज़िद ‘आप महिला हैं पहले आप।‘ कहना चाहती थी महिला हूँ तभी तो आपको आगे चलने को कह रही हूँ। असल में वह मेरे भीतर की उस आशंका से अनभिज्ञ थे जो एक पुरुष के सान्निध्य में स्वयं उपजी थी। स्त्री होने के नाते हर समय चैकन्नी रहना पड़ता है। भीतर से बेतरह परेशान, बाहर से शान्त और संयत दिखने की हरचंद कोशिश में लगी, मुझे डर पत्ते की भाँति हिला रहा था। सीढ़ियाँ खत्म हुईं। लगभग पन्द्रह कदम दाहिने चलने पर कमरा नंबर एक सौ छह आ गया। यहाँ से गैलरी थोड़ी मुड़ गई है। अगला कमरा एक सौ आठ है जो डॉ. डिमरी को मिला है।

मैं दरवाजे पर रुक गई, वह आगे बढ़ गए थे। इस बीच मौसम के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार की बातचीत हमारे बीच नहीं हुई थी।

कमरे के भीतर आते ही मैंने दरवाजे की कुंडी चढ़ा दी। बाथरूम की खिड़की, दरवाजे की चटकनी, लाइट सब जाँचने-परखने के बाद मैं आश्वस्त हुई। पति ने आगाह किया था बाथरूम विशेष रूप से जाँच लेना। स्नान करती स्त्री बड़ी आकर्षक दिखती है, कहीं से कोई तुम्हारी फोटो न ले रहा हो। मैंने हँस कर उनकी बात को हलके में लेने का भ्रम पैदा किया था किन्तु एक डर तो छिप ही गया था। स्त्री को हर समय कितने भय से गुज़रना पड़ता है इस पर भी एक पुस्तक लिखी जा सकती है। हर उम्र की स्त्री के अलग-अलग प्रकार के भय।

साड़ी बदल कर सूट पहनने और गुनगुने पानी से पैर धोने के बाद बड़ी राहत मिली। बाथरूम में झक सफेद तौलिया फर्श पर बिछी देख एकबारगी पैर पोंछने का दिल न हुआ किन्तु मन ने टोका। ‘यह तुम्हारे घर की तौलिया थोड़े ही है कि तुम्हें धोनी पड़ेगी। यहाँ तो बिन्दास हो कर इस्तेमाल करो।‘

मैंने टी.वी. स्टार्ट कर दिया रिमोट हाथ में ले कर चैनेल बदलने के लिए बटन ढूँढ़ने लगी थी कि दरवाजे पर दस्तक हुई। मेरे पेट में बगूला सा उठा, शरीर में थरथराहट हुई किन्तु सारी हिम्मत गले में जुटा कर मैंने दृढ़ता से पूछा ‘कौन है?‘

‘‘मैं हूँ डिमरी खाने के लिए नीचे नहीं चलेंगी?‘‘ मेरी उछलती साँसों को मानो एक आधार मिल गया। ‘‘ चलूँगी मैंने मन और बेमन के बीच सन्तुलन बनाते हुए कहा। जेहन में सन्नाटे में सीढ़ियाँ दुबारा कौंध गईं।

इस बार फ़िर वही ‘पहले आप‘ ‘पहले आप‘ की लखनवी नफ़ासत वाला खेल खेला गया और अन्ततः मुझे ही आगे बढ़ना पड़ा। दो एक बार मैंने उन्हें सर कह कर संबोधित किया तो उन्होंने टोक दिया, ‘‘सर मत कहिए, डिमरी कहिए।‘‘ मुझे ‘डाॅक्टर साहब‘ कहना बेहतर विकल्प लगा। इस पर उन्हें भी कोई आपत्ति नहीं हुई।

खाना खा कर जब हम लौटे तो मुझे आश्चर्य में डालते हुए वह स्वयं आगे चलने लगे। मैं उन्हें पीछे से सीढ़ियाँ चढ़ते देख रही थी। उनका कमर का हिस्सा काफ़ी भारी लग रहा था।

मेरे कमरे के दरवाजे पर पहुँच कर वह ठिठक गए,‘‘अब आप क्या करेंगी?‘‘

‘‘अब थोड़ा पढ़ कर सोऊँगी।‘‘

‘‘क्या पढ़ेंगी?‘‘

‘‘कुछ विशेष नहीं, कल जो आलेख पढ़ना है, वही थोड़ा देखूँगी। ट्रेन में ढंग से नींद भी नहीं आई थी तो थोड़ी थकान भी है।‘‘

‘‘इसी उम्र में थकान?‘‘ डॉ. डिमरी हँसे। ‘‘अभी तो आप पैंतीस की भी नहीं होंगी।‘‘

‘‘हूँ क्यों नहीं, मैं चालीस की होने वाली हूँ।‘‘

‘‘अभी आप मुझसे बहुत छोटी हैं।‘‘ मेरे कन्धे पर उन्होंने एक धौल मारा जिससे मैं एकदम अचकचा गई। इतनी छूट लेने की इज़ाज़त इन्हें किसने दी?

इस बीच मैं कमरे का ताला खोल चुकी थी लेकिन असमंजस में दरवाजे पर ही खड़ी थी।

‘‘भीतर आने को नहीं कहेंगी?‘‘

‘‘हाँ हाँ आइए‘‘ सौजन्य वश मेरे मँुह से निकल गया।

मैं अभी सोफे से पत्रिका, तौलिया हटा कर उनके बैठने के लिए जगह बनाने ही लगी थी कि वह पैर लटका कर पलँग पर बैठ गए थे और अब अपने जूते उतार रहे थे। देखते-देखते वह लिहाफ़ पैरों पर डाल कर, पलँग के सिरहाने रखे तकिए का टेक लगा कर अधलेटे से हो गए और टी.वी. का रिमोट हाथ में ले कर चैनल बदलने लगे।

‘‘आप पहली बार यहाँ आई हैं इसीलिए सेमीनार को इतनी गंभीरता से ले रही हैं। बिल्कुल फ़िक्र मत कीजिए, पूरा पत्र पढ़ने के लिए समय नहीं मिलेगा। हाँ डॉ. जोशी से कह कर अपना आलेख सुबह के सत्र में पढ़ लीजिएगा दोपहर बाद शहर घूमने निकलेंगे।‘‘

मेरे भीतर गुस्से का ज्वार उमड़ रहा था, कैसा आदमी है? ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान।‘ इस बीच दरवाजा अपने आप भिड़ गया था। बन्द कमरे में पराए पुरुष के होने का एहसास मुझे चैन नहीं लेने दे रहा था। मां की नसीहत ‘‘सगे भाई के साथ भी एकान्त में चैकन्नी रहा करो। किसी का कोई भरोसा नहीं है कब उसके भीतर का जानवर बाहर आ जाए।‘‘ कानों में बज रही थी। भीतर से मैं अपने आप को हर परिस्थिति से लड़ने के लिए तैयार कर रही थी। मैंने शाॅल उठाई और पैरों पर डाल कर सोफे पर बैठ गई। ‘‘आप भी आ जाइए, डबल बेड का लिहाफ़ है काफ़ी लंबा-चैड़ा है।‘‘

डॉ. डिमरी की बात का मैंने कोई जवाब नहीं दिया।

मैं दोपहर से ले कर अब तक उनके साथ हुई बातचीत का एक-एक संवाद दोहराने लगी। मुझे अपने मुँह से निकला एक भी ऐसा वाक्य याद नहीं आ रहा था जिससे मेरे ऐसी-वैसी स्त्री होने की गुंजाइश बनी हो। अब मेरा ध्यान कमरे में फैली गंध पर गया। हो सकता है उन्होंने भोजन से पहले पी हो और अब उसी का सुरूर उन पर तारी हो। सुना था शराब पिए हुए आदमी की ताकत क्षीण हो जाती है अतः थोड़ी निश्चिंत हुई।

‘‘किस तरह की चीज़ें पढ़ना पसन्द करती हैं आप?‘‘ टी.वी. की आवाज धीमी कर वह मुझसे मुखातिब थे।

‘‘जी...कुछ भी , वैसे कहानियाँ पढ़ना ज्यादा पसन्द है।‘‘

‘‘मंटो की ‘खोल दो‘ कहानी के बारे में आप की क्या राय है?‘‘

‘‘काफी़ पहले पढ़ी थी। अब कुछ याद नहीं है।‘‘

‘‘याद नहीं है या आप भी उसे अश्लील समझती हैं। कमलेश्वर की ‘ठंडा गोश्त‘ क्या उम्दा कहानी है! साहित्य में श्लील-अश्लील का विभाजन मुझे बहुत गलत लगता है।‘‘

‘‘दर असल मुझे बहुत खुला चित्रण पसन्द नहीं है। वही बात शालीन तरीके से भी कही जा सकती है।‘‘

‘‘क्यों? सेक्स के प्रति आप इतनी आग्रहशील क्यों हैं? वह भी एक सामान्य भाव है। हम सेक्स को हव्वा क्यों बना देते हैं? यह बात मेरे समझ में नहीं आती।‘‘

अपने भीतर उग आए डर को नकारती हुई किसी भी स्थिति से दो चार होने के लिए मैं अपने भीतर नाखून उगाने लगी थी। कहीं पढ़ा था महिलाओं को पर्स में पिसी मिर्च रखनी चाहिए। काश मैंने भी रखा होता! क्या जाने उसकी नौबत आ ही जाए।

‘‘यह क्या है? कभी जल गई थीं क्या डॉ. सुनीता?‘‘डॉ. डिमरी ने मेरी कलाई में उस जगह उंगली गड़ा दी जहाँ जन्म से ही काला लक्षण है।

‘‘नहीं यह तो जन्मजात है।‘‘.....क्यों इस आदमी को झेले जा रही हो? क्यों नहीं सीधे-साीधे कह पातीं आप अपने कमरे में जाएँ प्लीज़। मेरे भीतर से सुन्नी बोल रही थी लेकिन डॉ. सुनीता ऐसा कैसे कह सकती थी? डॉ. डिमरी क्या सोचते ‘रह गई घरेलू की घरेलू। ऐसी पढ़ाई का क्या लाभ?‘

मेरा घर का नाम सुन्नी है। मैं बचपन से बहुत साफ़ बोलने वाली हूं। किन्तु नौकरी करके जाना कि सुन्नी किसी को कुछ भी बोल सकती है, डॉ. सुनीता नहीं। अपना बहुत कुछ छिपाना भी पड़ता है।

‘‘काॅफ़ी पिएँगी डॉ. सुनीता? नीचे से काॅफी मंगाई जाए।‘‘ और बिना मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए वह साइड टेबुल पर रखे फोन से रिसेप्शन का नंबर डायल करने लगे थे।

‘‘आप की लव मैरेज़ है या अरेंज्ड?‘‘रिसीवर सेट पर रख कर वह फिर अपनी पुरानी मुद्रा में आ गए थे।

‘‘अरेंज़्ड है।‘‘

‘‘मेरी भी अरेंज़्ड है।‘‘ उन्होंने लंबी साँस खींची,‘‘वैसे आप लोगों में ट्यूनिंग तो है न?‘‘

‘‘मतलब?‘‘ प्रश्न का आशय मैं समझ गई थी फ़िर भी अनजान बनते हुए पूछा।

‘‘मतलब आपके पति आपकी भावनाओं को समझते हैं न?‘‘

‘‘जी हाँ कोई परेशानी नहीं है।‘‘

‘‘आपको अकेले सेमीनार के लिए भेज दिया इसी से मालूम पड़ता है बड़े प्रोग्रेसिव हैं।‘‘

अब मैं निरुत्तर थी। अपने पति के बारे में बन आई उनकी धारणा मैं ध्वस्त नहीं करना चाहती थी। कितनी मुश्किल से मैं उनको राजी कर सकी थी, यह क्या जानें!

‘‘एक मेरी श्रीमती जी हैं किताबें उन्हें कूड़ा नज़र आती हैं।‘‘

‘‘वह क्यों?‘‘

‘‘पढ़ी लिखी जो नहीं हैं। छोटी उम्र की शादी का खामियाज़ा भुगत रहा हूँ। समझने वाला पार्टनर मिल जाए तो ज़िंदगी सँवर जाती है वरना.....‘‘.आगे बोलने की बजाय उन्होंने हाथ नकारात्मक मुद्रा में हिलाए।

‘जी हाँ वह तो है‘ मैंने उनकी बात का समर्थन किया।

लड़का काॅफी दे कर जा चुका था। ‘काॅफी पी कर नींद नहीं आएगी‘ मैं कहना चाहती थी, किन्तु चुपचाप मग हाथ में पकड़ लिया।

डॉ. जोशी काॅफी मग हाथ में पकड़े अपने भीतर डूबे हुए थे। शब्द किसी दूसरे लोक से आते लग रहे थे। ‘‘विश्वास बहुत बड़ी चीज होती है डॉ. सुनीता। कहने को हम स्त्री-पुरुष हैं लेकिन हमारा वैचारिक स्तर समान है। हम एक साथ एक बिस्तर पर रात बिता दें तो भी कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। पत्नी के सामने मैं किसी महिला मित्र से बात भी नहीं कर सकता। इतनी शंकालु है वह! आप का आत्मविश्वास मुझे पसन्द आया थैंक यू डॉ. सुनीता।‘‘

काॅफ़ी मग साइड टेबुल पर रख कर वह पैर लटका कर बैठ गए थे और जूता पहनने लगे थे। उनके जाते ही दरवाजे की कुंडी चढ़ा कर मैं धम्म से बिस्तर पर लेट गई। उनकी उपस्थिति की असहजता से मैं अभी तक आक्रान्त थी। लाइट बुझाए बिना मैं सोने का उपक्रम करने लगी।

सोचा था खूब देर तक सोऊँगी किन्तु पाँच बजे फ़ोन की घंटी बजी तो उठना ही पड़ा। फ़ोन डॅा़ डिमरी का था। मैंने अत्यन्त अप्रसन्नता में ‘हॅलो‘ कहा। ‘‘मुझे माफ़ करना डॉ. सुनीता मुझे कल तुम्हारे कमरे में पी कर नहीं आना चाहिए था। मैंने तुमसे क्या बकवास की मुझे कुछ याद नहीं है। साथ नाश्ते पर चलोगी तो समझूँगा तुमने मुझे क्षमादान दे दिया।‘‘

‘‘गुड माॅर्निंग कैसी हैं आप?‘‘ 

ख्यालों में खोई मैं डॉ. डिमरी की आवाज़ से चैंक गई हूं। वह कब मेरे पीछे आ कर खड़े हो गए जान ही नहीं पाई।

‘‘मैं अच्छी हूँ सर।‘‘

‘‘फिर सर।‘‘

‘‘कहने दीजिए सर इसमें सहूलियत है।‘‘ मेरे भीतर की सुन्नी खुश हो रही थी। चल ‘सर‘ ‘अंकल‘ एक ही बात है।  



77 प्रकाशविहार, धरमपुर, देहरादून

9897937292